कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

देवनागरी

​​
लेख:
देवनागरी लिपि कल, आज और कल  
संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
सत्ता और भाषा:   
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्व देश में मुग़ल सत्ता की जड़ें मजबूत करने के लिए अरबी-फारसी और स्थानीय बोलिओं के सम्मिश्रण से सैन्य छावनियों में विकसित हुई 'लश्करी' तथा सत्ता स्थापित हो जाने पर व्यापारियों के साथ कारोबार करने के लिए विकसित हुई बाजारू भाषा 'उर्दू' का प्रभुत्व प्रशासन पर रहा। अदालती और राजकीय कामकाज में उर्दू का बोलबाला होने से उर्दू पढ़े-लिखे लोगों की भाषा बनने लगी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य खड़ी बोली का अरबी-फारसी रूप ही लिखने-पढ़ने की भाषा होकर सामने आ रहा था। हिन्दी को इससे बड़ा आघात पहुँचा।हिन्दी वाले भी अपनी पुस्तकें फारसी में लिखने लगे थे, जिसके कारण देवनागरी अक्षरों का भविष्य ही खतरे में पड़ गया था। जैसा कि बालमुकुन्दजी की इस टिप्पणी से स्पष्ट होता है-
''जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिंदी भाषा हिंदी न रहकर उर्दू बन गयी। हिंदी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी-फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी।''
तब अनेक विचारक, साहित्यकार और समाजकर्मी हिन्दी और नागरी के समर्थन में मैदान में उतरे। हिंदी गद्य की भाषा का परिष्कार और परिमार्जन न हो पाने  भी पर वह खड़ी होने की प्रक्रिया में तो थी। मध्यकाल में अँग्रेज साम्राज्य की जड़ें मजबूत करने के लिए अँग्रेजी के प्रसार-प्रचार का सुव्यवस्थित अभियान चलाया गया। अभिजात्य वर्ग ने विदेशी संप्रभुओं से सादृश्य और सामीप्य की चाह में अंगरेजी पढ़ना-पढ़ाना आरंभ कर दिया। तथापि राष्ट्रीय चेतना का माध्यम हिंदुस्तानी और हिंदी बनने लगी। हिंदी के साथ ही देवनागरी लिपि का भी विकास होता रहा। कुछ प्रमुख कदम निम्न हैं- 
भाषा और राष्ट्रीय चेतना 
देवनागरी लिपि की जड़ें प्राचीन ब्राह्मी परिवार में हैं। गुजरात के कुछ शिलालेखों की लिपि, जो प्रथम शताब्दी से चौथी शताब्दी के बीच के हैं, नागरी लिपि से बहुत मेल खाती है। ७वीं शताब्दी और उसके बाद नागरी का प्रयोग लगातार देखा जा सकता है। सन् १७९६ ई०  में देवनागरी लिपि में मुद्राक्षर आधारित प्राचीनतम मुद्रण (जॉन गिलक्राइस्ट, हिंदुस्तानी भाषा का व्याकरण) कोलकाता से छपा। तब अनेक विचारक, साहित्यकार और समाजकर्मी हिन्दी और नागरी के समर्थन में मैदान में उतरे। हिंदी गद्य की भाषा का परिष्कार और परिमार्जन न हो पाने  भी पर वह खड़ी होने की प्रक्रिया में थी।  सन १८६७ आगरा और अवध राज्यों के कुछ हिंदुओं ने उर्दू के स्थान पर हिंदी को राजभाषा बनाये जाने की माँग की। सन १९६८ में बनारस के बाबू शिवप्रसाद ने 'इतिहास तिमिर नाशक' नामक पुस्तक में मुसलमान शासकों पर भारत के पर फारसी भाषा और लिपि थोपने का आरोप लगाया। सन् १८८१ में बिहार में उर्दू के स्थान पर देवनागरी में लिखी हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। सन् १८८४ में प्रयाग में महामना मदन मोहन मालवीय जी के प्रयास से हिंदी  हितकारिणी सभा की स्थापना की गई। सन् १८९३ ई.में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। मेरठ के पंडित गौरी दत्त ने सन् १८९४ न्यायालयों में देवनागरी लिपि के प्रयोग के लिए ज्ञापन दिया जो अस्वीकृत हो गया। २० अगस्त सन् १८९६ में राजस्व परिषद ने एक प्रस्ताव पारित किया कि सम्मन आदि की भाषा एवं लिपि हिंदी  होगी परन्तु यह व्यवस्था कार्य रूप में परिणित नहीं हो सकी। सन् १८९७ में नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा गठित समिति ने संयुक्त प्रांत में केवल देवनागरी को ही न्यायालयों की भाषा होने संबंधी माँग ६०,००० हस्ताक्षरों से युक्त प्रतिवेदन अंग्रेज सरकार को देकर की। १५ अगस्त सन् १९०० में  शासन ने निर्णय लिया कि उर्दू के अतिरिक्त नागरी लिपि को भी अतिरिक्त भाषा के रूप में व्यवहृत किया जाए।
न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्र ने १९०५ ई. में  लिपि विस्तार परिषद की स्थापना कर भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि (देवनागरी) को सामान्य लिपि के रूप में प्रचलित करने का प्रयास किया। १९०७ में 'एक लिपि विस्तार परिषद' के लक्ष्य को आंदोलन का रूप देते हुए शारदा चरण मित्र ने परिषद की ओर से 'देवनागर' नामक मासिक पत्र निकाला जो बीच में कुछ व्यवधान के बावजूद उनके जीवन पर्यन्त, यानी १९१७ तक निकलता रहा।१९३५ में काका कालेलकर की अध्यक्षता में नागरी लिपि सुधार समिति बनायी गयी। ९ सितंबर १९४९में संविधान के अनुच्छेद ३४३ में संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी निधारित की गयी। सन् १९७५ में आचार्य विनोबा भावे के सत्प्रयासों से नागरी लिपि परिषद्, नई दिल्ली की स्थापना हुई, जो नागरी संगम नामक त्रैमासिक पत्रिका निकालती है। 
भाषा और लिपि 
हिंदी और देवनागरी एक दूसरे से अभिन्न ही नहीं एक दूसरे का पर्याय बनकर तेजी से आगे बढ़ीं। भारत सरकार ने हिंदी के मानकीकरण तथा विकास हेतु सतत प्रयास किए।  संस्कृत, हिंदी, मराठी, उर्दू, सिंधी आदि को लिखने में प्रयुक्त देवनागरी में थोड़ा बहुत अंतर पाया जाता है। फारसी के प्रभावस्वरूप कुछ परंपरागत तथा नवागत ध्वनियों के लिए कुछ लोग नागरी में भी नुक्ते का प्रयोग करते हैं। मराठी लिपि के प्रभाव स्वरूप पुराने 'अ' के स्थान पर 'अ' या 'ओ' 'अु' आदि रूपों में सभी स्वरों के लिए 'अ' ही का प्रयोग होने लगा था। यह अब नहीं होता। अंग्रेजी शब्दों ऑफिस, कॉलेज जैसे शब्दों में ऑ का प्रयोग होने लगा हैं। उच्चारण के प्रति सतर्कता के कारण कभी-कभी हर्स्व ए, हर्स्व ओ को दर्शाने के लिए कुछ लोग (बहुत कम) ऍ, ऑ का प्रयोग करते है। यूनिकोड देवनागरी में सिंधी आदि अन्य भाषाओं को लिखने की सामर्थ्य के लिए कुछ नये 'वर्ण' भी सम्मिलित किए गये हैं (जैसे, ॻ ॼ ॾ ॿ) जो परंपरा गत रूप से देवनागरी में प्रयुक्त नहीं होते थे।
देवनागरी की उत्पत्ति 
नागरी' शब्द की उत्पत्ति के विषय में मतभेद है। कुछ लोग इसकाअर्थ 'नगर की' या 'नगरों में व्यवहत' करतेते हैं। गुजरात के नागर ब्राह्मण अपनी उत्पत्ति आदि के संबंध में स्कंदपुराण के नागर खण्ड का प्रमाण देते हैं। नागर खंड में चमत्कारपुर के राजा का वेदवेत्ता ब्राह्मणों को बुलाकर अपने नगर में बसाया। एक विशेष घटना के कारण चमत्कारपुर का नाम 'नगर' पड़ा और वहाँ जाकर बसे हुए ब्राह्मणों का नाम 'नागर'। नागर ब्राह्मण आधुनिक बड़नगर (प्राचीन आनंदपुर) को ही 'नगर' और अपना मूल स्थान बतलाते हैं। नागरी अक्षरों का नागर ब्राह्मणों से संबंध मानने पर मानना होगा कि ये अक्षर गुजरात नागरब्राह्मणों के साथ ही गए। गुजरात में दूसरी और सातवीं शताब्दी के बीच के बहुत से शिलालेख, ताम्रपत्र आदि मिले हैं जो ब्राह्मी और दक्षिणी शैली की पश्चिमी लिपि में हैं, नागरी में नहीं। 
गुर्जरवंशी राजा जयभट (तीसरे) का कलचुरि (चेदि) संवत् ४५६ (ई० स० ३९९) का ताम्रपत्र  सबसे पुराना प्रामाणिक लेख है जिसमें नागरी अक्षर भी हैं। यह ताम्रशासन अधिकांश गुजरात की तत्कालीन लिपि में है, केवल राजा के हस्ताक्षर (स्वहस्ती मम श्री जयभटस्य) उतरीय भारत की लिपि में हैं जो नागरी से मिलती जुलती है। गुजरात में जितने दानपत्र उत्तर भारत की अर्थात् नागरी लिपि में मिले हैं वे बहुधा कान्यकुब्ज, पाटलि, पुंड्रवर्धन आदि से लिए हुए ब्राह्मणों को ही प्रदत्त हैं। राष्ट्रकूट (राठौड़) राजाओं के प्रभाव से गुजरात में उतरीय भारत की लिपि विशेष रूप से प्रचलित हुई और नागर ब्राह्मणों के द्वारा व्यवहृत होने के कारण वह नागरी कहलाई। यह लिपि मध्य आर्यावर्त की थी जो सबसे सुगम, सुंदर और नियमबद्ध होने कारण भारत की प्रधान लिपि बन गई।
बौद्धों के प्राचीन ग्रंथ 'ललितविस्तर' में उन ६४ लिपियों के नाम गिनाए गए हैं जो बुद्ध को सिखाई गई, उनमें 'नागरी लिपि' नाम नहीं है, 'ब्राह्मी लिपि' नाम हैं। 'ललितविस्तर' का चीनी भाषा में अनुवाद ई० स० ३०८ में हुआ था। जैनों के 'पन्नवणा' सूत्र और 'समवायांग सूत्र' में १८ लिपियों के नाम दिए हैं जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) है। उन्हीं के भगवतीसूत्र का आरंभ 'नमो बंभीए लिबिए' (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) से होता है। नागरी का सबसे पहला उल्लेख जैन धर्मग्रंथ नंदीसूत्र में मिलता है जो जैन विद्वानों के अनुसार ४५३ ई० के पहले का बना है। 'नित्यासोडशिकार्णव' के भाष्य में भास्करानंद 'नागर लिपि' का उल्लेख करते हैं और लिखते हैं कि नागर लिपि' में 'ए' का रूप त्रिकोण है (कोणत्रयवदुद्भवी लेखो वस्य तत्। नागर लिप्या साम्प्रदायिकैरेकारस्य त्रिकोणाकारतयैब लेखनात्)। यह बात प्रकट ही है कि अशोकलिपि में 'ए' का आकार एक त्रिकोण है जिसमें फेरफार होते होते आजकल की नागरी का 'ए' बना है। शेषकृष्ण नामक पंडित ने, जिन्हें साढे़ सात सौ वर्ष के लगभग हुए, अपभ्रंश भाषाओं को गिनाते हुए 'नागर' भाषा का भी उल्लेख किया है।
सबसे प्राचीन लिपि भारतवर्ष में अशोक की पाई जाती है जो सिन्ध नदी के पार के प्रदेशों (गांधार आदि) को छोड़ भारतवर्ष में सर्वत्र बहुधा एक ही रूप की मिलती है। अशोक के समय से पूर्व अब तक दो छोटे से लेख मिले हैं। इनमें से एक तो नैपाल की तराई में 'पिप्रवा' नामक स्थान में शाक्य जातिवालों के बनवाए हुए एक बौद्ध स्तूप के भीतर रखे हुए पत्थर के एक छोटे से पात्र पर एक ही पंक्ति में खुदा हुआ है और बुद्ध के थोड़े ही पीछे का है। इस लेख के अक्षरों और अशोक के अक्षरों में कोई विशेष अंतर नहीं है। अतंर इतना ही है कि इनमें दार्घ स्वरचिह्नों का अभाव है। दूसरा अजमेर से कुछ दूर बड़ली नामक ग्राम में मिला हैं महावीर संवत् ८४ (= ई० स० पूर्व ४४३) का है। यह स्तंभ पर खुदे हुए किसी बड़े लेख का खंड है। उसमें 'वीराब' में जो दीर्घ 'ई' की मात्रा है वह अशोक के लेखों की दीर्घ 'ई' की मात्रा से बिलकुल निराली और पुरानी है। जिस लिपि में अशोक के लेख हैं वह प्राचीन आर्यो या ब्राह्मणों की निकाली हुई ब्राह्मी लिपि है। जैनों के 'प्रज्ञापनासूत्र' में लिखा है कि 'अर्धमागधी' भाषा। जिस लिपि में प्रकाशित की जाती है वह ब्राह्मी लिपि है'। अर्धमागधी भाषा मथुरा और पाटलिपुत्र के बीच के प्रदेश की भाषा है जिससे हिंदी निकली है। अतः ब्राह्मी लिपि मध्य आर्यावर्त की लिपि है जिससे क्रमशः उस लिपि का विकास हुआ जो पीछे नागरी कहलाई। मगध के राजा आदित्यसेन के समय (ईसा की सातवीं शताब्दी) के कुटिल मागधी अक्षरों में नागरी का वर्तमान रूप स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
ईसा की नवीं और दसवीं शताब्दी से तो नागरी अपने पूर्ण रूप में लगती है। किस प्रकार आशोक के समय के अक्षरों से नागरी अक्षर क्रमशः रूपांतरित होते होते बने हैं यह पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने 'प्राचीन लिपिमाला' पुस्तक में और एक नकशे के द्वारा स्पष्ट दिखा दिया है।
मि० शामशास्त्री ने भारतीय लिपि की उत्पत्ति के संबंध में एक नया सिद्धांत प्रकट किया है। उनका कहना कि प्राचीन समय में प्रतिमा बनने के पूर्व देवताओं की पूजा कुछ सांकेतिक चिह्नों द्वारा होती थी, जो कई प्रकार के त्रिकोण आदि यंत्रों के मध्य में लिखे जाते थे। ये त्रिकोण आदि यंत्र 'देवनगर' कहलाते थे। उन 'देवनगरों' के मध्य में लिखे जानेवाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न कालांतर में अक्षर माने जाने लगे। इसी से इन अक्षरों का नाम 'देवनागरी' पड़ा'।
लगभग ई. ३५० के बाद ब्राह्मी की दो शाखाएँ लेखन शैली के अनुसार मानी गई हैं। विंध्य से उत्तर की शैली उत्तरी तथा दक्षिण की (बहुधा) दक्षिणी शैली। उत्तरी शैली के प्रथम रूप का नाम "गुप्तलिपि" है। गुप्तवंशीय राजाओं के लेखों में इसका प्रचार था। इसका काल ईसवी चौथी पाँचवीं शती है। कुटिल लिपि का विकास "गुप्तलिपि" से हुआ और छठी से नवीं शती तक इसका प्रचलन मिलता है। आकृतिगत कुटिलता के कारण यह नामकरण किया गया। इसी लिपि से नागरी का विकास नवीं शती के अंतिम चरण के आसपास माना जाता है।
राष्ट्रकूट राजा "दंतदुर्ग" के एक ताम्रपत्र के आधार पर दक्षिण में "नागरी" का प्रचलन संवत् ६७५  (७५४ ई.) में था। वहाँ इसे "नंदिनागरी" कहते थे। राजवंशों के लेखों के आधार पर दक्षिण में १६ वीं शती के बाद तक इसका अस्तित्व मिलता है। देवनागरी (या नागरी) से ही "कैथी" (कायस्थों की लिपि), "महाजनी", "राजस्थानी" और "गुजराती" आदि लिपियों का विकास हुआ। प्राचीन नागरी की पूर्वी शाखा से दसवीं शती के आसपास "बँगला" का आविर्भाव हुआ। ११ वीं शताब्दी के बाद की "नेपाली" तथा वर्तमान "बँगला", "मैथिली", एवं "उड़िया", लिपियाँ इसी से विकसित हुई। भारतवर्ष के उत्तर पश्चिमी भागों में (जिसे सामान्यत: आज कश्मीर और पंजाब कहते हैं) ई. ८ वीं शती तक "कुटिललिपि" प्रचलित थी। कालांतर में ई. १० वीं शताब्दी के आस पास "कुटिल लिपि" से ही "शारदा लिपि" का विकास हुआ। वर्तमान कश्मीरी, टाकरी (और गुरुमुखी के अनेक वर्णसंकेत) उसी लिपि के परवर्ती विकास हैं।
दक्षिणी शैली की लिपियाँ प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उस परिवर्तित रूप से निकली है जो क्षत्रप और आंध्रवंशी राजाओं के समय के लेखों में, तथा उनसे कुछ पीछे के दक्षिण की नासिक, कार्ली आदि गुफाओं के लेखों में पाया जाता है। (भारतीय प्राचीन लिपिमाला)। निष्कर्षत: मूल रूप में "देवनागरी" का आदिस्रोत ब्राह्मी लिपि है। यह ब्राह्मी की उत्तरी शैली वाली धारा की एक शाखा है। गुप्तलिपि की भी पश्चिमी और पूर्वी शैली में स्वरूप अंतर है। पूर्वी शैली के अक्षरों में कोण तथा सिरे पर रेखा दिखाई पड़ने लगती है। इसे सिद्धमात्रिका कहा गया है। उत्तरी शाखा में गुप्तलिपि के अनन्तर कुटिल लिपि आती है। मंदसोर, मधुवन, जोधपुर आदि के "कुटिललिपि" कालीन अक्षर "देवनागरी" से काफी मिलते जुलते हैं। कुटिल लिपि से ही "देवनागरी" से काफी मिलते जुलते हैं।
देवनागरी लिपि मुस्लिम शासन के दौरान भी इस्तेमाल होती रही है। भारत की प्रचलित अतिप्राचीन लिपि देवनागरी ही रही है। विभिन्न मूर्ति-अभिलेखों, शिखा-लेखों, ताम्रपत्रों आदि में भी देवनागरी लिपि के सहस्राधिक अभिलेख प्राप्य हैं, जिनका काल खंड सन १००८  ई. के आसपास है। इसके पूर्व सारनाथ में स्थित अशोक स्तम्भ के धर्मचक्र के निम्न भाग देवनागरी लिपि में भारत का राष्ट्रीय वचन 'सत्यमेव जयते' उत्कीर्ण है। इस स्तम्भ का निर्माण सम्राट अशोक ने लगभग २५० ई. पूर्व में कराया था। मुसलमानों के भारत आगमन के पूर्व से, भारत की देशभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी या उसका रूपान्तरित स्वरूप था, जिसके द्वारा सभी कार्य सम्पादित किए जाते थे।
मुसलमानों के राजत्व काल के प्रारम्भ (सन १२०० ई) से सम्राट अकबर के राजत्व काल (१५५६ ई.-१६०५ ई.) के मध्य तक राजस्व विभाग में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का प्रचलन था। भारतवासियों की फारसी भाषा से अनभिज्ञता के बावजूद उक्त काल में, दीवानी और फौजदारी कचहरियों में फारसी भाषा और उसकी लिपि का ही व्यवहार था। यह मुस्लिम शासकों की मातृभाषा थी।
भारत में इस्लाम के आगमन के पश्चात कालान्तर में संस्कृत का गौरवपूर्ण स्थान फारसी को प्राप्त हो गया। देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भारतीय शिष्टों की शिष्ट भाषा और धर्मभाषा के रूप में तब कुंठित हो गई। किन्तु मुस्लिम शासक देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भाषा की पूर्ण उपेक्षा नहीं कर सके। महमूद गजनवी ने अपने राज्य के सिक्कों पर देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भाषा को स्थान दिया था।
औरंगजेब के शासन काल (१६५८ ई.- १७०७ ई.) में अदालती भाषा में परिवर्तन नहीं हुआ, राजस्व विभाग में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि ही प्रचलित रही। फारसी किबाले, पट्टे रेहन्नामे आदि का हिन्दी अनुवाद अनिवार्य ही रहा। औरंगजेब राजत्व काल औरंगजेब परवर्ती मुसलमानी राजत्व काल (१७०७ ई से प्रारंभ) एवं ब्रिटिश राज्यारम्भ काल (२३ जून १७५७ई. से प्रारंभ) में यह अनिवार्यता सुरक्षित रही। औरंगजेब परवर्ती काल में पूर्वकालीन हिन्दी नीति में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। ईस्ट इंडिया कम्पनी शासन के उत्तरार्ध में उक्त हिन्दी अनुवाद की प्रथा का उन्मूलन अदालत के अमलों की स्वार्थ-सिद्धि के कारण हो गया और ब्रिटिश शासकों ने इस ओर ध्यान दिया। फारसी किबाले, पट्टे, रेहन्नामे आदि के हिन्दी अनुवाद का उन्मूलन किसी राजाज्ञा के द्वारा नहीं, सरकार की उदासीनता और कचहरी के कर्मचारियों के फारसी मोह के कारण हुआ। इस मोह में उनका स्वार्थ संचित था। सामान्य जनता फारसी भाषा से अपरिचित थी। बहुसंख्यक मुकदमेबाज मुवक्किल भी फारसी से अनभिज्ञ ही थे। फारसी भाषा के द्वारा ही कचहरी के कर्मचारीगण अपना उल्लू सीधा करते थे।
शेरशाह सूरी ने अपनी राजमुद्राओं पर देवनागरी लिपि को समुचित स्थान दिया था। शुद्धता के लिए उसके फारसी के फरमान फारसी और देवनागरी लिपियों में समान रूप से लिखे जाते थे। देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी परिपत्र सम्राट अकबर (शासन काल १५५६ ई.- १६०५ ई.) के दरबार से निर्गत-प्रचारित किये जाते थे, जिनके माध्यम से देश के अधिकारियों, न्यायाधीशों, गुप्तचरों, व्यापारियों, सैनिकों और प्रजाजनों को विभिन्न प्रकार के आदेश-अनुदेश प्रदान किए जाते थे। इस प्रकार के चौदह पत्र राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर में सुरक्षित हैं। औरंगजेब परवर्ती मुगल सम्राटों के राज्यकार्य से सम्बद्ध देवनागरी लिपि में हस्तलिखित बहुसंख्यक प्रलेख उक्त अभिलेखागार में द्रष्टव्य हैं, जिनके विषय तत्कालीन व्यवस्था-विधि, नीति, पुरस्कार, दंड, प्रशंसा-पत्र, जागीर, उपाधि, सहायता, दान, क्षमा, कारावास, गुरुगोविंद सिंह, कार्यभार ग्रहण, अनुदान, सम्राट की यात्रा, सम्राट औरंगजेब की मृत्यु सूचना, युद्ध सेना-प्रयाण, पदाधिकारियों को सम्बोधित आदेश-अनुदेश, पदाधिकारियों के स्थानान्तरण-पदस्थानपन आदि हैं।
मुगल बादशाह हिन्दी के विरोधी नहीं, प्रेमी थे। अकबर (शासन काल १५५६ ई0- १६०५ ई.) जहांगीर (शासन काल १६०५  ई.- १६२७ ई.), शाहजहां (शासन काल १६२७ ई.- १६५८ ई.) आदि अनेक मुगल बादशाह हिन्दी के अच्छे कवि थे।
मुगल राजकुमारों को हिन्दी की भी शिक्षा दी जाती थी। शाहजहां ने स्वयं दाराशिकोह और शुजा को संकट के क्षणों में हिंदी भाषा और हिन्दी अक्षरों में पत्र लिखा था, जो औरंगजेब के कारण उन तक नहीं पहुंच सका। आलमगीरी शासन में भी हिन्दी को महत्व प्राप्त था। औरंगजेब ने शासन और राज्य-प्रबंध की दृष्टि से हिन्दी-शिक्षा की ओर ध्यान दिया और उसका सुपुत्र आजमशाह हिन्दी का श्रेष्ठ कवि था। मोजमशाह शाहआलम बहादुर शाह जफर (शासन काल १७०७ -१७१२ ई.) का देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी काव्य प्रसिद्ध है। मुगल बादशाहों और मुगल दरबार का हिन्दी कविताओं की प्रथम मुद्रित झांकी 'राग सागरोद्भव संगीत रागकल्पद्रुम' (१८४२-४३ई.), शिवसिंह सरोज आदि में सुरक्षित है।
 "देवनागरी" के आद्यरूपों का निरन्तर थोड़ा बहुत रूपांतर होता गया जिसके फलस्वरूप आज का रूप सामने आया। भारत सरकार का भाष संचालनालय हिंदी भाषा के मानकीकरण हेतु निरंतर प्रयास रत है। हिंदी के प्रति अन्य देशों के निरंतर बढ़ते आकर्षण और वैज्ञानिक-तकनीकी विषयों को हिंदी में अभिव्यक्त करने के लिए भाषा और लिपि को अधिक परिष्कृत और समृद्ध करने की आवश्यकता है।  
                                                                                                                                          (संजीव वर्मा 'सलिल')
                                                                                                                            २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
                                                                                                                        जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ 
                                                                                                                                 salil.sanjiv@gmail.com
                                                                               



तकनीकी आलेख कागनेटिव रेडियो शोभित वर्मा

तकनीकी आलेख 
कागनेटिव रेडियो
शोभित वर्मा 
*
आज के इस आधुनिक युग में दूरसंचार के उपकरणों का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है। इन उपकरणों के द्वारा सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने के लिये वायरलैस माध्यमों द्वारा उपयोग किया जाता है। कई विकसित तकनीकें जैसे वाय-फाय, बलूटूथ आदि इस क्षेत्र में उपयोग की जा रही हैं।
इन सभी वायरलैस तकनीकों को साथ में उपयोग में लाने के कारण स्पेकट्रम की अनउपलब्धता एक बड़ी समस्या का रूप लेती जा रही है। वास्तव में स्पेकट्रम को लाइसेंस्ड उपयोगकर्ता ही उपयोग करता है। यह सुनिश्चित किया जाता है कि स्पेक्ट्रम का उपयोग केवल लाइसेंस्ड उपयोगकर्ता ही कर सके। इस कारण स्पेकट्रम का एक बहुत बड़ा हिस्सा अनुपयोगी ही रह जाता है। स्पेकट्रम का आवंटन सरकार की नीतियों के अनुसार किया जाता
है।
इस समस्या के निराकरण हेतु 1999 में जे. मितोला ने कागनेटिव रेडियो का सिंद्धात प्रस्तुत किया। कागनेटिव रेडियो सिंद्धात के अनुसार जब भी लाइसेंस्ड उपयोगकर्तो स्पेकट्रम का उपयोग न कर रहा ही ऐसे समय में अनलाइसेंस्ड उपभोक्र्ता उस स्पेकट्रम का उपयोग कर सकता है और जैसे ही लाइसेंस्ड उपयोगकर्ता की वापसी होगी, अनलाइसेंस्ड उपयोगकर्ता किसी दूसरे खाली स्पेकट्रम की सहायता से अपना कार्य करने लगेगा। यह प्रक्रिया इस तरह चलती रहेगी जब तक सूचना का आदान-प्रदान नहीं हो जाता।
कागनेटिव रेडियो के बहुत से आयाम हैं जैसे कि स्पेकट्रम सेंसिग, स्पेकट्रम शेयरिंग, स्पेकट्रम मोबीलिटी आदि । हर आयाम अपने आप में शोध का विषय है। कागनेटिव रेडियो पर बहुत से शोध कार्य राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे हैं । अभी भी इस तकनीक को जमीनी स्तर पर लागू कर पाने में बहुत सी समस्याओं का सामाना करना पड़ रहा है। प्रयास यह भी हो रहे है कि कागनेटिव वायरलैस सेंसर नेटवर्क का विकास किया जाये ताकि वायरलैस संचार के क्षेत्र में प्रगति की जा सके।
भारत में भी इस विषय पर काफी कार्य हो रहा है। यहाँ तक कि इंजीनियरिंग पाठयक्रमों में भी इस विषय को पढ़ाया जा रहा है । यह एक सरहानीय प्रयास है युवा अभियंताओं में इस विषय पर रूचि जगाने का ताकि वह आगे चल कर इस तकनीक को और विकसित करने हेतु प्रयास कर सकें ।

नवगीत घमासान जारी है

एक गीत 
*
सरहद से 
संसद तक 
घमासान जारी है 
*
सरहद पर आँखों में
गुस्सा है, ज्वाला है.
संसद में पग-पग पर
घपला-घोटाला है.
जनगण ने भेजे हैं
हँस बेटे सरहद पर.
संसद में.सुत भेजें
नेता जी या अफसर.
सरहद पर
आहुति है
संसद में यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर धांय-धांय
जान है हथेली पर.
संसद में कांव-कांव
स्वार्थ-सुख गदेली पर.
सरहद से देश को
मिल रही सुरक्षा है.
संसद को देश-प्रेम
की न मिली शिक्षा है.
सरहद है
जांबाजी
संसद ऐयारी है
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर ध्वज फहरे
हौसले बुलंद रहें.
संसद में सत्ता हित
नित्य दंद-फंद रहें.
सरहद ने दुश्मन को
दी कड़ी चुनौती है.
संसद को मिली
झूठ-दगा की बपौती है.
सरहद जो
रण जीते
संसद वह हारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
***
२७-२-२०१८

गीत मानव और लहर

एक रचना : 
मानव और लहर 
संजीव 
*
लहरें आतीं लेकर ममता, 
मानव करता मोह
क्षुब्ध लौट जाती झट तट से,
डुबा करें विद्रोह
*
मानव मन ही मन में माने,
खुद को सबका भूप
लहर बने दर्पण कह देती,
भिक्षुक! लख निज रूप
*
मानव लहर-लहर को करता,
छूकर सिर्फ मलीन
लहर मलिनता मिटा बजाती
कलकल-ध्वनि की बीन
*
मानव संचय करे, लहर ने
नहीं जोड़ना जाना
मानव देता गँवा, लहर ने
सीखा नहीं गँवाना
*
मानव बहुत सयाना कौआ
छीन-झपट में ख्यात
लहर लुटाती खुद को हँसकर
माने पाँत न जात
*
मानव डूबे या उतराये
रहता खाली हाथ
लहर किनारे-पार लगाती
उठा-गिराकर माथ
*
मानव घाट-बाट पर पण्डे-
झण्डे रखता खूब
लहर बहाती पल में लेकिन
बच जाती है दूब
*
'नानक नन्हे यूँ रहो'
मानव कह, जा भूल
लहर कहे चंदन सम धर ले
मातृभूमि की धूल
*
'माटी कहे कुम्हार से'
मनुज भुलाये सत्य
अनहद नाद करे लहर
मिथ्या जगत अनित्य
*
'कर्म प्रधान बिस्व' कहता
पर बिसराता है मर्म
मानव, लहर न भूले पल भर
करे निरंतर कर्म
*
'हुईहै वही जो राम' कह रहा
खुद को कर्ता मान
मानव, लहर न तनिक कर रही
है मन में अभिमान
*
'कर्म करो फल की चिंता तज'
कहता मनुज सदैव
लेकिन फल की आस न तजता
त्यागे लहर कुटैव
*
'पानी केरा बुदबुदा'
कह लेता धन जोड़
मानव, छीने लहर तो
डूबे, सके न छोड़
*
आतीं-जातीं हो निर्मोही,
सम कह मिलन-विछोह
लहर, न मानव बिछुड़े हँसकर
पाले विभ्रम -विमोह
*

समीक्षा भूदर्शन श्यामलाल उपाध्याय

पुस्तक चर्चा
भू दर्शन संग काव्यामृत वर्षण 
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय- भू दर्शन, पर्यटन काव्य, आचार्य श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१६, आकार २२ से. मी. x १४.५ से.मी., सजिल्द जैकेट सहित, आवरण दोरंगी, पृष्ठ १२०, मूल्य १२०/-, भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/२ ज्योतिष राय मार्ग, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३।]
*
परम पिता परमेश्वर से साक्षात का सरल पथ प्रकृति पटल से ऑंखें चार करना है. यह रहस्य श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हिंदीविद कविगुरु आचार्य श्यामलाल उपाध्याय से अधिक और कौन जान सकता है? शताधिक काव्यसंकलनों की अपने रचना-प्रसाद से शोभा-वृद्धि कर चुके कवि-ऋषि ८६ वर्ष की आयु में भी युवकोचित उत्साह से हिंदी मैया के रचना-कोष की श्री वृद्धि हेतु अहर्निश समर्पित रहते हैं। काव्याचार्य, विद्यावारिधि, साहित्य भास्कर, साहित्य महोपाध्याय, विद्यासागर, भारतीय भाषा रत्न, भारत गौरव, साहित्य शिरोमणि, राष्ट्रभाषा गौरव आदि विरुदों से अलंकृत किये जा चुके कविगुरु वैश्विक चेतना के पर्याय हैं। वे कंकर-कंकर में शंकर का दर्शन करते हुए माँ भारती की सेवा में निमग्न शारदसुतों के उत्साहवर्धन का उपक्रम निरन्तर करते रहते हैं। प्राचीन ऋषि परंपरा का अनुसरण करते हुए अवसर मिलते ही पर्यटन और देखे हुए को काव्यांकित कर अदेखे हाथों तक पहुँचाने का सारस्वत अनुष्ठान है भू-दर्शन।

कृति के आरम्भ में राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व शीर्षकान्तर्गत प्रकाशित दोहे विश्व वाणी हिंदी के प्रति कविगुरु के समर्पण के साक्षी हैं। 
घर-बाहर हिंदी चले, राह-हाट-बाजार। 
गाँव नगर हिंदी चले, सात समुन्दर पार।।

आचार्य उपाध्याय जी सनातन रस परंपरा के वाहक हैं। भामह, वामन, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि संस्कृत आचार्यों से रस ग्राहिता, खुसरो, कबीर, रैदास आदि से वैराग्य, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ, नगेन्द्र आदि से भाषिक निष्ठा तथा पंत, निराला, महादेवी आदि से छंद साधना ग्रहण कर अपने अपनी राह आप बनाने का महत और सफल प्रयास किया है। छंद राज दोहा कवि गुरु का सर्वाधिक प्रिय छंद है। गुरुता, सरलता, सहजता, गंभीरता तथा सारपरकता के पंच तत्व कविगुरु और उनके प्रिय छंद दोनों का वैशिष्ट्य है। 'नियति निसर्ग' शीर्षक कृति में कवि गुरु ने राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक समरसता, वैश्विक समन्वय, मानवीय सामंजस्य, आध्यात्मिक उत्कर्ष, नागरिक कर्तव्य भाव, सात्विक मूल्यों के पुनरुत्थान, सनातन परंपरा के महत्व स्थापन आदि पर सहजग्राह्य अर्थवाही दोहे कहे हैं. इन दोहों में संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, सारगर्भितता, अभिव्यंजना, तथा आनुभूतिक सघनता सहज दृष्टव्य है।
विवेच्य कृति भूदर्शन कवि गुरु के धीर-गंभीर व्यक्तित्व में सामान्यतः छिपे रहनेवाले प्रकृति प्रेमी से साक्षात् कराती है। उनके व्यक्तित्व में अन्तर्निहित यायावर से भुज भेंटने का अवसर सुलभ कराती यह कृति व्यक्तित्व के अध्ययन की दृष्टि से महती आवश्यकता की पूर्ति करती है तथा शोध छात्रों के लिए महत्वपूर्ण है। भारतीय ऋषि परंपरा खुद को प्रकृति पुत्र कटी रही है, कविगुरु ने बिना घोषित किये ही इस कृति के माध्यम से प्रकृति माता को शब्द-प्रणाम निवेदित कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।
आत्म निवेदन (पदांत बंधन मुक्त महातैथिक जातीय छंद) तथा चरण धूलि चन्दन बन जाए (यौगिक जातीय कर्णा छंद) शीर्षक रचनाओं के माध्यम से कवि ने ईश वंदना की सनातन परंपरा को नव कलेवर प्रदान किया है। कवि के प्रति (पदांत बंधन मुक्त महा तैथिक जातीय छंद) में कवि गुरु प्रकृति और कवि के मध्य अदृश्य अंतर्बंध को शब्द दे सके हैं। पर्यावरण शीर्षक द्विपदीयों में कवि ने पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रति चिंता व्यक्त की है। मूलत: शिक्षक होने के कारण कवि की चिंता चारित्रिक पतन और मानसिक प्रदूषण के प्रति भी है। आत्म विश्वास, नियतिचक्र, कर्तव्य बोध, कुंठा छोडो, श्रम की महिमा, दीप जलाएं दीप जैसी रचनाओं में कवि पाठकों को आत्म चेतना जाग्रति का सन्देश देता है। श्रमिक, कृषक, अध्यापक, वैज्ञानिक, रचनाकार, नेता और अभिनेता अर्थात समाज के हर वर्ग को उसके दायित्व का भान करने के पश्चात् कवि प्रभु से सर्व कल्याण की कामना करता है-
चिर आल्हाद के आँसू
धो डालें, समस्त क्लेश-विषाद
रचाएँ, एक नया इतिहास
अजेय युवक्रांति का
कुलाधिपति राष्ट्र का।

सप्त सोपान में भी 'भारती उतारे स्वर्ग भूमा के मन में' कहकर कवि विश्व कल्याण की कामना करता है। व्यक्ति से समष्टि की छंटन परक यात्रा में राष्ट्र से विश्व की ओर ऊर्ध्वगमन स्वाभाविक है किन्तु यह दिशा वही ग्रहण कर सकता जो आत्म से परमात्म के साक्षात् की ओर पग बढ़ा रहा हो। कविगुरु का विरुद ऐसे ही व्यक्तित्व से जुड़कर सार्थक होता है।
विवेच्य कृति में अतीत से भविष्य तक की थाती को समेटने की दिशा उन रचनाओं में भी हैं जो मिथक मान लिए गए महामानवों पर केन्द्रित हैं। ऐसी रचनाओं में कहीं देर न हो जाए, भारतेंदु हरिश्चंद्र, भवानी प्रसाद मिश्र, महाव्रत कर्ण पर), तथा बुद्ध पर केन्द्रित रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। तुम चिर पौरुष प्रहरी पूरण रचना में कवी भैरव, नृसिंह परशुराम के साथ प्रहलाद, भीष्म, पार्थ, कृष्ण, प्रताप. गाँधी पटेल आदि को जोड़ कर यह अभिव्यक्त करते हैं कि महामानवों की तहती वर्तमान भी ग्रहण कर रहा है। आवश्यकता है कि अतीत का गुणानुवाद करते समय वर्तमान के महत्व को भी रेखांकित किया जाए अन्यथा भावी पीढ़ी महानता को पहचान कर उसका अनुकरण नहीं कर सकेगी।
इस कृति को सामान्य काव्य संग्रहों से अलग एक विशिष्ट श्रेणी में स्थापित करती हैं वे रचनाएँ जो मानवीय महत्त्व के स्थानों पर केन्द्रित हैं. ऐसी रचनाओं में वाराणसी के विश्वनाथ, कलकत्ता की काली, तीर्थस्थल, दक्षिण पूर्व, मानसर, तिब्बत, पूर्वी द्वीप, पश्चिमी गोलार्ध, अरावली क्षेत्र, उत्तराखंड, नर्मदा क्षेत्र, रामेश्वरम, गंगासागर, गढ़वाल, त्रिवेणी, नैनीताल, वैटिकन, मिस्र, ईराक आदि से सम्बंधित रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में अंतर्निहित सनातनता, सामयिकता, पर्यावरणीय चेतना, वैश्विकता तथा मानवीय एकात्मकता की दृष्टि अनन्य है।
संत वाणी, प्रीति घनेरी, भज गोविन्दम, ध्यान की महिमा, धर्म का आधार, गीता का मूल स्वरूप तथा आचार परक दोहे कवि गुरु की सनातन चिंतन संपन्न लेखन सामर्थ्य की परिचायक रचनाएँ हैं। 'जीव, ब्रम्ह एवं ईश्वर' आदि काल से मानवीय चिंतन का पर्याय रहा है। कवि गुरु ने इस गूढ़ विषय को जिस सरलता-सहजता तथा सटीकता से दोहों में अभिव्यक्त किया है, वह श्लाघनीय है-
घट अंतर जल जीव है, बाहर ब्रम्ह प्रसार 
घट फूटा अंतर मिटा, यही विषय का सार

यह अविनाशी जीव है, बस ईश्वर का अंश 
निर्मल अमल सहज सदा, रूप राशि अवतंश

देही स्थित जीव में, उपदृष्टा तू जान 
अनुमन्ता सम्मति रही, धारक भर्ता मान

शुद्ध सच्चिदानन्दघन, अक्षर ब्रम्ह विशेष 
कारण वह अवतार का जन्मन रहित अशेष 
[अक्षर ब्रम्ह में श्लेष अलंकार दृष्टव्य]

यंत्र रूप आरुढ़ मैं, परमेश्वर का रूप 
अन्तर्यामी रह सदा, स्थित प्राणी स्वरूप

भारतीय चिंतन और सामाजिक परिवेश में नीतिपरक दोहों का विशेष स्थान है। कविगुरु ने 'आचारपरक दोहे' शीर्षक से जन सामान्य और नव पीढ़ी के मार्गदर्शन का महत प्रयास इन दोहों में किया है। श्रीकृष्ण ने गीता में 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर चरों वर्णों के मध्य एकता और समता के जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कविगुरु ने स्वयं 'ब्राम्हण' होते हुए भी उसे अनुमोदित किया है-
व्यक्ति महान न जन्म से, कर्म बनाता श्रेष्ठ 
राम कृष्ण या बुद्ध हों, गुण कर्मों से ज्येष्ठ

लगता कोई विज्ञ है, आप स्वयं गुणवान 
गुणी बताते विज्ञ है, कहीं अन्य मतिमान

लोक जीतकर पा लिया, कहीं नाम यश चाह 
आत्म विजेता बन गया, सबके ऊपर शाह

विभिन्न देशों में हिंदी विषयक दोहे हिंदी की वैश्विकता प्रमाणित करते हैं. इन दोहों में मारीशस, प्रशांत, त्रिनिदाद, सूरीनाम, रोम, खाड़ी देश, स्विट्जरलैंड, फ़्रांस, लाहौर, नेपाल, चीन, रूस, लंका, ब्रिटेन, अमेरिका आदि में हिंदी के प्रसार का उल्लेख है। आधुनिक हिंदी के मूल में रही शौरसेनी, प्राकृत, आदि के प्रति आभार व्यक्त करना भी कविगुरु नहीं भूले।
इस कृति का वैशिष्ट्य आत्म पांडित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण कर, जन सामान्य से संबंधित प्रसंगों और विषयों को लेकर गूढ़ चिन्तन का सार तत्व सहज, सरल, सामान्य किन्तु सरस शब्दावली में अभिवयक्त किया जाना है। अतीत को स्मरण कर प्रणाम करती यह कृति वर्तमान की विसंगतियों के निराकरण के प्रति सचेत करती है किन्तु भयावहता का अतिरेकी चित्रण करने की मनोवृत्ति से मुक्त है। साथ ही भावी के प्रति सजग रहकर व्यक्तिगत, परिवारगत, समाजगत, राष्ट्र्गत और विश्वगत मानवीय आचरण के दिशा-दर्शन का महत कार्य पूर्ण करती है। इस कृति को जनसामान्य अपने दैनंदिन जीवन में आचार संहिता की तरह परायण कर प्रेरणा ग्रहण कर अपने वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को अर्थवत्ता प्रदान कर सकता है। ऐसी चिन्तन पूर्ण कृति, उसकी जीवंत-प्राणवंत भाषा तथा वैचारिक नवनीत सुलभ करने के लिए कविगुरु साधुवाद के पात्र हैं। आयु के इस पड़ाव पर महत की साधना में कुछ अल्प महत्व के तत्वों पर ध्यान न जाना स्वाभाविक है। महान वैज्ञानिक सर आइजेक न्यूटन बड़ी बिल्ली के लिए बनाये गए छेद से उसके बच्चे की निकल जाने का सत्य प्रथमत: ग्रहण नहीं कर सके थे। इसी तरह कविगुरु की दृष्टि से कुछ मुद्रण त्रुटियाँ छूटना अथवा दो भिन्न दोनों के पंक्तियाँ जुड़ जाने से कहीं-कहीं तुकांत भिन्नता हो जाना स्वाभाविक है। इसे चंद्रमा के दाग की तरह अनदेखा किया जाकर कृति में सर्वत्र व्याप्त विचार अमृत का पान कर जीवन को धन्य करना ही उपयुक्त है। कविगुरु के इस कृपा-प्रसाद को पाकर पाठक धन्यता अन्नुभाव करे यह स्वाभाविक है।
------------------
-समन्वयम, विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
+++++++++++++++++

नवगीत सूरज

नवगीत:
संजीव
.
सूरज 
मुट्ठी में लिये, 
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
.
महुआ महका,
टेसू दहका,
अमुआ बौरा खूब.
प्रेमी साँचा,
पनघट नाचा,
प्रणय रंग में डूब.
अमराई में,
खलिहानों में,
तोता-मैना झूम
गुप-चुप मिलते,
खुस-फुस करते,
सबको है मालूम.
चूल्हे का
दिल भी हुआ
हाय! विरह से लाल.
कुटनी लकड़ी
जल मरी
सिगड़ी भई निहाल.
सूरज
मुट्ठी में लिये,
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
.
सड़क-इमारत
जीवन साथी
कभी न छोड़ें हाथ.
मिल खिड़की से,
दरवाज़े ने
रखा उठाये माथ.
बरगद बब्बा
खों-खों करते
चढ़ा रहे हैं भाँग.
पीपल भैया
शेफाली को
माँग रहे भर माँग.
उढ़ा
चमेली को रहा,
चम्पा लकदक शाल.
सदा सुहागन
छंद को
सजा रही निज भाल.
सूरज
मुट्ठी में लिये,
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
२६.२.२०१५
*

शिवताण्डवस्तोत्र

रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
*
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शव नंदन-वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धरें कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधन सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विक्राक सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम|| २||
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पा र्लाहरा रहे एहेन, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे- बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि || ४||
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रामकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकलपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
*
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
*
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
*
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
*
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
*
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले,, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
*
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||
वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दह्काएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
*
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||
कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
*
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||
कुञ्ज-कछारों में गंगा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
मैं कब गंगाजी कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
*
निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय:|| १४||
सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनों विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
*
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||
शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखेंहरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
*
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||
करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर.
करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
*****************

नवगीत नक्सलवाद

सामयिक नव गीत

मचा कोहराम क्यों?...

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(नक्सलवादियों द्वारा बंदी बनाये गये एक कलेक्टर को छुड़ाने के बदले शासन द्वारा ७ आतंकवादियों को छोड़ने और अन्य मांगें मंजूर करने की पृष्ठभूमि में प्रतिक्रिया)
अफसर पकड़ा गया
मचा कुहराम क्यों?...
*
आतंकी आतंक मचाते,
जन-गण प्राण बचा ना पाते.
नेता झूठे अश्रु बहाते.
समाचार अखबार बनाते.

आम आदमी सिसके
चैन हराम क्यों?...
*
मारे गये सिपाही अनगिन.
पड़े जान के लाले पल-छिन.
राजनीति ज़हरीली नागिन.
सत्ता-प्रीति कर रही ता-धिन.

रहे शहादत आम
जनों के नाम क्यों?...
*
कुछ नेता भी मारे जाएँ.
कुछ अफसर भी गोली खाएँ.
पत्रकार भी लहू बहायें.
व्यापारीगण चैन गंवाएं.

अमनपसंदों का हो
चैन हराम क्यों??...
*****

व्यंग्य मुक्तिका

एक व्यंग्य मुक्तिका 
*
छप्पन इंची छाती की जय 
वादा कर, जुमला कह निर्भय
*
आम आदमी पर कर लादो
सेठों को कर्जे दो अक्षय
*
उन्हें सिर्फ सत्ता से मतलब
मौन रहो मत पूछो आशय
*
शाकाहारी बीफ, एग खा
तिलक लगा कह बाकी निर्दय
*
नूराकुश्ती हो संसद में
स्वार्थ करें पहले मिलकर तय
*
न्यायालय बैठे भुजंग भी
गरल पिलाते कहते हैं पय
*
कविता सँग मत रेप करो रे!
सीखो छंद, जान गति-यति, लय
***
२६-२-२०१८

दोहे गाँधी दर्शन

दोहा सलिला
ट्रस्टीशिप सिद्धांत लें, पूँजीपति यदि सीख
सबसे आगे सकेगा, देश हमारा दीख
*
लोकतंत्र में जब न हो, आपस में संवाद
तब बरबस आते हमें, गाँधी जी ही याद
*
क्या गाँधी के पूर्व था, क्या गाँधी के बाद?
आओ! हम आकलन करें, समय न कर बर्बाद
*
आम आदमी सम जिए, पर छू पाए व्योम
हम भी गाँधी को समझ, अब हो पाएँ ओम
*
कहें अतिथि की शान में, जब मन से कुछ बात
दोहा बनता तुरत ही, बिना बात हो बात
*
समय नहीं रुकता कभी, चले समय के साथ
दोहा साक्षी समय का, रखे उठाकर माथ
*
दोहा दुनिया का सतत, होता है विस्तार
जितना गहरे उतरते, पाते थाह अपार
*

दोहा पहेली

दोहा पहेली
*
१.
बच्चों को देती मजा, बिन किताब दे ग्यान।
सब विषयों में पैठकर, कहे न कर अभिमान।।
सरल-कठिन रोचक-ललित, चाहे थोड़ी सूझ।
नाम बताना सोचकर, बूझ सको बूझ।।
= पहेली
२.
चश्मा चप्पल छड़ी ले, टॉफी लाते रोज।
चूड़ी पूजा कर उठे, भोग खिलाती खोज।।
झुकी कमर तन शिथिल दें, छाया जैसे झाड़।
'पूँजी से प्यारा अधिक, सूद' कहें कर लाड़।।
= दादा-दादी
३.
गोदी आँचल लोरियाँ, कंधा अँगुली छाँह
कभी न गिरने दें झपट, थाम पकड़कर बाँह।।
गुड़िया सी गुड़िया लड़े, रूठे जाए मान ।
कदम-कदम पर साथ दे, झगड़ छिड़कता जान।।
= माता,  पिता,  बहिन,  भाई
४.
उषा दुपहरी साँझ सँग, कर डेटिंग रोमांस।
रजनी के सँंग रह रहा,  लिव इन करता डांस।। घटता-बढ़ता निरंतर, ले-दे सतत उजास।
है प्रतीक सौंदर्य का, मामा सबसे खास।। 
= सूरज-चाँद 
५.
गिरि-तनया  सागर-प्रिया, लहर-भँवर भंडार।
नहर -जननि को कर नमन, नाम बता साभार।। भेदभाव करती नहीं,  हरती सब की प्यास।
तापस तट पर तप करें, कृष्ण रचाते रास।।
= नदी
६.
हम सबको दे रहा है, शांति-शौर्य संदेश। 
केसरिया बलिदान दे , हरा-भरा हो देश।। 
नील चक्र गतिमान रख, उन्नति करे अशेष। 
जन गण मन सुन फहरता, करिए गर्व हमेश।।
=  तिरंगा 
७.
अंधकार को दूर कर, करता रहा उजास।
हिमगिरि -सागर सँग हँसे, होता नहीं उदास।। 
रहा पुजारी ज्ञान का, सत्य अहिंसा चाह।
अवतारों को जन्म दे, सबसे पाई वाह।।
= भारत
८.
अनुशासन पर्याय है, शौर्य-पुंज धर धीर। 
नित सरहद पर अड़ा है, बन उल्लंघित प्राचीर।।  जान हथेली पर लिए, लोहा माने विश्व।
सौ पर भारी एक है , अरि का अरि बलवीर।।
= सैनिक
९.
बार-बार लड़-पिट रहा, किंतु न आता बाज।
केंद्र बना आतंक का, उसको तनिक न लाज।। लिए कटोरा घूमता, ले अल्ला' का नाम।
चाह रहा है हड़पना, कश्मीर का राज।।
= पाकिस्तान
१०.
केसरिया बलिदान की, करता है जयकार।
श्वेत शांति की चाह कर, कहे बढ़ाओ प्यार।।
हरी-भरी धरती रहे, करिए ठोस उपाय।
नील चक्र गतिमान हो, उन्नति का आधार।।
= तिरंगा
११.
व्यक्त करे हर भाग को, गद्य पद्य आगार।
मन के मन से जोड़ती, बिना तार ही तार।।
शब्दाक्षर दीवाल हैं , कथ्य भूमि छत छंद।
कह-सुन लिख-पढ़ जीव हर, करता है व्यवहार।। = भाषा
१२.
ध्वनि अंकित कर पटल पर, रखे सुरक्षित मीत। ताड़पत्र चट्टान या कागज रखना रीत।।
मुद्रित हो पुस्तक बनें, फैले ज्ञान अपार
ध्वन्यांकन संकेत का, नाम बताएं जीत।।
= लिपि
१३.
जगवाणी की राह पर, है जनवाणी आज।
जन गण मन पर कर रही, है सदियों से राज।। मुहावरे लोकोक्तियाँ, छंद व्याकरण सज्ज। तकनीकी सामर्थ्य का, पहन रही है ताज।।
= हिंदी
१४.
कंकर-कंकर में बसे, पर प्रलयंकर नाम।
नेत्र तीसरा खोल दें, होता काम तमाम।।
अवढरदानी मौन हैं, जो चाहे लो माँग।
शंकाओं के शत्रु हैं, विषपायी अभिराम।।
= शिव जी
१५.
सिर पर हिमगिरि ताज, है पग धोता वारीश।
लेने जन्म तरस रहे, यहाँ आप जगदीश।।
कोटि-कोटि जन की जननि, स्वर्गोपम सौंदर्य। जीवनदायी वस्तुओं, का रहता प्राचुर्य।।
= भारत
१६.
अपने धड़ पर धारते, किसी और का शीश।
पर नारी के साथ में, पुजते बनकर ईश।।
रखते दो दो पत्नियाँ, लड्डू खाते खूब।
मात-पिता को पूजते, खुश है सती-सतीश।।
= गणेश जी
१७.
कागज काले कर रही, रह स्याही के साथ।
न्यून मोल अनमोल है, थामे हरदम हाथ।।
व्यक्त करें अनुभूतियाँ, दिल से दिल दे जोड़।
गद्य-पद्य की सहचरी, लेखक इसके नाथ।।
= कलम
१८.
झाँक रहा है आँख में, होकर नाक सवार।
कान खींचता बेहिचक, फिर भी पाता प्यार।। दिखा रहा दुनिया कहे, देख सके तो देख।
राज कर रहा जेब पर, जैसे हो सरकार।।
= चश्मा
१९.
पुस्तक हो या पुस्तिका, है मेरा ही रूप।
नाम किसी का हो मगर, मैं ही सच्चा भूप।।
क्रय-विक्रय होता नहीं, मुझ बिन कहता सत्य।
नोट-वोट हैं पत्र भी, मेरे अपने रूप।।
= कागज
२०.
पुत्री है अपभ्रंश की, स्वर-व्यंजन-रस खान।
भारतेंदु करते रहे,  इसका गौरव गान।।
जैसा बोले सुन लिखे, पढ़ती वैसा पाठ।
भारत माँ की लाड़ली, वाणी के हैं ठाठ।।
= हिंदी
***
_ विश्व वाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन 
जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५२८३२४४।

बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

समीक्षा: दोहा-दोहा निर्मला -अमरनाथ

समीक्षा 
दोहा सलिला निर्मला : संदर्भ ग्रंथ की तरह पठनीय-संग्रहणीय संकलन 
समीक्षक- अमरनाथ, लखनऊ 
दोहा सलिला निर्मला,  सामूहिक दोहा संकलन, संपादक-द्वय श्री संजीव वर्मा ‘सलिल’ एवं डॉ. साधना वर्मा,  २०१८, पृष्ठ १६०, मूल्य २५०/-, प्रकाशक: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, समन्वय प्रकाशन, अभियान, जबलपुर।]
*
विषय वस्तु:  
इस संकलन में १५ दोहाकार के दोहे संकलित हैं, जिनमें ४  महिलायें हैं, सुश्री नीता सैनी, रीता सिवानी, शचि भवि, तथा सरस्वती कुमारी। शेष ११ दोहाकार है सर्वश्री- अखिलेश खरे 'अखिल', अरुण शर्मा, उदयभानु तिवारी मधुकर, ओम प्रकाश शुक्ल, जयप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. नीलमणि दुबे, बसंत शर्मा, रामकुमार चतुर्वेदी, शोभित वर्मा, हरि फैजाबादी, हिमकर श्याम। इन १५ दोहाकारों में ०७ म.प्र. से, ०२ दिल्ली, ०२ उ.प्र. व एक-एक महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, अरुणांचल तथा झारखंड प्रदेश से हैं। प्रत्येक दोहाकार के लगभग १००-१०० दोहे संकलित किए गये हैं। पहले दो पृष्ठों में प्रत्येक दोहाकार का विस्तृत परिचय दिया गया है। इनमें ११ दोहाकार के १००-१००, दो के ९९-९९ तथा दो के १०१-१०१ दोहे हैं। इस प्रकार पूरी कृति में सहभागियों के १५०० दोहे हैं। १६० पृष्ठीय इस पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर सबसे नीचे एक-एक दोहा संपादक द्वारा स्वयं लिखा गया है जो इस पुस्तक रूपी रमणी के पैरों में पाजेब की तरह छनछना रहे हैं। पुस्तक के प्रारंभ में काव्य रसों और दोहे के वैशिष्ट्य पर सुंदर आलेख संपादक द्वारा दिया गया है। मुखावरण बहुरंगी और सुंदर है। मूल्य २५० रुपये है।

इन दोहों में प्रेम के दोनों रूप, नारी सौंदर्य, राष्ट्रीय चेतना, भारतीय कानून, राजनीति, भ्रष्टाचार, आरक्षण, भारतीय देवी-देवता, भक्ति, गंगा-यमुना, जल और जल संरक्षण, प्रदूषण, गुरु महिमा, चाय, योग, वेदांत और अध्यात्म, ऋतुएँ, बरसात, सावन, त्योहार, हिंदी भाषा, रंगमंच, मोबाइल, सामाजिक सरोकार, सामाजिक रिश्ते, सर्वजन हिताय, हितोपदेश आदि विविध विषयों पर कलम सहभागियों की कलम चली है।

भाव पक्षः-
दोहा ही एकमात्र ऐसा छंद है जिसे जितना दुहा जाए, यह उतना ही मक्खन देता है। वीरगाथा काल के दोहों में वीर रस की प्रधानता थी तो भक्ति काल में भक्ति रस और नैतिकता की। रीतिकाल ने श्रृंगार में डुबोया तो इस आधुनिक काल में जीवन की दैनंदिनी, सामाजिक सरोकार,और जीवन की विषमतायें फूट-फूट कर सामने आने लगी हैं। इस पुस्तक के अधिकांश दोहों में वीर, श्रृंगार और भक्ति का तो कहीं-कहीं छींटा मात्र है। सामाजिक समस्याएँ, समुद्री लहरों की तरह उद्वेलित होती हुई नजर आ रही हैं। गिरते हुए नैतिक मूल्य ढोल पीट रहे हैं और प्रदूषण की सुरसा अपना मुख खोले हुए खड़ी नजर आ रही है। अत्यंत उच्चकोटि का भाव संप्रेषण है इन दोहों में। आइए एक-एक रचनाकार को देखते हैं-ं 

१.श्री अखिलेश खरे 'अखिल' 
अखिल जी ने अपने दोहों में विविध रंग बिखेरे हैं। ऋतु, सामाजिक विसंगतियाँ, मानवीय चरित्र, ग्रामीण जीवन, वृ़क्ष संरक्षण नशा आदि को लेखनी का विषय बनाया है। इनके दोहों में शाब्दिक मनोहरता है और प्रेरणा भी।
गाँव, शहर जब से बना, दुआ-सलामी गोल।
गलियों-गलियों पर चढ़े, कंकरीट के खोल।।
श्रम-सीकर से बन गया, कुर्ते पर जो चित्र।
भारत का नक्शा बना, कुर्ता हुआ पवित्र।।
नशे-नशे में हो गई, बहुत नशीली बात।
घूँसों की होने लगी, बेमौसम बरसात।।

२. श्री अरुण शर्माः-
अपवादों को छोड़कर, आपकी भाषा सामान्यतः प्रांजल और संस्कारित है। आपने वेदांत, नैतिकता, परोपकार और मानवीय प्रेम को अपनी रचना का आधार बनाया है। यत्र-तत्र अन्य विषय भी छुए हैं।
अंतर में छलछद्म है, बाह्य आचरण शुद्ध।
ऐसे कैसे तुम भला, बन पाओगे बुद्ध?
ढल जाएँगें एक दिन, उम्र, रूप मृदु देह।
तन पर इतना प्रेम क्यों, है मिट्टी का गेह।।
राहों में बिखरे पड़े, बैर-भाव के शूल।
सोच समझकर पैर रख, राह नहीं अनुकूल।।

३. श्री उदयभानु तिवारी मधुकरः-
आप एक मात्र दोहाकार हैं जिन्होंने केवल एक विषय चुना है और वह है कृष्ण रासलीला। बहुत माधुर्य बिखेरा है उन्होंने अपने दोहों में। उनके एक दोहे की बानगी देखिये जिसमें अनुप्रास, यमक और उपमा की बेजोड़ त्रिवेणी बहा दी है।
नृत्यलीन घनश्याम जी, लगते ज्यों घनश्याम।
गोरी सखियाँ दामिनी, सोहें रजनी याम।।

४. श्री ओमप्रकाश शुक्लः- 
आपके दोहों में जहाँ एक ओर सहजता व मधुरता है वहीं व्यंग्य और स्पष्टवादिता भी है। भारतीय राजनीति, भारतीय संविधान, भारतीय रिश्ते, नदी-प्रदूषण, चापलूसी जैसे बिंदुओं पर अपनी कलम चलाई है। व्यंग्य और अनुप्रास का एक सुंदर उदाहरण देखें।
वाह वाह का दौर है, वाह वाह बस वाह।
झूठ-मूठ की आह है, झूठ-मूठ की चाह।।
भारतीय राजनीति पर आपका व्यंग्य-
लूटें दोनों हाथ से, दोनों पक्ष विपक्ष।
सगा देश का कौन है, प्रश्न बना यह यक्ष।।

५. श्री जयप्रकाश श्रीवास्तवः- आपके दोहों में बिंब, प्रतीक और अलंकारों का समावेश नए ढंग से किया गया है जो नई कविता की ओर इंगित करता है। शहद जैसी मिठास है आपके दोहों में। प्रकृति, ऋतु. पानी, मँहगाई, सामाजिक नैतिक मूल्यों का पतन आदि विषयों को आपने अपने दोहों की देह बनाया है। आपके दोहों की बानगी देखिये।
पानी-पानी हो गया, मौसम पानीदार।
पानी पानी से मिला, पानी सब संसार।।
किरणों की ले पालकी, सूरज बना कहार।
ऊषा कुलवधु सी लगे, धूप लगे गुलनार।।
हवा हो गई बाँसुरी, बादल हुआ मृदंग।
बिजली पायल बाँधकर, नाचे बरखा संग।।

६. सुश्री नीता सैनी:-
माँ, बेटी, गंगा और हिंदी भाषा पर आपकी कलम विशेष रूप से चली है। अन्य विषय भी छुए हैं। सरलता और स्पष्टवादिता आपकी लेखन शैली में है। वसुधैव कुटुम्बकम! की भावना भी दृष्टिगोचर होती है। उपमा और भक्ति के सम्मिश्रण पर उनकी रचना की बानगी देखिये।
माँ गंगा की धार है, तन-मन करे पवित्र।
ममता से बढ़ कौन सा, इस दुनिया में इत्र।।
कन्या-हत्या पर उनका आक्रोश काबिले-तारीफ है।
जो कन्या को मारते, उनका सत्यानास।
जो कन्या को पूजते, वे सच्चे हरिदास।।
हिंदी बिंदी हिंद की, मस्तक की है शान।
झंकृत मन के तार कर, करे शांति का गान।।

७. डॉ.नीलमणि दुबे:-
बसंत, होली, वर्षा, नवसंवत्सर, भ्रष्टाचार, नवदुर्गा, दिन, ग्रामीण जीवन, आदि विषयों पर आपकी विद्वता देखते ही बनती है। आपने बघेली दोहे भी लिखे हैं। भाषा सरल और मधुरिमायुक्त है। तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग कुशलता के साथ किया है। अपनी बात को समझाने के लिए नए-नए बिंबों का प्रयोग किया है।
आग-आग सब शहर हैं, जहर हुए संबंध।
फूल-फूल पर लग गए, मौसम के अनुबंध।।
गाँव-गाँव पीड़ा बसी, गली-गली संत्रास।
शहर-शहर आतंक है, नयन-नयन में प्यास।।
एक बघेली दोहा भी देखें- 
कनिहाँ टूटै देत माँ, लेत नहीं परहेज।
फइला कोढ़ समाज के, घिनहाँ बहुत सहेज।।

८. श्री बसंत कुमार शर्मा-
हिंदू देवी देवता, धर्मान्धता, आरक्षण, जवान, बारिश, गरीबी, भारतीय जीवन शैली, आदि अनेक विषयों पर आपने अपनी कलम चलाई है। दोहों में छंद विधान को अपनाने में सजगता बरती गई है। अलंकारों का चमत्कारिक प्रयोग किया गया है। यमक की छटा तो देखते ही बनती है।
चाँद निरखता चाँद को, मधुर सुहानी रात।
आपके व्यंग्य की एक बानगी देखें-
नालों के भी आजकल, बढ़े हुए है भाव।
जबरन घर में घुस हमें, दिखा रहें हैं ताव।।

९.श्री राम कुमार चतुर्वेदी- 
आपके दोहे हास्य रस प्रधान है।। मूलतः चमचागिरी पर आपकी कलम विशेष रूप से चली है। आपके जीवन परिचय को पढ़ने पर एक कालजयी व्यक्तित्व के दर्शन हुए। असाधारण जीवट समेटे हुए है यह मटियारी देह।
तिस पर हास्य। ग़ज़ब है, नमन है इस जीवटता को। आपकी रचनाओं में व्यंग्य और हास्य की संतुलित कॉकटेल है। विनोद, चुटीलापन और कचोट की त्रिवेणी बह रही है आपकी रचनाओं में। अलंकारों का सुन्दर प्रयोग है।
चम्मच जिनके पास है, चम्मच उनके खास।
जिनसे चम्मच दूर है, उनको मिलता त्रास।।
गधे भर रहे चौकड़ी, कुत्ते मारें लात।
दबी फाइलें खोल दें, चम्मच में औकात।।

१०. सुश्री रीता सिवानी:-
हिंदी भाषा, हिंदू देवी-देवता, नारी, जल संरक्षण, मित्रता, योग आदि विषयों पर आपने बड़ी बेबाकी से लिखा है आपने। आपकी रचनायें भावप्रधान और यथार्थ का पुट लिए हुए है। सामाजिक कुरीतियों पर चोट की है।
हिंदी बिंदी हिंद की, सजी हिंद के भाल।
बैठी लेकिन ओढ़ कर, अंग्रेजी का शाल।।
घबराना मत हार से, नींव जीत की हार।
बिना दूध मंथन किए, मक्खन बने न यार।।

११. सुश्री शुचि भविः-
आपने लगभग सभी दोहों में अपने भवि नाम का उपयोग किया है। भ्रष्टाचार, मोबाइल, वेदांत, खाद्य प्रदूषण, संवत्सर, आदि विविध विषयों पर दोहे लिखे हैं। यथार्थ, तथ्य और सत्य को सपाटबयानी से कहना आपकी विशिष्टता है।
नाकाफ़ी इस दौर में, ‘भवि’ जी तोड़ प्रयास।
चाटुकारिता के बिना, रखो नहीं कुछ आस।।
कथनी-करनी है अलग, जिनकी मेरे ईश।
न्याय करेंगे किस तरह, ‘भवि’ वो न्यायाधीश।।

१२. श्री शोभित वर्माः-
माता-पिता, गुरु, वृक्ष संरक्षण, राष्ट्रीय चेतना, राजनीति, कर्म, आयुर्वेद आदि विषयों पर आपने उत्तम श्रेणी के दोहे लिखे हैं। आपकी रचनाओं में संचेतना, प्रेरणा और राष्ट्रीय चेतना भी है।
दोष न मढ़ सरकार पर, करें न मात्र विलाप।
देश बदलना है अगर, यत्नशील हों आप।।
किसे फिक्र है वतन की, बनते सभी नवाब।
रोटी चुपड़ी चाहिए, मिलता रहे कबाब।।
जाति-धर्म के नाम पर, मचते रहे बवाल।
जाति-धर्म इसे क्या मिले, पूछो जरा सवाल।।
दोंहों में कहीं-कहीं भावों का दुहराव भी है।
महाशक्ति भारत बने, (पृष्ठ १२५ पर पर दो बार), दोष न मढ़ सरकार पर, करें न मात्र विलाप। (पृष्ठ १२३),
मढ़ें दोष सरकार पर, करते नित्य विलाप। (पृष्ठ १२६)

१३. श्रीमती सरस्वती कुमारी:-
गुरु, नारी, माँ-बाप, विरह, मिलन, शादी, क्षणभंगुरता आदि विषयों पर आपने दोहे लिखे हैं। श्रृंगार रस में लिखे दोहों को पढ़कर महाकवि बिहारी जी की याद आ जाती है। अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है।
पिया मिलन की रात री! होगा मृदु अभिसार।
घूँघट का पट खोलकर, दूँगी तन-मन वार।।
गुल गुलाब पर है फिदा, गुल गुलाब हैरान।
गुल से गुल है कह रहा, तू ही मेरी जान।

१४. डॉ.हरि फैजाबादी:-
हिंदू देवी-देवता, पारस्परिक व्यवहार, मित्रता,सामाजिक विद्रूपता आदि विषयों पर अपनी रचनाधर्मिता निबाही है। स्पष्टवादिता, सरलता और सादगी के साथ ही भाषा पर पकड़ देखते ही बनती है। आपके दोहों में उर्दू का प्रयोग अधिक है।
कुत्तों को भी आदमी, जैसी ही तकदीर।
कोई जूठन खा रहा, कोई मुर्ग-पनीर।।
रिश्ता यूँ होता नहीं, कोई अमर-बुलंद।
गुल मरते हैं तब कहीं, बनता है गुलकंद।।

१५. .हिमकर श्याम:-
राष्ट्रीय चेतना, वोट, नदी प्रदूषण, धर्म निरपेक्षता, दीवाली, मजदूर, हिंदी भाषा आदि विषयों पर दोहे लिखे हैं। उनके दोहों में सामाजिक विद्रूपता व आक्रोश स्पष्ट झलकता है।
आँखों का पानी मरा, कहाँ बची है शर्म?
सब नेता बिसरा रहे, जनसेवा का कर्म।।
हिंदी हिंदुस्तान की, सदियों से पहचान।
हिंदी जन मिलकर करें, हिंदी का उत्थान।।
भूखे बच्चों के लिए, क्या होली,क्या रंग?
फीके रंग गुलाल हैं, जीवन है बदरंग।।

कला पक्ष:- 
इस पुस्तक के दोहों के भाव उच्च कोटि के होते हुए भी जगह-जगह शिल्प की कमी नजर आती है। चूँकि अधिकांश रचनाकार अभी छंद की सीढ़ियों पर चढ़ ही रहे हैं अतः शिल्प में कमी होना स्वाभाविक है। कहीं-कहीं थोड़े और अभ्यास की जरूरत महसूस हो रही है। इसके विपरीत बहुत सारे दोहे उच्च कोटि के उच्चतम पायदान पर भी हैं। नई शैली, नव कथ्य, नए-नए विषय, नवीन बिंब-योजना, नये-नये उपमान, अलंकारों और रसों के
संतुलित प्रयोग ने इन दोहों को किसी सिद्ध दोहाकार के दोहों से टक्कर लेने योग्य बना दिया है। शिल्प की कमियों में कुछ कमियाँ प्रूफरीडिंग की भी हैं। जहाँ कहीें भी ब्रह्म या ब्रह्मा शब्द का प्रयोग हुआ है, सभी जगह गलत टाइप किया हुआ है। ब्रम्ह या ब्रम्हा ही प्रयुक्त हुआ है। शिल्प की अन्य कमियाँ निम्नवत हैं-

१. दोहे की ११वीं मात्रा लघु न होना- दोहे के दोनों समचरणों की ११ वीं मात्रा को बहुधा दोहाकार लघु रखते चले आ रहे हैं। कतिपय दोहाकार विषम चरण की ११ वीं मात्रा को लघु रखने के तर्क को नहीं मानते। श्री जगन्नाथ प्रसाद ‘भानुकवि‘ ने अपने छंद प्रभाकर में दोहे के विषम चरण के आदि में जगण का स्पष्ट निषेध किया और इसके अंत में ‘सरन‘ अर्थात सगण रगण, नगण के प्रयोग की सलाह दी जिससे स्वतः ही विषम चरण की ११ वीं मात्रा लघु होती ही है। इससें दोहे की लय भी सुधरती है। आगे भी जब भानुकवि ने दोहे के २३ भेदों को समझाते हुए हरेक के उदाहरण स्वरूप दोहे लिखे हैं तो उनमें भी किसी भी दोहे के विषम चरण की ११ वीं मात्रा दीर्घ नहीं रखी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि दोहे के विषम चरण की ११ वीं मात्रा को लघु ही रखने में बेहतर लय प्राप्त होगी। अतः, मेरे विचार में दोहे के विषम चरणों की ११ वी मात्रा को लघु ही रखा जाना चाहिए।

श्री अखिलेश खरे 'अखिल'- झाड़-फूँक की जड़ें हैं पृष्ठ १३, श्री अरुण शर्मा- दशरथ जैसे पिता सौ पृष्ठ २४, श्री उदयभानु तिवारी मधुकर- थकीं गोपियाँ टिकाया पृष्ठ ३४,  श्री ओम प्रकाश शुक्ल- माँ-माँ करते बिताया- पृष्ठ ४६,  श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव- भोर बाँटती फिरे है पृष्ठ ५३,  रात महकने लगी है पृष्ठ ५७, फागुन तन-मन भिगाता, कान पकड़ कर हवा को पृष्ठ ५८, जिन्हें देखकर जरा भी पृष्ठ ५९,  सुश्री नीता सैनी- हर घर की है जरूरत, पिएँ अतिथि को पिलाएँ पृष्ठ ६५, माँ शारद की कृपा से, आ! चल कचरा उठाएँ , भू में नीचे उतारे पृष्ठ ६९, सुश्री डॉ.नीलमणि दुबे - लील सड़क पुल इमारत पृष्ठ ७५, नहा मगर मन लगा मत, हँस सूरज ढल जाएगा, शस्य श्यामला धरा ने, प्रगट ज्ञान की प्रभा ज्यों पृष्ठ ७६, आँसू में बह जाएगा पृष्ठ ७७, चौराहे पर खड़ा हो,  मधुवन-विषधर डँसे री पृष्ठ ७८, श्री रामकुमार चतुर्वेदी भक्ति भाव में रमे है पृष्ठ ९६, नेता चम्मच बताते पृष्ठ ९७, लुढ़के शेयर धड़ाधड़ पृष्ठ ९८, सुश्री रीता सिवानी- स्वार्थ साध बस गया वह पृष्ठ १०७, श्री शोभित वर्मा राम राम जप निरंतर पृष्ठ १२५, राग-द्वेष सब भुला दो पृष्ठ १२७, गीदड़ रहते डरे से,  जनता ने तो चुनी थी-पृष्ठ १२९,  क्या जनमत का सुनेगा, भारत जैसा मिलेगा, घूम रहे हैं विदेशी पृष्ठ १३०, सुश्री सरस्वती कुमारी- नज़र,नज़र से मिली, जब पृष्ठ १३७, स्वस्थ निरोगी सुखी हों पृष्ठ१४०, डॉ. हरि फैजाबादी- तुम्हें एक त्रुटि बताता  पृष्ठ १४४,  श्री हिमकर श्याम- हुए न पूरे अभी तक पृष्ठ १५८, माँ श्री उतरी धरा पर, निरख रही माँ यशोदा पृष्ठ १५९ ने ११ वीं मात्रा लघु नहीं रखी है।

२. मात्रा विचलन- दोहे के प्रत्येक विषम चरण में १३ तथा सम चरण में ११  मात्रायें होनी चाहिए। लेकिन कहीं-कहीं दोहाकार इस विधान से चूके हैं।
श्री अखिलेश खरे 'अखिल'- दुल्हिन सी खेती खड़ी पृष्ठ १५, दरिया दुल्हिन सी सहम पृष्ठ १८, श्री उदयभानु तिवारी मधुकर- पाकर कृष्ण स्पर्श पृष्ठ ३५, राजन मिला न ल़क्ष्मी पृष्ठ ३६, हरि कर-कमल स्पर्श से पृष्ठ ३७, काम धाम अरु चेष्टा पृष्ठ ३८, श्री ओमप्रकाश शुक्ल- निर्णय करता ईश्वर, मध्य रात्रि घनश्याम पृष्ठ ४६, काजल सो नैनन बस्यो पृष्ठ ५०, श्री जयप्रकाश  श्रीवास्तव- नदी गाय सी मरती पृष्ठ ५६, प्रीत हिंडोला झूलती पृष्ठ ५८, सुश्री नीता सैनी- सौर ऊर्जा काम ले पृष्ठ ६९, संस्कार गायब हुए पृष्ठ ७०, सुश्री डॉ.नीलमणि दुबे-
कर सिंगार सकुचा गई,  हरसिंगार की डार पृष्ठ ७३,  बुद्धि-चित्त विकृत भ्रमित पृष्ठ ७४, सिझा-सिंका जीवन बहुत, अब अमृत बौछार पृष्ठ ७६, जिव्हा अक्सर फिसलती, रवि तनया स्मृति नवल पृष्ठ ७७, लय अनुसारिणी अथच ज्यों पृष्ठ ७९, अइंठ अइंठ रह जांय पृष्ठ ८०, सुश्री रीता सिवानी- बनाने को मजदूर पृष्ठ १०५, भूली अपनी संस्कृति पृष्ठ १०७, पीड़ित दुख दारिद्रय से पृष्ठ ११४,  सुश्री सरस्वती कुमारी- रंग रंगीली राधिका पृष्ठ १३३, वर्ण, मात्रा मेल से पृष्ठ १३७, श्री हिमकर श्याम- पर्यावरण की सुरक्षा पृष्ठ १५६, बरसे अमृतधार, अमृतमय पय-पान पृष्ठ १५९। 

३. तुकांत दोड्ढ-ंउचय अधिकतर दोहे बहुत अच्छे तुकांत लेकर रचे गये है।लेकिन कहीं-ंकहीं पर समतुकांती बनाने में दोहाकार चूके भी हैं।
श्री उदयभानु तिवारी मधुकर- छुन्न-किन्न, हर्ष-स्पर्श, युक्त,सिक्त, आभास-सकाश पृष्ठ ३४,३५, ४०। सुश्री डॉ.नीलमणि दुबे- घाव-छाँव पृष्ठ ७४। श्री रामकुमार चतुर्वेदी पान-पान, दाँव-अलगाव, बाँट-चाट, देश-कैश पृष्ठ ९३-९४, सुश्री सरस्वती कुमारी मौन-गौण पृष्ठ १४०।

४. भाषागत दोष- यद्यपि सभी दोहों में भाषा की शुद्धता का ध्यान रखा गया है, फिर भी कहीं-कहीं कलम चूकी है। अधिकतर दोहाकारों ने अनुस्वार और अनुनासिक में भेद नहीं किया। रंग और रँग तथा संग और सँग एक ही
अर्थ में प्रयोग किया है। जबकि सँग कोई शब्द ही नहीं है। इसी प्रकार 'रंग' (पेंट) संज्ञा है और रँग (टु पेंट) क्रिया है अर्थात रँगना। रंग में तीन मात्रा है तो रँग में दो। केवल मात्रा संतुलन के लिए ही ऐसा किया गया है।
पृष्ठ ३३ पर दो उदाहरण देखें- सुन्दरता निधि संग से, हुआ मनोरथ पूर्ण।, निज देवी सँग देवगण, प्रकटे दिव्य शरीर।  -श्री उदय भानु तिवारी मधुकर जी।  इन दोनों चरणों में संग और सँग का अर्थ एक ही है लेकिन मात्रा के
लिए दोहे को ही दोषपूर्ण बना दिया गया।
पृष्ठ ४३ पर श्री ओमप्रकाश शुक्ल जी का दोहा देखें-  ऊषा फगुवा रँग रँगी, संध्या रँगी बसंत।
इसी प्रकार पृष्ठ ५९ पर श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव जी का दोहा देखें-
फूलों के रँग में घुली, मादकता की गंध।
फागुन लेकर आ गया, रंग अबीर गुलाल।।
यहाँ भी रंग और रँग का अर्थ एक ही है लेकिन मात्रा के लिए दोहे को ही दोषपूर्ण बना दिया गया।
अधिकतर कवियों ने इसी प्रकार दुःख और दुख शब्द के साथ भी खिलवाड़ किया है। जबकि दुःख में तीन मात्रा और दुख में दो मात्रायें है। हिन्दी कविता में जहाँ तक सम्भव हो केवल हिन्दी शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए।
आँचलिक या अन्य भाषाओं के षब्दों को केवल अपरिहार्यता, उस विशेष शब्द की गुणग्राहकता के कारण ही प्रयुक्त किया जाना चाहिए या उनको हिंदी ने अपना लिया हो। उर्दू,अंग्रेजी या सधुक्कड़ी शब्दों को हिन्दी कविता में अनावश्यक ठूँसने की बलात कोशिश हिंदी के साथ बलात्कार से कम नहीं मानी जानी चाहिए। नीचे कुछ शब्द दिए / उद्धृत किए जा रहें हैं जो हिन्दी भाषा के नहीं हैं।
अंग्रेजी भाषा के शब्द- बेस्ट, टेस्ट, मूड, फूड, रेट, एजेंट, टेंट, कोचिंग, संडे, नेट, सेट, कंट्रोल, फेसवाश, फेस, बेस।
उर्दू भाषा के शब्दों का प्रयोग बहुत किया गया है, लेकिन नुक्ते का ध्यान नहीं रखा गया। कत्लेआम, करार, ख्वाब, गुल, गुलशन, जेहाद, दफ्न, दहशतगर्द, नफीस, नबेर, फिदा, बेपर्द, माकूल, मिजाज, वादे, हद। 
नए शब्द जिनका अर्थ नहीं दिया गया-  छुन्नक छुन्न, किन्नक किन्न, मुरंद, अथच, इरखा,
अशुद्ध / शुद्ध शब्द- सानिन्ध्य / सान्निध्य पृष्ठ २५, शुद्धीकरण / शुद्धिकरण पृष्ठ ५९, श्रृंगार / शृंगार पृष्ठ६०, १५९, दारिद्र्य / दारिद्रय पृष्ठ ६७, ११४,  आल्हाद / आह्लाद पृष्ठ ७३, शरीखी / सरीखी पृष्ठ ११०, कलेश / क्लेश पृष्ठ ६८, १२३।

५. जगण दोष- हिंदी कविता में विशेष तौर से प्रारंभ में जगण शब्दों के प्रयोग को अच्छा नहीं माना गया है। एक स्थान को छोड़, कहीं पर भी इस नियम को भंग नहीं किया गया है। इसीलिए सबसे मधुर, है मन का संगीत।
डॉ. हरि फैजाबादी पृष्ठ १४३। 

६. लय भंग- दोहे के १३ मात्रिक विषम चरणों में ४, ४, ३, २ अथवा ३, ३, २, ३, २ तथा सम चरणों में ४, ४, ३  अथवा ३, ३, २, ३  मात्राओं का क्रम अपनाया जाए तथा सम-विषम  और लघु-गुरु नियमों का ध्यान रखा जाए तो लय भंग होने की सम्भावना नगण्य हो जाती है। अधिकतर दोहे पूर्ण लययुक्त हैं लेकिन कहीं-ंकहीं चूक भी हुई है। मूल लय / वैकल्पिक लय चाल फागुनी पवन सी / चाल पवन सी फागुनी पृष्ठ १८,  मिलकर कोशिश यदि करें / यदि मिलकर कोशिश करें या कोशिश मिलकर यदि करें पृष्ठ २९, थोड़ा हर सकते न तो /  हर सकते थोड़ा नहीं? पृष्ठ ४७, ओस-बूँद भागी, भिगा, कली कली का रूप / ओस-बूँद भागी, भिगो,कली कली का रूप  पृष्ठ ५५, आना जाना सतत है / आना जाना है सतत पृष्ठ ७५।
निम्न परिवर्तन  करने से ११ वी मात्रा लघु हो गयी है।
पृष्ठ ७५- नहा,मगर मन लगा मत / नहा, मगर, मन मत लगा पृष्ठ ७८-  चौराहे पर खड़ा हो चौराहे पर हो
खड़ा, पृष्ठ ९६- भक्ति भाव में रमे हैं / भक्ति भाव में हैं रमे, पृष्ठ ९८- लुढ़के शेयर धड़ाधड़ / धड़ाधड़  लुढ़के, पृष्ठ  १०७- स्वार्थसाध बस गया वह / स्वार्थ साध वह बस गया, पृष्ठ १२७- राग-द्वेष सब भुला दो / राग द्वेष  भुला सब दो, पृष्ठ १४०- स्वस्थ,निरोगी सुखी हो / सुखी, निरोगी, स्वस्थ हों। 

७. आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग- कवि का सबसे पहला धर्म यह होता है कि उसकी रचना के किसी भी वाक्य या शब्द से किसी व्यक्ति ,समुदाय, जाति विशेष या धर्म को चोट न पहुँचे। पूरी पुस्तक में दो ऐसे दृष्टांत हैं जो किसी किसी वर्ग विशेष को आहत कर सकते हैं - सर्द हवायें आधुनिक, नारी सी उद्दंड (श्री जयप्रकाश  श्रीवास्तव पृष्ठ ५५) तथा कुल कलंक ही हो गये, हरियाणा के जाट (श्री बसंत कुमार शर्मा पृष्ठ ८५) ऐसे वाक्यों से बचा जाना चाहिए। 
इसी प्रकार श्री उदयभानु तिवारी मधुकर जी का पृष्ठ ३६ पर दोहा थोड़ा  अश्लीलता का पुट लिए है।
हरि के तन से टिक गई, फिर ले उनका हाथ।
निज कुच पर झट रख लिया, झुका लिया लज माथ।।

८. दोहों की पुनरावृत्ति- दो कवियों ने दो-दो दोहे लगभग समान भाव और समान शब्दों को लेकर रचे हैं।
मन के मन में झाँककर, मन से मन की बात। / करो मिलेगी प्रेम की, फिर मनहर सौगात।। श्री उदयभानु तिवारी मधुकर पृष्ठ ४३, , इनका ही पृष्ठ ४५ पर दूसरा दोहा देखें- मन से मन में झाँक कर, कर लो मन की बात।
/ मिल जाएगी आपको, पुनः प्रेम सौगात।।
इसी प्रकार सुश्री शुचि भवि जी के दो दोहे देखें - कृपा सभी पर कीजिए, ईश हमेशा आप। / सद्गुण सबको दीजिये, करे न कोई पाप।। पृष्ठ ११६ एवं ११७।

९. अस्पष्ट दोहा- निम्न दोहे के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है, स्पष्ट  नहीं हो सका।
चाय बिना आती नहीं, खुलती नींद, न राम।
चाय के बिना कवि की नींद नहीं खुलती या नींद नहीं आती? यह स्पष्ट  नहीं हो सका।

१०. अन्य कमियाँ-  व्याकरण सम्बन्धित सामान्य त्रुटियाँ जगह-जगह दृष्टिगत हैं। प्रश्नवाचक, सम्बोधन, आश्चर्यबोधक संयोजक चिह्नों पर अधिकतर असावधानी बरती गयी है। किसी भी कवि ने विषयवार दोहे संकलित नहीं किए। एक विषय पर एक ही कवि द्वारा लिखे गये सभी दोहे एक साथ रखने पर उस विषय को और अधिक गहराई से समझा जा सकता था और तारतम्यता भी भंग नहीं होती। पुस्तक के प्रारंभ मेंदी गई अनुक्रमणिका पर अगर हरेक कवि के नाम के आगे उसके रचित दोहों की संख्या दर्शा दी जाती तो यह स्पष्ट हो जाता कि पुस्तक में कुल कितने दोहे हैं। इसी प्रकार जहाँ पर दोहे प्रकाशित किए गए हैं प्रत्येक दोहे का क्रमांक अंकित होना चाहिए था ताकि किसी विशेष दोहे को उसके क्रमांक के साथ उद्धृत किया जा सके।

उपसंहार- १५ नए और पुराने रचनाकारों को समेटे यह कृति निःसंदेह नवागंतुकों के लिए एक मील का पत्थर है। दोहा लेखन कला से लेकर नवीन बिंब योजना तक है, इस पुस्तक में।
वर्ण, मात्रा मेल से, बनता छंद विधान।
यति गति लय के मिलन से, बढ़ता भाव निधान। (सुश्री सरस्वती कुमारी, पृष्ठ १३७)
चार चरण दो पंक्तियाँ, मात्राएँ चौबीस।
तेरह ग्यारह, बाद यति, दोहा लिखे नफीस।। (श्री बसंत शर्मा, पृष्ठ ८७)

यह पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय तो है ही, साथ ही नवागंतुकों के लिए एक संदर्भ ग्रंथ की तरह उपयोगी भी है। इसका स्वागत होना ही चाहिए।
अमर नाथ
४०१ उदयन १ , बंगला बाजार, लखनऊ।