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सोमवार, 21 अगस्त 2017

मंगल कामनाएँ

आपकी भावनाएँ
- राकेश खंडेलवाल
शारदा के करों से प्रवाहित सलिल, देह धर भू पे उतरा दिवस आज के
बीन के तार झंकार कर भर गये, ज्ञान का कोष उसमें सहज गूंज कर
वो घिरा बादलों की तरह कर रहा, काव्य अमृत की वृष्टि न पल भी रुके
उसको अर्पित हैं शुभकामनायें मेरी, एक मुट्ठी भरे शब्द में गूँथ कर
- डॉ. महेशचंद्र गुप्ता 'खलिश', दिल्ली
जो निरंतर करे काव्य-वृष्टि सदा, जो समर्पित हुआ नागरी के लिए

आज है जन्म दिन, पुण्य वो आत्मा, निस्पृह रह करे जा रही है सृजन

काव्य की है विधा कौन बतलाओ तो जो अछूती सलिल की कलम से रही

है श्रृंगार उसने रचा तो ख़लिश हैं रचे उसने हरि भक्ति के हैं भजन. 

आभार शत-शत 
मुक्तक:
मिलीं मंगल कामनाएँ, मन सुवासित हो रहा है। 
शब्द, चित्रों में समाहित, शुभ सुवाचित हो रहा है।। 
गले मिल, ले बाँह में भर, नयन ने नयना मिलाए- 
अधर भी पीछे कहाँ, पल-पल सुहासित हो रहा है।।
***

रविवार, 16 अप्रैल 2017

pratirachna

माननीय राकेश जी को समर्पित
प्रति रचना:
जीवन के ढाई आखर को
संजीव
*
बीती उमर नहीं पढ़ पाये, जीवन के ढाई आखर को
गृह स्वामी की करी उपेक्षा, सेंत रहे जर्जर बाखर को...
*

रूप-रंग, रस-गंध चाहकर, खुदको समझे बहुत सयाना
समझ न पाये माया-ममता, मोहे मन को करे दिवाना
कंकर-पत्थर जोड़ बनायी मस्जिद, जिसे टेर हम हारे-
मन मंदिर में रहा विराजा, मिला न लेकिन हमें ठिकाना
निराकार को लाख दिये आकार न छवि उसकी गढ़ पाये-
नयन मुँदे मुस्काते पाया कण-कण में उस नटनागर को...
*
श्लोक-ऋचाएँ, मंत्र-प्रार्थना, प्रेयर सबद अजान न सुनता
भजन-कीर्तन,गीत-ग़ज़ल रच, मन अनगिनती सपने बुनता
पूजा-अनुष्ठान, मठ-महलों में रहना कब उसको भाया-
मेवे छोड़ पंजीरी फाके, देख पुजारी निज सर धुनता
खाये जूठे बेर, चुराये माखन, रागी किन्तु विरागी
एक बूँद पा तृप्त हुआ पर है अतृप्त पीकर सागर को...
*
अर्थ खोज-संचित कर हमने, बस अनर्थ ही सदा किया है
अमृत की कर चाह गरल का, घूँट पिलाया सतत पिया है
लूट तिजोरी दान टेक का कर खुद को पुण्यात्मा माना-
विस्मित वह पाखंड देखकर मनुज हुआ पाषाण-हिया है
कैकट्स उपजाये आँगन में, अब तुलसी पूजन हो कैसे?
देशनिकाला दिया हमीं ने चौपालों, पनघट गागर को
१६-४-२०१५
*

बुधवार, 2 नवंबर 2016

गीत

कार्यशाला-
गीत-प्रतिगीत
राकेश खण्डेलवाल-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गह​​न निशा में तम की चाहे जितनी घनी घटाएं उमड़े
पथ को आलोकित करने को प्राण दीप मेरा जलता है
पावस के अंधियारों ने कब अपनी हार कहो तो मानी
हर युग ने दुहराई ये ही घिसी पिटी सी एक कहानी
क्षणिक विजय के उन्मादों ने भ्रमित कर दिया है मानस को
पलक झुकाकर तनिक उठाने पर दिखती फिर से वीरानी
लेकिन अब ज्योतिर्मय नूतन परिवर्तन की अगन जगाने
निष्ठा मे विश्वास लिए यह प्राण दीप मेरा जलता है
खो्टे सिक्के सा लौटा है जितनी बार गया दुत्कारा
ओढ़े हुए दुशाला मोटी बेशर्मी की ,यह अँधियारा
इसीलिए अब छोड़ बौद्धता अपनानी चाणक्य नीतियां
उपक्रम कर समूल ही अबके जाए तम का शिविर उखाड़ा
छुपी पंथ से दूर, शरण कुछ देती हुई कंदराएँ जो
उनमें ज्योतिकलश छलकाने प्राण दीप मे​रा जलता है
दीप पर्व इस बार नया इक ​संदेसा लेकर है आया
सीखा नहीं तनिक भी तुमने तम को जितना पाठ पढ़ाया
अब इस विषधर की फ़ुंकारों का मर्दन अनिवार्य हो गया
दीपक ने अंगड़ाई लेकर उजियारे का बिगुल बजाया
फ़ैली हुई हथेली अपनी में सूरज की किरणें भर कर
तिमिरांचल की आहुति देने प्राण दीप मेरा जलता है
३१ अक्टूबर २०१६
गीतसम्राट अग्रजवत राकेश खंडेलवाल को सादर समर्पित
​​
प्रति गीत
*
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
श्वास न रास आस की सकती थाम, तुम्हारे बिना निमिष भर
*
पावस के अँधियारे में बन विद्युत्छ्टा राह दिखलातीं
बौछारों में साथ भीगकर तन-मन एकाकार बनातीं
पलक झुकी उठ नयन मिले, दिल पर बिजली तत्काल गिर गयी
झुलस न हुलसी नव आशाएँ, प्यासों की हर प्यास जिलातीं
मेरा आत्म अवश मिलता है, विरति-सुरति में सद्गति बनकर,
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
खरा हो गया खोटा सिक्का, पारस परस पुलकता पाया
रोम-रोम ने सिहर-सिहर कर, सपनों का संतूर बजाया
अपनों के नपनों को बिसरा, दोहा-पंक्ति बन गए मैं-तुम
मुखड़ा मुखड़ा हुआ ह्रदय ही हुआ अंतरा, गीत रचाया
मेरा काय-कुसुम खिलता है, कोकिल-कूक तुम्हारी सुनकर
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
दीप-पर्व हर रात जगमगा, रंग-पर्व हर दिन झूमा सा
तम बेदम प्रेयसि-छाया बन, पग-वंदन कर है भूमा सा
नीलकंठ बन गरल-अमिय कर, अर्ध नारि-नर द्वैत भुलाकर
एक हुए ज्यों दूर क्षितिज पर नभ ने
मेरा मन मुकुलित होता है, तेरे मणिमय मन से मिलकर
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
टीप- भूमा = धरती, विशाल, ऐश्वर्य, प्राणी।
२.११.२०१६ जबलपुर
***

मंगलवार, 2 अगस्त 2016

samiksha


''काल है संक्रांति का'' एक काव्य-समीक्षा 
-राकेश खंडेलवाल
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[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र., प्रकाशन वर्ष २०१६,मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, 
चलभाष ९४२५१८३२४४, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com ]
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जिस संक्रान्ति काल की अब तक जलती हुई प्रतीक्षायें थीं
आज समय के वृहद भाल पर वह हस्ताक्षर बन कर उभरा

नवगीतों ने नवल ताल पर किया नई लय का अन्वेषण
एक छन्द में हुआ समाहित बरस-बरस का अन्तर्वेदन
सहज शब्द में गुँथा हुआ जो भाव गूढ़, परिलक्ष हो रहा
उपन्यास जो कह न सके हैं, वह रचना में व्यक्त हो रहा

शारद की वीणा के तारों की झंकृत होती सरगम से
सजा हुआ हर वाक्य, गीत में मुक्तामणियों जैसा सँवरा 

हर रस के भावों को विस्तृत करते हुये शतगुणितता में
शब्द और उत्तर दोनों ही चर्चित करते हर कविता में

एक शारदासुत के शब्दों का गर्जनस्वर और नियोजन
वाक्य-वाक्य में मंत्रोच्चारों सा परिवर्तन का आवाहन

जनमानस के मन में जितना बिखरा सा अस्पष्ट भाव था
बहते हुये सलिल-धारा में शतदल कमल बना, खिल निखरा

अलंकार के स्वर्णाभूषण, मधुर लक्षणा और व्यंजना
शब्दों की संतुलित प्रविष्टि कर, हाव-भाव से छंद गूँथना

सहज प्रवाहित काव्य सुधामय गीतों की अविरल रस धारा
जितनी बार पढो़, मन कहता एक बार फिर पढें दुबारा

इतिहासों पर रखी नींव पर नव-निर्माण नई सोचों का
नई कल्पना को यथार्थ का दिया कलेवर इसने गहरा.

***

बुधवार, 29 जून 2016

गीत

रचना-प्रतिरचना
राकेश खण्डेलवाल-संजीव
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है

अभय दान जो मांगा करते उन हाथों में शक्ति नहीं है
पाना है अधिकार अगर तो कमर बांध कर लड़ना होगा
कौन व्यवस्था का अनुयायी? केवल हम हैं या फिर तुम हो
अपना हर संकल्प हमीं को अपने आप बदलना होगा
मूक समर्थन कृत्य हुआ है केवल चारण का भाटों का
विद्रोहों के ज्वालमुखी को फिर से हमें जगाना होगा
रहे लुटाते सिद्धांतों पर और मानयताओं पर् अपना
सहज समर्पण कर दे ऐसा पास हमारे ह्रदय नहीं है

अपराधी है कौन दशा का ? जितने वे हैं उतने हम है
हमने ही तो दुत्कारा है मधुमासों को कहकर नीरस
यदि लौट रही स्वर की लहरें कंगूरों से टकरा टकरा
हम क्यों हो मौन ताकते हैं उनको फिर खाली हाथ विवश
अपनी सीमितता नजरों की अटकी है चौथ चन्द्रमा में
रह गयी प्रतीक्षा करती ही द्वारे पर खड़ी हुई चौदस
दुर्गमता से पथ की डरकर जो ्रहे नीड़ में छुपा हुआ
र्ग गंध चूमें आ उसको, ऐसी कोई वज़ह नहीं है

द्रोण अगर ठुकरा भी दे तो एकलव्य तुम खुद बन जाओ
तरकस भरा हुआ है मत का, चलो तीर अपने संधानो
बिना तुम्हारी स्वीकृति के अस्तित्व नहीं सुर का असुरों का
रही कसौटी पास तुम्हारे , अन्तर तुम खुद ही पहचानो
पर्वत, नदिया, वन उपवन सब गति के सन्मुख झुक जाते हैं
कोई बाधा नहीं अगर तुम निश्चय अपने मन में ठानो
सत्ताधारी हों निशुम्भ से या कि शुम्भ से या रावण से
बतलाता इतिहास राज कोई भी रहता अजय नहीं है.
***
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
बिना विचारे कदम उठाना, क्या खुद लाना प्रलय नहीं है?
*
सुर-असुरों ने एक साथ मिल, नर-वानर को तंग किया है
इनकी ही खातिर मर-मिटकर नर ने जब-तब जंग किया है
महादेव सुर और असुर पर हुए सदय, नर रहा उपेक्षित
अमिय मिला नर को भूले सब, सुर-असुरों ने द्वन्द किया है
मतभेदों को मनभेदों में बदल, रहा कमजोर सदा नर
चंचल वृत्ति, न सदा टिक सका एक जगह पर किंचित वानर
ऋक्ष-उलूक-नाग भी हारे, येन-केन छल कर हरि जीते
नारी का सतीत्व हरने से कब चूके, पर बने पूज्यवर
महाकाल या काल सत्य पर रहा अधिकतर सदय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
अपराधी ही न्याय करे तो निरपराध को मरना होगा
ताकतवर के अपराधों का दण्ड निबल को भरना होगा
पूँजीपतियों के इंगित पर सत्ता नाच नाचती युग से
निरपराध सीता को वन जा वनजा बनकर छिपना होगा
घंटों खलनायक की जय-जय, युद्ध अंत में नायक जीते
लव-कुश कीर्ति राम की गायें, हाथ सिया के हरदम रीते
नर नरेंद्र हो तो भी माया-ममता बैरन हो जाती हैं
आप शाप बन अनुभव पाता-देता पल-पल कड़वे-तीते
बहा पसीना फसल उगाए जो वह भूखा ही जाता है मर
लोभतंत्र से लोकतंत्र की मृत्यु यही क्या प्रलय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
कितना भी विपरीत समय हो, जिजीविषा की ही होगी जय
जो बाकी रह जायें वे मिल, काम करें निष्काम बिना भय
भीष्म कर्ण कृप द्रोण शकुनि के दिन बीते अलविदा उन्हें कह
धृतराष्ट्री हर परंपरा को नष्ट करे नव दृष्टि-धनञ्जय
मंज़िल जय करना है यदि तो कदम-कदम मिल बढ़ना होगा
मतभेदों को दबा नींव में, महल ऐक्य का गढ़ना होगा
दल का दलदल रोक रहां पथ राष्ट्रीय सरकार बनाकर
विश्व शक्तियों के गढ़ पर भी वक़्त पड़े तो चढ़ना होगा
दल-सीमा से मुक्त प्रमुख हो, सकल देश-जनगण का वक्ता
प्रत्यारोपों-आरोपों के समाचार क्या अनय नहीं है?
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*

रविवार, 26 जून 2016

geet

​​रचना - प्रति रचना 
राकेश खण्डेलवाल-संजीव 'सलिल'
*
रचना-
जिन कर्जों को चुका न पायें उनके रोज तकाजे आते
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी

हमने चाहा था मेघों के
उच्छवासों से जी बहलाना
इन्द्रधनुष बाँहों में भरकर
तुम तक सजल छन्द पहुँचाना
वनफूलोळ की छवियों वाली
मोहक खुश्बू को संवार कर
होठों पर शबनम की सरगम
आंखों में गंधों की छाया

किन्तु तूलिका नहीं दे सकी हमें कोई भी स्वप्न सिन्दूरी
रही मांहती रह रह सांसें अपने जीने की मजदूरी

सीपी रिक्त रही आंसू की 
बून्दें तिरती रहीं अभागन
खिया रहा कठिन प्रश्नों में
कुंठित होकर मन का सर्पण
कुछ अस्तित्व नकारे जिनका 
बोध आज डँसता है हमको
गज़लों में गहरा हो जाता
अनायास स्वर किसी विरह का

जितनी चाही थी समीपता उतनी और बढ़ी है दूरी
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी

नहीं सफ़ल जो हुये उन्हीं की
सूची में लिखलो हम को भी
पर की कब स्वीकार पराजय ?
क्या कुछ हो जाता मन को भी
बुझे बुझे संकल्प सँजोये
कटी फ़टी निष्ठायें लेकर
जितना बढ़े, उगे उतने की
संशय के बदरंग कुहासे


किसी प्रतीक्षा को दुलराते, भोग रहे ज़िन्दगी अधूरी
और मांगती रहती सांसें अपने जीने की मजदूरी.

***
प्रतिरचना- 
हम कर्ज़ों को लेकर जीते, खाते-पीते क़र्ज़ जरूरी
रँग लाएगी फाकामस्ती, सोच रहे हैं हम मगरूरी 
जिन कर्जों को चुका न पायें, उनके रोज तकाजे आते
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी

मेघदूत से जी बहलाता, 
           अलकापुरी न यक्ष जा सका 
इंद्रधनुष के रंग उड़ गए, 
           वन-गिरि बिन कब मेघ आ सका?  
ऐ सी में उच्छ्वासों से जी, 
           बहलाते हम खुद को छलते  
सजल छन्द को सुननेवाले, 
           मानव-मानस खोज न मिलते 

मदिर साथ की मोहक खुशबू, सपनों की सरगम सन्तूरी 
आँखों में गंधों की छाया, बिसरे श्रृद्धा-भाव-सबूरी 
अर्पण आत्म-समर्पण बन जब, तर्पण का व्यापार बन गया 
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी

घड़ियाली आँसू गंगा बन, 
           नेह-नर्मदा मलिन कर रहे 
साबरमती किनारेवाले, 
           काशी-सत्तापीठ वर रहे
क्षिप्रा-कुंभ नहाने जाते, 
           नीर नर्मदा का ही पाते  
ग़ज़ल लिख रहे हैं मनमानी 
           व्यर्थ 'गीतिका' उसे बताते 

तोड़-मरोड़ें छन्द-भंग कर, भले न दे पिंगल मंजूरी 
आभासी दुनिया के रिश्ते, जिए पिए हों ज्यों अंगूरी 
तजे वर्ण-मात्रा पिंगल जब, अनबूझी कविताएँ रचकर 
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी

मानपत्र खुद ही लिख लाये  
           माला श्रीफल शाल ख़रीदे 
मंच-भोज की करी व्यवस्था  
           लोग पढ़ रहे ढेर कसीदे 
कालिदास कहते जो उनको  
           अकल-अजीर्ण हुआ है गर तो 
फर्क न कुछ, हम सेल्फी लेते 
           फाड़-फाड़कर अपने दीदे 

वस्त्र पहन लेते लाखों का, कहते सच्ची यही फकीरी
पंजा-झाड़ू छोड़ स्वच्छ्ता, चुनते तिनके सिर्फ शरीरी 
जनसेवक-जनप्रतिनिधि जनगण, को बंधुआ मजदूर बनाये    
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
*****

शनिवार, 25 जून 2016

geet

​​रचना-प्रति रचना 
राकेश खण्डेलवाल-संजीव सलिल 
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित - 
बहुत बधाई तुमको भैया! 
अब तुम गीत नहीं लिखते हो 
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है? 
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है   
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें? 
वर देते हैं शिव असुरों को  
अभय दान फिर करें सुरों को   
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को 
महाकाल दें दण्ड भयंकर  
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब 
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब   
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते  
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते  
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर  
सोता कुम्भकर्ण जब जागे  
थाना हो या हो न्यायालय  
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे  
भोग करें, ले आड़ योग की 
पेड़ काटकर छीनें छैंया  
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी 
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी  
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया 
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया 
कहता प्रेम-पंथ को तज कर 
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर 
कौन कहे पोंगा पंडित से 
नहीं महल, हमने चाहा घर 
रहें द्वारका में महारानी 
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण  
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण   
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया   
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया       
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती, 
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं 
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है 
खरे हारकर दूर हुए हैं   
वैतरणी करने चुनाव की 
पार, हुई है साधन गैया 
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?   
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना 
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना  
जान जाए पर नीति न छोड़ें  
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें  
महिषासुरमर्दिनी देश-हित  
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें   
सात जन्म के सम्बन्धों में 
रोज न बदलें सजनी-सैंया 
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है 
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है 
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी  
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी   
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में  
जो वे स्वार्थ साध टकराते  
भूले, बंदर रोटी खाता  
बिल्ले लड़ते ही रह जाते  
डुबा रहे मल्लाह धार में  
ले जाकर अपनी ही नैया 
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी    
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी    
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल  
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल   
बिन साहित्य कहें भाषा को   
नेता-अफसर उद्धारेंगे    
मात-पिता का जीना दूभर 
कर जैसे बेटे तारेंगे  
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर  
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया   
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*****

बुधवार, 17 जून 2015

गीत: राकेश खंडेलवाल

एक गीत:
राकेश खंडेलवाल

आदरणीय संजीव सलिल की रचना ( अच्छे दिन आयेंगे सुनकर जी लिये
नोट भी पायेंगे सुनकर जी लिये ) से प्रेरित
*
प्यास सुलगती, घिरा अंधेरा
बस कुछ पल हैं इनका डेरा
सावन यहाँ अभी घिरता है
और दीप जलने वाले हैं
नगर ढिंढोरा पीट, शाम को तानसेन गाने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं

बँधी महाजन की बहियों में उलझी हुई जन्म कुंडलियाँ
होंगी मुक्त, व्यूह को इनके अभिमन्यु आकर तोड़ेगा
पनघट पर मिट्टी पीतल के कलशों में जो खिंची दरारें
समदर्शी धारा का रेला, आज इन्हें फ़िर से जोड़ेगा

सूनी एकाकी गलियों में
विकच गंधहीना कलियों में
भरने गन्ध, चूमने पग से
होड़ मचेगी अब अलियों में
बीत चुका वनवास, शीघ्र ही राम अवध आने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं

फिर से होंगी पूज्य नारियाँ,रमें देवता आकर भू पर
लोलुपता के बाँध नहीं फिर तोड़ेगा कोई दुर्योधन
एकलव्य के दायें कर का नहीं अँगूठा पुन: कटेगा
राजा और प्रजा में होगा सबन्धों का मृदु संयोजन

लगा जागने सोया गुरुकुल
दिखते हैं शुभ सारे संकुल
मन के आंगन से बिछुड़ेगा
संतापों का पूरा ही कुल
फूल गुलाबों के जीवन की गलियाँ महकाने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं

अर्थहीन हो चुके शब्द ये, आश्वासन में ढलते ढलते
बदल गई पीढ़ी इक पूरी, इन सपनों के फ़ीकेपन में
सुखद कोई अनुभूति आज तक द्वारे पर आकर न ठहरी
भटका किया निरंतर जन गण, जयघोषों के सूने पन में

आ कोई परिवर्तन छू रे
बरसों में बदले हैं घूरे
यहाँ फूल की क्यारी में भी
उगते आये सिर्फ़ धतूरे
हमें पता हैं यह सब नारे, मन को बहकाने वाले हैं
राहें बन्द हो चुकी सारी अच्छे दिन आने वाले हैं ?
*

रविवार, 14 दिसंबर 2014

chitra par kavita: navgeet, doha, kavita, geet

चित्र पर कविता:

१. नवगीत: संजीव 



निज छवि हेरूँ 
तुझको पाऊँ 
मन मंदिर में कौन छिपा है?
गहन तिमिर में कौन दिपा है?
मौन बैठकर 
किसको गाऊँ?
हुई अभिन्न कहाँ कब किससे?
गूँज रहे हैं किसके किस्से??
कौन जानता 
किसको ध्याऊँ?
कौन बसा मन में अनजाने?
बरबस पड़ते नयन चुराने? 
उसका भी मन 
चैन चुराऊँ?

२. दोहा - राकेश खण्डेलवाल

कही-सुनी, रूठी- मनी, यों साधें हर शाम

खुद तो वे राधा हुई, परछाईं घनश्याम

Rakesh Khandelwal rakesh518@yahoo.com

३. कविता - घनश्याम गुप्ता 



राधे
, मैं प्रतिबिम्ब तुम्हारा
मेरा तो अस्तित्व तुम्हीं से
तुम ध्वनि हो, तो मैं प्रतिध्वनि हूं
शब्द अर्थ से, जल तरंग से
जैसे भिन्न नहीं होता है
वैसे ही राधे, मैं तुमसे
जुड़ा हुआ हूं जुड़ा रहूंगा
जब तक तुम हो, बना रहूंगा
राधे, मैं प्रतिबिम्ब तुम्हारा
 
शब्द अर्थ से, जल तरंग से जैसे भिन्न नहीं होता है
 --  यह तुलसीदास के इस दोहे की प्रथम पंक्ति का अनुकरण मात्र है:
 
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न
बंदउँ सीताराम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न

४. -- महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’ 

मेरा क्या केवल निमित्त हूँ

मेरा क्या केवल निमित्त हूँ
तुम ही कर्ता हो गति-कृति के
अगर भृकुटि तन जाए तुम्हारी
पल में एक प्रलय आ जाए
अभय दान मिल जाए तुम्हारा  
सतत एक शांति छा जाए
  
मेरा क्या केवल निमित्त हूँ
ज्यों लुहार की एक धौंकनी
कुछ अस्तित्व नहीं है जिसका
लेकिन उसमें साँस तुम्हारी
जीवन को रोपित करती है
जीने को प्रेरित करती है 

मेरा क्या केवल निमित्त हूँ
मेरा क्या होनाना होना
मुझसे कण तो और बहुत हैं
लेकिन कण-कण में छवि केवल
एक तुम्हारी ही भासित है
सदा रही हैसदा रहेगी.

शनिवार, 8 नवंबर 2014

geet: rakesh khandelwal


गीत:

रिश्ता क्या है तुमसे मेरा

राकेश खण्डेलवाल 

तुमने मुझसे प्रश्न किया है रिश्ता क्या है तुमसे मेरा
सच पूछो तो इसी प्रश्न ने मुझको भी आ आ कर घेरा
 
तुम अपनी वैयक्तिक सीमा के खींचे घेरे में बन्दी
मैं गतिमान निरन्तर, पहिया अन्तरिक्ष तक जाते रथ का
तुम हो सहज व्याख्य निर्देशन बिन्दु बिन्दु के दिशाबोध का
लक्ष्यहीन दिग्भ्रमित हुआ मैं यायावर हूँ भूला भटका
 
तुम अंबर की शुभ्र ज्योत्सना, मैं कोटर में बन्द अँधेरा
सोच रहा हूँ मैं भी जाने तुमसे क्या है रिश्ता मेरा
 
तुम प्रवाहमय रस में डूबी, मधुशाला की एक रुबाई
मैं अतुकान्त काव्य की पंक्ति, जो रह गई बिना अनुशासन
मैं कीकर के तले ऊँघता जेठ मास का दिन अलसाया
तुम अम्बर की हो वह बदली, जो लाकर बरसाती सावन
 
तुम संध्या का नीड़, और मैं जगी भोर का उजड़ा डेरा
प्रश्न तुम्हारा कायम ही है तुमसे क्या है रिश्ता मेरा
 
लेकिन फिर भी कोई धागा, जोड़े हुए मुझे है तुमसे
हम वे पथिक पंथ टकराये हैं जिनके आ एक मोड़ पर
एक अजाना सा आकर्षण हमें परस्पर खींच रहा है
समझा नहीं, कोशिशें की हैं गुणा भाग कर घटा जोड़ कर
 
प्रश्न यही दोहराता आकर हर दिन मुझसे नया सवेरा
जो तुमने पूछा है रिश्ता क्या है तुमसे बोलो मेरा

"Rakesh Khandelwal rakesh518@yahoo.com
sabhar: ekavita

बुधवार, 3 सितंबर 2014

geet: rakesh khandelwal

गीत:

राकेश खण्डेलवाल
*
आह न बोले, वाह न बोले
मन में है कुछ चाह न बोले
जिस पथ पर चलते मेरे पग
कैसी है वो राह न बोले…

फिर भी ओ आराध्य ह्रदय के पाषाणी ! इतना बतला दो
कितने गीत और लिखने हैं ?
कितने गीत और लिखने हैं, लिखे सुबह से शाम हो गई
थकी लेखनी लिखते लिखते, स्याही सभी तमाम हो गई

संझवाती, तुलसी का चौरा, ले गुलाब, गुलमोहर चन्दन
मौसम की हर अँगड़ाई से मैने किये नये अनुबन्धन
नदिया, वादी, ताल, सरोवर, कोयल की मदमाती कुहु से
शब्दों पर आभरण सजा कर, किया तुम्हारा ही अभिनन्दन

किन्तु उपासक के खंडित व्रत जैसा तप रह गया अधूरा
और अस्मिता दीपक की लौ में जलकर गुमनाम हो गई

अँधियारी रजनी में नित ही रँगे चांदनी चित्र तुम्हारे
अर्चन को नभ की थाली में दीप बना कर रखे सितारे
दिन की चौखट पर ऊषा की करवट लेकर तिलक लगाये
जपा तुम्हारा नाम खड़े हो, मैने निमिष निमिष के द्वारे

बन आराधक मैने अपनी निष्ठा भागीरथी बनाई
लगा तुम्हारे मंदिर की देहरी पर वह निष्काम हो गई

है इतना विश्वास कि मेरे गीतों को तुम स्वर देते हो
सागर की गहराई, शिखरों की ऊंचाई भर देते हो
भटके हुए भाव आवारा, शब्दों की नकेल से बाँधे
शिल्पों के इंगित से ही तुम उन्हें छंदमय कर देते हो

कल तक मेरे और तुम्हारे सिवा ज्ञात थी नहीं किसी को
आज न जाने कैसे बातें यह, बस्ती में आम हो गईं

जो अधरों पर संवरा आकर, एक नाम है सिर्फ़ तुम्हारा
और तुम्हारी मंगल आरति से गूँजा मन का चौबारा
हो ध्यानस्थ, तुम्हारे चित्रों से रँगकर नैनों के पाटल
गाता रहा तुम्हीं को केवल, मेरी धड़कन का इकतारा

किन्तु न तुमने एक सुमन भी अपने हाथों दिया मुझे है
जबकि तुम्हारे नाम-रूप की देहरी तीरथधाम हो गई

आशीषों की अनुभूति को मिला नीड़ न अक्षयवट का
तॄषित प्राण की तॄष्णाओं को, देखा, हाथ रूका मधुघट का
दूर दिशा के वंशीवादक ! तान जहां सब विलय हो रहीं
आज उसी बस एक बिन्दु पर सांसों का यायावर अटका

स्वर था दिया, शब्द भी सौंपे, और न अब गीतों का ॠण दो
एक बात को ही दोहराते अभिव्यक्तियां विराम हो गईं

अनुभूति को अहसासों को, बार बार पिंजरे में डाला
एक अर्थ से भरा नहीं मन, अर्थ दूसरा और निकाला
आदि-अंत में धूप-छाँह में, केवल किया तुम्हें ही वर्णित
अपने सारे संकल्पों में मीत तु्म्हें ही सदा संभाला

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