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शुक्रवार, 30 जून 2017

vyangya: purnima burman

मेरी रूहानी यात्रा: पूर्णिमा वर्मन


साभार: ब्लॉग बुलेटिन 
पूर्णिमा वर्मन का नाम वेब पर हिंदी की स्थापना करने वालों में अग्रगण्य है। १९९६ से निरंतर वेब पर सक्रिय, उनकी जाल पत्रिकाएँ अभिव्यक्ति तथा अनुभूति वर्ष २००० से अंतर्जाल पर नियमित प्रकाशित होने वाली पहली हिंदी पत्रिकाएँ हैं। इनके द्वारा उन्होंने प्रवासी तथा विदेशी हिंदी लेखकों को एक साझा मंच प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण काम किया है। लेखन एवं वेब प्रकाशन के अतिरिक्त वे जलरंग, रंगमंच, संगीत तथा हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय विकास के अनेक कार्यों से जुड़ी हैं।
संप्रति : 
संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कला कर्म में व्यस्त।
पुरस्कार व सम्मान : 
दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण "प्रवासी मीडिया सम्मान", जयजयवंती द्वारा जयजयवंती सम्मान, रायपुर में सृजन गाथा के "हिंदी गौरव सम्मान", विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर द्वारा मानद विद्यावाचस्पति (पीएच.डी.) की उपाधि तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान के पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार से सम्मानित।
प्रकाशित कृतियाँ : 
कविता संग्रह : पूर्वा, वक्त के साथ एवं चोंच में आकाश, संपादित कहानी संग्रह- वतन से दूर, संपादित नवगीत संग्रह- नवगीत - २०१३, चिट्ठा : चोंच में आकाश, एक आँगन धूप, नवगीत की पाठशाला, शुक्रवार चौपाल, अभिव्यक्ति अनुभूति।
अन्य भाषाओं में- फुलकारी (पंजाबी में), मेरा पता (डैनिश में), चायखाना (रूसी में)

गर्मी फिर आ गई सजनी

।। मंगलाचरण ।।

जिन सूर्य भगवान के पीले कॉडरॉय के अंगरीय अर्थात् जीन्स के समान परिधान से निकलती पीली किरणें आठ बजे तक सोने वाले कलियुगी प्राणियों को सुबह–सुबह जगा कर 'बोर' करती हैं, जिनके लाल रंग के उत्तरीय अर्थात जैकेट के समान परिधान से बिखरने वाली सम्मोहक लाल किरणें खूबसूरत प्राणियों को गॉगल्स और छाता लगाने को मजबूर करती है, इस प्रकार के लाल–पीली किरणों के स्वामी, ग्रीष्म ऋतु के पिता, राजनीति रूपी आकाश में तानाशाह के पुत्र की भाँति चमकने वाले सूर्य भगवान को नमस्कार है, जिनके प्रताप से हे सजनी, गर्मी फिर आ गई है।

।। अथ ऋतु संदर्भ ।।

घर में हर ओर कामिक्स के पन्ने इधर उधर उड़ने लगे। साल भर से 'लिविंग रूम' में सजे बैटरी के खिलौने फ़र्श पर सर्वत्र दिखाई देने लगे। कैरम की गोटियों के खड़खड़ाने की आवाज़ें नियमित रूप से सुनाई देने लगीं। बैगाटेल की गोलियाँ बिस्तरों और कालीनों पर लुढ़कने लगीं। रसोईघर के 'ब्लेंडर' नामक यंत्र से 'मिल्कशेक' नामक व्यंजन बनाने की मधुर ध्वनि कानों को भँवरों के गुँजन के समान आह्लादित करने लगी। दोपहर भर दंगा करने वाले बच्चे 'ए सी' नामक यंत्र की ऐसी की तैसी कर के लंबी–लंबी नींद काटने लगे। बारामदे में लगा तापमापक यंत्र 45 डिग्री सेल्सियस की रेखा को पार कर गया। प्रात:काल स्कूल जानेवाले बच्चों के स्थान पर पीले अमलतास के फूल चारदीवारी के पार से हाथ हिला–हिला कर टाटा कहने लगे। छोटे बच्चे स्कूल बंद होने के कारण घर में ऊधम करने लगे। इन सभी दृष्यों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि हे सजनी गर्मी फिर आ गई।

हे सजनी गर्मी क्या आई पसीने का कूलर चालू हो कर तन बदन को शीतल करने लगा। भागती हुई लू ने अगले ओलंपिक दौड़ का पूर्वाभ्यास नियमित रूप से शुरू कर दिया। दाद देते हुए सूखे पत्तों के ढेर ने भी उसको उत्साहित करते हुए खड़खड़ाना शुरू कर दिया। हे सजनी बाह्य वातावरण पर्णरूपेण यह विदित कराने लगा कि गरमी फिर आ गई।

।। अथ प्रयाग वर्णन ।।

हे सजनी, शीतल पेय यत्र–तत्र सर्वत्र दिखाई देने लगे। सिविल लाइन्स की 'सोफेस्टिकेटेड' महिलाएँ फव्वारे वाले चौराहे पर खड़ी हो आइसक्रीम के कोन को जीभ निकाल कर चाटने लगी। उन्हें यह भी ध्यान न रहा कि उनके ओठों पर पुती महँगी लिपस्टिक इस क्रिया द्वारा लुप्त हो रही है। हे सजनी, किशोर युवक–युवतियाँ अपने–अपने गर्ल फ्रेंड और ब्वाय फ्रेंड के साथ सोडावाटर की बोतलों पर माँ–बाप का पैसा फूँकने लगे। आइसक्रीम और सोडावाटर ख़रीद सकने की सामर्थ्य न रखनेवाले ग़रीब प्राणी दस पैसे गिलास वाले ठंडे पानी से अपनी–अपनी महबूबाओं को संतुष्ट करने लगे। हे सजनी अमीर–ग़रीब हर प्रकार के प्राणी को शीतल पेय का आनंद प्रदान करनेवाली गर्मी की ऋतु का आगमन निश्चय ही फिर हो गया।

पुदीने से सजे लाल मटकों में आम के पने वाले चौक बाज़ार में अपने–अपने ठेलों सहित सुशोभित होने लगे। ताज़ा–ताज़ा ठंडा–मीठा बर्फ़ की चुस्की वाले बर्फ़ की नन्हीं सिल्लियों और शर्बत की लाल–पीली बोतलों के साथ चौक से अतरसुइया तक के फेरे लगाने लगे। लोकनाथ के शुद्ध घी वाले गर्मागरम समोंसों की सुगंध अब कुछ मंद पड़ गई। जगमग करती बड़े–बड़े शीशों की शोविंडो वाली बृहदाकार दूकानों के सामने, अफ्रीकी हाथी के बड़े–बड़े कानों के सदृश तिरपाल के पर्दे लहराने लगे। हे सजनी, जनगण का रंग परिवर्तित करने वाली गर्मी फिर आ गई।

।। अथ वाराणसी वर्णन ।।

वर्षा के विरह में गंगा घट कर आधी रह गई। वे सभी लोग जो जाड़ों में मनों मैल लादे रहने का गौरव धारण किए थे, प्रात:काल निद्रा त्याग कर तट पर भीड़ बनाने लगे। डुबकियाँ लेने और नहाने लगे। इसी बहाने कुछ मनचले और मनचलियाँ नैन और सैन लड़ाने लगे। किनारों पर छिपे हुए चोर चेन, घड़ियाँ और ट्रांज़िस्टर चुराने लगे। भैसें ग्वालों के खूँटे त्याग कर तालाबों की शोभा बढ़ाने लगीं। उनकी रखवाली करते किशोर लड़के धूप में घूमते खेलते विदेशी मेमों की तरह अपने शरीर को 'टैन' करते नगर परिसर की शोभा बढ़ाने लगे। विदेशी फ़कीर अर्थात हिप्पी छोकरे छोकरियाँ मंदिरों की आड़ में यत्र-तत्र सुस्ताने लगे। भदैनी से दशाश्वमेध घाट तक लगने वाले लंबे-लंबे ट्रैफ़िक जाम अब दिखाई नहीं देते। 

पति बच्चों और रिश्तेदारों को व्यस्त रखने वाली जाड़े की दोपहर अब गर्मी के दिनों में चहल पहल से भर उठी। ठंडाई और पान के दौर जमने लगे। मिर्ज़ापुरी कालीनों पर चादर बिछाकर मामा मामी बच्चों सहित ताश के पत्तों पर ट्वैंटी टू खेलने लगे। खेलते–खेलते खरबूज़ों के बीज छिलकों के बड़े ढेर में परिवर्तित होने लगे। हर शाम उनको झाड़ू से बुहारती महरी ज़ोर–ज़ोर से बड़बड़ाने लगी। इस प्रकार मौसम में गरमागरम बड़बड़ाहट भरने वाली गर्मी फिर आ गई।

।। अथ दिल्ली वर्णन ।।

हे सजनी, गर्मी की प्रचंड तपन से व्याकुल होकर बिजली की सप्लाई आँख–मिचौली करने लगी। जब–तब 'पावर–कट' होने लगे। इस प्रकार देश में स्वयं ही समाजवाद आने लगा। जिन धनिकों के वातानुकूलित कमरे एयरकंडीशनर की कृपा से ठंडे शिमला बने रहते थे, उन्हें काले धन की कमाई के फलस्वरूप 'पावर–कट' का कष्ट भोगने का दंड मिला। इस प्रकार पूँजीपतियों को उनकी काला–बाज़ारी का दंड पाते देख ग़रीब प्राणी प्रसन्न होकर समान जीवन–स्तर के गुण गाने लगे। हे सजनी, गर्मी एक बार फिर प्रत्येक प्राणी को समान अधिकार का सुख देने लगी। जवान युवक–युवतियाँ अपने–अपने कमरे बंद कर डिस्को संगीत की ब्लां–ब्लां पर तन–बदन को हिचकोले देने लगे। हे सजनी, दिशाओं में डिस्को की धुन भर देने वाली गर्मी सचमुच ही आ गईं।

बाज़ारों में मोटी भारी सिल्क की साड़ियाँ पीछे वाले स्टोर में रख दी गई। कोटा, वायल और आरगेंडी के हरे, गुलाबी छोटे–छोटे आकर्षक छापे शो विंडो में अपनी छवि बिखरने लगे। अद्दी और मलमल की आकस्मिक यानी 'सीजनल' दुकानों में आठ रुपए पीस के कपड़े धड़ल्ले से बिकने लगे। ठेलों पर सजे फुलपैंट अब नहीं दिखते और रंग–बिरंगे निक्कर पुन: धूम मचाने लगे। चिकन के कुर्ते की दूकानों में ठेलमेल और भीड़भाड़ दिखाई देने लगी। मोजे और दस्तानों की दूकानों में जन–सामान्य की आवाजाही बहुत कम हो गई। हर दूसरी–तीसरी दुकान पर लटकती, दस रुपए की लच्छी वाली रंग–बिरंगी ऊन की मालाओं के इंद्रधनुष, शरदकालीन बादलों की तरह लुप्त हो गए। गर्मी फिर आ ही गई।

।। अथ मीरजापुर वर्णन ।।

सालभर से सूने पड़े दूसरे और तीसरे पहर अब रंगीन हो उठे। ग्रामीण बूढ़ों के झुंड पीपल के नीचे बने चबूतरे पर बैठकर नाती–पोतों की बुराई–भलाई करने में व्यस्त हो गए। घर की औरतें दोपहर भर बैठी बहू–बेटियों और नए ज़माने को कोसने लगी। छोटे शहरों में बड़े भैया यूनिवर्सिटी बंद हो जाने पर यार–दोस्तों सहित अड्‌डा जमाकर 'वीडियो पर नई फ़िल्में देखने लगे। संतरे और गन्ने के रस के ठेले अपनी कांति बिखेरने लगे। फलों की सुगंध से आकर्षित होकर मक्खियों के माता–पिता अपने संपूर्ण अनियोजित, असुखी, मरभुक्खे परिवार के साथ ठेलों पर छा गए। स्वास्थ्य और सफ़ाई के सारे कार्यक्रम पर पानी फेरते मक्खियों के झुंड हैजे का प्रकोप फैलाते हुए, डाक्टरों के बीच फैली बेरोज़गारी दूर करने का प्रयास करने लगे। जन साधारण में फैलते अतिसार और पेट की ख़राबी के रोगों के कारण हर नुक्कड़ पर बैठने वाले हर छोटे–बड़े डाक्टर की आमदनी के रास्ते खुलने लगे। हे सजनी, इस प्रकार डाक्टरों का भला करनेवाली गर्मी फिर आ गई।

शालीमार आइसक्रीम की आवाज़ें दोपहर के घोर सन्नाटे को वेधने लगीं। सफ़ेद खरबूजे के ढेर बड़े–बड़े हीरों के पहाड़ की तरह मंडी में चमकने लगे। इसके साथ ही रखे हरे तरबूज, पन्ने के भीमकाय गोल आकारों की तरह दृष्टि को चकाचौंध करने लगे। लैला की उँगलियाँ– मजनू की पसलियाँ– ककड़ियाँ अपने नाजुक कलेवर के साथ भोजन–प्रेमियों का हृदय जीतने लगीं। सोने के चंद्रहार की तरह आकर्षक कटहल, भगवान विष्णु के मुकुट में टँके बड़े–से पन्ने के आकार के परवल और नवदूर्वादल के समान हरी–हरी भिंडियों ने मटर और गोभी की छुट्टी कर दी। हे सजनी, यत्र–तत्र छा जानेवाली गर्मी फिर आ गई। 

।। अथ दुबई नगर वर्णन ।।

बच्चों ने देर रात तक सड़कों पर खेलना बंद कर दिया। इसके कारण अरबी भाषा में बिखरते हुए मनोरंजक शब्दों की ध्वनि अब सुनाई नहीं देती। विदेशी अपने अपने देशों को छुट्टी मनाने चले गए। हमेशा भरी रहने वाली सड़कें सुनसान हो गईं। दूकानों और बाज़ारों में अब भीड़ नहीं दिखाई देती। फिर भी सड़कें "समर फ़ेस्टिवल" नामक उत्सव के बड़े-बड़े 'होर्डिंग' नामक चित्रों से सज गईं। भारी भरकम "मेगा–माल" कही जाने वाली बाज़ारनुमा इमारतें अपने यहाँ प्रतियोगिताएँ और नाच गाने आयोजित करने लगीं। इस प्रकार वे विदेशी कलाकारों को बुलाकर उनके नाम से स्थानीय लोगों को आकर्षित करने लगीं। सूर्य भगवान की तेज़ किरनें नगर के चार दीर्घाओं वाले विस्तृत राजमार्गों पर तीव्र गति से दौड़ने वाली वातानुकूलित कारों के भीतर भी किरणावरोधी नयन कवच अर्थात पोलरायड ऐनक पहनने को बाध्य करने लगीं। ओपेन एअर रेस्ट्रां अपना बोरिया बिस्तर उठा कर अंदर 'ए सी' में पैक हो गए। 

जन सामान्य का सारा ध्यान और मनोरंजन रेडियो, टी वी, कंप्यूटर और वीडियो गेम पर सिमट आया। रेडियो पर गर्मी के गाने बजने लगे, गर्मी के नाटक होने लगे। यहाँ तक कि कविताएँ और लेख भी गर्मी के विषय में ही प्रसारित होने लगे। यही हाल पत्र–पत्रिकाओं का भी हुआ। कहीं कटहल के कोफ्ते छपने लगे, कहीं शर्बतों के सौ व्यंजन प्रकाशित होने लगे। गर्मियों में 'रूप की रक्षा कैसे' इस विषय पर सिने अभिनेत्रियाँ अपने-अपने व्याख्यान देने लगीं। यूरोप और अमरीका में छुट्टियाँ कहाँ और कैसे मनायी जाएँ इस विषय पर बड़ी–बड़ी यात्रा कंपनियाँ अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगीं। रात में 'वाटर किगडम' नामक मनोरंजन स्थलों पर भीड़ जमा होने लगी। हे सजनी जो लोग साल भर काम में अपना भेजा खपाए रहते थे उनको आराम देने की यह ऋतु अब आ ही गई।

।। अथ उपसंहार ।।

इस प्रकार हर ओर ग्रीष्म ऋतु का सौंदर्य देख कर हे सजनी मेरा मन भी विचलित हो उठा है। मैं यहाँ अपने बगीचे में अंतिम साँसें लेती हुई पैंज़ी की क्यारियों के दु:ख में दुखी हूँ और उधर बर्मिंघम से शैल जीजी अपने बगीचे में डैफोडिल खिला रही हैं। लानत है मुझ पर इस दुख को दूर करने की बजाय मैं फ़ालतू बैठी अपना की-बोर्ड टिपटिपा रही हूँ। मित्रों ये क्यारियाँ अब साफ़ करनी हैं। गरमी भर यहाँ कोचिया और पोर्टूलका के सिवा और कुछ नहीं उगेगा। तो फिर, कही डैफोडिल खिलाने और कहीं पैंजी का समूल नाश करने वाली इस ग्रीष्म ऋतु का वर्णन यहीं संपूर्ण करते हैं। विश्व में कहीं सुख और कहीं दु:ख का वितरण करने वाली यह ऋतु हमारे सभी पाठकों का कल्याण करे।

ayurved / swasthya

स्वास्थ्य लाभ के आयुर्वेदिक सूत्र
*
गला और छाती की बीमारी का इलाज :
गले में इन्फेक्शन की श्रेष्ठ दवा है हल्दी । गले में दर्द, खराश, खांसी, कफ, तोसिल या अन्य पीड़ा हो तो आधा चम्मच कच्ची हल्दी का रस गले में डालकर थोड़ी देर चुप बैठ जाएँ। हल्दी गले में लार के साथ गले के अंदर जायेगी और एक खुराक में ही आराम मिलेगा।
दूसरी दवा है अदरक। अदरक का छोटा सा टुकड़ा मुह में रखकर और टॉफी की तरह चूसें तो खाँसी ठीक होगी। खाँसते-खाँसते चेहरा लाल पड़ गया हो तो अदरक के रस में थोड़ा पान का रस, गुड या शहद मिलाकर, थोडा गरम कर एक-एक चम्मच पीने से तुरंत आराम होगा ।
अनार का रस गरम कर पियें तो खाँसी तुरन्त ठीक होती है।
काली मिर्च चबाकर गरम पानी पियें या काली मिर्च चूसें तो खाँसी बंद होती है।
दमा, ब्रोंकिओल अस्थमा आदि की सबसे अच्छा दवा है गौमूत्र। गौ का सवेरे निकला आधा कप गोमूत्र पियें तो दमा, अस्थमा, ब्रोंकिओल अस्थमा ठीक होता है ।
दालचीनी का पाउडर रोज सुबह आधे चम्मच खाली पेट गुड या शहद मिलाकर गरम पानी के साथ लेने से दमा, अस्थमा ठीक होता है।
लगातार पाँच-छ: माह गोमूत्र पीने से टी.बी. ठीक होता है।
***

muktak

मुक्तक:
फसल हो मोगरा चंपा चमेली जुही केसर की
फसल रौंदे न कोई उठी हो तलवार नाहर की
अहिंसा-शांति का आशय न कायरता हुआ करता
चढ़ा सर शत्रु के कदमों पे भारत माँ की प्रेयर की
*
फसल हो समझदारी, भाईचारे, स्नेह, साहस की
फसल हो गौतमी परित्याग, सुजाता के पायस की
फसल हो स्वच्छता, मेहनत, नए निर्माण की निश-दिन
फसल संघर्ष की अरि दल को भूनें गोलियाँ अनगिन
***

bhojpuri haiku

भोजपुरी हाइकु:
संजीव
*
आपन बोली
आ ओकर सुभाव
मैया क लोरी.
*
खूबी-खामी के
कवनो लोकभासा
पहचानल.
*
तिरिया जन्म
दमन आ शोषण
चक्की पिसात.
*
बामनवाद
कुक्कुरन के राज
खोखलापन.
*
छटपटात
अउरत-दलित
सदियन से.
*
राग अलापे
हरियल दूब प
मन-माफिक.
*
गहरी जड़
देहात के जीवन
मोह-ममता.
*
३०-६-२०१४

dandkala chhand


छंद सलिला:
दण्डकला छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-८-६, पदांत लघुगुरु, चौकल में पयोधर (लघु गुरु लघु / जगण) निषेध. श्री विभोर जी के अनुसार १, २, ४ तुक समान, तीसरी तुक शेष तीन से भिन्न हो. 
.
लक्षण छंद: 
यति दण्डकला दस / आठ आठ छह / लघु गुरु सदैव / पदांत हो 
जाति लाक्षणिक गिन / रखें हर पंक्ति / बत्तिस मात्रा / सुखांत हो
.
उदाहरण: 
१. 
कल कल कल प्रवहित / नर्तित प्रमुदित / रेवा मैया / मन बसिए 
निर्मल जलधारा / भय-दुःख हारा / शीतल छैयां / दे हँसिये 
कूदे पर्वत से / छप-छपाक् से / जलप्रपात रच / हँस नचिये  
चुप मंथर गति बह / पीर-व्यथा दह / सत-शिव-सुंदर / नित कहिए
*
२. 
'बुन्देलखंडपति / यवननाथ अरि / अभिनन्दन असि / साधक हे! 
बल-वीर्य पराक्रम / विजय-वरण क्षम / रण-जेता अरि / नाशक हे! 
जय जय छत्रसाल / योद्धा-मराल / शत वंदन नर / नाहर हे! 
थी जाती बाजी / लाकर बाजी / जीती माँ आ/राधक हे!
*
३. 
संध्या मन मोहे / गाल गुलाबी / चाल शराबी / ज्यों हिरणी  
शशि देख झूमता / लपक चूमता / सिहर उठे वह / नव घरनी 
कुण्डी खड़काये / ननद दुपहरी / सास निशा खाँ/से दहला
देवर तारागण / ससुर आसमां / पांसे फेंकें / मन बहला  
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टीप: पहले उदाहरण में चारों पंक्तियों में पदांत साम्य है. दूसरे उदाहरण में तीसरी पंक्ति के पदांत में आंशिक भिन्नता है. तीसरे उदाहरण में २-२ पंक्तियों में पदांत साम्य है. 
मेरे मात में इससे छंद परिवर्तन नहीं होता चूंकि कुल मात्रा संख्या तथा यति नियम समान हैं. 
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दण्डकला, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

navgeet

नवगीत
तुलसी
*
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
सहिष्णुता का
पौधा सूखा
घर-घर तनातनी।
*
सदा सुहागन मुरझाई है
खुशियाँ दूर हुईं।
सम्बन्धों की नदियाँ सूखीं
या फिर पूर हुईं।
आसों-श्वासों में
आपस में
बातें नहीं बनी।
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
*
जुही-चमेली पर
चंपा ने
क्या जादू फेरा।
मगरमस्त संग
'लिव इन' में
हैं कैद, कसा घेरा।
चार दिनों में
म्यारी टूटी
लकड़ी रही घुनी।
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
*
झुके न कोई तो कैसे
हो तालमेल मुमकिन।
बर्तन रहें खटकते फिर भी
गा-नाचें ता-धिन।
तृप्ति चाहते
प्यासों ने ध्वनि
कलकल नहीं सुनी।
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
३-६-२०१६
***

गुरुवार, 29 जून 2017

muktika

समस्यापूर्ति 
प्रदत्त पंक्ति- मैं जग को दिल के दाग दिखा दूँ कैसे - बलबीर सिंह।
*
मुक्तिका:
(२२ मात्रिक महारौद्र जातीय राधिका छंद)   
मैं जग को दिल के दाग, दिखा दूँ कैसे?
अपने ही घर में आग, लगा दूँ कैसे?
*
औरों को हँसकर सजा सुना सकता हूँ  
अपनों को खुद दे सजा, सजा दूँ कैसे?
*
सेना को गाली बकूँ, सियासत कहकर 
निज सुत सेना में कहो, भिजा दूँ कैसे?
*
तेरी खिड़की में ताक-झाँक कर खुश हूँ 
अपनी खिड़की मैं तुझे दिखा दूँ कैसे?
*
 'लाइक' कर दूँ सब लिखा, जहाँ जो जिसने 
क्या-कैसे लिखना, कहाँ सिखा दूँ कैसे?
*



बुधवार, 28 जून 2017

गीत

एक रचना:
तुम
*
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सूरज करता ताका-झाँकी
मन में आँकें सूरत बाँकी
नाच रहे बरगद बब्बा भी
झूम दे रहे ताल।
तुम इठलाईं
तो पनघट पे
कूकी मौन रसाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सद्यस्नाता बूँदें बरसें
देख बदरिया हरषे-तरसे
पवन छेड़ता श्यामल कुंतल
उलझें-सुलझे बाल।
तुम खिसियाईं
पल्लू थामे  
झिझक न करो मलाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
बजी घंटियाँ मन मंदिर में
करी अर्चना कोकिल स्वर में
रीझ रहे नटराज उमा पर
पहना, पहनी माल।
तुम भरमाईं
तो राधा लख
नटवर हुए निहाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
करछुल-चम्मच बाजी छुनछन
बटलोई करती है भुनभुन
लौकी हाथ लगाए हल्दी
मुकुट टमाटर लाल।  
तुम पछताईं
नमक अधिक चख
स्वेद सुशोभित भाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
पूर्वा सँकुची कली नवेली    
हुई दुपहरी प्रखर हठीली  
संध्या सुंदर, कलरव सस्वर      
निशा नशीली चाल।  
तुम हुलसाईं
अपने सपने  
पूरे किये कमाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*



navgeet

नवगीत 
खिला मोगरा 
*
खिला मोगरा 
जब-जब, तब-तब 
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
२८-६-२०१६

geet

गीत-
*
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
राकेशी ज्योत्सना न शीतल, लिये क्रांति की नव मशाल है 
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
*
कल तक रही विदेशी सत्ता, क्षति पहुँचाना लगा सार्थक
आज स्वदेशी चुने हुए से टकराने का दृश्य मार्मिक
कुरुक्षेत्र की सीख यही है, दु:शासन से लड़ना होगा
धृतराष्ट्री है न्याय व्यवस्था मिलकर इसे बदलना होगा
वादों के अम्बार लगे हैं, गांधारी है न्यायपीठ पर
दुर्योधन देते दलील, चुक गये भीष्म, पर चलना होगा
आप बढ़ा जी टकराने अब उसका तिलकित नहीं भाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
हाथ हथौड़ा तिनका हाथी लालटेन साइकिल पथ भूले
कमल मध्य को कुचल, उच्च का हाथ थाम सपनों में झूले
निम्न कटोरा लिये हाथ में, अनुचित-उचित न देख पा रहा
मूल्य समर्थन में, फंदा बन कसा गले में कहर ढा रहा
दाल टमाटर प्याज रुलाये, खाकर हवा न जी सकता जन
पानी-पानी स्वाभिमान है, चारण सत्ता-गान गा रहा
छाते राहत-मेघ न बरसें, टैक्स-सूर्य का व्याल-जाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
महाकाल जा कुंभ करायें, क्षिप्रा में नर्मदा बहायें
उमा बिना शिव-राज अधूरा, नंदी चैन किस तरह पायें
सिर्फ कुबेरों की चाँदी है, श्रम का कोई मोल नहीं है
टके-तीन अभियंता बिकते, कहे व्यवस्था झोल नहीं है
छले जा रहे अपनों से ही, सपनों- नपनों से दुःख पाया
शानदार हैं मकां, न रिश्ते जानदार कुछ तोल नहीं है
जल पलाश सम 'सलिल', बदल दे अब न सहन के योग्य हाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
***
१८-६-२०१६

मंगलवार, 27 जून 2017

दोहा

दोहा सलिला                                                                                            *                                                                                                     जिसे बसाया छाँव में, छीन रहा वह ठाँव 
आश्रय मिले न शहर में, शरण न देता गाँव 
*
जो पैरों पर खड़े हैं, 'सलिल' उन्हीं की खैर 
पैर फिसलते ही बनें, बंधु-मित्र भी गैर 
*
सपने देखे तो नहीं, तुमने किया गुनाह 
किये नहीं साकार सो, जीवन लगता भार 
*
दाम लागने की कला, सीख किया व्यापार 
नेह किया नीलाम जब, साँस हुई दुश्वार 
माटी में मिल गए हैं, बड़े-बड़े रणवीर  
किन्तु समझ पाए नहीं, वे माटी की पीर 
नाम रख रहे आज वे, बुला-मनाकर पर्व  
नाम रख रहे देख जन, अहं प्रदर्शन गर्व  
*                                                                                                   
हैं पत्थर के सनम भी, पानी-पानी आज                                           
पानी शेष न आँख में, देख आ रही लाज 
*

laghuktha

लघुकथा
दुहरा चेहरा
*
- 'क्या कहूँ बहनजी, सच बोला नहीं जाता और झूठ कहना अच्छा नहीं लगता इसीलिये कहीं आना-जाना छोड़ दिया. आपके साथ तो हर २-४ दिन में गपशप होती रही है, और कुछ हो न हो मन का गुबार तो निकल जाता था. अब उस पर भी आपत्ति है.'

= 'आपत्ति? किसे?, आपको गलतफहमी हुई है. मेरे घर में किसी को आपत्ति नहीं है. आप जब चाहें पधारिये और निस्संकोच अपने मन की बात कर सकती हैं. ये रहें तो भी हम लोगों की बातों में न तो पड़ते हैं, न ध्यान देते हैं.'
- 'आपत्ति आपके नहीं मेरे घर में होती है. वह भी इनको या बेटे को नहीं बहूरानी को होती है.'
= 'क्यों उन्हें हमारे बीच में पड़ने की क्या जरूरत? वे तो आज तक कभी आई नहीं.'
-'आएगी भी नहीं. रोज बना-बनाया खाना चाहिए और सज-धज के निकल पड़ती है नेतागिरी के लिए. कहती है तुम जैसी स्त्रियाँ घर का सब काम सम्हालकर पुरुषों को सर पर चढ़ाती हैं. मुझे ही घर सम्हालना पड़ता है. सोचा था बहू आयेगी तो बुढ़ापा आराम से कटेगा लेकिन महारानी तो घर का काम करने को बेइज्जती समझती हैं. तुम्हारे चाचाजी बीमार रहते हैं, उनकी देख-भाल, समय पर दवाई और पथ्य, बेटे और पोते-पोती को ऑफिस और स्कूल जाने के पहले खाना और दोपहर का डब्बा देना. अब शरीर चलता नहीं. थक जाती हूँ.'
='आपकी उअमर नहीं है घर-भर का काम करने की. आप और चाचाजी आराम करें और घर की जिम्मेदारी बहु को सम्हालने दें. उन्हें जैसा ठीक लगे करें. आप टोंका-टाकी भर न करें. सबका काम करने का तरीका अलग-अलग होता है.'
-'तो रोकता कौन है? करें न अपने तरीके से. पिछले साल मैं भांजे की शादी में गयी थी तो तुम्हारे चाचाजी को समय पर खाना-चाय कुछ नहीं मिला. बाज़ार का खाकर तबियत बिगाड़ ली. मुश्किल से कुछ सम्हली है. मैंने कहा ध्यान रखना था तो बेटे से नमक-मिर्च लगाकर चुगली कर दी और सूटकेस उठाकर मायके जाने को तैयार ही गयी. बेटे ने कहा तो कुछ नहीं पर उसका उतरा हुआ मुँह देखकर मैं समझ गई, उस दिन से रसोई में घुसती ही नहीं. मुझे सुना कर अपनी सहेली से कह रही थी अब कुछ कहा तो बुड्ढे-बुढ़िया दोनों को थाने भिजवा दूँगी. दोनों टाइम नाश्ते-खाने के अलावा घर से कोई मतलब नहीं.'
पड़ोस में रहनेवाली मुँहबोली चाची को सहानुभूति जता, शांत किया और चाय-नाश्ता कराकर बिदा किया. घर में आयी तो चलभाष पर ऊँची आवाज में बात कर रही उनकी बहू की आवाज़ सुनायी पड़ी- ' माँ! तुम काम मत किया करो, भाभी से कराओ. उसका फर्ज है तुम्हारी सेवा करे....'
मैं विस्मित थी स्त्री हितों की दुहाई देनेवाली शख्सियत का दुहरा चेहरा देखकर.
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संपर्क- ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

muktak

मुक्तक
*
प्राण, पूजा कर रहा निष्प्राण की
इबादत कर कामना है त्राण की
वंदना की, प्रार्थना की उम्र भर-
अर्चना लेकिन न की संप्राण की
.
साधना की साध्य लेकिन दूर था
भावना बिन रूप ज्यों बेनूर था
कामना की यह मिले तो वह करूँ
जाप सुनता प्रभु न लेकिन सूर था
.
नाम ले सौदा किया बेनाम से
पाठ-पूजन भी कराया दाम से
याद जब भी किया उसको तो 'सलिल'
हो सुबह या शाम केवल काम से
.
इबादत में तू शिकायत कर रहा
इनायत में वह किफायत कर रहा
छिपाता तू सच, न उससे कुछ छिपा-
तू खुदी से खुद अदावत कर रहा
.
तुझे शिकवा वह न तेरी सुन रहा
है शिकायत उसे तू कुछ गुन रहा
है छिपाता ख्वाब जो तू बुन रहा-
हाय! माटी में लगा तू घुन रहा
.
तोड़ मंदिर, मन में ले मन्दिर बना
चीख मत, चुप रह अजानें सुन-सुना
छोड़ दे मठ, भूल गुरु-घंटाल भी
ध्यान उसका कर, न तू मौके भुना
.
बन्दा परवर वह, न तू बन्दा मगर
लग गरीबों के गले, कस ले कमर
कर्मफल देता सभी को वह सदा-
काम कर ऐसा दुआ में हो असर
***