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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2019

गीत आस-आस वेदिका

एक रचना
*
श्वास श्वास समिधा है
आस-आस वेदिका
*
अधरों की स्मित के
पीछे है दर्द भी
नयनों में शोले हैं
गरम-तप्त, सर्द भी
रौनकमय चेहरे से
पोंछी है गर्द भी
त्रास-त्रास कोशिश है
हास-हास साधिका
*
नवगीती बन्नक है
जनगीति मन्नत
मेहनत की माटी में
सीकर मिल जन्नत
करना है मंज़िल को
धक्का दे उन्नत
अभिनय के छंद रचे
नए नाम गीतिका
*
सपनों से यारी है
गर्दिश भी प्यारी है
बाधाओं को टक्कर
देने की बारी है
रोप नित्य हौसले
महकाई क्यारी है
स्वाति बूँद पा मुक्ता
रच देती सीपिका
***
संजीव
९४२५१८३२४४

एक रचना हस्ती

एक रचना
हस्ती
*
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
थर्मोडायनामिक्स बताता
ऊर्जा बना न सकता कोई
बनी हुई जो ऊर्जा उसको
कभी सकेगा मिटा न कोई
ऊर्जा है चैतन्य, बदलती
रूप निरंतर पराप्रकृति में
ऊर्जा को कैदी कर जड़ता
भर सकता है कभी न कोई
शब्द मनुज गढ़ता अपने हित
ऊर्जा करे न जल्दी-देरी
​​
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
तू-मैं, यह-वह, हम सब आये
ऊर्जा लेकर परमशक्ति से
निभा भूमिका रंगमंच पर
वरते करतल-ध्वनि विभक्ति से
जा नैपथ्य बदलते भूषा
दर्शक तब भी करें स्मरण
या सराहते अन्य पात्र को
अनुभव करते हम विरक्ति से
श्वास गली में आस लगाती
रोज सवेरे आकर फेरी
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
साँझ अस्त होता जो सूरज
भोर उषा-संग फिर उगता है
रख अनुराग-विराग पूर्ण हो
बुझता नहीं सतत जलता है
पूर्ण अंश हम, मिलें पूर्ण में
किंचित कहीं न कुछ बढ़ता है
अलग पूर्ण से हुए अगर तो
नहीं पूर्ण से कुछ घटता है
आना-जाना महज बहाना
नियति हुई कब किसकी चेरी
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*

तापसी नागराज

कोकिलकंठी गायिका श्रीमती तापसी नागराज के
जन्मोत्सव पर अनंत मंगल कामनाएं
नर्मदा के तीर पर वाक् गयी व्याप सी
मुरली के सुर सजे संगिनी पा आप सी
वीणापाणी की कृपा सदा रहे आप पर
कीर्ति नील गगन छुए विनय यही तापसी
बेसुरों की बर्फ पर गिरें वज्र ताप सी
आपसे से ही गायन की करे समय माप सी
पश्चिम की धूम-बूम मिटा राग गुँजा दें
श्रोता-मन पर अमिट छोड़ती हैं छाप सी
स्वर को नमन कलम-शब्दों का अभिनन्दन लें
भावनाओं के अक्षत हल्दी जल चन्दन लें
रहें शारदा मातु विराजी सदा कंठ में
संजीवित हों श्याम शिलाएं, शत वंदन लें
***

२८ वर्णिक/४३ मात्रिक दण्डक छंद

छंद कार्यशाला -
२८ वर्णिक/४३ मात्रिक दण्डक छंद
विधान - २८ वर्णिक, ६-१४-१८-२३-२८ पर यति।
४३ मात्रिक, १०-११--७-६-९ पर यति।
गणसूत्र - र त न ज म य न स ज ग।
*
नाद से आल्हाद, झर कर ही रहेगा, देख लेना, समय खुद, देगा गवाही अक्षरों में भाव, हर भर जी सकेगा, लेख लेना, सृजन खुद, देगा सुनाई शब्द हो नि:शब्द, अनुभव ले सकेगा, सीख देगा, घुटन झट होगी पराई भाव में संचार, रस भर पी सकेगा, लीक होगी, नवल फिर हो वाह वाही
*
संजीव
९४२५१८३२४४
salil.sanjiv@gmail.com

बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

सरस्वती वंदना सोनी सुगंधा

सोनी सुगंधा





जन्म - ५ फरवरी १९८४, आईजवाल।
आत्मजा - श्रीमती पूनम - श्री हरेंद्र नाथ पांडेय।
शिक्षा - एम.ए., बी.एड., एम.बी.ए.
संप्रति- पूर्व शिक्षिका।
प्रकाशित - साझा संकलन में।
उपलब्धि - सहसचिव अखिल भारतीय साहित्य परिषद जमशेदपुर।
संपर्क - आवास क्रमांक एल ५/५९, मार्ग क्रमांक १, एग्रिको, जमशेदपुर 831009 पूर्वी सिंघभूमि, झारखण्ड।
चलभाष - ९५०७८०८९१२।
*

माँ शारद!

माँ शारद! शत बार नमन है,
शत-शत बार नमन है !
तेरे चरण-कमल में मेरे
शब्द-सुमन अर्पण है !

गीतमयी ये निखिल धरा है,
पुस्तक-ज्ञान विवेक भरा है,
नीर-क्षीर का प्रबल पिपासित
वन-मराल यह मन है !

सप्त - सुरों की जननी तू है,
गौरवमय भारत का भू है,
सप्त-सिंधु को मिलता जिससे
जग का अभिनन्दन है !

प्राण-प्राण में तेरा कलरव,
कण-कण में है तेरा वैभव,
तेरी कृपा-वारि से सिंचित
धरती और गगन है!

लोभ-लाभ परवाह नहीं है,
प्रति-उपकारी चाह नहीं है,
जन-जन के जीवन पर ऋण का
अतुलित भार सघन है!

हम दीनों पर सदा सदय हो,
बन्धन हीन साँस निर्भय हो,
समझ सके प्राणी-प्राणी का
मुक्त-अभय तन-मन हो!

उन्नत-पथ पर कदम बढ़ाएँ,
भारत माँ को शीश झुकाएँ ,
मिलता निश्चय केवल तुझसे
जन-जन को जीवन है!

मृग-मरीचिका सबल सताती,
पल-पल भेद नवल उपजाती,
पग-पराग में प्रीति रहे नित
प्राणों में चिंतन है!
*
===================

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

नव छंद

नव प्रयोग
*
छंद सूत्र: य न ल
*
मुक्तक-
मिलोगी जब तुम,
मिटेंगे तब गम।
खिलेंगे नित गुल
हँसेंगे मिल हम।।
***
मुक्तिका -
हँसा है दिनकर
उषा का गह कर।
*
कहेगी सरगम
चिरैया छिपकर।
*
अँधेरा डरकर
गया है मरकर।
*
पियेगा जल नित
मजूरा उठकर।
*
न नेता सुखकर
न कोई अफसर
***

नवगीत: सांध्य सुंदरी

नवगीत:
सांध्य सुंदरी
तनिक न विस्मित
न्योतें नहीं इमाम
जो शरीफ हैं नाम का
उसको भेजा न्योता
सरहद-करगिल पर काँटों की
फसलें है जो बोता
मेहनतकश की
थकन हरूँ मैं
चुप रहकर हर शाम
नमक किसी का, वफ़ा किसी से
कैसी फितरत है
दम कूकुर की रहे न सीधी
यह ही कुदरत है
खबरों में
लाती ही क्यों हैं
चैनल उसे तमाम?
साथ न उसके मुसलमान हैं
बंदा गंदा है
बिना बात करना विवाद ही
उसका धंधा है
थूको भी मत
उसे देख, मत
करना दुआ-सलाम
***

भाई दूज

भाई दूज पर विशेष रचना :
मेरे भैया
संजीव 'सलिल'
*
मेरे भैया!,
किशन कन्हैया...
*
साथ-साथ पल-पुसे, बढ़े हम
तुमको पाकर सौ सुख पाये.
दूर हुए एक-दूजे से हम
लेकिन भूल-भुला न पाये..
रूठ-मनाने के मधुरिम दिन
कहाँ गये?, यह कौन बताये?
टीप रेस, कन्ना गोटी है कहाँ?
कहाँ है 'ता-ता थैया'....
*
मैंने तुमको, तुमने मुझको
क्या-क्या दिया, कौन बतलाये?
विधना भी चाहे तो स्नेहिल
भेंट नहीं वैसी दे पाये.
बाकी क्या लेना-देना? जब
हम हैं एक-दूजे के साये.
भाई-बहिन का स्नेह गा सके
मिला न अब तक कोई गवैया....
*
देकर भी देने का मन हो
देने की सार्थकता तब ही.
तेरी बहिना हँसकर ले-ले
भैया का दुःख विपदा अब ही..
दूज-गीत, राखी-कविता संग
तूने भेजी खुशियाँ सब ही.
तेरी चाहत, मेरी ताकत
भौजी की सौ बार बलैंया...
*****
संजीव
९४२५१८३२४४

सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

नया दण्डक छंद

कार्यशाला -
नूतन छंद 
२८ वर्णिक दण्डक छंद
विधान - २८ वर्णिक, ६-१४-१८-२३-२८ पर यति।
४३ मात्रिक, १०-११--७-६-९ पर यति।
गणसूत्र - र त न ज म य न स ज ग।
*
नाद से आल्हाद, झर कर ही रहेगा, देख लेना, समय खुद, देगा गवाही अक्षरों में भाव, हर भर जी सकेगा, लेख लेना, सृजन खुद, देगा सुनाई शब्द हो नि:शब्द, अनुभव ले सकेगा, सीख देगा, घुटन झट होगी पराई भाव में संचार, रस भर पी सकेगा, लीक होगी, नवल फिर हो वाह वाही
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
९४२५१८३२४४
salil.sanjiv@gmail.com

चिंतन : ऊँच-नीच

चिंतन 
ऊँच न कोई नीच है, सब जन एक समान  
*
 'ब्रह्मम् जानाति सः ब्राह्मण:' जो ब्रह्म जानता है वह ब्राह्मण है। ब्रह्म सृष्टि कर्ता हैं। कण-कण में उसका वास है। इस नाते जो कण-कण में ब्रह्म की प्रतीति कर सकता हो वह ब्राह्मण है। स्पष्ट है कि ब्राह्मण होना कर्म और योग्यता पर निर्भर है, जन्म पर नहीं। 'जन्मना जायते शूद्र:' के अनुसार जन्म से सभी शूद्र हैं। सकल सृष्टि ब्रह्ममय है, इस नाते सबको सहोदर माने, कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान को देखे, सबसे समानता का व्यवहार करे, वह ब्राह्मण है। जो इन मूल्यों की रक्षा करे, वह क्षत्रिय है, जो सृष्टि-रक्षार्थ आदान-प्रदान करे, वह वैश्य है और जो इस हेतु अपनी सेवा समर्पित कर उसका मोल ले-ले वह शूद्र है। जो प्राणी या जीव ब्रह्मा की सृष्टि निजी स्वार्थ / संचय के लिए नष्ट करे, औरों को अकारण कष्ट दे वह असुर या राक्षस है।

व्यावहारिक अर्थ में बुद्धिजीवी वैज्ञानिक, शिक्षक, अभियंता, चिकित्सक आदि ब्राह्मण, प्रशासक, सैन्य, अर्ध सैन्य बल आदि क्षत्रिय, उद्योगपति, व्यापारी आदि वैश्य तथा इनकी सेवा व सफाई कर रहे जन शूद्र हैं। सृष्टि को मानव शरीर के रूपक समझाते हुए इन्हें क्रमशः सिर, भुजा, उदर व् पैर  कहा गया है। इससे इतर भी कुछ कहा गया है। राजा इन चारों में सम्मिलित नहीं है, वह ईश्वरीय प्रतिनिधि या ब्रह्मा है। राज्य-प्रशासन में सहायक वर्ग  कार्यस्थ (कायस्थ नहीं) है। कायस्थ वह है जिसकी काया में ब्रम्हांश जो निराकार है, जिसका चित्र गुप्त है, आत्मा रूप स्थित है। 
'चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहिनाम्।', 'कायस्थित: स: कायस्थ:' से यही अभिप्रेत है। पौरोहित्य कर्म एक व्यवसाय है, जिसका ब्राह्मण होने न होने से कोई संबंध नहीं है। ब्रह्म के लिए चारों वर्ण समान हैं, कोई ऊँचा या नीचा नहीं है। जन्मना ब्राह्मण सर्वोच्च या श्रेष्ठ नहीं है। वह अत्याचारी हो तो असुर, राक्षस, दैत्य, दानव कहा गया है और उसका वध खुद विष्णु जी ने किया है। गीता रहस्य में लोकमान्य टिळक जो खुद ब्राह्मण  थे, ने लिखा है - 
गुरुं वा बाल वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतं 
आततायी नमायान्तं हन्या देवाविचारयं 
ब्राह्मण द्वारा खुद को श्रेष्ठ बताना, अन्य वर्णों की कन्या हेतु खुद पात्र बताना और अन्य वर्गों  को ब्राह्मण कन्या हेतु अपात्र मानना, हर पाप (अपराध) का दंड ब्राह्मण को दान बताने दुष्परिणाम सामाजिक कटुता और द्वेष  के रूप में हुआ।

रविवार, 27 अक्तूबर 2019

नवगीत - लछमी मैया!

नवगीत
लछमी मैया!

माटी का कछु कर्ज चुकाओ
*
देस बँट रहो,
नेह घट रहो,
लील रई दीपक खों झालर
नेह-गेह तज देह बजारू
भई; कैत है प्रगतिसील हम।
हैप्पी दीवाली
अनहैप्पी बैस्ट विशेज से पिंड छुड़ाओ
*
मूँड़ मुड़ाए
ओले पड़ रए
मूरत लगे अवध में भारी
कहूँ दूर बनवास बिता रई
अबला निबल सिया-सत मारी
हाय! सियासत
अंधभक्त हौ-हौ कर रए रे
तनिक चुपाओ
*
नकली टँसुए
रोज बहाउत
नेता गगनबिहारी बन खें
डूब बाढ़ में जनगण मर रओ
नित बिदेस में घूमें तन खें
दारू बेच;
पिला; मत पीना कैती जो
बो नीति मिटाओ
***

शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

सरस्वती वंदना -अनिल अनवर

अनिल अनवर
आत्मज - स्व० तारा - स्व० शारदा प्रसाद श्रीवास्तव। 
जन्म - २७ सितंबर १९५२ / २० फरवरी ५३, 
सीतापुर (उ०प्र०)।  
शिक्षा - बी० एस सी०, इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में डिप्लोमा। 
पैतृक ग्राम - मुंशी दरियाव लाल का पुरवा, ज़िला - सुलतानपुर (उ०प्र०। )
सम्प्रति - सेवा निवृत्त अधिकारी भारतीय वायु सेना, स्वतंत्र लेखन।
प्रकाशित पुस्तकें - आस्था के गीत, गुलशन : मज़्मूआ-ए-नज़्म, विमल करो मन मेरा। 
सम्पादन / प्रकाशन : मरु गुलशन (त्रैमासिक) २० वर्ष, ७९ अंक। 
उपलब्धि - सारस्वत आराधना।
संपर्क - ३३ व्यास कॉलोनी, एयर फोर्स, जोधपुर ३४२०११ राजस्थान।
दूरभाष - ०२९१ २६७१९१७, चलभाष - ७७३७६८९०६६, ८७६४७३७७८१। ईमेल - aksrivastava2709@gmail.com 
  
*
माँगता हूँ, दें मुझे
माँगता हूँ, दें मुझे अब वर यही माँ शारदे !
सीख पाऊँ मैं भी करना शाइरी माँ शारदे !
बुग़्ज़ो-नफ़रत, हिर्सो-ग़ीबत घर न दिल में कर सके,
और हो क़िरदार में भी सादगी माँ शारदे !
है बहुत मुश्किल अरूज़ी बन के कह पाना ग़ज़ल,
दूर करना मेरे शे'रों की कमी माँ शारदे !
हैं कई सिन्फ़े-सुख़न, ग़ज़लें मगर मक़बूल हैं,
बात दिल की मैंने ग़ज़लों में कही माँ शारदे !
दौर था वो भी कि ज़ुल्फ़ों में ही ग़ज़लें क़ैद थीं,
इन के मरक़ज़ में है अब आम आदमी माँ शारदे !
अब नहीं उस्ताद 'शंकर' किस तरह इस्लाह हो,
नज़्रे-सानी डालिये अब आप ही माँ शारदे !
आरज़ू 'अनवर' की है ज़िन्दा रहे एक-आध शे'र,
ख़त्म हो इस जिस्म की जब ज़िन्दगी माँ शारदे !
*
हंसवाहिनी माँ!

हंसवाहिनी माँ! वीणा फिर आज बजा दो। 
मेरे मन में दिव्य ज्ञान की ज्योति जगा दो।। 

द्वेष मिटाकर स्नेह-प्रेम का निर्झर भर दो।
आस्था दृढ़ हो मानवता में ऐसा वर दो।।
दनुज वृत्तियों को जीवन से दूर भगा दो 

बुद्धि विमल हो, मन निर्मल हो, वाणी शोभन। 
नहीं डिगाये धन-पद-यश के मुझे प्रलोभन।। 
अंतर में केवल विद्या की लगन लगा दो 

साँसों में संगीत, ह्रदय में प्रीत समाये। 
मुख से निकलें शब्द सत्य की राह दिखाये।।
मुझे लेखनी से रचना सद्भाव सीखा दो 
*
उद्धार करो मेरा ब्रह्माणी!

उद्धार करो मेरा ब्राह्मणी! 
माँ मेरे भावों को दो वाणी।।

मैं मूढ़ निरा नादान बड़ा। 
मन में छाया अभिमान बड़ा।।
भूलों को मेरी, माफ़ करो। 
अंतस का कल्मष साफ़ करो।।
तुम ज्ञान सिंधु हो, मैं अज्ञानी 

निज कर में वीणा लिए रहो। 
हित कलाकार का किये रहो।।
साहित्य-कला-संगीत बढ़े।
तेरे चरणों में प्रीत बढ़े।।
हे! शिल्प-कलाओं की वरदानी 

जो भी हैं तेरे आराधक।
वे बने रहें सच्चे साधक।।
उनको तेरा पथ मधुर लगे। 
धन और प्रलोभन से न डिगें।।
यह कृपा सदा करना कल्याणी 
*
====================

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

अनिल अनवर, मनोरमा जैन पाखी, Manisha Raja,


अनिल कुमार श्रीवास्तव
क़लमी नाम : अनिल अनवर
माता-पिता : स्व० श्रीमती तारा व स्व० श्री शारदा प्रसाद श्रीवास्तव
जन्म दिनांक : 27.9.1952 (वास्तविक), 20.2.1953 (प्रमाणपत्रों में)
जन्म स्थान : सीतापुर (उ०प्र०)
पैतृक ग्राम : मुंशी दरियाव लाल का पुरवा, ज़िला - सुलतानपुर (उ०प्र०)
शिक्षा : बी० एस सी०, इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में डिप्लोमा
नौकरी : भारतीय वायु सेना में 21 वर्षों की अवधि तक
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
प्रकाशित पुस्तकें : आस्था के गीत (1995), गुलशन : मज़्मूआ-ए-नज़्म (2011), विमल करो मन मेरा (2014)
सम्पादन व प्रकाशन : मरु गुलशन (त्रैमासिक)अव्यावसायिक पत्रिका 20 वर्षों की अवधि तक (कुल 79 अंक)
उपलब्धियाँ : उल्लेखनीय कुछ भी नहीं मानता। साहित्य का एक सेवक या विद्यार्थी ही मानें।
डाक का पता : 33, व्यास कॉलोनी, एयर फोर्स, जोधपुर - 342 011
सम्पर्क नं० : 0291/2671917 (निवास), 7737689066 व 8764737781 (मोबाइल)
माँगता हूँ, दें मुझे अब वर यही माँ शारदे !
सीख पाऊँ मैं भी करना शाइरी माँ शारदे !
बुग़्ज़ो-नफ़रत, हिर्सो-ग़ीबत घर न दिल में कर सके,
और हो क़िरदार में भी सादगी माँ शारदे !
है बहुत मुश्किल अरूज़ी बन के कह पाना ग़ज़ल,
दूर करना मेरे शे'रों की कमी माँ शारदे !
हैं कई सिन्फ़े-सुख़न, ग़ज़लें मगर मक़बूल हैं,
बात दिल की मैंने ग़ज़लों में कही माँ शारदे !
दौर था वो भी कि ज़ुल्फ़ों में ही ग़ज़लें क़ैद थीं,
इन के मरक़ज़ में है अब आम आदमी माँ शारदे !
अब नहीं उस्ताद 'शंकर' किस तरह इस्लाह हो,
नज़्रे-सानी डालिये अब आप ही माँ शारदे !
आरज़ू 'अनवर' की है ज़िन्दा रहे एक-आध शे'र,
ख़त्म हो इस जिस्म की जब ज़िन्दगी माँ शारदे !
- अनिल अनवर,
33, व्यास कॉलोनी, एयर फोर्स,
जोधपुर - 342 011
मो० - 7737689066
==================
मनोरमा जैन पाखी
मनहरण छंद
हे वीणा वादिनी माता
हे कमलासिनी माता
शुभ्रवसना धारिणी
ज्ञानदायिनी माता
हमको दे ज्ञान जोति
मिटे कलुषित वृत्ति
सच के मार्ग चलें
जगजननी माता
काट दे बंधन सारे
दीया ज्ञान का जलादे
बन के हिम्मत मेरी
ज्ञान दायिनी माता
हर पल नाम जपूँ
ममता दुलार माँगू
स्नेहासिक्त नयन
उपकारिणी माता .
===================
SARASWATI VANDANA
Manisha Raja
*
VEDAS sing your wisdom
Puranas your hyms
Take away my darkness
Make me worthy
O Goddess of knowledge
I bow to thee
AS fair as a kunda
White as snow
Mounted on a lotus with a swan
Take my flight to the learning tree
O Goddess of beauty
I PRAY to thee
New notes, new rhythms
New soul, new voice
May we dance to your tunes divine
May all our stagnancy flee
O Goddess of music
We bow to thee
Be it poetry, prose or prayer
Inspire our thoughts everywhere
You grant us whatever we desire
Keep guiding in this wordly sea
O Goddess of creativity
We pray to thee
Bestow your wisdom
Make me divine
Your purifying presence
Makes me shine
Take away my slackness
And grant me, my real me
O Goddess of prosperity
I hail to thee.
===================
ब्रह्म देव 
सरस्वती वंदना (बज्जिका)
*********************
सरस्वती मइया के जय हो
जय हो जय हो जय जय जय हो
सरस्वती मइया.....
वाल्मीकि में भाव ज ग य ल
रामकथा जग के सु न व य ल
दमित दलित के भय के क्षय हो
सरस्वती मइया.....
कालिदास के तू जितवइया
महाकवि भे गेल हे मइया
तू सहाय त केक्कर भय हो
सरस्वती मइया....
तुलसी सूर कबीर अमर जग
उपकृत रोम-रोम है रग-रग
भगवन के हर भगत अभय हो
सरस्वती मइया.....
माइ सकल अन्हरिया हर ल
बुद्धि ज्ञान इंजोरिया भर द
अब न कहंउ अनीति-अनय हो
सरस्वती मइया......
योगपीठ ई भारत भू हय
कण-कण में मां तू ही तू हय
हिय- हिय में समता के लय हो
सरस्वती मइया.....
===================
स्व अजयदान लखदान जी रोहड़िया।
जन्म तारीख:अग्यात,
जन्म स्थल: ग्राम: मलावा, तहसील रेवदर, जिला सिरोही, राजस्थान।
माता:मीरां कँवर
पिता:लखदान जी जगतदान जी रोहड़िया।
शिक्षा: एम ए हिन्दी साहित्य, कच्छ की महाराओ लखपत जी ब्रज भाषा के अंतिम विद्यार्थीओं में से एक।
विभिन्न साहित्यक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ, हिन्दी , ब्रज भाषा राजस्थानी डिंगल आदि में प्रकाशित। अपने जमाने के बेहतरीन डिंगल और ब्रज भाषा के कवि।
🌸दोहा🌸
किंकर सिर पर कमल कर, कर के विघ्न विदार।
करत स्तुति कर जोर कर, सुरसती कर स्वीकार।।१
🌸छंद रेणंकी🌸
निरमल नव इन्दु बदन विलसत भल, द्रग खंजन मृग मद दलितम्।
कुम कुम वर भाल बिन्दु कल भ्राजत, तन चंदन चरचित पुनितम्।
झल़कत अरू झल़ल़ झल़ल़ चल लोलक, लसत सु श्रवण ललाम परम्।
शारद कर प्रदत सुक्ति यह सुखकर, किंकर पर नित महर करम्।।१
दमकत सिर मुकुट दिव्य दिनकर सम, मन मोहिनि उर माल लसे।
लख लख रति रम्य रूप जेहि लाजत, तडित विनिन्दित तन विलसे।
तिन पर नित नवल विमल धवलांबर, विविध तरह अरू धरत वरं।
शारद कर प्रदत सुक्ति यह सुखकर, किंकर पर नित महर करम्।।२
सरसत जिहि स्फटिक माल लिय ललितम, तरुण अरुण कर कंज अतिम्।
बिलसत पुनि बीन कलित मन हुलसत, ग्रहित पुस्तकं गहन गतिम्।
जिन कर जस विशद वरद जग व्यापक, प्रणित अमित मति देत परम्।
शारद कर प्रदत सुक्ति यह सुखकर, किंकर पर नित महर करम्।।३
हरषित जिहि चढत हंस पर मनहर, बन निज जन मन महि विहरम्।
सदगति सुख सुमति देत संपति धृति, सुरत करत तिन काज सरम्।
नव नव अरु ज्ञान भरत उर निरमल, निविड अबुधि हर तम निकरम्।
शारद कर प्रदत सुक्ति यह सुखकर, किंकर पर नित महर करम्।।४
सुमिरत जिहि सरव जिनहि सुर -सैनप, सुर-गुरु, सुर-पति सहित शचिम्।
प्रसरित गुन करत रहत सुपुनित नित, श्रुति सु स्मृति अरु शाख शुचिम्।
धनपति पद कंज मंजु मन ध्यावत, धरत 'रू ध्यान त्रिशूल धरं।
शारद कर प्रदत सुक्ति यह सुखकर, किंकर पर नित महर करम्।।५
विनवत वसु अष्ट, वरिष्ठ विनायक, बिमल बिरद जिन जग विदितम् ।
दिनकर नित नमन करत हिमकर नत, धरमराज धर्मिष्ट युतम्।
पुनरपि सह सिद्धि रिद्धि हिलमिल जिन, पुनित चरन मँह आय परम्।
शारद कर प्रदत सुक्ति यह सुखकर, किंकर पर नित महर करम्।।६
अरचन मुनि अमित मुदित मन अनुदिन, षोडस करतम् विधि सहितम्।
पुनि पुनि ॠषियन मिलि पढत स्तवन तव, किन्नर विधाधर कलितम्।
सविनय हिम शुद्ध सिद्ध गण चारण, जयति जननी जय जय उचरम्।
शारद कर प्रदत सुक्ति यह सुखकर, किंकर पर नित महर करम्।।७
परसत नर असुर नाग पद पुहुकर, लहत परम पद सह ललितम्।
बालक नवयुवक वृध्ध ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ गृहस्थ युतम्।
मांगत यहि" अजय" मात अनुग्रह कर, मम चित मति कृति कर मधुरम्।
शारद कर प्रदत सुक्ति यह सुखकर, किंकर पर नित महर करम्।।८
🌸कलछप्पय🌸
जय जय सरस्वती जननि, भीम भय भक्त विभंजन।
जय जय सरस्वती जननि, ह्रदय निज जन नित रंजन।
जय जय सरस्वती जननि, कलुष कलि कलह निकंदन।
जय जय सरस्वती जननि, असुर, सुर, नर, मुनि वंदन।
वर बाल ब्रह्मचारिणी विदित, मोद देन मंगल करन।
कर जौरि "अजय"विनवत सही, सुबुधि देहू अशरण शरण।।
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श्रवण मानिकपुरी



जन्मतिथि :-१०/१०/१९८८
पिता:-श्री तुला दास मानिकपुरी
माता :-श्रीमती भगवती मानिकपुरी
जन्म स्थान कोंडागाँव
जिला कोंडागाँव
पता 449 ख राजापारा
बड़ेकनेरा कोंडागाँव
पिन४९४२२६
शिक्षा:-एम .ए. इतिहास ,अर्थशास्त्र, दी .एड.बी एड
उपलब्धि:-आकाशवाणी कलाकार हल्बी प्रभाग
गोटोक अचरित (हल्बी कविता) १५/१०/२०१९
गोटोक अचरित दखले दादा
गाय बैला बांधला पागा
मैं जाउ रले नेता घरे
दखले खुबे बंड
ये कसन जुग इली रे भाई
बाहरे दांत भीतरे टोंड
गोटोक अचरित दखले दादा
बोबो ने चूड़े तेल
उसरी बूटा चो मरन होली
सिंग सिंग चो मेल
गोटोक अचरित दखले दादा
मरलो मुर्दा
धरलो बडगा
गांव ने गागला नाई कोनी
जोन्दरा बाड़ी ले कोलिया पराये
जीव चो काल आय नोनी
गोटोक अचरित दखले दादा
बाग लगे छेरी चो नाट
तुय बले तो जानिस हुनके
हुंचो नाव आय पाक
गोटोक अचरित दखले दादा
तुय नी सकिस सुनुक
सड़क बाटे अमराले मैं
पांच मुंड दस पांय बीता मनुख
गोटोक अचरित दखले दादा
गोटकी सिंग चो गाय
बसलो लग ले चारा खाय
पाट बाटे पगराय
गोटोक अचरित दखले दादा
कोकोडा करलो गुरु
डूमर माला पिंधुन भाती
मंतर पडलो सुरु
सबके सांगलो गोठ के
मांस नी खाय
मछरी नी खाय
मंतर देउ आंय सबके
लघे इया रे मछरी मन
चेला करूँ आंय तुमके
श्रवण मानिकपुरी
कोंडागाँव
मोबाइल नम्बर 7974042092
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बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

दुर्गा पूजा परंपरा : सामाजिक उपादेयता



दुर्गा पूजा परंपरा : सामाजिक उपादेयता
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ 
[लेखक परिचय: जन्म २०-८-१९५२, आत्मज - स्व. शांति देवी - स्व. राजबहादुर वर्मा, शिक्षा - डिप्लोमा सिविल इंजी., बी. ई., एम.आई.ई., एम.आई. जी.एस., एम.ए. (अर्थशास्त्र, दर्शन शास्त्र) विधि स्नातक, डिप्लोमा पत्रकारिता), संप्रति - पूर्व संभागीय परियोजना प्रबंधक/कार्यपालन यंत्री, अधिवक्ता म.प्र. उच्च न्यायालय, प्रकाशित पुस्तकें - ७, सहलेखन ५ पुस्तकें, संपादित पुस्तकें १५, स्मारिकाएँ १७, पत्रिकाएँ  ७, भूमिका लेखन ५० पुस्तकें, समीक्षा ३०० पुस्तकें, तकनीकी शोध लेख २०, सम्मान - १२ राज्यों की संस्थाओं द्वारा १५० से अधिक सम्मान। उपलब्धि - इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा तकनीकी लेख ‘वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ’ को राष्ट्रीय स्तर पर सेकेण्ड बेस्ट पेपर अवार्ड। ]
*
           सनातन धर्म में भक्त और भगवान का संबंध अनन्य और अभिन्न है। एक ओर भगवान सर्वशक्तिमान, करुणानिधान और दाता है तो दूसरी ओर 'भगत के बस में है भगवान' अर्थात भक्त बलवान हैं। सतही तौर पर ये दोनों अवधारणाएँ परस्पर विरोधी प्रतीत होती किंतु वस्तुत: पूरक हैं। सनातन धर्म पूरी तरह विग्यानसम्मत, तर्कसम्मत और सत्य है। जहाँ धर्म सम्मत कथ्य विग्यान से मेल न खाए वहाँ जानकारी का अभाव या सम्यक व्याख्या न हो पाना ही कारण है।

परमेश्वर ही परम ऊर्जा
           सनातन धर्म परमेश्वर को अनादि, अनंत, अजर और अमर कहता है। थर्मोडायनामिक्स के अनुसार 'इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायडट, कैन बी ट्रांसफार्म्ड ओनली'। ऊर्जा उत्पन्न नहीं की जा सकती इसलिए अनादि है, नष्ट नहीं की जा सकती इसलिए अमर है, ऊर्जा रूपांतरित होती है, उसकी परिसीमन संभव नहीं इसलिए अनंत है। ऊर्जा कालातीत नहीं होती इसलिए अजर है। ऊर्जा ऊर्जा से उत्पन्न हो ऊर्जा में विलीन हो जाती है। पुराण कहता है -

'ॐ पूर्णमद: पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्णस्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते'

ॐ पूर्ण है वह पूर्ण है यह, पूर्ण है ब्रम्हांड सब
पूर्ण में से पूर्ण को यदि दें घटा, शेष तब भी पूर्ण ही रहता सदा।
           अंशी (पूर्ण) और अंश का नाता ही परमात्मा और आत् का नाता है। अंश का अवतरण पूर्ण बनकर पूर्ण में मिलने हेतु ही होता है। इसलिए सनातनधर्मी परमसत्ता को निरपेक्ष मानते हैं। कंकर कंकर में शंकर की लोक मान्यतानुसार कण-कण में भगवान है, इसलिए 'आत्मा सो परमात्मा'। यह प्रतीति हो जाए कि हर जीव ही नहीं; जड़ चेतन' में भी उसी परमात्मा का अंश है, जिसका हम में है तो हम सकल सृष्टि को सहोदरी अर्थात एक माँ से उत्पन्न मानकर सबसे समता, सहानुभूति और संवेदनापूर्ण व्यवहार करेंगे। सबकी जननी एक है जो खुद के अंश को उत्पन्न कर, स्वतंत्र जीवन देती है। यह जगजननी ममतामयी ही नहीं है; वह दुष्टहंता भी है। उसके नौ रूपों का पूजन नव दुर्गा पर्व पर किया जाता है। दुर्गा सप्तशतीकार उसका वर्णन करता है-

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।

           मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य भगवान से त्रिदेवों और त्रिदेवियों की उत्पत्ति हुई जिन्हें क्रमश: सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और विनाश का दायित्व मिला। ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण को सृष्टि का मूल मानता है। शिव पुराण के अनुसार शिव सबके मूल हैं। मार्कण्डेय पुराण और दुर्गा सप्तशती शक्ति को महत्व दें, यह स्वाभाविक है।

            भारत में शक्ति पूजा की चिरकालिक परंपरा है। संतानें माँ को बेटी मानकर उनका आह्वान कर, स्वागत, पूजन, सत्कार, भजन तथा विदाई करती हैं। अंग्रेजी कहावत है 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' अर्थात 'बेटा ही है बाप बाप का'। संतानें जगजननी को बेटी मानकर, उसके दो बेटों कार्तिकेय-गणेश व दो बेटियों शारदा-लक्ष्मी सहित मायके में उसकी अगवानी करती हैं। पर्वतेश्वर  हिमवान की बेटी दुर्गा स्वेच्छा से वैरागी शिव का वरण करती है। बुद्धि से विघ्नों का निवारण करनेवाले गणेश और पराक्रमी कार्तिकेय उनके बेटे तथा ज्ञान की देवी शारदा व समृद्धि की देवी लक्ष्मी उनकी बेटियाँ हैं।

           दुर्गा आत्मविश्वासी हैं, माता-पिता की अनिच्छा के बावजूद विरागी शिव से विवाहकर उन्हें अनुरागी बना लेती हैं। वे आत्मविश्वासी हैं, एक बार कदम आगे बढ़ाकर पीछे नहीं हटातीं। वे अपने निर्णय पर पश्चाताप भी नहीं करतीं। पितृग्रह में सब वैभव सुलभ होने पर भी विवाह पश्चात् शिव के अभावों से भरे परिवेश में बिना किसी गिले-शिकवे या क्लेश के सहज भाव से संतुष्ट-सुखी रहती हैं। शुंभ-निशुम्भ द्वारा भोग-विलास का प्रलोभन भी उन्हें पथ से डिगाता नहीं। शिक्षा के प्रसार और आर्थिक स्वावलंबन ने संतानों के लिए मनवांछित जीवन साथी पाने का अवसर सुलभ करा दिया है। देखा जाता है की जितनी तीव्रता से प्रेम विवाह तक पहुँचता है उतनी ही तीव्रता से विवाहोपरांत घटता है और दोनों के मनों में उपजता  असंतोष संबंध विच्छेद तक पहुँच जाता है। 

           शिव-शिवा का संबंध विश्व में सर्वाधिक विपरीत प्रवृत्तियों का मिलन है। शिव सर्वत्यागी हैं, उमा राजा हिमवान की दुलारी पुत्री, राजकुमारी हैं। शिव संसाधन विहीन हैं, उमा सर्व साधन संपन्न हैं। शिव वैरागी हैं, उमा अनुरागी। शिव पर आसक्त होकर उमा प्राण-प्रणसे जतन कर उन्हें मनाती हैं और स्वजनों की असहमति की चिंता किये बिना विवाह हेतु तत्पर होती हैं किंतुपितृ गृह से भागकर पिता की प्रतिष्ठा को आघात नहीं पहुँचातीं, सबके सहमत होने पर ही सामाजिक विधि-विधान, रीति-रिवाजों के साथ अपने प्रियतम की अर्धांगिनी हैं। समाज के युवकों और युवतियों के लिये यह प्रसंग जानना-समझना और इसका अनुकरण करना जीवन को पूर्णता प्रदान करने के लिए परमावश्यक है। शिव साधनविहीनता के बाद भी उमा से इसलिए विवाह नहीं करना चाहते कि वह राजकुमारी है। वे उमा की सच्ची प्रीति और अपने प्रति प्रतिबद्धता जानने के पश्चात ही सहमत होते हैं। विवाह में वे कोई दहेज़ या धन नहीं स्वीकारते, केवल उमा के साथ श्वसुरालय से विदा होते हैं। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि सामाजिक और पारिवारिक मान-मर्यादा धन-वैभव प्रदर्शन में नहीं, संस्कारों के शालीनतापूर्वक संपादन में है। 

          विवाह पश्चात नववधु उमा को पितृ-गृह से सर्वथा विपरीत वातावरण प्रिय-गृह में मिलता है। वहाँ सर्व सुविधा, साधन, सेविकाएँ उपलब्ध थीं यहाँ सर्वअसुविधा, साधनहीनता तथा ‘अपने सहायक आप हो’ की स्थिति किंतु उमा न तो अपने निर्णय पर पछताती हैं, न प्रियतम से किसी प्रकार की माँग करती हैं। वे शिव के साथ, नीर-क्षीर तरह एकात्म हो जाती हैं। वे मायके से कोई उपहार या सहायता नहीं लेतीं, न शिव को घर जमाई बनने हेतु प्रेरित या बाध्य करती हैं। शिव से नृत्य स्पर्धा होने पर माँ मात्र इसलिए पराजय स्वीकार लेती हैं कि शिव की तरह नृत्यमुद्रा बनाने पर अंग प्रदर्शन न हो जाए। उनका संदेश स्पष्ट है मर्यादा जय-पराजय से अधिक महत्वपूर्ण है, यह भी कि दाम्पत्य में हार (पराजय) को हार (माला) की तरह सहज स्वीकार लें तो हार ही जीत बन जाती है। यह ज्ञान लेकर श्वसुरालय जानेवाली बेटी बहू के रूप में  सबका मन जीत सकेगी। उमा पराक्रमी होते हुए भी लज्जाशील हैं। शिव भी जान जाते हैं कि उमा ने प्रयास न कर उन्हें जयी होने दिया है। इससे शिव के मन में उनका मान बढ़ जाता है और वे शिव की ह्रदय-साम्राज्ञी हो पाती हैं। पाश्चात्य जीवन मूल्यों तथा चित्रपटीय भूषा पर मुग्ध तरुणियाँ दुर्गा माँ से अंग प्रदर्शन की अपेक्षा लज्जा निर्वहन का संस्कार ग्रहण कर मान-मर्यादा का पालन कर गौरव-गरिमा सकेंगी। उमा से अधिक तेजस्विनी कोई नहीं हो सकता पर वे उस तेज का प्रयोग शिव को अपने वश में करने हेतु नहीं करतीं, वे शिव के वश में होकर शिव का मन जीतती हैं हुए अपने तेज का प्रयोग समय आने पर अपनी संतानों को सुयोग्य बनाने और शिव पर आपदा आने पर उन्हें बचने में करती हैं।   

           उमा अपनी संतानों को भी स्वावलंबन, संयम और स्वाभिमान की शिक्षा देती हैं। अपनी एक पुत्री को सर्वप्रकार की विद्या प्राप्त करने देती हैं, दूसरी पुत्री को उद्यमी बनाती हैं, एक पुत्र सर्व विघ्नों का शमन में निष्णात है तो दूसरा सर्व शत्रुओं का दमन करने में समर्थ। विश्व-इतिहास में केवल दो ही माताएँ अपनी संतानों को ऐसे दुर्लभ-दिव्य गुणों से संपन्न बना सकी हैं, एक उमा और दूसरी कैकेयी।   

           लगभग १२०० वर्ष पुराने मार्कण्डेय पुराण के देवी महात्म्य में वे अनाचार के प्रतिकार हेतु सिंहवाहिनी होकर महाबलशाली महिषासुर का वध और रक्तबीज का रक्तपान करती हैं। अत्यधिक आवेश में वे सब कुछ नष्ट करने की दिशा में प्रेरित होती हैं तो शिव प्रलयंकर-अभ्यंकर होते हुए भी उनके पथ में लेट जाते हैं। शिव के वक्ष पर चरण रखते ही उन्हें मर्यादा भंग होने का ध्यान आता है और उनके विकराल मुख से जिव्हा बाहर आ जाती है। तत्क्षण वे अपने कदम रोक लेती हैं। उनसे जुड़ा हर प्रसंग नव दंपतियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। जरा-जरा सी बात में अहं के कारण राई को पर्वत बनाकर टूटते संबंधों और बिखरते परिवारों को दुर्गा पूजन मात्र से संतुष्ट न होकर, उनके आचरण से सीख लेकर जीवन को सुखी बनाना चाहिए। एकांगी स्त्री-विमर्श के पक्षधर शिव-शिवा से जीवन के सूत्र ग्रहण कर सकें तो टकराव और बिखराव के कंटकाकीर्ण पथ को छोड़कर, अहं विसर्जन कर समर्पण और सहचार की पगडंडी पर चलकर परिवार जनों को स्वर्गवासी किये बिना स्वर्गोपम सुख पहुँचा सकेंगे। 

           स्त्री को दासी समझने का भ्रम पालनेवाले नासमझ शिव से सीख सकते हैं कि स्त्री की मान-मर्यादा की रक्षा ही पुरुष के पौरुष का प्रमाण है। शिव अनिच्छा के बाद भी उमा के आग्रह की रक्षा हेतु उनसे उनसे विवाह करते हैं किन्तु विवाह पश्चात् उमा का सुख ही उनके लिए सर्वस्व हो जाता है। लंबे समय तक प्रवास पश्चात् लौटने पर गृह द्वार पर एक अपरिचित बालक द्वारा हठपूर्वक रोके जाने पर शिव उसका वध कर देते हैं। कोलाहल सुनकर द्वार पर आई उमा द्वारा बालक की निष्प्राण देह पर विलाप करते हुए यह बताये जाने पर कि वह बालक उमा का पुत्र है और शिव ने उसका वध कर दिया, स्तब्ध शिव न तो उमा पर संदेह करते हैं, न लांछित करते हैं अपितु अपनी भूल स्वीकारते हुए बालक की चिकित्सा कर उसे नवजीवन देकर पुत्र स्वीकार लेते हैं। समाज में हर पति को शिव की तरह पत्नी के प्रति अखंड विश्वास रखना चाहिए। इस प्रसंग के पूर्व, पूर्वजन्म में शिव द्वारा मना करने के बाद भी सती (उमा का पूर्व जन्म में नाम) पिता दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में गईं, स्वामी शिव की अवहेलना और निंदा न सह पाने के कारण यज्ञ वेदी में स्वयं को भस्म कर लिया। शिव ने यह ज्ञात होने पर यज्ञ ध्वंस कर दोषियों को दंड दिया तथा सती की देह उठाकर भटकने लगे। सृष्टि के हित  हेतु विष्णु ने चक्र से देह को खंडित कर दिया, जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे वहाँ शक्ति पीठें स्थापित हुईं। 
            शिव ने समाधि लगा ली। तारकासुर के विनाश हेतु शिवपुत्र की आवश्यकता होने पर कामदेव ने शिव का तप भंग किया किन्तु तपभंग से क्रुद्ध शिव की कोपाग्नि में भस्म हो गए। अति आवेश से स्खलित शिववीर्य का संरक्षण कृतिकाओं ने किया, जिससे कार्तिकेय का जन्म हुआ। पार्वती ने बिना कोई आपत्ति किये शिव पुत्र को अपना पुत्र मानकर लालन-पालन किया। क्या आज ऐसे परिवार की कल्पना भी की जा सकती है जिसमें पति का पुत्र पत्नी के गर्भ में न रहा हो, पत्नी के पुत्र से पति अनजान हो और फिर भी वे सब बिना किसी मतभेद के साथ हों, यही नहीं दोनों भाइयों में भी असीम स्नेह हो। शिव परिवार ऐसा ही दिव्य परिवार है जहाँ स्पर्धा भी मनभेद उत्पन्न नहीं कर पाती। कार्तिकेय और गणेश में श्रेष्ठता संबंधी विवाद होने पर शिव ने उन्हें सृष्टि परिक्रमा करने का दायित्व दिया। कार्तिकेय अपने वाहन मयूर पर सवार होकर उड़ गए, स्थूल गणेश ने मूषक पर जगत्पिता शिव और जगन्माता पार्वती की परिक्रमा कर ली और विजयी हुए। इस प्रसंग से शक्ति पर बुद्धि की श्रेष्ठता प्रमाणित हुई।    

           दुर्गापूजा में माँ दुर्गा की प्रतिमा के साथ भगवान शिव, गणेशजी, लक्ष्मीजी, सरस्वती जी और कार्तिकेय जी की पूजा पूरे विधि-विधान के साथ की जाती है। श्री दुर्गासप्तशती पाठ (स्रोत,गीताप्रेस,गोरखपुर) के द्वितीय अध्याय में देह दुर्ग को जीतकर दुर्गा विरुद से विभूषित शक्ति द्वारा महिषासुर वध के पूर्व उनकी ज्येष्ठ पुत्री महालक्ष्मी का ध्यान किया गया है - 
ॐ अक्षस्त्रक्परशुंगदेषुकुलिशम् पद्मं धनुष्कुण्डिकाम्, दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तै: प्रसन्नानां, सेवे सैरभमर्दिनिमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्

ॐ अक्षमाल फरसा गदा बाण वज्र धनु पद्म, कुण्डि दंड बल खड्ग सह ढाल शंख मधुपात्र
घंटा शूल सुपाश चक्र कर में लिए प्रसन्न, महिष दैत्य हंता रमा कमलासनी भजामि
  
           श्री दुर्गासप्तशती पाठ (स्रोत,गीताप्रेस,गोरखपुर) के पंचम अध्याय में इस बात की चर्चा है कि महासरस्वती अपने कर कमलों घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं। शरद ऋतु के शोभा सम्पन्न चन्द्रमा के समान उनकी मनोहर कांति है। वे तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करने वाली हैं। पंचम अध्याय के प्रारम्भ में निम्न श्लोक दृष्टव्य है- 

ॐ घंटा शूलहलानि शंखमूसले चक्रं धनुं सायकं, हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्
गौरी देहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महापूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुंभादिदैत्यार्दिनीम् 
ॐ घंट शूल हल शंख मूसल चक्र धनु बाण, करकमलों में हैं लिए, शरत्चंद्र सम कांति
गौरिज जगताधार पूर्वामत्र सरस्वती, शुम्भ दैत्यमर्दिनी नमन भजूं सतत पा शांति
                उल्लेखनीय है कि दुर्गाशप्तशती में माँ की दोनों पुत्रियों को महत्व दिया गया है किन्तु दोनों पुत्रों कार्तिकेय और गणेश नहीं हैं। सरस्वती जी पर केंद्रित ‘प्राधानिकं रहस्यं’ उपसंहार के अंतर्गत है। स्वयं शिव का स्थान भी माँ के स्वामी रूप में ही है, स्वतंत्र रूप से नहीं। इसका संकेत आरम्भ में अथ सप्तश्लोकी दुर्गा में  शिव द्वारा देवताओं को माँ की महिमा बताने से किया गया है। विनियोग आरम्भ करते समय श्री महाकाली, महालक्ष्मी व् महासरस्वती का देवता रूप में उल्लेख है। स्त्री-पुरुष समानता के नाम पर समाज को विखंडित करनेवाले यदि दुर्गासप्तशती का मर्म समझ सकें तो उन्हें ज्ञात होगा कि सनातन धर्म लिंग भेद में विश्वास नहीं करता किंतु प्रकृति-पुरुष को एक दूसरे का पूरक मानकर यथावसर यथायोग्य महत्त्व देते है। त्रिदेवियों की महत्ता प्रतिपादित करती दुर्गा सप्तशती और माँ के प्रति भक्ति रखनेवालों में पुरुष कम नहीं हैं। यह भी कि माँ को सर्वाधिक प्यारी संतान परमहंस भी पुत्र ही हैं।     
दुर्गा परिवार - विसंगति से सुसंगति
           दुर्गा परिवार विसंगति से सुसंगति प्राप्त करने का आदर्श उदाहरण है। शिव पुत्र कार्तिकेय (स्कंद) उनकी पत्नी के पुत्र नहीं हैं। स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव-वरदान पाकर अति शक्तिशाली हुए अधर्मी राक्षस तारकासुर  का वध केवल केवल शिवपुत्र ही कर सकता था। वैरागी शिव का पुत्र होने की संभावना न देख तारकासुर तीनों लोकों में हाहाकार मचा रहा था। त्रस्त देवगण विष्णु के परामर्श पर कैलाश पहुँचे। शिव-पार्वती देवदारु वन में एक गुफा में एकांतवास पर थे। अग्नि देव शिव से पुत्र उत्पत्ति हेतु प्रार्थना करने के उद्देश्य से गुफा-द्वार तक पहुँचे। शिव-शिवा अद्वैतानंद लेने की स्थिति में थे। परपुरुष की आहट पाते ही देवी ने लज्जा से अपना सुंदर मुख कमलपुष्प से ढक लिया, वह रूप लज्जा गौरी के नाम से प्रसिद्ध है। कामातुर शिव का वीर्यपात हो गया। अग्निदेव उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण कर, तारकासुर से बचाकर जाने लगे। वीर्य का उग्र ताप अग्निदेव से सहन नहीं हुआ। अग्नि ने वह अमोघ वीर्य गंगा को सौंप दिया किंतु उसके ताप से गंगा का पानी उबलने लगा। भयभीत गंगा ने वह दिव्य अंश शरवण वन में स्थापित कर दिया किंतु गंगाजल में बहते-बहते छह भागों में विभाजित उस दिव्य अंश से छह सुंदर-सुकोमल शिशुओं का जन्म हुआ। उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं ने उन बालकों का कृतिकालोक ले जाकर पालन-पोषण किया। नारद जी से यह वृतांत सुन शिव-पार्वती कृतिकालोक पहुँचे। पार्वती ने उन बालकों को इतने ज़ोर से गले लगाया कि वे छह शिशु एक शिशु हो गए जिसके छह शीश थे। शिव-पार्वती कृतिकाओं से बालक को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं  द्वारा पालित उस बालक को कार्तिकेय (स्कन्द, षडानन, पार्वतीनंदन, तारकजित्, महासेन, शरजन्मा, सुरसेनानी, अग्निभू, बाहुलेय, गुह,विशाख, शिखिवाहन, शक्तिश्वर, कुमार, क्रौंचदारण) कहा गया। कार्तिकेय ने बड़े होकर राक्षस तारकासुर का संहार किया। देवी अपने गर्भ से उत्पन्न न होने पर भी पति शिव के पुत्र को अपना मान लेती हैं। 
             पार्वती पुत्र गणेश उनके पति शिव के पुत्र नहीं हैं। शिव पुराण के अनुसार पार्वती  जी शिव के प्रवास काल में स्नान करते समय द्वार पर प्रवेश निषेध के लिए अपने शरीर के मैल से पुतले का निर्माण कर प्राण डाल देती हैं। शिव को प्रवेश करने से रोकते हुए युद्ध में गणेश शहीद होते हैं। कोलाहल सुनकर बाहर आने पर वे पुत्र के लिए शोक करती हैं। शिव बिना कोई शंका या प्रश्न किये तुरंत उपचार हेतु सक्रिय होते हैं और मृत बालक के धड़ के साथ गज शिशु का मुख जोड़कर उसे अपना पुत्र बना लेते हैं। सृष्टि परिक्रमा की स्पर्धा होने पर गणेश कार्तिकेय को हराकर अग्रपूजित हो जाते हैं। यहाँ बल पर ज्ञान की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है। 

            युद्ध की देवी दुर्गा पर्व-पूजा के समय पितृ गृह में विश्राम हेतु पधारती हैं। हर बंगाली उन्हें अपनी पुत्री मानकर उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखता है जबकि भारत के अन्य हिस्सों में उन्हें मैया मानकर पूजा जाता है। सप्तमी, अष्टमी और नवमी में पति गृह जाने के पूर्व कन्या के मन-रंजन हेतु स्वादिष्ट व्यंजनों का भोग लगाया जाता है, गायन और नृत्य के आयोजन होते हैं। बंगाल में धुनुची नृत्य और सिन्दूर पूजा का विशेष महत्व है जबकि गुजरात में गरबा और डांडिया नृत्य किया जाता है। विजयादशमी के पश्चात् दुर्गा प्रतिमा बाड़ी या आँगन के बाहर की जाती है तब भावप्रवण बांगला नर-नारियाँ अश्रुपात करते देखे जा सकते हैं। एक अलौकिक शक्ति को लौकिक नाते में सहेजकर उससे शक्ति अर्जित करना सनातन धर्मियों का वैशिष्ट्य है। हमारी सामाजिक मान्यताएँ, रीति-रिवाज और जीवन मूल्य प्रकृति और पुरुष को एक साथ समेटते हुए जीवंत होते हैं। 
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