आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[लेखक परिचय: जन्म २०-८-१९५२, आत्मज - स्व. शांति देवी - स्व. राजबहादुर वर्मा, शिक्षा - डिप्लोमा सिविल इंजी., बी. ई., एम.आई.ई., एम.आई. जी.एस., एम.ए. (अर्थशास्त्र, दर्शन शास्त्र) विधि स्नातक, डिप्लोमा पत्रकारिता), संप्रति - पूर्व संभागीय परियोजना प्रबंधक/कार्यपालन यंत्री, अधिवक्ता म.प्र. उच्च न्यायालय, प्रकाशित पुस्तकें - ७, सहलेखन ५ पुस्तकें, संपादित पुस्तकें १५, स्मारिकाएँ १७, पत्रिकाएँ ७, भूमिका लेखन ५० पुस्तकें, समीक्षा ३०० पुस्तकें, तकनीकी शोध लेख २०, सम्मान - १२ राज्यों की संस्थाओं द्वारा १५० से अधिक सम्मान। उपलब्धि - इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा तकनीकी लेख ‘वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ’ को राष्ट्रीय स्तर पर सेकेण्ड बेस्ट पेपर अवार्ड। ]
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सनातन धर्म में भक्त और भगवान का संबंध अनन्य और अभिन्न है। एक ओर भगवान सर्वशक्तिमान, करुणानिधान और दाता है तो दूसरी ओर 'भगत के बस में है भगवान' अर्थात भक्त बलवान हैं। सतही तौर पर ये दोनों अवधारणाएँ परस्पर विरोधी प्रतीत होती किंतु वस्तुत: पूरक हैं। सनातन धर्म पूरी तरह विग्यानसम्मत, तर्कसम्मत और सत्य है। जहाँ धर्म सम्मत कथ्य विग्यान से मेल न खाए वहाँ जानकारी का अभाव या सम्यक व्याख्या न हो पाना ही कारण है।
परमेश्वर ही परम ऊर्जा
सनातन धर्म परमेश्वर को अनादि, अनंत, अजर और अमर कहता है। थर्मोडायनामिक्स के अनुसार 'इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायडट, कैन बी ट्रांसफार्म्ड ओनली'। ऊर्जा उत्पन्न नहीं की जा सकती इसलिए अनादि है, नष्ट नहीं की जा सकती इसलिए अमर है, ऊर्जा रूपांतरित होती है, उसकी परिसीमन संभव नहीं इसलिए अनंत है। ऊर्जा कालातीत नहीं होती इसलिए अजर है। ऊर्जा ऊर्जा से उत्पन्न हो ऊर्जा में विलीन हो जाती है। पुराण कहता है -
'ॐ पूर्णमद: पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्णस्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते'
ॐ पूर्ण है वह पूर्ण है यह, पूर्ण है ब्रम्हांड सब
पूर्ण में से पूर्ण को यदि दें घटा, शेष तब भी पूर्ण ही रहता सदा।
अंशी (पूर्ण) और अंश का नाता ही परमात्मा और आत् का नाता है। अंश का अवतरण पूर्ण बनकर पूर्ण में मिलने हेतु ही होता है। इसलिए सनातनधर्मी परमसत्ता को निरपेक्ष मानते हैं। कंकर कंकर में शंकर की लोक मान्यतानुसार कण-कण में भगवान है, इसलिए 'आत्मा सो परमात्मा'। यह प्रतीति हो जाए कि हर जीव ही नहीं; जड़ चेतन' में भी उसी परमात्मा का अंश है, जिसका हम में है तो हम सकल सृष्टि को सहोदरी अर्थात एक माँ से उत्पन्न मानकर सबसे समता, सहानुभूति और संवेदनापूर्ण व्यवहार करेंगे। सबकी जननी एक है जो खुद के अंश को उत्पन्न कर, स्वतंत्र जीवन देती है। यह जगजननी ममतामयी ही नहीं है; वह दुष्टहंता भी है। उसके नौ रूपों का पूजन नव दुर्गा पर्व पर किया जाता है। दुर्गा सप्तशतीकार उसका वर्णन करता है-
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य भगवान से त्रिदेवों और त्रिदेवियों की उत्पत्ति हुई जिन्हें क्रमश: सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और विनाश का दायित्व मिला। ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण को सृष्टि का मूल मानता है। शिव पुराण के अनुसार शिव सबके मूल हैं। मार्कण्डेय पुराण और दुर्गा सप्तशती शक्ति को महत्व दें, यह स्वाभाविक है।
भारत में शक्ति पूजा की चिरकालिक परंपरा है। संतानें माँ को बेटी मानकर उनका आह्वान कर, स्वागत, पूजन, सत्कार, भजन तथा विदाई करती हैं। अंग्रेजी कहावत है 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' अर्थात 'बेटा ही है बाप बाप का'। संतानें जगजननी को बेटी मानकर, उसके दो बेटों कार्तिकेय-गणेश व दो बेटियों शारदा-लक्ष्मी सहित मायके में उसकी अगवानी करती हैं। पर्वतेश्वर हिमवान की बेटी दुर्गा स्वेच्छा से वैरागी शिव का वरण करती है। बुद्धि से विघ्नों का निवारण करनेवाले गणेश और पराक्रमी कार्तिकेय उनके बेटे तथा ज्ञान की देवी शारदा व समृद्धि की देवी लक्ष्मी उनकी बेटियाँ हैं।
दुर्गा आत्मविश्वासी हैं, माता-पिता की अनिच्छा के बावजूद विरागी शिव से विवाहकर उन्हें अनुरागी बना लेती हैं। वे आत्मविश्वासी हैं, एक बार कदम आगे बढ़ाकर पीछे नहीं हटातीं। वे अपने निर्णय पर पश्चाताप भी नहीं करतीं। पितृग्रह में सब वैभव सुलभ होने पर भी विवाह पश्चात् शिव के अभावों से भरे परिवेश में बिना किसी गिले-शिकवे या क्लेश के सहज भाव से संतुष्ट-सुखी रहती हैं। शुंभ-निशुम्भ द्वारा भोग-विलास का प्रलोभन भी उन्हें पथ से डिगाता नहीं। शिक्षा के प्रसार और आर्थिक स्वावलंबन ने संतानों के लिए मनवांछित जीवन साथी पाने का अवसर सुलभ करा दिया है। देखा जाता है की जितनी तीव्रता से प्रेम विवाह तक पहुँचता है उतनी ही तीव्रता से विवाहोपरांत घटता है और दोनों के मनों में उपजता असंतोष संबंध विच्छेद तक पहुँच जाता है।
शिव-शिवा का संबंध विश्व में सर्वाधिक विपरीत प्रवृत्तियों का मिलन है। शिव सर्वत्यागी हैं, उमा राजा हिमवान की दुलारी पुत्री, राजकुमारी हैं। शिव संसाधन विहीन हैं, उमा सर्व साधन संपन्न हैं। शिव वैरागी हैं, उमा अनुरागी। शिव पर आसक्त होकर उमा प्राण-प्रणसे जतन कर उन्हें मनाती हैं और स्वजनों की असहमति की चिंता किये बिना विवाह हेतु तत्पर होती हैं किंतुपितृ गृह से भागकर पिता की प्रतिष्ठा को आघात नहीं पहुँचातीं, सबके सहमत होने पर ही सामाजिक विधि-विधान, रीति-रिवाजों के साथ अपने प्रियतम की अर्धांगिनी हैं। समाज के युवकों और युवतियों के लिये यह प्रसंग जानना-समझना और इसका अनुकरण करना जीवन को पूर्णता प्रदान करने के लिए परमावश्यक है। शिव साधनविहीनता के बाद भी उमा से इसलिए विवाह नहीं करना चाहते कि वह राजकुमारी है। वे उमा की सच्ची प्रीति और अपने प्रति प्रतिबद्धता जानने के पश्चात ही सहमत होते हैं। विवाह में वे कोई दहेज़ या धन नहीं स्वीकारते, केवल उमा के साथ श्वसुरालय से विदा होते हैं। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि सामाजिक और पारिवारिक मान-मर्यादा धन-वैभव प्रदर्शन में नहीं, संस्कारों के शालीनतापूर्वक संपादन में है।
विवाह पश्चात नववधु उमा को पितृ-गृह से सर्वथा विपरीत वातावरण प्रिय-गृह में मिलता है। वहाँ सर्व सुविधा, साधन, सेविकाएँ उपलब्ध थीं यहाँ सर्वअसुविधा, साधनहीनता तथा ‘अपने सहायक आप हो’ की स्थिति किंतु उमा न तो अपने निर्णय पर पछताती हैं, न प्रियतम से किसी प्रकार की माँग करती हैं। वे शिव के साथ, नीर-क्षीर तरह एकात्म हो जाती हैं। वे मायके से कोई उपहार या सहायता नहीं लेतीं, न शिव को घर जमाई बनने हेतु प्रेरित या बाध्य करती हैं। शिव से नृत्य स्पर्धा होने पर माँ मात्र इसलिए पराजय स्वीकार लेती हैं कि शिव की तरह नृत्यमुद्रा बनाने पर अंग प्रदर्शन न हो जाए। उनका संदेश स्पष्ट है मर्यादा जय-पराजय से अधिक महत्वपूर्ण है, यह भी कि दाम्पत्य में हार (पराजय) को हार (माला) की तरह सहज स्वीकार लें तो हार ही जीत बन जाती है। यह ज्ञान लेकर श्वसुरालय जानेवाली बेटी बहू के रूप में सबका मन जीत सकेगी। उमा पराक्रमी होते हुए भी लज्जाशील हैं। शिव भी जान जाते हैं कि उमा ने प्रयास न कर उन्हें जयी होने दिया है। इससे शिव के मन में उनका मान बढ़ जाता है और वे शिव की ह्रदय-साम्राज्ञी हो पाती हैं। पाश्चात्य जीवन मूल्यों तथा चित्रपटीय भूषा पर मुग्ध तरुणियाँ दुर्गा माँ से अंग प्रदर्शन की अपेक्षा लज्जा निर्वहन का संस्कार ग्रहण कर मान-मर्यादा का पालन कर गौरव-गरिमा सकेंगी। उमा से अधिक तेजस्विनी कोई नहीं हो सकता पर वे उस तेज का प्रयोग शिव को अपने वश में करने हेतु नहीं करतीं, वे शिव के वश में होकर शिव का मन जीतती हैं हुए अपने तेज का प्रयोग समय आने पर अपनी संतानों को सुयोग्य बनाने और शिव पर आपदा आने पर उन्हें बचने में करती हैं।
उमा अपनी संतानों को भी स्वावलंबन, संयम और स्वाभिमान की शिक्षा देती हैं। अपनी एक पुत्री को सर्वप्रकार की विद्या प्राप्त करने देती हैं, दूसरी पुत्री को उद्यमी बनाती हैं, एक पुत्र सर्व विघ्नों का शमन में निष्णात है तो दूसरा सर्व शत्रुओं का दमन करने में समर्थ। विश्व-इतिहास में केवल दो ही माताएँ अपनी संतानों को ऐसे दुर्लभ-दिव्य गुणों से संपन्न बना सकी हैं, एक उमा और दूसरी कैकेयी।
लगभग १२०० वर्ष पुराने मार्कण्डेय पुराण के देवी महात्म्य में वे अनाचार के प्रतिकार हेतु सिंहवाहिनी होकर महाबलशाली महिषासुर का वध और रक्तबीज का रक्तपान करती हैं। अत्यधिक आवेश में वे सब कुछ नष्ट करने की दिशा में प्रेरित होती हैं तो शिव प्रलयंकर-अभ्यंकर होते हुए भी उनके पथ में लेट जाते हैं। शिव के वक्ष पर चरण रखते ही उन्हें मर्यादा भंग होने का ध्यान आता है और उनके विकराल मुख से जिव्हा बाहर आ जाती है। तत्क्षण वे अपने कदम रोक लेती हैं। उनसे जुड़ा हर प्रसंग नव दंपतियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। जरा-जरा सी बात में अहं के कारण राई को पर्वत बनाकर टूटते संबंधों और बिखरते परिवारों को दुर्गा पूजन मात्र से संतुष्ट न होकर, उनके आचरण से सीख लेकर जीवन को सुखी बनाना चाहिए। एकांगी स्त्री-विमर्श के पक्षधर शिव-शिवा से जीवन के सूत्र ग्रहण कर सकें तो टकराव और बिखराव के कंटकाकीर्ण पथ को छोड़कर, अहं विसर्जन कर समर्पण और सहचार की पगडंडी पर चलकर परिवार जनों को स्वर्गवासी किये बिना स्वर्गोपम सुख पहुँचा सकेंगे।
स्त्री को दासी समझने का भ्रम पालनेवाले नासमझ शिव से सीख सकते हैं कि स्त्री की मान-मर्यादा की रक्षा ही पुरुष के पौरुष का प्रमाण है। शिव अनिच्छा के बाद भी उमा के आग्रह की रक्षा हेतु उनसे उनसे विवाह करते हैं किन्तु विवाह पश्चात् उमा का सुख ही उनके लिए सर्वस्व हो जाता है। लंबे समय तक प्रवास पश्चात् लौटने पर गृह द्वार पर एक अपरिचित बालक द्वारा हठपूर्वक रोके जाने पर शिव उसका वध कर देते हैं। कोलाहल सुनकर द्वार पर आई उमा द्वारा बालक की निष्प्राण देह पर विलाप करते हुए यह बताये जाने पर कि वह बालक उमा का पुत्र है और शिव ने उसका वध कर दिया, स्तब्ध शिव न तो उमा पर संदेह करते हैं, न लांछित करते हैं अपितु अपनी भूल स्वीकारते हुए बालक की चिकित्सा कर उसे नवजीवन देकर पुत्र स्वीकार लेते हैं। समाज में हर पति को शिव की तरह पत्नी के प्रति अखंड विश्वास रखना चाहिए। इस प्रसंग के पूर्व, पूर्वजन्म में शिव द्वारा मना करने के बाद भी सती (उमा का पूर्व जन्म में नाम) पिता दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में गईं, स्वामी शिव की अवहेलना और निंदा न सह पाने के कारण यज्ञ वेदी में स्वयं को भस्म कर लिया। शिव ने यह ज्ञात होने पर यज्ञ ध्वंस कर दोषियों को दंड दिया तथा सती की देह उठाकर भटकने लगे। सृष्टि के हित हेतु विष्णु ने चक्र से देह को खंडित कर दिया, जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे वहाँ शक्ति पीठें स्थापित हुईं।
शिव ने समाधि लगा ली। तारकासुर के विनाश हेतु शिवपुत्र की आवश्यकता होने पर कामदेव ने शिव का तप भंग किया किन्तु तपभंग से क्रुद्ध शिव की कोपाग्नि में भस्म हो गए। अति आवेश से स्खलित शिववीर्य का संरक्षण कृतिकाओं ने किया, जिससे कार्तिकेय का जन्म हुआ। पार्वती ने बिना कोई आपत्ति किये शिव पुत्र को अपना पुत्र मानकर लालन-पालन किया। क्या आज ऐसे परिवार की कल्पना भी की जा सकती है जिसमें पति का पुत्र पत्नी के गर्भ में न रहा हो, पत्नी के पुत्र से पति अनजान हो और फिर भी वे सब बिना किसी मतभेद के साथ हों, यही नहीं दोनों भाइयों में भी असीम स्नेह हो। शिव परिवार ऐसा ही दिव्य परिवार है जहाँ स्पर्धा भी मनभेद उत्पन्न नहीं कर पाती। कार्तिकेय और गणेश में श्रेष्ठता संबंधी विवाद होने पर शिव ने उन्हें सृष्टि परिक्रमा करने का दायित्व दिया। कार्तिकेय अपने वाहन मयूर पर सवार होकर उड़ गए, स्थूल गणेश ने मूषक पर जगत्पिता शिव और जगन्माता पार्वती की परिक्रमा कर ली और विजयी हुए। इस प्रसंग से शक्ति पर बुद्धि की श्रेष्ठता प्रमाणित हुई।
दुर्गापूजा में माँ दुर्गा की प्रतिमा के साथ भगवान शिव, गणेशजी, लक्ष्मीजी, सरस्वती जी और कार्तिकेय जी की पूजा पूरे विधि-विधान के साथ की जाती है। श्री दुर्गासप्तशती पाठ (स्रोत,गीताप्रेस,गोरखपुर) के द्वितीय अध्याय में देह दुर्ग को जीतकर दुर्गा विरुद से विभूषित शक्ति द्वारा महिषासुर वध के पूर्व उनकी ज्येष्ठ पुत्री महालक्ष्मी का ध्यान किया गया है -
ॐ अक्षस्त्रक्परशुंगदेषुकुलिशम् पद्मं धनुष्कुण्डिकाम्, दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तै: प्रसन्नानां, सेवे सैरभमर्दिनिमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्
ॐ अक्षमाल फरसा गदा बाण वज्र धनु पद्म, कुण्डि दंड बल खड्ग सह ढाल शंख मधुपात्र
घंटा शूल सुपाश चक्र कर में लिए प्रसन्न, महिष दैत्य हंता रमा कमलासनी भजामि
श्री दुर्गासप्तशती पाठ (स्रोत,गीताप्रेस,गोरखपुर) के पंचम अध्याय में इस बात की चर्चा है कि महासरस्वती अपने कर कमलों घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं। शरद ऋतु के शोभा सम्पन्न चन्द्रमा के समान उनकी मनोहर कांति है। वे तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करने वाली हैं। पंचम अध्याय के प्रारम्भ में निम्न श्लोक दृष्टव्य है-
ॐ घंटा शूलहलानि शंखमूसले चक्रं धनुं सायकं, हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्
गौरी देहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महापूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुंभादिदैत्यार्दिनीम्
ॐ घंट शूल हल शंख मूसल चक्र धनु बाण, करकमलों में हैं लिए, शरत्चंद्र सम कांति
गौरिज जगताधार पूर्वामत्र सरस्वती, शुम्भ दैत्यमर्दिनी नमन भजूं सतत पा शांति
उल्लेखनीय है कि दुर्गाशप्तशती में माँ की दोनों पुत्रियों को महत्व दिया गया है किन्तु दोनों पुत्रों कार्तिकेय और गणेश नहीं हैं। सरस्वती जी पर केंद्रित ‘प्राधानिकं रहस्यं’ उपसंहार के अंतर्गत है। स्वयं शिव का स्थान भी माँ के स्वामी रूप में ही है, स्वतंत्र रूप से नहीं। इसका संकेत आरम्भ में अथ सप्तश्लोकी दुर्गा में शिव द्वारा देवताओं को माँ की महिमा बताने से किया गया है। विनियोग आरम्भ करते समय श्री महाकाली, महालक्ष्मी व् महासरस्वती का देवता रूप में उल्लेख है। स्त्री-पुरुष समानता के नाम पर समाज को विखंडित करनेवाले यदि दुर्गासप्तशती का मर्म समझ सकें तो उन्हें ज्ञात होगा कि सनातन धर्म लिंग भेद में विश्वास नहीं करता किंतु प्रकृति-पुरुष को एक दूसरे का पूरक मानकर यथावसर यथायोग्य महत्त्व देते है। त्रिदेवियों की महत्ता प्रतिपादित करती दुर्गा सप्तशती और माँ के प्रति भक्ति रखनेवालों में पुरुष कम नहीं हैं। यह भी कि माँ को सर्वाधिक प्यारी संतान परमहंस भी पुत्र ही हैं।
दुर्गा परिवार - विसंगति से सुसंगति
दुर्गा परिवार विसंगति से सुसंगति प्राप्त करने का आदर्श उदाहरण है। शिव पुत्र कार्तिकेय (स्कंद) उनकी पत्नी के पुत्र नहीं हैं। स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव-वरदान पाकर अति शक्तिशाली हुए अधर्मी राक्षस तारकासुर का वध केवल केवल शिवपुत्र ही कर सकता था। वैरागी शिव का पुत्र होने की संभावना न देख तारकासुर तीनों लोकों में हाहाकार मचा रहा था। त्रस्त देवगण विष्णु के परामर्श पर कैलाश पहुँचे। शिव-पार्वती देवदारु वन में एक गुफा में एकांतवास पर थे। अग्नि देव शिव से पुत्र उत्पत्ति हेतु प्रार्थना करने के उद्देश्य से गुफा-द्वार तक पहुँचे। शिव-शिवा अद्वैतानंद लेने की स्थिति में थे। परपुरुष की आहट पाते ही देवी ने लज्जा से अपना सुंदर मुख कमलपुष्प से ढक लिया, वह रूप लज्जा गौरी के नाम से प्रसिद्ध है। कामातुर शिव का वीर्यपात हो गया। अग्निदेव उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण कर, तारकासुर से बचाकर जाने लगे। वीर्य का उग्र ताप अग्निदेव से सहन नहीं हुआ। अग्नि ने वह अमोघ वीर्य गंगा को सौंप दिया किंतु उसके ताप से गंगा का पानी उबलने लगा। भयभीत गंगा ने वह दिव्य अंश शरवण वन में स्थापित कर दिया किंतु गंगाजल में बहते-बहते छह भागों में विभाजित उस दिव्य अंश से छह सुंदर-सुकोमल शिशुओं का जन्म हुआ। उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं ने उन बालकों का कृतिकालोक ले जाकर पालन-पोषण किया। नारद जी से यह वृतांत सुन शिव-पार्वती कृतिकालोक पहुँचे। पार्वती ने उन बालकों को इतने ज़ोर से गले लगाया कि वे छह शिशु एक शिशु हो गए जिसके छह शीश थे। शिव-पार्वती कृतिकाओं से बालक को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं द्वारा पालित उस बालक को कार्तिकेय (स्कन्द, षडानन, पार्वतीनंदन, तारकजित्, महासेन, शरजन्मा, सुरसेनानी, अग्निभू, बाहुलेय, गुह,विशाख, शिखिवाहन, शक्तिश्वर, कुमार, क्रौंचदारण) कहा गया। कार्तिकेय ने बड़े होकर राक्षस तारकासुर का संहार किया। देवी अपने गर्भ से उत्पन्न न होने पर भी पति शिव के पुत्र को अपना मान लेती हैं।
पार्वती पुत्र गणेश उनके पति शिव के पुत्र नहीं हैं। शिव पुराण के अनुसार पार्वती जी शिव के प्रवास काल में स्नान करते समय द्वार पर प्रवेश निषेध के लिए अपने शरीर के मैल से पुतले का निर्माण कर प्राण डाल देती हैं। शिव को प्रवेश करने से रोकते हुए युद्ध में गणेश शहीद होते हैं। कोलाहल सुनकर बाहर आने पर वे पुत्र के लिए शोक करती हैं। शिव बिना कोई शंका या प्रश्न किये तुरंत उपचार हेतु सक्रिय होते हैं और मृत बालक के धड़ के साथ गज शिशु का मुख जोड़कर उसे अपना पुत्र बना लेते हैं। सृष्टि परिक्रमा की स्पर्धा होने पर गणेश कार्तिकेय को हराकर अग्रपूजित हो जाते हैं। यहाँ बल पर ज्ञान की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है।
युद्ध की देवी दुर्गा पर्व-पूजा के समय पितृ गृह में विश्राम हेतु पधारती हैं। हर बंगाली उन्हें अपनी पुत्री मानकर उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखता है जबकि भारत के अन्य हिस्सों में उन्हें मैया मानकर पूजा जाता है। सप्तमी, अष्टमी और नवमी में पति गृह जाने के पूर्व कन्या के मन-रंजन हेतु स्वादिष्ट व्यंजनों का भोग लगाया जाता है, गायन और नृत्य के आयोजन होते हैं। बंगाल में धुनुची नृत्य और सिन्दूर पूजा का विशेष महत्व है जबकि गुजरात में गरबा और डांडिया नृत्य किया जाता है। विजयादशमी के पश्चात् दुर्गा प्रतिमा बाड़ी या आँगन के बाहर की जाती है तब भावप्रवण बांगला नर-नारियाँ अश्रुपात करते देखे जा सकते हैं। एक अलौकिक शक्ति को लौकिक नाते में सहेजकर उससे शक्ति अर्जित करना सनातन धर्मियों का वैशिष्ट्य है। हमारी सामाजिक मान्यताएँ, रीति-रिवाज और जीवन मूल्य प्रकृति और पुरुष को एक साथ समेटते हुए जीवंत होते हैं।
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