लेख:
हिंदी साहित्य और अंक विज्ञान : प्रसाद और निराला के संदर्भ में
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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अक्षर और अंक:
सनातन सांस्कृतिक दृष्टि संपन्न देश भारत में गतागत के अध्ययन-अनुमान की सुपुष्ट परंपरा रही है. गत के अध्ययन से आज को बेहतर बनाने के सूत्र प्राप्त करना और आगत के समृद्ध-सुख बनाने का यत्न करना भारतीयों को अभीष्ट रहा है. इसलिए साहित्य को 'सबका हित समाहित करने वाले सर्वहितकारी लेखन' के रूप में परिभाषित किया गया है. ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा गया है. ज्योतिष के अनुसार अंक विज्ञान सर्वाधिक विश्वसनीय और विवादरहित परिणामदाता है.१ सामान्यत: अंक विज्ञान का उपयोग व्यक्ति के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं सम्बन्धी फलादेश प्राप्ति तक सीमित रखा गया है. ज्ञान-विज्ञान की कोई भी शाखा जीवन और जगत के किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं हो सकती. अक्षर और अंक में एक समानता यह है कि दोनों अनंतिम हैं जिनका क्षय नहीं होता. अक्षर और अंक दोनों ब्रम्ह के पर्याय हैं. हम आलेख में हम अंक विज्ञान की आधारभूत मान्यताओं का उल्लेखकर हिंदी साहित्य के दो शिखर हस्ताक्षरों प्रसाद तथा निराला से उनके अंर्तसंबंध को जानने का प्रयास करेंगे.
भारतीय दर्शन में शब्दाक्षर चिंतन:
' न क्षरति इति अक्षर' अर्थात अक्षर का क्षय या नाश नहीं होता.' स्थूल रूप में अक्षर और अंक न होते तो मनुष्य आदिम पशु रूप से उन्नति ही नहीं कर पाता. अंकों और अक्षरों का अन्तर्सम्बन्ध निर्विवाद है. अक्षर शब्दकोशीय आधार पर विशेषण रूप में अविनाशी और नित्य तथा संज्ञा रूप में वर्ण, हर्फ़, आत्मा, ब्रम्ह, आकाश, तपस्या एवं मोक्ष अर्थों का वाहक है. २
बौद्ध दर्शन का अपोहवाद ३, न्याय दर्शन जातिमान सिद्धांत, वैशेषिक दर्शन में शब्द को आकाश का गुण मानना, जैन दर्शनानुसार शब्द का की रचना ध्वनि-अणुओं से होना, शैव मत के प्रत्यभिज्ञा सिद्धांतानुसार सकल अभिव्यक्ति का शब्दमय होना आदि से आभासित होता है कि शब्द तथा अंक अंतर्संबन्धित हैं. जगत की ३ अवस्थाओं निष्फल, निष्फल सकल और सकल में परा वाक्शक्ति ही अभिव्यक्त होती है. वैयाकरणों ने शब्द तत्व स्फोटवाद के रूप में अक्षर के बाह्य रूप के साथ उसके सूक्षमतिसूक्ष्म रूप का निरूपण भी किया है. भारतीय दर्शन शब्द-ब्रम्ह को ४ रूपों परावाक, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी में विभक्त कर जगत औ ब्रम्हांड से संयुक्त मानता है. वाणी की ३ अवस्थाएं नित्य अतीन्द्रिय, अखंड और अविकारी हैं, वाग्देवी के ४ अधिष्ठान ध्वनि, वर्ण, पद तथा वाक्य मान्य हैं.
चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्रम्हणाये मनीषिण:
गुहा त्रीणिनिहि तानेङ्गयन्ति तुरीयं वचोमनुष्य वदंति
महाभारतकार ने नाद में जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विलय माना है. पतंजलि के महाभाष्य, कुमारिल भट्ट के तत्ववर्तिका, कौण्डभट्ट के भूषणसार आदि ग्रन्थ शब्द के अवदान पर ही केंद्रित हैं. आचार्य स्वतंत्रानंदनाथ कृत श्री मातृकाचक्र विवेक४ के अनुसार शब्द ब्रम्ह का व्यक्त रूप मातृका है तथा जगत व्यवहार के -कलाप इसी आश्रय पर पल्ल्वित, पुष्पित व फलीभूत है. मातृकाशक्ति मंत्र रूप में विस्तीर्ण होकर सकल सांसारिक क्रिया व्यापार को वाक्-विग्रह में समेट लेती है. स्वर शास्त्र जैसा ग्रन्थ मोक्ष-प्राप्ति का साधन स्वर को भी मानता है. 'स्वर-शास्त्र'५ शिव-शिवा संवाद के रूप में शिव स्वरोदय, ज्ञान स्वरोदय, पवन स्वरोदय तथा तत्व स्वरोदय द्वारा साधना पथ का निर्देश करता है.
वेदानुसार 'वाग्वै सृष्टि:' अर्थात वाणी शब्द-सृष्टि है. यह वाणी ही अनहद नाद के रूप में सकल सृष्टि का मूल और परमात्मा के प्रगटीकरण और संपर्क का माध्यम है. योगी इसका निरंतर जप करते हैं और उनके कानों में भौंरे की गुंजार की तरह यह ध्वनि निरंतर गूंजती कही. ॐ इसी ध्वनि का लिप्यन्तरण है. परब्रम्ह का चित्र गुप्त है, आकार से बनता है अर्थात परब्रम्ह निराकार है. ध्वनि और लिपि के अन्तर्सम्बन्ध का एक आयाम अंक है. दंडी के अनुसार:
इदमंध: तम: कृत्स्नं जायते भुवनत्रयं
यदि शब्दाहय ज्योतिरा संसारान न दीप्यते
सघन तम में लीन रहते लोक तीनों
शब्द-ज्योति न दीप्त करती यदि उन्हें
अर्थात तीनों लोक सघन डूबे रहते यदि शब्द-ज्योति उसे प्रकाशित नहीं करती.
वाक्य पदीयंकार भर्तृहरि के मत में सकल मानवीय कार्य-व्यापार शब्द द्वारा पूर्ण होते हैं:
अनादि निधनं ब्रम्ह शब्दतत्वं यदक्षरं
निवर्तते अर्थभावें प्रक्रिया जगतो यत:
ज्यों अनादि परब्रम्ह का विलय सृष्टि-आरम्भ
त्यों अक्षर शब्दार्थ से जगत-क्रिया प्रारंभ
सारत: सकल भारतीय दर्शन परम्परा वाङ्ग्मयी (शब्दमयी) है.
पाश्चात्य दर्शन में शब्दाक्षर बोध:
पाश्चात्य चिंतन शब्द के स्वरूप का निर्धारण दर्शन, मनोविज्ञान और भाषा विज्ञानं के अंतर्गत करता है. प्लेटो 'ओन सोफिस्टिकल रिफ्यूटेशन' में शब्द को वस्तु या विचार की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र मानते हैं उससे तत्व का यथार्थ बोध संभव नहीं मानते। प्लेटो वस्तुओं को अनंत और शब्द को अनेकार्थी मानता है. अरस्तु ने 'ओन इंटरप्रिटेशन्स' में प्रतीक सिद्धांत के अनुसार वस्तु की सत्ता तथा शब्द को वस्तु का अर्थ मानता है. स्टोइक दार्शनिक शब्द की आतंरिक अर्थवत्ता को मानते हैं. ब्रोडेस्को 'हिस्ट्री ऑफ़ फॉर्मल लॉजिक' में शब्द के वाच्यार्थ को अर्थ निरूपण में महत्वपूर्ण मानता है. सेक्सटस इंपीरिकस सामान्य और विशिष्ट दो अर्थ स्वीकारता है.
मानवतावादी दार्शनिक मनोविज्ञान में शब्द और अर्थ को मनोगत स्वतंत्र सत्ता स्वीकारते हैं. 'थ्योरी ऑफ़ लॉजिक एंड पोएटिक्स इन रिनान्सां' में मेलांक्थन तथा 'लेबियाथन; में टॉमस होब्ब्स शब्द और अर्थ प्रक्रियाओं का सूक्षम विश्लेषण करते हैं. लॉक के अनुसार शब्द मानस प्रत्यय के बोधक हैं. बर्कले 'प्रिंसिपल ऑफ़ ह्यूमन नॉलेज' में भावबोधक शब्दों को संवेदनवाहक मानते हैं. 'एस्से ओन द इंटेक्युअस पॉवर्स ऑफ़ द मैन एंड कंसेप्ट्स' में टॉमस रीड शब्दार्थों को जीवनानुभवों से संयुक्त मानते हैं. लाइब्नित्ज़ के अनुसार बोधकता स्थिरीकरण या निर्धारण संभव नहीं है चूंकि ज्ञान-विस्तार के साथ अर्थ की परिधि व्यापक हो जाती है. 'लॉजिक; शीर्षक ग्रंथ में जॉन स्टुअर्ट मिल प्रयोगात्मक अनुसन्धान विधि माध्यम से शब्द के २ वर्ग स्वीकारकर बोध प्रकिया की विवेचना करते हैं. 'क्रिटिक ऑफ़ प्योर रीजनिंग' में कान्ट मानस प्रत्यय पर विचार कर लौकिक वस्तुओं और गणित में प्रयुक्त भाषा-रूपों में भेद को स्पष्ट करता है. ब्लूम-फील्ड, गिल्बर्ट रीले, लेडी बेलबे, ओग्डेन फ्रेग, चार्ल्स डब्ल्यू. मोरिस, बर्ट्रेंड रसेल, भुअन, न्यूरथ कॉर्नप ने भी शब्द तथा भाषा के स्वरूप पर चिंतन किया है.
अक्षर और अंक :
पाश्चात्य चिंतन परम तत्व को नहीं मानता पर शब्द और अर्थ पर दर्शन, भाषा और मनोविज्ञान के अंतर्गत मीमांसा करता है जबकि भारतीय चिंतन धारा शब्द-सत्ता को निरपेक्ष ब्रम्ह रूप में स्वीकारता है. भारतीय दर्शन में शब्द अनंतता का वाहक है जबकि पश्चिम का चिंतन उसे व्यापक मानते हुई भी भौतिक-जड़ जगत तक सीमित रखता है. दोनों ही रूपों में अंक अक्षर और शब्द अछोटर आयामों को समझने में सहायक होते हैं. पूर्व और पश्चिम दोनों जगत अक्षर और अंक के अन्तर्सम्बन्ध का अध्ययन करते हैं.
भाषा और अक्षर अभिव्यक्ति का माध्यम हैं. अंक इस अभिव्यक्ति को प्रामाणिकता देते हैं. मात्रा और परिमाण की अभिव्यक्ति करना अंकों के अभाव में संभव नहीं है. अतः, भाषा की ही तरह अंक भी अभिव्यक्ति के माध्यम हैं. किसी भी सभ्यता और भाषा का अस्तित्व अंकों के बिना संभव नहीं हो सकता. इसलिए विश्व की हर भाषा में अंकों का अस्तित्व है. अंक न हों तो गणना ही संभव नहीं होगी. गणना के अभाव में ज्ञान-विज्ञान की प्रगति संभव न होगी. ज्ञान का वाहक साहित्य विज्ञान से गले मिलकर तभी बढ़ सका जब उसने अंकों को अपने में समाहित कर लिया.
अंक और अक्षर की अभिन्नता से सुपरिचित भारतीय ऋषियों ने अक्षर को ब्रम्ह और अंक को उसके मूर्त रूप में स्वीकार कर एकाकार किया तंत्र और मन्त्र में. दैवीय पूजन अनुष्ठान में मंत्रों में अक्षर संख्या, जप और पुरश्चरण के भिन्न विधान अकारण नहीं हैं. एकाक्षरी, द्वाक्षरी, त्र्यक्षरी, षटाक्षरी,तथा नवार्णि आदि मंत्र विशिष्ट शब्द संख्या कारण ही विशिष्ट प्रभाव के वाहक और आपदा निवारण में समर्थ होते हैं. सूर्य के लिये ७,०००, मंगल हेतु १०,००० चन्द्र के लिये ११०००, गुरु हेतु १९,००० जप संख्या के पीछे स्पष्ट तर्क तथा आधार है. शास्त्रीय विधानानुसार मंत्र के शब्दों को में परिवर्तित कर उसकी माप निर्धारित की जा सकती है. यह माप गृह की दूरी, परिपथ की लम्बाई और व्यास से सम्बद्ध होती है. जप-माला के १०८ दाने होना सूर्य की गति से सम्बद्ध है. दैवी शक्तियों के नामों को बीज (सूक्ष्म) रूप देने पर बना संख्यागत रूप ही तंत्र में यंत्र बनता है जिसके उच्चारण से उपजा स्पंदन विज्ञान सम्मत फ्रीक्वेंसी से एककारित होता है.
प्रत्येक अक्षर का उच्चारण ध्वनि विशेष को जन्म देता है, ध्वनि कंपन विशिष्ट संख्या में आवृत्ति विशिष्ट तरंग मंडल का निर्माण करता है. यह तंग मंडल वातावरण में व्याप्त होकर अपन प्रभाव छोड़ते हैं जो कभी नष्ट नहीं होता विशिष्ट पद्धति से अवशोषित न किया जाए. पर आधुनिक ध्वनि वैज्ञानिक श्रीकृष्ण द्वारा कही गयी गीता के संकेतों को संचित कर सुन पाने के प्रति आशान्वित हैं.
अंक ज्योतिष और साहित्य : अन्तर्सम्बन्ध
अंक ज्योतष में ३ आधार मूलांक, भाग्यांक और नामांक के आधार पर गणना कर परिणाम प्राप्ति होती है. प्राप्त परिणामों से व्यक्ति के जीवन सम्बन्धी फलादेश तथा भविष्य का अनुमान किया जाता है. मनुष्य के आत्मज को उसका उत्तराधिकारी कहा गया है. आत्मज को सामान्य अर्थ में पुत्र कहा गया है. पिता और पुत्र का सम्बन्ध इतना प्रगाढ़ होता है की दोनों एक-दूसरे को आजीवन प्रभावित करते हैं और एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं. विज्ञानं गुणसूत्रों (क्रोमोसोम्स) के आधार पर माता के ५ पीढ़ियों और पिता की ७ पीढ़ियों से आनुवंशिक गुण-दोष आने को प्रमाणित कर चुके हैं. बरतीय वैवाहिक परंपरा में मिताक्षर प्रणाली के अनुसार मातृकुल में ५ पीढ़ी तक और पितृकुल में ७ पीढ़ी तक विवाह सम्बन्ध वर्जित करने के पीछे यही कारण है. आत्मज औरस (देहज) पुत्र मात्र नहीं होता। मानस पुत्र (शिष्य) को भी पुत्र कहा गया है. इसीलिये गुरुपुत्र और गुरुपुत्री को भ्राता-भगिनी मानकर उनसे विवाह का निषेध है.
साहित्यकार की मानस संतति उसकी कृतियाँ होती हैं जिनमें वह अपना मन-प्राण उड़ेलता है. यह कैसे संभव है कि साहित्यकार के जीवन में उसका सुख-दुःख और जीवनोपरांत उसका यश-कीर्ति कृतियों से प्रभावित न हो. अनेक साहित्यकारों की कृतियाँ ही उनके आजीविका अर्जन का माध्यम और जीविकोपार्जन का माध्यम होती हैं. पूत कपूत हो सकता है, कृतघ्न हो सकता है पर कृति कृतघ्न नहीं हो सकती. स्पष्ट है कि यह संबंध अन्योन्याश्रित अर्थात परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर है. साहित्यकार की साँसें और कृतियाँ अविच्छिन्न हैं तो अंक ज्योतिष किसी एक का फलादेश करे और दूसरे का न करे यह कैसे संभव है. स्पष्ट है कि अंक ज्योतिष साहित्यकार की ही तरह उसकी कृतियों के संबंध में भी अध्ययन कर फलादेश अथवा संकेत कर सकता है.
मूलांक:
All I have seen teaches me to trust the creator for all I have not seen. -Emerson
मैंने जो देखा, उसने सिखलाया है
निर्माता पर करो भरोसा, जो अदृश्य है
जिस प्रकार गर्भाधान के पूर्व पुत्र वीर्य के रूप में पिता में समाहित रहता है उसी प्रकार हर रचना अस्तित्व में आने के पूर्व रचनाकार के मानस में ही रहती है. अत:, रचनाकार के जीवन को प्रभावित करनेवाले शुभाशुभ अंकों की छाया उस कृति में न होना संभव नहीं है. जिस तरह व्यक्ति के फलादेश हेतु उसकी जन्मतिथि से मूलांक ज्ञात किया जाता है वैसे ही कृति के प्रकाशन की दिनाँक अथवा दिनाँक ज्ञात न हो तो प्रकाशन वर्ष को आधार मानकर उसका मूलांक ज्ञात करना चाहिए. यह मूलांक जातक की जन्म दिनाँक होती है. जन्म दिनाँक में एक से अधिक अंक होने पर उनका योग कर एक अंक या मूलांक की गणना की जाती है. सामान्यतः प्रचलित रोमन कैलेण्डर में किसी माह में ३१ से अधिक दिनाँक नहीं होती अत:, उनके मूलांक निम्न हैं:
तिथियाँ : ०१ - ०२ - ०३- ४ - ०५ - ०६ - ०७ - ०८ - ०९ - १० - ११ - १२ - १३- १४ - १५ - १६ - १७ - १८ - १९ - २० - २१ - २२ - २३- २४ - २५ - २६ - २७ - २८ - २९ - ३० - ३१
मूलांक : ०१ - ०२ - ०३- ४ - ०५ - ०६ - ०७ - ०८ - ०९ - ०१ - ०२ - ०३ - ०४- ०४ -०६ - ०७ - ०८ -०९ - ०१ - ०१ - ०२ - ०३ - ०४ - ०५- ०६ - ०७ - ०८ - ०९ - ०१ - ०२ - ०३ - ०४
अंक ज्योतिष के अनुसार मूलांक सम्बन्धी संक्षिप्त जानकारी निम्न है:
मूलांक १:
सहिष्णुता, सहनशीलता, गंभीरता, सतत संघर्ष, उत्थान-पतन, नेतृत्व-प्रिय, विस्तृत परिचय क्षेत्र, नवीनता प्रेमी, स्वस्थ्य, सबल, निर्णयक्षम, स्वतंत्र चेता, परिवर्तन प्रेमी, सुरुचिपूर्ण, सौंदर्य प्रेमी.
मूलांक २:
कल्पनाशील, भावुक, सहृदय, सरलचित्त, कोमल, अस्थिर, नवीनता प्रेमी, बुद्धिजीवी, शरीर की तुलना में मस्तिष्क अधिक सबल, परिष्कृत रूचि, सौंदर्य प्रेमी, सम्मोहक व्यक्तित्व, आत्मविश्वास न्यून, निर्णय लेने में कमजोर, शंकालु, परहितसाधक, ललितकलाप्रेमी.
मूलांक ३:
साहसी, शक्तिवान, दृढ़, संघर्षशील, व्यवस्थित, विचारशील, न्यून धन, स्वार्थवृत्ति, धन संचय नहीं, काम पड़ने पर विरोधी से भी मेल काम निकलते ही अलगाव, महत्वाकांक्षी, रक्त संबंध से लाभ नहीं, स्वेच्छाचारी, बुद्धिमान, उदार हृदय.
मूलांक ४:
सतत क्रियाशील, शिखर या गर्त में, पग-पग पर बाधाएँ, लगातार उतार-चढ़ाव, तुनकमिजाज, क्रोधी, रहस्यप्रिय, अनेक शत्रु, शत्रुजयी.
मूलांक ५:
विचार प्रधान, अनम्य, सम्मोहक, यात्राप्रिय, अति व्यस्त, प्रखर बुद्धि, उर्वर मस्तिष्क, द्रुत निर्णयी, परिस्थिति अनुसार ढलने में कुशल, दृढ़ संकल्पी, एकाधिक आय साधन, व्यवसायप्रिय.
मूलांक ६:
दीर्घायु, स्वस्थ्य, सबल, हँसमुख, अम्मोहक, रतिप्रिय, मिलनसार, सौंदर्यप्रिय, सुरुचिपूर्ण, आनंदप्रेमी, मुक्तहस्त व्यय, धनाभाव, नीतिज्ञ, मिठभाषी, सौम्य, अन्य की प्रगति सह्य नहीं, सफल.
मूलांक ७:
सहिष्णु, सहयोगी, भावुक, मौलिक, सुधार प्रेमी, स्वतंत्र विचार, अन्याय विरोधी, विस्तृत परिचय क्षेत्र, नम्र, दृढ़, प्रतिष्ठित, सामाजिक कार्योंमें रूचि, प्रतिभावान, साहसी, प्रसिद्ध.
मूलांक ८:
सहयोगी, अति प्रेमी, फूहड़पन-अश्लीलता असह्य, सत्यप्रेमी, सबल, सजग, परिस्थिति अनुसार ढलने में समर्थ, सदय, शांतिप्रेमी, परसेवी, सफल.
मूलांक ९:
दुस्साहसी, दृढ़, वीर, चुनौतीप्रेमी, ऊपर से कठोर अंदर से नरम, शीघ्र क्रोध, झुंझलाना,
भाग्यांक:
Some are born great , some achieve greatness and some have greatness thrust upon them. -Shakespeare
जन्मना महान कुछ, कुछ बने प्रयास से
कुछ पर थोप दी गयी, महानता- विधान है.
भाग्यांक का मूल आधार जन्म तिथि (जन्मदिनांक-माह-वर्ष) है. भाग्यांक हेतु जन्म की दिनांक, माह तथा वर्ष का योगफल कर एकल अंक ज्ञात कर लिया जाता है.
अंक ज्योतिष के अनुसार भाग्यांक सम्बन्धी संक्षिप्त जानकारी निम्न है:
भाग्यांक १:
भाग्यवान, सबल, आकर्षण, सम्मोहक, नेतृत्वक्षम, धनार्जन तथा व्यय में कुशल, सुमित्र, अतिव्यस्त, एकांत अप्रिय, सफल व्यापारी, कुशल प्रशासक. सहायक भाग्यांक ३,५, ७.
भाग्यांक २:
सुवक्ता, भावुक, हठी, तर्कप्रेमी, कम उत्तरदायी, निश्चिन्त, लापरवाह, रसिक, विनोदी, कार्य कुशल, व्यक्तिगत जीवन में स्वच्छंद सार्वजनिक जीवन में कर्तव्यपरायण, एकाधिक आय स्रोत, धन संचय में निपुण. सहायक भाग्यांक ४, ८.
भाग्यांक ३:
महत्वाकांक्षी, अधिक श्रम-संघर्ष - न्यून उपलब्धि, अशांत, कर्मशील, मंद प्रगति, संचय धीरे व्यय एकाएक, सामान्यत: स्वस्थ, उदर पीड़ा, तुनकमिजाज, धनप्रेमी, कर्तव्य प्रेमी. सहायक भाग्यांक १, ७, ९.
भाग्यांक ४:
शांत, सहिष्णु, सौम्य, धैर्यवान, गंभीर, शोधप्रिय, मौलिकता प्रेमी, व्यवस्थित, योजना प्रिय, पूर्वानुमान में सक्षम, भाग्यवान, एकांतप्रिय, मित्र कम, सादगी प्रिय. सहायक भाग्यांक २, ८.
भाग्यांक ५:
सजग, चैतन्य, परिवर्तनप्रिय, अस्थिर, क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा, विशालताप्रेमी, कार्यारंभ कर पूर्ण नहीं कर पते, सच्चे मित्र, प्रदर्शनप्रिय, अपव्ययी. सहायक भाग्यांक १, ३, ७.
भाग्यांक ६:
विचार प्रधान, बुद्धिमान, भावुक, व्यवहार कुशल, सफल साझेदार, अपव्ययी, अपनी बात थोपने के इच्छुक, मित्रों से सहयोग और धोखा. सहायक भाग्यांक ३, ९.
भाग्यांक ७:
साहसी, आशावान, सफल, हस्तक्षेप अस्वीकार्य, योजनाशील, दृढ़ इच्छाशक्ति, स्वस्थ्य, उदर व्याधि, मित्रप्रेमी, समृद्ध. सहायक भाग्यांक १, ३, ५.
भाग्यांक ८:
आराम प्रेमी, बात पचा नहीं पाते, मस्त, फ्क्क्ड़,दानी, आज में जीता हैं, कल की फ़िक्र नहीं, अपव्ययी, स्वस्थ्य, आकर्षक, लापरवाह. सहायक भाग्यांक २, ४, ६.
भाग्यांक ९:
साहसी, दृढ़ इच्छाशक्ति, तुनकमिजाज, तार्किक, संघर्षशील, मित्रता करने में कुशल, स्वस्थ्य, क्रोधी, रक्तचाप. सहायक भाग्यांक ३, ६.
नामांक:
A good name is rather to be chosen than great riches.
समृद्धि मत सुनाम चुनो, हो कुनाम कभी नहीं
उसका नाम सदा जपो, जो अनाम सब कहीं
आधुनिक अंक ज्योतिष पश्चिमई देशों में विकसित ही तथा भारत में संस्कृत का प्रचार न रहने से पुरातन ग्रन्थ प्रचलन में न होने के कारण नामाक्षर की गणना अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार की जाती है. पूर्ण नाम, घरेलू नाम, उपनाम, लघुनाम तथा प्रचलित नाम में से उसे गणना में लेना चाहिए जो सर्वाधिक कहा-सुना जाता हो. सेफेरियल ने अंग्रेजी वर्णमाला के क्रमानुसार विविध अक्षरों के अंक तथा लक्षण निम्नानुसार बताये हैं:
A : १ श्रेष्ठ, सद्गुणी, रचनात्मक विचार प्रधान, भावनाओं पर नियंत्रण, सौन्दर्यप्रेमी, सुधारप्रिय.
B : २ अंतर्मुखी, स्वलीन, शंकालु, चौकन्ने, आत्महीनता.
C : ३ मूडी, क्रियाशील, संकल्पी, दूरदर्शी, अग्रसोची.
D : ४ आत्मविश्वासी, स्वनियंत्रण, गतिशील, धैर्यवान, मितभाषी, कुशल प्रशासक-नेता, स्वभिमानी.
E : ५ बहिर्मुखी, मुखर, स्पष्टवक्ता, योजनशील, सक्रीय, नवीनता प्रिय.
F : ६ ग्रहप्रेमी, नैतिक, प्रेमी, सच्चा, मधुर, स्वकर्तव्यलीन.
G : ७ सच्चरित्र, सादगी पसंद, शिष्ट, आकर्षक, आत्मनियंत्रण, योजनाबद्ध, सफल.
H : ८ स्वहितकेंद्रित, अति चतुर, प्रदर्शनप्रिय, महत्वाकांक्षी, अल्पश्रमी, सफल.
I : ९ ज्ञानी, समर्पित, समझदार.
J : १ उन्मुक्त विचार, स्वतंत्रता प्रिय, उदार, विशालमना, स्पष्टवादी, मौलिक.
K : २ संघर्षशील, उत्थान-पतन, निराशावादी, सशङ्कित, धर्मभीरु.
L : ३ भावुक, सहिष्णु, दार्शनिक, सुलझे, श्रेष्ठ, योजनाशील, गंभीर, अपने में मस्त, श्रेष्ठताप्रेमी.
M : ४ बहिर्मुखी, सदाचारी, सुसंस्कृत, सदा, स्पष्टवक्ता, उत्थान-पतन बार-बार, प्रदर्शनप्रिय, रहस्यपूर्ण.
N : ५ संघर्ष-बाधा, दृढ़, प्रभावशाली, मित्र बनाने में कुशल, उत्तरदायी, सद्गृहस्थ, सहयोगी, श्रेष्ठ.
O : ६ आत्मकेंद्रित, साहसी, उतार-चढ़ावजयी, अनेक मित्र-शत्रु, धोखा मिलता है, उदार, स्वच्छताप्रेमी, महत्वकांक्षी.
P : ७ रहस्यपूर्ण, आत्मसंयमी, शांत, गूढ़.
Q : ८ सिद्धांतप्रेमी, व्यवस्थित, जिम्मेदार.
R : ९ श्रेष्ठ, मधुर, प्रभावी, व्यवहार कुशल, गुणग्राहक, परोपकारी, प्रतिष्ठित, सुखी.
S : १ बहिर्मुखी, हँसमुख, मित्र बनाने में कुशल, योग्यं समझदार, कलाप्रेमी, निष्ठावान, कमजोर निर्णयक्षमता.
T : २ संतोषी, न्यायी, विवेकशील, निर्णयक्षमता, आत्मविश्वासी, दृढ़, लोकप्रिय, आस्तिक, सुख बाँट दुःख अकेले झेलते हैं.
U : ३ नवीनताप्रेमी, सुलझे-परिपक्व विचार, स्पष्टवादी, वर्तमानजीवी.
V : ४ चर्चित, सम्मानप्रेमी, कद्रदान, श्रेष्ठ, तर्ककुशल.
W : ५ परिश्रमी, साहसी, स्फूर्तिवान, रोमांचप्रिय.
X : ६ लापरवाह, प्रदर्शनप्रिय, शेखी बघारना, असफल.
Y : ७ मस्तमौला, आत्मकेंद्रित.
Z : ८ तुनकमिजाज, हठी, क्रोधी, अविवेकी, वीर, कूटनीति में निपुण, हानिकर्ता.
भाषा और साहित्य सत्य का अध्ययन, अनुशीलन और प्रतिपादन अक्षर और अंक के माध्यम से करते हैं. अक्षर और अंक के अंतर्संबंध अध्ययन सत्य के लगभग अचर्चित पक्ष को जानने का प्रयास है. अंक का आशय 'चिन्ह' है. प्रकृति के स्वयंप्रभ विस्तार को किसी चन्ह के माध्यम से व्यक्त करना ही अंक है. शब्दकोष में अंक के विविध अर्थ अक्षर, लिखावट, निशान, भाल, डिठौना, दाग,धब्बा, ,शरीर, संख्या आदि हैं. पुरातन काल में अंक शब्द बहुअर्थी था. कालांतर में आधुनिक हिंदी के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ अर्थ संकुचन होकर यह गणित की संख्या तक सीमित रह गया है. इस रूढ़ अर्थ में भी अंक शब्द नियत निश्चित प्रक्रिया को संकेतित करता है. 'संख्या' शब्द 'ख्या' धातु में 'सम' उपसर्ग लगाने से बनता है जिसका अर्थ है- ' किसी मापक को अतिव्याप्ति तथा अव्याप्ति के दोषों से रहितकर नियत निश्चित संकेत से व्यक्त करना. अंकों की श्रृंखला सृष्टि के विकास क्रम, मानव की विकास यात्रा तथा अक्षर व् अंकों के साहचर्य से साहित्य सृजन की कथा है. ग्रह-नक्षत्र (खगोल विज्ञान) ही अंक विज्ञान का आधार हैं. ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधियाँ सृष्टि विकास-क्रम मन की विकास कथा और ज्ञान-प्राप्ति की जिजीविषा की साक्षी मात्र नहीं प्रेरक भी हैं.
शिशु की तरह हर साहित्यिक कृति भी आरम्भ से प्रगटीकरण तक किसी अंक से सम्बद्ध होती है. जन्मांक, मूलांक तथा नामांक कृति और कृतिकार के जीवन महत्वपूर्ण होते हैं. तत्संबध में समय-समेत पर मनीषियों ने अध्ययन भी 'शारदा तिलक' ग्रन्थ में प्रकृति के विकास क्रम का इश्लेषण अंकों के माध्यम से किया गया है. आदि शंकराचार्य रचित 'सौंदर्य लहरी' शताक्षरी महामंत्र अंकों पर अधिष्ठित हैं. 'सांख्य दर्शन' सृष्टि निर्माण में अंकों के महत्व जयघोष करता है. अष्टांग योग के अनुसार षट्चक्र भेदन परम तत्व की प्राप्ति का मार्ग है. दर्शन की अद्वैत, द्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि भाष्य परम्पराएँ संख्याओं और अंकों के विकास क्रम की मीमांसाएँ हैं.
पाश्चात्य दार्शनिक और गणितज्ञ पाइथोगॉरस विश्व निर्माण का आधार अंकों की शक्ति के आधार पर मानता था. नास्त्रेदेमस, कीरो तथा एबी गोचन ने अंकों का उपयोग भविष्य-कथन हेतु किया. कैग्लीओस्ट्रो सांकेतिक लिपि हेतु संख्याओं का प्रयोग किया. केल्पर ने अंकों को सृष्टि का मूल मानकर मानव-जीवन क प्रभावित करनेवाले ग्रहों से उनका तादात्म्य स्थापित किया. इकहार्ट, शाउजेन जैकब, बोहम, हेडेन, आदि अंक वैज्ञानिकों ने संख्याओं का प्रतीकात्मक प्रयोग कर शास्त्रीय गणनाओं और रहस्यवादी दर्शन में प्रयोग किया. सेफेरियल ने अंकों के इकाईमान आध्यात्मिक मान, ज्यामितीय वैज्ञानिकता आदि का सूक्ष्म विश्लेषण कर हर अंक की क्रियाशीलता तथा सकारात्मक-नकारात्मक प्रभाव का आकलन किया. पाश्चात्य सांख्यविदों ने अंकों को राशियों और नक्षत्रों से सम्बद्ध कर सूक्ष्म विवेचना की है. सेफेरियल ने अपनी कृति 'नंबर्स ऑफ़ कबेला' में अंग्रेजी वर्णमाला की ध्वनियों की आकृति, रंग, भाव सम्बन्धी ग्रहों, राशियों का वर्णन किया है.
अंक वर्ण ग्रह राशि रंग भाव
१, ४ C सूर्य सिंह नारंगी शक्ति, नाश
२, ७ F चंद्र कर्क हरा परिवर्तन, संवेदना
३ B गुरु धनु, मीन बैंगनी आशा, आकांक्षा, विस्तार
५ E बुध मिथुन, कन्या पीला बुद्धि, अनुभूति, मस्तिष्क
६ A शुक्र वृष, तुला नीला शांति, आध्यात्म, पवित्रता
८ D शनि मकर, कुंभ जामुनी दर्शन, चिंतन
९ G मंगल मेष, वृश्चिक लाल ऊर्जा, आवेग, उत्साह
प्रत्येक अक्षर ध्वनि विशेष होती है जिसका उच्चरण किये जाने पर वह विशिष्ट कंपन उत्पन्न करती है. इन कंपनों की संख्या निश्चित होती है. पृथ्वी के माध्यम से हम अपने अक्षरों तथा अंकों से सम्बन्ध रखनेवाले ग्रहों से प्रभावित होते हैं. यह प्रभाव प्रकाशीय कंपनों के माध्यम से होता है. योगिराज बर्फानी बाबा 'यंत्र विज्ञानं ८ इसमें अंक और अक्षरों की युगपत स्थिति रहती है. तांत्रिक क्रिया सम्पादित करने हेतु बनाये गए यंत्र दिये गए अंक संपादित की जानेवाली क्रिया तथा अक्षर संभाव्य शक्ति जिससे यह जाना जाता है कि क्रिया कैसे संपन्न की जाएगी. तंत्र सिद्ध अक्षरो की शब्द-शक्ति सहायता से तन-मन को शुभाशुभ दे सकती है. योगी विकास क्रमानुसार शब्दांकों को ५ मूल तत्वों में विभाजित करते हैं. पाणिनि-व्याकरणानुसार ये शब्द-शक्ति सम्पन्न ध्वनियाँ हैं. सतत उच्चरित शब्द से कंपन तथा कंपन से अक्षर उत्पन्न होते हैं. जैसे भ्रमर अपने गुंजार से तितली के डिम्ब की आकृति बना लेता है, वैसे ही शब्द भी अपने कंपन से आकृति बनाते है. शब्दाक्षरों से बने नाम का स्वयंरूप निश्चित आकृति में होता है. कर्पूरस्तव श्लोक ८ के अनुसार
यथा ध्यानस्य संसर्गत्कीटको भृमरायते
तथा समाध्यियेन ब्रम्हभूतो भवेन्नर:
बर्फानी बाबा द्वारा उल्लिखित यंत्र परिचय सारिणी :
अंक १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९
ग्रह सूर्य चन्द्र मंगल बुध गुरु शुक्र शनि राहु केतु
चिन्ह केंद्र तुलाका त्रिकोण वर्ग पंचभूत षट्भुज तुलाका अष्टभुज त्रिशूल
प्रभाव एकता नीति चपलता दृढ़ता अनिश्चय तारतम्य रहस्य उन्नति प्रभाव
अर्थ सरल दैविक स्वतंत्र नियम उत्साह ईमानदारी अध्ययन महानता पूर्णता
अक्षर स्वरूप सारिणी:
अक्षर अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं
स्वरूप वात मंद अग्नि वन्हि धरा क्षमा चर शुचि क्षौणि वनं रक्म
अक्षर क ख ग घ ड़ च छ ज झ त्र ट
स्वरूप प्राण तेज ज्या वा: घौ: वायु प्रभा कुं कम रम्भु: नाद
अक्षर ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ
स्वरूप दाव गौत्रा: पाथ: व्योम रय: शिली भूमि तोयम् शून्यं जवी द्युति
अक्षर ब भ म य र ल व श ष स ल
स्वरूप रसा रसं नम: व्याप्तं दाह स्थिरा अम्बू विपत स्पर्श: द्युति
अक्षर श ह त्र ऋ लृ ल
स्वरूप हत हंस: जल वारि विभु स्वर
जयशंकर प्रसाद और अंक:
माघ शुक्ल १०, संवत् १९४६ वि. में
काशी के सरायगोवर्धन में जन्मे
प्रसाद के पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने में और पिता बाबू देवीप्रसाद कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे. इनका काशी में बहुत सम्मान था. काशी की जनता काशीनरेश के बाद 'हर हर महादेव' से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी. किशोरावस्था के पूर्व ही माता और बड़े भाई का देहावसान हो जाने के कारण १७ (८) वर्ष की उम्र में ही प्रसाद जी पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा. कच्ची गृहस्थी, घर में सहारे के रूप में केवल विधवा भाभी, कुटुबिंयों, परिवार से संबद्ध अन्य लोगों का संपत्ति हड़पने का षड्यंत्र, इन सबका सामना उन्होंने धीरता और गंभीरता के साथ किया. प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी मे क्वींस कालेज
में हुई. बाद में घर पर इनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध किया गया, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तथा फारसी का अध्ययन इन्होंने किया. दीनबंधु ब्रह्मचारी
जैसे विद्वान् इनके संस्कृत के अध्यापक थे. इनके गुरुओं में 'रसमय सिद्ध
' की भी चर्चा की जाती है.
घर के वातावरण के कारण
साहित्य और
कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और कहा जाता है कि नौ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने 'कलाधर' के नाम से व्रजभाषा में एक
सवैया लिखकर 'रसमय सिद्ध' को दिखाया था
. उन्होंने
वेद,
इतिहास,
पुराण तथा साहित्य शास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था
. वे बाग-बगीचे तथा
भोजन बनाने के शौकीन थे और
शतरंज के खिलाड़ी थे
. वे नियमित व्यायाम करनेवाले, सात्विक खान-पान एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे. वे नागरी प्रचारिणी सभा
के उपाध्यक्ष थे.
सन् १९१२ (१ + ९ + १ + २ = १३ = १ + ३ = ४) ई. में 'इंदु' में उनकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई. प्रसाद
की सर्वप्रथम छायावादी रचना 'खोलो द्वार' १९१४ (१ + ९ + १ + ४ = १५ = +१ ५ = ६) ई. में इंदु में प्रकाशित हुई. कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक ओर निबंध, साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में उन्होंने ऐतिहासिक महत्व की रचनाएँ कीं तथा खड़ी बोली की श्रीसंपदा को महान् और मौलिक दान से समृद्ध किया. प्रसाद जी ने कुल ७२ (७ + २ = ९) कहानियाँ लिखी हैं. उनकी कुछ श्रेष्ठ कहानियों के नाम हैं: आकाशदीप, गुंडा, पुरस्कार, सालवती, स्वर्ग के खंडहर में आँधी, इंद्रजाल, छोटा जादूगर, बिसाती, मधुआ, विरामचिह्न, समुद्रसंतरण; अपनी कहानियों में जिन अमर चरित्रों की उन्होंने सृष्टि की है, उनमें से कुछ हैं चंपा, मधुलिका, लैला, इरावती, सालवती और मधुआ का शराबी, गुंडा का नन्हकूसिंह और घीसू जो अपने अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं. प्रसाद ने तीन उपन्यास लिखे हैं. 'कंकाल', में नागरिक सभ्यता का अंतर यथार्थ उद्घाटित किया गया है। 'तितली' में ग्रामीण जीवन के सुधार के संकेत हैं. प्रथम यथार्थवादी उन्यास हैं ; दूसरे में आदर्शोन्मुख यथार्थ है. इन उपन्यासों के द्वारा प्रसाद जी हिंदी में यथार्थवादी उपन्यास लेखन के क्षेत्र मे अपनी गरिमा स्थापित करते हैं. इरावती ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया इनका अधूरा उपन्यास है जो रोमांस के कारण ऐतिहासिक रोमांस के उपन्यासों में विशेष आदर का पात्र है. इन्होंने अपने उपन्यासों में ग्राम, नगर, प्रकृति और जीवन का मार्मिक चित्रण किया है जो भावुकता और कवित्व से पूर्ण होते हुए भी प्रौढ़ लोगों की शैल्पिक जिज्ञासा का समाधान करता है. प्रसाद ने आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक व दो भावात्मक, कुल १३ = (१ + = ४ ) नाटकों की सर्जना की. 'कामना' और 'एक घूँट' को छोड़कर ये नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं। इनमें महाभारत
से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गई है. वे हिंदी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार हैं. उनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना इतिहास की भित्ति पर संस्थित है. कालक्रम से प्रकाशित उनकी कृतियाँ ये हैं :उर्वशी (चंपू) ; सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य (निबंध); शोकोच्छवास (कविता); प्रेमराज्य (क) ; सज्जन (एकांक), कल्याणी परिणय (एकाकीं); छाया (कहानीसंग्रह); कानन कुसुम (काव्य); करुणालय (गीतिकाव्य); प्रेमपथिक (काव्य); प्रायश्चित (एकांकी); महाराणा का महत्व (काव्य); राजश्री (नाटक) चित्राधार (इसमे उनकी 20 वर्ष तक की ही रचनाएँ हैं)। झरना (काव्य); विशाख (नाटक); अजातशत्रु (नाटक); कामना (नाटक), आँसू (काव्य), जनमेजय का नागयज्ञ (नाटक); प्रतिध्वनि (कहानी संग्रह); स्कंदगुप्त (नाटक); एक घूँट (एकांकी); अकाशदीप (कहानी संग्रह); ध्रुवस्वामिनी (नाटक); तितली (उपन्यास); लहर (काव्य संग्रह); इंद्रजाल (कहानीसंग्रह); कामायनी (महाकाव्य); इरावती (अधूरा उपन्यास)। प्रसाद संगीत (नाटकों में आए हुए गीत).
अंक ३ :
छायावाद के प्रमुख स्तम्भ महाकवि जयशंकर प्रसाद नाटककार, कहानीकार, समीक्षक और व्यवसायी भी थे. उनके जीवन में किन अंकों की कितनी और कैसी भूमिका रही जानना रुचिकर होगा. प्रसाद की जन्म तिथि ३०-१-१८८९ है. तदनुसार मूलांक ३० = ३ + ० =३ तथा भाग्यांक ३ + ० + १ + १ + ८ + ८ + ९ = ३० = ३ + ० = ३ है. मूलांक तथा भाग्यांक के सामान होना असाधारण संयोग है. प्रसाद जी की असाधारण उपलब्धियों का एक कारण यह भी है. अंक ३ का संबंध ६, ९ तथा १ से है. सेफेरियल के मत में अंक ३ बौद्धिक क्षमता, धन, सफलता तथा विस्तार से संबंधित है. कीरो के अनुसार अंक ३ का स्वामी गुरु है तो जातक को गुरुत्व तथा शिखर स्थान प्रदान करता है.
मूलांक ३:
मूलांक ३ के व्यक्ति महत्वाकांक्षी, अनुशासित, नेतृत्व क्षमतायुक्त प्रखर, समर्पित तथा शिखर पर होते हैं. वे साहसी, शक्तिवान, दृढ़, संघर्षशील, व्यवस्थित, विचारशील, स्वार्थहीन, धन संचय न करनेवाले, काम पड़ने पर विरोधी से भी मेल काम निकलते ही अलगाव, महत्वाकांक्षी, रक्त संबंध से लाभ नहीं, स्वेच्छाचारी, बुद्धिमान, उदार हृदय होते हैं.९ प्रौढ़ावस्था में यश तथा सम्मानप्राप्ति होती है. ये लेखन, प्रकाशन, संपादन, अध्यापन, अनुसंधान, उद्योग-व्यापार आदि में सफल होते हैं. प्रसाद के जीवन में विचारों और भावनाओं का सुंदर समन्वय, सरस लेखन, सटीक संपादन, छायावादी आंदोलन का नेतृत्व और यश-कीर्ति सम्मान अंक ३ का लक्षण है. उन्हें अपने रक्त संबंधियों से कोई लाभ न मिलना, कठोर परिश्रम के बाद भी आर्थिक सम्पन्नता न होना भी अंक ३ का लक्षण है. १२ वर्ष की आयु में (१२ = १+ २ = ३ ) प्रसाद ने अपनी माँ के साथ ओंकारेश्वर, उज्जैन, जयपुर, पुष्कर, ब्रज, अयोध्या आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा की. इस समय देखे नैसर्गिक सुषमामय दृश्य इनके मानस पटल पर अंकित हुए तथा उनके साहित्य में अंकित हुए.१०
शुभ वर्ष: ३, १२, २१, ३०, ३३, ३६, ४८, ५७, ६६, ७५.
प्रसाद परिवार काशी में सुंघनी साहू के नाम से ख्यात था. भोलानाथ तिवारी ११ के अनुसार ९ वर्ष की अल्पायु में ही प्रसाद ने लघु कौमुदी तथा अमरकोश को समग्र कंठस्थ कर लिया था. डॉ. प्रेमशंकर के अनुसार प्रसाद ने अपनी प्रथम रचना 'कलाधर' ९ वर्ष की आयु में १८९८ में लिखी थी. रामरतन भटनागर १२ के अनुसार १९०१ (आयु १२ वर्ष = ३) में पिता, १९०४ (आयु १५ वर्ष = ६ ) में माता और १९०६ (आयु १६ वर्ष = ७ ) में भाई के निधन पश्चात गृह कलह, चाचा और बड़े भाई में मुकदमेबाजी, पैतृक सम्पत्ति का बँटवारा तथा व्यापार में घाटा हुआ. १८ (१+८=९ ) वर्ष की आयु में प्रसाद ने व्यवसाय सम्हाला और कठोर परिश्रम कर १९३१ (आयु ४२ वर्ष = ६) तक कर्ज चुकाया. प्रसाद के ३ विवाह हुए. प्रसाद की मृत्यु ४८ (४ + ८ = १२ = ३) वर्ष की आयु में हुई. उनकी महाप्रयाण तिथि १५ (६) है. यहाँ ३ तथा ३ के गुणकों का प्राधान्य सहज स्पष्ट है.
भाग्यांक ३:
भाग्यांक ३ वाले जातक महत्वाकांक्षी, परिश्रमी, अधिक संघर्ष - न्यून उपलब्धि, शांत, कर्मशील, मंद प्रगति, संचय धीरे व्यय एकाएक, सामान्यत: स्वस्थ, उदर पीड़ा, तुनकमिजाज, धनप्रेमी, कर्तव्य प्रेमी होते हैं. इनके सहायक भाग्यांक १, ७, ९ होते हैं. प्रसाद के जीवन में ये सभी लक्षण दृष्टव्य हैं. सुख - दुःख के प्रति समभाव जो अंक ३ का लक्षण है, प्रसाद के काव्य में सहज दृष्टव्य है:
१. जीवन की वेदी पर
परिणय हो विरह-मिलन का
सुख-दुःख दोनों नाचें
है खेल आँख का, मन का
२. दुःख की पिछली रजनी बीच
विकसता सुख का नवल प्रभात
३. एक परदा यह झीना नील
छिपाये है जिसमें सुख गान
जिसे तुम समझे हो अभिशाप
जगत की ज्वालाओं का मूल
ईश का वह रहस्य वरदान
कभी मत जाओ इसको भूल
विषमता की पीड़ा से व्यस्त
हो रहा स्पंदित विश्व महान
यही सुख-दुःख विकास का साथ
यही भूमा का मधुमय दान
उमड़ता कारण जलधि समान
व्यथा से नीली लहरों बीच
बिखरते सुखमय क्षण द्युतिमान।
भाग्यांक ३ का जातक आर्थिक क्षेत्र में मंद किन्तु ठोस प्रगति करता है. इनके द्वारा िाक्टर धन एक झटके में समाप्त भी हो जाता है. प्रसाद के जीवन में इसे घटित होता देखा गया है.
भाग्यांक ३ वाले व्यक्तियों की निरीक्षण - विश्लेषण क्षमता असाधारण होती है. ये संघर्षों पर जाई होकर अपना पथ आप ही प्रशस्त करते हैं. प्रसाद के जीवन में यह घटित हुआ. संकट से न घबराना, सामाजिक दायित्वों तथा कर्तव्यों का भली-भांति निर्वहन, सतत सक्रियता आदि लक्षण भी प्रसाद के जीवन में द्रष्टव्य हैं. मौलिकता, योजनाबद्धता, व्यवस्था, सादा आचार-आहार, उच्च विचार, लेखन-संपादन-अध्यापन, चित्त, एकांतप्रियता आदि लक्षण भी प्रसाद के सम्बन्ध में देखे जा सकते हैं. डॉ. प्रेमशंकर के अनुसार: 'प्रसाद जी साधक का सा थ. किसी प्रकार की सभा आदि में जाना उन्हें प्रिय न था. वास्तव में वे संकोचशील व्यक्ति थे, प्रायः घर अथवा दुकान पर ही बैठकर अपने मित्रों के साथ बातचीत किया करते थे.१३
बुआजी (महीयसी महादेवी जी ) भी प्रसाद के चर्चा करते हुए उन्हें एकांत प्रिय, संकोची तथा विनम्र बताती थीं. उनके अनुसार प्रसाद जी प्रायः अपने आप में सीमित रहते थे तथा अपनों के बीच में ही मुखर होते थे. प्रसाद जी अपनी रचनाओं को उन्हें ही सुनते थे जिन्हें वे सुपात्र समझते थे, उनकी प्रतिक्रिया भी लेते तथा परामर्श पर विचार करते किन्तु संशोधन या परिवर्तन केवल तभी करते जब वे स्वयं सहमत हो जाते. प्रसाद की यह मनोवृत्ति लहर में अभिव्यक्त हुई है:
छोटे से जीवन की कैसी बड़ी कथाएँ आज कहूँ?
क्या नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा
अभी समय भी नहीं थकी-सोई है मेरी मौन व्यथा
नामांक:
प्रसाद के जन्म तथा नामकरण के संबंध में डॉ. प्रेमशंकर१४ का मत है कि प्रसाद माता-पिता ने पुत्र हेतु झारखण्ड के वैद्यनाथधाम से लेकर उज्जयिनी के महाकाल तक प्रार्थना की थी. प्रसाद को शैशव में इसी कारण 'झारखंडी' (अंकमान ४) कहा जाता था. प्रसाद की आरम्भिक कवितायें 'कलाधर' (अंकमान ४) नाम से हैं. जयशंकर प्रसाद का अंकमान ८ है.१४ पाश्चात्य वर्णमालानुसार अंकमान १ है जो सभी अंकों का मूल है. प्रसाद की जन्म तिथि ३०-१-१८८९ तथा
प्रयाण तिथि १५-११-१९३७ है. जन्म माह १ तथा जन्म वर्ष १८८९ (८) है जबकि निधन तिथि
(६ + २ + २० = २८ = १० = १) , निधन माह ११ (२) तथा निधन वर्ष १९३७ (२) है.
J : १ उन्मुक्त विचार, स्वतंत्रता प्रिय, उदार, विशालमना, स्पष्टवादी, मौलिक.
S : १ बहिर्मुखी, हँसमुख, मित्र बनाने में कुशल, योग्यं समझदार, कलाप्रेमी, निष्ठावान, कमजोर निर्णयक्षमता.
P : ७ रहस्यपूर्ण, आत्मसंयमी, शांत, गूढ़.
Jharkhandi = १ + ८ + १ + ९ + २ + ८ + १ + ५ + ४ + ९ = ४८ = १२ = ३
Kaladhar = २ + १ + ३ + १ + ४ + ८ + १+ ९ = २९ = ११ = २
Jayshankar = १ + १ + ७ + १ + ८ + १ + ५ + २ + १ + ९ = ३६ = ९
Jaishankar = १ + १ + ९ + १ + ८ + १ + ५ + २ + १ + ९ = ३८ = ११ = २
Prasaad = = ७ + ९ + १ + १ + १ + १ + ४ = २४ = ६
Jayshankar Prasaad = ९ + ६ = १५ = ६
Jai shankar Prasaad = २ + ६ = ८
अंग्रेजी अंक गणनानुसार शब्द के हिज्जे (स्पेलिंग) बदलने पर अंक बदलना स्वाभाविक है.
प्रसाद जी की कृतियों को उनका आत्मज या मानसपुत्र मानते हुए गणना देखें:
कृति का नाम नामांक प्रकाशन वर्षांक संयुकतांक
काव्य:
उर्वशी ८
Urvashi ८ १९०९ = १ ९
वन मिलन ३
Vana milan ८ १९०९ = १ ९
प्रेम राज्य १
Prem rajya ८ १९०९ = १ ९
अयोध्या का उद्धार ७
Ayodhya ka uddhar ३ १९१० = २ ५
शोकोच्छ्वास १
shokochchhwas २ १९१० = २ ४
वभ्रुवाहन ९
Vabhbhuvahan १ १९११ = ३ ४
कानन कुसुम ३
Kanan kusum ९ १९१३ = ५ ५
प्रेम पथिक ७
Prem pathik ९ १९१३ = ५ ५
करुणालय ४
Karunaalaya ८ १९१३ = ५ ४
महाराणा का महत्त्व ४
maharana ka mahatva १ १९१४ = ५ ६
झरना ८
Jharana ८ १९१८ = १ ९
आँसू ३
Aansu २ १९२५ = ८ १
लहर १
Lahar ५ १९३३ = ७ ३
कामायनी ६
Kamayany २ १९३५ = ९ २
नाटक:
स्कंदगुप्त
Skandgupta ६
चन्द्रगुप्त
Chandragupta ६
Irawatee ९
उक्त अंकों के विश्लेषण से कृतियों के प्रकाशन वर्ष में तथा अंक ४ की अनुपस्थिति दृष्टव्य है. नंबर्स ऑफ़ कबेला के अनुसार अंक ४ का भाव शक्ति-नाश है. १ से ९ का विकास क्रम कवि की काव्य यात्रा की पूर्णता इंगित करता है. अन्य विधाओं की कृतियों के प्रकाशन वर्ष ज्ञात हों तो उन्हें भी विश्लेषित किया जा सकता है.
प्रसाद जी के नामांक ६ की सर्वाधिक आवृत्ति कृतियों के नामांक में है. यह विलक्षणता बताती है कि कवि
संदर्भ:
० १. विज्ञान: प्रसाद और निराला का काव्य -डॉ. अर्चना मिश्रा, सरोज प्रकाशन सागर, २००५
०२. संक्षिप्त हिंदी शब्द सागर -सं. रामचन्द्र वर्मा, नागरी प्रचारिणी काशी, अष्टम संस्करण, पृष्ठ १६
०३. शब्दार्थ तत्व - शोभाकांत मिश्र, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी पटना १९८६, पृष्ठ ३
०४. प्रकाशन श्री पीताम्बरा पीठ परिषद दतिया, १९९८
०५. स्वरोदय के चार रत्न - रणधीर प्रकाशन हरिद्वार, २००१
०६. अंक दीपिका -डॉ. नारायणदत्त श्रीमाली, अनुपम पॉकेट बुक्स दिल्ली, १९७१
०७. अंक चमत्कार -कीरो, हिंदी रूपांतर डॉ. गौरीशंकर कपूर, रंजन पब्लिकेशन दिल्ली, १९८३
०८. कादंबिनी नवंबर १९९१, यंत्रों में छिपी है दिव्य शक्ति, योगिराज बर्फानी बाबा, १८० -१८१
०९. अंक ज्योतिर्विज्ञान -पं. राजेश दीक्षित, देहाती पुस्त भंडार दिल्ली
१०. प्रसाद की कविताएँ, सुधाकर पाण्डेय, हिंदी प्रचारक संस्थान वाराणसी, १९७४, पृष्ठ ४५
११. डॉ. भलिानाथ तिवारी, कवि प्रसाद, पृष्ठ १२
१२. प्रसाद साहित्य समीक्षा, -रामरतन भटनागर , १९५८, साहित्य प्रकाशन तेलीवाड़ा, दिल्ली
१३. प्रसाद का काव्य, डॉ. प्रेमशंकर, भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहबाद, १९७०पृष्ठ १५
१४. उक्त १३, पृष्ठ २०
१५. उक्त १ पृष्ठ ३४
१६.
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