कुल पेज दृश्य

शनिवार, 30 जून 2018

doha salila

दोहा सलिला
*
नहीं कार्य का अंत है, नहीं कार्य में तंत। माया है सारा जगत, कहते ज्ञानी संत।।
*
आता-जाता कब समय, आते-जाते लोग। जो चाहें वह कार्य कर, नहीं मनाएँ सोग।।
*
अपनी-पानी चाह है, अपनी-पानी राह। करें वही जो मन रुचे, पाएँ उसकी थाह।।
*
एक वही है चौधरी, जग जिसकी चौपाल। विनय उसी से सब करें, सुन कर करे निहाल।।
*
जीव न जग में उलझकर, देखे उसकी ओर। हो संजीव न चाहता, हटे कृपा की कोर।।
*
मंजुल मूरत श्याम की, कण-कण में अभिराम। देख सके तो देख ले, करले विनत प्रणाम।।
*
कृष्णा से कब रह सके, कृष्ण कभी भी दूर।
उनके कर में बाँसुरी, इनका मन संतूर।।
*
अपनी करनी कर सदा, कथनी कर ले मौन। किस पल उससे भेंट हो, कह पाया कब-कौन??
*
करता वह, कर्ता वही, मानव मात्र निमित्त। निर्णायक खुद को समझ, भरमाता है चित्त।।
***
३०.६.२०१८, ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४

pad: doha chhand

पद
छंद: दोहा.
*
मन मंदिर में बैठे श्याम।।
नटखट-चंचल सुकोमल, भावन छवि अभिराम।
देख लाज से गड़ रहे, नभ सज्जित घनश्याम।।
मेघ मृदंग बजा रहे, पवन जप रहा नाम।
मंजु राधिका मुग्ध मन, छेड़ रहीं अविराम।।
छीन बंसरी अधर धर, कहें न करती काम।
कहें श्याम दो फूँक तब, जब मन हो निष्काम।।
चाह न तजना है मुझे, रहें विधाता वाम।
ये लो अपनी बंसरी, दे दो अपना नाम।।
तुम हो जाओ राधिका, मुझे बना दो श्याम।
श्याम थाम कर हँस रहे, मैं गुलाम बेदाम।।
*
२९.६.२०१२, ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४

शुक्रवार, 29 जून 2018

sadgodasani

सड़गोड़ासनी:
बुंदेली छंद, विधान: मुखड़ा १५-१६, ४ मात्रा पश्चात् गुरु लघु अनिवार्य,
अंतरा १६-१२, मुखड़ा-अन्तरा सम तुकांत .
*
जन्म हुआ किस पल? यह सोच
मरण हुआ कब जानो?
*
जब-जब सत्य प्रतीति हुई तब
कह-कह नित्य बखानो.
*
जब-जब सच ओझल हो प्यारे!
निज करनी अनुमानो.
*
चलो सत्य की डगर पकड़ तो
मीत न अरि कुछ मानो.
*
देख तिमिर मत मूँदो नयना
अंतर-दीप जलानो.
*
तन-मन-देश न मलिन रहे मिल
स्वच्छ करेंगे ठानो.
*
ज्यों की त्यों चादर तब जब
जग सपना विहँस भुलानो.
***
२९.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

गुरुवार, 28 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी २३. रेल अभियांत्रिकी का अंग : छंद

२३. रेल अभियांत्रिकी का अंग : छंद
बसंत कुमार शर्मा
संपर्क: ३५४ रेल्वे डुप्लेक्स बंगला, फेथ वेली स्कूल के सामने, पचपेढ़ी, साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर (म.प्र.) ४८२००१, चलभाष: ९७५२४ १५९०७।
*
  शिशु के जन्म के समय रोने की आवाज, माँ की मीठी लोरी से लेकर राम नाम सत्य की आवाज तक अगर हम किसी शब्द या शब्दों के समूह की ध्वनि को ध्यान से सुनें तो पायेंगे कि उसमें लय है, जो छंद का एक आवश्यक गुण है। छोटी-छोटी ध्वनियाँ जो आसपास हमें सुनाई देतीं हैं, उनमें भी एक लय होती है, गति-यति होती है। इन लयबद्ध ध्वनियों को सुनकर मन को सुकून मिलता है, आनंद होता है, मानव ही नहीं, अपितु पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों तक की कार्यदक्षता में अभूतपूर्व वृद्धि होती है। कोयल की पिहू-पिहू, पपीहे के पीहू, मोर की कूक सुनकर तो मन मन्त्र-मुग्ध हो जाता है। काव्य में इन ध्वनियों का प्रयोग आदिकाल से होता रहा है।छंद में कही गई बातें मन में सीधे बैठ जाती हैं, मन को झकझोर देती हैं। काव्य में छंद का अति महत्वपूर्ण स्थान है। कबीर के दोहे, तुलसी के दोहे और चौपाइयाँ, रसखान के सवैये जनमानस के पटल पर आज तक अंकित हैं।  
शिशु
अब बात करते हैं रेल की और उसमें छंदों के प्रयोग की, रेल जब चलती है तो उसकी छुक-छुक की आवाज जिसकी गति धीरे-धीरे बढ़ती है, एक छंद में ढलकर, लयबद्ध होकर ही निकलती है। रेल की पटरी को जब रख-रखाव के लिए ट्रैकमैन एक साथ उठाने के लिए आवाज लगाते हैं, उसमें भी एक लय होती है, जो लोहे की भारी पटरी को भी उठाने में उनको सक्षम बना देती है। उनकी यह एकजुटता देखते ही बनती है, यह छंद की शक्ति का ही कमाल है। यह भी देखा है कि 'हैया हो' या ऐसी ही अन्य निरर्थक ध्वनि एक साथ उच्चारते श्रमिक अपनी सामर्थ्य से भारी कार्य कर गुजरते हैं किंतु किसी कारण से उनकी लय भंग हो जाए तो अपेक्षाकृत हल्का काम भी नहीं कर पाते।
रेलवे में छंदों के माध्यम से भी विभिन्न सार्थक संदेश, जनता और रेल कर्मियों के बीच पहुँचाए जाते हैं। ये नारे, उक्तियाँ आदि भी छंद में ही होते हैं और सबकी जुबान पर चढ़े होते हैं। कर्मचारियों और श्रमिकों को इनसे कार्य संपादन की प्रेरणा मिलाती है। समय-समय पर रेल मजदूरों के आंदोलनॉन में नारों का प्रयोग किया जाता है। इनका व्यापक प्रभाव होता जो कार्यकर्ताओं में जोश भरने का कार्य करता है। यही छंद की शक्ति है। (इन नारों की दो सम तुकांती पंक्तियाँ हों तो उन्हें छंद स्वीकारने में किसी को कठिनाई न होगी किंतु द्विपदिक छंद की अर्धाली मान कर नारे को छंद कहना अजीब लगने के बाद भी सत्य है- सं.)
भारतीय रेल में प्रयुक्त किये जाने वाले नारे और उनमें प्रयोग किये गए छंदों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं: 'राष्ट्र की जीवन रेखा' -१३ मात्रिक छंद, 'स्वच्छ रेल स्वच्छ भारत' -१३ मात्रिक छंद, सावधानी हटी, दुर्घटना घटी - -१९ मात्रिक छंद; १०-९ पर यति, 'दुर्घटना से देर भली' -१४ मात्रिक हाकलि छंद, संरक्षा का वरण करो / दुर्घटना का हरण करो -१४ मात्रिक सखी छंद।
भारतीय चलचित्र जीवन के हर क्षेत्र का प्रतिबिंब होते हैं। अनेक चलचित्रों में श्रमिकों की महत्ता,श्रम की अवहेलना, श्रमिक-जीवन की विसंगतियाँ चित्रित की गई हैं। दो उदाहरण देखें: १. फ़ौलादी हैं सीने अपने फ़ौलादी हैं बाहें  हम चाहें तो पैदा कर दें चट्टानों में राहें -२८ मात्रिक छंद; यति १६-१२ यौगिक जातीय सार छंद, २. गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है / चलना ही जिंदगी है, चलती ही जा रही है - १२ मात्रिक आदित्य छंद + १३ मात्रिक भागवत जातीय छंद का मिश्रण।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने भारतीय रेल को लेकर मुक्तक रचे हैं जो छंदों पर आधारित हैं:
प्रभु तो प्रभु है, ऊपर हो या नीचे हो। / नहीं रेल के प्रभु सा आँखें मीचे हो।। / निचली श्रेणी की करता कुछ फ़िक्र न हो- / ऊँची श्रेणी के  हित लिए गलीचे हो।।(२२ मात्रिक महारौद्र जातीय कुंडल छंद, १२-१० पर यति)
ट्रेन पटरी से उतरती जा रही। / यात्रियों को अंत तक पहुँचा रही।। / टिकिट थोड़ी यात्रा का था लिया- / पार भव  से मुफ्त में करवा रही।। (महापौराणिक जातीय, सुमेरु छंद)
शुक्र करिए रेलवे का रात-दिन। / काम चलता ही नहीं है ट्रेन बिन।। / करें पल-पल याद प्रभु को आप फिर- / समय काटें यार चलती श्वास गिन।। (महापौराणिकजातीय छंद )
जो चाहे भगवान् वही तो होता है। / दोष रेल मंत्री को क्यों जग देता है।। / चित्रगुप्त प्रभु दुर्घटना में मार रहे- / नाव आप तू कर्म नदी में खेता है।। (२२ मात्रिक महारौद्र जातीय कुंडल छंद, १२-१० पर यति)
१५ मात्रिक तैथिक जातीय पुनीत छंद में रचा गया मेरा बाल गीत देखें: नगर गाँव जब आती रेल / सबका मन हर्षाती रेल / मिल जाता है सबका साथ / आगे  बढ़ती जाती  रेल / ऊँचे पर्वत, नदियाँ, खेत / सबकी सैर कराती रेल / धीमी कभी; कभी हो तेज / मंजिल पर पहुँचाती रेल / हो जाओ पटरी से दूर / सीटी खूब बजाती रेल / करती नहीं किसी में भेद / सबको पास बिठाती रेल / रहे स्वच्छ रखना यह ध्यान / गन्दी तनिक न भाती रेल।
निस्संदेह सरसरी तौर पर भारतीय रेल और छंद में कोई संबंध भेले ही प्रतीत न हो, गहराई से विचारें तो पाएँगे कि रेल की पटरी बिछाने हेतु गिट्टी डालना हो, पटरी बिछाना हो, रेल आरम्भ होने की सीटी या घंटी बजाना हो, इंजिन का चका घुमाना हो या अन्य कोई कार्य ध्वनि-खण्डों की आवृत्तियाँ, गति और यति हर जगह सहज ही देखी जा सकती है और यह कहा जा सकता है कि रेल-यांत्रिकी और छंद का अन्योन्याश्रित संबंध है।

--------

साहित्य त्रिवेणी २४. मगही लोकगीत: कुमार गौरव

२४. मगही लोक गीतों में छंद-छटा
कुमार गौरव अजितेंदु
*
परिचय: नवोदित कवि, प्रकाशित: मुक्त उड़ान हाइकु संग्रह, संपर्क: द्वारा: श्री नवेंदु भूषण कुमार, शाहपुर, ठाकुरबाड़ी मोड़ के पास, पोस्ट दाउदपुर, दानापुर कैंट, पटना ८०१५०२ बिहार, चलभाष ९६३१६५५१२९।
छंद अर्थात अनुशासन और अनुशासन के बिना समस्त ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं है। यह सकल सृष्टि जगत ही छांदसिक है। कोई लाख छंदमुक्त होना चाहे, हो ही नहीं सकता। कब, कैसे और कहाँ छंद उसे अपने अंदर ले लेंगे या उसके अन्दर समाहित हो जाएँगे, उसे खुद ही पता नहीं चलेगा। छंदबद्ध रचनाओं का इतिहास हमारी गौरवशाली परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग है। धार्मिक से लेकर लौकिक साहित्य तक, छंदों ने अपनी गरिमामय उपस्थिति दर्ज कराई है। लोकगीत, स्थानीय भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति करते हैं। उनके रचयिता उनको किसी दायरे में बँधकर नहीं लिखते परंतु छंदों की सर्वव्यापकता के कारण ऐसा हो नहीं पाता। बिहार की प्राचीन लोक भाषाओँ में मगही का महत्वपूर्ण स्थान है। देश की अन्य लोकभाषाओँ की तरह मगही में भी लोकगीतों की एक समृद्ध परंपरा है। इन गीतों को यदि हम छंदों की कसौटी पर परखें तो विविध छंदों के सुंदर दृश्य सामने आते हैं:
कत दिन मधुपुर जायब, कत दिन आयब हे। / ए राजा, कत दिन मधुपुर छायब, मोहिं के बिसरायब हे॥
छव महीना मधुपुर जायब, बरिस दिन आयब हे। / धनियाँ, बारह बरिस मधुपुर छायब, तोहं नहिं बिसरायब हे॥
बारहे बरिस पर राजा लउटे दुअरा बीचे गनि ढारे हे। / ए ललना, चेरिया बोलाइ भेद पूछे, धनि मोर कवन रँग हे॥
तोर धनि हँथवा के फरहर,, मुँहवा के लायक हे। / ए राजा, पढ़ल पंडित केर धियवा, तीनों कुल रखलन हे॥
उहवाँ से गनिया उठवलन, अँगना बीचे गनि ढारे हे। / ए ललना, अम्माँ बोलाइ भेद पुछलन, कवन रँग धनि मोरा हे॥
तोर धनि हँथवा के फरहर, मुँहवा के लायक हे।
इसकी पंक्तियों में "सुखदा छंद" जो कि १२-१० मात्राओं पर यति, अंत गुरु की झलक स्पष्ट है। इसी प्रकार
देखि-देखि मुँह पियरायल, चेरिया बिलखि पूछे हे। / रानी, कहहु तूँ रोगवा के कारन, काहे मुँह झामर हे॥
का कहुँ गे चेरिया, का कहुँ, कहलो न जा हकइ हे। / चेरिया, लाज गरान के बतिया, तूँ चतुर सुजान हहीं गे॥
लहसि के चललइ त चेरिया, त चली भेलइ झमिझमि हे। / चेरिया, जाइ पहुँचल दरबार, जहाँ रे नौबत बाजहइ हे॥
सुनि के खबरिया सोहामन अउरो मनभावन हे।/ नंद जी उठलन सभा सयँ भुइयाँ न पग परे हे॥
जाहाँ ताहाँ भेजलन धामन, सभ के बोलावन हे। / केहु लयलन पंडित बोलाय, केहु रे लयलन डगरिन हे॥
पंडित बइठलन पीढ़ा चढ़ि, मन में विचारऽ करथ हे। / राजा, जलम लेतन नंदलाल जगतर के पालन हे॥
जसोदाजी बिकल सउरिया, पलक धीर धारहु हे। जलम लीहल तिरभुवन नाथ, महल उठे सोहर हे॥
यह गीत विद्या छंद के १४-१४ मात्राओं का अनुपालन करता है। एक तिलक गीत देखिए:
सभवा बइठले रउरा बाबू हो कवन बाबू। / कहवाँ से अइले पंडितवा, चउका सभ घेरि ले ले॥
दमड़ी दोकड़ा के पान-कसइली। / बाबू लछ रुपइया के दुलहा, बराम्हन भँडुआ ठगि ले ले॥
बाबू, लछ रुपइया के दुलहा, ससुर भँडुआ ठगि ले ले॥
इसकी लय कुकुभ छंद (३० मात्रिक, यति १६-१४) के बेहद निकट है। अंत में दो गुरु भी प्रतिष्ठित हैं।
मगही लोक गीत जीवन के हर क्षेत्र (सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि) के क्रिया-कलापों से जुड़े हैं। विस्मय यह है कि अधिकाँश लोकगीत अल्प शिक्षित या अशिक्षित लोक कवियों द्वारा रचे जाने के बाद भी उनमें छंदों के मूल विधान का पालन किया गया है। मात्रा या वर्ण गणना के स्थान पर ध्वनिखंड के आधार पर परिक्षण किया जाए तो ये लोकगीत छांदस परंपरा में रचे गए हैं। स्थानीय उच्चारण भेद के कारण वर्ण या मात्रा गणना में यत्किंचित भिन्नता सहज स्वीकार्य होनी चाहिए।
==============


रुनुक झुनुक बिछिया[1] बाजल, पिया पलँग पर हे।
ललना, पहरि कुसुम रँग चीर, पाँचो रँग अभरन[2] हे॥1॥
जुगवा खेलइते तोंहे देवरा त, सुनहऽ बचन मोरा हे।
देवरा, भइयाजी के जलदी बोलावऽ, हम दरदे बेयाकुल हे॥2॥
जुगवा खेलइते तोंहे भइया त, सुनहऽ बचन मोरा हे।
भइया, तोर धनि दरद बेयाकुल, तोरा के बोलावथु[3] हे॥3॥
डाँर[4] मोर फाटहे करइली जाके, ओटिया चिल्हकि मारे हे।
पसवा त गिरलइ बेल तर, अउरो बबूर तर हे।
ललना, धाइ के पइसल गजओबर, कहु धनि कूसल हे॥4॥
हथिया खोलले हथिसरवा, त घोड़े घोड़सार खोलल हे।
राजा, का कहूँ दिलवा के बात, धरती मोर अन्हार लागे हे॥5॥
घोड़ा पीठे होबऽ असवार त डगरिन[5] बोलवहु हे॥6॥
कउन साही[7] के हहु तोही बेटवा, कतेक[8] राते आयल हे॥8॥
राजा, घोड़े पीठ भेलन असवार, त डगरिन बोलावन हे॥7॥
के मोरा खोले हे केवड़िया त टाटी फुरकावय[6] हे।
हम तोरा खोलऽ ही केवड़िया त टाटी फुरकावहि हे।
किया तोरा हथु गिरिथाइन[13] कते राते आयल हे॥10॥
डगरिन, दुलरइता[9] साही के हम हीअइ बेटवा, एते राते आयल हे॥9॥
किया तोरा माय से मउसी[10] सगर[11] पितियाइन[12] हे।
न मोरा माय से मउसी, न सगर पितिआइन हे।
डगरिन, हथिन मोर घर गिरिथाइन एते राते आयल हे॥11॥
डगरिन, जब मोरा होयतो त बेटवा, त कान दुनु सोना देबो हे।
हथिया पर हम नहीं जायब, घोड़े गिरि जायब हे।
लेइ आबऽ रानी सुखपालक,[14] ओहि रे चढ़ि जायब हे॥12॥
जवे तोरा होयतो त बेटवा, किए देबऽ दान दछिना हे।
जबे तोरा होयतो लछमिनियाँ, त कहि के सुनावह हे॥13॥
काहेला डगरिन रोस करे, काहेला बिरोध करे हे।
डगरिन, जब होयत मोरा लछमिनियाँ, पटोर[15] पहिरायब हे॥14॥
सोने के सुखपालकी चढ़ल डगरिन आयल हे।
डगरिन बोलले गरभ सयँ, सुनु राजा दसरथ ए॥15॥
राजा, तोर धनि हथवा के साँकर,[16] मुहँवा के फूहर हे।
नहीं जानथू[17] दुनियाँ के रीत, दान कइसे हम लेबो हे॥16॥
जुग-जुग जियो तोर होरिलवा, लबटि अँगना आयब हे॥18॥
डगरिन हम देबो अजोधेया के राज, लहसि[18] घर जयबऽ हे॥17
इयरी पियरी पेन्हले डगरिन, लहसि घर लउटल हे।

साहित्य त्रिवेणी २५. विवाह गीतों में छंद सविता वर्मा


२५. विवाह गीतों में छंद वैविध्य

पुष्पा सक्सेना-सविता वर्मा 'गजल' 
*
संपर्क: पुष्पा
सक्सेना, द्वारा डॉ, ओ. पी, सक्सेना, साकेत नगर ग्वालियर।
सविता वर्मा "ग़ज़ल" संपर्क: 230,कृष्णापुरी मुजफ़्फ़र नगर २५१००१ उ. प्र. चलभाष: ०८७५५३१५५५।
*
हमारी सभ्यता और संस्कृति प्रथाओं-लोक नृत्यों, परंपराओं और  परंपरागत विश्वासों और लोक गीतों में रची-बसी  है। मानव समुदाय के सांस्कृतिक इतिहास का ज्ञान उसकी प्रथाओं, लोक-विधाओं और गीतों से सहज ही लगाया जा सकता है। जन-समुदायों में जी रही अमूर्त संस्कृति महान संपदा है, जिसकी झलक उनके त्यौहारों और उत्सवों सबंधी गीतों में है। पौराणिक और परंपरागत कथाओं से गुँथे हुए भारतीय लोकगीत पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलते हैं। ये लोकगीत सुख-दु:ख, ऐतिहासिक घटनाओं व पौराणिक कथाओं का प्रतिनिधित्व करते है। उत्तर-प्रदेश मॆं  लोकगीत प्रत्येक मौसम मॆं आने वाले तीज-त्योहारों जैसे  सावन , होली, दीवाली, दशहरा और रक्षाबंधन आदि पर गाए जाते हैं। ग्रामीण अँँचल मॆं नृत्य भी लोकगीतों पर ही किया जाता है। कम पढ़ा-लिखा या अनपढ़  व्यक्ति भी इनकी सादगी, भोलेपन और माधुर्य को समझ सकता है। इन लोकगीतों के माध्यम से भावी पीढ़ी अपनी लोक संस्कृति से भली-भाँति परिचित हो कर एकता भाव से जुडी रह सकती है। लोकगीतों में सामान्यत: अनपढ़ अथवा अल्प शिक्षित लोक मानस अपनी भावाभिव्यक्ति कर मन की बात कह पाता है। ये लोकगीत मन की कुंठाओं और आक्रोश की अभिव्यक्ति हास्य-व्यंग्य की आड़ में अभिव्यक्त कर पाते हैं। युवा-मन लोकगीत और उनके छंदों को पढ़-समझकर खुद को अभिव्यक्त कर सकें अपराध की और जाने से बच सकते हैं। उत्तर प्रदेश में मुख्य मांगलिक अवसरों पर गाये जानेवाले कुछ  लोकगीत यहाँ प्रस्तुत हैं जिनके कथ्य तथा छंद गीतकार तथा गायक के मन की बानगी हैं। 

निम्न बन्ना गीत में तीन छंदों का मिश्रण है। मुखड़े में १५-१४, २९ मात्रिक महायौगिक जातीय  धारा छंद  का प्रयोग है जबकि अंतरे की पंक्तियों में क्रमश: १८ व १६ मात्रिक पौराणिक तथा संस्कारी जातीय छंद का प्रयोग किया गया है। 
"बन्ना है चाँद पूनो का / निकल आया, निकल आया॥  १५- १४ मात्रा 
बन्ना अपने बाबा का प्यारा, / दादी की आँखों का तारा  १८-१६=३४ मात्रा 
जगत का है  ये उजियारा, / निकल आया, निकल आया॥ १५-१४ मात्रा 
ऐसे लोकगीतों मॆं दादा,दादी के बाद फूफा-फूफी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसा-मौसी, भैया-भाभी आदि रिश्तों को लेकर गया जाता है। 
एक और बन्ना गीत का आनंद लें जिसमें १८ मात्रिक पौराणिक जातीय छंद निहित है: 
"बन्ने काला कोट सिलाना रे, नाइलोन के बटन लगाना रे! १८-१८ 
पहन के कालिज चले जाना रे, बाबा जी को संग ले जाना रे!
बन्ने! रोम-रोम से रंग बरसे, कॉलेज की सब लडकियाँ तरसे!
बन्ने तरसी को और तरसाना रे॥
लड़की की शादी में गाए जाने वाले लोकगीतों को बन्नी या लाडो कहते हैं। इस लोकगीत  मॆं अल्हड लाडो यानि बन्नी अपने बाबा से पूछ रही है कि मैं कैसे जाऊँ बाग मॆं खेलने क्योंकि वहाँ पर रंगीले (उसके ससुराल वाले) आ गये हैं। बाबा कहते हैं फूलों की डलिया लेकर मालिन का वेश रख ले।    
"लाडो पूछे बाबा से, हे बाबा! मै किस विध खेलन जाऊँ?  
रंगीले आये गये बागों मॆं ?!
बाबा अपनी लाडो को समझाते हुये कहते हैं
"हाथ मॆं डलिया फूल की लाडो, धर मालिन का भेष 
रंगीले आये गये बागो मॆं ॥
देख गये दिखलाये गये बागोँ मॆं ! मेरी रंगभरी लाडो को 
नज़र लगाये गये बागोँ मॆं ॥
मामा द्वारा भांजे-भांजी के विवाह में बहन-बहनोई, उनकी संतानों तथा स्वजनों को उपहार देने की परंपरा को भात चढ़ाना कहा जाता है। बहिन द्वारा भात लेकर आने के लिए भाई को न्योता भेजा जाता है। इस वस्र पर भात गीत गाए जाते हैं:
'अरे भैया रघुवीर, भात सबेरे लइयौ! (१२-१२) /मेरे माथे को बिंदी लइयौ, झूमर पे रत्न जडइयो (१८-१४) / गले को लइयौ जंजीर, भात सबेरे लइयौ॥' (१४-१२) 
एक और भात गीत का आनंद लें: ' भैया तोरी भांजी का ब्याह, भात ले के अइयो रे! (१७ -१३) शेष गीत में बहिन किसके लिए क्या लाना है बताती है। इस मध्य हँसी-मजाक, चुहुल होती है। भाई कहता है: 'बहन क्या घर को बेचूँगा? / बहन क्या खुद बिक जाऊँगा? १५-१५
इसके विपरीत एक उत्साही भाई बहिन उसके ससुरालियों सहित भात पहनने के लिए मंडप में आमंत्रित करता है: 'बहिना! चल मंडप के बीच, अनोखा भात पिन्हाऊँगा (१५-१५) / सास तुम्हारी को पैंट-कोट और टाई चढ़ाऊँगा (१६- १४=३०) / ससुर तुम्हारे को साडी-ब्लाउज लौंग पहनाऊँगा (१८-११ =२९) इसी तरह शेष संबंधियों के नाम लेकर महातैथिक जातीय ताटंक छंद में शेष गीत गया जाता है। 
बच्चे का जन्म होने पर जो लोकगीत गाये जाते हैं उन्हें ब्याही या जच्चा कहते हैं: 'जच्चा झुक-झुक देखे पलना / तू चाँद जैसा किस पे हुआ / मेरे ललना ! (१६-१६-८) / तेरे बाबा काले-काले / तू गोरा नाना पे  हुआ / मेरे ललना॥
शिशु जन्म पर बधाई गीत भी गाये जाते हैं।  स्व. शांति देवी वर्मा रचित बधाई गीत में गणेश जन्म पर पार्वती जी को बधाई दी गयी है। इसका मुखड़ा नाक्षत्रिक जातीय छंद में है जबकि अंतरे में यौगिक जातीय छंद का प्रयोग हुआ है: ' मंगल बेला आई / भोले घर बाजे बधाई (१२-१५) / गौरा मैया ने लालन जन्में /गणपति नाम धराई (१६-१२) । अन्य बधाई गीत 'धूम-धाम भोले के गाँव, चलो पाँव-पाँव सखी' में शांति देवी जी ने मुखड़े में नाक्षत्रिक जातीय छंद का प्रयोग किया है।
सावन मॆं गाये जाने वाले गीतों को उत्तर-प्रदेश मॆं कजरी गीत कहते हैं: " आया तो री सासू यौ सावन मास। /  बेड (झूल) बटा  दे पीले पाट की जी। / म्हारे तो री बहुवड यौ बेडो की आन।/   जायें बटाइयो अपने बाप के जी / म्हारे तो री सासू हैं छोटे-छोटे बीर / बटनी न जाने सन की जेवडी जी / सुन-सुन रे बेटा तू लच्छो के बोल / लच्छौ तो बोले हमसे बोलने जी !
एक और सावन-गीत देखिये: अरी सखी सावन महीना आया / हम तो बैठ गये मन मार के॥ / रो-रो कह रही कंवल निहाल दे॥ बीबी ऐसा ख़त भीजवाइयो  /
हमरे बालम पास पुचाईयो / सुनते ही आवें नर सुल्तान जी॥ यह गीत बारामासी कहा जाता है क्योंकि इसमें बारहों महीनों के नाम लिये जाते हैं। 
होली पर फाग कहे जाते है जो उत्साह और उल्लास लिये होते हैं और रिश्तों को अनेक प्रेम के रंगो से सराबोर करते हैं। महातैथिक ज्तीय १४-१६ मात्रिक छंद में फाग का आनंद लें: 'मै होली कैसे खेलूँ जी, साँवरियाजी के सँग-रँग (१६-१४) / कोरे-कोरे कलश मँगाये, उनमें घोला केसर रँग (१६-१४) / भर पिचकारी माथे मारी, टीका हो गया रंग-रंग / मैं होली कैसे खेलूं जी,सांवरिया जी संग-रंग॥'
देश के हर प्रदेश मॆं जो हमारी संस्कृति से परिचय कराते हुए, मांगलिक अवसरों पर नृत्य-गीत हमारी स्वस्थ्य परंपरा है। आइए, एक प्रसिद्ध लोक नृत्य गीत के साथ नाचें-झूमें:: 'छन कंगन के तीन घुँघरू तीनों मेल मिला दूँगी। / जो मेरी सासू राजी बोले रोटी पौ के खिला दूँगी। / जो मेरी सासू करे लड़ाई चूल्हा बाहर भगा दूँगी॥"
एक और नृत्य गीत देखिए: 'जरा धीरे-धीरे बाँसुरी बजाना / श्याम रे! , बजाना श्याम रे! / श्याम रे मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / उड जारे कौउये पूरब दिशा को, / सुध ले आ मेरे प्रियतम की॥ / मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / कौआ बेचारा उड़ने ना पाया / घर आये मेरे परदेशी। / मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / तुम तो प्रभु जी मेरे फुल गुलाबी / हम कलियाँ सुखदर्शन की॥ / मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / तुमको लाज प्रभु अपने मुकुट की / हमें लाज इस घूंघट की॥ मैं ग्वालन इस पनघट की॥
आज बहुत आवश्यक है कि हमारी युवा पीढी भी हमारी संस्कृति ,हमारे लोकगीतों और लोककलाओं से परिचित हो। 
***

doha muktika

दोहा मुक्तिका:
काम न आता प्यार
*
काम न आता प्यार यदि, क्यों करता करतार।।
जो दिल बस; ले दिल बसा, वह सच्चा दिलदार।।
*
जां की बाजी लगे तो, काम न आता प्यार।
सरहद पर अरि शीश ले, पहले 'सलिल' उतार।।
*
तूफानों में थाम लो, दृढ़ता से पतवार।
काम न आता प्यार गर, घिरे हुए मझधार।।
*
गैरों को अपना बना, दूर करें तकरार।
कभी न घर में रह कहें, काम न आता प्यार।।
*
बिना बोले ही बोलना, अगर हुआ स्वीकार।
'सलिल' नहीं कह सकोगे, काम न आता प्यार।।
*
मिले नहीं बाज़ार में, दो कौड़ी भी दाम।
काम न आता प्यार जब, रहे विधाता वाम।।
*
राजनीति में कभी भी, काम न आता प्यार।
दाँव-पेंच; छल-कपट से, जीवन हो निस्सार।।
*
काम न आता प्यार कह, करें नहीं तकरार।
कहीं काम मनुहार दे, कहीं काम इसरार।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८

दोहा संवाद

दोहा संवाद:
बिना कहे कहना 'सलिल', सिखला देता वक्त।
सुन औरों की बात पर, कर मन की कमबख्त।।
*
आवन जावन जगत में,सब कुछ स्वप्न समान।
मैं गिरधर के रंग रंगी, मान सके तो मान।। - लता यादव
*
लता न गिरि को धर सके, गिरि पर लता अनेक।
दोहा पढ़कर हँस रहे, गिरिधर गिरि वर एक।। -संजीव
*
मैं मोहन की राधिका, नित उठ करूँ गुहार।
चरण शरण रख लो मुझे, सुनकर नाथ पुकार।। - लता यादव
*
मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।
कहे राधिका साधिका, कर मत मुझे वियुक्त।। -संजीव
*
ना मैं जानूँ साधना, ना जानूँ कुछ रीत।
मन ही मन मनका फिरे,कैसी है ये प्रीत।। - लता यादव
*
करे साधना साधना, मिट जाती हर व्याध।
करे काम ना कामना, स्वार्थ रही आराध।। -संजीव
*
सोच सोच हारी सखी, सूझे तनिक न युक्ति ।
जन्म-मरण के फेर से, दिलवा दे जो मुक्ति।। -लता यादव
*
नित्य भोर हो जन फिर, नित्य रात हो मौत।
तन सो-जगता मन मगर, मौन हो रहा फौत।। -संजीव
*
वाणी पर संयम रखूँ, मुझको दो आशीष।
दोहे उत्तम रच सकूँ, कृपा करो जगदीश।। -लता यादव
*
हरि न मौन होते कभी, शब्द-शब्द में व्याप्त।
गीता-वचन उचारते, विश्व सुने चुप आप्त।। -संजीव
*
२८-६-२०१८, ७९९९५५९६१८
छंद अर्थात अनुशासन और अनुशासन के बिना समस्त ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं।
कहा जा सकता है कि यह जगत ही छांदसिक है। कोई लाख छंदमुक्त होना चाहे, हो
ही नहीं सकता। कब, कैसे और कहाँ छंद उसे अपने अंदर ले लेंगे, उसे खुद ही
पता नहीं चलेगा। ठीक यही बात हमारे लोकगीतों के ऊपर भी लागू होती है।
छंदबद्ध रचनाओं का इतिहास हमारी गौरवशाली परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग
है। धार्मिक से लेकर लौकिक साहित्य तक, छंदों ने अपनी गरिमामय उपस्थिति
दर्ज कराई है। लोकगीत, स्थानीय भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति होते हैं।
उनके रचयिता अक्सर उनको किसी दायरे में बँधकर नहीं लिखना चाहते परंतु
छंदों की सर्वव्यापकता के कारण ऐसा हो नहीं पाता। मैं बिहार के जिस
क्षेत्र से हूँ वहाँ मगही को स्थानीय बोली का पद प्राप्त है। हमारे देश
के अन्य हिस्सों की तरह यहाँ भी लोकगीतों की एक समृद्ध परंपरा रही है जो
कि निरंतर जारी है। इन गीतों को यदि हम छंदों की कसौटी पर परखें तो विविध
छंदों के सुंदर दृश्य सामने आते हैं। जैसे कि इसी गीत को लें,

कत दिन मधुपुर जायब, कत दिन आयब हे।
ए राजा, कत दिन मधुपुर छायब, मोहिं के बिसरायब हे॥1॥
छव महीना मधुपुर जायब, बरिस दिन आयब हे।
धनियाँ, बारह बरिस मधुपुर छायब, तोहंे नहिं बिसरायब हे॥2॥
बारहे बरिस पर राजा लउटे दुअरा बीचे गनि ढारे हे।
ए ललना, चेरिया बोलाइ भेद पूछे, धनि मोर कवन रँग हे॥3॥
तोर धनि हँथवा के फरहर,, मुँहवा के लायक हे।
ए राजा, पढ़ल पंडित केर धियवा, तीनों कुल रखलन हे॥4॥
उहवाँ से गनिया उठवलन, अँगना बीचे गनि ढारे हे।
ए ललना, अम्माँ बोलाइ भेद पुछलन, कवन रँग धनि मोरा हे॥5॥
तोर धनि हँथवा के फरहर, मुँहवा के लायक हे।

इसकी पंक्तियों में "सुखदा छंद" जो कि १२-१० मात्राओं पर चलता है और अंत
गुरु से होता, उसकी झलक स्पष्ट देखी जा सकती। इसी प्रकार

देखि-देखि मुँह पियरायल, चेरिया बिलखि पूछे हे।
रानी, कहहु तूँ रोगवा के कारन, काहे मुँह झामर[1] हे॥1॥
का कहुँ गे[2] चेरिया, का कहुँ, कहलो न जा हकइ हे।
चेरिया, लाज गरान[3] के बतिया, तूँ चतुर सुजान[4] हहीं गे॥2॥
लहसि[5] के चललइ त चेरिया, त चली भेलइ झमिझमि[6] हे।
चेरिया, जाइ पहुँचल दरबार, जहाँ रे नौबत[7] बाजहइ हे॥3॥
सुनि के खबरिया सोहामन[8] अउरो मनभावन हे।
नंद जी उठलन सभा सयँ[9] भुइयाँ[10] न पग परे हे॥4॥
जाहाँ ताहाँ भेजलन धामन,[11] सभ के बोलावन हे।
केहु लयलन पंडित बोलाय, केहु रे लयलन डगरिन हे॥5॥
पंडित बइठलन पीढ़ा[12] चढ़ि, मन में विचारऽ करथ[13] हे।
राजा, जलम लेतन[14] नंदलाल जगतर[15] के पालन हे॥6॥
जसोदाजी बिकल सउरिया,[16] पलक धीर धारहु हे।
जलम लीहल तिरभुवन नाथ, महल उठे सोहर हे॥7॥

यह गीत विद्या छंद के १४-१४ मात्राओं का काफी हद तक पालन करता दिखा है।

तिलक समारोह में गाया जाने वाला एक सुंदर गीत देखिए

सभवा बइठले रउरा[1] बाबू हो कवन बाबू।
कहवाँ से अइले पंडितवा, चउका[2] सभ घेरि ले ले॥1॥
दमड़ी दोकड़ा के पान-कसइली।
बाबू लछ[3] रुपइया के दुलहा, बराम्हन भँडुआ ठगि ले ले॥2॥
बाबू, लछ रुपइया के दुलहा, ससुर भँडुआ ठगि ले ले॥3

इसको गाते समय जो लय होती है, वह कुकुभ के १६-१४ के बेहद निकट जान पड़ती।
अंत में दो गुरुओं का भी दर्शन यहाँ हो रहा है।

- कुमार गौरव अजीतेन्दु
बाल शिक्षा में छंद ..
सवाल उठता हैं कि छंद आखीर है क्या ? तो मन तुरंत जवाब देता है कि व्याकरण के
नियमों में बंधे हुए वाक्य को छंद कहते हैं | जिसमे यति,गति,तुक,मात्रा, विराम अदि का
ध्यान रखा जाता है | तो अब प्रश्न यह उठता है कि इतना सब एक छोटे से बच्चे के
कोमल मन-मस्तिष्क में कैसे समाए ? बाल मन जिज्ञासू होता है पर कोमल भी वह
जिज्ञासा वश सीखने को आतुर रहता है पर ब्याकरण के कठिन नियमों को वह इतनी
जल्दी आत्मसात नहीं कर पाता; तो छंद क्या है उसके लिए ? उसके नन्हें कोमल मन
को छंदों से कैसे परिचित कराया जाय ? ये सारे प्रश्न एक साथ मन में उठने स्वाभाविक
हैं |
बाल शिक्षा में छंद का प्रथम ज्ञान
मेरा ऐसा मानना है कि एक शिशु जब जन्म लेता है तो उसका पहला स्पर्श माँ से होता
है | वह माँ के स्पर्श में जो सुख पाता है वही उसका पहला छंद है जिसका माध्यम स्पर्श
है क्यों कि सैकड़ों हजारों में वह माँ का स्पर्श पहचान लेता है | फिर जब माँ उसके माथे
पर हाथ फेरते हुए कुछ गुनगुनाती है, भले ही उनमें कोई शब्द ना हो..सिर्फ बंद होठों से
कोई ध्वनी फूट रही हो; जिसमें किसी आचार्य मम्मट के काव्यशास्त्र का ज्ञान नही..
यति..गति..तुक..विराम नहीं..उस टूटी-फूटी ध्वनि में हैं तो सिर्फ वात्सल्य..! शिशु के लिए
वही छंद है | उसी छंद के रस में डूबा वह माँ की गोद में दुनिया जहान से बेखबर सुख
की नींद सो जाता है | फिर जैसे-जैसे वह बड़ा होता है उसके लिए चिड़ियों की चहक..
कोयल की कूक में जो सुर है..लय है..वही उसका छंद है..वर्षा की बूँदों की छम-छम
उसका छंद है..पवन के वेग से पत्तों की खनक ही उसका छंद है..जिसमे कहीं कोई
व्याकरण का नियम नहीं है | अपनी शैशवावस्था में बाल मन इन्हीं सब चीजों से एक
लय को आत्मसात करता है जो उसके लिए छंद है ऐसा मैं मानती हूँ | क्यों कि जिसमें
सुर है..स्वर है,,लय है..वही उसका छंद है | बच्चे का छंदों से प्रथम परिचय मैं इसे ही
मानती हूँ |
द्वितीय..विद्यालय में
बचपन की कुछ धुंधली सी यादें हैं जब हमारी कक्षा वृक्षों की छाँव में लगा करती थी..लम्बी-
लम्बी चटाइयों के रोल हम सब छात्र-छात्राएँ मिल कर बिछाते और उसी पर कतारबद्ध बैठते,
एक कक्षा में सिर्फ एक ही लकड़ी की कुर्सी होती थी जिसपर मा-साब बैठा करते थे और
उनके हाथ में पतली नीम की छड़ी हुआ करती थी | मुझे आज भी याद आता है, अपने
विद्यालयी यात्रा की वो पहली प्रार्थना (जो आज-कल लुप्त-सी हो गयी है) जो गाते हुए हम

ऐसे भक्ति रस में डूबते थे कि राष्ट्रगान के लिए आँखें न खुलती थीं | वह प्रार्थना आज भी
कंठस्थ है -
वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्त्तव्य मार्ग पर डट जावें।
पर-सेवा पर-उपकार में हम, जग(निज)-जीवन सफल बना जावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे...॥
हम दीन-दुखी निबलों-विकलों के सेवक बन संताप हरें।
जो हैं अटके, भूले-भटके, उनको तारें खुद तर जावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे...॥
छल, दंभ-द्वेष, पाखंड-झूठ, अन्याय से निशिदिन दूर रहें।
जीवन हो शुद्ध सरल अपना, शुचि प्रेम-सुधा रस बरसावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे...॥
निज आन-बान, मर्यादा का प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे।
जिस देश-जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे ||
प्रार्थना..राष्ट्रगान और भारतमाता की जय के बाद पहली कक्षा हिन्दी की होती थी | रहीम
और कबीर के दोहे हम स-स्वर गा कर याद किया करते थे | तब हमें लेश मात्र भी ये ज्ञान
नही था कि ये दोहा छंद है और इसमें चार चरण और १३-११ की मात्राएँ भी होती हैं | बिना
किसी मात्रिक ज्ञान के ही हमने काबीर और रहीम के सारे दोहे उसी समय रट लिए थे जो
आज भी काम आ रहे हैं |
‘रूठ के बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला’..’यदि होता किन्नर नरेश मैं’..’उठो लाल अब
आँखें खोलो’ आदि कवितायें आज ढूढें नहीं मिलतीं पर मैं आज तक नहीं भूली | ये तो रही मेरे
बालपन की बात जो आज के दौर में बहुत पीछे छूट हाई है |
एक समय था, जब बच्चों को पाँच वर्ष के बाद ही विद्यालय भेजा जाता था विद्याध्ययन के
लिए |पर आज ऐसा नहीं है | आज के सामय में अगर बच्चा ढाई या तीन वर्ष की उम्र में
विद्यालय नहीं गया तो वह अपनी शिक्षा की दौड़ में पिछड़ जाता है; ऐसा माना जाता है |
क्यों कि आज की शिक्षा विद्याध्ययन के लिए नहीं बल्कि धनार्जन के लिए ली और दी जा
रही है | इस लिए आज माता-पिता अपने नन्हें-नन्हें बच्चों की पीठ पर शिक्षा का भारी बोझ
लाद कर स्कूल भेज देते हैं | परन्तु जो बात आज भी एक-सी है, वह है; वो पहली प्रार्थना जो
बच्चा पहले दिन ही हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है गाने ले लिए, भले ही भाषा कोई भी हो
| यहीं उसका परिचय होता है स्कूल के पहले छंद से फिर धीरे-धेरे वह सीखने लगता है |

कक्षा में जब अध्यापिका गा-गा कर, ‘तितली रानी इतने सुन्दर पंख कहाँ से लायी हो’ ..
‘चुहिया रानी बड़ी सयानी’..’मछली जल की रानी है’ आदि कविताएँ बच्चे को सुनाती है तो
बच्चा भी सुर में सुर मिलाता है और यूँ ही वह मात्रा, यति, गति, तुक, विराम के ज्ञान के
बिना भी छंदों को आत्मसात करता हुआ आगे बढ़ने लगता है |
कहने का तात्पर्य ये कि बाल मन में सीखने की तीव्र इच्छा होती है, ललक होती है |
समस्या तब आती है जब शिक्षक उसे व्याकरण के आधार पर सिखाने का प्रयास करते हैं
तब सीखना बच्चे के लिए कठिन हो जाता है | जहाँ सुर है..लय है वहीँ छंद है | बच्चे को
यदि लालित्यपूर्ण ढंग से सिखाने का प्रयास किया जाय तो बालपन का सीखा हुआ आजीवन
नहीं भूलता |
बाल शिक्षा में छंदों का प्रभाव
अभी तक मैं यही कहने का प्रयास कर रही थी कि बाल शिक्षा में छंदों कितना गहरा प्रभाव
है यदि उसे हम लालित्यपूर्ण ढंग से सिखाते हैं तो वह आसानी से सब सीखता है | एक बच्चे
को सीधे तौर पर हम नहीं सिखा सकते कि छन्द कितने प्रकार के होते हैं और उसके पहचान
क्या-क्या है ? बच्चा ऊब जाएगा और उसके लिए सीखना बोझिल हो जाएगा | विद्यालय
जाने से कतराने लगेगा | इस लिए आज शिक्षक और माता-पिता दोनों का दायित्व बढ़ जाता
है | शिक्षा बच्चे का सर्वांगीण विकास करती है परन्तु आज की शिक्षा केवल व्यवसायिक हो
कर रह गयी है | विद्यालय में ढेर सारा कक्षा कार्य और घर में शिक्षक का दिया हुआ गृह
कार्य करने में ही बच्चे का पूरा दिन व्यतीत हो जाता है और वह रोबोट या रट्टू तोता बन
कर रह जाता है |
नैतिक..सामजिक और मानसिक प्रभाव
वैसे तो सीखने की कोई उम्र नहीं होती परन्तु बालपन में जो हम सीखते हैं; मन पर उसका
प्रभाव हमेशा बना रहता है | बच्चे की प्रथम शिक्षा घर पर ही आरम्भ होती है जब वह
विद्यालय में औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने जता है तब वह एक व्यक्तित्व के साथ जाता है
जो उसकी अनौपचारिक शिक्षा का परिणाम होता है | यदि घर और विद्यालय में बच्चों को
छंदों के माध्यम से प्रकृति का ज्ञान कराया जाय तो वह आसानी से अपने को प्रकृति से जोड़
सकेगा | आज जो पर्यावर का भीषण संकट उत्पन्न हुआ है उसके बारे में अगर हम उन्हें
छंदों के माध्यम से समझाएं तो वह आसानी से समझेंगे कि जल और वायु उनके लिए क्या
महत्व रखते हैं, वृक्ष उनके लिए क्यों उपयोगी हैं, नदियाँ उनके जीवन को किस तरह
प्रभावित करती हैं ! आज वह समय आ गया है कि इन बातों से बच्चे बाल्यकाल से ही
परिचित हों | इन सब बातों का ज्ञान उन्हें किसी भारी-भरकम तकनीकी के माध्यम से नहीं
बल्कि छंदों के माध्यम से उनको दिया जा सकता है | इस बात को अभिभावक और शिक्षक
दोनों को गम्भीरता से समझना होगा |

आज समाज में स्त्री हिंसा, भ्रष्टाचार, चोरी, बलात्कार आदि विभिन्न प्रकार की बुराइयाँ बढ़ती
जा रहीं हैं उसके बारे में भी यदि छन्दों के माध्यम से बच्चों को बताया जाय कि कैसे इनसे
दूर रहना है तो बच्चे आसानी से समझ सकेगें | बचपन में ही उनके मन में इन बुराइयों से
दूर रहने की प्रवृत्ति जागेगी और यही बच्चे कल सच्चे और इमानदार नागरिक के रूप में एक
स्वस्थ समाज और राष्ट्र के निर्माण में सहायक होंगे | आज विद्यालयों में नैतिक शिक्षा पर
विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है जो कि आज के समय में अति आवश्यक है |
अंत में इतना ही कहूँगी कि बाल शिक्षा में छंदों का विशेष महत्व है | कहते हैं कि बालपन
की सीख ही एक बच्चे की आगे की सोच तय करती है इस लिए अभिभावक और शिक्षक
दोनों को इस ओर विशेष ध्यान देना होगा | बच्चे को ये समझाना होगा कि वह प्रकृति,
समाज और राष्ट्र का ऋणी है और उसे ये ऋण भविष्य में प्रकृति का संरक्षण व समाज और
राष्ट्र के प्रति ईमानदार हो कर उतारना है | ये सारी महत्वपूर्ण बातें बड़ी आसानी से छंदों के
माध्यम से बच्चों के मन-मस्तिष्क में बैठाया जा सकता है | कहते हैं ना कि एक बच्चा आगे
चल कर कैसा नागरिक बनेगा इसकी नींव बचपन में ही पड़ जाती है और इस नींव को
मजबूत करने में छन्दों का विशेष योगदान है | बाल शिक्षा में छंद उतना ही महत्व रखता है
जितना कि मृत्य शैय्या पर पड़े हुए व्यक्ति के लिए साँसें | ऐसा मेरा मानना है |
मीना धर
***********************************************************************
परिचय
नाम- मीना धर
कार्य – अध्यापन, स्वतंत्र लेखन
शिक्षा- कानपुर यूनिवर्सिटी, हिन्दी से परास्नातक
रूचि- संगीत सुनना, साहित्यिक कर्यक्रमों में भाग लेना , किताबें पढना , प्राकृतिक स्थलों
पर घूमना .
'अंतर्मन ' ब्लॉग का सफल संचालन ,
प्रकाशित कृति – (साझा संग्रह)-‘अपना-अपना आसमा’, ‘सारांश समय का’, ‘जीवन्त
हस्ताक्षर-2’, ‘काव्य सुगंध भाग-2’, ‘सहोदरी सोपान-2’, ‘जीवन्त हस्ताक्षर-3’ ‘लघुकथा
अनवरत’ और ‘जीवंत हस्ताक्षर -4’
‘लमही’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘जागरण’, ‘कथाक्रम’ विश्वगाथा, भाषा-भारती, ‘निकट’, उत्तर प्रदेश
सरकार की पत्रिका ‘उत्तर-प्रदेश’ व भारत सरकार की पत्रिका ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’ समहुत
आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित होती रहती हैं ,
विभिन्न ई -पत्रिकाओं और ब्लॉग परभी रचनाएँ प्रकाशित हुईं हैं .
सम्मान - शोभना वेलफेयर सोसायटी द्वारा-शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान 2012, माण्डवी
प्रकाशन द्वारा 2014 में ‘साहित्यगरिमा’, अनुराधा प्रकाशन से ‘विशिष्ट हिन्दी सेवी’ सम्मान

तथा ‘विश्व हिन्दी संस्थान कल्चरल आर्गेनाइजेशन,कनाडा द्वारा उपन्यास ‘खट्टे-मीठे रिश्ते’
में रचना धर्मिता के लिए सम्मान 2015 प्राप्त हुआ और कहानी ‘शापित’ 92.7 big fm
द्वारा सम्मानित हुई ..
ई - मेल आईडी-- meenadhardwivedi1967@gmail.com
फोन-0 9838944718
पता-
मीना पाठक
437, दामोदर नगर, बर्रा,
कानपुर-208027

(U.P.)