मात्रिक छंद कुण्डलिया हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में से एक है। दोहा तथा रोला के सम्मिलन से बने छंद को सर्वप्रथम द्विभंगी (कवि दर्पण) कहा गया। तेरहवीं सदी में अपभ्रंश के कवि जज्जल ने कुण्डलिया का प्रयोग किया। आरम्भ में दोहा-रोला तथा रोला-दोहा दोनों प्रकार के कुण्डलिया छंद 'द्विभंगी' कहे गये।
दोहा छंद जि पढ़मपढ़ि, कब्बर अद्धु निरुत
तं कुण्डलिया बुह मुड़हु, उल्लालइ संजुत - छंद्कोश पद्य ३१ (प्राकृत पैंगलम् १/१४६)
यहाँ 'उल्लाला' शब्द का अर्थ 'उल्लाला छंद' नहीं रोला के पद के दुहराव से है. आशय यह कि दोहा तथा रोला को संयुक्त कर बने छंद को कुण्डलिया समझो। राजशेखर ने कुण्डलिया में पहले रोला तथा बाद में दोहा का प्रयोग कर प्रगाथ छंद कुण्डलिया रचा है:
किरि ससि बिंब कपोल, कन्नहि डोल फुरंता
नासा वंसा गरुड़ - चंचु दाड़िमफल दंता
अहर पवाल तिरेह, कंठु राजल सर रूडउ
जाणु वीणु रणरणइ, जाणु कोइलटहकडलउ
सरल तरल भुववल्लरिय, सिहण पीण घण तुंग
उदरदेसि लंकाउलिय, सोहइ तिवल तरंगु
अपभ्रंश साहित्य में १६ पद (पंक्ति) तक के प्रगाथ छंद हैं। अपभ्रंश में इस छंद के प्रथम शब्द / शब्द समूह से छंद का अंत करने, दोहे की अंतिम पंक्ति के उत्तरार्ध को रोला की प्रथम पंक्ति का पूर्वार्ध रखने तथा रोला की दूसरी व तीसरी पंक्ति का पूर्वार्ध समान रखा गया है। कालांतर में दोहा-रोला क्रम तथा ६ पंक्तियों का नियम बना तथा कुण्डलिया नामकरण हुआ। छंदकोष और प्राकृत पैंगलम् में कुण्डलिया छंद है। आचार्य केशवदास ने भी कहीं - कहीं अपभ्रंश मानकों का पालन किया है। देखें:
टूटै टूटनहार तरु, वायुहिं दीजत दोष
त्यौं अब हर के धनुष को, हम पर कीजत रोष
हम पर कीजत रोष, कालगति जानि न जाई
होनहार ह्वै रहै, मिटै मेटी न मिटाई
होनहार ह्वै रहै, मोद मद सबको टूटै
होय तिनूका बज्र, बज्र तिनुका हवाई टूटै
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने दोहे के प्रथम चरण को सोरठे की तरह उलटकर कुण्डलिया के अंत में प्रयोग किया है:
सोहत ओढ़े पीत पट, स्याम सलोने गात
मनो नील मनि सैल पर, आतप परयो प्रभात
आतप परयो प्रभात, किधौं बिजुरी घन लपटी
जरद चमेली तरु तमाल में सोभित सपटी
पिया रूप अनुरूप, जानि हरिचंद विमोहत
स्याम सलोने गात, पीत पट ओढ़े सोहत -सतसई श्रृंगार
गिरधर कवि की नीतिपरक कुण्डलियाँ हिंदी साहित्य की धरोहर हैं। उनकी समर्थ लेखनी ने इस छंद को अमरता तथा वैविध्यता दी है.
दौलत पाय न कीजिये, सपनेहूँ अभिमान।
चंचल जल दिन चारिको, ठाऊँ न रहत निदान।।
ठाँऊ न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै।
मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै।।
कह 'गिरिधर कविराय' अरे यह सब घट तौलत।
पाहुन निसि दिन चारि, रहत सबही के दौलत।।
वर्तमान कुण्डलिया की पहली दो पंक्तियाँ दोहा (२ x १३-११ ) तथा शेष ४ पंक्तियाँ रोला (४ x ११-१३) होती हैं। दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है तथा दोहा के आरम्भ का शब्द, शब्दांश या शब्द समूह कुंडली के अंत में दोहराया जाता है।२४ मात्रा की ६ पंक्तियाँ होने के कारण कुण्डलिया १४४ मात्रिक षट्पदिक छंद है। वर्तमान में कुण्डलिया से साम्य रखनेवाले अन्य छंद कुण्डल (२२ मात्रिक, १२-१० पर यति, अंत दो गुरु), कुंडली (२१ मात्रिक, यति ११-१०, चरणान्त दो गुरु), अमृत कुंडली (षटपदिक प्रगाथ छंद. पहले ४ पंक्ति त्रिलोकी बाद में २ पंक्ति हरिगीतिका), कुंडलिनी (गाथा/आर्या और रोला), नवकुण्डलिया (दोहा+रोल २ पंक्ति+दोहा, आदि-अंत सामान अक्षर, शेष नियम कुंडली के), लघुकुण्डलिया (दोहा+२पंक्ति रोला) तथा नाग कुंडली (दोहा+रोला २ पंक्ति+ दोहा+रोला ४ पंक्ति) भी लोकप्रिय हो रहे हैं।
कुण्डलिया:
दोहा
अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अ: ऋ, xxxx xxx xxxx
xxx xxx xx xxx xx, * * * * * * * * * * *
रोला
* * * * * * * * * * *, xxx xx xxxx xxxx
xxxx xxxx xxx, xxx xx xxxx xxxx
xxxx xxxx xxx, xxx xx xxxx xxxx
xxxx xxxx xxx, xxx xx xxxx xxxY
टिप्पणी: Y = अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अ: ऋ का पूर्ण या आंशिक दुहराव
उदाहरण -
कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह 'गिरिधर कविराय', मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥
दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान।
चंचल जल दिन चारिको, ठाऊँ न रहत निदान।।
ठाँऊ न रहत निदान, जयत जग में जस लीजै।
मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै।।
कह 'गिरिधर कविराय' अरे यह सब घट तौलत।
पाहुन निशि दिन चारि, रहत सबही के दौलत।।
विवेच्य कुंडली संकलन में १६० कुण्डलियाँ अपनी शोभा से पाठक को मोहने हेतु तत्पर हैं। इन कुंडलियों के विषय आम लोगों के दैनंदिन जीवन से जुड़े हैं। देश की सीमा पर पडोसी देश द्वारा हो रहा उत्पात कवि को उद्वेलित करता है और वह सीमा का मानवीकरण कर उसके दुःख को कुंडली के माध्यम से सामने लाता है।
सीमा घबराई हुई, बैठी बड़ी निराश।
उसके रक्षक हैं बँधे, बँधा न पाते आस॥
बँधा न पाते आस, नहीं रिपु घुस पाएंगे,
काट हमारे शीश, नहीं अब ले जाएंगे।
तुष्टिकरण का खेल, देश का करता कीमा,
सोच-सोच के रोज, जी रही मर-मर सीमा॥
भारत की संस्कृति उत्सव प्रधान है। ऋतु परिवर्तन के अवसर पर आबाल-वृद्ध नर-नारी ग्राम-शहर में पूरे उत्साह से पर्व मानते हैं। रंगोत्सव होली में छंद भी सम्मिलित हैं। हरिया रहे छंदों की अद्भुत छटा देखिये:
दोहे पीटें ढोल तो, रोला मस्त मृदंग।
छंदोंपर मस्ती चढ़ी, देख हुआ दिल दंग॥
देख हुआ दिल दंग, भंग पीती कुंडलिया,
छप्पय संग अहीर, बना बरवै है छलिया।
तरह-तरह के वेश, बना सबका मन मोहे,
होली में मदहोश, सवैया, आल्हा, दोहे॥
युवा कवि अपने पर्यावरण और परिवेश को लेकर सजग है। यह एक शुभ लक्षण है। जब युवा पीढ़ी पर अपने आपमें मस्त रहने और अनुत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार के आक्षेप लग रहे हों तब अजीतेन्दु की कुंडली आँगन में गौरैया को न पाकर व्यथित हो जाती है ।
गौरैया तेरे असल, दोषी हम इंसान।
पाप हमारे भोगती, तू नन्हीं सी जान॥
तू नन्हीं सी जान, घोंसलों में है रहती,
रसायनों का वार, रेडिएशन क्या सहती।
इक मौका दे और, उठा मत अपने डेरे,
मानेंगे उपकार, सदा गौरैया तेरे॥
घटती हरियाली, कम होता पानी, कानून की अवहेलना से ग़रीबों के सामने संकट, रिश्वतखोरी, बाहुबल की राजनीति, मिट रही जादू कला, नष्ट होते कुटीर उद्योग, सूखते नदी-तालाब, चीन से उत्पन्न खतरा, लड़कियों की सुरक्षा पर खतरा, बढ़ती मंहगाई, आत्म नियंत्रण और अनुशासन की कमी, जन सामान्य जन सामान्य में जिम्मेदारी की भावना का अभाव, दरिया-पेड़ आदि की परोपकार भावना, पेड़-पौधों-वनस्पतियों से लाभ आदि विविध विषयों को अजीतेन्दु ने बहुत प्रभावी तरीके से कुंडलियों में पिरोया है।
अजीतेन्दु को हिंदी के प्रति शासन-प्रशासन का उपेक्षा भाव खलता है। वे जन सामान्य में अंग्रेजी शब्दों के प्रति बढ़ते मोह से व्यथित-चिंतित हैं:
हिन्दी भाषा खो रही, नित अपनी पहचान।
अंग्रेजी पाने लगी, घर-घर में सम्मान॥
घर-घर में सम्मान, "हाय, हैल्लो" ही पाते,
मॉम-डैड से वर्ड, "आधुनिकता" झलकाते।
बनूँ बड़ा अँगरेज, सभी की है अभिलाषा,
पूरा करने लक्ष्य, त्यागते हिन्दी भाषा॥
सामान्यतः अपने दायित्व को भूलकर अन्य को दोष देने की प्रवृत्ति सर्वत्र दृष्टव्य है। अजीतेन्दु आत्मावलोकन, आत्मालोचन और आत्ममूल्यांकन के पथ पर चलकर आत्मसुधार करने के पक्षधर हैं। वे जननेताओं के कारनामों को भी जिम्मेदार मानते हैं।
नेताओं को दोष बस, देना है बेकार।
चुन सकते हैं काग को, हंस भला सरदार॥
हंस भला सरदार, बकों के कभी बनेंगे,
जो जिसके अनुकूल, वहीं वो सभी फबेंगे।
जैसी होती चाह, मतों के दाताओं को,
उसके ही अनुसार, बुलाते नेताओं को॥
विसंगतियों से यह तरुण कवि हताश-निराश नहीं होता, वह नन्हें दीपक से प्रेरणा लेकर वृद्ध सहायता देने हेतु तत्पर है। प्रतिकूल परिस्थितियों को झुकाने का यह तरीका उसके मन भाता है ।
तम से लड़ता साहसी, नन्हा दीपक एक।
वृद्ध पथिक ले सहारा, चले लकुटिया टेक॥
चले लकुटिया टेक, मंद पर बढ़े निरंतर,
दीपक को आशीष, दे रहा उसका अंतर।
स्थितियाँ सब प्रतिकूल, हुईं नत इनके दम से,
लगीं निभाने साथ, दूर हट मानो तम से॥
बहुधा पीढ़ी पर दोष दर्शन करते-कराते स्वदायित्व बोध से दूर हो जाती है। यह कुण्डलिकार धार के विपरीत तैरता है। वह 'सत्यमेव जयते' सनातन सत्य पर विश्वास रखता है।
आएगा आकाश खुद, चलकर तेरे पास।
मन में यदि पल-पल रहे, सच्चाई का वास॥
सच्चाई का वास, जहाँ वो पावन स्थल है,
सात्विक, शुद्ध, पवित्र, बहे ज्यों गंगाजल है।
कब तक लेगा साँस, झूठ तो मर जाएगा,
सत्य अंततः जीत, हमेशा ही आएगा॥
सारतः, अजीतेन्दु की कुण्डलियाँ शिल्प और कथ्य में असंतुलन स्थापित करते हुए, युगीन विसंगतियों और विडम्बनाओं पर मानवीय आस्था, जिजीविषा औ विश्वास का जयघोष करते हुए युवा मानस के दायित्व बोध की प्रतीति का दस्तावेज हैं। सहज-सरल-सुबोध भाषा और सुपरिचैत शब्दों को स्पष्टता से कहता कवि छंद के प्रति न्याय कर सका है।