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शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

लघुकथा : तपस्या - रविन्द्र खरे 'अकेला'

लघुकथा                                                                                                                                                            
तपस्या

रविन्द्र खरे 'अकेला'

वह वीणा के तार को ठीक करने लगी, उसे लगा उसके गायन में एकरसता नहीं आ पा रही है, वीणा ठीक से झंकृत नहीं हो पा रही है, वह वीणा को ठीक कर पाती कि
उसमें से आवाज सुनाई दी-‘तुम मुझमें कमी ढूँढ रही हो जबकि कमी तुम्हारे खुद के सुरों में है।’

एक पल तो वह अवाक्-सी रह गयी, यह कमरे में किसकी आवाज है, जब ध्यान से सुना तो पाया कि वीणा में से ही शब्दों के स्वर फूट रहे हैं।

तुम अपने सुरों की तपस्या को बढ़ाओ ठीक से प्यार से मेरे ऊपर उंगलिया चलाना सीखो फिर देखो मैं कितनी सुमधुर तानें तुम्हें देती हूँ।  एक तुम हो कि बस बिना मेहनत किये एक ही दिन में सुर साम्राज्ञी बन जाना चाहती हो, मेरे कान उमेठने से तुम्हें क्या मिलेगा, मेरे तार टूट गये तो जो स्वर तुम सुन पा रही हो वह भी बंद हो जायेंगे। एक बात मेरी ध्यान से सुन लो सफलता का कोई शार्ट कट नहीं होता  यदि तुम सर्वोच्च शिखर पर पहुँचना चाहती हो तो तुम्हें शुरूआत नीच की सीढ़ी से ही करनी होगी नियमित अभ्यास, लगन, मेहनत से तुम गायन में सर्वोच्च शिखर पर पहुंच सकती हो सिर्फ अपनी तपस्या में कमी न आने देना फिर मैं और तुम दोनों मिलकर सारी दुनिया पर राज करेंगे लेकिन एक बात गांठ बाँध कर सुन लो दूसरों की कमियाँ देखने से पहले अपने अंदर भी झाँक कर देख लेना चाहिए;

उसे वीणा के कहे एक-एक शब्द जैसे मंत्र के समान प्रतीत हुये उसने उस दिन से अपने गले के सुरों पर ध्यान देकर नियमित रियाज शुरू कर दिया- और आज उसके साथ
वही वीणा है, जिसने उसे अन्तर्राष्ट्रीय वीणा प्रतियोगिता में प्रथम स्थान दिलाया है .वे दोनों आज बहुत खुश थीं- दोनों की तपस्या रंग लाई थी।

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बुधवार, 24 नवंबर 2010

लघुकथा: अस्तित्व --- रवीन्द्र खरे 'अकेला'

लघुकथा:

अस्तित्व

रवीन्द्र खरे 'अकेला'
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शाम गहराने लगी थी। उसके माथे पर थकान स्पष्ट झलकने लगी थी- वह निरन्तर हथौड़ा चला-चलाकर कुंदाली की धार बनाने में व्यस्त था।

तभी निहारी ने हथौड़े से कहा कि तू कितना निर्दयी है मेरे सीने में इतनी बार प्रहार करता है कि मेरा सीना तो धक-धक कर रह जाता है, तुझे एक बार भी दया नहीं आती। अरे तू कितना कठोर है, तू क्या जाने पीड़ा-कष्ट क्या होता है, तेरे ऊपर कोई इस तरह पूरी ताकत से प्रहार करता तो तुझे दर्द का एहसास होता?

अच्छा तू ही बता तू इतनी शाम से चुपचाप जमीन पर पसरी रहती है और रामू काका कितने प्यार से मेरी परवरिश करते हैं और तेरे ऊपर रखकर ही वे किसानों, मजदूरों के लिये खुरपी, कुंदाली में धार बनाते हैं, ठोक-ठोक कर-निहारी (कुप्पे) से हथौड़े ने पूछा।

‘‘भला तुमने कभी सोचा है यदि मैं ही नहीं रहूँ तो तुम्हारा भला लुहार काका के घर में क्या काम? पड़ी रहेगी किसी अनजान-वीराने में, उल्टे कोई राह चलते तुझसे टकराकर गिर ही जायेगा तो बगैर गाली दिये आगे बढ़ेगा नहीं...’’

निहारी को अपनी भलू का अहसास हो गया था, उसने तुरन्त अपनी गलती स्वीकारते हुये कहा-""हां हथौड़े भइया! तुम ठीक ही कह रहे हो श्रम का फल मीठा होता है। भला लुहार काका और हथौड़े भइया तुम्हारे बिना मेरा क्या अस्तित्व?""
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मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

रवींद्र खरे 'अकेला' रचित 'मेरी लघुकथाओं का पहला नाबाद शतक' विमोचित :

कृति विमोचन:
रवींद्र खरे 'अकेला' रचित 'मेरी लघुकथाओं का पहला नाबाद शतक' विमोचित :


भोपाल . मध्यप्रदेश के राज्यपाल महामहिम श्री रामेश्वर ठाकुर के करकमलों से दिव्यनर्मदा परिवार के अभिन्न अंग श्री रविन्द्र खरे 'अकेला' के नव प्रकाशित लघुकथा संग्रह 'मेरी लघुकथाओं का पहला नाबाद शतक' का विमोचन पूर्व सांसद श्री कैलाशनारायण सारंग, अध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा की विशेष उपस्थिति में संपन्न हुआ. श्री अकेला को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें.