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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

नवगीत : तुम मुस्कायीं जिस पल.... -- संजीव 'सलिल'

नवगीत 

तुम मुस्कायीं  जिस पल...

संजीव 'सलिल'

 *
तुम मुस्कायीं जिस पल
   उस पल उत्सव का मौसम.....
*
लगे दिहाड़ी पर हम
जैसे कितने ही मजदूर
गीत रच रहे मिलन-विरह के
आँखें रहते सूर
नयन नयन से मिले झुके
उठ मिले मिट गया गम
तुम शर्मायीं जिस पल
  उस पल उत्सव का मौसम.....
*
देखे फिर दिखलाये
एक दूजे को सपन सलोने
बिना तुम्हारे छुए लग रहे
हर पकवान अलोने
स्वेद-सिंधु में नहा लगी
हर नेह-नर्मदा नम
तुम अकुलायीं जिस पल
  उस पल उत्सव का मौसम.....
*
कंडे थाप हाथ गुबरीले
सुना रहे थे फगुआ
नयन नशीले दीपित
कहते दीवाली अगुआ
गाल गुलाबी 'वैलेंटाइन
डे' की नव सरगम
तुम भरमायीं  जिस पल
  उस पल उत्सव का मौसम.....
****

नवगीत शहर में मुखिया आये - आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

नवगीत                                                                                                                                   


netaji नेताओं की कहानी, शायर  अशोक  की जुबानी !!!शहर में मुखिया आये

- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

*शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

जन-गण को कर दूर
निकट नेता-अधिकारी.
इन्हें बनायें सूर
छिपाकर कमियाँ सारी.
सबकी कोशिश, करे मजूरी
भूखी सुखिया, फिर भी गाये.
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

है सच का आभास
कर रहे वादे झूठे.
करते यही प्रयास
वोट जनगण से लूटें.
लोकतंत्र की
लख मजबूरी,
लोभतंत्र दुखिया पछताये.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...

*
आये-गये अखबार रँगे,
रेला-रैली में.
शामिल थे बटमार
कर्म-चादर मैली में.
अंधा देखे, गूंगा बोले,
बहरा सुनकर चुप रह जाए.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...
*

हरिगीतिका छन्द - संजीव 'सलिल'

हरिगीतिका छन्द 
 संजीव 'सलिल'


हरिगीतिका है छंद मात्रिक, पद-चरण दो-चार हैं. सोलह तथा बारह कला पर, रुक-बढ़ें यह सार है..


 हरिगीतिका चार चरणोंवाला मात्रिक सम छन्द है जिसके प्रत्येक चरण में १६+१२=२८ मात्रा तथा १६-१२ पर यति होना अनिवार्य है. हर दो / चार पंक्तियों में तुकांत समान तथा  प्रत्येक चरण के अंत में लघु-गुरु अनिवार्य होता है. पदांत में लघु-गुरु / रगण (गुरु-लघु-गुरु) का विधान वर्णित है. उदहारण: हरिगीतिका हरिगीतिका  हरि, गीतिका हरिगीतिका (११२१२ ११२१२ ११, ११ १२ ११२१२). यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर सिर्फ मात्रा भार समझे जाएँ, परंतु लय प्रधान होने के कारण इस छंद की लय में बाधा उत्पन्न न हो, इस का भी खयाल रखा जाये।

एक उर्दू बहर 'रजज' जिसकी तक्तीह मुस तफ़ इलुन 
/ मुस तफ़ इलुन मुस / तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन [2212 / 2212 2 / 212 / 2122] इस से मिलती जुलती है। यहाँ १६वीं मात्रा पर यति बिठानी है, तथा अंतिम इलुन को हिन्दी वर्णों / अक्षरों के अनुसार लघु गुरु माना जाना है। यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर '2' को 2 मात्रा भार समझा जाये न कि गुरु वर्ण।

  • इस छंद की लय कुछ इस तरह से हो सकती है :- 

           १. लल-ला-ल-ला   / लल-ला-ल-ला लल, / ला-ल-ला / लल-ला-ल-ला   (पहचानले x ४ )
           २. ला-ला-ल-ला / ला-ला-ल-ला ला, / ला-ल-ला  / ला-ला-ल-ला             (आजाइए x ४)
           ३. ला-ला-ल-ल ल  / ला-ला-ल-ल ल  ला, / ला-ल-ल ल  / लल-ला-ल-ल ल (आ जा सनम x ४)
           ४. ल ल-ला-ल-ल ल  / ल ल-ला-ल-ल ल   ल ल, / ला-ल-ल ल  / ल ल-ला-ल-ल ल (कविता कलम x ४)


एक उर्दू बहर 'रजज' जिसकी तक्तीह मुस तफ़ इलुन  / मुस तफ़ इलुन मुस / तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन [2212 / 2212 2 / 212 / 2122] इस से मिलती जुलती है। यहाँ १६वीं मात्रा पर यति बिठानी है, तथा अंतिम इलुन को हिन्दी वर्णों / अक्षरों के अनुसार लघु गुरु माना जाना है। यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर '2' को 2 मात्रा भार समझा जाये न कि गुरु वर्ण।

पर्व नव सद्भाव के
संजीव 'सलिल'
*
हैं आ गये राखी कजलियाँ, पर्व नव सद्भाव के.
सन्देश देते हैं न पकड़ें, पंथ हम अलगाव के..

भाई-बहिन सा नेह-निर्मल, पालकर आगे बढ़ें.
सत-शिव करें मांगल्य सुंदर, लक्ष्य सीढ़ी पर चढ़ें..

थाती पुरातन, शुभ सनातन, यह हमारा गर्व है.
हैं जानते वह व्याप्त सबमें, प्रिय उसे जग सर्व है..

मन मोर नाचे देख बिजुरी और बरखा मेघ की
कब बंधु आए? सोच बहना, मगन प्रमुदित हो रही

धरती हरे कपड़े पहन कर, लग रही है षोडशी.
सलिला नवोढ़ा नारियों सी, है कथा नव मोद की..

शालीनता तट में रहें सब, भंग ना मर्याद हो.
स्वातंत्र्य उच्छ्रंखल न हो यह,  मर्म सबको याद हो..

बंधन रहे कुछ
तो, तभी  हम - गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..

बंधन अप्रिय लगता हमेशा, अशुभ हो हरदम नहीं.
रक्षा करे बंधन 'सलिल' तो, त्याज्य होगा क्यों कहीं?

यह दृष्टि भारत पा सका तब, जगद्गुरु कहला सका.
निज शत्रु दिल संयम-नियम से, विजय कर दहला सका..

इतिहास से ले सबक बंधन, में बंधें हम एक हों.
संकल्पकर इतिहास रच दें, कोशिशें शुभ नेक हों..

.
उदाहरण: 

१. 
श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं।

नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं ।।
कंदर्प अगणित अमित छवि नव-नील नीरद सुन्दरं ।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि  जनकसुता वरं।।  तुलसी कृत रामचरित मानस से.
[ऊपर की पंक्ति में 'चंद्र' का 'द्र' और 'कृपालु' का 'कृ' संयुक्त अक्षर की तरह एक मात्रिक गिने गए हैं]
[यह स्तुति यू ट्यूब पर भी उपलब्ध है]


मात्रा गणना :-

श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन 
२ २१ २१ १२१ ११ ११ = १६ मात्रा और यति  

हरण भव भय दारुणं 
१११ ११ ११ २१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

नव कंज लोचन कंज मुख कर 
११ २१ २११ २१ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

कंज पद कंजारुणं
२१ ११ २२१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

कंदर्प अगणित अमित छवि नव 
२२१ ११११ १११ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

नील नीरद सुन्दरं
२१ २११ २१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि 
११ २१ २११ १११ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

नौमि जनकसुता वरं
२१ ११११२ १२ = १२ मात्र, अंत में लघु गुरु 
२.
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
१२ २२ २ २ २१, २१२ २२१२
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।।
२२१२ २१२२ २, २१२ २२१२
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।
२२१२ २२१२ २, २१२२ २१२
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।
२२१२ २१२२ २, २१२ २२१२

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
२१२२ २२१२ २, १२२ २२१२
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।
२१२२ २२१२ २, २१२ २२१२
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
२२१२ २२१२ २, १२२ २२१२
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।

२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२

उक्त छंद रामचरितमानस के सुंदरकांड से हैं। इन छंदों में बहुधा २२१२ का मात्राक्रम है, किंतु यह आवश्यक नहीं है। यह क्रम २१२२, १२२२ या २२२१ भी हो सकता है मगर ऐसा करने पर लय बाधित होती है। प्रवाह हेतु २१२२  या २२१२ ही उपयुक्त। हरिगीतिका छंद को (२+३+२) क्ष ४ के रूप में भी लिखा जा सकता है। ३ के स्थान पर १-२ या २-१ ले सकते हैं।  - धर्मेन्द्र कुमार सिंह 'सज्जन'
२.

वो वस्त्र कितने सूक्ष्म थे, कर लो कई जिनकी तहें।
शहजादियों के अंग फिर भी झांकते जिनसे रहें ।।
थी वह कला या क्या कि कैसी सूक्ष्म थी अनमोल थी ।
सौ हाथ लम्बे सूत की बस आध रत्ती तोल थी ।।           -भारत भारती से
३.
अभिमन्यु-धन के निधन से, कारण हुआ जो मूल है।
इस से हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है ।।
उस खल जयद्रथ को जगत में, मृत्यु ही अब सार है ।
उन्मुक्त बस उस के लिए रौ'र'व नरक का द्वार है ।।     -जयद्रथ वध से

[यहाँ 'जयद्रथ' को संधि विच्छेद का प्रयोग तथा उच्चारण कला का इस्तेमाल करते हुए यूँ बोला जाएगा 'जयद्द्रथ'। पुराणों के अनुसार नरकों के विभिन्न प्रकारों में 'रौरव [रौ र व] नरक' बहुत ही भयानक नरक होता है]
४. गणपति वन्दना 
वन्‍दहुँ विनायक, विधि-विधायक, ऋद्धि-सिद्धि प्रदायकं।
गजकर्ण, लम्बोदर, गजानन, वक्रतुंड, सुनायकं।।
श्री एकदंत, विकट, उमासुत, भालचन्द्र भजामिहं।
विघ्नेश, सुख-लाभेश, गणपति, श्री गणेश नमामिहं ।।  - नवीन सी. चतुर्वेदी
५. सरस्वती वन्दना
ज्योतिर्मयी! वागीश्वरी! हे - शारदे! धी-दायिनी !
पद्मासनी, शुचि, वेद-वीणा -  धारिणी! मृदुहासिनी !!
स्वर-शब्द ज्ञान प्रदायिनी! माँ  -  भगवती! सुखदायिनी !
शत शत नमन वंदन वरदसुत, मान वर्धिनि! मानिनी !!   - राजेन्द्र स्वर्णकार
६. सामयिक
सदियों पुरानी सभ्यता को, बीस बार टटोलिए
किसको मिली बैठे-बिठाये, क़ामयाबी, बोलिए
है वक़्त का यह ही तक़ाज़ा, ध्यान से सुन लीजिए
मंज़िल खड़ी है सामने ही, हौसला तो कीजिए।१
 
चींटी कभी आराम करती, आपने देखी कहीं
कोशिश-ज़दा रहती हमेशा, हारती मकड़ी नहीं
सामान्य दिन का मामला हो, या कि फिर हो आपदा
जलचर, गगनचर कर्म कर के, पेट भरते हैं सदा।२

गुरुग्रंथ, गीता, बाइबिल, क़ुरआन, रामायण पढ़ी

प्रारब्ध सबको मान्य है, पर - कर्म की महिमा बड़ी
ऋगवेद की अनुपम ऋचाओं में इसी का ज़िक्र है
संसार उस के साथ है, जिस को समय की फ़िक्र है।३- नवीन सी. चतुर्वेदी
७. रक्षाबंधन

सावन सुहावन आज पूरन पूनमी भिनसार है,
भैया बहन खुश हैं कि जैसे मिल गया संसार है|
राखी सलोना पर्व पावन, मुदित घर परिवार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
८. दीपावली
 
भाई बहन के पाँव छूकर दे रहा उपहार है,
बहना अनुज के बाँध राखी हो रही बलिहार है|
टीका मनोहर भाल पर शुभ मंगलम त्यौहार है
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
सावन पुरातन प्रेम पुनि-पुनि, सावनी बौछार है,
रक्षा शपथ ले करके भाई, सर्वदा तैयार है|
यह सूत्र बंधन तो अपरिमित, नेह का भण्डार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||

बहना समझना मत कभी यह बन्धु कुछ लाचार है,
मैंने दिया है नेग प्राणों का कहो स्वीकार है |
राखी दिलाती याद पावन, प्रेम मय संसार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
बिन दीप तम से त्राण जगका, हो नहीं पाता कभी.
बिन गीत मन से त्रास गमका, खो नहीं पाता कभी..
बिन सीप मोती कहाँ मिलता, खोजकर हम हारते-
बिन स्वेद-सीकर कृषक फसलें, बो नहीं पाता कभी..
*
हर दीपकी, हर ज्योतिकी, उजियारकी पहचान हूँ.
हर प्रीतका, हर गीतका, मनमीत का अरमान हूँ..
मैं भोरका उन्वान हूँ, मैं सांझ का प्रतिदान हूँ.
मैं अधर की मुस्कान हूँ, मैं हृदय का मेहमान हूँ..
*
 यह छंद हर प्रसंग परऔर हर रस की काव्य रचना हेतु उपयुक्त है.
**

एक गीत: शेष है... --संजीव 'सलिल'

एक गीत:
शेष है...
संजीव 'सलिल'
*
किरण आशा की
अभी भी शेष है...
*
देखकर छाया न सोचें
उजाला ही खो गया है.
टूटता सपना नयी आशाएँ
मन में बो गया है.
हताशा कहती है इतना
सदाशा भी लेश है...
*
भ्रष्ट है आचार तो क्या?
सोच है-विचार है.
माटी का तन निर्बल
दैव का आगार है.
कालिमा अमावसी में
लालिमा अशेष है...
*
कुछ न कहीं खोया है
विधि-हरि-हर हम में हैं.
शारदा, रमा, दुर्गा
दीप अगिन तम में हैं.
आशत स्वयं में ही
चाहिए विशेष है...
***
Acharya Sanjiv Salil

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गुरुवार, 29 सितंबर 2011

रचना / प्रति रचना: परिचय --राकेश खंडेलवाल / सलिल

रचना / प्रति रचना:
परिचय 
राकेश खंडेलवाल / सलिल
*
बस इतना है परिचय मेरा
भाषाओं से कटा हुआ मैं
हो न सका अभिव्यक्त गणित वह
गये नियम प्रतिपादित सब ढह
अनचाहे ही समीकरण से जिसके प्रतिपल घटा हुआ मैं
जीवन की चौसर पर साँसों के हिस्से कर बँटा हुआ मैं
बस इतना है परिचय मेरा
इक गंतव्यहीन यायावर
अन्त नहीं जिसका कोई, पथ
नीड़ नहीं ना छाया को वट
ताने क्रुद्ध हुए सूरज की किरणों की इक छतरी सर पर
चला तोड़ मन की सीमायें, खंड खंड सुधि का दर्पण कर
बस इतना है परिचय मेरा
सका नहीं जो हो परिभाषित
इक वक्तव्य स्वयं में उलझा
अवगुंठन जो कभी न सुलझा
हो पाया जो नहीं किसी भी शब्द कोश द्वारा अनुवादित
आधा लिखा एक वह अक्षर, जो हर बार हुआ सम्पादित
बस इतना है परिचय मेरा




*
प्रति रचना :
_परिचय:
संजीव 'सलिल'
*
बस इतना परिचय काफी है...
*
परिचय के मुहताज नहीं तुम.
हो न सके हो चाह कभी गुम.
तुमसे नियमों की सार्थकता-
तुम बिन वाचा होती गुमसुम.
तुम बिन दुनिया नाकाफी है...
*
भाषा-भूषा, देश-काल के,
सर्जक, ध्वंसक व्याल-जाल के.
मंजिल सार्थक होती तुमसे-
स्वेद-बिंदु शुचि काल-भाल के.
समय चाहता खुद माफी है.....
*
तुमको सच से अलग न पाया.
अनहद भी निज स्वर में गाया.
सत-चित-आनंद, सत-शिव-सुंदर -
साथ लिये फिरते सरमाया.
धूल पाँव की गद्दाफी है...
*

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

एक गीत मिट्टी का तन... --- संजीव 'सलिल'

एक गीत
मिट्टी का तन...
संजीव 'सलिल'
*

मिट्टी का तन मिट्टी ही है...

मिट्टी कभी चटकती भी है.
मिट्टी कभी दरकती भी है.
मिट्टी जब उठ जाती है तो-
मिट्टी तनिक महकती भी हो.
मिट्टी है दोस्ती कभी तो
मिट्टी लड़कर कट्टी भी है...

मिट्टी सुख-दुःख, हँसी-रुदन है.
मिट्टी माली, कली-चमन है.
मिट्टी पीड़ा, घुटन, चुभन है.
मिट्टी दिल की लगी, अगन है..
मिट्टी आशा और निराशा-
मिट्टी औषधि-पट्टी भी है...
*****
Acharya Sanjiv Salil

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एक कुण्डलिनी: गूगल के १३ वें जन्मदिवस पर -- संजीव वर्मा 'सलिल'

एक कुण्डलिनी:
गूगल के १३ वें जन्मदिवस पर
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सकल जगत एक गाँव है, गूगल है चौपाल.
सबको सबसे जोड़ता, करता रोज कमाल.
करता रोज कमाल, धमाल मचाता जीभर.
चढ़ जाता है नशा, स्नेह की मदिरा पीकर..
कहे सलिल कविराय, अकेला रहे बे-अकल.
अकलवान है वही, जोड़ता जगत जो सकल..
Acharya Sanjiv Salil

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एक हुए दोहा यमक: -- संजीव 'सलिल'

एक हुए दोहा यमक:
संजीव 'सलिल'
*
लिए विरासत गंग की, चलो नहायें गंग.
भंग न हो सपना 'सलिल', घोंटें-खायें भंग..
*
सुबह शुबह में फर्क है, सकल शकल में फर्क.
उच्चारण में फर्क से, होता तर्क कु-तर्क..
*
बुला कहा आ धार पर, तजा नहीं आधार.
निरा धार होकर हुआ, निराधार साधार..
*
ग्रहण किया आ भार तो, विहँस कहा आभार.
देय - अ-देय ग्रहण किया, तत्क्षण ही साभार..
*
नाप सके भू-चाल जो बना लिए हैं यंत्र.
नाप सके भूचाल जो, बना न पाए तंत्र..
*
शह देती है मात तो, राह भटकता लाल.
शह पाकर फिर मात पा, हुआ क्रोध से लाल..
*
दह न अगन में दहन कर, मन के सारे क्लेश.
लग न सृजन में लगन से, हर कर हर विद्वेष..
*
सकल स कल कर कार्य सब, स कल सकल मत देख.
अकल अ कल बिन अकल हो, मीन मेख मत लेख..
*
दान नहीं आदान है, होता दान प्रदान.
अगर कहा आ-दान तो, हो न निदान प्रदान..
*
जान बूझकर दे रही, जान आप पर जान.
जान बचाते फिर रहे, जान जान से जान..
*
एक खुशी मुश्किल हुई, सुलभ हुए शत रंज.
सारे सुख-दुःख भुलाकर, चल खेलें शतरंज..
*

सोमवार, 26 सितंबर 2011

एक गीत: गरल पिया है... -- संजीव 'सलिल'

एक गीत:
गरल पिया है...
संजीव 'सलिल'
*
तुमने तो बस गरल पिया है...

तुम संतोष करे बैठे हो.
असंतोष को हमने पाला.
तुमने ज्यों का त्यों स्वीकारा.
हमने तम में दीपक बाला.
जैसा भी जब भी जो पाया
हमने जी भर उसे जिया है
तुमने तो बस गरल पिया है...

हम जो ठानें वही करेंगे.
जग का क्या है? हँसी उड़ाये.
चाहे हमको पत्थर मारे
या प्रशस्ति के स्वर गुंजाये.
कलियों की रक्षा करने को
हमने पत्थर किया हिया है
तुमने तो बस गरल पिया है...

जड़ता वर तुम बने अहल्या.
विश्वामित्र बने हम चेतन.
तुमको गलियाँ रहीं लुभातीं
हमको भाया आत्म निकेतन.
लेना-देना तुम्हें न भाया.
हमने सुख-दुःख लिया-दिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...

हम विषधर के फन पर नाचे,
कभी इंद्र को रहे छकाते.
कभी सुनी मीरा की वाणी
सूर कभी कुछ रहे सुनाते.
जब-जब कोई मिला सुदामा
हमने तंदुल माँग लिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...

तुमने अपना हमें न माना.
तुमको साया लगा पराया.
हमने गैर न तुमको जाना.
हमें गैर लग सगा सुहाया..
तुम मनमोहन को सराहते.
हमको जनगण लगा पिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...
  ***
Acharya Sanjiv Salil

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रविवार, 25 सितंबर 2011

मुक्तिका : फूल हैं तो बाग़ में _संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
फूल हैं तो बाग़ में
-- संजीव 'सलिल'

*

फूल हैं तो बाग़ में कुछ खार होना चाहिए.
मुहब्बत में बाँह को गलहार होना चाहिए.

लयरहित कविता हमेशा गद्य लगती है हमें.
गीत हो या ग़ज़ल रस की धार होना चाहिए..

क्यों डरें आतंक से हम? सामना डटकर करें.
सर कटा दें पर सलामत यार होना चाहिए..


आम लोगों को न नेता-दल-सियासत चाहिए.
फ़र्ज़ पहले बाद में अधिकार होना चाहिए..


ज़हर को जब पी सके कंकर 'सलिल' शंकर बने.
त्याग को ही राग का श्रृंगार होना चाहिए..

दुश्मनी हो तो 'सलिल' कोई रहम करना नहीं.
इश्क है तो इश्क का इज़हार होना चाहिए..
**********


 फायलातुन फायलातुन  फायलातुन फायलुन
( बहरे रमल मुसम्मन महजूफ )
२१२२            २१२२              २१२२         २१२
कफिया: आर (अखबार, इतवार, बीमार आदि)
रदीफ   : होना चाहिये
*
Acharya Sanjiv Salil

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एक हुए दोहा यमक: -- संजीव 'सलिल'

एक हुए दोहा यमक:
-- संजीव 'सलिल'
*
हरि से हरि-मुख पा हुए, हरि अतिशय नाराज.
बनना था हरि, हरि बने, बना-बिगाड़ा काज?
हरि = विष्णु, वानर, मनुष्य (नारद), देवरूप, वानर
*
नर, सिंह, पुर पाये नहीं, पर नरसिंहपुर नाम.
अब हर नर कर रहा है, नित सियार सा काम..
*
बैठ डाल पर काटता, व्यर्थ रहा तू डाल.
मत उनको मत डाल तू, जिन्हें रहा मत डाल..
*
करने कन्यादान जो, चाह रहे वरदान.
करें नहीं वर-दान तो, मत कर कन्यादान..
*
खान-पान कर संतुलित, खा अजवाइन-पान.
सात्विक शुद्ध विचार रख, बन सद्गुण की खान..
*
खिला, न दे तू सुपारी, मीत न करना भीत.
खेली जिसने सु-पारी, उसने पाई जीत..
खिला = खिला दे, खेलने दे -श्लेष.
सुपारी = खाद्य पदार्थ, हत्या हेतु अग्रिम राशि- श्लेष.
सु-पारी = अच्छी पारी.
*
लीक पीटते रह गये, तजी न किंचित लीक.
चक्र प्रगति का थम गया, हवा हवा हुई लीक..
*
धर उधार अधार में, मिलती बिन आधार.
वही धार मंझधार के, मध्य मिली साधार..
*
आम लेट हरदम नहीं, खास नहीं पाबंद.
आमलेट खा रहे हैं, दोनों ले आनंद..
*
भेद रहे दे भेद जो, सकल सुरक्षा चक्र.
छेड़ बंद कर छेड़ दें, उनको जो हैं वक्र..
*
तनखा को तन खा गया, लेकिन मिटी  न भूख.
सूख रहा आनन पिचक, कैसे रहे रसूख..
*************

एक हुए दोहा यमक: --संजीव 'सलिल'

एक हुए दोहा यमक:
संजीव 'सलिल'
*
हरि से हरि-मुख पा हुए, हरि अतिशय नाराज.
बनना था हरि, हरि बने, बना-बिगाड़ा काज?
हरि = विष्णु, वानर, मनुष्य (नारद), देवरूप, वानर
*
नर, सिंह, पुर पाये नहीं, पर नरसिंहपुर नाम.
अब हर नर कर रहा है, नित सियार सा काम..
*
बैठ डाल पर काटता, व्यर्थ रहा तू डाल.
मत उनको मत डाल तू, जिन्हें रहा मत डाल..
*
करने कन्यादान जो, चाह रहे वरदान.
करें नहीं वर-दान तो, मत कर कन्यादान..
*
खान-पान कर संतुलित, खा अजवाइन-पान.
सात्विक शुद्ध विचार रख, बन सद्गुण की खान..
*
खिला, न दे तू सुपारी, मीत न करना भीत.
खेली जिसने सु-पारी, उसने पाई जीत..
खिला = खिला दे, खेलने दे -श्लेष.
सुपारी = खाद्य पदार्थ, हत्या हेतु अग्रिम राशि- श्लेष.
सु-पारी = अच्छी पारी.
*
लीक पीटते रह गये, तजी न किंचित लीक.
चक्र प्रगति का थम गया, हवा हवा हुई लीक..
*
धर उधार अधार में, मिलती बिन आधार.
वही धार मंझधार के, मध्य मिली साधार..
*
आम लेट हरदम नहीं, खास नहीं पाबंद.
आमलेट खा रहे हैं, दोनों ले आनंद..
*
भेद रहे दे भेद जो, सकल सुरक्षा चक्र.
छेड़ बंद कर छेड़ दें, उनको जो हैं वक्र..
*
तनखा को तन खा गया, लेकिन मिटी  न भूख.
सूख रहा आनन पिचक, कैसे रहे रसूख..
*************

हाइकु सलिला:२ - संजीव 'सलिल'

हाइकु सलिला:२
- संजीव 'सलिल'
*
श्रम-सीकर
चरणामृत से है
ज्यादा पावन.
*
मद मदिरा
मत मुझे पिलाना
दे विनम्रता.
*
पर पीड़ा से
अगर न पिघले
मानव कैसे?
*
मैले मन को
उजला तन क्यों
देते हो हरि?
*
बना शंकर
नर्मदा का कंकर
प्रयास कर.
*
मितवा दूँ क्या
भौतिक सारा जग
क्षणभंगुर?
*
स्वर्ग न जाऊँ
धरती माता पर
स्वर्ग बसाऊँ.
*
कौन हूँ मैं?
क्या दूँ परिचय?
मौन हूँ मैं.
*
नहीं निर्वाण
लक्ष्य हो मनुज का
नव-निर्माण.
*
एक है रब
तभी जानोगे उसे
मानोगे जब.
*
ईश स्मरण
अहं के वहम का
हो विस्मरण.
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शनिवार, 24 सितंबर 2011

हाइकु सलिला 1 : संजीव 'सलिल'

हाइकु सलिला 1 :
संजीव 'सलिल'
*
हाइकु धारा
सतत प्रवाहित
छंद है प्यारा.
*
पथ हेरता
हाइकु पपीहरा
स्वाति-बूँद का.
*
सच से जुड़े
नव भंगिमामय
हाइकु मुए.
*
होती चेतन
जड़ दिखती धरा
देती जीवन.
*
बिंदु में सिंधु
देखे सच अदेखा
जीवन रेखा
*
हाथ तो मिले
सुमन नहीं खिले
शिकवे-गिले.
*
करूणा-कुञ्ज
ममता का सागर
भोर अरुणा
*
ईंट-रेट का
मंदिर मनहर
देव लापता.
*
करें आरती
चलिए बहलायें
रोते बच्चे को.
*
हो न अबोला
आत्म-लीन होकर
सुनें मौन को.
*
फ़िक्र न लेश
हाइकु सलिला है
शेष-अशेष.
******
divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

दोहा सलिला: दोहा के सँग यमक का रंग- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दोहा के सँग यमक का रंग-
संजीव 'सलिल'
*
मटकी तो मटकी गिरी,चित छाये चितचोर.
दधि बेचा सिक्के गिने,खन-खन बाँधे कोर.
*
बेदिल हैं बेदिल नहीं,सार्थक हुआ न नाम.
फेंक रहे दिल हर तरफ, कमा रहे हैं नाम..
*
वामा हो वामा अगर, मिट जाता सुख-चैन.
नैन मिले लड़ नैन से, जागे सारी रैन..
*
किस मिस का किस मिस किया, किस मिस कहिये आप?
किसमिस खाकर कीजिये, चिंतन अब चुपचाप..
*
बात करी बेबात तो, बढ़ी बात में बात.
प्रीत-पात पलमें झरे, बिखर गये नगमात..
*
नृत्य-गान आनंद दे, साध रखें सुर-ताल.
जीवन नदिया स्वच्छ रख, विमल रखे सर-ताल..
*
बिना माल पहने नहीं, जो दूल्हा वर-माल.
उसे पराजय दे 'सलिल', कंठ पड़ी जय-माल..
*
हाल पूछते, बतायें, कैसे हैं फिल-हाल?
हाल चू रहा, रह रहे, हँस फिर भी हर हाल..
*
खाल ओढ़कर शे'र की, करता हुआ सियार.
खाल खिंच गयी, दुम दबा, भागा मुआ सियार..
*
हाल-चाल सुधरे नहीं, बिना सुधारे चाल.
जब पड़ती बेभाव तो, लगे हुआ भूचाल..
*
टाल नहीं, तू टाल जा, ले आ बीजा-साल.
बीजा बो इस साल हो, फसल खूब दे माल..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

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सियैटल में झिलमिलाया, "झिलमिल २०११ - हास्य कवि सम्मलेन"

सितम्बर १७, २०११ सियैटल, संयुक्त राज्य अमेरिका. पिछले वर्ष सियैटल में हुए कवि सम्मलेन को मिली आशातीत सफलता को देखते हुए नगरी की सांस्कृतिक संस्था प्रतिध्वनि इस वर्ष पुनः हास्य कवि सम्मलेन का आयोजन किया. हिंदी भाषा का जो स्वरुप कविताओं में उजागर होता है वह अत्यंत आनंद प्रदान करने वाला होता है. सधे हुए कवि सम्मेलनों में प्रस्तुतिकरण के कौशल द्वारा कविताओं की मिठास में चार चाँद लग जाते हैं. यदि बात हास्य कविताओं की हो रही हो तो फिर मिठास और आनंद का एक नाभकीय विस्फोट होता है. सियैटल नगरी में 'झिलमिल २०११ - हास्य कवि सम्मलेन' का आयोजन १७ सितम्बर २०११ को हुआ.  सांस्कृतिक संस्था प्रतिध्वनि की ओर से प्रस्तुत इस कार्यक्रम में दो सौ श्रोताओं नें लगभग चार घंटे तक अनेक चटपटी और झिलमिलाती हुई हास्य कविताओं का रसास्वादन किया.



शहाना नें मां सरस्वती की वंदना कर कार्यक्रम को प्रारंभ किया. इस कवि सम्मलेन में सन फ्रांसिस्को से पधारी अर्चना पंडा, वैंकुवर कनाडा से आये आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी तथा उनकी धर्म पत्नी कांति द्विवेदी. सियैटल नगरी से अंकुर गुप्त, निहित कौल, ज्योति राज, अनु अमलेकर, कृष्णन कोलाड़ी  एवं अभिनव शुक्ल नें अपनी कविताओं का पाठ किया. कार्यक्रम का संचालन अभिनव शुक्ल नें किया. लगातार दूसरे वर्ष आयोजित 'झिलमिल' कवि सम्मलेन में श्रोताओं नें जम कर ठहाके लगाये और श्रेष्ठ कविताओं को भी सराहा. इस आशा के साथ की आने वाले वर्षों में हिंदी भाषा एवं कविताओं की झिलमिलाहट और भी अनेक चेहरों पर मुस्कराहट लेकर आएगी झिलमिल २०११ संपन्न हुआ.


इन्हें भी देखें (झिलमिल संबंधी महत्वपूर्ण कड़ियाँ)
1. कार्यक्रम के कुछ चित्र: https://skydrive.live.com/redir.aspx?cid=887c2bf3efab176b&page=play&resid=887C2BF3EFAB176B%211088"
2. अर्चना पंडा जी का झिलमिलाता हुआ झिलमिल संस्मरण: http://kahanisunoge.blogspot.com/2011/09/blog-post.html
3. झिलमिल २०११ की वेबसाईट: http://pratidhwani.org/jhilmil/

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

श्रीमद भवगत गीता -अध्याय 3Hindi Poetic translation ..by Prof C b Shrivastava'Vidagdh"


श्रीमद भवगत गीता -अध्याय 3
कर्म योग

Hindi Poetic translation ..by Prof C b Shrivastava'Vidagdh"
O B 11 , MPEB Colony ,Rampur , Jabalpur 
9425806252

अध्याय ३

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥

अर्जुन ने कहा-
अगर बुद्धि है कर्म  से अधिक श्रेष्ठ भगवान
तो फिर मुझको कर्म में क्यों फसाँ रहे श्रीमान।।1।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥1॥

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥

उलझे उलझे वाक्य में मोहित सी मम बुद्धि
निश्चित एक बताये , हो जिससे मन की शुद्धि।।2।।

भावार्थ :   आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ॥2॥॥
श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥

भगवान ने कहा-
इस जग में निष्ठायें दो,प्रथम कहे अनुसार
सांख्यों की है ज्ञान में योगी कर्माधार।।3।।

भावार्थ :  श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञान योग' है, इसी को 'संन्यास', 'सांख्ययोग' आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग' है, इसी को 'समत्वयोग', 'बुद्धियोग', 'कर्मयोग', 'तदर्थकर्म', 'मदर्थकर्म', 'मत्कर्म' आदि नामों से कहा गया है।) होती है॥3॥

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥

कर्म न करने मात्र से निष्क्रियता मन जान
न ही कर्म के त्याग से सिद्धि का कर अनुमान।।4।।

भावार्थ :  मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता' है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है॥4॥

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥

बिना कर्म के एक क्षण, कभी न कोई व्यक्ति
प्रकृतिदत्त है कर्म के ,प्रति सबकी अनुरक्ति।।5।।

भावार्थ :  निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है॥5॥

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥

कर्मेन्द्रिय निष्क्रिय मगर मन से है कोई व्यस्त
तो यह मिथ्याचार है, आडंबर मात्र समस्त।।6।।

भावार्थ :  जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है॥6॥

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥

मन संयम कर इंद्रियों पर रखना अधिकार
अनुष्ठान यह ही है सव से श्रेष्ठ प्रकार।।7।।

भावार्थ :  किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है॥7॥॥

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥

अतःनियत सब कर्म कर कर्म अकर्म से श्रेष्ठ
बिना कर्म जीवन भी तो अनुचित और अनिष्ट।।8।।

भावार्थ :   तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥8॥

( यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरूपण )

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥

यज्ञ कर्म के बिना सब कर्म बंध आधार
इससे तू सब कर्मकर यज्ञ धर्म अनुसार।।9।।

भावार्थ :  यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥9॥

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥

यज्ञ सहित सर्जित किया ब्रम्हा ने संसार
कहा यज्ञ से वृद्धि हो,कामनाये हो पार ।।10।।

भावार्थ :   प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो॥10॥

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥

देवो को संतोष दो,देव तुम्हें दें तृप्ति
पारस्परिक प्रभाव से मिले सभी संतुष्टि।।11।।

भावार्थ :  तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥11॥

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥

यज्ञ तृप्ति से देव दे तुमको वांछित दान
केवल खुद जो भोगता वह है चोर समान।।12।।

भावार्थ :  यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है॥12॥

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ॥

यज्ञ से बचे का ही करें लोग सभी उपयोग
आत्म हेतु ही जो  लगे वे है पापी लोग।।13।।

भावार्थ :  यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं॥13॥

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥

अन्न जनित संसार सब, है वर्षा से अन्न
यज्ञ से ही वर्षा सदा, कर्म से यज्ञ प्रसन्न।।14।।
कर्म का उद्रव ज्ञान से ज्ञान है ब्रम्ह प्रसूत
अतः ब्रम्ह है सर्वगत,सतत यज्ञ संभूत।।15।।

भावार्थ :  सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥14-15॥

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥

इस प्रकार इस यज्ञ चक्र को जो न सतत चलाते है
वे इंदिय सुख के अनुयायी केवल पाप कमाते है।।16।।


भावार्थ :  हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥16॥

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥

जो आत्मा में ही रमता है, आत्म तुष्टि ही  पाता है
उसके लिये काम कोई भी शेष नहीं रह जाता है।।17।।

भावार्थ :  परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है॥17॥

संजय उवाच:
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥

कर्मो के करने न करने में कुछ स्वार्थ नहीं होता
वैसे ही उसके जीवन में उसका स्वार्थ नही होता।।18।।

भावार्थ :  उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता॥18॥

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥

अतः काम कर तू अंसग हो,करता रह कर्तव्य मगर
कर विरक्त हो सदा आचरण, चाह परम पद की है गर।।19।।

भावार्थ :  इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है॥19॥

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥

जनक आदि ने कर्मो से ही सिद्धि सफलता पाई है
जनहितकारी शुभ कर्मो ने सच में ख्याति दिलाई है।।20।।

भावार्थ :  जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही
उचित है॥20॥

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

जो करते है श्रेष्ठ लोग छोटे भी वैसा करते हैं
सदा बडों के किये हुये को जग में सब अनुसरते है।।21।।

भावार्थ :  श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु 'लोक' शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।)॥21॥

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥

पार्थ ! मुझे कुछ भी करने का जग में कोई न कारण है
फिर भी कर्म किया करता हूँ,यह मेरा संधारण है।।22।।

भावार्थ :  हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥22॥

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

यदि मैं शायद आलस करके, कर्म रहित हो जाउॅगा
तो मेरे ही पथ पर सारे जग को चलता पाउॅगा।।23।।

भावार्थ :  क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित्‌ मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥23॥

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥

मेरे कर्म न करने से यह जग विनष्ट हो जायेगा
मुझे दोष देगी यह दुनियाँ,सिर्फ बुरा कहलाउॅगा।।24।।

भावार्थ :  इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥24॥

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ॥

हे भारत! आसक्त भाव से ज्यों अज्ञानी करते है
वैसे ही आसक्ति छोडकर ज्ञानी कर्म बरतते है।।25।।

भावार्थ :  हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे॥25॥

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌ ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ॥

अज्ञानी की लिप्ति बुद्धि में ज्ञानी कभी न भेद करें
स्वतः समत्तव बुद्धि से अपने निश्चित सारे कर्म करें।।26।।

भावार्थ :  परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए॥26॥

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥

प्राकृत गुण सूत्रों के द्वारा कर्म सभी खुद होते है
किंतु मूढ़ जन अंहकार से कहते वे यह करते हैं।।27।।


भावार्थ :  वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है॥27॥

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

गुण कर्मो के तत्व जानने वाले ,न्यारे रहते है
निरासक्त रह, प्रकृति कार्य करती है ऐसा कहते हैं।।28।।

भावार्थ :  परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम 'गुण विभाग' है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है।) के तत्व (उपर्युक्त 'गुण विभाग' और 'कर्म विभाग' से आत्मा को पृथक अर्थात्‌ निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥28॥

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥

प्रकृति गुण जो नहीं समझते वही लिप्ति वश होते है
मंद बुद्धि अज्ञानी जन को,समझदार सह ढोते है।।29।।

भावार्थ :  प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे॥29॥

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥

मुझमें हो अध्यात्म चित्त तू कर्म सभी मम अर्पण कर
आशा,ममता त्याग दुःख तज युद्ध के लिेये समर्पण कर।।30।।

भावार्थ :  मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर॥30॥

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ॥

श्रद्धा रख जो ,दोष दृष्टि तज,सदा कर्म निज करते है
मेरे मत से दोष मुक्त हो वे निश्चिंत बरतते हैं।।31।।

भावार्थ :  जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥31॥

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥

मेरे मत अनुसार लोग वे द्वेष द्वंद जो रखते है
वे ही मूढ सफल न होते समझ स्वयं से डरते है।।32।।

भावार्थ :  परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥32॥

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥

अपनी प्रकृति अनुसार कर्म सब ज्ञानी जन भी करते है
हठ क्या करेगा सारे प्राणी प्रकृति भाँति ही चलते है।।33।।

भावार्थ :  सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान्‌ भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा॥33॥

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥

इंद्रिय के इंद्रिय हित प्रायःराग द्वेष स्वाभाविक है
इंद्रिय के वश व्यक्ति न हो ये शत्रुरूप से भावित है।।34।।

भावार्थ :  इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं॥34॥

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥

अपना कर्म गुण रहित हो तो भी अपना हितकारी है
औरों का तो धर्म भयंकर , निज में मरण सुखारी है।।35।।

भावार्थ :  अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥

( काम के निरोध का विषय )

अर्जुन उवाचः
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥

अर्जुन ने पूंछा-
इच्छा विपरीत मनुज क्यों पाप आचरण करता है ?
लगता है कोई करा रहा है,वृत्ति ये कैसे धरता है।।36।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥॥
श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥

भगवान ने कहा-
काम और ये क्रोध,मनुज के कर्मो के दुष्प्रेरक है
अति बुभुक्षु ओै" पापी हैं ये बडे शत्रु संप्रेषक है।।37।।

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37॥

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥

अग्नि धुयें से मल से दर्पण, गर्भ श्र्लेष्म संवेष्ठित ज्यों
मनो विकारों के जालों में ज्ञान,पार्थ! आच्छादित त्यों।।38।।

भावार्थ :  जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥

हे कुन्तीसुत,सबके बैरी, नित अतृप्त अग्नि से ये
काम,क्रोध ज्ञानी के ज्ञान को अनचाहे से ढक लेते।।39।।

भावार्थ :  और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥

इंद्रिय मन औ" बुद्धि काम के प्यारे ठौर ठिकाने हैं
जो आच्छादित कर लेते खुद,ज्ञान को नित मनमाने हैं।।40।।

भावार्थ :  इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। ॥40॥

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥

इससे तू इंद्रिय संयम कर , भरत श्रेष्ठ ! पहले सबसे
ज्ञान और विज्ञान विनाशक,पापी का हो नाश जिससे।।41।।

भावार्थ :  इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल॥41॥

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥

तन से श्रेष्ठ इंद्रियाँ हैं, इंद्रिय से मन,मन से बुद्धि
और बुद्धि से श्रेष्ठ है वह आत्मा जिससे अंतर्शुद्धि।।42।।

भावार्थ :  इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥

अतः बुद्धि से श्रेष्ठ समझकर आत्मा को अपने बल से
अर्जुन!दुर्जय काम शत्रु का हनन करो श्रम निश्चल से।।43।।

भावार्थ :  इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल॥43॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥3॥






दोहा सलिला: गले मिले दोहा-यमक --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा-यमक
संजीव 'सलिल'
*
गले मिले दोहा-यमक, भूले सारे भेद.
भेद न कहिये किसी, हो जीवन भर खेद..
*
कवितांजलि स्वीकारातीं, माँ शारद उपहार.
कवितांजलि कविगुरु करें, जग को बंदनवार..
*
कहें नीर जा मत कभी, मिट न सकेगी प्यास.
मिले नीरजा जब कभी, अधरों छाये प्यास..
*
चकमक घिस पैदा करे, अब न कोई जन आग.
चकमक देखे सब जगत, मन में भर अनुराग..
*
तुला न मन से मन 'सलिल', तौल सके तो तौल.
बात पचाना सीखिए, पड़े न मन में खौल..
*
जान न जाती जान सँग, जान न हो बेजान.
'सलिल' कौन अनजान है, कहिये कौन सुजान??
*
समर अमर होता नहीं,स-मर सकल संसार.
भ्रमर 'सलिल' से बच रहें, करे भ्रमर गुंजार..
*
हल की जब से पहेली, हलकी तबियत मीत.
मल मल मलमल धो पहन, यही जगत की रीत..
*
कर संग्रह कर ने किया, फैलाकर कर आज.
चाकर ने जाकर कहा:,आकर पहनें ताज..
*
सर ने सर को सर नवा, माँगा यह आशीष.
अवसर पा सर कर सकूँ, भव-बाधा जगदीश..
*
नीरज से रजनी कहे:, तात! अमर हैं गीत.
नीरज पा सजनी कहे, शतदल सी हो प्रीत..
*
Acharya Sanjiv Salil

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बुधवार, 21 सितंबर 2011

सामयिक चर्चा: कायस्थ कौन हैं? -- संजीव वर्मा 'सलिल'

सामयिक चर्चा: कायस्थ कौन हैं? -- संजीव वर्मा 'सलिल'

सामयिक चर्चा: 
कायस्थ कौन हैं?
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जिसकी काया में ''वह'' (परात्पr परम्ब्रम्ह जो निराकार है, जिसका चित्र गुप्त है, जो हर चित्त में गुप्त है) स्थित है, जिसके निकल जाने पर कहें कि 'मिट्टी' जा रही है- वह कायस्थ है. इस सृष्टि में उपस्थित सभी चर-अचर, दृष्ट-अदृष्ट कायस्थ है. व्यावहारिक या सांसारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते और मानते हैं वे 'कायस्थ' है.

इसी लिए कहा गया "कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात'' जिस प्रकार गंगा में स्नान से सही नदियों में स्नान का सुख मिल जाता है, वैसे ही कायस्थ के घर में भोजन करने से हर जाति के घर में भोजन करने अर्थात सबसे रोटी-बेटी सम्बन्ध की पात्रता हो जाती है.
*
'गोत्र' तथा 'अल्ल'

'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे भी पूछे जाते हैं.

स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था. इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ. ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए. इसी कारण विभिन्न जातियों में एक ही गोत्र मिलता है चूंकि ऋषि के पास विविध जाती के शिष्य अध्ययन करते थे. आज कल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रोबेर्त्सों कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए. आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं. शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे. अतः, उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था.

एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं. 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से सम्बंधित होता है. एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित मन जाता है किन्तु आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते. हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं. हमारी अगर'' 'उमरे' है. मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति मिला है. मेरे फूफा जी की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है. उनके पूर्वज बैरकपुर से नागपुर जा बसे.
प्रस्तुतकर्ता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
 समय और परिस्थितियों के शिकार कायस्थ जन

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
समस्त सृष्टि के निर्माता परात्पर परमब्रम्ह निर्विकार-निराकार हैं. आकार न होने से उनका चित्र गुप्त है. जिस अनहद नाद में योगी लीन रहते हैं, वह ॐ ही सकल सृष्टि का जन्दाताजन्मदाता, पालक, तारक है. निराकार चित्र गुप्त जब आकार धारण करते हैं तो सृष्टि ब्रम्हांड के जन्मदाता ब्रम्हा, पालक विष्णु व तारक शिव के रूप में प्रथम ३ कायस्थ अवतार लेते हैं. 'कायास्थितः सः कायस्थः'' अर्थात वह निराकार परमशक्ति जब आकार (काया) धारण करती है तो काया में स्थित होने के कारण कायस्थ होता है.

'ब्रम्हम जानाति सः ब्राम्हणः' जो ब्रम्ह को जानते हैं वे ब्राम्हण हैं अर्थात जिनका काम सृष्टि उत्पत्ति के गूढ़ रहस्य जैसे जटिल विषयों को जानना और ज्ञान देना है वे ब्राम्हण हैं. इसी तरह जो रक्षा करते हैं वे क्षत्रिय, जो व्यापार करते हैं वे वैश्य तथा जो सेवा कर्म करते हैं वे शूद्र हैं. कायस्थ वे हैं जो ये सभी कर्म समान भाव से करते हैं.

जात कर्म तथा जातक कथाओं में 'जात' शब्द का अर्थ जन्म लेना है. व्यक्ति जिस क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त कर उसे व्यवसाय रूप में अपनाता है, उस क्षेत्र में उसका जन्म लेना माना जाता है. कहावत है 'कायथ घर भोजन करे, बचहु न एकौ जात' अर्थात कायस्थ के घर भोजन करने से अन्य किसी जात के घर भोजन करना शेष नहीं रहता, कायस्थ के घर खाया तो हर जात में खा लिया अर्थात कायस्थ की गणना हर वर्ण में है, वह किसी एक वर्ण का नहीं है. जो चारों वर्णों के कार्य समान दक्षता से करने में समर्थ होते हैं वे किसी अन्य की तुलना में अधिक योग्य होने से ''कायस्थ'' कहे गए.

सृष्टि का कण-कण कायायुक्त है. अतः, सभी चर-अचर, दृष्ट-अदृष्ट कायस्थ, जीव-अजीव हैं.

आरम्भ में कायस्थों ने अपने आराध्य श्री चित्रगुप्त का न तो कोई चित्र या मूर्ति बनाई, न मंदिर या मठ, न व्रत-त्यौहार, न कथा-उपवास. वे जानते थे कि हर दैवी शक्ति श्री चित्रगुप्त का अंश है, किसी भी रूप में पूजें पूजा चित्रगुप्त की ही होती है. कायस्थों में विवाहादि प्रसंगों में इसी कारण जन्मना जाति प्रथा मान्य कट्टरता से नहीं रही. कालांतर में कायस्थों के आराध्य निराकार चित्रगुप्त के साकार रूप की कल्पना सत्यनारायण के रूप में हुई जिसे चुटकी भर आटे के साथ कोई गरीब से गरीब व्यक्ति भी पूज सकता था, जो राजा को भी दण्डित कर सकते थे.

कायस्थों में अनेक श्रेष्ठ पंडित, वैद्य, ज्योतिष, संत, योद्धा, व्यापारी, शासक, प्रशासक आदि होने का कारण यही है कि वे चारों वर्णों को अपनाते थे. किसी पिता के ४ पुत्र अपनी रूचि या योग्यता के आधार पर चारों वर्णों में व्यवसाय कर सकते थे. चारों वर्णों में रोती-बेटी के सम्बन्ध स्थापित होना प्रतिबंधित न था. कालांतर में महर्षि व्यास द्वारा श्रुति-स्मृति पर आधारित व्यवस्था को ज्ञान का संहिताकरण कर व्यासपीठ के संचालकों के माध्यम से संचालित करने पर गुरु गद्दी पर जन्मना औरस पुत्र या कर्मणा श्रेष्ठ मानस पुत्र के आसीन होने के प्रश्न खड़े हुए. कायस्थ कर्म को देवता मानते थे तथा निरपेक्ष कर्मवाद के समर्थक थे. उन्होंने मानस पुत्रों (श्रेष्ठ शिष्य) को योग्य पाया जबकि ब्राम्हणों ने जन्मना औरस पुत्र को. यही स्थिति राज गद्दी के सम्बन्ध में भी हुई.

कायस्थ कर्म विधान को मानते थे अर्थात जीव का जन्म पूर्व जन्म के शेष कर्मों का फल भोगने के लिये हुआ है. केवल सत्कर्मों से ही जीव मुक्त हो सकता है. किसी देव की पूजा, उपवास, कर्म काण्ड, कथा श्रावण, भोग-प्रसाद, गण्डा-ताबीज, मन्त्र-तंत्र, नाग-रत्न आदि से कर्म-फल से मुक्ति नहीं पाई जा सकती. ब्राम्हणों ने परिश्रम और योग्यता के स्थान पर कर्मकांड और जन्माधारित विरासत का पक्ष लिया. गरीब, पीड़ित, अभावग्रस्त आम लोगों के मन में धर्म और ईश्वर संबंधी भय अनेक कपोल कल्पित कथाएँ सुनाकर पैदा के दिया तथा निदान स्वरूप कर्म काण्ड, व्रत, उपवास, दान आदि बताये जिनमें स्वयं (ब्राम्हणों) को ही दान का प्रावधान था.

राज गद्दी पर योग्यता के आधार पर सभी लोगों में से योग्यतम को चुनने के स्थान पर राजा के प्रिय या ज्येष्ठ पुत्र को चुनने की परंपरा प्रारंभ कर ब्राम्हण राज परिवार के प्रिय हुए. यहाँ तक कि स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि भी ब्राम्हणों ने खुद को घोषित कर दिया. संतानहीन राजाओं की रानियों को नियोग के माध्यम से ब्राम्हण पुत्र भी देने लेगे. राजा का विवाह होने पर रानी को पहले ब्राम्हण के साथ जाना होता था तथा राजा ब्राम्हण को शुल्क देकर रानी को प्राप्त करता था.

कायस्थ सता से जुड़े रहने से भोग-विलास के आदी, षड्यंत्रों के शिकार तथा निरपेक्ष सत्य कहने के कारण सत्ताधारियों के अप्रिय हुए. स्वामिभक्त होने के कारण वे मारे भी गए. ब्राम्हणों ने राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना. जब जो राजा आया ब्राम्हण उसे ही मान्यता देते रहे, जबकि कायस्थ अपनी निष्ठा बदल नहीं सके. कर्मकांड की बढ़ती प्रतिष्ठा के कारण ब्राम्हण समाज में पूज्य हो गए जबकि कायस्थ किसी एक वर्ण या जाति से न जुड़ने के कारण उपेक्षित हो गए. प्रतिभा के धनी तथा बलिदानी होने पर भी कायस्थ सत्तासीन नहीं हो सके. 

आधुनिक काल में श्री जवाहरलाल नेहरु, डॉ, राजेन्द्र प्रसाद तथा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को देखें. प्रथम की तुलना में शेष दोनों की प्रतिभा, योग्यता, समर्पण, बलिदान बहुत अधिक होने पर भी उनका प्राप्य अत्यल्प रहा. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नेहरु के कड़े विरोध के बाद राष्ट्रपति बने किन्तु पश्चातवर्ती राजनीति में उनके किसी स्वजन-परिजन को कोई स्थान न मिला जबकि नेहरु का वंश न होने पर भी वे और उनके स्वजन कोंग्रेस और सत्ता पर आसीन रहे. नेताजी के हिस्से में केवल संघर्ष, त्याग, बलिदान ही आया.

अन्यत्र भी कायस्थों की नियति ऐसी ही रही. कायस्थ व्यक्तिगत मूल्यपरक जीवनमूल्यों को जीता है जबके अन्य वर्ण समूह्परक हितों को साधते हैं. लोकतंत्र में समूह-नायक धोबी के आक्षेप पर राम भी सीता को त्यागने पर विवश हो गए थे. कायस्थ में समूह निर्माण का संस्कार ही नहीं है तो समूहगत चेतना या समूह के हितों का संरक्षण का प्रश्न ही नहीं उठता. इसीलिये वह संगठित नहीं हो पाता, न संगठित हो सकेगा. सभी स्टारों पर कायस्थ सभाएं और संस्थाएं असफल हुईं हैं और होती रहेंगी. ऐसा नहीं है कि इनमें योग्य, समर्पित, बलिदानी या संपन्न नेतृत्व नहीं आया या लोग नहीं जुड़े या सुनियोजित कार्यक्रम और नीतियां नहीं बनीं. यह सब होने के बाद भी परिणाम शून्य हुआ.

कायस्थ न तो व्यक्तिपरक रहा, न समष्टिगत हो सका. उदारता-संकीर्णता, साक्षरता-नासमझी, ज्ञान की प्रचुरता-लक्ष्मी का अभाव, दानवृत्ति का ह्रास, अनुकरण करने की भावना का अभाव तथा सामूहिक निर्णय या गतिविधि के प्रति अरुचि ने कायस्थों को उनके मूल आधार से अलग कर दिया और किसी नए विचार को वे अपना नहीं सके. आज की बदलती परिस्थिति में कायस्थों के अपनी मूलवृत्ति विश्व को कुटुंब मानकर जन्मना जाति को ठुकराने, योग्यता और गुण के आधार पर अंतरजातीय विवाह सम्बन्ध करने, आर्थिक गतिविधिपरक समूह बनाने और संस्थाएँ चलाने, सेवावृत्ति पर उद्योग और राजनीति को वरीयता देने, परिश्रम और लगन के साथ कर्म को आराध्य मानने के अपनाना होगा तभी वे व्यक्तिगत रूप से समृद्ध, सामाजिक रूप से संगठित तथा सांस्कृतिक रूप से संपन्न हो सकेंगे. उन्हें स्वयं को विश्व मानव के रूप में ढालना होगा तथा विश्व साक्षरता, विश्व शांति, विश्व न्याय तथा विश्व समानता के ध्वजवाहक बनकर दुनिया के कोने-कोने में जाना और छाना होगा.

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चित्रगुप्त महिमा - आचार्य संजीव 'सलिल'

चित्रगुप्त महिमा - आचार्य संजीव 'सलिल'

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चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।

विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।

कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।

वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, नेह नर्मदा नाद।

'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।

जो काया को मानते, परमब्रम्ह का अंश।
'सलिल' वही कायस्थ हैं, ब्रम्ह-अंश-अवतंश।

निराकार परब्रम्ह का, कोई नहीं है चित्र।
चित्र गुप्त पर मूर्ति हम, गढ़ते रीति विचित्र।

निराकार ने ही सृजे, हैं सारे आकार।
सभी मूर्तियाँ उसी की, भेद करे संसार।

'कायथ' सच को जानता, सब को पूजे नित्य।
भली-भाँति उसको विदित, है असत्य भी सत्य।

अक्षर को नित पूजता, रखे कलम भी साथ।
लड़ता है अज्ञान से, झुका ज्ञान को माथ।

जाति वर्ण भाषा जगह, धंधा लिंग विचार।
भेद-भाव तज सभी हैं, कायथ को स्वीकार।

भोजन में जल के सदृश, 'कायथ' रहता लुप्त।
सुप्त न होता किन्तु वह, चित्र रखे निज गुप्त।

चित्र गुप्त रखना 'सलिल', मन्त्र न जाना भूल।
नित अक्षर-आराधना, है कायथ का मूल।

मोह-द्वेष से दूर रह, काम करे निष्काम।
चित्र गुप्त को समर्पित, काम स्वयं बेनाम।

सकल सृष्टि कायस्थ है, सत्य न जाना भूल।
परमब्रम्ह ही हैं 'सलिल', सकल सृष्टि के मूल।

अंतर में अंतर न हो, सबसे हो एकात्म।
जो जीवन को जी सके, वह 'कायथ' विश्वात्म।
************************************
प्रस्तुतकर्ता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मुक्तिका: सामने आँखों के... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
सामने आँखों के...
संजीव 'सलिल'
*
सामने आँखों के सारे दिन सुहाने आ गये.
तुमको देखा याद मिलने के बहाने आ गये..
*
गगन-पनघट, दामिनी के रूप की छवि देखने
मेघ यायावर लिये लोटा नहाने आ गये..
*
मिलन के युग पलों से कब कट गये किसको पता.
विरह के पल युगों से जी को दहाने आ गये..
*
जब हुई बोनी न तब जिनका पता थे खेत पर-
वही लेकर लट्ठ फसलों को गहाने आ गये..
*
तुम नहीं यदि साथ तो जग-जिंदगी है बेमजा.
साथ पाकर 'सलिल' जन्नत के मुहाने आ गये..
*
Acharya Sanjiv Salil

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मंगलवार, 20 सितंबर 2011

नवगीत: हवा में ठंडक... --संजीव 'सलिल'

नवगीत
हवा में ठंडक...
संजीव 'सलिल'
*

हवा में ठंडक

बहुत है...


काँपता है

गात सारा

ठिठुरता

सूरज बिचारा.

ओस-पाला

नाचते हैं-

हौसलों को

आँकते हैं.

युवा में खुंदक

बहुत है...



गर्मजोशी

चुक न पाए,

पग उठा जो

रुक न पाए.

शेष चिंगारी

अभी भी-

ज्वलित अग्यारी

अभी भी.

दुआ दुःख-भंजक

बहुत है...



हवा

बर्फीली-विषैली,

नफरतों के

साथ फैली.

भेद मत के

सह सकें हँस-

एक मन हो

रह सकें हँस.

स्नेह सुख-वर्धक

बहुत है...



चिमनियों का

धुँआ गंदा

सियासत है

स्वार्थ-फंदा.

उठो! जन-गण

को जगाएँ-

सृजन की

डफली बजाएँ.

चुनौती घातक

बहुत है...


नियामक हम

आत्म के हों,

उपासक

परमात्म के हों.

तिमिर में

भास्कर प्रखर हों-

मौन में

वाणी मुखर हों.

साधना ऊष्मक

बहुत है...

**********
Acharya Sanjiv Salil

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बोध कथा: शब्द और अर्थ -- संजीव 'सलिल'

बोध कथा:
शब्द और अर्थ 
संजीव 'सलिल'
*
शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त होने पर चैन की साँस ली और कमर सीधी करने के लिये लेटा ही था कि काम करने की मेज पर कुछ हलचल सुनाई दी. वह मन मारकर उठा, देखा मेज पर शब्द समूहों में से कुछ शब्द बाहर आ गये थे. उसने पढ़ा - वे शब्द थे प्रजातंत्र, गणतंत्र, जनतंत्र और लोकतंत्र .

हैरान होते हुए कोशकार ने पूछा- ' अभी-अभी तो मैंने तुम सबको सही स्थान पर रखा था, तुम बाहर क्यों आ गये?'

' इसलिए कि तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे सरासर ग़लत लगते हैं. एक स्वर से सबने कहा.

'एक-एक कर बोलो तो कुछ समझ सकूँ.' कोशकार ने कहा. 

'प्रजातंत्र प्रजा का, प्रजा के लिये, प्रजा के द्वारा नहीं, नेताओं का, नेताओं के लिये, नेताओं के द्वारा स्थापित शासन तंत्र हो गया है' - प्रजातंत्र बोला.

गणतंत्र ने अपनी आपत्ति बतायी- ' गणतंत्र का आशय उस व्यवस्था से है जिसमें गण द्वारा अपनी रक्षा के लिये प्रशासन को दी गयी गन का प्रयोग कर प्रशासन गण का दमन जन प्रतिनिधियों कि सहमती से करते हों.'

' जनतंत्र वह प्रणाली है जिसमें जनमत की अवहेलना करनेवाले जनप्रतिनिधि और जनगण की सेवा के लिये नियुक्त जनसेवक मिलकर जनगण की छाती पर दाल दलना अपना संविधान सम्मत अधिकार मानते हैं. '- जनतंत्र ने कहा.

लोकतत्र ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बताया- 'लोकतंत्र में लोक तो क्या लोकनायक की भी उपेक्षा होती है. दुनिया के दो सबसे बड़ा लोकतंत्रों में से एक अपने हित की नीतियाँ बलात अन्य देशों पर थोपता है तो दूसरे की संसद में राजनैतिक दल शत्रु देश की तुलना में अन्य दल को अधिक नुकसानदायक मानकर आचरण करते हैं.' - लोकतंत्र की राय सुनकर कोशकार स्तब्ध रह गया.

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सामयिक रचना: मनमोहना बड़े झूठे... --संजीव 'सलिल'

सामयिक रचना:                                                                            
मनमोहना बड़े झूठे...
--- संजीव 'सलिल'
*
सरल सहज सज्जन दिखते थे,
इसीलिये हम ठगा गये हैं.
आँख मूँदकर किया भरोसा -
पर वे ठेंगा दिखा गये हैं..
हरियाली बोई पा ठूंठे...
*
ओबामा के मन भाये हैं.
सोच-सोचकर इतराये हैं.
कौन बताये इन्हें आइना-
ममता बिन ढाका धाये हैं.
बंधे सोनिया खूंटे...
*
अर्थशास्त्री कहे गये हैं.
अनर्थशास्त्री हमें लगे हैं.
मंहगाई से नयन लड़ाये-
घोटालों के प्रेम पगे हैं.
अन्ना से हैं रूठे...
*

Acharya Sanjiv Salil

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सोमवार, 19 सितंबर 2011

श्रीमद्भवगत् गीता ,अध्याय 2,हिन्दी पद्यानुवाद ..द्वारा .प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव

श्रीमद्भवगत् गीता
अध्याय 2
हिन्दी पद्यानुवाद
द्वारा .प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव
९४२५८०६२५२

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌ ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥

साँख्य योग
संजय ने कहा-
    सजल नयन आकुल हदय मन से दुखित महान
    ऐसे अर्जुन से सहज , बोले श्री भगवान।।1।।

भावार्थ :  संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥
श्रीभगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌ ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।
भगवान ने कहा-
    जो न उचित है वीर को जो देती अपकीर्ति
    असमय,बाधक स्वर्ग की अर्जुन यह क्या रीति ?।।2।।
  
भावार्थ :  श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है॥2॥

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥

पार्थ ! न कायर तुम बनो ,अनुचित यह व्यवहार
        तज दुर्बलता हदय की , हो लड़ने तैयार।।3।।

भावार्थ :  इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥3॥
अर्जुन उवाच

कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥

अर्जुन ने कहा-
    भीष्म द्रोण गुरू पूज्य हैं ,  करने को संहार
    रण में बाणों से उन्हीं का,  कैसा प्रतिकार ? ।।4।।


भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥4॥

गुरूनहत्वा हि महानुभावा-
ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌ ॥

भीख माँगना -
    भीख माँग खाना भला,इस जग में महाराज
    गुरूजन वध के बाद क्या , रूधिर सिक्त साम्राज्य ?।।5।।

भावार्थ :  इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥5॥

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥

समझ न आता उचित क्या !  कल जीतेगा कौन।
जिन्हे मारना पाप , वे खड़े युद्ध हित मौन।।6।।
  
भावार्थ :  हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं॥6॥

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥

हीन भाव से व्यापत है मेरा वीर स्वभाव
    शरण शिष्य हूँ, क्या उचित मुझे नाथ समझाव।।7।।

भावार्थ :  इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए॥7॥

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥

क्योंकि सूझता अब नहीं,मुझको कोई उपाय
मन का ताप न मिटेगा,स्वर्ग राज्य भी पाय।।8।।

भावार्थ :   क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥8॥

संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥

ऐसा कह श्री कृष्ण से अर्जुन हो चुपचाप
    नहीं लडूँगा मैं प्रभो ! मन में भर संताप।।9।।

भावार्थ :   संजय बोले- हे राजन्‌! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान्‌ से 'युद्ध नहीं करूँगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए॥9॥

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥

तब सेनाओं बीच में,दुखी सखा को जान
हँसते से, हे भारत !  बोले श्री भगवान।।10।।

भावार्थ :   हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले॥10॥

( सांख्ययोग का विषय )
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥

    जिनका शोक न चाहिये उनका शोक महान
    व्यर्थ बातें बडी तेरी , हो जैसे विद्धान।।11।।

भावार्थ :  श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते॥11॥

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥

मैं तुम राजा सभी,न थे,न कोई काल
और न होंगे फिर कभी यह भी नहीं है हाल।।12।।

भावार्थ :   न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे॥12॥

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥

बचपन,यौवन,वृद्धपन ज्यों शरीर का धर्म
वैसे ही इस आत्मा का है हर युग का कर्म।।13।।

भावार्थ :  जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।13॥

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥

बाह्य प्रकृति सुख दुख अनुभवदायी
 ये अनित्य अनिवार्य हैं इसे सहो हे भाई ।।14।

भावार्थ :  हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर॥14॥

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥

    जिन्हें दुखी करते नहीं ये परिवर्तन पार्थ
    वही व्यक्ति जीवन अमर , जीते हैं निस्वार्थ।।15।।

भावार्थ :  क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥15॥

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥

असत कभी रहता नहीं,सत का कभी अभाव
तत्व ज्ञानियों का यही निश्चित अंतिम भाव।।16।।
  
भावार्थ :  असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥16॥

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌ ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥

वह अविनाशी अमर है , जग जिसका निर्माण
    उसे मिटा सकता नहीं , कोई निश्चित जान।।17।।

भावार्थ :  नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है॥17॥

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥

नाशवान है देह यह , आत्मा अमर अपार
इससे उठ औ"युद्धहित,अर्जुन हो तैयार।।18।।
  
भावार्थ :   इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥18॥

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌ ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥

जो इसको हन्ता या कि , मृत करते अनुमान
    न मरती ,न मारती,उनका है अज्ञान।।19।।

भावार्थ :   जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है॥19॥

न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
आत्मा शाश्वत ,अज अमर,इसका नहिं अवसान
मरता मात्र शरीर है , हो इतना अवधान।।20।।
  
भावार्थ :   यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥20॥

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌ ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌ ॥

अविनाशी अज सतत जो,उसका कहाँ विनाश
    उसके मारण-मरण का झूठा है विश्वास।।21।।

भावार्थ :   हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?॥21॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

जीर्ण वसन ज्यों त्याग नर , करता नये स्वीकार
त्यों ही आत्मा त्याग तन नव गहती हर बार।।22।।
  
भावार्थ :   जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है॥22॥

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥

शस्त्र न छेदन कर सके,अग्नि न सके जलाय
    जल न गीला कर सके,पवन न सके उड़ाय ।।23।।

भावार्थ :   इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता॥23॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥

यह अच्छेद्य,अक्लेद्य है,अमर सर्व परिव्याप्त
अचल सनातन अलख है स्वयं आप में आप्त।।24।।

भावार्थ :   क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है॥24॥

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥॥

अविकारी,अव्यक्त है,तथा अचिन्त्य अपार
इससे इसके शोक का नहीं कोई आधार।।25।।

भावार्थ :   यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं
है अर्थात्‌ तुझे शोक करना उचित नहीं है॥25॥

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌ ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥

फिर फिर इसको जन्मता ओै मरता भी जान
तुम्हीं कहो हे वीर है दुख का कोई ध्यान।।26।।
  
भावार्थ :   किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है॥26॥

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

जो भी लेता जन्म है ध्रुव उसका अवसान
    इससे जो निश्चित नियम उसमें क्या दुख भान।।27।।

भावार्थ :   क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥27॥

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥

निराकार जो पूर्व में,मध्य में रह साकार
निराकार होते पुनः तो क्या दुख-आधार।।28।।
  
भावार्थ :   हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?॥28॥

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌ ॥

अचरज से कोई देखता,कहता सुनता कोई
    किन्तु बडा आश्चर्य यह जान न पाया कोई।।29।।

भावार्थ :   कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता॥29॥

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

सब शरीर में आत्मा सतत अमर विख्यात
इससे कोई शोक का कारण नहीं है तात।।30।।

भावार्थ :   हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है॥30॥

( क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण )
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥

मन में विचलित हो न तू,अपना धर्म विचार
    क्षत्रिय का तो धर्म है युद्ध ओर प्रतिकार।।31।।

भावार्थ :  तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥31॥

यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥

अनायास ही हैं खुले तुझे स्वर्ग के द्वार
भाग्यवान क्षत्रिय ही यह पा पाते उपहार।।32।।
  
भावार्थ :   हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं॥32॥

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥

यदि तू नहीं करेगा यह धर्म समय संग्राम
    तो अपयश देगा तुझे यही "पाप का काम" ।।33।।

भावार्थ :  किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ॥33॥

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-र्मरणादतिरिच्यते ॥

दीर्घ काल तक करेगें लोग तुझे बदनाम
भले व्यक्ति को,मृत्यु से अधिक दुखद यह काम।।34।।
  
भावार्थ :  तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है॥34॥

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥

महारथी जो समझते , तुझको वीर महान
    तुझे हटे रणभूमि से देंगे क्या सम्मान ?।।35।।

भावार्थ :  और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥35॥

अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥

शत्रु निन्द्य शब्दावली का कर घृणित प्रयोग
करने तव अपकीर्ति का पायेंगे संयोग।।36।।

भावार्थ :  तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?॥36॥

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥

उठ निश्चय कर जीतने का खोया साम्राज्य
    मृत्यु हुई भी तो खुला तुझे स्वर्ग का राज्य।।37।।

भावार्थ :  या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा॥37॥

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥

सुख दुख को सम मान कर लाभ हानि सम जान
धर्म कार्य है युद्ध, उठ , हार औ" जीत समान।।38।।

भावार्थ :   जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥38॥

( कर्मयोग का विषय )

एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥

सांख्य योग यह,सुन जरा बुद्धियोग की बात
    सुन अर्जुन! जिससे न हो तुझे कोई व्याघात।।39।।

भावार्थ :  हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के (अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखें।) विषय में सुन- जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥39॥

यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥

किये गये हर कर्म का होता कभी न नाश
थोड़ा सा भी धर्म नित करता पाप विनाश ।।40।।

भावार्थ :   इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥40॥

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥

    शुद्ध कर्म की बुद्धि एक होती सुदृढ महान
    अकर्मण्यता है पालती कई बुद्धि अज्ञान।।41।।

भावार्थ :  हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं॥41॥

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌ ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥

वेदों पर वार्तायें मधु करते जो विद्वान
उससे अधिक न और कुछ कर लेते अनुमान।।42।।
    जन्मकर्म फलदायी ले स्वर्ग प्राप्ति की चाह
    भोग-ऐश्वर्य क्रियाओे की करते है परवाह।।43।।
ऐसे भोगासक्त की कोई न स्थिर बात
 समय समय पर बेतुकी करते रहते बात।।44।।

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात्‌ दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती॥42-44॥

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥

    त्रिगुण विषय से युक्त है वेद तू त्रिगुणातीत
    हो,अर्जुन निद्र्वन्द औ मन से भावातीत।।45।।

भावार्थ :  हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो॥45॥

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥

जो संभव है कुयें से वह ही दे तालाब
त्यों वेदों में जो सुलभ ब्रम्हज्ञान में आप।।46।।

भावार्थ :  सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है॥46॥

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

कर्मों पर अधिकार तव हाथ में न परिणाम
    फल से रह निरपेक्ष नित रख कर्मो से काम।।47।।

भावार्थ :  तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥47॥
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥

योगी हो कर कर्म कर,सकल लिप्ति को त्याग
सम दृष्टि ही योग है न कि जीतहार से राग।।48।।


भावार्थ :   हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।) ही योग कहलाता है॥48॥

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥

    योग श्रेष्ठ है ,  नीच है फल इच्छा से काम
    बुद्धि बना तू योग की मन पर लगा लगाम।।49।।

भावार्थ :   इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात्‌ बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं॥49॥

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ॥

बुद्धिमान शुभ-अशुभ से रहता कोसों दूर
अतः युद्ध कर योग है कर्मो से भरपूर।।50।।

भावार्थ :   समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबंध से छूटने का उपाय है॥50॥

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌ ॥

    कर्म बुद्धि रख दृढव्रती देते फल रूचि त्याग
    जन्म बंध से मुक्त हो पाते पद निर्वाण।।51।।

भावार्थ :   क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं॥51॥

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥

मोह मलिनता त्याग जो बुद्धि तव होगी शुद्ध
तो संसार प्रपंच से होगा तू प्रिय मुक्त।।52।।

भावार्थ :   जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा॥52॥

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥

    सुने प्रवादों को भूला जब होगा मन शांत
    पा पायेगी बुद्धि तब सहज योग का प्रांत।।53।।

भावार्थ :   भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा॥53॥

( स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा )

अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌ ॥

अर्जुन ने पूँछा
केशव समझायें मुझे स्थिर प्रज्ञ का रूप
कैसी उसकी रीति गति भाषा रहन अनूप।।54।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?॥54॥
भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥

भगवान ने कहा-
    इच्छाओं को त्याग कर जो मन से बलवान
    होता , उसको पार्थ ! सब कहते प्रज्ञ महान।।55।।

भावार्थ :   श्री भगवान्‌ बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है॥55॥

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥

दुखों में जो चिंता रहित सुख में भी निष्काम
वीत राग भय क्रोध में स्थिर प्रज्ञ वह नाम।।56।।

भावार्थ :  दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है॥56॥

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

    आनन्दित जो शुभाशुभ को भी पा दिन रात
    सदा राग से रहित जो वही स्थित धी तात।।57।।

भावार्थ :  जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है॥57॥

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

कछुआ सा इंद्रियों को जो समेट रख शांत
प्रज्ञावान किसी समय होता नही अंशांत।।58।।


भावार्थ :  और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥58॥

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥

    भूख देह की मिटाते तो हैं विषय विकार
    किंतु लालसा मिटाता प्रभु का साक्षात्कार।।59।।

भावार्थ :  इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है॥59॥

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥

यत्न किये भी इंद्रियां,मथतीं मन बरजोर
ज्ञानी को भी खींचती अर्जुन अपनी ओर।।60।।

भावार्थ :  हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात्‌ हर लेती हैं॥60॥
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

वश में कर के इंद्रियाँ,हो मुझसे लवलीन
इंद्रियाँ जिसके वश में है,वही मुनष्य प्रवीण।।61।।

भावार्थ :   इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥61॥

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

विषयों के नित ध्यान से बढ़ती है अनुरक्ति
    आसक्ति से कामना उससे क्रोधोत्पत्ति।।62।।

भावार्थ :   विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥62॥

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

क्रोध  नष्ट करता विवेक,उससे खोती याद
याद बिना सदबुद्धि ओै" बुद्धि के बिना विनाश।।63।।

भावार्थ :   क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥63॥

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

    मन जिसका स्वाधीन है,राग द्वेष से दूर
    इंद्रिय सुख लेते भी वह आंनद से भरपूर।।64।।

भावार्थ :   परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥64॥

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥

निर्मल मन रखता उसे आंनदित निष्काम
अचल बुद्धि नहि जानती किन्ही दुखों का नाम।।65।।

भावार्थ :   अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है॥65॥

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥

योग बिना चंचल मति,न श्रद्धा न भक्ति
भाव रहित जन से सदा सुख की रही विरक्ति।।66।।

भावार्थ :   न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?॥66॥

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥

विषयलीन इंद्रियों से होता मन -भटकाव
जैसे जल में हो कोई वायु प्रवाहित नाव।।67।।

भावार्थ :   क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥67॥

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

अतः पार्थ ! मन जिनका भी सदा विषय से दूर
उनकी स्थिर बुद्धि नित देती सुख भरपूर।।68।।

भावार्थ :   इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है॥68॥

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥

सदा संयमी जागते जब दुनियाँ की रात
जब जगता संसार यह मुनि का नहीं प्रभात।।69।।

भावार्थ :   सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है॥69॥

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥

जैसे भरे समुद्र में नदियाँ आती आप
    वैसे शांति समुद्र में खोते सब संताप।।70।।

भावार्थ :   जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥70॥

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥

सब इच्छायें त्याग नर जो निर्भय निर्भीक
अंहकार से रहित वह पाता शक्ति अलीक।।71।।

भावार्थ :   जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है॥71॥

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥
ऐसी स्थिति ब्राही जिसमें रह निर्मोह
    अर्जुन पाती आत्मा,चिदानंद आरोह।।72।।

भावार्थ :   हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है॥72॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥2॥