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गुरुवार, 25 जुलाई 2019

समीक्षा काल चक्र को चलने दो -सुनीता सिंह

पुस्तक चर्चा :
''कालचक्र को चलने दो'' भाव प्रधान कवितायें
''
[पुस्तक विवरण: काल चक्र को चलने दो, कविता संग्रह, सुनीता सिंह, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १२५, आकार २० से.मी. x १४.५ से. मी., आवरण बहुरंगी पेपर बाइक लेमिनेटेड, २००/- प्रतिष्ठा पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ]
*
साहित्य समय सापेक्षी होता है। कविता 'स्व' की अनुभूतियों को 'सर्व' तक पहुँचाती है। समय सनातन है। भारतीय मनीषा को 'काल' को 'महाकाल' का उपकरण मानती है इसलिए भयाक्रांत नहीं होती, 'काल' का स्वागत करती है। 'काल को चलने दो' जीवन में व्याप्त श्वेत-श्याम की कशमकश को शब्दांकन है।कवयित्री सुनीता सिंह के शब्दों में "अकस्मात मन को झकझोर देनेवाली परिस्थितियों से मन को अत्यंत नकारात्मक रूप से प्रभावित होने से बचने के लिए उन परिस्थितियों को स्वीकार करना आवश्यक होता है जो अपने बस में नहीं होतीं। जीवन कभी आसान रास्ता नहीं देता। हतोत्साहित करनेवाले कारकों और नकारात्मकता के जाल से जीवन को अँधेरे से उजाले की ओर शांत मन से ले जाने की यात्रा का दर्शन काव्य रूप से प्रस्तुत करती है यह पुस्तक।'

५४ कविताओं का यह संकलन अजाने ही पूर्णता को लक्षित करता है। ५४ = ५+४=९, नौ पूर्णता का अंक है। नौ शक्ति (नौ दुर्गा) का प्रतीक है। नौ को कितनी ही बार जोड़े या गुणा करें ९ ही मिलता है।संकलन में राष्ट्रीयता के रंग में रंगी ५ रचनाएँ हैं। ५ पंचतत्व का प्रतीक है। 'अनिल, अनल, भू, नभ सलिल' यही देश भी है। भारत भूमि, भारत वर्ष, स्वदेश नमन, प्रहरी, भारत अखंड शीर्षक इन रचनाओं में भारत का महिमा गान होना स्वाभाविक है।
इसकी गौरव गाथा को हिमगिरि झूम कर गाता है
जिस पर गर्वित होकर के सागर भी लहराता है
तिलक देश के माथे का हिम चंदन है
शत बार तुझे ऐ देश मेरे अभिनन्दन है
कवयित्री देश भक्त है किन्तु अंधभक्त नहीं है। देश महिमा गुँजाते हुए भी देश में व्याप्त अंतर्विरोध उसे दुखी करते हैं -
एक देश में दो भारत / क्यों अब तक है बसा हुआ?
एक माथ पर उन्नत भाल / दूजा क्यों है धँसा हुआ?
'माथ' और 'भाल' पर्यायवाची हैं। एक पर दूसरा कैसे? 'माथ' के स्थान पर 'कांध' होता तो अर्थवत्ता में वृद्धि होती।
इस भावभूमि से जुडी रचनाएँ रणभेरी, बढ़ते चलो, वीरों की पहचान आदि भी हैं जिनमें परिस्थितियों से जूझकर उन्हें बदलने का आव्हान है।
कवि को प्राय: काव्य-प्रेरणा प्रकृति से मिलती है। इस संग्रह में प्रकृति से जुडी रचनाओं में प्रकृति दोहन, आंधी, हरीतिमा, जल ही जीवन, मकरंद, फाग, बसंत, चूनर आदि प्रमुख हैं।
प्रकृति का अनुपम उपहार / यह अभिलाषा का संसार
इच्छाओं की अनंत श्रृंखला / दिव्य लोक तक जाती है
स्वच्छंद कल्पना के उपवन में / सतरंगी पुष्प खिलाती है
स्वप्नों में स्वर्णिम पथ पर / आरूढ़ होकर आती है
कितना मोहक, कितना सुंदर / है यह विशाल अंबर निस्सार
एक बाल कथा सुनी थी जिसमें गुरु जी शिष्यों को सिखाने के बाद अंतिम परीक्षा यह लेते हैं कि वह खोज के लाओ जो किसी काम का नहीं। प्रथम वह विद्यार्थी आया जो कुछ नहीं ला सका। गुरु जी ने कहा हर वास्तु का उपयोग कर सकनेवाला ही श्रेष्ठ है। ईश्वर ने निरुपयोगी कुछ नहीं बनाया। कवयित्री ने वाकई अंबर को निस्सार पाया या तुक मिलाने के लिए शब्द का प्रयोग किया? अंबर पाँच तत्वों में से एक है, वह निस्सार कैसे हो सकता है?
दर्शन को लेकर कवयित्री ने कई रचनाएँ की हैं। गुरु गोरखनाथ की साधनास्थली में पली-बढ़ी कलम दर्शन से दूर कैसे रह सकती है?
मन की आँखों से है दिखता / खोल हृदय के द्वार
निहित कर्म पर गढ्ता / सद्गति या दुर्गति आकार
''कर्म प्रधान बिस्व करि राखा'' का निष्कर्ष तुलसी ने भी निकाला था, वही सुनीता जी का भी प्राप्य है।
संग्रह की रचनाओं में 'एकला चलो रे' हे प्रिये, हे मन सखा आदि पठनीय हैं। कवयित्री में प्रतिभा है, उसे निरंतर तराशा जाए तो उनमें छंद, शुद्ध छंद रचने की सामर्थ्य है किन्तु समयाभाव उन्हें रचना को बार-बार छंद-विधान के निकष पर कसने का अवकाश नहीं देता। पुरोवाक में नीलम चंद्रा के अनुसार 'इनके हर अलफ़ाज़ चुनिंदा होते हैं' के संदर्भ में निवेदन है कि 'हर' एक वचन है, अल्फ़ाज़ बहुवचन, 'हर लफ्ज़' सही होता।
''कालचक्र चलने दो'' कवयित्री के संवेदनशील मन की भाव यात्रा है। रचनाओं में पाठक को अपने साथ रख पाने की सामर्थ्य है। कथ्य मौलिक है। शब्द चयन सटीक है। सारत: यह कृति मानव जीवन की तरह गन-दोष युक्त है और यही इसे ग्रहणीय बनाता है। सुनीता का भविष्य एक कवयित्री के नाते उज्जवल है। वे 'अधिक' और 'श्रेष्ठ' का अंतर समझ कर 'श्रेष्ठ' की दिशा में निरंतर अग्रसर हैं।
*****
[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति विश्ववाणी हिन्दी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com ]

शनिवार, 3 मार्च 2018

holi geet

आइए छंद खोजें:
होली गीत-- "ब्रज की होली" सुनीता सिंह
* फाग राग में डूब के मनवा राधे-राधे बोल रहा है। ३३
बाँसुरिया की तान पे मौसम शरबत मीठा घोल रहा है।। ३३ ब्रज की गली में घूम रही ग्वाल-बाल की टोलियाँ। २८ रंग-बिरंगे जल से भरी लहराती पिचकारियाँ।। टेसू के फूलों के रंग से मन के पट भी खोल रहा है। ३३
बाँसुरिया की तान पे मौसम शरबत मीठा घोल रहा है।। चुपके-चुपके चारों ओर ढूँढ रहे नंदलाला। २८ छुप कर बैठी कहाँ राधिका पूछे मुरली वाला।। बरसाने के कुंज-कुंज में कान्हा जा कर डोल रहा है। ३२ बांसुरिया की तान पे मौसम शरबत मीठा घोल रहा है।। हवा ने छेड़ दिया आखिर फागुन का संगीत जब। २८
गोपियों संग निकली राधे प्रीत की ही रीत सब।। वृंदावन संग ब्रज पूरा भांग बिना ही कलोल रहा है। ३४
बाँसुरिया की तान पे मौसम शरबत मीठा घोल रहा है।। फाग राग में डूब के मनवा राधे-राधे बोल रहा है।
बाँसुरिया की तान पे मौसम शरबत मीठा घोल रहा है।।
***
इस होली गीत में मुखड़ा ३३ मात्राओं तथा अन्तरा २८ मात्राओं का है।
मुखड़े में पदांत यगण १२२ है जबकि अंतरे में पदांत क्रमश: रगण २१२,
१२२-२२२ तथा नगण १११ है अर्थात किसी नियम का पालन नहीं है।
मुखड़े में २०-२२ वर्णों की पंक्तियाँ है, जबकि अंतरों में क्रमश: १८-१९,
१८-१८, १९-१८ वर्ण हैं. तदनुसार -
मात्रिक छंद: मुखड़ा देवता जातीय छंद है जबकि अंतरा यौगिक जातीय छंद है.
वर्णिक छंद: वर्ण संख्या भिन्नता के कारण कोई एक छंद नहीं, छंदों का मिश्रण है।

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

kundaliya

कार्यशाला:
कुण्डलिया एक : कवि दो
राधा मोहन को जपे, मोहन राधा नाम।
अनहोनी फिर भी हुई, पीड़ा उम्र तमाम।। -सुनीता सिंह
पीड़ा उम्र तमाम, सहें दोनों मुस्काते।
हरें अन्य की पीर, ज़िंदगी सफल बनाते।।
श्वास सुनीता आस, हुई संजीव अबाधा।
मोहन राधा नाम, जपे मोहन को राधा।। -संजीव
***

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

laghukatha

लाघुकथान्कुर: १
सुनीता सिंह
*
लघुकथा - हिसाब
रीमा दफ्तर से घर पहुँची, शाम के छः बज चुके थे। दरवाज़े का ताला खोल ही रही थी कि पड़ोस की दो महिलाएँ वहाँ से गुजरीं। उनमें से एक महिला बुजुर्ग तथा दूसरी मध्यम उम्र की थी। रीमा ने एक माह पूर्व ही अपने पति विहान के साथ वहाँ रहने आई थी। उन महिलाओं ने शिष्टाचारवश रीमा से हालचाल पूछा। जैसे ही उन्हें पता चला कि रीमा नौकरी करती है, दोनों महिलाओं की आँखों में एक चमक सी आ गई। बुजुर्ग महिला बोली "बेटी, तुम बहुत भाग्यशाली हो। तुम्हारे हाथ में अपनी तनख्वाह का पैसा होता है। पति के सामने हर जरूरत के लिए हाथ फैलाने की जरूरत नहीं होती। जब-जहाँ जरूरत हो खर्च कर सकती हो, मन मसोसकर कर आँसू बहाने की जरूरत नहीं होगी।"
फिर दूसरी महिला बोल पड़ी "एक हम लोगों को देखो। पति से माह भर के खर्च के लिए एकमुश्त रकम मिलती है और हमें महीना खत्म होने पर एक-एक पैसे का हिसाब देना पड़ता है। समय से पहले पैसे ख़त्म होने या कम पड़ने पर चार बातें सुननी पड़ती हैं कि कैसे कम पड़ गया? तुम फालतू खर्च कम किया करो। उस वक्त बहुत ख़राब लगता है। अच्छा है, तुम्हें इन सब से नहीं गुजरना होता।"
इतना कहकर वे अपने अपने घर चली गईं। रीमा के दिमाग में उनकी कही बातों में छलका गहरा दर्द काफी देर तक बादलों की तरह घूमता रहा।
@सुनीता सिंह (2-1-2018)
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suneeta singh

नवगीत के नए हस्ताक्षर - सुनीता सिंह 


संक्षिप्त परिचय- 
नाम: सुनीता सिंह। 
पदनाम: सहायक मुख्य निर्वाचन अधिकारी, उत्तर प्रदेश।  
कार्य/ सेवा: सरकारी सेवा। 
जन्म तिथि: १-७-१९७७। 
शिक्षा: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परा स्नातक। 
डाक का पता: ७/४५९, सेक्टर ७, जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ।    
चलभाष--९४५४४१८१२०। 
***
नवगीत
१. झीनी चदरिया
.
झटके मन को कैसे कैसे
मिलते रहते ऐसे वैसे
खींच फटे न झीनी चदरिया
पांव छिपाते जैसे तैसे।
मिलते आते जाते लोग
भोग चाहते रमते जोग
बेनकाब होते ही उनकी
इबरत को लग जाते रोग
बिछी खाट चौपाल दुअरिया
मिलनसार दिखते हैं कैसे।।
नेता की थाली है सस्ती
रोटी को तरसी है बस्ती
कुलबुल करती भूख पेट में
दो कौड़ी की बिकती हस्ती।
बजी दुगदुगी सुने नगरिया
कोई तो दे जाए पैसे।
पढ़ना लिखना उन्हें सिखा दो
मुफलिस का उद्वार करा दो
बेगारी से मुक्त करें मिल
नव उन्नति की राह दिखा दो।
हँसी बिखेरे आठ पहरिया
मरे न अब तक मरते जैसे ।।
खींच फटे न झीनी चदरिया।
पांव छिपाते जैसे तैसे।।
*
२. झुनझुना
.
रुनझुन रुनझुन करता रहता
पीर झुनझुना पैहम बजता
अपना दिल शफ्फाक रहे
सब वादे इरादे पाक रहें
सबके अपने उल्लू है
सीधा करने ताक रहे
शाख छेकाकर जाते बैठ
वर्चस्व उन्ही का हर शै रहता।।
जब भी मन को समझाया
कठघरे मे खुद को पाया
तोड़ा जिसने खुद को मुंसिफ
हमको मुजरिम पाया
अब तो सभी से ये मन
भरा हुआ सा मानो लगता।।
बुद्धिमता जग फैली
बस हमको ही नही मिली
व्यवहार कुशल चितेर बहुतेरे
पंक गुलाब पंखुड़ी खिली
फिर क्यों सबके भीतर सूना
सन्नाटा सा पसरा लगता।
*
३. भीड़
.
भीड़ पर भारी सड़क है
या सड़क पर भारी भीड़
जिधर भी जाओ
उधर मिलेगा
भीड़ भाड़ का
जाम मिलेगा
पी पी पौं पौं
पम पम चिल्ल पौं
फटफटिया
परवान मिलेगा
चले कतार चींटी की चाल
एक पहर वहीं बन जाये नीड़
भीड़ पर भारी सड़क है
या सड़क पर भारी भीड़
होड़ लगी है
जहाँ भी देखो
आड़े-तिरछे लघु पथ के
अनुगामी देखो
साम दाम संग
दंड भेद में
सिद्धहस्त
मनमानी देखो
बला सी है नैतिकता उनको
बड़ी भी इतनी जैसे चीड़
भीड़ पर भारी सड़क है
या सड़क पर भारी भीड़
तेज बड़ी रफ्तारो मे
पैहम भागने वालो मे
गति अवरोधक जो
आ जाते सहसा राहों मे
दुर्घटनाओं का
डर का परचम रखते है
उड़ना अच्छा है लेकिन
कुछ लगाम जरूरी चाहों मे
मद्धम मद्धम चाल रहे
सहने लायक फिर हो पीड़
भीड़ पर भारी सड़क है
या सड़क पर भारी भीड़
*
४. सफर
.
सफर मे मत पूछो रे भाई
कब कैसे कितनी आफत आई
रेलगाड़ी जैसे
छुक छुक करती चलती
जिन्दगी वैसे ही
रुक रुक आहें भरती
कभी बुलेट सी
सरपट होती
कभी उतर पटरी से
दुर्घटनाएं करती
वहीं दगा की बारी आई
समझा जहाँ नियामत आई
शुक्र खुदाया
लख लख तेरा
येन केन जैसे भी तूने
दिया उबार दिल मेरा
सहयोग सहायता राशि सा
मिल सके कभी क्या जाने
उजड़ी मेरी धरती
बिखरा अम्बर मेरा
सोचकर दिल बैठा जाये
मुझी पर क्यो कयामत आई
चंद लम्हो की होती
रूहो की मुलाकातें
पुरकशिश पर बड़ी होती
पल दो पल की सौगातें
सफर सबका अपना
अपने ही स्टेशन है
साथ का तो पता नही
दिलकश बड़ी हो बातें
चेतन होकर जिया नहीं
समझो तो फिर शामत आई।।
सफर मे मत पूछो रे भाई
कब कैसे कितनी आफत आई
*
५. रीति
.
काज परोज के होते रंग
रिवाज रीति के संग।।
ब्याह शादियों के घर पर
थाप ढोलकों की बजती।
संझा के गीतों मे
आलाप माटियों की सजती।।
हो गयी अनुगूँज जैसे
धूप ढलती बच निकलती
खोये जाते सुर के गुंचे
गूंजते स्पीकर पर
संगीत के अनुनाद
सहज स्वीकार कर
दूर देश से आते ढंग
तीज पर त्योहारों पर
उल्लासित मन जाते कर
सब धर्मो के रंग भरे
स्याह उदासी जाते धर
जब्त सफर मे संग रहे
दिल मे खिली तरंग रहे
स्वार्थ भंग क्यों करते लोग
अमृत घट विष भरते लोग
राजकाज के वश मे
क्यो जहर छोड़ते कश मे
ढंग क्यो होते बेढंग
असर विदेशी चाहे
आए जितना भी जब तब
पूछ लो इतिहास से
आकर रम जाएगा सब
देशी रंग की रंगत मे
फ्यूजन की संगत में
नव खुशबू नया कलेवर
नव स्वादो के नव फ्लेवर
मृदंग ताल शिव डमरू को
का विष चन्दन के तरू को
लिपटे भल लाख भुजंग।।
*
६. इंतजार
.
इन्तिहा की हद
दिखाता है।
इंतजार जब बेहद
हो जाता है।।
पागलों सा ढूंढता दिल
जिस किसी भी चीज को
बस खिंचता जाये बरबस
पुरकशिश नाचीज को
गुरूर का आलम वहीं
उस शय मे बाकायदा
कर शरायत जाता है
दूरियां मीटर नही
बढ़ती किलोमीटर मे
सजदा हुआ अगर
कभी किसी दहर में
तय जानिये हुजूर
मुमकिन भी तब
नामुमकिन हो जाता है
आसमानी वादों की
लम्बी फेहरिस्तें
गगनचुंबी
अमृतवेलों की
मनभावन किस्तें
जुबानी फरिश्ते
रेतमहल जैसे हवा के
मन्द झोके से पल भर मे
सदा के लिए भरभराता है।।
*
७. बूढ़ी आँखें
.
ढल चुकी उम्र की
आखिरी दहलीज है।
उन बूढ़ी आँखो की
तजल्ली बड़ी चीज है।।
चेहरे की सलवटो पर
सन लटो की करवटो पर
बसन्त पतझड़ के नजारे
गौर से पढ़िए तो सारे
परछाईयां वो जिन्दगी की
दुश्वारियाँ बाशिंदगी की
मिली वंशबेलो से उनको
तसल्ली बडी़ चीज है।।
उन बूढ़ी आँखो की
तजल्ली बड़ी चीज है।।
अपनी माटी से हो दूर
रोजी रोटी मे मजबूर
कुछ रोकड़ो की खातिर
खेल दिखाते हो शातिर
उनका धन लूट लिए जाते हो
सहारे पर किसके छोड़े जाते हो
गैरो की रहमत पर बरसा
खारापन बड़ी चीज है ।।
उन बूढ़ी आँखो की
तजल्ली बड़ी चीज है।।
रूह की राहत का
अपनेपन की चाहत का
दो मीठे बोलो की
नन्ही प्यारी कोशिशों की
भागती दौड़ती जिन्दगी से
कुछ पल देना बचा किसी से
छीनते क्यो हो ये
दौलत बड़ी चीज है ।।
उन बूढ़ी आँखो की
तसल्ली बड़ी चीज है।।
*
८. गुरूर
.
उबल रहा गुस्से में
मन में होती जंग
कट गई हवा में
ऊंची उड़ी पतंग
खुद के आगे  औरों की
बनने दें पहचान नहीं
अपना तो अभिमान रहे
दूजे का स्वाभिमान नहीं
गुरूर का भी रूप यही
देखो चुरा लिया लम्हों ने
वक्त हुआ जब तंग
कट गई हवा में
ऊंची उड़ी पतंग
पीटकर ढिंढोरा
खुदी किया अपना इश्हार
परहित जीना  छोड़ दिया
गाथा अपरंपार
साधे जो मन को
सध जाए जीवन
पड़े न रंग में भंग
कट गई हवा में
ऊंची उड़ी पतंग
ऊपर मीठा  लेप लगा
विष भरा अंदर
गुना विचारा अगर नहीं तो
नाच नचायेगा बंदर
जग चलन पे न हो दंग
अति का भोलापन भी
कर जाएगा तंग
कट गई हवा में
ऊंची उड़ी पतंग
*
९. बवंडर
.
बवंडर
खट्टी मीठी यादों का
दे जाता निस्तब्ध मौन

परवाह आसमां पर
लिखे  अशआर
रूहानी चाह
फलक को भी
कर जाती पार
दिखते तो
माकूल हैं पर
निभा पाता है आखिर कौन
सूखे हरे पत्तों का
अंधेरो का
उजालों का
घनघोर बियाबान
ठूंठ होते
जंगलो सा
एक-एक कर मरती सांसे
यादों के सिवा फिर
बचा पाता है कौन
इरादो का
ज़हर हवा में
घोलते हो
विष जार का मुंह
पारिस्थितिक में
खोलते हो
एहसास हों
या प्राणवायु
जाते कुम्हला आते बौर
*
१०. बिखराव
.
साजो-सामान सब
टूटने का बिखरने का
मुफ्त है बाजार में
माया की नगरी
खूब लुभाती
मन भाती
पुरकशिश लगती
समझ मे पर
नहीं आती
मन बुद्धि को
न कुंद कीजिए
सामाजिक व्यवहार में
अमृत के बदले मे
विष भी
मिल सकता है
कमल, गुलाब के संग
खरपतवार भी
खिल सकता है
पीड़ा का ही
तोहफा मिलता
पीड़ा के व्यापार में
नाउम्मीदी का
सूखा सा कुआं
बिलखता जल को
बेजान होते
रिश्तों का धुंआ
उड़े झरोखों से निकल वो
या रब बता जरा
ये मंजर कैसा
इस सुंदर संसार में।।
*
११. सच का भान
.
वादो के
अन्दर की बाते
देख लिया है,
जान लिया है
होती क्या है
सौगातें
झूठे ख्वाब
दिखाती रातें
मन का मनका
फेर रहे
ऐसे भी तो
होती है बाते
अल्फाजो के
मीठे सच को
अब हमने पहचान लिया है ।
कंठ कोकिला
का मीठा है
निम्बोली का
रस तीखा है
दोनो मिलते
इंसानो में
कितना उसका
मन रीता है।
सहअस्तित्व
विरोधी बाते
सम्भव हमने मान लिया है ।।
ऊंचा ताड़ सा
खड़ा हुआ है
नीम अकेले
बड़ा हुआ है
फल नही
छाया नही
गुरूर मे ही
तड़ा हुआ है ।
क्या होगा जब
गिर जायेगा
मन मे सबने भान लिया है।।
*
१२. फ़लसफ़ा जिंदगी का
.
रेत के
दरिया सी
हो चली है जिंदगी
अति ताप है
अति शीत भी
नेह शबनम को
तरसती सीप भी
यत्र-तत्र ही
बिखरे हैं
हरियाली के
गीत भी
खुद ही से है
शत्रुता पर
साथ ही है बंदगी
रेत के
दरिया सी
हो चली है जिंदगी
जश्न क्या हो
मन अकिंचन
अपना मन ही
अपना दर्पन
चलचित्र अनोखा
चलता रहता
कम समरस ज्यादा
अनबन दर्शन
यादें शींरीं
कम आती हैं
कड़वी तो अंबार लगी
रेत के
दरिया सी
हो चली है जिंदगी

जिधर भी देखो
बेजारी है
बस्ती-बस्ती
बेदारी है
खिदमत को
हाजिर हो जब
पड़ी जरूरत की
बारी है
बातें दिलकश
अंदाज निराले
और पुरकशिश नुमाइंदगी
रेत के
दरिया सी

हो चली है जिंदगी।।
उड़ जायें वादे
संग हवा के
जैसे रुई के फाहे
हो आजाद दुआ से
देते सीख बड़ी
उपदेशक रहबर
हो जाते क्यों फिर
बेरहम फिजां में
पीड़ा के
कोहसार मिले पर
आस की दिल मे शमां जली
रेत के
दरिया सी
हो चली है जिंदगी।।
(कोहसार -पहाड़, रहबर-साथी, शींरी -मधुर, बेजारी -- उदासी, बेदारी -- नींद रहित )
*
१३. नक्काशियाँ
.
मन भवन की
देहरी पर
प्रीत की नक्काशियां।
छेड़े मौसम
पवन साज पर
संगीत की धुन,
गुनगुनाता
है पपीहा
सुर मधुर चुन।
जैसे राजमहल में,
बाद बरसो,
गूंजती किलकारियां।।
मन भवन की
देहरी पर
प्रीत की नक्काशियां।

रूह करती
रूह से मिल
अकीदतों की बारिशें
क्या पता मिले
कब अनावृष्टियाँ
फिर बूंद को भी गुजारिशें।।
घनघोर कारे
घिर आए बदरा
सुनामी सी दुश्वारियां।।
मन भवन की
देहरी पर
प्रीत की नक्काशियां।

नीर भरकर
व्यथित नयना
टूटते जलभार से,
चिंद टुकड़े
हो गया उर
यादों के गलहार से।।
कोहसार दर्द का
पसरी दरमियां
बर्फ सी रुसवाईयां।।
मन भवन की
देहरी पर
प्रीत की नक्काशियां।

प्रेम सोता सूखता,
सूर्य तपता

मन गगन पर,
पीली पत्तियां पतझड़ो की
सज गईं
अंतर -चमन पर।।
उगे अंतराल पर
बीज आस से
रोप दी हैं क्यारियाँ।।
मन भवन की
देहरी पर
प्रीत की नक्काशियां।
(अकीदत -- लगाव, कोहसार -- पहाड़)
*
१४. सर्दी
.
कम हो गयी
तपन सूर्य की
ऋतु सर्दी की आई।।
घर कूचे से सोंधी-सोंधी
उड़ती गुड़ की खुशबू।
लड्डू तिल के
सफेद काले
आग में भुनते
शकरकंद संग आलू।।
साथ दही पोहे के,
मीठा लक्ठा , लाई
बनती मुरमुरा मिठाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
शाक थाली
भाजी हरियाली
चना, बथुआ, सरसों,
चाय कॉफी
गरम पेय की
तलब सी लगती मन को
रंग बिरंगे फूलों की,
उपवन गमले क्यारी में,
सुंदर आभा छाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
धूप सेंकने निकले,
बंद पड़े संदूकों में,
मफलर स्वेटर शाल।

रौनक है महलों में लेकिन,
फुटपाथों पर जीवन,
ठिठुरन से हुआ मुहाल।।
रैन बसेरे कमतर, जँह तँह
आग अलाव की जलती
झोपड़ियों मे आफत आई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
सांझ सवेरे
भीगी शबनम
कोहरे का सन्नाटा।
हवा सनसनी
ठंडा पानी
छुट्टी मुश्किल सैर-सपाटा।।
स्वर्गिक सा लगता
सुख जैसे
बैठे रहना ओढ़ रजाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
सूरज का भी
देरी से अलसाई
आँख लिए आना।
लेकिन जल्दी
समेट धूप को
वापस घर को जाना।।
रातें लंबी दिन छोटे
मच्छर मक्खी धरा,
मेघ की नभ से हुई विदाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
कांप रही
हेमंत रात्रि
शिशिर बना हिमकण
ठिठुर रही हैं
चतुर्दिशाएं
मूक विहग के गण।।
छाया ने पी
लिया हो जैसे
बर्फ मिली ठंडाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
पौध धान की
लदी बालियां
कटने को तैयार
मकई बाजरे के
स्वागत में
सजते हाट बाजार।।
मद्धम बहती पुरवाई में

हरित खेत पर छाई
पीली सरसों की तरुणाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
(लक्ठा-- गुड़ और बेसन से बनी एक प्रकार की मिठाई; लाई-- चावल का बना लइया अथवा मुरमुरा; )
*
१५. पेड़
.
पेड़ हमें
जीवन देते हैं
पेड़ों को मत काटिए।
वंशबेल मत छांटिए।।
संतति आगे पूछेगी
किया ये तुम लोगों ने क्या
जन्म हमें दे दीना लेकिन
और दिया तुम लोगों ने क्या।
हवा जहर से भरी हुई
दम घोंटेगी तड़ी हुई
चेत अभी से जाइए।
पेड़ों को मत काटिए।
वंशबेल मत छांटिए।।
सरपत नरकट इमली जामुन
पीपल बरगद नीम कम हुए
गौरैया की चीं चीं गायब
कंक्रीटों के हुए पहरुए।
पंछी नीड़ बनाएं कैसे
चहके गीत सुनाएं कैसे
खाई को पाटिए।।
पेड़ों को मत काटिए।
वंशबेल मत छांटिए।।
सुविधाओं की भेंट चढ़ी
कुहकी पेड़ों की डाली
छीन रहे हम सासें उनकी
जो पाले हमको बन माली।।
एहसान भले न मानिए
चिट अपनी पट खेलिए
पर नेक परंपरा डालिए।।
पेड़ों को मत काटिए।
वंशवेल मत छांटिए।।
*
१६. स्वाद अदरकी
.
दहर अनोखी
स्वाद अदरकी
अब जाने बन्दर ही।।
जोड़ तोड़ कर
डिग्री लेकर
बनते पोथी के विद्वान
हंस बने
फिर बगुलों में
चौपालों की होते शान।
ज्ञान समंदर
भरा हुआ
आखिर उनके अंदर ही।।
दहर अनोखी
स्वाद अदरकी
अब जाने बन्दर ही।।

बाँचे दफ्तर
राजनीति में
महापुराण चटुकारी की
सांसें भी
गिरवी जैसे
रखी चंद उधारी की
समझाए देते
शलजम भी
होता एक चुकंदर ही।।
दहर अनोखी
स्वाद अदरकी
अब जाने बन्दर ही।।

मौन विद्वता
मुखर स्वरों में
खारिज हो आसानी से
जीत कोई
क्या सकता कर
बहस मूढ़ अभिमानी से।।
बने हुए
शुभचिंतक पर
होते पूर्ण पुरंदर ही।।
दहर अनोखी
स्वाद अदरकी
अब जाने बन्दर ही।।
(दहर-दौर, पुरंदर -किला ढहाने वाला)
*
१७. दोहा नवगीत
सोन चिरइया
.
सोन चिरइया
कह रही
मेरे आँसू पोंछ...
जन्म लिया जिसने नहीं,
सकी न दुनिया देख।
भ्रूण अजन्मी मारते,
पालक निर्दय लेख।।
मुझे समझते तात क्यों,
निर्बल अबला दीन,
आने दो मारो नहीं,
जुर्म न हो संगीन।।
चिंतन की
सँकरी गली,
मकड़जाल सी सोच।
सोन चिरइया
कह रही,
मेरे आँसू पोंछ...
हाट गुबार बजार में,
रावण है चहुँ ओर।
है दहेज़ दानव खड़ा,
मुँह बाए पुरजोर।।
दावानल धधके कहीं,
घायल हर माँ-बाप।
जलती यदि बिटिया कहीं,
जीवन हो अभिशाप।।
ढाई आखर
काम के,
ले अक्षत संग खोंछ।
सोन चिरइया
कह रही,
मेरे आँसू पोंछ...
*
१८. दोहा नवगीत
नारी
.
गीली लकड़ी
सी जले,
धुआं नहीं
पर होय।।
बन पुरातन अधुना भी,
नीड़ सजाती जाय।
बासों के झुरमुट पर,
गौरैया बन जाय।।
बतरस मीठा घोलती,
नारी संगतराश।
जिंदगी अभिराम करे,
जैसे फूल पलाश।।
सावन की कजरी बने,
पीर न जाने कोय।
गीली लकड़ी
सी जले,
धुआं नहीं
पर होय।।

पीहर को पाती लिखे
नव ब्याही संताप।
फाड़ फेंक रद्दी करे,
अपनी रहबर आप।।
साज रही कपड़ा लत्ता,
पोत लीप घर द्वार।
खटती चौखट साजती,
सर्वोपरि परिवार।।
प्रलय प्रभंजन सह जाती,
काँट न मन में बोय।
गीली लकड़ी सी जले,
धुंआ नहीं पर होय।।
*
१९. क्या कह सकोगी?
.
क्या सोच कर

आयी यहाँ पर
और क्या तुमको मिला
क्या कह सकोगी
चुन लिया माँ-बाप तुमने
इस धरा पर
आगमन को
ये बताओ
देह देकर आत्मा को
कर लिया
अपना चमन को
ये कहो तो
थे ख्वाब जीने
के सुनहरे
पर मिला तुमको सिला
क्या कह सकोगी
जब चला था
ये पता कि आई
कोख में चाँदनी है
ये बताओ।
वो हलचल तब समां की
सांस कैसे घोंटनी है
ये सुनाओ।।
आयी जिनको स्व मान
उन निर्मोहियों से
क्या गिला
क्या कह सकोगी
चलती सांसो पर चली
जब कैचियों
की धारियां
ये तो बताओ
कट रहे थे
एक एक कर सब
अंग की थी बारियाँ
ये सुनाओ।
फिर मौन चीखो
से निकलता
आह का होगा धुआं
क्या कह सकोगी।।
*
२०. रवानी
.
नीर की बहती रवानी
पीर जैसे हो पुरानी
आँख पर
सजती रहे, ढरती रहे।।

संस्कृति की साज
पर ही शोभती
अल्फाज की फुलवारियाँ।
दर-दर भटकती
आस पर लद
हँस रहीं दुश्वारियाँ।।
तम कहर से
हर दहर तक
कर सफर चलती रहे।
उम्मीद हर
पलती-सँवरती भी रहे।।

कुमुदिनी पहचानती
तट-ताल की
सब शबनमी
गुस्ताखियाँ।
हँस मौसमों की
मार की सह
जाती सभी नादानियाँ।।
अभिराम उसकी

आँख में
नव झलक भी
भरती रहे
नीर पर सजती रहे, खिलती रहे।।
*
२१. सूखा दरख्त
.
ऐ उजड़ते दरख्त की
सूखी टहनियों!,
ठूँठ होती जा रही हो।
क्या समूचे रस धरा ने
सोख डाले हैं
ऐंठती क्यों जा रही हो?
गुँथ गई उलझी
लताओं की शिराएँ सूख कर,
छीन सूरज ने लिये
क्या नेह के प्रतिमान सब?
दानव कुपोषण का
गया क्या लील
तुमको भी यहाँ?,
क्या लौटना
संभव कभी
फिर पल्लवित-पुष्पित जहाँ।।
ऐ तिश्नगी में हारती
दम तोड़ती तरुवर लताओं?,
किस दिशा में
आस का दीपक
जलाती जा रही हो?
क्या समूचे रस धरा ने
सोख डाले हैं,
ऐंठती क्यों जा रही हो?
ये बताओ!
सुलझ उलझी
किस तरह बेलें तुम्हारी?,
गुत्थियाँ

सुलझा रही थी
बेतहाशा बीच भारी?
तार भावों के
बने जंजाल
जहनम जिस तरह।
जा रही दोजख
लताएँ शुष्क
होकर उस तरह।।
ऐ नीरस मौसमों के
बीच में त्यागी
गई तरु वेलियों!
नीड़ में उम्मीद की
कोंपल उगाती जा रही हो।।
क्या समूचे रस धरा ने
सोख डाले हैं,
ऐंठती क्यों जा रही हो?
*
२२. नीलकंठ
.
नयन पट खोलिए
न बैठिए कुम्हलाई के
यूं मन चमन में।
नीलकंठ बन जाइए
फैलाइए पंछियों
सा पर गगन में।।
इबरतें हैं जिंदगी की
हर फिजां की
पुर-तसव्वुर
न उदास रहिए।
तकलीफ या कि
पीर हो
उसका भी कोई
फलसफा है
आस रखिए।।
दीपक जलाए रखिए
सजाए रखिए
जुगनुओं को अंजुमन में।।
नीलकंठ बन जाइए
फैलाइए पंछियों
सा पर गगन में।।

सुबह की

अपनी है रौनक
शाम की अपनी रुबाई
निगाह रखिए।
नीम दोपहर की तपन की
बंदिशों को
तमाम करिए
तबाह करिए।।
तपिश जीवन की जलाए
खाक बनिए बन
निकलिए गुल तपन में।।
नीलकंठ बन जाइए
फैलाइए पंछियों
सा पर गगन में।।
*
२३. निर्झर
.
बन के निर्झर रात दिन
बहता रहे नित
शुष्क रग की वादियों में।
सोता दर्द का क्यों, सूखता नहीं?
ऐ हवाओं पर्ण तुमने
पेड़ से क्यों तोड़ दीना।
वक्त की धारा चली थी
राह जो क्यों मोड़ दीना।।
मोड़ कोई अब तो, सूझता नहीं।।
सोता दर्द का क्यों, सूखता नहीं।।
पीर उर में छुप रहा है
दस्यु जैसे बीहड़ों में।
मार दो मुठभेड़ में
प्रेषित रसद या चीथड़ो में।।
समर्पण नाशाद खुद करता नहीं।
सोता दर्द का क्यों सूखता नहीं।।
वो चट्टान थी फौलाद सी
जो दिख रही थी एकजुट।
भूगर्भ की बस एक हलचल
हुआ प्रकट मजबूत पुट।।
फिर उन्माद का सुर , फूटता नहीं।
सोता दर्द का क्यों, सूखता नहीं।।
*
२४. पर्दाफाश
.
कितने पर्दाफाश हुए हैं,
गर्द भरे आकाश हुए हैं,
अलख निरंजन है ज्ञानी की,
अंदर मुर्दा लाश हुए हैं।।
अनंत काल से संत मुनि जन
मूल्यों पर कर चिंतन मंथन
करें अमल फिर राह दिखाते
तब महिमामंडित हो पाते।।
विषम समय उपमान सभी अब
नैतिकता को पाश हुए हैं।।
अलख निरंजन है ज्ञानी की
अंदर मुर्दा लाश हुए हैं।।
मजबूर समय के मारों के
दुर्दिन के खास दुलारो के
दलदली अनैतिक पंक छिपा
गुलदार कढ़ी कालीन बिछा,
मुंह मे राम बगल मे छूरी,
क्यों बौने आकाश हुए हैं।।
अलख निरंजन है ज्ञानी की
अंदर मुर्दा लाश हुए हैं।।
गर गिरफ्त में फंसे घिसटते,
पियें जहर संताप सिमट के,
कैद तमस चौदह तालों में
मिटता अस्तित्व निवालों में।
सत्ता पर गर हुए विराजित,
रावण कंस विनाश हुए हैं।।
अलख निरंजन है ज्ञानी की,
अंदर मुर्दा लाश हुए हैं।।

*
२५. स्वागत
.
नए साल का स्वागत कर लें।
संकल्पों का फिर घट भर लें।।
बदलता मौसम रंगमंच है,
परंपरा का इंद्रधनुष है,
मेघों की हो गई विदाई,
शिशिर पर जिम्मेदारी आई।
कुछ कँपकपी ले आएगा,
ऐसे ही थोड़े जाएगा।
परिधानों भाषाओं की अब,
माला रंग बिरंगी कर लें।।
नए साल का स्वागत कर लें।
संकल्पों का फिर घट भर लें।।
नए वर्ष का सेलिब्रेशन,
भिन्न भाग में भिन्न अवतरण।
असम में 'बीहू' वहीं केरला,
'पूरम विशु' के रंग में ढला।
'उगादी' आंध्र में तमिलनाडु,
जाये मनाता पुत्थाण्डु।
महाराष्ट्र में मुड़ीपड़वा,
दिल खोलें आवभगत कर लें।।
नए साल का स्वागत कर लें।
संकल्पों का फिर घट भर लें।।
हुए नदी तालाब लबालब,
उमंग में सब तब हर मजहब।
प्रथम हुआ आनंद पृथक है,
प्रथम पुलक की मिले झलक है।
स्पर्श बारिश प्रथम फुहार का,
नव प्रभात खग प्रथम गान का।
पहले पल्लव की अगुवानी,
हिम शैलों से प्रस्फुटित पानी।।
संगीत मधुर प्रथम नमन का।
लय धुन सुर से सभी सँवर लें।।
नए साल का स्वागत कर लें,
संकल्पों से फिर घट भर ले।।
*
२६. नव संवत्सर
.
फिर नव संवत्सर आया।
लिए कामना मंगलमय शुभ,
संदेशों के अवसर लाया।।
नए साल की बाट जोहती
उत्सव की फुलवारी बेहद।
पर्वो की बहुरंगी झांकी,
निरखे मन हो जाए गदगद।।
सूर्य चंद्र की बदली चाल,
थोड़ा सूरज भी अलसाया।।
लिए कामना मंगलमय शुभ,
संदेशों के अवसर लाया।।
दर्शन वाले देश में चली,
हवा प्रदर्शन वाली अब तो।
आचरणों के आवरणों पर,
स्वीकृत ताजा तड़का सबको।।
ज्ञानी की मूरत हैं लेकिन,
फंडा ये कितना मन भाया।।
लिए कामना मंगलमय शुभ,
संदेशो के अवसर लाया।।
यहां दिखाऊ बना रिझाऊ,
नहीं जरूरी रहे टिकाऊ।
कुछ और भी हो, नहीं विशेष,
मिलता फेस को पूरा स्पेस।।
नहीं बूंद भर चाहत अंदर,
बाहर पर सागर छलकाया।।
लिए कामना मंगलमय शुभ,
संदेशों के अवसर लाया।।
*
२७. न्यू ईयर का जश्न
.
रौ में पूरे होनहार,
नैतिकता के खेवनहार,
न्यू ईयर का जश्न मनाएं।।
मन में छुपा हुआ है शूल,
मुंह में खिला हुआ है फूल।
भीतर फांस भड़ास छुपाये,
शुभकामना उमड़ रही निर्मूल।।
और भी बड़ा कमाल

उन दिग्गजों का
झेल रहे जो होकर कूल।।
हम तो सबकी खैर मनाएं।
न्यू ईयर का जश्न मनाएं।।
अशुभचिंतक सच्चे उतने,
शुभचिंतक झूठे हैं जितने।
होड़ लगी जी तोड़ रही है,
जीते ग्रेड हैं किसने कितने।।
स्वांग रचे एहसास बिना जज्बाती।
भ्रम मंजरी भावुकता की,
खामी को खूबी कर जाए।।
न्यू ईयर का जश्न मनाए।।
हार्दिकता की शोबाजी,
प्रदर्शनी में ताजी ताजी,
हो रही साझा खुशियां करने की,
धुआंधार ड्रामेबाजी।
दिल नहीं,
प्रदर्शनी दिल की काम करे,
बाजार कर गुलजार जाये।
न्यू ईयर का जश्न मनाएं।।
*
२८. मुखौटा कल्चर
.
गुलमोहर से अधिक मनोहर
दौर मुखौटा कल्चर का।।
टाइल से भी
चिकनी ज्यादा लगती है
स्टाइल की दावेदारी।
गूढ़ अर्थ हैं छुपे हुए,
स्माइल में बारी-बारी।।
नाम बड़ा हो गया है अब,
बेखौफ उड़ते वल्चर का।।
गुलमोहर से अधिक मनोहर,
दौर मुखौटा कल्चर का।।
नए साल का मौका है,
स्वच्छंद जश्न का धूम-धड़ाका।
आत्ममुग्धता ओतप्रोत हो,
पहने नवीनता का जामा।।
लगे आर्किटेक्चर बदला सा,

आधुनिक स्कल्पचर का।।
गुलमोहर से अधिक मनोहर,
दौर मुखौटा कल्चर का।।
कच्ची या ठर्रा से आगे,
हुए उतारू अंग्रेजी पर।
प्रगतिशीलता शान यही,
पहचान नशे की रंगरेजी पर।।
तीरंदाज धुरंधर जो,
पता बता दे टेक्सचर का।।
गुलमोहर से अधिक मनोहर,
दौर मुखौटा कल्चर का।।
(वल्चर-- गिद्ध, चील ; स्कल्पचर -- मूर्तिकला; टेक्सचर -- बनावट, बुनावट )
*
२९. अनूठी दुनिया
.
दुनिया बड़ी अनूठी है।
पर उतनी ही झूठी है।।
माहौल सजे मेकअप सुंदर,
जमाना हुआ बनावट का।
दिखावट का, सजावट का,
बर्फ के जैसा लगता,
ये तासीर तरावट का।
ऊपर से ठंडा अंदर,
उलझी उलझन खाती ,
जाती खौलाहट का।
कुदरत भी लगती मानो,
खुद से जैसे रूठी है।
दुनिया बड़ी अनूठी है,
पर उतनी ही झूठी है।।
बीमार हैं पर अनारदाने,
जैसा दिखने का हुनर है।
आवरण है, अनावरण है,
मुस्कुराने की कला,
के अपने फ्लेवर हैं।
लगाव नहीं सेंटीमीटर,
और किलोमीटर की बातें।
थर्मामीटर जैसे तेवर हैं।।
नकली हीर अंगूठी है।
मन में बसती ठूंठी है।।

दुनिया बड़ी अनूठी है।
पर उतनी ही झूठी है।।
*
३०. लोकाचार लाचारी
.
लोकाचार लाचारी में
नीम चढ़े करेले भी,
केले से मीठे दिखते हैं।।
पीछे साधे रहे गुलेल
आगे भाषा तेल फुलेल
व्यवहार कुशलता ऐसी कि
उनके आगे दुनिया फेल।।
वफादारी के दावे,
दो दो कौड़ी में बिकते हैं।।
नीम चढ़े करेले भी,
केले से मीठे दिखते हैं।।
मगर से रहकर पानी में,
बैर सरासर नादानी।
जैसे हवा चले वैसे ही,
चलते रहना बुद्धिमानी।।
फलसफे वे टेढ़े आंगन,
नाच न आये रखते हैं।।
नीम चढ़े करेले भी,
केले से मीठे दिखते हैं।।
मन में जितनी है कटुता,
बोली में उतनी पटुता।
हनी हो गई नागफनी अब,
काँट शहद की एकजुटता।।
इत्र प्लास्टिक के फूलों,
पर छिड़के रहते हैं।
नीम चढ़े करेले भी,
केले से मीठे दिखते हैं।।
*
३१. आत्मीयता
.
आत्मीयता के प्रसंग अब,
बंद हो चुके नोट जैसे।।
नये साल का स्वागत करने
उमड़ यूफोरिया जाता है।
प्रसरण मंगल संदेशो के
अनमने से, कुछ बेबुने से
दिल से निकले कुछ बेदिल भी
लेकिन माहौल सजाता है।।
हुई रंगत अपनेपन की
नीरसता की ओट जैसे।
आत्मीयता के प्रसंग अब
बंद हो चुके नोट जैसे।।
दुख औरो के भाते रहते
लेकिन सुख खाते हैं कितना।
नही चोचले होते लगता
संसार यहाँ असार कितना।
फॉर्मेलिटी की क्वालिटी का
ना होता विस्तार इतना।।
आर्टिफिशियल रियल लगता
हुआ वर्चुअल चोट जैसे
आत्मीयता के प्रसंग अब
बंद हो चुके नोट जैसे।।
नैतिकता को भौतिकता के
दौर दहर पड़ते दौरे हैं
शमन दमन की युक्ति उक्ति
को मिलती कितनी ठौरे हैं।
रिश्ते कभी न हो दंगलमय,
सब कुछ हो जाए मंगलमय।
असली पर फसली खुशी की,
पकी जा रही रोट जैसे।
आत्मीयता के प्रसंग अब,
बंद हो चुके नोट जैसे।।
*
३२. गगन पर चांद
.
दूर गगन पर बैठा चांद।
बात इशारों में करता है।।
चांदनी की रेशम चूनर
गोट सितारे वाली झूमर
छम छम छम पायल की सरगम
मद्धम मद्धम गिरती शबनम
उजली रौनक आसमान पर
नेह बरसती इस जहान पर
चाँद निहार रहा टक टक क्यो ।
जाने किस पर वो मरता है।।
दूर गगन पर बैठा चांद
बात इशारों में करता है।।
जब नयन नींद से बोझिल हो
दिल भारी यादों से मिल हो
पीर झरोखा खोला जिसने
रहबर माना बोला जिसने
दूरी से भी सुन लेता वो
अपनापन भी देता है वो।।
आशा के शीतल निर्झर को,
मन की मटकी में भरता है।।
दूर गगन पर बैठा चांद,
बात इशारों में करता है।।
*
३३. चेतना
.
निर्बाध करती
भक्ति की शक्ति जहां में
प्रीत की ही
चेतना है,
बनाए रखिए।
कुछ भाग्य के
कमतर ही होंगे
जो हैं घबराते
बचा पाते नहीं
जब आराध्य को मंदिर
ह्रदय को भी मिल गयी मूरत
मगर गाते नहीं
ह्रदय की गहरी
वादियों में
सज रही सुंदर
मृदुल संवेदना है
सजाए रखिए।
मंद मलय के सुर साज पर
संगीत की सरगम
सजाई है समां ने
स्वयं नटराज सुंदर
नृत्य करते मोहते मन
तार झंकृत आसमां के
नव सुरो के
नव स्वरों को सादगी से
उन्मुक्त नभ
को भेदना है
याद रखिए
जब तलक उम्मीद का
दीपक जले श्रद्धा चले
मिलकर गले
हर हाल मे
तीव्रता की हो लहर
या फिर भंवर के घेर में
हों सिलसिले पड़ताल के
कुरेदने की
आग का दरिया बड़ी
वीभत्सकारी वेदना है
बचाए रखिए।
*
३४. ताजा हो ले
.
तृषा मिटा ले, माजा हो ले।
ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले।
रफ्ता-रफ्ता धीरे-धीरे।
कितनी दूर चला आया।।
कैसी-कैसी पगडंडी से
नीम अकेला ही आया।।
तन जा तन्नक राजा हो ले।।
ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले ।।
आकर-जाते जाकर-आते ।
पल जैसे युग बीत गये।।
लड़ते-भिड़ते रोते-हँसते
सावन कितने रीत गये।।
उम्मीदों का बाजा हो ले।
ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले ।।
उठते-गिरते गिरते-उठते।
चलना तू भी सीख गया ।।
तूफां फिसलन लाख करे तू
पाँव जमाना सीख गया।।
खुद बन्दा, खुद ख्वाजा हो ले।
ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले ।।
***

गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

doha karyashala

नव लेखन कार्य शाला:
दोहा सलिला
सुनीता सिंह
*
पीड़ा मे क्यो डूबता, बैठ करे संताप।
ले बीड़ा उपचार का, अपना रहबर आप।।
.
क्यों पीड़ा से हारकर, करे मनुज संताप?
ले बीड़ा उपचार का, बन निज रहबर आप।।
*
देती कुदरत राह भी , निर्भय देख प्रयास।
कातर नयना क्यो खड़ा, ढूँढ तमस मे आस।।
.
कुदरत देती राह यदि, हो अनवरत प्रयास।
नयन झ्ककर क्यों खड़ा?, ढूँढ तमस में आस।।
*
रात अंधियारी घनी, लगे प्राण ले जाय।
भोर सुहानी सी कभी, रोक नहीं पर पाय।।
.
घोर अँधेरी रात से, भीत न हो नादान।
भोर सुहानी कब रुके?, ऊगे अभय विहान।।
*
रोक सके कोई नहीं, होनी हो सो होय।
घटती अनहोनी कहीं, जिजीविषा न खोय।।
.
रोक न सकता कोई भी, होनी होती मीत।
अनहोनी होती नहीं, यही जगत की रीत।।
*
खेवनहार सँवारता, खेवत जो सब नाव।
ईश नाम मरहम रहा, फिर चाहे जो घाव।।
.
खेवनहार लगा रहा, पार सभी की नाव।
ईश नाम मरहम लगा, चाहे जो हो घाव।।
*
राधा मोहन को जपे, मोहन राधा नाम।
अनहोनी फिर भी रही, पीड़ा रही तमाम।।
.
राधा मोहन को जपे, मोहन राधा नाम।
अनहोनी फिर भी हुई, पीड़ित उम्र तमाम।।
*
चाहो जो मिलता नहीं, मिले नहीं जो चाह।
देने वाला जानता, कौन सही है राह।
.
मनचाहा मिलता नहीं, किंतु तजो मत चाह।
देनेवाला दे-न दे, चलता चल निज राह।।
*
मोल चाहने का हुआ, चाह बिना बेकार।
नजर नजर का फेर है, नेह नजर दरकार ।।
.
मोल चाह का कौन दे?, चाह सदा अनमोल।
नजर-नजर का फेर है, नजर न बोली बोल।।
*
नीड़ नयन में नीर का, नहीं नजर का नूर।
संग नाम भगवान का, नजर न हो बेनूर।।
.
नीड़ नयन में नीर का, नहीं नजर का नूर। नयन बसे भगवान तो, नजर न हो बेनूर।
*
जीवन समझत युग गया, समझ सका ना कोय।
मन का भार उतारिए, जो होनी सो होय।।
.
जीवन जीते युग गया, जी पाया कब कौन?
क्या होगा मत सोचिए, होने दें रह मौन।।
*
@सुनीता सिंह (27-12-2017)

संशोधनोपरांत

सुन निज मन क्या कह रहा, देता क्या संदेश। सोच-विचारे पग बढ़े, भ्रमित हुए बिन लेश।।
पहले सोचा फिर किया, पर न सही परिणाम। मिले माथ पर जो लिखा, पीड़ा का क्या काम।। सबकी अपनी जिन्दगी, अपनी-अपनी राह। पर पथ अनुगामी बने, रहे न ऐसी चाह।। मिली आस दो पल रही, पुलक गयी फिर बीत। तड़ित उजाला रात में, तमस वही फिर रीत।। पुष्प सुवासित कर रहा, बगिया को चहुँओर। हवा तेज है क्या पता, कब त्रासद हो घोर।। भवसागर में चल रहा, लेकर भार अपार। पग-पग पर भँवरें खड़ीं, चल सब भार उतार। परत दर परत जम रही, हुई पीर हिमस्नात। पिघलाकर बारिश करो, धोकर मन आघात।। हस्ती सबकी है यहाँ, तारक, सूरज,चाँद। जिसकी जब बारी रही, छोड़ निकलता माँद।। जब विपदा मुश्किल- नहीं बचना हो आसान। राह भक्ति की तब चले, परा शक्ति को मान।। ह्रदय तोड़कर आपदा, कर दे जब मजबूर। मौन सफर भीतर हुआ, तब पहचाना नूर।। डूब गया अवसाद में, रहा दर्द से जूझ। मर्जी रब की ही चले , बात यही बस बूझ।। अंधकार दम घोंटता, प्राणवायु ही फाँस। पीर कलेजा चीरती, देता जुगनू झाँस।। प्राण निकलने को तड़े, अति से हो संत्रास। या फिर पीर पहाड़ सी, बने काल का ग्रास।। पीड़ा को वीणा बना, छेड़ दर्द के गीत। जो मिलना मिलकर रहे, विलन या विरह मीत।। द्वेष बढ़ाने से कभी, मिटे न निज मन क्लेश। दिया जला समभाव का, तब सुरभित संदेश । छाई धुंध कुहास की, राह धुएँ में लीन। भानु-डीप भी लापता, रहे थरथरा दीन।। कहे वचन शीतल सदा, घोलें शहद-मिठास। औरों से ज्यादा मिले, खुद को ही मधुमास।।
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मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

karyashala: navgeet

कार्यशाला
नवगीत
सुनीता सिंह
"ताजा हो ले" बोझ गिराकर हल्का हो ले। ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले। रफ्ता रफ्ता धीरे-धीरे। तू कितनी दूर चला आया।। कैसी-कैसी पगडंडी से। चलकर नीम अकेला आया।। तू ही अपना राजा हो ले।। ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले ।। आकर-जाते जाकर-आते । पल कैसे इतने बीत गये।। लड़ते भिड़ते रोते हँसते। युग सावन कितने रीत गये।। उम्मीदों का बाजा हो ले। ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले ।। उठते गिरते गिरते उठते। चलना तो तू भी सीख गया ।। तूफां फिसलन लाख करे पर। तू पाँव जमाना सीख गया।। तू अपना खुद ख्वाजा हो ले। ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले ।।
मूल रचना
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"ताजा हो ले"
प्यास बुझाने माजा हो ले। ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले। रफ्ता-रफ्ता धीरे-धीरे। कितनी दूर चला आया।। कैसी-कैसी पगडंडी से नीम अकेला ही आया।। तन जा तन्नक राजा हो ले।। ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले ।। आकर-जाते जाकर-आते । पल जैसे युग बीत गये।। लड़ते-भिड़ते रोते-हँसते सावन कितने रीत गये।। उम्मीदों का बाजा हो ले। ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले ।। उठते-गिरते गिरते-उठते। चलना तू भी सीख गया ।। तूफां फिसलन लाख करे तू पाँव जमाना सीख गया।। खुद बन्दा, खुद ख्वाजा हो ले। ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले ।।
(कुछ बदलाव के बाद)
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गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

navgeet

नवगीत- नया हस्ताक्षर
संवाद



सुनीता सिंह
*
क्या सोच कर
आईं यहाँ तुम
और क्या तुमको मिला है?
कह सकोगी??
.
चुन लिये माँ-बाप तुमने
इस धरा पर
आगमन को.
यह बताओ
देह देकर आत्मा को
कर सकीं
अपना चमन को?
कुछ कहो तो.

थे सुनहरे
ख्वाब जीने के
मिला तुमको सिला क्या?
कह सकोगी?
.
जब हुआ मालूम
पलती कोख में
नव चाँदनी है
यह बताओ
क्या हुई हलचल? समा क्या था?
खुशी थी या उदासी?
कुछ कहो भी.

आई हो तुम मान अपना
जिन जनों को
मिली उन निर्मोहियों से पीर कितनी
कह सकोगी?
.
साँस चलती, रोकने
मिल कैचियाँ
आगे बढ़ीं,
कैसे? बताओ.
कट रहे थे
अंग, घुटती सांस
की चीत्कार बेबस
भी सुनाओ।


सुन मौन चीखें
विधाता ने
दिया है अभिशाप कितना,
कह सकोगी?
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18-12-2017