१. मानव जो अनुभव करे, करना चाहे व्यक्त / माध्यम ध्वनि-मुद्रा बने, रहे न बात अव्यक्त
२. जो अनुभूति हुई जहाँ, सम्प्रेषण के
योग्य / ध्वनि वाहक अनुभूति की, बनी वहीं विनियोग्य
३. भाव व्यक्त मुद्रा करे, सुख-दुःख का
अहसास / एक-दूसरा कर सके, हो अपनापन ख़ास
४. दर्द-पीर; संवेदना, मन से मन के तार /
जोड़ मिटाती दूरियाँ, उपजा प्यार-दुलार
५. दुःख बाँटे से घट सके, सुख बाँटे हो
वृद्धि / दोनों जब मिल बाँटते, होती तभी समृद्धि
६. मत अभाव रख भाव का, समरस रहे स्वभाव /
हो सुख-दुःख में एक जो, उसका बढ़े प्रभाव
७. पशु-पक्षी भी बाँटते, अनुभव ध्वनि कर
नित्य / भोर-साँझ कलरव करें, हो अनुभूति अनित्य
८. कलकल प्रवहित सलिल ध्वनि, दे मन को
आनंद / भय उपजाती नर्मदा, जल-प्लावन ज्यों फंद
९. मेघ गरजकर बताते, होना है जल-वृष्टि /
दूर मिले संदेश यदि, पहुँच न पाए दृष्टि
१०. दादुर टर्राते अगर, पावस का आभास / हो जाता बरसे बिना,
मनुज न पाता त्रास
११. झींगुर बोलें रात में, जैसे बजे सितार / सन्नाटे को चीरती,
ध्वनि हो मन के पार
१२. कूदें जब कपि वृक्ष पर, हूह करें संकेत / खतरा है वनराज
का, जो पाया हो खेत
१३. फुँफकारे जब नाग तो, मन जाता है काँप / देख भले पाए नहीं,
आप विषैला साँप
१४. ध्वनि की महिमा है बड़ी, मनुज न सकता भूल / प्राण बचे यदि
समय पर, कदम उठे अनुकूल
१५. ध्वनि होती अक्षर-अजर, अमर शून्य में व्याप / दो बिछुड़ों
को जोड़ती, मिटा विरह का ताप
१६. ध्वनियाँ मिलकर अर्थ की, करती हैं अभिव्यक्ति / इसको हुई
प्रतीति जो, करे अन्य जो व्यक्ति
१७. सार्थक ध्वनियों से बने, भाषा का संसार / अर्थ न हो तो शोर
ध्वनि, जिसमें तनिक न सार
१८. ध्वनियों का सम्मिलन ही, रच देता है शब्द / अगर नहीं
दुनिया रहे, गूँगी बधिर निशब्द
१९. भाषा बने समृद्ध जब, भरे शब्द-भण्डार / बिन शब्दों के हो
नहीं, भावों का व्यापार
२०. शब्द-शब्द मिल कर गले, वाक्य बनें; दें अर्थ / शब्द-भेद से
व्याकरण, होती प्रबल समर्थ
२१. अनुच्छेद है वाक्य का, छोटा-बड़ा समूह / जैसे सैनिक बनाते,
पंक्तिबद्ध हो व्यूह
२२. लय को रखकर ध्यान में, कुछ कहते जब तात / पद्य जन्म ले कर करे,
कम में ज्यादा बात
२३. वाक् बिना नीरस
रहे, सकल सृष्टि व्यापार / विकसित हो वाचिक प्रथा, बने ज्ञान आगार
२४. लय में गति-यति जब मिले, तब आता ठहराव / कहने-सुनने में
बढ़े, रसमय भाव-प्रवाह
२५. गति-यति; लय-रस एक हों, करते जब अनुबंध / तब प्रभाव होता
अधिक, बढ़ते कुछ प्रतिबन्ध
२६. जल-लहरों सा शब्द भी, रखें उतार-चढ़ाव / भाव अधिक हो व्यक्त
तब, करिए सहज निभाव
२७. वाचिक काव्य परंपरा, है कविता का मूल / किया विस्मरण तो
हिली, काव्य-शास्त्र की चूल
२८. लोक-काव्य में वाक् का, हुआ सदैव विकास / लोक-गीत जन-मन
बसे, बन अधरों का हास
२९. लोक-काव्य का अध्ययन, कर रच छंद-विधान / काव्य-शास्त्रियों
ने किया, छंद-शास्त्र का गान
३०. पिंगल के हर छंद का, मूल वाक् सच मान / ध्वनि-उच्चार न
भूलना, ध्वनि है रस की खान
३१. ‘कथ्य’ काव्य का मूल है, ‘लय’ कविता की जान / ‘रस’ बंधन है
स्नेह का, शिल्प मात्र परिधान
३२. जो कहना वह कह सके, काव्य तभी हो ग्राह्य / मात्र शब्द
बंधन अगर, होता काव्य अग्राह्य
३३. वाचिक छंदों ने किया, कथ्य-भाव का मान / रस लय मात्रा वर्ण
का, कम महत्व लें जान
३४. वाचिक छंदों में गिने, कितने मात्रा-वर्ण / गति-यति बिन
लिख कवि हुए, लज्जित और विवर्ण
३५. मात्रिक-वार्णिक छंद के, अगणित हुए प्रकार / निकष एक
सर्वोच्च है, छंदों का उच्चार
३६. मात्रा-वर्ण घटे-बढ़े, वाचिक छंद अदोष / मात्रिक-वार्णिक
छंद में, इसे मानिए दोष
३७. कथ्य और लय बाद ही, देखें बाकी अंग / रस-भावों बिन मानिए,
पड़े रंग में भंग
३८. गण विशिष्ट ध्वनि-खंड हैं, करिए यदि उपयोग / उच्चारण
निर्दोष हो, तभी करें विनियोग
३९. बिंब-प्रतीकों से करें, शब्द-चित्र जीवंत / अलंकार मन
मोहता, रमता श्रोता-कंत
४०. मिथक मान्यता से बने, होते ख़ास चरित्र / नाम मात्र से जान
लें, कितना कौन विचित्र?
४१. छंद वेद का चरण है, बिन पग नहीं प्रवेश / वेद-गगन को
नापता, बनकर छंद खगेश
४२. दोहा छंद-नरेश है, जिसको होता सिद्ध / छंद रच सके वह कई,
श्रोता मन हो बिद्ध
४३. भाषा-गौ को दूहकर, दोहा कर पय-पान / पाठक-श्रोता में समा,
करे उन्हें रस-खान
४४. भाषा-सागर मथ मिला, गीति काव्य रस-कोष / समय-शंख दोहा अमर,
करे मूल्य का घोष
४५. दोहा साक्षी समय का, बनता सत्य-गवाह / मूल्य सनातन
देख-सुन, लेता जीवन-थाह
४६. सत-शिव-सुंदर दोहरा, लोक-कंठ का हार / लोक-उक्ति बन कराता,
जन-गण से जयकार
४७. दोहा की दो पंक्तियाँ, पग-पद नापें राह / समा बिंदु में
सिंधु को, कवि से पाता वाह
४८. पंक्ति-पंक्ति में दो चरण, वर्ण-धर्म पुरुषार्थ / चारों मिलकर
पूर्ण हों, करें सतत परमार्थ
४९. दोहा रथ के अश्व द्वय, थमते गुरु-लघु बाद / जगण न रखते आदि
में, बनी रहे मर्याद
५०. विषम चरण दो नेत्र हैं, देखें नियम-विधान / सम चरणों के
कान से, सुनिए सार सुजान
५१. सार-सार को गह रखे, जो असार दे फेक / दोहा मर्यादा पुरुष,
करे आचरण नेक