कुल पेज दृश्य

सोमवार, 30 जुलाई 2018

दोहा दोहा युग कथा



          
१.      मानव जो अनुभव करे, करना चाहे व्यक्त / माध्यम ध्वनि-मुद्रा बने, रहे न बात अव्यक्त
२.      जो अनुभूति हुई जहाँ, सम्प्रेषण के योग्य / ध्वनि वाहक अनुभूति की, बनी वहीं विनियोग्य
३.      भाव व्यक्त मुद्रा करे, सुख-दुःख का अहसास / एक-दूसरा कर सके, हो अपनापन ख़ास
४.      दर्द-पीर; संवेदना, मन से मन के तार / जोड़ मिटाती दूरियाँ, उपजा प्यार-दुलार
५.      दुःख बाँटे से घट सके, सुख बाँटे हो वृद्धि / दोनों जब मिल बाँटते, होती तभी समृद्धि
६.      मत अभाव रख भाव का, समरस रहे स्वभाव / हो सुख-दुःख में एक जो, उसका बढ़े प्रभाव
७.      पशु-पक्षी भी बाँटते, अनुभव ध्वनि कर नित्य / भोर-साँझ कलरव करें, हो अनुभूति अनित्य
८.      कलकल प्रवहित सलिल ध्वनि, दे मन को आनंद / भय उपजाती नर्मदा, जल-प्लावन ज्यों फंद
९.      मेघ गरजकर बताते, होना है जल-वृष्टि / दूर मिले संदेश यदि, पहुँच न पाए दृष्टि
१०. दादुर टर्राते अगर, पावस का आभास / हो जाता बरसे बिना, मनुज न पाता त्रास
११. झींगुर बोलें रात में, जैसे बजे सितार / सन्नाटे को चीरती, ध्वनि हो मन के पार
१२. कूदें जब कपि वृक्ष पर, हूह करें संकेत / खतरा है वनराज का, जो पाया हो खेत  
१३. फुँफकारे जब नाग तो, मन जाता है काँप / देख भले पाए नहीं, आप विषैला साँप
१४. ध्वनि की महिमा है बड़ी, मनुज न सकता भूल / प्राण बचे यदि समय पर, कदम उठे अनुकूल
१५. ध्वनि होती अक्षर-अजर, अमर शून्य में व्याप / दो बिछुड़ों को जोड़ती, मिटा विरह का ताप
१६. ध्वनियाँ मिलकर अर्थ की, करती हैं अभिव्यक्ति / इसको हुई प्रतीति जो, करे अन्य जो व्यक्ति
१७. सार्थक ध्वनियों से बने, भाषा का संसार / अर्थ न हो तो शोर ध्वनि, जिसमें तनिक न सार
१८. ध्वनियों का सम्मिलन ही, रच देता है शब्द / अगर नहीं दुनिया रहे, गूँगी बधिर निशब्द
१९. भाषा बने समृद्ध जब, भरे शब्द-भण्डार / बिन शब्दों के हो नहीं, भावों का व्यापार
२०. शब्द-शब्द मिल कर गले, वाक्य बनें; दें अर्थ / शब्द-भेद से व्याकरण, होती प्रबल समर्थ
२१. अनुच्छेद है वाक्य का, छोटा-बड़ा समूह / जैसे सैनिक बनाते, पंक्तिबद्ध हो व्यूह
२२. लय को रखकर ध्यान में, कुछ कहते जब तात / पद्य जन्म ले कर करे, कम में ज्यादा बात
२३.  वाक् बिना नीरस रहे, सकल सृष्टि व्यापार / विकसित हो वाचिक प्रथा, बने ज्ञान आगार
२४. लय में गति-यति जब मिले, तब आता ठहराव / कहने-सुनने में बढ़े, रसमय भाव-प्रवाह
२५. गति-यति; लय-रस एक हों, करते जब अनुबंध / तब प्रभाव होता अधिक, बढ़ते कुछ प्रतिबन्ध
२६. जल-लहरों सा शब्द भी, रखें उतार-चढ़ाव / भाव अधिक हो व्यक्त तब, करिए सहज निभाव
२७. वाचिक काव्य परंपरा, है कविता का मूल / किया विस्मरण तो हिली, काव्य-शास्त्र की चूल
२८. लोक-काव्य में वाक् का, हुआ सदैव विकास / लोक-गीत जन-मन बसे, बन अधरों का हास
२९. लोक-काव्य का अध्ययन, कर रच छंद-विधान / काव्य-शास्त्रियों ने किया, छंद-शास्त्र का गान
३०. पिंगल के हर छंद का, मूल वाक् सच मान / ध्वनि-उच्चार न भूलना, ध्वनि है रस की खान
३१. ‘कथ्य’ काव्य का मूल है, ‘लय’ कविता की जान / ‘रस’ बंधन है स्नेह का, शिल्प मात्र परिधान
३२. जो कहना वह कह सके, काव्य तभी हो ग्राह्य / मात्र शब्द बंधन अगर, होता काव्य अग्राह्य
३३. वाचिक छंदों ने किया, कथ्य-भाव का मान / रस लय मात्रा वर्ण का, कम महत्व लें जान
३४. वाचिक छंदों में गिने, कितने मात्रा-वर्ण / गति-यति बिन लिख कवि हुए, लज्जित और विवर्ण
३५. मात्रिक-वार्णिक छंद के, अगणित हुए प्रकार / निकष एक सर्वोच्च है, छंदों का उच्चार
३६. मात्रा-वर्ण घटे-बढ़े, वाचिक छंद अदोष / मात्रिक-वार्णिक छंद में, इसे मानिए दोष
३७. कथ्य और लय बाद ही, देखें बाकी अंग / रस-भावों बिन मानिए, पड़े रंग में भंग
३८. गण विशिष्ट ध्वनि-खंड हैं, करिए यदि उपयोग / उच्चारण निर्दोष हो, तभी करें विनियोग
३९. बिंब-प्रतीकों से करें, शब्द-चित्र जीवंत / अलंकार मन मोहता, रमता श्रोता-कंत
४०. मिथक मान्यता से बने, होते ख़ास चरित्र / नाम मात्र से जान लें, कितना कौन विचित्र?
४१. छंद वेद का चरण है, बिन पग नहीं प्रवेश / वेद-गगन को नापता, बनकर छंद खगेश
४२. दोहा छंद-नरेश है, जिसको होता सिद्ध / छंद रच सके वह कई, श्रोता मन हो बिद्ध
४३. भाषा-गौ को दूहकर, दोहा कर पय-पान / पाठक-श्रोता में समा, करे उन्हें रस-खान
४४. भाषा-सागर मथ मिला, गीति काव्य रस-कोष / समय-शंख दोहा अमर, करे मूल्य का घोष
४५. दोहा साक्षी समय का, बनता सत्य-गवाह / मूल्य सनातन देख-सुन, लेता जीवन-थाह
४६. सत-शिव-सुंदर दोहरा, लोक-कंठ का हार / लोक-उक्ति बन कराता, जन-गण से जयकार
४७. दोहा की दो पंक्तियाँ, पग-पद नापें राह / समा बिंदु में सिंधु को, कवि से पाता वाह
४८. पंक्ति-पंक्ति में दो चरण, वर्ण-धर्म पुरुषार्थ / चारों मिलकर पूर्ण हों, करें सतत परमार्थ
४९. दोहा रथ के अश्व द्वय, थमते गुरु-लघु बाद / जगण न रखते आदि में, बनी रहे मर्याद
५०. विषम चरण दो नेत्र हैं, देखें नियम-विधान / सम चरणों के कान से, सुनिए सार सुजान
   ५१. सार-सार को गह रखे, जो असार दे फेक / दोहा मर्यादा पुरुष, करे आचरण नेक

हिंदी आरती


हिंदी आरती
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*

शिव पर दोहे

शिव त्रिनेत्र से देखते, तीन काल-त्रैलोक.
जो घटता स्वीकारते, देखें सत्य विलोक.
.
ग्यान-कर्म परिणाम क्या?, किसका-क्या शुभ-लाभ?
सर्व हितैषी सदा शिव, श्वेत श्याम नीलाभ.
.
शिव न नगरवासी हुए, शिव का महल न भव्य.
दिशा दिवालें हो गईं, नील गगन छत नव्य.
.
शिव संकल्प न छोड़ते, शिव न भूलते भाव,
हर अभाव स्वीकारना, शिव का सहज स्वभाव.
.
शिव शंकर पर रीझ मन, हरि शंकर भज नित्य.
पूज उमा शंकर सलिल- रवि शंकर सान्निध्य.
.
उमा अरुणिमा सूर्य शिव, हैं श्रद्धा-विश्वास.
श्वास-श्वास में बस रहे, बने आस-आवास.
.
शिव सम्पद चाहें नहीं, शिव को भाता भाव.
मन रम जा शिव-भक्ति में, भागे भूत-अभाव.
.
2.1.2018
शिव-परिवार न जन्मना, नहीं देह-संबंध.
स्नेह-भावना तंतुमय, है अनादि अनुबंध.
.
शिवा-पुत्र शिव का नहीं, शिव लें अपना मान.
शिव-सुत अपनातीं शिवा, छिड़कें उस पर जान.
.
वृषभ-बाघ दुश्मन मगर, संग भुलाकर बैर.
कुशल तभी जब मनाएँ, सदा परस्पर खैर.
.
अमृत-विष शशि-सर्प भी, हैं विपरीत स्वभाव.
किंतु परस्पर प्रेम से, करते 'सलिल' निभाव.
.
गजमुख गणपति स्थूल हैं, कार्तिक चंचल-धीर.
कोई किसी से कम नहीं, दोनों ही मति-धीर.
.
गरल ताप को शांत कर, बही नर्मदा धार,
शिव-तनया सोमात्मजा दर्शन से उद्धार.
.
शिव न शत्रुता पालते, रहते परम प्रसन्न.
रहते खाली हाथ पर, होते नहीं विपन्न.
.
3.1.2018
शिव अनेक से एक हों, शिव हैं शुद्ध विवेक.
हों अनेक पुनि एक से, नेक न कभी अ-नेक.
.
शिव ही सबके प्राण हैं, शिव में सबके प्राण.
धूनी रचा मसान में, शिव पल-पल संप्राण.
.
शिव न चढावा चाहते, माँगें नहीं प्रसाद.
शिव प्रसन्न हों यदि करे, निर्मल मन फ़रियाद.
.
शिव भोले हैं पर नहीं, किंचित भी नादान.
पछताते छलिया रहे, लड़े-गँवाई जान.
.
हर भव-बाधा हर रहे, हर पल हर रह मौन.
सबका सबसे हित सधे, कहो ना चाहे कौन?
.
सबका हित जो कर रहा, बिना मोह छल लोभ.
वह सच्चा शिवभक्त है, जिसे न हो भय-क्षोभ.
.
शक्तिवान शिव, शक्ति हैं, शिव से भिन्न न दूर.
चित-पट जैसे एक हैं, ये कंकर वे धूर.
.....
4.1.2018

वृषभ सवारी कर हुए, शिव पशुओं के साथ।
पशुपति को जग पूजता, विनत नवाया माथ।।
*
कृषि करने में सहायक, वृषभ हुआ वरदान।
ऋषभनाथ शिव कहाए, सृजन सभ्यता महान।।
*
ऋषभ न पशु को मारते, सबसे करते प्रेम।
पंथ अहिंसक रच किया, सबका सबसे क्षेम।।
*
शिवा बाघ शिशु का बदल, हिंसक दुष्ट स्वभाव।
बना अहिंसक सवारी, करतीं नेक प्रभाव।।
*
वंशज मनुज को सभ्य कर, हर शंका कर दूर।
शिव शंकर होकर पुजे, पा श्रद्धा भरपूर।।
*
७.१.२०१८

शिव को पा सकते नहीं, शिव से सकें न भाग।
शिव अंतर्मन में बसे, मिलें अगर अनुराग।।
*
शिव को भज निष्काम हो, शिव बिन चले न काम।
शिव-अनुकंपा नाम दे, शिव हैं आप अनाम।।
*‍
वृषभ-देव शिव दिगंबर, ढंकते सबकी लाज।
निर्बल के बल शिव बनें, पूर्ण करें हर काज।।
*
शिव से छल करना नहीं, बल भी रखना दूर।
भक्ति करो मन-प्राण से, बजा श्वास संतूर।।
*
शिव त्रिनेत्र से देखते, तीन लोक के भेद।
असत मिटा, सत बचाते, करते कभी न भेद।।
*
१५.१.२०१८
एफ १०८ सरिता विहार, दिल्ली


शिव में खुद को देख मन, मनचाहा है रूप।
शिव को खुद में देख ले, हो जा तुरत अरूप।।
*
शिव की कर ले कल्पना, जैसी वैसा जान।
शिव को कोई भी कहाँ, कब पाया अनुमान?
*
शिव जैसे शिव मात्र हैं, शिव सा कोई न अन्य।
आदि-अंत, नागर सहज, सादि-सांत शिव वन्य।।
*
शिव से जग उत्पन्न हो, शिव में ही हो लीन।
शिवा शक्ति अपरा-परा, जड़-चेतन तल्लीन।।
*
'भग' न अंग,ऐश्वर्य षड, धर्म ज्ञान वैराग।
सुख समृद्धि यश समन्वित, 'लिंग' सृजन-अनुराग।।
*
राग-विराग समीप आ, बन जाते भगवान।
हों प्रवृत्ति तब भगवती, कर निवृत्ति का दान।।
*
ज्योति लिंग शिव सनातन, ज्योतिदीप हैं शक्ति।
दोनों एकाकार हो, देते भाव से मुक्ति।।
*
१७-१-२०१८

शिव अनंत ज्यों नील नभ, मिलता ओर न छोर।
विष पी अमृत बांटते, नील कण्ठ तमखोर।।
*
घनगर्जन स्वर रुदन सम, अश्रुपात बरसात।
रुद्र नाम दे भक्तगण, सुमिरें कहकर तात।।
*
सुबह-सांझ की लालिमा, बने नेत्र का रंग।
मिला नीललोहित विरुद, अनगिन तारे संग।।
*
चंद्र शीशमणि सा सजा, शशिशेखर दे नाम।
चंद्रनाथ शशिधर सदय, हैं बालेंदु अकाम।।
*
महादेव महनीय हैं, असुरेश्वर निष्काम।
देवेश्वर कमनीय को, करतीं उमा प्रणाम।।
*
जलधर विषधर अमियधर, ले त्रिशूल त्रिपुरारि।
डमरूधर नगनाथ ही, काममुक्त कामारि।।
*
विश्वनाथ समभाव से, देखें सबकी ओर।
कथनी-करनी फलप्रदा, अमिट कर्म की डोर।।
*
जो बोया सो काट ले, शिव का कर्म-विधान।
भेंट-चढ़ोत्री व्यर्थ है, करते नजर नादान।।
*
महाकाल निर्मम निठुर, भूले माया-मोह।
नहीं सत्य-पथ से डिगें, सहते सती-विछोह।।
*
करें ओम् का जप सतत, ओंकारेश्वर-भक्त।
सोमनाथ सौंदर्य प्रिय, चिदानंद अनुरक्त।।
*
शूलपाणि हर कष्ट सह, हॅंसकर करते नष्ट।
आपद से डरते नहीं, जीत करें निज इष्ट।।
*
२२.१.२०१८, जबलपुर

शिव हों, भाग न भोग से, हों न भोग में लीन।
योग साध लें भोग से, सजा साधना बीन।।
*
चाह एक की जो बने, दूजे की भी चाह।
तभी आह से मुक्ति हो, दोनों पाएं वाह।।
*
प्रकृति-पुरुष हैं एक में दो, दो में हैं एक।
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हों, सुख दे-पा सविवेक।।
*
योनि जीव को जो मिली, कर्मों का परिणाम।
लिंग कर्म का मूल है, कर सत्कर्म अकाम।।
*
संग तभी सत्संग है, जब अभंग सह-वास।
संगी-संगिन में पले, श्रृद्धा सह विश्वास।
*
मन में मन का वास ही, है सच्चा सहवास।
तन समीप या दूर हो, शिथिल न हो आभास।।
*
मुग्ध रमणियों मध्य है, भले दिगंबर देह।
शिव-मन पल-पल शिवा का, बना हुआ है गेह।।
*
तन-मन-आत्मा समर्पण, कर होते हैं पूर्ण।
सतत इष्ट का ध्यान कर, खुद होते संपूर्ण।।
*
भक्त, भक्ति, भगवान भी, भिन्न न होते जान।
गृहणी, गृहपति, गृह रहें, एक बनें रसखान।।
*
शंका हर शंकारि शिव, पाकर शंकर नाम।
अंतर्मन में व्यापकर, पूर्ण करें हर काम।।
*
नहीं काम में काम हो, रहे काम से काम।
काम करें निष्काम हो, तभी मिले विश्राम।।
*
३१.१.२०१८, जबलपुर

कौर त्रिलोचन के हुए, गत अब आगत मीत।
उमा मौन हो देखतीं, जगत्पिता की प्रीत।।
*
यह अनुपम वह निरुपमा, गौर-बौरा साथ।
'सलिल' धन्य दर्शन मिले, जुड़े हाथ, नत माथ।।
*
शिव विद्येश्वर नित्य हैं, रुद्र उमेश्वर सत्य।
शिव अंतिम परिणाम हैं, शिव आरंभिक कृत्य।।
*
कैलाशी कैलाशपति, हैं पिनाकपति भूत।
भूतेश्वर शमशानपति, शिव हैं काल अभूत।।
*
शिव सतीश वागीश हैं, शिव सुंदर रागीश।
शून्य-अशून्य सुशील हैं, आदि नाद नादीश।।
*
शिव शंभू शंकर सुलभ, दुर्लभ रतिपतिनाथ।
नाथ अपर्णा के अगम, शिव नाथों के नाथ।।
*
शिव अनाथ के नाथ हैं, सचमुच भोलेनाथ।
बड़भागी है शीश वह, जिस पर शिव का हाथ।।
*
हाथ न शिव आते कभी, दशकंधर से जान।
हाथ लगाया खो दिया, सकल मान-सम्मान।।
*
नर्मदेश अखिलेश शिव, पर्वतेश गगनेश।
निर्मलेश परमेश प्रभु, नंदीश्वर नागेश।।
*
अनिल अनिल भू नभ सलिल, पंचतत्वपति ईश।
शिव गति-यति-लय छंद हैं, शंभु गिरीश हरीश।।
*
मंजुल मंजूनाथ शिव, गुरुओं को गुरुग्राम।
खास न शिव को पा सके, शिव को अतिप्रिय आम।।
*
आम्र मंजरी-धतूरा, अमिय-गरल समभाव।
शिव-प्रिय शशि है, सर्प भी, शिव में भावाभाव।।
*
भस्मनाथ शिव पुरातन, अति नवीन अति दिव्य।
सरल-सुगम सबको सुलभ, शिव दुर्लभ अति भव्य।।
*
१५-२-२०१८, ८.४५, एच ए १ महाकौशल एक्सप्रेस

***
दोहा में शिव तत्व
*
दोहा में शिव-तत्व है, दोहा भी शिव-तत्व।
'सलिल' न भ्रम यह पालना, दोहा ही शिव-तत्व।।
*
अजड़ जीव, जड़ प्रकृति सह, सृष्टि-नियंता मौन।
दिखते हैं पशु-पाश पर, दिखें न पशुपति, कौन?
*
अक्षर पशु ही जीव है, क्षर प्रकृति है पाश।
क्षर-अक्षर से परे हैं, पशुपति दिखते काश।।
*
पशुपति कुमार ही कृपा से, पशु को होता ज्ञान।
जान पाश वह मुक्त हो, कर पशुपति का ध्यान।।
*
पुरुषोत्तम पशुपति करें, निज माया से मुक्त।
माया-मोहित जीव पशु, प्रकृति मायायुक्त।।
*
क्षर प्रकृति अक्षर पुरुष, दोनों का जो नाथ।
पुरुषोत्तम शिव तत्व वह, जान झुकाकर माथ।।
*
है अनादि बिन अंत का, क्षर-अक्षर संबंध।
कर्मजनित अज्ञान ही, सृजे जन्म अनुबंध।।
*
माया शिव की शक्ति है, प्रकृति कहते ग्रंथ।
आच्छादित 'चिद्' जीव है, कर्म मुक्ति का पंथ।।
*
आच्छादक तम-तोम है, निज कल्पित लें मान।
शुद्ध परम शिव तम भरें, जीव करे सत्-भान।।
*
काल-राग-विद्या-नियति, कला भोगता जीव।‌
पुण्य-पाप सुख-दुख जनित, फल दें करुणासींव।।
*
मोह वासना अविद्या, जीव कर्म का मैल।
आत्मा का आश्रय गहे, ज्यों पानी पर तैल।।
*
कर्म-नाश हित भोग है, मात्र भोग है रोग।
जीव-भोग्या है प्रकृति, हो न भोग का भोग।।
*
शिव-अर्पित कर कर्म हर, शिव ही पल युग काल।
दशा, दिशा, गति, पंथ-पग, शिव के शिव दिग्पाल।।
*
३.३.२०१८



काम करें निष्काम हो, फल की करें न आस। श्री वास्तव में तब मिले, बुझे आत्म की प्यास।।
*
चित्र गुप्त होता प्रगट, देखें मन में झाँक। मैं तू यह वह एक हैं, सत्य कभी यह आँक।।
*
खरे काम का खरा ही, होता है परिणाम। जो खोटा उसका बुरा, आज न कल अंजाम।।
*
निगम न गम कर; थके बिन, कर ले सतत प्रयास। गिर उठ बढ़ता रह अथक, श्वास-श्वास मधुमास।।
*
शक-सेना का अंत कर, खुद पर कर विश्वास। सक्सेना की कोशिशें, दें अधरों को हास।।
*
भट है योद्धा पराक्रमी, नागर सबका मित्र।
लड़ता देश-समाज हित, उज्जवल रख निज चित्र।।
*
वही पूर्णिमा निरूपमा, जो दे जग उजियार। चंदा तारे नभ धरा, उस पर हों बलिहार।।
*
सूर्य उजाला देकर कहता शुभ प्रभात है। चिड़िया गाना गाकर कहती शुभ प्रभात है।। हम मानव कुछ करें सभी की ख़ातिर अच्छा- धरा पवन नभ सलिल कहें तब शुभ प्रभात है।।
*
समय ग्रन्थ के एक पृष्ठ को संजीवित कर आप रहे। बिंदु सिंधु में, सिंधु बिंदु में होकर नित प्रति व्याप रहे।। हर दिन जन्म नया होना है, रात्रि मूँदना आँख सखे! पैर धरा पर जमा, गगन छू आप सफलता नाप रहे।।
*
निरुपमा की उपमा कैसे शब्द कहेंगे? अपनी अक्षमता पर लज कर मौन रहेंगे।। कसे कसौटी पर कवि बार-बार शब्दों को- पूर्ण न तब भी, आंशिक ही कह 'वाह' गहेंगे।। *