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बुधवार, 7 अगस्त 2019

लघुकथा : सूरज दुबारा डूब गया

लघुकथा :
सूरज दुबारा डूब गया
*
'आज सूरज दुबारा डूब गया', बरबस ही बेटे के मुँह से निकला।
'पापा गलत कह रहे हो,' तुरंत पोती ने कहा।
'नहीं मैं ठीक कहा रहा हूँ। '
'ठीक नहीं कह रहे हो।'
पोती बहस करने पर उतारू दिखी तो बाप-बेटी की बहस में बेटी को डाँट न पड़ जाए यह सोच बहू बोली 'मुनिया, बहस मत कर, बड़ों की बातें तू क्या समझे?'
'ठीक है, मैं न समझूँ तो समझाओ, चुप मत कराओ।'
'बेटे ने मोबाइल पर एक चित्र दिखाते हुए कहा 'देखो इनके माथे पर सूरज चमक रहा है न?'
'हाँ, पूरा चेहरा सूरज की रौशनी से जगमगा रहा है।'
तब तक एक और चित्र दिखाकर बेटे ने कहा- 'देखो सूरज पहली बार डूब गया।'
पोती ने चित्र देख और उसके चेहरे पर उदासी पसर गयी।
अब बेटे ने तीसरा चित्र दिखाया और कहा 'देखो सूरज फिर से निकल आया न?'
यह चित्र देखते ही पोती चहकी 'हाँ, चहरे पर बिलकुल वैसी ही चमक।'
बेटा चौथा चित्र दिखा पाता उसके पहले ही पोती बोल पडी 'पापा! सच्ची सूरज दुबारा डूब गया।'
बेटा पोती को लेकर चला गया। मैंने प्रश्न वाचक दृष्टि से बहू को देखा जो पोती के पीछे खड़ी थी। पिता जी! पहला चित्र शास्त्री जी और ललिता जी एक था, दूसरा ताशकंद में शास्त्री जी को खोने के बाद ललिता जी का और तीसरा सुषमा स्वराज जी का।
मैं और बहू सहमत थे की सूरज दुबारा डूब गया।
*

सोमवार, 27 मई 2019

नवगीत

नवगीत:
संजीव 
*
चलो मिल सूरज उगायें 
*
सघनतम तिमिर हो जब
उज्ज्वलतम कल हो तब
जब निराश अंतर्मन-
नव आशा फल हो तब
विघ्न-बाधा मिल भगायें
चलो मिल सूरज उगायें
*
पत्थर का वक्ष फोड़
भूतल को दें झिंझोड़
अमिय धार प्रवहित हो
कालकूट जाल तोड़
मरकर भी जी जाएँ
चलो मिल सूरज उगायें
*
अपनापन अपनों का
धंधा हो सपनों का
बंधन मत तोड़ 'सलिल'
अपने ही नपनों का
भूसुर-भुसुत बनायें
चलो मिल सूरज उगायें
*
27-5-2015

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

navgeet

एक रचना
कोई बताए?
*
उगा सूरज कहाँ से
कोई बताए?
*
खबर है
सच बोलता है एक नेता।
मिला है अफसर
नहीं जो घूस लेता।
आधुनिक महिला
मिली दीपक जलाए।
उगा सूरज कहाँ से
कोई बताए?
*
एक ठेकेदार
पूरा काम करता।
एक जज जो
न्याय देने में न डरता।
दिखा विज्ञापन
न जो मिथ्या दिखाए।
उगा सूरज कहाँ से
कोई बताए?
*
परीक्षा जिसमें
नकल किंचित न होती।
नदी कोइ जो
न गंदी; सूख रोती।
एक अधिवक्ता
न जो पेशी बढ़ाए।
उगा सूरज कहाँ से
कोई बताए?
*
एक नारी जो
न नर को दोष देती।
देश-उन्नति
साथ जिसके बढ़े खेती।
पुजारी जो
भोग प्रभु का खुद न खाए।
उगा सूरज कहाँ से
कोई बताए?
*
संजीव
१३-१२-२०१८

मंगलवार, 9 जनवरी 2018

tasalees: suraj

तसलीस (उर्दू त्रिपदी)                                                                                      
सूरज 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बिना नागा निकलता है सूरज,
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज..
*
सुबह खिड़की से झाँकता सूरज,
कह रहा जग को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं खुद को आंकता सूरज..
*
उजाला सबको दे रहा सूरज,
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज..
*
आँख रजनी से चुराता सूरज,
बाँह में एक, चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लड़ाता सूरज..
*
जाल किरणों का बिछाता सूरज,
कोई चाचा न भतीजा कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज..
*
भोर पूरब में सुहाता सूरज,
दोपहर-देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज..
*
काम निष्काम ही करता सूरज,
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
खुद पे खुद ही नहीं मरता सूरज..
 *
अपने पैरों पे ही बढ़ता सूरज,
डूबने हेतु क्यों चढ़ता सूरज?
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज..
*
लाख़ रोको नहीं रुकता सूरज,
मुश्किलों में नहीं झुकता सूरज.
मेहनती है नहीं चुकता सूरज..
*****

शनिवार, 6 जनवरी 2018

navgeet

नवगीत:
संजीव 
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***

६-१-२०१५ 

रविवार, 17 दिसंबर 2017

bal geet

बाल गीत   
सूरज
------
आर्युष के घर आया सूरज
आर्यन के मन भाया सूरज 
*
सुबह हुई जग जाओ भाई
पापा सा  मुस्काया सूरज 
*
मम्मी धूप उठाती जल्दी
ब्रश कर, खूब नहाया सूरज 
*
आसमान पर बादल के संग 
खेल-कूद इठलाया सूरज 
*
करे प्रार्थना हाथ जोड़कर 
पहला नंबर आया सूरज 
*** 

रविवार, 19 नवंबर 2017

muktak

मुक्तक
सूरज आया, नभ पर छाया धरती पर सोना बिखराया जग जाग उठा कह शुभ प्रभात खग-दल ने गीत मधुर गाया
*

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

कुंडलिया.
.
भाव-भेद को जानता,
भेद-भाव से दूर.
सूर न सूरज पर न हो,
राग-रंग में चूर.
राग-रंग में चूर,
न उषा-दुपहरी देखे.
और न संध्या-निशा,
कहाँ हैं करता लेखे.
मन मंजूषा नहीं,
खोलता सूर्य-स्वभाव.
सलिल-धार में बिम्ब,
निहारे औरतों भाव.
...

बुधवार, 14 जून 2017

baal geet

बाल गीत
सूरज
*
पर्वत-पीछे झाँके ऊषा
हाथ पकड़कर आया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
धूप संग इठलाया सूरज।
*
योग कर रहा संग पवन के
करे प्रार्थना भँवरे के सँग।
पैर पटकता मचल-मचलकर
धरती मैडम हुईं बहुत तँग।
तितली देखी आँखमिचौली
खेल-जीत इतराया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
नाक बहाता आया सूरज।
*
भाता है 'जन गण मन' गाना
चाहे दोहा-गीत सुनाना।
झूला झूले किरणों के सँग
सुने न, कोयल मारे ताना।
मेघा देख, मोर सँग नाचे
वर्षा-भीग नहाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
झूला पा मुस्काया सूरज।
*
खाँसा-छींका, आई रुलाई
मैया दिशा झींक-खिसियाई।
बापू गगन डॉक्टर लाया
डरा सूर्य जब सुई लगाई।
कड़वी गोली खा, संध्या का
सपना देख न पाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
कॉमिक पढ़ हर्षाया सूरज।
***

रविवार, 28 जून 2015

doha muktika: sanjiv

दोहा मुक्तिका:
संजीव 
*
उगते सूरज की करे, जगत वंदना जाग 
जाग न सकता जो रहा, उसका सोया भाग 
*
दिन कर दिनकर ने कहा, वरो कर्म-अनुराग 
संध्या हो निर्लिप्त सच, बोला: 'माया त्याग'
*
तपे दुपहरी में सतत, नित्य उगलता आग 
कहे: 'न श्रम से भागकर, बाँधो सर पर पाग 
*
उषा दुपहरी साँझ के, संग खेलता फाग 
दामन पर लेकिन लगा, कभी न किंचित दाग
*
निशा-गोद में सर छिपा, करता अचल सुहाग 
चंद्र-चंद्रिका को मिला, हँसे- पूर्ण शुभ याग 
*
भू भगिनी को भेंट दे, मार तिमिर का नाग 
बैठ मुँड़ेरे भोर में, बोले आकर काग 
*
'सलिल'-धार में नहाये, बहा थकन की झाग
जग-बगिया महका रहा, जैसे माली बाग़ 
***  

बुधवार, 27 मई 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
चलो मिल सूरज उगायें 
*
सघनतम तिमिर हो जब 
उज्ज्वलतम कल हो तब 
जब निराश अंतर्मन-
नव आशा फल हो तब 
विघ्न-बाधा मिल भगायें 
चलो मिल सूरज उगायें 
*
पत्थर का वक्ष फोड़ 
भूतल को दें झिंझोड़ 
अमिय धार प्रवहित हो 
कालकूट जाल तोड़ 
मरकर भी जी जाएँ 
चलो मिल सूरज उगायें 
*
अपनापन अपनों का 
धंधा हो सपनों का 
बंधन मत तोड़ 'सलिल' 
अपने ही नपनों का 
भूसुर-भुसुत बनायें 
चलो मिल सूरज उगायें 
*



गुरुवार, 22 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
संजीव
.

चित्र: श्रीकांत
.
उग रहे या ढल रहे तुम
कान्त प्रतिपल रहे सूरज
.
हम मनुज हैं अंश तेरे
तिमिर रहता सदा घेरे
आस दीपक जला कर हम
पूजते हैं उठ सवेरे
पालते या पल रहे तुम
भ्रांत होते नहीं सूरज
.
अनवरत विस्फोट होता
गगन-सागर चरण धोता
कैंसर झेलो ग्रहण का
कीमियो नव आस बोता
रश्मियों की कलम ले
नवगीत रचते मिले सूरज
.
कै मरे कब गिने तुमने?
बिम्ब के प्रतिबिम्ब गढ़ने
कैमरे में कैद होते
हास का मधुमास वरने
हौसले तुमने दिये शत
ऊगने  फिर ढले सूरज
.  


सोमवार, 12 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

बाल नवगीत:
संजीव
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर 
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ 
खा पर सबक 
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
  



मंगलवार, 6 जनवरी 2015

navgeet:

नवगीत:
संजीव
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***  

सोमवार, 5 जनवरी 2015

navgeet:

नवगीत:
संजीव
.
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
.
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
.
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ 
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल 
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ  
आओ भी सूरज!
.

रविवार, 4 जनवरी 2015

nav geet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
उगना नित
हँस सूरज

धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत
तजना मत, अपना मग
छिपना मत, छलना मत
चलना नित
उठ सूरज

लिखना मत खत सूरज
दिखना मत बुत सूरज
हरना सब तम सूरज
करना कम गम सूरज
मलना मत
कर सूरज

कलियों पर तुहिना सम
कुसुमों पर गहना बन
सजना तुम सजना सम
फिरना तुम भँवरा बन
खिलना फिर
ढल सूरज 

***
(छंदविधान: मात्रिक करुणाकर छंद, वर्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय नायक छंद)
२.१.२०१५


शनिवार, 22 नवंबर 2014

navgeet:

नवगीत:



रस्म की दीवार
करती कैद लेकिन  
आस खिड़की
रूह कर आज़ाद देती

सोच का दरिया
भरोसे का किनारा
कोशिशी सूरज
न हिम्मत कभी हारा
उमीदें सूखी नदी में
नाव खेकर
हौसलों को हँस
नयी पतवार देती

हाथ पर मत हाथ 
रखकर बैठना रे!
रात गहरी हो तो
सूरज लेखना रे!
कालिमा को लालिमा
करती विदा फिर 
आस्मां को
परिंदा उपहार देती

बुधवार, 9 जनवरी 2013

गीत: चलो हम सूरज उगायें -संजीव 'सलिल'

गीत:

चलो हम सूरज उगायें
*
संजीव 'सलिल'
*
चलो! हम सूरज उगाएं...
*
सघन तम से क्यों डरें हम?
भीत होकर क्यों मरें हम?
मरुस्थल भी जी उठेंगे-
हरितिमा मिल हम उगायें....

विमल जल की सुनें कल-कल।
भुला दें स्वार्थों की किल-किल।
सत्य-शिव-सुंदर रचें हम-
सभी सब के काम आयें...
*
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या?,
किसी के मन भाएंगे क्या?
सोच यह जीवन जियें हम।
हाथ-हाथों से मिलाएं...

आत्म में विश्वात्म देखें।
हर जगह परमात्म लेखें।
छिपा है कंकर में शंकर।
देख हम मस्तक नवायें...
*
तिमिर में दीपक बनेंगे।
शून्य में भी सत सुनेंगे।
नाद अनहद गूंजता जो
सुन 'सलिल' सबको सुनायें...

*********************

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

प्रयोगात्मक मुक्तिका: जमीं के प्यार में... --संजीव 'सलिल'

प्रयोगात्मक मुक्तिका:
जमीं के प्यार में...
संजीव 'सलिल'
*
जमीं के प्यार में सूरज को नित आना भी होता था.
हटाकर मेघ की चिलमन दरश पाना भी होता था..

उषा के हाथ दे पैगाम कब तक सब्र रवि करता?
जले दिल की तपिश से भू को तप जाना भी होता था..

हया की हरी चादर ओढ़, धरती लाज से सिमटी.
हुआ जो हाले-दिल संध्या से कह जाना भी होता था..

बराती थे सितारे, चाँद सहबाला बना नाचा. 
पिता बादल को रो-रोकर बरस जाना भी होता था..

हुए साकार सपने गैर अपने हो गए पल में.
जो पाया वही अपना, मन को समझाना भी होता था..

नहीं जो संग उनके संग को कर याद खुश रहकर.
'सलिल' नातों के धागों को यूँ सुलझाना भी होता था..

न यादों से भरे मन उसको भरमाना भी होता था.
छिपाकर आँख के आँसू 'सलिल' गाना भी होता था..

हरेक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
जहाँ खुद से मिले खुद 'सलिल' अफसाना भी होता था..
****

रविवार, 20 मार्च 2011

मुक्तिका: हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                              

हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की

संजीव 'सलिल'
*
भाल पर सूरज चमकता, नयन आशा से भरे हैं.
मौन अधरों का कहे, हम प्रणयधर्मी पर खरे हैं..

श्वास ने की रास, अनकहनी कहे नथ कुछ कहे बिन.
लालिमा गालों की दहती, फागुनी किंशुक झरे हैं..

चिबुक पर तिल, दिल किसी दिलजले का कुर्बां हुआ है.
भौंह-धनु के नयन-बाणों से न हम आशिक डरे हैं?.

बाजुओं के बंधनों में कसो, जीवन दान दे दो.
केश वल्लरियों में गूथें कुसुम, भँवरे बावरे हैं..

सुर्ख लाल गाल, कुंतल श्याम, चितवन है गुलाबी.
नयन में डोरे नशीले, नयन-बाँके साँवरे हैं..

हुआ इंगित कुछ कहीं से, वर्जना तुमने करी है.
वह न माने लाज-बादल सिंदूरी फिर-फिर घिरे हैं..

पीत होती देह कम्पित, द्वैत पर अद्वैत की जय.
काम था निष्काम, रति की सुरती के पल माहुरे हैं..

हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की.
विदेहित हो देह ने, रंग-बिरंगे सपने करे हैं..

समर्पण की साधना दुष्कर, 'सलिल' होती सहज भी-
अबीरी-अँजुरी करे अर्पण बिना, हम कब टरे हैं..

**************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com