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रविवार, 12 अक्टूबर 2014

chaupal charcha:

चौपाल चर्चा:

व्रत और कथाएँ :

व्रत लेना = किसी मनोकामना की पूर्ती हेतु संकल्पित होना, व्रत करना = आत्म प्रेरणा से लिये निर्णय का पालन करना। देश सेवा, समाज सेवा आदि का वृत्त भी लया जा सकता है 

उपवास करना या न करना व्रत का अंग हो सकता है, नहीं भी हो सकता।

समाज में दो तरह के रोगी आहार के कारण होते हैं १. अति आहार का कारण, २. अल्प आहार के कारण 

स्वाभाविक है उपवास करना अथवा  खाना-पीना काम करना या न करना अति आहारियों के लिए ही उपयुक्त हो सकता है। सन्तुलित आहारियों या अल्प आहारियों के लिए उपयुक्त आहार यथामय ग्रहण करना ही उपयुक्त व्रत है. अत: व्रत का अर्थ आहार-त्याग नहीं सम्यक आहार ग्रहण होना चाहिए। अत्यल्प या अत्यधिक का त्याग ही व्रत हो

वाद विशेष या दल विशेष से जुड़े मित्र विषय पर चर्चा कम करते हैं और आक्षेप-आरोप अधिक लगाते हैं जिससे मूल विषय ही छूट जाता है।  

पौराणिक मिथकों के समर्थक और विरोधी दोनों यह भूल जाते हैं कि वेद-पुराणकार भी मनुष्य ही थे। उन्होंने अपने समय की भाषा, शब्द भंडार, कहावतों, मुहावरों, बिम्बों, प्रतीकों का प्रयोगकर अपनी शिक्षा और रचना सामर्थ्य के अनुसार अभिव्यक्ति दी है। उसका विश्लेषण करते समय सामाजिक, व्यक्तिगत, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक मान्यताओं और बाध्यताओं का विचार कर निर्णय लिया जाना चाहिए। 

हमारे वैज्ञानिक ऋषियों ने गूढ़ वैज्ञानिक-सामाजिक-आर्थिक विश्लेषणों और निष्कर्षों को जान सामान्य विशेषकर अल्पशिक्षित अथवा बाल बुद्धि वाले लोगों तक पहुँचाने के लिए उन्हें कथा रूप में ढालकर धार्मिक अनुष्ठानों या पर्वों से जोड़ दिया था, इसका लाभ यह हुआ कि हर घर में गूढ़ विवरण जाने या बिना जाने यथोचित पालन किया जा सका विदेशी आक्रान्ताओं ने ऋषियों-विद्वानों की हत्या कर तथा पुस्तकालयों-शोधागारों को नष्ट कर दिया. कालांतर में शोधदृष्टि संपन्न ऋषि के न रहने पर उसके शिष्यों ने जाने-अनजाने काल्पनिक व्याख्याओं और चमत्कारिक वर्णन या व्याख्या कर कथाओं को जीविकोपार्जन का माध्यम बना लिया। चमत्कार को नमस्कार की मनोवृत्ति के कारण विश्व का सर्वाधिक वैज्ञानिक धर्म विज्ञानविहीन हो गया 

विडम्बना यह कि मैक्समूलर तथा अन्य पश्चिमी विद्वानों ने बचे ग्रंथों का अपनी भाषा में अनुवाद किया जिन्हें वहाँ के वैज्ञानिकों ने सही परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित कर वैज्ञानिक प्रगति की पराधीनता के अंधावरण में फंसे भारतीय विद्वान या तो अन्धविश्वास के कारण सत्य नहीं तलाश सके या अंधविरोध के कारण सत्य से दूर रहे। संस्कृत ग्रंथों में सदियों पूर्व वर्णित वैज्ञानिक सिद्धांतों, गणितीय गणनाओं, सृष्टि उतपत्ति व् विकास के सिद्धांतों को समझ-बताकर पश्चिमी विद्वान उनके आविष्कारक  बन बैठे। अब यह तस्वीर सामने आ रही है। पारम्परिक धार्मिक अनुष्ठानों तथा आचार संहिता को वैज्ञानिक सत्यों को अंगीकार कर परिवर्तित होते रहना चाहिए तभी वह सत्यसापेक्ष तथा समय सापेक्ष होकर कालजयी हो सकेगा

ऋतू परिवर्तन के समय वातावरण के अनुरूप खान-पान, रहन-सहन को पर्वों के माध्यम से जन सामान्य में प्रचलित करने की परंपरा गलत नहीं है किन्तु उसे जड़ बनाने की मनोवृत्ति गलत है। 

आइये हम खुले मन से सोचें-विचारें 

शुक्रवार, 24 मई 2013

dharm aur vigyan 2 sanjiv

धर्म और विज्ञान: २
संजीव
*
धारण करने योग्य जो, कहा गया वह धर्म।
सर्व लोक हित जो- करें धारण, समझें मर्म।।

धारण नाद को मूल कह, करता अंगीकार।
अक्षर ईश्वर को कहे, कहाँ शेष तकरार।।

शब्द ब्रम्ह है ज्ञान का, वाहक नहीं विरोध।
निहित कथा-उपदेश में, शिक्षा मूल्य प्रबोध।।

नहीं व्यक्तिगत आचरण, पंथ- धर्म पर्याय।
वैज्ञानिक का आचरण, हैं न विषय अध्याय।।

धर्म-और धार्मिक नहीं, हो सकते हैं एक।
खूबी-खामी व्यक्ति में, धर्म अनेकानेक।।

हर युग का जो सत्य है, वही धर्म का अंग।
रच संगणक पुराण हम, भर सकते नव रंग।।

अणु-सूत्रों को समाहित, किये हुए ऋग्वेद।
वास्तु सिविल इंजीनियरिंग, क्यों न मानिए?खेद।।

मिले पुराणों में कई, नगर-न्यास-सिद्धांत।
मूल चिकित्सा-शास्त्र का, समझ न हम दिग्भ्रांत।।

कंद मूल जड़ पत्तियाँ मृदा, मिटातीं रोग।
धर्म करे उपयोग पर, 'ज्ञान करे उपभोग।।

धर्म प्रकृति को माँ कहे, पूजें-रक्षें मीत।
कह पदार्थ विज्ञान ने शोषण किया अनीत।।

धर्म और विज्ञानं हैं, सिक्के के दो पक्ष।
लक्ष्य एक मानव बने, जग-हितकारी दक्ष।।
*

गुरुवार, 23 मई 2013

dharm aur vigyan 1 -sanjiv

धर्म और विज्ञान १
संजीव
*
धर्म सनातन सत्य है, सत्य कहे विज्ञान
परिवर्तन विज्ञान की सदा रहा पहचान

अनहद या बिग बैंग में तनिक नहीं है फर्क
रव से कण पैदा हुआ, कहते श्रृद्धा-तर्क

कण के दो आवेश के प्रकृति-पुरुष हैं नाम
मिलें-अलग हों, फिर मिलें रचना सतत ललाम

विधि ब्रम्हा-बुधि शारदा, भाव-क्रिया संयोग
विष्णु विषाणु पचा, सके श्री लक्ष्मी को भोग

शिव विष को धर कंठ में, हुए चन्द्र के नाथ
शिवा समाईं अग्नि में, प्रगटीं लें दस हाथ

रक्ष-संकटों को दिया मार, दिए नव मूल्य
मानव दानव हो नहीं, हो न सृष्टि निर्मूल्य

आदि शक्तियों का नहीं, हम सा तन-आकार
गुण-धर्मों पर चित्र हैं, वे थे निर-आकार

गुण-धर्मों की विविधता, सृजे नित नए रूप
पञ्च तत्व को जानिए, सृजन-चक्र का भूप

जल-जलचर उत्पत्ति को, कहें मत्स्य अवतार
जल-थल पर कच्छप जिया, हुआ सृष्टि विस्तार

थल-जल में वाराह ने, किया क्रिया व्यापार
नरसिंह को थल ही रुचा, अतुलित बल आगार

वामन पशु से मनुज तक, यात्रा का गंतव्य
परशुराम के मूल्य थे, मानव का भवितव्य

राम मनुज रक्षक रहे, दनुज हुए सब वध्य
कृष्ण इंद्र से लड़ सके, रह भूवासी-मध्य

सम्यक संयम का लिए आये बुद्ध विचार
महावीर को हेय था संग्रह का आचार

धर्म या कि विज्ञान हैं एक सत्य दो नाम
राह भले दिखतीं अलग, मिले एक परिणाम

सत्ता रचती है सदा, अपने हित की राह
जनता करती है नहीं, बहुत अधिक परवाह

दीप जलाते ही तिमिर, छिपता नीचे आप
ज्योति बुझे तो निमिष में, जाता है तम व्याप

धर्म और विज्ञान हैं, व्याख्या-विधियाँ मात्र
उतना समझे सत्य वह, जो जितना है पात्र
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