दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 29 सितंबर 2013
subhashit
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
दोहा सलिला:
संजीव
*
शब्द कौन सा जगत में, जो न तुम्हारा नाम
शब्दहीन है शब्द बन, मैया तेरा धाम
*
अक्षर-अक्षर क्षर हुआ, हो मैया से दूर
शरणागत हो क्षर हुआ, अक्षर अमर अदूर
*
रव बनकर वर दे दिया, गूँजा अनहद नाद
पिंड-मुंड, आकाश-घट, दस दिश नवल निनाद
*
आत्म तुम्हीं परमात्म तुम, तुम ही देह-विदेह
द्वार देहरी आंगना, कक्ष समूचा अगेह
शनिवार, 28 सितंबर 2013
smriti aalekh : meghnaa saaha -sanjiv
स्मृति आलेख:
उनके छात्र जीवन में जगदीश चन्द्र बोस तथा प्रफुल्ल चन्द्र सेन अपनी ख्याति
के शिखर पर थे. सहपाठियों के रूप में सत्येन्द्र नाथ बोस, ज्ञान घोष तथा
जे. एन. मुखर्जी जैसी प्रतिभाओं का तथा तथा कालांतर में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में
विख्यात गणितज्ञ अमियचरण बनर्जी का साथ उन्हें मिला. साहा ने इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग की स्थापना की. वे अनीश्वरवादी (एथीस्ट)
थे.
वे भारत की विश्व विख्यात विज्ञान-संस्थाओं के जनक थे. उन्हीं की प्रेरणा से १९३० में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (National Academy of Science), , १९३४ में इंडियन फिजीकल सोसाइटी, १९३५ में भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science), तथा १९४४ में Indian Association for the Cultivation of science की स्थापना हुई. १९४३ में कलकत्ता में स्थापित Saha Institute of Nuclear physics उनके महत्वपूर्ण कार्य के प्रति राष्ट्र की ओर से व्यक्त कृतज्ञता का स्मारक है. वे नदी-नियोजन के प्रमुख वास्तुविद थे. दामोदर घाटी परियोजना का मूल प्रस्ताव उन्हीं ने तैयार किया था. मेघनाद साहा का नाम १९३५-३६ में नोबल पुरस्कार हेतु एस्ट्रोफिजिस्ट के रूप में नामांकित किया गय. यह गौरव पानेवाले वे एकमात्र भारतीय हैं. १९५२ में उन्हें उत्तर-पश्चिम कलकत्ता क्षेत्र से सांसद चुन गया. वे परमाण्विक ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के पक्षधर तथा भारतीय नीति के निर्माता थे. वे भारतीय राष्ट्रीय कैलेण्डर निर्धारण समिति के अध्यक्ष थे. उन्हीं के प्रयास से राष्ट्रीय कैलेण्डर का निर्धारण बिना किसी विवाद के हो सका. १६ फरवरी १९५६ को हृदयाघात से उनके निधन से भारत ही नहीं विश्व ने एक प्रतिभा संपन्न वैज्ञानिक खो दिया.
समर्पित भौतिकीविद डॉ. मेघनाद साहा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आधुनिक विज्ञान के उन्नयन में भौतिकी का तथा भौतिकी के उन्नयन में डॉ. मेघनाद साहा का योगदान अनन्य
है. एस्ट्रोफिजिक्स के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर डॉ. मेघनाद साहा ने
स्पेक्ट्रल लाइन्स की उपस्थिति की व्याख्या हेतु विश्व विख्यात 'ओयोनाइजेशन फार्मूला'
दिया। बांगला देश स्थित ढाका जिले के शाओराटोली गाँव में एक निर्धन परिवार में ६ अक्तूबर
१८९३ को बंगाली कायस्थ श्री जगन्नाथ साहा तथा श्रीमती भुवनेश्वरी देवी के आँगन में ऐसा
पुष्प खिला जिसने अपनी मेधा की सुगंध से सकल जगत में अपना नाम किया। उनके
पिता एक छोटे से किराना व्यापारी थे जो बहुत कठिनाई से अपने परिवार को पाल
पाते थे. बालक मेघनाद की शिक्षा गाँव की पाठशाला से आरम्भ हुई. डॉ. अनंत कुमार
दास ने उनकी प्रतिभा को पहचानकर उनके आवास-भोजन का प्रबंध किया और वे १०
किलोमीटर दूर शिक्षा अर्जन कर ढाका कोलेजिएट स्कूल तथा ढाका कोलेज में आगे शिक्षा ग्रहण कर सके. वे आजीवन डॉ. दास द्वारा समय पर की गयी इस सहायता के
प्रति आभार तथा कृतज्ञता व्यक्त करते थे.
मेघनाद साहा ने किशोरीलाल जुबली स्कूल में प्रवेश लेकर १९०९ में
कलकत्ता विश्वविद्यालय की एंट्रेंस परीक्षा भाषा समूह (अंग्रेजी, बंगाली,
संस्कृत) तथा गणित में सर्वाधिक अंकों सहित उत्तीर्ण की तथा समूचे पूर्व
बंगाल में प्रथम स्थान पाया. १९११ में इंटर साइंस परीक्षा में वे तृतीय
स्थान पर रहे जबकि प्रथम स्थान पर रहे सत्येन्द्र नाथ बोस बाद में विश्व
विख्यात वैज्ञानिक हुए. १९१३ में उन्होंने प्रेसिडेंसी कोलेज कलकत्ता से
गणित मुख्य विषय लेकर स्नातक परीक्षा में द्वितीय स्थान पाया। १९१५ में एम.
एससी. परीक्षा में मेघनाद साहा एप्लाइड मैथेमैटिक्स में तथा सत्येन्द्र
नाथ बोस प्योर मैथेमैटिक्स में प्रथम स्थान पर रहे.
वर्ष
१९१७ में कलकत्ता में नए प्रारंभ यूनिवर्सिटी कोलेज ऑफ़ साइंस में
व्याख्याता के रूप में श्री साहा ने कार्य आरम्भ कर क्वांटम फिजिक्स का
शिक्षण किया. उन्होंने सत्येन्द्र नाथ बोस के साथ मिलकर रिलेटिविटी पर
आइन्सटाइन तथा हरमन मिंकोवस्की के अंग्रेजी में प्रकाशित शोधपत्र का
अंग्रेजी में अनुवाद किया. वर्ष १९१९ में अमेरिकन एस्ट्रोफिजिक्स जर्नल में
उनका शोधपत्र “On Selective Radiation Pressure and its Application”
प्रकाशित हुआ. इसमें उन्होंने स्पेक्ट्रल लाइन्स की उपस्थिति की व्याख्या
करते हुए 'तत्वों के ऊष्मीय आयनीकरण' (थर्मल आयोनाइजेशन ऑफ़ एलिमेंट्स) का
सिद्धांत प्रतिपादित कर 'साहा समीकरण' प्रस्तुत किया जो एस्ट्रोफिजिक्स के
क्षेत्र में मील का पत्थर सिद्ध हुआ. यह समीकरण तारों के स्पेक्ट्रा के आगामी अध्ययन हेतु आधार बना जिससे शोधकर्ता तारों का तापमान तथा
उनका निर्माण करनेवाले तत्वों का पता कर सके. उन्होंने २ वर्षों तक
इम्पीरियल कोलेज लन्दन तथा रिसर्च लेबोरेटरी जर्मनी में शोध कार्य किया. वे
१९२३ से १९३८ तक इलाहाबाद विश्व विद्यालय में प्राध्यापक तथा तत्पश्चात
१९५६ में निधन तक कलकत्ता विश्व विद्यालय में साइंस फैकल्टी के डीन रहे.
लन्दन की रॉयल सोसायटी ने १९२७ में उन्हें फेलो चुनने का असाधारण गौरव
प्राप्त किया. १९३४ में भारतीय विज्ञान कांग्रेस अपने २१ वें सत्र में
उन्हें अध्यक्ष की आसंदी पर पाकर गौरवान्वित हुई. उन्होंने पत्रिका 'साइंस एंड कल्चर' की स्थापना कर आजीवन सम्पादन किया.
वर्ष
१९३२ में मेघनाद साहा ने इलाहाबाद में उत्तर प्रदेश एकेडमी ऑफ़ साइंस की
स्थापना की. १९३८ में वे साइंस कोलेज कलकत्ता में आणविक भौतिकी (Nuclear
physics) के क्षेत्र में कार्य किया. कालांतर में विज्ञान के उच्च अध्ययन
एवं शोध हेतु यह संस्था उन्हीं के नाम पर 'साहा इंस्टीटयूट ऑफ़ न्यूक्लिअर
फिजिक्स' के नाम से विख्यात हुई. उन्हीं की पहल पर विदेशों में परमाण्विक
भौतिकी संबंधी शोधों हेतु प्रयुक्त सायक्लोट्रोंन (cyclotrons) पहले-पहल
१९५० भारत में लाया गया तथा इस संस्था में इस पर शोध कार्य किये गये.
उन्होंने सौर किरणों का वज़न तथा दबाव मापने हेतु एक यंत्र का अविष्कार किया
जिसे बहुत सराहना मिली. उन्होंने विश्व प्रसिद्ध ‘equation of the
reaction-isobar for ionization’ की खोज की जिसे कालांतर में Saha’s
“Thermo-Ionization Equation” के नाम से प्रसिद्धि मिली.उल्लेखनीय कार्य कर डॉ. मेघनाद साहा ने
स्पेक्ट्रल लाइन्स की उपस्थिति की व्याख्या हेतु विश्व विख्यात 'ओनाइजेशन फार्मूला'
दिया।
वे भारत की विश्व विख्यात विज्ञान-संस्थाओं के जनक थे. उन्हीं की प्रेरणा से १९३० में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (National Academy of Science), , १९३४ में इंडियन फिजीकल सोसाइटी, १९३५ में भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science), तथा १९४४ में Indian Association for the Cultivation of science की स्थापना हुई. १९४३ में कलकत्ता में स्थापित Saha Institute of Nuclear physics उनके महत्वपूर्ण कार्य के प्रति राष्ट्र की ओर से व्यक्त कृतज्ञता का स्मारक है. वे नदी-नियोजन के प्रमुख वास्तुविद थे. दामोदर घाटी परियोजना का मूल प्रस्ताव उन्हीं ने तैयार किया था. मेघनाद साहा का नाम १९३५-३६ में नोबल पुरस्कार हेतु एस्ट्रोफिजिस्ट के रूप में नामांकित किया गय. यह गौरव पानेवाले वे एकमात्र भारतीय हैं. १९५२ में उन्हें उत्तर-पश्चिम कलकत्ता क्षेत्र से सांसद चुन गया. वे परमाण्विक ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के पक्षधर तथा भारतीय नीति के निर्माता थे. वे भारतीय राष्ट्रीय कैलेण्डर निर्धारण समिति के अध्यक्ष थे. उन्हीं के प्रयास से राष्ट्रीय कैलेण्डर का निर्धारण बिना किसी विवाद के हो सका. १६ फरवरी १९५६ को हृदयाघात से उनके निधन से भारत ही नहीं विश्व ने एक प्रतिभा संपन्न वैज्ञानिक खो दिया.
आत्म मूल्यांकन :
प्रायः वैज्ञानिकों पर हाथी दांत की मीनार में रहने और सचाइयों को न स्वीकारने का आरोप लगाया जाता है. अपने कीमती वर्षों में राजनैतिक आंदोलनों से जुडाव के बावजूद १९३० तक मैं ऐसी मीनार में रहा किन्तु वर्तमान में प्रशासन के लिए विज्ञान भी शांति-व्यवस्था की तरह आवश्यक है. मैं क्रमशः राजनीति की ओर झुका क्योंकि मैं अपने तरीके से देश के किसी काम आना चाहता था.
प्रायः वैज्ञानिकों पर हाथी दांत की मीनार में रहने और सचाइयों को न स्वीकारने का आरोप लगाया जाता है. अपने कीमती वर्षों में राजनैतिक आंदोलनों से जुडाव के बावजूद १९३० तक मैं ऐसी मीनार में रहा किन्तु वर्तमान में प्रशासन के लिए विज्ञान भी शांति-व्यवस्था की तरह आवश्यक है. मैं क्रमशः राजनीति की ओर झुका क्योंकि मैं अपने तरीके से देश के किसी काम आना चाहता था.
- श्रृद्धांजलि:
- डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर: मेघनाद साहा का आयनीकरण समीकरण जिसने स्टेलर एस्ट्रोफिजिक्स का द्वार खोला २० वीं सदी की दस महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक है किन्तु नोबल पुरस्कार श्रेणी में नहीं चुना जा सका.
- एस. रोज़लैंड: साहां के कार्य द्वारा एस्ट्रोफिजिक्स को मिले महत्त्व का अधिमूल्यन संभव है क्योंकि पश्चातवर्ती काल में हुई समस्त प्रगति साहा की अवधारणाओं से प्रभावित है.
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
doha salila: pitri-parpan -sanjiv
दोहा सलिला:
पितृ-स्मरण
संजीव
*
पितृ-स्मरण कर 'सलिल', बिसर न अपना मूल
पितृ-स्मरण
संजीव
*
पितृ-स्मरण कर 'सलिल', बिसर न अपना मूल
पितरों के आशीष से, बनें शूल भी फूल
*
*
जड़ होकर भी जड़ नहीं, चेतन पितर तमाम
वंश-वृक्ष के पर्ण हम, पितर ख़ास हम आम
*
वंश-वृक्ष के पर्ण हम, पितर ख़ास हम आम
*
गत-आगत को जोड़ता, पितर पक्ष रह मौन
ज्यों भोजन की थाल में, रहे- न दिखता नौन
*
*
पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़े, वंश वृक्ष अभिराम
सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़े, पाने लक्ष्य ललाम
*
*
कल के आगे विनत हो, आज 'सलिल' हो धन्य
कल नत आगे आज के, थाती दिव्य अनन्य
*
कल नत आगे आज के, थाती दिव्य अनन्य
*
जन्म अन्न जल ऋण लिया, चुका न सकते दाम
नमन न मन से पितर को, किया- विधाता वाम
*
*
हमें लाये जो उन्हीं का, हम करते हैं दाह
आह न भर परवाह कर, तारें तब हो वाह
*
*
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
lekh: pitar, shraddh aur vidhi -kavita vachaqnavi
लेख :
पितर, श्राद्ध और विधि
- कविता वाचक्नवी
'श्राद्ध' शब्द बना
है 'श्रद्धा' से। 'श्रद्धा' शब्द की व्युत्पत्ति 'श्रत्' या 'श्रद्' शब्द
से 'अङ्' प्रत्यय की युति होने पर होती है, जिसका अर्थ है- 'आस्तिक बुद्धि।
‘सत्य धीयते यस्याम्’ अर्थात् जिसमें सत्य प्रतिष्ठित है।
छान्दोग्योपनिषद्
7/19 व 20 में श्रद्धा की दो प्रमुख विशेषताएँ बताई गई हैं - मनुष्य के
हृदय में निष्ठा / आस्तिक बुद्धि जागृत कराना व मनन कराना।
मनुष्य समाज की
समस्या यह है कि वह दिनों-दिन विचार और बुद्धि के खेल खेलने में तो निष्णात
होता जा रहा है, किन्तु श्रद्धा का अभाव उसके जीवन को दु:ख और पीड़ा से
भरने का बड़ा कारक है। विचार के बिना श्रद्धा पंगु है व श्रद्धा तथा भावना
के बिना विचार । वह अंध-श्रद्धा हो जाती है क्योंकि विवेक के अभाव में यही
पता नहीं कि श्रद्धा किस पर व क्यों लानी है या कि उसका
अभिप्राय क्या है। इसीलिए ध्यान देने की आवश्यकता है कि मूलतः श्रद्धा का
शाब्दिक अर्थ हृदय में निष्ठा व आस्तिक बुद्धि है..... बुद्धि के साथ
श्रद्धा।
यह तो रही 'श्राद्ध'
के अर्थ की बात। पितरों से जोड़ कर इस शब्द की बात करें तो उनके प्रति
श्रद्धा, कुल- परिवार व अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा, अपनी
जातीय-परम्परा के प्रति श्रद्धा, माता-पिता-आचार्यों के प्रति श्रद्धा की
भावना से प्रेरित होकर किए जाने वाले कार्यों को 'श्राद्ध' कहा जाता है।
यदि हमने अपने घर-परिवार व समाज के जीवित पितरों व माता-पिता के
शारीरिक-मानसिक-आत्मिक सुख की भावना से कुछ नहीं किया तो मृतक पितरों के
नाम पर भोजन करवाने मात्र से हमारे पितरों की आत्मा शान्ति नहीं पाएगी। न
ही पितर केवल भोजन के भूखे होते हैं। वे अपने कुल व सन्तानों में वे मूलभूत
आदर्श देखने में अधिक सुख पाते हैं जिसकी कामना कोई भी अपनी सन्तान से
करता है । इसलिए यदि हम में वे गुण नहीं हैं व हम अपने जीवित माता-पिता या
बुजुर्गों को सुख नहीं
दे सकते तो निश्चय जानिए कि तब श्राद्ध के नाम किया जाना वाला सारा
कर्मकाण्ड तमाशा-मात्र है।
संस्कृत न जानने
वालों को बता दूँ कि 'पितर' शब्द संस्कृत के 'पितृ' से बना है जो पिता का
वाचक है, किन्तु माता व पिता (पेरेंट्स) के लिए संस्कृत में 'पितरौ' शब्द
है। इसी से हिन्दी में 'पिता' व जर्मन में 'Vater' (जर्मन में 'V' का
उच्चारण 'फ' होने से उच्चारण है 'फाटर' ) शब्द बना है व उसी से अङ्ग्रेज़ी
में 'फादर' शब्द बना। संस्कृत में 'पितरौ" क्योंकि माता व पिता (अर्थात्
'पेरेंट्स' ) का वाचक है तो जर्मनी में इसीलिए 'पितर' शब्द के लिए 'Manes'
(उच्चारण कुछ-कुछ मानस शब्द जैसा) शब्द कहा जाता है जबकि इसी से
अङ्ग्रेज़ी में शब्द बना Manes (उच्चारण मैनेस् )। 'माँ' से इसकी उच्चारण व
वर्तनी साम्यता देखी-समझी जा सकती है।
समस्या यह है कि
श्राद्ध को लोग कर्मकाण्ड समझते व करते हैं और वैसा कर वे अपने कर्तव्य की
इतिश्री समझ लेते हैं। जबकि मृतक पितरों के नाम पर पूजा करवा कर यह समझना
कि किसी को खाना खिलाने से उन तक पहुँच जाएगा, यह बड़ी भूल है। जीवित
पितरों को सुख नहीं दो व मृतक पितरों के नाम पर कर्मकाण्ड करना ही गड़बड़
है। कर्मकाण्ड श्राद्ध नहीं है। कोई भी कर्मकाण्ड मात्र
प्रतीक-भर है मूल जीवन में अपनाने योग्य किसी भी संस्कार का। यदि जीवन में
उस संस्कार को आचरण में नहीं लाए तो कर्मकाण्ड केवल तमाशा है। घरों
परिवारों में बुजुर्ग और बड़े-बूढ़े दु:ख पाते रहें, उनके प्रति श्रद्धा का
वातवरण घर में लेशमात्र भी न हो और हम मृतक पितरों को जल चढ़ाते रहें,
तर्पण करते रहें या उनके नाम पर श्राद्ध का आयोजन कर अपने कर्तव्य की
इतिश्री समझते रहें, इस से बड़ा
क्रूर व हास्यास्पद पाखण्ड और क्या होगा।
वस्तुतः मूल अर्थों
में श्राद्ध, श्रावणी उपाकर्म के पश्चात् अपने-अपने कार्यक्षेत्र में लौटते
समय वरिष्ठों आदि के अभिनंदन सत्कार के लिए होने वाले आयोजन के निमित्त
समाज द्वारा प्रचलित परम्परा थी, जिसका मूल अर्थ व भावना लुप्त होकर यह
केवल प्रदर्शन-मात्र रह गई है। मूल अर्थों में यह 'पितृयज्ञ' का वाचक है व
उसी भावना से इसका विनियोग समाज ने किया था,
इसीलिए इसे पितृपक्ष भी कहा जाता है; किन्तु अब इसे नेष्ट, कणातें, अशुभ,
नकारात्मक दिन, शुभकार्य प्रारम्भ करने के लिए अपशकुन आदि मान लिया गया है।
हमारे पूर्वजों से जुड़ा कोई दिन अशुभ कैसे हो सकता है, नकारात्मक प्रभाव
कैसे दे सकता है, अपशकुन कैसे कर सकता है ? क्या हमारे पूर्वज हमारे लिए
अनिष्ट चाह सकते हैं ? क्या किसी के भी पूर्वज उनके लिए अशुभकारी हो सकते
हैं? माता-पिता के
अतिरिक्त संसार में कोई भी अन्य सम्बन्ध केवल और केवल हितकारी व
निस्स्वार्थ नहीं होता। सन्तान भी माता-पिता का वैसा हित कदापि नहीं चाह
सकती जैसा माता-पिता अपनी संतान के लिए स्वयं हानि, दु:ख व निस्स्वार्थ
बलिदान कर लेते हैं, उसे अपने से आगे बढ़ाना चाहते हैं, उसे अपने से अधिक
पाता हुआ देखना चाहते हैं और ऐसा होता देख ईर्ष्या नहीं अपितु सुख पाते
हैं। ऐसे में 'पितृपक्ष' (पितृयज्ञ
की विशेष अवधि) को नकारात्मक प्रभाव देने वाला मानना कितना अनुचित व
अतार्किक है।
आज समाज में सबसे
निर्बल व तिरस्कृत कोई हैं, तो वे हैं हमारे बुजुर्ग। वृद्धाश्रमों की
बढ़ती कतारों वाला समाज श्राद्ध के नाम पर कर्मकाण्ड कर अपने कर्तव्य की
इतिश्री समझ ले तो यह भीषण विडम्बना ही है। यदि हम घर परिवारों में उन्हें
उचित आदर-सत्कार, मान-सम्मान व स्नेह के दो बोल भी नहीं दे सकते तो श्राद्ध
के नाम पर किया गया हमारा सब कुछ केवल तमाशा व ढोंग है।
यों भी वह अतार्किक व श्राद्ध का गलत अभिप्राय लगा कर किया जाने वाला
कार्य तो है ही। जब तक इसका सही अर्थ समझ कर इसे सही ढंग से नहीं किया
जाएगा तब तक यह करने वाले को कोई फल नहीं दे सकता (यदि आप किसी फल की आशा
में इसे करते हैं तो)। वैसे प्रत्येक कर्म अपना फल तो देता ही है और उसे
अच्छा किया जाए तो अच्छा फल भी मिलता ही है।
मृतकों तक कोई सन्देश
या किसी का खाया भोजन नहीं पहुँचता और न ही आपके-हमारे दिवंगत पूर्वज
मात्र खाने-पीने से संतुष्ट और सुखी हो जाने वाले हैं। भूख देह को लगती है,
आत्मा को यह आहार नहीं चाहिए। मृतक पूर्वजों को भोजन पहुँचाने ( जिसकी
उन्हें आवश्यकता ही नहीं) से अधिक बढ़कर आवश्यक है कि भूखों को भोजन मिले,
अपने जीवित माता पिता व बुजुर्गों को आदर सम्मान से
हमारे घरों में स्थान, प्रतिष्ठा व अपनापन मिले, उन्हें कभी कोई दुख
सन्ताप हमारे कारण न हो। उनके आशीर्वादों के हम सदा भागी बनें और उनकी सेवा
में सुख पाएँ। किसी दिन वृद्धाश्रम में जाकर उन सबको आदर सत्कार पूर्वक
अपने हाथ से भोजन करवा उनके साथ समय बिताकर देखिए... कितने आशीष मिलेंगे।
परिवार के वरिष्ठों व अपने माता-पिता आदि की सेवा सम्मान में जरा-सा जुट कर
देखिए, कैसे घर पर सुख
सौभाग्य बरसता है।
श्राद्ध
के माध्यम से मृतकों से तार जोड़ने या आत्माओं से संबंध जोड़ने वाले
अज्ञानियों को कौन बताए कि पुनर्जन्म तो होता है, विज्ञान भी मानता है;
किन्तु यदि इन्हें आत्मा के स्वरूप और कर्मफल सिद्धान्त का सही-सही पता
होता तो ये ऐसी बात नहीं करते। आत्मा का किसी से कोई रिश्ता नहीं होता, न
आप हम उसे यहाँ से संचालित कर सकते हैं।
प्रत्येक आत्मा अपने देह के माध्यम द्वारा किए कर्मों के अनुसार फल भोगता
है और तदनुसार ही अगला जीवन पाता है । आत्मा को किसी 'रिमोट ऑपरेशन' से
'कंट्रोल' करने की उनकी थ्योरी बचकानी, अतार्किक व भारतीय दर्शन तथा वैदिक
वाङ्मय के विरुद्ध है।
अभिप्राय यह नहीं कि
श्राद्ध गलत है या उसे नहीं करना चाहिए। वस्तुतः तो जीवन ही श्राद्धमय हो
जाए तब भी गलत नहीं, अपितु बढ़िया ही है। वस्तुत: इस लेख का मूल अभिप्राय
यह है कि श्राद्ध क्या है, क्यों इसका विधान किया गया, इसके करने का अर्थ
क्या है, भावना क्या है आदि को जान कर इसे करें। श्राद्ध के नाम पर पाखण्ड
व ढकोसला नहीं करें अपितु सच्ची श्रद्धा से कुल-
परिवार व अपने पूर्वजों के प्रति, अपनी जातीय-परम्परा के प्रति,
माता-पिता-आचार्यों के प्रति, समाज के बुजुर्गों व वृद्धों के प्रति
श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर अपने तन, मन, धन से तथा निस्स्वार्थ व
कृतज्ञ भाव से जीवन जीना व उनके ऋण को अनुभव करते हुए पितृयज्ञ की भावना
बनाए रखना ही सच्चा श्राद्ध है।
lekh
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
National Conference: Geotechnical and Seismo-tectonic Framework around Nuclear Power Plant at Chutka -Dr. Rajiv Khatri
Invitation and Informatio n:
Two Day National Conference
“Geotechni cal and Seismo-te ctonic Framework around Nuclear Power Plant at Chutka Near Jablapur" 21-22 Nov, 2013
Dear All,
The
Global Nature Care
Sangathan's Group of Institutions, Faculty of Engineering and
Management, Jabalpur will be organizing a Two Day National Conference on “Geotechnical
and Seismo-tectonic Framework around Proposed Nuclear Power Plant at Chutka
near Jabalpur" on 21-22 Nov. 2013.
A Nuclear Power Plants has been planned at CHUTKA, MANDLA district near
Jabalpur M.P. to generate 1400Mw power.
While this is a welcome decision by government of India but due to
general lack of understanding and information, fear has gripped general public
around CHUTKA and nearby areas of the tribal dominated Mandla, District in
M.P. more after the nuclear disaster at
Fukushima in Japan. To alley such fears and generate a favorable and positive
opinion about the usefulness of nuclear energy, Global Group of Institution, a
premier engineering institute of Jabalpur is planning to organize a Two days
National Conference on "Geotechnical and Seismo-tectonic Framework around
Nuclear Power Plant at Chutka Near Jabalpur" 21-22Nov, 2013.
For making this Conference a grand successes we invite you and
solicit your kind co-operation in the form of your research papers,
participation, sponsorship, grant for this activity. Please arrange to
publicise this activity among all the interested.
Thanking you.
Prof. Dr. Rajiv Khatri
Member IGS Jabalpur Chapter
Director
Global Nature Care Sangathan's Group of Institutions,
Faculty of Engineering and Management,
Jabalpur M.P.
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nuclear power plant
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
गुरुवार, 26 सितंबर 2013
doha anupras ka: sanjiv
दोहा सलिला:
एक दोहा अनुप्रास का
संजीव
*
*
शिशु शशि शीश शशीश पर, शशिवदनी शुभ साथ
शोभित शशि सी शशिमुखी, मोहित शिव शशिनाथ
शशीश
अर्थात चन्द्रमा के स्वामी शिव जी के मस्तक पर बाल चन्द्र शोभायमान है,
चन्द्रवदनी चन्द्रमुखी पावती जी उनके साथ हैं जिन्हें निहारकर शिव जी
मुग्ध हो रहे हैं.
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
ravindra sangeet : bhavanuvaad: manoshi, gayan: shravani sen
रवींद्र संगीत:
इस मधुर गीत को नीचे लिंक पर सुनिये- गायिका हैं - श्रावणी सेन.
https://www.youtube.com/watch?
रवींद्र संगीत :
भावानुवाद: मानोशी
आमारो परानो जाहा चाये
तूमी ताई, तूमी ताई गो!
तोमा छाड़ा आर जोगोते मोरा केहो नाई
किछू नाई गो!
तूमी सुख जोदी नाही पाओ
जाओ सुखेरो संधाने जाओ
आमि तोमारे पेयेछि हृदयो माझे
आर कीछू नाहि चाई गो
आमी तोमारी बीरोहे रोइबो बिलिन
तोमाते कोरीबो वास
दीर्घो दीबौशो, दीर्घ रौजौनी, दीर्घो बरौशो माश
जोदी आरो कारे भालोबाशो जोदी आर फीरे नाही आशो
तोबे तूमि जाहा चाओ ताहा जैनो पाओ
आमि जोतो दूखो पाई गो!
मेरा प्राण जो चाहता है
तुम बस वही हो, ओ प्रिय!
तुम्हारे सिवा इस जगत में
मेरा कोई नहीं और
कुछ नहीं है, प्रिय!
तुम अगर सुख न पाओ,
तो सुख के संधान में जाओ
मैंने तो तुम्हें पाया है
हृदय मध्य
और कुछ नहीं चाहिये, ओ प्रिय!
मैं तुम्हारे विरह में रहूँगी विलीन
तुममें ही करूँगी वास
दीर्घ दिवस, दीर्घ रजनी, दीर्घ बरस मास,
यदि किसी और से प्रेम करो
यदि और कभी न फिर सको
तब तुम जो चाहो, वही तुम्हें मिले
मैं जितने भी दुख पा लूँ, ओ प्रिय!
+++++++++
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ravindra sangee
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
बुधवार, 25 सितंबर 2013
hindi charcha: malini pandey -sanjiv
हिंदी-चर्चा :
किन-किन के स्थान पर किन२ लिखना क्यों गलत है?
यह जिज्ञासा है मालिनी पाण्डे,हिंदी शिक्षिका शांति भवन बाल परियोजना, विब्ग्योर इंस्टीटयूट ऑफ़ प्रोफेशनल ट्रेनिंग की.
-------------------- मालिनी जी
किन-किन के स्थान पर किन२ लिखना क्यों गलत है?
यह जिज्ञासा है मालिनी पाण्डे,हिंदी शिक्षिका शांति भवन बाल परियोजना, विब्ग्योर इंस्टीटयूट ऑफ़ प्रोफेशनल ट्रेनिंग की.
-------------------- मालिनी जी
वन्दे मातरम।
दो वाक्य देखें :
१. किन दो लोगों को अवकाश चाहिए?
२. किन-किन लोगों को अवकाश चाहिए?
क्या ये समानार्थी हैं ?
नहीं,
प्रथम वाक्य से स्पष्ट है कि अवकाश हेतु केवल दो लोगों के नाम मांगे जा
रहे हैं जबकि दूसरे वाक्य में वक्ष चाहनेवालों की संख्या पर प्रतिबन्ध नहीं
है.
यदि दूसरे वाक्य
में किन-किन के स्थान पर किन २ लिखेंगी तो यह अंतर मिट जाएगा जो सही नहीं
होगा। इसलिए किन-किन को किन २ नहीं लिखा जा सकता।
आशा है भ्रम निवारण हो गया होगा.
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
मंगलवार, 24 सितंबर 2013
Nav Geet: Raja ji ki.... Om Prakash Tiwari
नवगीत:
ओम प्रकाश तिवारी
राजा जी की पाँचो उँगली-------------------------------- राजा जी की
पाँचो उँगली
घी में डूबी जायं ।
डूबे नगर खेत उतिराएं
जब से आई बाढ़,
जुम्मन-जुगनू सबकी ख़ातिर
बैरी हुआ असाढ़ ;
उड़नखटोले
पर राजा जी
जलदर्शन को जायं ।
सूखे सारे ताल तलैया
सूखीं नदियां-झील,
सूखे सब आँखों के आँसू
ऐश कर रहीं चील ;
राजा के घर
नदी दूध की
रानी इत्र नहायं ।
सब्जी चढ़ी बाँस के ऊपर
दाल करे हड़ताल,
परजा के चेहरे हैं सूखे
हड्डी उभरे गाल ;
राजकुमारी
वजन घटाने
की औषधियाँ खायं ।
- ओमप्रकाश तिवारीOm Prakash Tiwari <omtiwari24@gmail.com>Chief of Mumbai Bureau, Dainik Jagran 41, Mittal Chambers, Nariman Point, Mumbai- 400021Tel : 022 30234900 /30234913, blogs : http://gazalgoomprakash.blogspot.com/http:// navgeetofopt.blogspot.in/ http://janpath-kundali. blogspot.com/ Resi.- 07, Gypsy , Main Street , Hiranandani Gardens, Powai , Mumbai-76Tel. : 022 25706646
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
short story: matraa kaa kamal -s.n.sharma
रोचक कथा:
मात्रा का कमाल
एस. एन. शर्मा 'कमल'
*
राजा भोज के दरबार में कवि-रत्नों में कालिदास ,दंडी, शतंजय,माघ, आदि थे । इन सब में कभी तीखी नोंक-झोंक हो जाती थी । ऐसी ही एक नोंक-झोक कवि कालिदास और शतंजय के बीच हुई जो शातन्जय को इतनी नागवार गुज़री की वे दरबार ही छोड़ गए । कई दिन बाद उन्हें तंगी में मुद्रा की आवश्यकता हुई । राजा भोज के दरबार का नियम था की जो कविता लिख कर लाता उसे पांच मुद्राएँ पुरस्कार में मिलतीं । अस्तु शातन्जय ने एक श्लोक ( कविता ) लिख कर अपने शिष्य के हाथ भेज दिया जो इस प्रकार था -
अपशब्द शतं माघे, कविर्दंडी शत त्रयम कालिदासो न गन्यन्ते , कविरेको शतन्जयः ( माघ की कविता में एक सौ अशुद्धियाँ होती हैं ,कवि दण्डी की कविता में तीन सौ और कालिदास की कविता में तो इतनी अशुद्धियाँ होती हैं की उनकी गिनती नहीं की जा सकती , एकमात्र कवि तो शतन्जय है ) संयोग से दरबार के द्वार पर कालिदास की नजर उस शिष्य पर पड़ गयी जिसे वे जानते थे । पास आकर वे शतन्जय जी का हालचाल पूछने लगे । बात खुली कि वह शतन्जय की कविता लेकर पुरस्कार हेतु आये हैं । उत्सुकता वश वे शिष्य से कागज़ ले कर कविता पढ़ने लगे । पढ़ कर बोले - बड़ी सुन्दर कविता है पर गुरू जी एक मात्रा लगाना भूल गए इसे शुद्ध कर लो । शिष्य ने कहा आप ही कर दीजिये ॥ बस कालिदास ने अपशब्द के स्थान पर आपशब्द, अ में बड़ी मात्रा लगा कर बना दिया । अब अर्थ बदल गए - आपशब्द ( जल के पर्यायवाची ) माघ पंडित सौ और दण्डी कवि तीन सौ जानते हैं पर कालिदास इतने जानते हैं कि गणना नहीं जबकि कवि शतंजय केवल एक ) जब कविता शिष्य ने दरबार में राजा भोज को दी तो पढ़ कर राजा भोज कालिदास की ओर देख मुस्कुराए उन्हें पता था की कालिदास के कारण ही शतन्जय रुष्ट हो कर गए हैं सो उन्हें साजिश समझते देर ना लगी ।
उन्होंने पांच मुद्राएँ देकर विदा करते हुए कविता वाला वह कागज़ भी लौटाते हुए कहा की गुरू जी को मेरा प्रणाम कहना और सन्देश देना कि उनके बिना दरबार सूना है अस्तु वे पधार कर हमें अनुग्रहीत करें ।
अब वह कागज़ पढ़ कर शतन्जय पर जो बीती आप कल्पना कर सकते है ॥ मात्रा के सम्बन्ध में इतनी कथा ही पर्याप्त है ।
अपशब्द शतं माघे, कविर्दंडी शत त्रयम कालिदासो न गन्यन्ते , कविरेको शतन्जयः ( माघ की कविता में एक सौ अशुद्धियाँ होती हैं ,कवि दण्डी की कविता में तीन सौ और कालिदास की कविता में तो इतनी अशुद्धियाँ होती हैं की उनकी गिनती नहीं की जा सकती , एकमात्र कवि तो शतन्जय है ) संयोग से दरबार के द्वार पर कालिदास की नजर उस शिष्य पर पड़ गयी जिसे वे जानते थे । पास आकर वे शतन्जय जी का हालचाल पूछने लगे । बात खुली कि वह शतन्जय की कविता लेकर पुरस्कार हेतु आये हैं । उत्सुकता वश वे शिष्य से कागज़ ले कर कविता पढ़ने लगे । पढ़ कर बोले - बड़ी सुन्दर कविता है पर गुरू जी एक मात्रा लगाना भूल गए इसे शुद्ध कर लो । शिष्य ने कहा आप ही कर दीजिये ॥ बस कालिदास ने अपशब्द के स्थान पर आपशब्द, अ में बड़ी मात्रा लगा कर बना दिया । अब अर्थ बदल गए - आपशब्द ( जल के पर्यायवाची ) माघ पंडित सौ और दण्डी कवि तीन सौ जानते हैं पर कालिदास इतने जानते हैं कि गणना नहीं जबकि कवि शतंजय केवल एक ) जब कविता शिष्य ने दरबार में राजा भोज को दी तो पढ़ कर राजा भोज कालिदास की ओर देख मुस्कुराए उन्हें पता था की कालिदास के कारण ही शतन्जय रुष्ट हो कर गए हैं सो उन्हें साजिश समझते देर ना लगी ।
उन्होंने पांच मुद्राएँ देकर विदा करते हुए कविता वाला वह कागज़ भी लौटाते हुए कहा की गुरू जी को मेरा प्रणाम कहना और सन्देश देना कि उनके बिना दरबार सूना है अस्तु वे पधार कर हमें अनुग्रहीत करें ।
अब वह कागज़ पढ़ कर शतन्जय पर जो बीती आप कल्पना कर सकते है ॥ मात्रा के सम्बन्ध में इतनी कथा ही पर्याप्त है ।
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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लघु कथा:
दयामय की दया
मुंशी प्रेमचंद
किसी समय एक मनुष्य ऐसा पापी था कि अपने 70 वर्ष के जीवन में उसने एक भी अच्छा काम नहीं किया था। नित्य पाप करता था, लेकिन मरते समय उसके मन में ग्लानि हुई और रो-रोकर कहने लगा -
'हे भगवान्! मुझ पापी का बेड़ा पार कैसे होगा? आप भक्त-वत्सल, कृपा और दया के समुद्र हो, क्या मुझ जैसे पापी को क्षमा न करोगे?'
इस पश्चात्ताप का यह फल हुआ कि वह नरक में नहीं गया, स्वर्ग के द्वार पर पहुँचा दिया गया। उसने कुंडी खड़खड़ाई। भीतर से आवाज आई - 'स्वर्ग के द्वार पर कौन खड़ा है? चित्रगुप्त, इसने क्या-क्या कर्म किए हैं?'
चित्रगुप्त - 'महाराज, यह बड़ा पापी है। जन्म से लेकर मरण-पर्यंत इसने एक भी शुभ कर्म नहीं किया।'
भीतर से - 'जाओ, पापियों को स्वर्ग में आने की आज्ञा नहीं हो सकती।'
मनुष्य - 'महाशय, आप कौन हैं?
भीतर - 'योगेश्वर'।
मनुष्य - 'योगेश्वर, मुझ पर दया कीजिए और जीव की अज्ञानता पर विचार कीजिए। आप ही अपने मन में सोचिए कि किस कठिनाई से आपने मोक्ष पद प्राप्त किया है। माया-मोह से रहित होकर मन को शुद्ध करना क्या कुछ खेल है? निस्संदेह मैं पापी हूँ, परंतु परमात्मा दयालु हैं, मुझे क्षमा करेंगे। '
भीतर की आवाज बंद हो गई। मनुष्य ने फिर कुंडी खटखटाई।
भीतर से - 'जाओ, तुम्हारे सरीखे पापियों के लिए स्वर्ग नहीं बना है।'
मनुष्य - 'महाराज, आप कौन हैं?'
भीतर से - 'बुद्ध।'
मनुष्य - 'महाराज, केवल दया के कारण आप अवतार कहलाए। राज-पाट, धन-दौलत सब पर लात मार कर प्राणिमात्र का दुख निवारण करने के हेतु आपने वैराग्य धारण किया, आपके प्रेममय उपदेश ने संसार को दयामय बना दिया। मैंने माना कि मैं पापी हूँ; परन्तु अंत समय प्रेम का उत्पन्न होना निष्फल नहीं हो सकता।
बुद्ध महाराज मौन हो गए।
पापी ने फिर द्वार हिलाया।
भीतर से - 'कौन है?'
चित्रगुप्त - 'स्वामी, यह बड़ा दुष्ट है।'
भीतर से - 'जाओ, भीतर आने की आज्ञा नहीं।'
पापी - 'महाराज, आपका नाम?'
भीतर से - 'कृष्ण।'
पापी - (अति प्रसन्नता से) 'अहा हा! अब मेरे भीतर चले जाने में कोई संदेह नहीं। आप स्वयं प्रेम की मूर्ति हैं, प्रेम-वश होकर आप क्या नाच नाचे हैं, अपनी कीर्ति को विचारिए, आप तो सदैव प्रेम के वशीभूत रहते हैं। आप ही का उपदेश तो है - 'हरि को भजे सो हरि का होई,' अब मुझे कोई चिंता नहीं।'
स्वर्ग का द्वार खुल गया और पापी भीतर चला गया।
मुंशी प्रेमचंद
किसी समय एक मनुष्य ऐसा पापी था कि अपने 70 वर्ष के जीवन में उसने एक भी अच्छा काम नहीं किया था। नित्य पाप करता था, लेकिन मरते समय उसके मन में ग्लानि हुई और रो-रोकर कहने लगा -
'हे भगवान्! मुझ पापी का बेड़ा पार कैसे होगा? आप भक्त-वत्सल, कृपा और दया के समुद्र हो, क्या मुझ जैसे पापी को क्षमा न करोगे?'
इस पश्चात्ताप का यह फल हुआ कि वह नरक में नहीं गया, स्वर्ग के द्वार पर पहुँचा दिया गया। उसने कुंडी खड़खड़ाई। भीतर से आवाज आई - 'स्वर्ग के द्वार पर कौन खड़ा है? चित्रगुप्त, इसने क्या-क्या कर्म किए हैं?'
चित्रगुप्त - 'महाराज, यह बड़ा पापी है। जन्म से लेकर मरण-पर्यंत इसने एक भी शुभ कर्म नहीं किया।'
भीतर से - 'जाओ, पापियों को स्वर्ग में आने की आज्ञा नहीं हो सकती।'
मनुष्य - 'महाशय, आप कौन हैं?
भीतर - 'योगेश्वर'।
मनुष्य - 'योगेश्वर, मुझ पर दया कीजिए और जीव की अज्ञानता पर विचार कीजिए। आप ही अपने मन में सोचिए कि किस कठिनाई से आपने मोक्ष पद प्राप्त किया है। माया-मोह से रहित होकर मन को शुद्ध करना क्या कुछ खेल है? निस्संदेह मैं पापी हूँ, परंतु परमात्मा दयालु हैं, मुझे क्षमा करेंगे। '
भीतर की आवाज बंद हो गई। मनुष्य ने फिर कुंडी खटखटाई।
भीतर से - 'जाओ, तुम्हारे सरीखे पापियों के लिए स्वर्ग नहीं बना है।'
मनुष्य - 'महाराज, आप कौन हैं?'
भीतर से - 'बुद्ध।'
मनुष्य - 'महाराज, केवल दया के कारण आप अवतार कहलाए। राज-पाट, धन-दौलत सब पर लात मार कर प्राणिमात्र का दुख निवारण करने के हेतु आपने वैराग्य धारण किया, आपके प्रेममय उपदेश ने संसार को दयामय बना दिया। मैंने माना कि मैं पापी हूँ; परन्तु अंत समय प्रेम का उत्पन्न होना निष्फल नहीं हो सकता।
बुद्ध महाराज मौन हो गए।
पापी ने फिर द्वार हिलाया।
भीतर से - 'कौन है?'
चित्रगुप्त - 'स्वामी, यह बड़ा दुष्ट है।'
भीतर से - 'जाओ, भीतर आने की आज्ञा नहीं।'
पापी - 'महाराज, आपका नाम?'
भीतर से - 'कृष्ण।'
पापी - (अति प्रसन्नता से) 'अहा हा! अब मेरे भीतर चले जाने में कोई संदेह नहीं। आप स्वयं प्रेम की मूर्ति हैं, प्रेम-वश होकर आप क्या नाच नाचे हैं, अपनी कीर्ति को विचारिए, आप तो सदैव प्रेम के वशीभूत रहते हैं। आप ही का उपदेश तो है - 'हरि को भजे सो हरि का होई,' अब मुझे कोई चिंता नहीं।'
स्वर्ग का द्वार खुल गया और पापी भीतर चला गया।
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Rajeev Ranjan Prasad's .
दुर्भाग्य! बस्तर से यह विरासत मिट जायेगी
[प्राचीन बस्तर/रामायण काल से उद्धरित वर्तमान का समाज शास्त्र]
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बस्तर पर जानकारी एकत्रीकरण के लिये आर्य-द्रविड अंतर्सम्बन्धों को बारीकी से समझना आवश्यक है। वस्तुत: हमारे पूर्वाग्रह गहरे हैं तथा हम अपनी-अपनी पहचान की मानसिकताओं के साथ इतने अधकचरे तरीके से जुडे हुए हैं कि यह मानते ही नहीं कि वह सब कुछ जो भारत भूमि से जुडा हुआ है, हमारा ही है; आर्य भी हम हैं और द्रविड भी हम। अपनी ही चार पीढी से उपर के पूर्वजों का नाम जानने में दिमाग पर बल लग जाते हैं फिर किस काम का वह छ्द्म गौरव जो हमारी मानसिकताओं को वर्ण और रक्त की श्रेष्ठताओं जैसी अनावश्यक बहसों में उलझाता है। रामधारी सिंह दिनकर की कृति “संस्कृति के चार अध्याय” एक उत्कृष्ट रचना है जो एसी सभी बहसों को अपने तार्कित उत्तर से संतुष्ट करती है। “मूल निवासी कौन?” इस झगडे का निबटारा तो शायद वह पहली कोषिका भी नहीं कर सकती जिसके विभाजन नें ही यह सम्पूर्ण जीवजगत पैदा किया है। जब यह धरती सबकी एक समान रही होगी तब हर रंग, हर रूप तथा हर नस्ल का मानव यहाँ यायावरी करता हुआ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र भटकता रहा होगा। इस भूमि पर कई घूमंतू मानव प्रजातियों ने कदम रखे; जब द्रविड इस देश में आये यहाँ आग्नेय जाति (अनुमानित मूल स्थान - यूरोप के अग्निकोण) वालों की प्रधानता थी और कुछ नीग्रो जाति (अनुमानित मूल स्थान - अफ्रीका) के लोग भी विद्यमान थे। अत: अनुमान किया जा सकता है कि नीग्रो और आग्नेय लोगों की बहुत सी बातें पहले द्रविड सभ्यता (अनुमानित मूल स्थान पश्चिम एशिया) में आयीं और पीछे द्रविड-आर्य मिलन होने पर आर्य सभ्यता (अनुमानित मूल स्थान मध्य एशिया) में भी। वर्तमान भारत क्षेत्र में रहने वाले प्राचीन निवासियों के मूल स्थानों के लिये मैने इतिहास की कई पुस्तकों में भी झांका लेकिन अधिकांश में पूर्वाग्रह ही अधिक नजर आता है। अत: दिनकर की ही पुस्तक के उद्धरण मुझे उचित जान पडते हैं जो “अंडा पहले आया कि मुर्गी” वाली बहस को अधिक तूल न दे कर समरस्ता के मर्म की बात करते हैं।
प्राचीन बस्तर रामायणकाल में दक्षिणा पथ की बहुतायत गतिविधियों का केन्द्र रहा होगा तथा इस सब का प्रारंभ महर्षि अगस्त्य के विन्ध्य पर्वत पार करने की रोचक कथा के साथ होता है। कथा नें कविता तत्व की मोटी गिलाफ ओढी हुई है। कथा कहती है कि विन्ध्य अपना आकार निरंतर बढा रहा था जिस कारण सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर पहुँचनी बन्द हो गई। इससे निजात पाने के लिये महर्षि ने विंध्याचल पर्वत से कहा कि उन्हें तप करने हेतु दक्षिण में जाना है अतः मार्ग दे। विंध्याचल महर्षि के चरणों में झुक गया। अगस्त्य ने कहा कि विन्ध्य उनके वापस आने तक झुका ही रहे तथा वे पर्वत को लाँघकर दक्षिण को चले गये। उसके पश्चात वहीं आश्रम बनाकर तप किया तथा रहने लगे। यह दक्षिण की महत्ता तथा विन्ध्य की दो संस्कृतियों के बीच दीवाल की तरह खडे होने की पुष्टि करती हुई कथा है। प्राचीन आश्रम संस्कृति तथा शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन करने पर यह समझ विकसित होती है कि अगस्त्य एक पूरी संस्था की तरह कार्य कर रहे थे तथा वे उत्तर दक्षिण को एक सूत्र में बाँधने की प्रथम ज्ञात कडी हैं। हमनें उनका एक अध्यापक, एक उपदेशक, एक ज्ञानी, एक यायावर, एक दिव्यास्त्र निर्माता तथा योजनाकार का रूप तो जाना है लेकिन उनकी वास्तविक उपलब्धि कम ही लोग जानते हैं कि महर्षि अगस्त्य नें ही तमिल भाषा के आदि व्याकरण “अगस्त्यम” की रचना की है। यह रचना सिद्ध करती है कि अगस्त्य केवल दण्डकारण्य तक ही सीमित नहीं रहे अपितु सुदूर दक्षिण तक उन्होंने यात्रा की व वहाँ का जन जीवन यहाँ तक कि भाषा को भी एक व्यवस्था प्रदान करने का यत्न किया।
दण्डकारण्य के प्राचीन समाजशास्त्र का आज भी महत्व विद्यमान है। दक्षिणापथ का उत्तरी भाग था दण्डकारण्य; यहाँ राक्षस जाति के निवास की जगह उनके आक्रमणों का ही विवरण अधिक मिलता है। प्राचीन विवरणों के आधार पर उन जनजातियों को जिन्हें राक्षस कहा गया है, उनका निवास दक्षिण के बस्तरेतर क्षेत्र अर्थात आन्ध्र व उस से लग कर सुदूर दक्षिण तक प्रतीत होते हैं। यह भी ज्ञात होता है कि लम्बे समय तक क्षेत्र में किसी समाजसेवी की तरह कार्य करते हुए अगस्त्य नें दण्डकारण्य क्षेत्र में निवासरत अनेक जनजातियों के मध्य समन्वय का वातावरण उत्पन्न कर लिया था। महर्षि अगस्त्य का आश्रम क्षेत्र वर्तमान बस्तर के भीतर ही था जो इस दिशा में किये गये श्री सूर्य कुमार वर्मा के 1906 में सरस्वति पत्रिका में प्रकाशित शोध आलेख द्वारा भली प्रकार सिद्ध किया गया है। राम के वनवास से पहले तक अगस्त्य मुनि का आश्रम ही दो संस्कृतियों का समंवय स्थल बन गया था जिसका स्थानीय जनजातियों के सहयोग और योगदान के बिना संचालित होना संभव प्रतीत नहीं होता। राम के वनागमन से पूर्व इस क्षेत्र में निवासरत जनजातियों पर राक्षसों के कुछ हमलों का जिक्र होता है; उदाहरण के लिये लंका को हस्तगत करने के बाद रावण दक्षिण विजय के लिये निकला जिसका कि उल्लेख वाल्मीकी रामायण में मिलता है – युद्धं मे दीयतामिति निर्जिता: स्मेति वा ब्रूत [वह दक्षिण में एक नगर से दूसरे नगर पहुँचता और चुनौती देता कि या तो मुझसे युद्ध करो या पराजय स्वीकार करो]। वानर जनजाति का नेतृत्व कर रहे बालि नें रावण को न केवल युद्ध में पराजित कर दिया अपितु बंदी भी बना लिया। इस प्रसंग का अंत होता है जब रावण-बालि संधि हो जाती है। रावण नें बालि के अलावा मांधाता (बस्तर का वर्तमान मंधोता ग्राम) के जनजातियों के सरदारों से भी समझौते कर लिये और लंका लौटने से पहले दण्डकारण्य क्षेत्र में अपने प्रतिनिधि खर-दूषण के रूप में किसी निगरानी चौकी या सत्ता प्रतीक की तरह छोड दिये थे। उल्लेख मिलता है कि उनके साथ चौदह हजार राक्षसों की एक टुकडी भी थी जिसका कार्य आतंक प्रसारित कर रावण की सत्ता का भय बनाये रखना था। यह कथा आगे बढती है जब राम का वनागमन होता है। पं केदारनाथ ठाकुर अपनी कृति बस्तर भूषण (1908) में उल्लेख करते हैं कि “राम पहले भारद्वाज आश्रम से होते हुए रत्नगिरि में आये। रत्नगिरि से चल कर बस्तर राज्य तथा कांकेर राज्य की पश्चिमी सीमा से होते हुए वे गोदावरी तक आये, वहाँ से गोदावरी के बहाव की ओर कुछ दिन घूमते रहे तत्पश्चात पर्णशाला में आ कर निवास किया। यहीं पर सीता हरण हुआ। रामचन्द्र जी सीता को गोदावरी नदी के पूर्व तथा इशान में ढूंढने लगे। यही पर उनकी शिवरी भीलनी (शबरी) से भेंट हुई। शिवरी नदी (शबरी नदी) के पूर्व तथा जैपुर राज्य में एक पर्वत है जिसे आज रामगिरि के नाम से जाना जाता है उसके चारो ओर असंख्य छोटी बडी पहाडियाँ हैं, इसी समूह में उत्तर की ओर रंफा पहाड है जिसे जैपुर स्टेट के लोग किष्किंधा पहाड़ कहते हैं। इन पहाडों पर वर्तमान समय में रेड्डी लोग वास करते हैं जो स्वयं को वानर का वंशज मानते हैं”।
बहुत अधिक कार्य अब तक इस दिशा में नहीं हुए हैं जो इतिहास प्रदत्त प्रमाणों का बारीकी से विश्लेषण करें। ब्रिटिश शासक ग्रिग्सन नें 1937 ई. में इस काल के प्रमाणों को एकत्र करने व दस्तावेजबद्ध करने के लिये कैप्टन गिब्सन को नियुक्त किया था। कहा जाता है कि गिब्सन नें बहुत सी जानकारियाँ एकत्रित भी कर ली थी। उसी समय द्वितीय विश्व युद्ध छिड गया। गिब्सन सारी एकत्र सामग्री व जानकारी को ले कर इंग्लैंण्ड चले गये व वहीं युद्ध में मारे गये। इसके बाद स्वतंत्र भारत के किसी शासक, नेता या जिलाधीश नें इस तरह का कार्य करने की जहमत नहीं उठायी। अगला प्रामाणिक कार्य उपलब्ध होता है डॉ. हीरालाल शुक्ल का जिनकी किताब “लंका की खोज” एवं “रामायण का पुरातत्व” अद्वितीय दस्तावेज हैं। डॉ. शुक्ल नें बस्तर क्षेत्र में उपस्थित रामायणकालीन जनजातियों की वर्तमान जनजातियों से तुलना व साम्यता को विस्तार से प्रस्तुत करने का यत्न किया है। उनके अनुसार रामायण युगीन वनेचर प्रजातियों में आग्नेय परिवार से सम्बद्ध जनजातियाँ हैं - निषाद, गृद्ध तथा शबर; अगर मध्यवर्ती द्रविड परिवार की बात की जाये तो उससे सम्बद्ध प्रजातियाँ हैं – वानर तथा राक्षस।
रामायण में चिन्हित आग्नेय परिवार की जनजातियों नें आर्यों से शीघ्र निकटता तथा मैत्री कर ली थी। निषाद प्रजाति का उल्लेख मूल रूप से उत्तरप्रदेश के संदर्भों में प्राप्त होता है। राम को गंगा पार कराना एवं राम-निषाद मैत्री का बडा ही मर्मस्पर्शी वर्णन रामायण में प्राप्त होता है। बस्तर के ‘कुण्डुक’ स्वयं को निषाद वंश का मानते हैं तथा इस जनजाति का विश्वास है कि वे त्रेता युग में राम के साथ ही गंगातट से दण्डक तक आये। यह प्रजाति आज भी नाविक ही है एवं इनकी उपस्थिति चित्रकूट के निकटवर्ती क्षेत्रों में सीमित रह गयी है। रामायण में वर्णित दूसरी प्रजाती है गृद्ध। गोदावरी की पार्श्ववर्ती पर्वतमालाओं पर इनका निवास माना गया है। गिद्ध इन जनजातियों का प्रतीक रहा होगा। इनके प्रमुख नायक सम्पाति तथा जटायु का आर्य जनजातियों से तालमेल प्रतीत होता है। रामायण में पंख कटने के बाद जिस प्रस्त्रवण पर्वत (बैलाडिला) के निकट जटायु के दम तोडने का वर्णन है उस स्थल को आज गीदम के नाम से जाना जा रहा है। जगदलपुर के जाटम ग्राम में अब भी गदबा जनजाति के घर हैं जिनका सम्बन्ध गृद्ध प्रजाति से जोड कर देखा जाता है। बस्तर की गदबा प्रजाति प्रतीक पूजक है तथा गृद्ध आज भी इनके यहाँ “टोटेम” है। जिस प्रकार बस्तर में हल प्रतीक के वाहकों को हलबा कहा गया उसी प्रकार गृद्ध प्रतीक के वाहक गदबा कहलाने लगे। यह प्रजाति आज विलुप्ति पर पहुँच गयी है। लोग कृषक अथवा मजदूर हैं तथा अब इन्हें पहचानना कठिन होता जा रहा है। राम-शबरी मिलन और शबरी के प्रेम से खिलाये गये जूठे बेर एक महान प्रेरक प्रसंग है। इसी कथा नें शबर जनजाति की पहचान को उसकी प्राचीनता से जोडा है। ऐतरेय ब्राम्हण में शबरों को आर्य देश की सीमा पर स्थित बताया गया है अत: यह क्षेत्र निश्चित ही दण्डकारण्य है। साक्ष्यों के आधार पर एवं पुरा-भूगोल पर किये गये विश्लेषण के आधार पर यह सिद्ध हुआ है कि शबरी का आश्रम शबरी तथा गोदावरी नदी के संगम पर स्थित था। डब्ल्यु जी ग्रिफिथ नें मध्य भारत की कोल प्रजाति को शबर माना है (क़ोल ट्राईब्स ऑफ सेंट्रल इंडिया, 1946)। डॉ. हीरालाल शुक्ल भी इन्हें ओडिशा और बस्तर के सीमावर्ती क्षेत्रों में चिन्हित करते हैं। शबर जनजाति के लोग गोंड अथवा खोंड की तुलना में भिन्न होते हैं। इनकी स्त्रियाँ नासिका तथा हनु में गुदना करती हैं एवं कपोलों में भी गहरी रेखायें गुदवाती हैं। कर्ण-आभूषण दर्शनीय होते हैं व कान में चौदह तक छेद कराने का चलन पाया गया है। प्राचीन ग्रंथों के आधार पर शबरों के दो विभेद पाये गये हैं – पर्ण शबर तथ नग्न शबर। नग्न शबर प्रजाति आर्यों के निकट नहीं आ पायी थी व अपनी मूलावस्था में रहने के कारण यह नामांकरण हुआ है। बंडा परजा जनजाति ही नग्न शबर मानी जाती है।
मध्यवर्ती द्रविड परिवार की वानर तथा राक्षस जातियाँ एक समय में ताकतवर तथा सक्रियतम रही हैं। यह तो पहचान ही लिया गया है कि काकिनाडु (पूर्वी गोदावरी) सहित कोरापुट व कालाहाँडी के आंशिक क्षेत्र किष्किन्धा जनपद के अंतर्गत आते थे। रामायण में किष्किन्धा के निवासियों के लिये वानर पहचान का प्रयोग है। वानरो की जो प्रजातिगत विशेषतायें कही जाती हैं उसके अनुसार वे भावुक, चपल, ताम्रवदना अथवा कनकप्रभ उल्लेखित होने के कारण सोने जैसे वर्ण के होते थे। आज भी खम्माम, बस्तर, कोरापुट तथा कालाहाण्डी की आदिम प्रजातियाँ (इन क्षेत्रों में निवास करने वाली कंध जनजातियों को विद्वानों नें वानर माना है) बालि का स्मरण करती हैं। बस्तर में बालिजात्रा धूमधाम से मनाया जाने वाला पर्व है। कंध प्रजाति का गोत्र चिन्ह वानर है तथा वंशों के नाम सुग्री, जाम्ब तथा हनु आदि मिलते हैं। नृत्य आदि अवसरों पर कंध लोग आज भी पूँछ धारण करते हैं। कन्ध के अन्य पर्यायवाची खोंड, कोडा, कुई तथा कुवि हैं जो इन्हें कोयतुर (गोंड) जनजातियों के निकट सिद्ध करते हैं। प्रकृति की दृष्टि से ये लोग दण्डामि माडिया के भी निकट नजर आते हैं। रामायण में जिसे राक्षस कहा गया है वैदिक साहित्य नें उन्हें दस्यु सम्बोधित किया है। यह जनजाति प्रखर योद्धा रही है तथा इन्होंने आर्यों की आधीनता को अस्वीकार कर सर्वदा युद्ध का मार्गानुसरण किया है। राक्षसों के लिये ऋग्वेद में क्रव्याद: अर्थात कच्चा मांसाहार करने वाले; मृघ्रवाच: अर्थात जिनकी भाषा न समझ आये; अदेवयु: अर्थात देवताओं को न मानने वाले; अनास अर्थात जिनकी नाक छोटी व उठी हुई हो; शिश्नदेवा: अर्थात लिंगोपासक कहा गया है। इनमें गर्धर्व विवाह का प्रचलन था तथा बलात् विवाह करने की वृत्ति को भी बाद में राक्षस विवाह नामांकरण से जाना गया। राक्षसों के भी तीन विभेद बताये गये हैं - विराध (असुर), दनु (दानव) तथा रक्ष (राक्षस)। ये तीनों सैद्धांतिक रूप से एक साथ रावण की सत्ता में प्रतीत होती हैं किंतु रावण के घायल होने पर विराध (असुर) शाखा का प्रसन्नता व्यक्त करना (वाल्मीकी रामायण 6.59.115-6) यह बताता है कि ये आपसी मतभेद के भी शिकार थे। विराध शाखा की उपस्थिति दण्डकारण्य के दक्षिणी अंचल में मानी जाती है। यह भी उल्लेख मिलता है कि रावण नें इन्द्रावती व गोदावरी के मध्य के अनेक दानवों (दनु शाखा) का वध किया था – हंतारं दानवेन्द्राणाम। राक्षसों (रक्ष शाखा) की मूल उपस्थिति को आन्ध्रप्रदेश से माना जा सकता है।
रामायण कालीन बस्तर के जटिल समाजशास्त्र को समझने के लिये उपरोक्त सभी विवरणों को एक साथ देखना होगा। दण्डकारण्य की अपनी ही तरह की संस्कृति थी जिसमें गंगाजमुनी सम्मिश्रण होने लगा तब भी उसनें इन्द्रावती का वेग और गोदावरी की विराटता को मजबूती से थामे रखा। यह दो संस्कृतियों के मध्य का क्षेत्र होने के कारण कई अनेकताओं का समागम स्थल है। यह ज्ञात होता है कि कई जनजातियाँ जैसी अवस्था में रामायण काल में रहती होंगी अब भी उनमें बहुत कुछ नहीं बदला है। यहाँ के समाजशास्त्र नें दक्षिण से उसकी पहचान अलग रखी व उत्तर से भी स्वयं को मिलने नहीं दिया। यहाँ से जुडे केवल आर्य-द्रविड युद्ध के ही प्रसंग नहीं हैं अपितु कई द्रविड प्रजातियों के आपसी संघर्ष का भी यह क्षेत्र रहा है जहाँ समय समय पर शक्तिशाली आर्य व रक्ष प्रजातियों ने कभी मैत्री तो कभी युद्ध द्वारा अपनी शक्ति व सत्ता के केन्द्र स्थापित किये। यह अनोखा स्थल है जहाँ आश्रम संस्कृति भी पूरे चरम पर थी तो उसका विरोध भी पूरी निर्ममता से होता रहा। मेरा मानना है कि प्राचीन ग्रंथों से मिल रहे सूत्रों को जब तक इतिहासकार बारीकी से नहीं पकडेंगे वे बस्तर के अतीत की न्यायपूर्ण व्याख्या नहीं कर सकेंगे। वर्तमान में दण्डकारण्य क्षेत्र पुन: युद्धभूमि बना हुआ है तथा आन्ध्र ओडिशा महाराष्ट्र से भीतर घुस कर खास विचारधारा के बुद्धिजीवियों नें इसे अपना उपनिवेश बना लिया है। युद्धरत दिखने वाले लोग बस्तर की वही जनजातियाँ हैं जिनमें से प्रत्येक अपनी पुरातन परम्पराओं की थाती सम्भाले अतीत का जीवत प्रमाण है। दुर्भाग्य!! बस्तर से यह विरासत मिट जायेगी।
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[आलेख के साथ प्रस्तुत चित्र राकेश सिंह Rakesh R. Singh के कैमरे से]
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बस्तर पर जानकारी एकत्रीकरण के लिये आर्य-द्रविड अंतर्सम्बन्धों को बारीकी से समझना आवश्यक है। वस्तुत: हमारे पूर्वाग्रह गहरे हैं तथा हम अपनी-अपनी पहचान की मानसिकताओं के साथ इतने अधकचरे तरीके से जुडे हुए हैं कि यह मानते ही नहीं कि वह सब कुछ जो भारत भूमि से जुडा हुआ है, हमारा ही है; आर्य भी हम हैं और द्रविड भी हम। अपनी ही चार पीढी से उपर के पूर्वजों का नाम जानने में दिमाग पर बल लग जाते हैं फिर किस काम का वह छ्द्म गौरव जो हमारी मानसिकताओं को वर्ण और रक्त की श्रेष्ठताओं जैसी अनावश्यक बहसों में उलझाता है। रामधारी सिंह दिनकर की कृति “संस्कृति के चार अध्याय” एक उत्कृष्ट रचना है जो एसी सभी बहसों को अपने तार्कित उत्तर से संतुष्ट करती है। “मूल निवासी कौन?” इस झगडे का निबटारा तो शायद वह पहली कोषिका भी नहीं कर सकती जिसके विभाजन नें ही यह सम्पूर्ण जीवजगत पैदा किया है। जब यह धरती सबकी एक समान रही होगी तब हर रंग, हर रूप तथा हर नस्ल का मानव यहाँ यायावरी करता हुआ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र भटकता रहा होगा। इस भूमि पर कई घूमंतू मानव प्रजातियों ने कदम रखे; जब द्रविड इस देश में आये यहाँ आग्नेय जाति (अनुमानित मूल स्थान - यूरोप के अग्निकोण) वालों की प्रधानता थी और कुछ नीग्रो जाति (अनुमानित मूल स्थान - अफ्रीका) के लोग भी विद्यमान थे। अत: अनुमान किया जा सकता है कि नीग्रो और आग्नेय लोगों की बहुत सी बातें पहले द्रविड सभ्यता (अनुमानित मूल स्थान पश्चिम एशिया) में आयीं और पीछे द्रविड-आर्य मिलन होने पर आर्य सभ्यता (अनुमानित मूल स्थान मध्य एशिया) में भी। वर्तमान भारत क्षेत्र में रहने वाले प्राचीन निवासियों के मूल स्थानों के लिये मैने इतिहास की कई पुस्तकों में भी झांका लेकिन अधिकांश में पूर्वाग्रह ही अधिक नजर आता है। अत: दिनकर की ही पुस्तक के उद्धरण मुझे उचित जान पडते हैं जो “अंडा पहले आया कि मुर्गी” वाली बहस को अधिक तूल न दे कर समरस्ता के मर्म की बात करते हैं।
प्राचीन बस्तर रामायणकाल में दक्षिणा पथ की बहुतायत गतिविधियों का केन्द्र रहा होगा तथा इस सब का प्रारंभ महर्षि अगस्त्य के विन्ध्य पर्वत पार करने की रोचक कथा के साथ होता है। कथा नें कविता तत्व की मोटी गिलाफ ओढी हुई है। कथा कहती है कि विन्ध्य अपना आकार निरंतर बढा रहा था जिस कारण सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर पहुँचनी बन्द हो गई। इससे निजात पाने के लिये महर्षि ने विंध्याचल पर्वत से कहा कि उन्हें तप करने हेतु दक्षिण में जाना है अतः मार्ग दे। विंध्याचल महर्षि के चरणों में झुक गया। अगस्त्य ने कहा कि विन्ध्य उनके वापस आने तक झुका ही रहे तथा वे पर्वत को लाँघकर दक्षिण को चले गये। उसके पश्चात वहीं आश्रम बनाकर तप किया तथा रहने लगे। यह दक्षिण की महत्ता तथा विन्ध्य की दो संस्कृतियों के बीच दीवाल की तरह खडे होने की पुष्टि करती हुई कथा है। प्राचीन आश्रम संस्कृति तथा शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन करने पर यह समझ विकसित होती है कि अगस्त्य एक पूरी संस्था की तरह कार्य कर रहे थे तथा वे उत्तर दक्षिण को एक सूत्र में बाँधने की प्रथम ज्ञात कडी हैं। हमनें उनका एक अध्यापक, एक उपदेशक, एक ज्ञानी, एक यायावर, एक दिव्यास्त्र निर्माता तथा योजनाकार का रूप तो जाना है लेकिन उनकी वास्तविक उपलब्धि कम ही लोग जानते हैं कि महर्षि अगस्त्य नें ही तमिल भाषा के आदि व्याकरण “अगस्त्यम” की रचना की है। यह रचना सिद्ध करती है कि अगस्त्य केवल दण्डकारण्य तक ही सीमित नहीं रहे अपितु सुदूर दक्षिण तक उन्होंने यात्रा की व वहाँ का जन जीवन यहाँ तक कि भाषा को भी एक व्यवस्था प्रदान करने का यत्न किया।
दण्डकारण्य के प्राचीन समाजशास्त्र का आज भी महत्व विद्यमान है। दक्षिणापथ का उत्तरी भाग था दण्डकारण्य; यहाँ राक्षस जाति के निवास की जगह उनके आक्रमणों का ही विवरण अधिक मिलता है। प्राचीन विवरणों के आधार पर उन जनजातियों को जिन्हें राक्षस कहा गया है, उनका निवास दक्षिण के बस्तरेतर क्षेत्र अर्थात आन्ध्र व उस से लग कर सुदूर दक्षिण तक प्रतीत होते हैं। यह भी ज्ञात होता है कि लम्बे समय तक क्षेत्र में किसी समाजसेवी की तरह कार्य करते हुए अगस्त्य नें दण्डकारण्य क्षेत्र में निवासरत अनेक जनजातियों के मध्य समन्वय का वातावरण उत्पन्न कर लिया था। महर्षि अगस्त्य का आश्रम क्षेत्र वर्तमान बस्तर के भीतर ही था जो इस दिशा में किये गये श्री सूर्य कुमार वर्मा के 1906 में सरस्वति पत्रिका में प्रकाशित शोध आलेख द्वारा भली प्रकार सिद्ध किया गया है। राम के वनवास से पहले तक अगस्त्य मुनि का आश्रम ही दो संस्कृतियों का समंवय स्थल बन गया था जिसका स्थानीय जनजातियों के सहयोग और योगदान के बिना संचालित होना संभव प्रतीत नहीं होता। राम के वनागमन से पूर्व इस क्षेत्र में निवासरत जनजातियों पर राक्षसों के कुछ हमलों का जिक्र होता है; उदाहरण के लिये लंका को हस्तगत करने के बाद रावण दक्षिण विजय के लिये निकला जिसका कि उल्लेख वाल्मीकी रामायण में मिलता है – युद्धं मे दीयतामिति निर्जिता: स्मेति वा ब्रूत [वह दक्षिण में एक नगर से दूसरे नगर पहुँचता और चुनौती देता कि या तो मुझसे युद्ध करो या पराजय स्वीकार करो]। वानर जनजाति का नेतृत्व कर रहे बालि नें रावण को न केवल युद्ध में पराजित कर दिया अपितु बंदी भी बना लिया। इस प्रसंग का अंत होता है जब रावण-बालि संधि हो जाती है। रावण नें बालि के अलावा मांधाता (बस्तर का वर्तमान मंधोता ग्राम) के जनजातियों के सरदारों से भी समझौते कर लिये और लंका लौटने से पहले दण्डकारण्य क्षेत्र में अपने प्रतिनिधि खर-दूषण के रूप में किसी निगरानी चौकी या सत्ता प्रतीक की तरह छोड दिये थे। उल्लेख मिलता है कि उनके साथ चौदह हजार राक्षसों की एक टुकडी भी थी जिसका कार्य आतंक प्रसारित कर रावण की सत्ता का भय बनाये रखना था। यह कथा आगे बढती है जब राम का वनागमन होता है। पं केदारनाथ ठाकुर अपनी कृति बस्तर भूषण (1908) में उल्लेख करते हैं कि “राम पहले भारद्वाज आश्रम से होते हुए रत्नगिरि में आये। रत्नगिरि से चल कर बस्तर राज्य तथा कांकेर राज्य की पश्चिमी सीमा से होते हुए वे गोदावरी तक आये, वहाँ से गोदावरी के बहाव की ओर कुछ दिन घूमते रहे तत्पश्चात पर्णशाला में आ कर निवास किया। यहीं पर सीता हरण हुआ। रामचन्द्र जी सीता को गोदावरी नदी के पूर्व तथा इशान में ढूंढने लगे। यही पर उनकी शिवरी भीलनी (शबरी) से भेंट हुई। शिवरी नदी (शबरी नदी) के पूर्व तथा जैपुर राज्य में एक पर्वत है जिसे आज रामगिरि के नाम से जाना जाता है उसके चारो ओर असंख्य छोटी बडी पहाडियाँ हैं, इसी समूह में उत्तर की ओर रंफा पहाड है जिसे जैपुर स्टेट के लोग किष्किंधा पहाड़ कहते हैं। इन पहाडों पर वर्तमान समय में रेड्डी लोग वास करते हैं जो स्वयं को वानर का वंशज मानते हैं”।
बहुत अधिक कार्य अब तक इस दिशा में नहीं हुए हैं जो इतिहास प्रदत्त प्रमाणों का बारीकी से विश्लेषण करें। ब्रिटिश शासक ग्रिग्सन नें 1937 ई. में इस काल के प्रमाणों को एकत्र करने व दस्तावेजबद्ध करने के लिये कैप्टन गिब्सन को नियुक्त किया था। कहा जाता है कि गिब्सन नें बहुत सी जानकारियाँ एकत्रित भी कर ली थी। उसी समय द्वितीय विश्व युद्ध छिड गया। गिब्सन सारी एकत्र सामग्री व जानकारी को ले कर इंग्लैंण्ड चले गये व वहीं युद्ध में मारे गये। इसके बाद स्वतंत्र भारत के किसी शासक, नेता या जिलाधीश नें इस तरह का कार्य करने की जहमत नहीं उठायी। अगला प्रामाणिक कार्य उपलब्ध होता है डॉ. हीरालाल शुक्ल का जिनकी किताब “लंका की खोज” एवं “रामायण का पुरातत्व” अद्वितीय दस्तावेज हैं। डॉ. शुक्ल नें बस्तर क्षेत्र में उपस्थित रामायणकालीन जनजातियों की वर्तमान जनजातियों से तुलना व साम्यता को विस्तार से प्रस्तुत करने का यत्न किया है। उनके अनुसार रामायण युगीन वनेचर प्रजातियों में आग्नेय परिवार से सम्बद्ध जनजातियाँ हैं - निषाद, गृद्ध तथा शबर; अगर मध्यवर्ती द्रविड परिवार की बात की जाये तो उससे सम्बद्ध प्रजातियाँ हैं – वानर तथा राक्षस।
रामायण में चिन्हित आग्नेय परिवार की जनजातियों नें आर्यों से शीघ्र निकटता तथा मैत्री कर ली थी। निषाद प्रजाति का उल्लेख मूल रूप से उत्तरप्रदेश के संदर्भों में प्राप्त होता है। राम को गंगा पार कराना एवं राम-निषाद मैत्री का बडा ही मर्मस्पर्शी वर्णन रामायण में प्राप्त होता है। बस्तर के ‘कुण्डुक’ स्वयं को निषाद वंश का मानते हैं तथा इस जनजाति का विश्वास है कि वे त्रेता युग में राम के साथ ही गंगातट से दण्डक तक आये। यह प्रजाति आज भी नाविक ही है एवं इनकी उपस्थिति चित्रकूट के निकटवर्ती क्षेत्रों में सीमित रह गयी है। रामायण में वर्णित दूसरी प्रजाती है गृद्ध। गोदावरी की पार्श्ववर्ती पर्वतमालाओं पर इनका निवास माना गया है। गिद्ध इन जनजातियों का प्रतीक रहा होगा। इनके प्रमुख नायक सम्पाति तथा जटायु का आर्य जनजातियों से तालमेल प्रतीत होता है। रामायण में पंख कटने के बाद जिस प्रस्त्रवण पर्वत (बैलाडिला) के निकट जटायु के दम तोडने का वर्णन है उस स्थल को आज गीदम के नाम से जाना जा रहा है। जगदलपुर के जाटम ग्राम में अब भी गदबा जनजाति के घर हैं जिनका सम्बन्ध गृद्ध प्रजाति से जोड कर देखा जाता है। बस्तर की गदबा प्रजाति प्रतीक पूजक है तथा गृद्ध आज भी इनके यहाँ “टोटेम” है। जिस प्रकार बस्तर में हल प्रतीक के वाहकों को हलबा कहा गया उसी प्रकार गृद्ध प्रतीक के वाहक गदबा कहलाने लगे। यह प्रजाति आज विलुप्ति पर पहुँच गयी है। लोग कृषक अथवा मजदूर हैं तथा अब इन्हें पहचानना कठिन होता जा रहा है। राम-शबरी मिलन और शबरी के प्रेम से खिलाये गये जूठे बेर एक महान प्रेरक प्रसंग है। इसी कथा नें शबर जनजाति की पहचान को उसकी प्राचीनता से जोडा है। ऐतरेय ब्राम्हण में शबरों को आर्य देश की सीमा पर स्थित बताया गया है अत: यह क्षेत्र निश्चित ही दण्डकारण्य है। साक्ष्यों के आधार पर एवं पुरा-भूगोल पर किये गये विश्लेषण के आधार पर यह सिद्ध हुआ है कि शबरी का आश्रम शबरी तथा गोदावरी नदी के संगम पर स्थित था। डब्ल्यु जी ग्रिफिथ नें मध्य भारत की कोल प्रजाति को शबर माना है (क़ोल ट्राईब्स ऑफ सेंट्रल इंडिया, 1946)। डॉ. हीरालाल शुक्ल भी इन्हें ओडिशा और बस्तर के सीमावर्ती क्षेत्रों में चिन्हित करते हैं। शबर जनजाति के लोग गोंड अथवा खोंड की तुलना में भिन्न होते हैं। इनकी स्त्रियाँ नासिका तथा हनु में गुदना करती हैं एवं कपोलों में भी गहरी रेखायें गुदवाती हैं। कर्ण-आभूषण दर्शनीय होते हैं व कान में चौदह तक छेद कराने का चलन पाया गया है। प्राचीन ग्रंथों के आधार पर शबरों के दो विभेद पाये गये हैं – पर्ण शबर तथ नग्न शबर। नग्न शबर प्रजाति आर्यों के निकट नहीं आ पायी थी व अपनी मूलावस्था में रहने के कारण यह नामांकरण हुआ है। बंडा परजा जनजाति ही नग्न शबर मानी जाती है।
मध्यवर्ती द्रविड परिवार की वानर तथा राक्षस जातियाँ एक समय में ताकतवर तथा सक्रियतम रही हैं। यह तो पहचान ही लिया गया है कि काकिनाडु (पूर्वी गोदावरी) सहित कोरापुट व कालाहाँडी के आंशिक क्षेत्र किष्किन्धा जनपद के अंतर्गत आते थे। रामायण में किष्किन्धा के निवासियों के लिये वानर पहचान का प्रयोग है। वानरो की जो प्रजातिगत विशेषतायें कही जाती हैं उसके अनुसार वे भावुक, चपल, ताम्रवदना अथवा कनकप्रभ उल्लेखित होने के कारण सोने जैसे वर्ण के होते थे। आज भी खम्माम, बस्तर, कोरापुट तथा कालाहाण्डी की आदिम प्रजातियाँ (इन क्षेत्रों में निवास करने वाली कंध जनजातियों को विद्वानों नें वानर माना है) बालि का स्मरण करती हैं। बस्तर में बालिजात्रा धूमधाम से मनाया जाने वाला पर्व है। कंध प्रजाति का गोत्र चिन्ह वानर है तथा वंशों के नाम सुग्री, जाम्ब तथा हनु आदि मिलते हैं। नृत्य आदि अवसरों पर कंध लोग आज भी पूँछ धारण करते हैं। कन्ध के अन्य पर्यायवाची खोंड, कोडा, कुई तथा कुवि हैं जो इन्हें कोयतुर (गोंड) जनजातियों के निकट सिद्ध करते हैं। प्रकृति की दृष्टि से ये लोग दण्डामि माडिया के भी निकट नजर आते हैं। रामायण में जिसे राक्षस कहा गया है वैदिक साहित्य नें उन्हें दस्यु सम्बोधित किया है। यह जनजाति प्रखर योद्धा रही है तथा इन्होंने आर्यों की आधीनता को अस्वीकार कर सर्वदा युद्ध का मार्गानुसरण किया है। राक्षसों के लिये ऋग्वेद में क्रव्याद: अर्थात कच्चा मांसाहार करने वाले; मृघ्रवाच: अर्थात जिनकी भाषा न समझ आये; अदेवयु: अर्थात देवताओं को न मानने वाले; अनास अर्थात जिनकी नाक छोटी व उठी हुई हो; शिश्नदेवा: अर्थात लिंगोपासक कहा गया है। इनमें गर्धर्व विवाह का प्रचलन था तथा बलात् विवाह करने की वृत्ति को भी बाद में राक्षस विवाह नामांकरण से जाना गया। राक्षसों के भी तीन विभेद बताये गये हैं - विराध (असुर), दनु (दानव) तथा रक्ष (राक्षस)। ये तीनों सैद्धांतिक रूप से एक साथ रावण की सत्ता में प्रतीत होती हैं किंतु रावण के घायल होने पर विराध (असुर) शाखा का प्रसन्नता व्यक्त करना (वाल्मीकी रामायण 6.59.115-6) यह बताता है कि ये आपसी मतभेद के भी शिकार थे। विराध शाखा की उपस्थिति दण्डकारण्य के दक्षिणी अंचल में मानी जाती है। यह भी उल्लेख मिलता है कि रावण नें इन्द्रावती व गोदावरी के मध्य के अनेक दानवों (दनु शाखा) का वध किया था – हंतारं दानवेन्द्राणाम। राक्षसों (रक्ष शाखा) की मूल उपस्थिति को आन्ध्रप्रदेश से माना जा सकता है।
रामायण कालीन बस्तर के जटिल समाजशास्त्र को समझने के लिये उपरोक्त सभी विवरणों को एक साथ देखना होगा। दण्डकारण्य की अपनी ही तरह की संस्कृति थी जिसमें गंगाजमुनी सम्मिश्रण होने लगा तब भी उसनें इन्द्रावती का वेग और गोदावरी की विराटता को मजबूती से थामे रखा। यह दो संस्कृतियों के मध्य का क्षेत्र होने के कारण कई अनेकताओं का समागम स्थल है। यह ज्ञात होता है कि कई जनजातियाँ जैसी अवस्था में रामायण काल में रहती होंगी अब भी उनमें बहुत कुछ नहीं बदला है। यहाँ के समाजशास्त्र नें दक्षिण से उसकी पहचान अलग रखी व उत्तर से भी स्वयं को मिलने नहीं दिया। यहाँ से जुडे केवल आर्य-द्रविड युद्ध के ही प्रसंग नहीं हैं अपितु कई द्रविड प्रजातियों के आपसी संघर्ष का भी यह क्षेत्र रहा है जहाँ समय समय पर शक्तिशाली आर्य व रक्ष प्रजातियों ने कभी मैत्री तो कभी युद्ध द्वारा अपनी शक्ति व सत्ता के केन्द्र स्थापित किये। यह अनोखा स्थल है जहाँ आश्रम संस्कृति भी पूरे चरम पर थी तो उसका विरोध भी पूरी निर्ममता से होता रहा। मेरा मानना है कि प्राचीन ग्रंथों से मिल रहे सूत्रों को जब तक इतिहासकार बारीकी से नहीं पकडेंगे वे बस्तर के अतीत की न्यायपूर्ण व्याख्या नहीं कर सकेंगे। वर्तमान में दण्डकारण्य क्षेत्र पुन: युद्धभूमि बना हुआ है तथा आन्ध्र ओडिशा महाराष्ट्र से भीतर घुस कर खास विचारधारा के बुद्धिजीवियों नें इसे अपना उपनिवेश बना लिया है। युद्धरत दिखने वाले लोग बस्तर की वही जनजातियाँ हैं जिनमें से प्रत्येक अपनी पुरातन परम्पराओं की थाती सम्भाले अतीत का जीवत प्रमाण है। दुर्भाग्य!! बस्तर से यह विरासत मिट जायेगी।
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[आलेख के साथ प्रस्तुत चित्र राकेश सिंह Rakesh R. Singh के कैमरे से]
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
GREAT THOUGHTS BY CHANAKYA
चाणक्य के महान विचार
15 GREAT THOUGHTS BY CHANAKYA
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१. औरों की त्रुटियों से सीखो, खुद गलती करके सीखने लायक लम्बी जिंदगी नहीं मिलेगी।
1) "Learn from the mistakes of
others... you can't live long
enough to make them all
yourselves!!"
२. व्यक्ति बेहद ईमानदार न हो, सीधे वृक्ष पहले कटे जाते हैं और ईमानदार व्यक्ति पहले सताये जाते हैं.
२. व्यक्ति बेहद ईमानदार न हो, सीधे वृक्ष पहले कटे जाते हैं और ईमानदार व्यक्ति पहले सताये जाते हैं.
2)"A person should not be too
honest. Straight trees are cut first
and Honest people are screwed
first."
३. सांप जहरीला न हो तो भी उसे विषैला दिखना चाहिए। (अन्यथा लोग उसे जीने न देंगे।)
3)"Even if a snake is not
poisonous, it should pretend to be
venomous."
४. यह कटु सत्य है कि हर मित्रता के पीछे स्वार्थ होता है, स्वहित रहित कोइ मित्रता नहीं होती।
४. यह कटु सत्य है कि हर मित्रता के पीछे स्वार्थ होता है, स्वहित रहित कोइ मित्रता नहीं होती।
4)"There is some self-interest
behind every friendship. There is
no friendship without self-
interests. This is a bitter truth."
५.
5)" Before you start some work, always ask yourself three questions - Why am I doing it, What the results might be and Will I be successful. Only when you think deeply and find satisfactory answers to these questions, go ahead."
6)"As soon as the fear approaches near, attack and destroy it."
7)"The world's biggest power is the youth and beauty of a woman."
8) "Once you start a working on something, don't be afraid of failure and don't abandon it. People who work sincerely are the happiest."
9)"The fragrance of flowers
spreads only in the direction of
the wind. But the goodness of a
person spreads in all direction."
10)"God is not present in idols.
Your feelings are your god. The
soul is your temple."
11) "A man is great by deeds, not by birth."
12) "Never make friends with
people who are above or below
you in status. Such friendships
will never give you any
happiness."
13) "Treat your kid like a darling
for the first five years. For the
next five years, scold them. By the
time they turn sixteen, treat them
like a friend. Your grown up
children are your best friends."
14) "Books are as useful to a
stupid person as a mirror is useful
to a blind person."
15) "Education is the Best Friend.
An Educated Person is Respected
Everywhere. Education beats the
Beauty and the Youth."
५.
5)" Before you start some work, always ask yourself three questions - Why am I doing it, What the results might be and Will I be successful. Only when you think deeply and find satisfactory answers to these questions, go ahead."
6)"As soon as the fear approaches near, attack and destroy it."
7)"The world's biggest power is the youth and beauty of a woman."
8) "Once you start a working on something, don't be afraid of failure and don't abandon it. People who work sincerely are the happiest."
9)"The fragrance of flowers
spreads only in the direction of
the wind. But the goodness of a
person spreads in all direction."
10)"God is not present in idols.
Your feelings are your god. The
soul is your temple."
11) "A man is great by deeds, not by birth."
12) "Never make friends with
people who are above or below
you in status. Such friendships
will never give you any
happiness."
13) "Treat your kid like a darling
for the first five years. For the
next five years, scold them. By the
time they turn sixteen, treat them
like a friend. Your grown up
children are your best friends."
14) "Books are as useful to a
stupid person as a mirror is useful
to a blind person."
15) "Education is the Best Friend.
An Educated Person is Respected
Everywhere. Education beats the
Beauty and the Youth."
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
सोमवार, 23 सितंबर 2013
english story: the last leaf -o henry
अंग्रेजी कहानी:
In a little district west of Washington Square the streets have run
crazy and broken themselves into small strips called "places." These
"places" make strange angles and curves. One Street crosses itself a
time or two. An artist once discovered a valuable possibility in this
street. Suppose a collector with a bill for paints, paper and canvas
should, in traversing this route, suddenly meet himself coming back,
without a cent having been paid on account!
O. Henry*
So, to quaint old Greenwich Village the art people
soon came prowling, hunting for north windows and eighteenth-century
gables and Dutch attics and low rents. Then they imported some pewter
mugs and a chafing dish or two from Sixth Avenue, and became a "colony."
At the top of a squatty, three-story brick Sue and
Johnsy had their studio. "Johnsy" was familiar for Joanna. One was from
Maine; the other from California. They had met at the table d'hôte of an
Eighth Street "Delmonico's," and found their tastes in art, chicory
salad and bishop sleeves so congenial that the joint studio resulted.
That was in May. In November a cold, unseen stranger,
whom the doctors called Pneumonia, stalked about the colony, touching
one here and there with his icy fingers. Over on the east side this
ravager strode boldly, smiting his victims by scores, but his feet trod
slowly through the maze of the narrow and moss-grown "places."
Mr. Pneumonia was not what you would call a chivalric
old gentleman. A mite of a little woman with blood thinned by California
zephyrs was hardly fair game for the red-fisted, short-breathed old
duffer. But Johnsy he smote; and she lay, scarcely moving, on her
painted iron bedstead, looking through the small Dutch window-panes at
the blank side of the next brick house.
One morning the busy doctor invited Sue into the hallway with a shaggy, grey eyebrow.
"She has one chance in - let us say, ten," he said, as
he shook down the mercury in his clinical thermometer. " And that
chance is for her to want to live. This way people have of lining-u on
the side of the undertaker makes the entire pharmacopoeia look silly.
Your little lady has made up her mind that she's not going to get well.
Has she anything on her mind?"
"She - she wanted to paint the Bay of Naples some day." said Sue.
"Paint? - bosh! Has she anything on her mind worth thinking twice - a man for instance?"
"A man?" said Sue, with a jew's-harp twang in her voice. "Is a man worth - but, no, doctor; there is nothing of the kind."
"Well, it is the weakness, then," said the doctor. "I
will do all that science, so far as it may filter through my efforts,
can accomplish. But whenever my patient begins to count the carriages in
her funeral procession I subtract 50 per cent from the curative power
of medicines. If you will get her to ask one question about the new
winter styles in cloak sleeves I will promise you a one-in-five chance
for her, instead of one in ten."
After the doctor had gone Sue went into the workroom
and cried a Japanese napkin to a pulp. Then she swaggered into Johnsy's
room with her drawing board, whistling ragtime.
Johnsy lay, scarcely making a ripple under the
bedclothes, with her face toward the window. Sue stopped whistling,
thinking she was asleep.
She arranged her board and began a pen-and-ink drawing
to illustrate a magazine story. Young artists must pave their way to
Art by drawing pictures for magazine stories that young authors write to
pave their way to Literature.
As Sue was sketching a pair of elegant horseshow
riding trousers and a monocle of the figure of the hero, an Idaho
cowboy, she heard a low sound, several times repeated. She went quickly
to the bedside.
Johnsy's eyes were open wide. She was looking out the window and counting - counting backward.
"Twelve," she said, and little later "eleven"; and then "ten," and "nine"; and then "eight" and "seven", almost together.
Sue look solicitously out of the window. What was
there to count? There was only a bare, dreary yard to be seen, and the
blank side of the brick house twenty feet away. An old, old ivy vine,
gnarled and decayed at the roots, climbed half way up the brick wall.
The cold breath of autumn had stricken its leaves from the vine until
its skeleton branches clung, almost bare, to the crumbling bricks.
"What is it, dear?" asked Sue.
"Six," said Johnsy, in almost a whisper. "They're
falling faster now. Three days ago there were almost a hundred. It made
my head ache to count them. But now it's easy. There goes another one.
There are only five left now."
"Five what, dear? Tell your Sudie."
"Leaves. On the ivy vine. When the last one falls I
must go, too. I've known that for three days. Didn't the doctor tell
you?"
"Oh, I never heard of such nonsense," complained Sue,
with magnificent scorn. "What have old ivy leaves to do with your
getting well? And you used to love that vine so, you naughty girl. Don't
be a goosey. Why, the doctor told me this morning that your chances for
getting well real soon were - let's see exactly what he said - he said
the chances were ten to one! Why, that's almost as good a chance as we
have in New York when we ride on the street cars or walk past a new
building. Try to take some broth now, and let Sudie go back to her
drawing, so she can sell the editor man with it, and buy port wine for
her sick child, and pork chops for her greedy self."
"You needn't get any more wine," said Johnsy, keeping
her eyes fixed out the window. "There goes another. No, I don't want any
broth. That leaves just four. I want to see the last one fall before it
gets dark. Then I'll go, too."
"Johnsy, dear," said Sue, bending over her, "will you
promise me to keep your eyes closed, and not look out the window until I
am done working? I must hand those drawings in by to-morrow. I need the
light, or I would draw the shade down."
"Couldn't you draw in the other room?" asked Johnsy, coldly.
"I'd rather be here by you," said Sue. "Beside, I don't want you to keep looking at those silly ivy leaves."
"Tell me as soon as you have finished," said Johnsy, closing her eyes, and lying white and still as fallen statue, "because I want to see the last one fall. I'm tired of waiting. I'm tired of thinking. I want to turn loose my hold on everything, and go sailing down, down, just like one of those poor, tired leaves."
"Try to sleep," said Sue. "I must call Behrman up to
be my model for the old hermit miner. I'll not be gone a minute. Don't
try to move 'til I come back."
Old Behrman was a painter who lived on the ground
floor beneath them. He was past sixty and had a Michael Angelo's Moses
beard curling down from the head of a satyr along with the body of an
imp. Behrman was a failure in art. Forty years he had wielded the brush
without getting near enough to touch the hem of his Mistress's robe. He
had been always about to paint a masterpiece, but had never yet begun
it. For several years he had painted nothing except now and then a daub
in the line of commerce or advertising. He earned a little by serving as
a model to those young artists in the colony who could not pay the
price of a professional. He drank gin to excess, and still talked of his
coming masterpiece. For the rest he was a fierce little old man, who
scoffed terribly at softness in any one, and who regarded himself as
especial mastiff-in-waiting to protect the two young artists in the
studio above.
Sue found Behrman smelling strongly of juniper berries
in his dimly lighted den below. In one corner was a blank canvas on an
easel that had been waiting there for twenty-five years to receive the
first line of the masterpiece. She told him of Johnsy's fancy, and how
she feared she would, indeed, light and fragile as a leaf herself, float
away, when her slight hold upon the world grew weaker.
Old Behrman, with his red eyes plainly streaming, shouted his contempt and derision for such idiotic imaginings.
"Vass!" he cried. "Is dere people in de world mit der foolishness to die because leafs dey drop off from a confounded vine? I haf not heard of such a thing. No, I will not bose as a model for your fool hermit-dunderhead. Vy do you allow dot silly pusiness to come in der brain of her? Ach, dot poor leetle Miss Yohnsy."
"She is very ill and weak," said Sue, "and the fever
has left her mind morbid and full of strange fancies. Very well, Mr.
Behrman, if you do not care to pose for me, you needn't. But I think you
are a horrid old - old flibbertigibbet."
"You are just like a woman!" yelled Behrman. "Who said
I will not bose? Go on. I come mit you. For half an hour I haf peen
trying to say dot I am ready to bose. Gott! dis is not any blace in
which one so goot as Miss Yohnsy shall lie sick. Some day I vill baint a
masterpiece, and ve shall all go away. Gott! yes."
Johnsy was sleeping when they went upstairs. Sue
pulled the shade down to the window-sill, and motioned Behrman into the
other room. In there they peered out the window fearfully at the ivy
vine. Then they looked at each other for a moment without speaking. A
persistent, cold rain was falling, mingled with snow. Behrman, in his
old blue shirt, took his seat as the hermit miner on an upturned kettle
for a rock.
When Sue awoke from an hour's sleep the next morning
she found Johnsy with dull, wide-open eyes staring at the drawn green
shade.
"Pull it up; I want to see," she ordered, in a whisper.
Wearily Sue obeyed.
But, lo! after the beating rain and fierce gusts of
wind that had endured through the livelong night, there yet stood out
against the brick wall one ivy leaf. It was the last one on the vine.
Still dark green near its stem, with its serrated edges tinted with the
yellow of dissolution and decay, it hung bravely from the branch some
twenty feet above the ground.
"It is the last one," said Johnsy. "I thought it would surely fall during the night. I heard the wind. It will fall to-day, and I shall die at the same time."
"Dear, dear!" said Sue, leaning her worn face down to
the pillow, "think of me, if you won't think of yourself. What would I
do?"
But Johnsy did not answer. The lonesomest thing in all
the world is a soul when it is making ready to go on its mysterious,
far journey. The fancy seemed to possess her more strongly as one by one
the ties that bound her to friendship and to earth were loosed.
The day wore away, and even through the twilight they
could see the lone ivy leaf clinging to its stem against the wall. And
then, with the coming of the night the north wind was again loosed,
while the rain still beat against the windows and pattered down from the
low Dutch eaves.
When it was light enough Johnsy, the merciless, commanded that the shade be raised.
The ivy leaf was still there.
Johnsy lay for a long time looking at it. And then she
called to Sue, who was stirring her chicken broth over the gas stove.
"I've been a bad girl, Sudie," said Johnsy. "Something
has made that last leaf stay there to show me how wicked I was. It is a
sin to want to die. You may bring a me a little broth now, and some
milk with a little port in it, and - no; bring me a hand-mirror first,
and then pack some pillows about me, and I will sit up and watch you
cook."
And hour later she said:
"Sudie, some day I hope to paint the Bay of Naples."
The doctor came in the afternoon, and Sue had an excuse to go into the hallway as he left.
"Even chances," said the doctor, taking Sue's thin, shaking hand in his. "With good nursing you'll win." And now I must see another case I have downstairs. Behrman, his name is - some kind of an artist, I believe. Pneumonia, too. He is an old, weak man, and the attack is acute. There is no hope for him; but he goes to the hospital to-day to be made more comfortable."
The next day the doctor said to Sue: "She's out of danger. You won. Nutrition and care now - that's all."
And that afternoon Sue came to the bed where Johnsy
lay, contentedly knitting a very blue and very useless woollen shoulder
scarf, and put one arm around her, pillows and all.
"I have something to tell you, white mouse," she said.
"Mr. Behrman died of pneumonia to-day in the hospital. He was ill only
two days. The janitor found him the morning of the first day in his room
downstairs helpless with pain. His shoes and clothing were wet through
and icy cold. They couldn't imagine where he had been on such a dreadful
night. And then they found a lantern, still lighted, and a ladder that
had been dragged from its place, and some scattered brushes, and a
palette with green and yellow colours mixed on it, and - look out the
window, dear, at the last ivy leaf on the wall. Didn't you wonder why it
never fluttered or moved when the wind blew? Ah, darling, it's
Behrman's masterpiece - he painted it there the night that the last leaf
fell."
Gourtsey: Mayank Verma
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