कुल पेज दृश्य

memories लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
memories लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

संस्मरण: मधु गुप्ता

संस्मरण:
           मधु गुप्ता 
 
प्रिय जनों ,
एक वाकया सुनाने का मन हो रहा है सो सुना रही हूँ ,
मेरे पति जो आर्मी में डाक्टर थे और लगभग  पच्चीस साल पहले उनकी पोस्टिंग जम्मू से आगे पूंछ पाकिस्तान बोर्डर के पास एक छोटा सा गाँव था सूरनकोट वहाँ के अस्पताल को कमांड कर रहे थे. वो फील्ड पोस्टिंग थी और परिवार नहीं जा सकते थे, अलबत्ता गरमी की छुट्टियों में हम दो महीने के लिए चले जाते थे, और पहाड़ी वादियों का भरपूर लुत्फ़ उठाते थे,  अन्य और भी परिवार आ जाते थे अच्छा खासा रिसोर्ट बन जाता था,वहाँ के स्थानीय कश्मीरी लोगों को भी कुछ नौकरी मिल जाती थी. रशीद नाम का एक सफाई कर्मचारी था जो हमारे कमरे आदि साफ़ करता था, बड़ा ही भला मानुस था. वो कई बार कहता था कि 'उसकी घरवाली अफ़सरान साहेब की मेमसाहब लोगों से मिलना चाहती हैं, मैंने कहा: "ले आओ किसी दिन भी "
एक दिन दोपहर में, हम बरामदे के बाहर कुर्सियों पर बैठे धूप खा रहे थे  कि  हमने देखा साफ़ सुथरे कपड़े पहने उसकी पत्नी, दो बेटियाँ व एक बेटा वहाँ आए, और ठिठकते हुए कुछ दूरी पर खड़े हो गए, स्नेहपूर्वक हमने उन्हें अपने पास बुलाया, कुर्सी की और इशारा किया बठने का, परन्तु वो लोग कुर्सी पर नहीं बैठे, बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ गए. खाने-पीने के लिए मेस से कुछ ऑर्डर करना चाहा तो उन्होंने इनकार कर दिया, कहा 'रोज़े' चल रहे हैं, बच्चे  भी' रोजा' रखे थे.( रोजा रखने या न रखने से क्या फरक पड़ता है वैसे भी उनके घरों में कुछ खाने को नहीं होता था, हमने उनका जीवन बहुत नजदीक से देखा था) कुछ देर बाद उन्होंने सफ़ेद रूमाल की पोटली हमारे सामने खोली उसमें ताज़े भुने हुए मकई क दाने थे, और हमारे मुँह की ओर ताकते हुए कहा- "आपके वास्ते "
मेरा मुँह कलेजे में आ गया, घुटन महसूस हुई और दम घुटने लगा. अनायास ही महादेवी वर्मा जी की कहानी  "सिस्तर के वास्ते " याद हो आ . थोड़ी देर बाद 'उन्होंने पूछा बच्चे कहाँ है?'
मैंने दूर खेल रहे बच्चों की और इशारा किया कि, वो वहाँ खेल रहें हैं , कुछ बच्चे बैडमिंटन  खेल रहे थे,  कुछ क्रोके और कुछ यूँ ही भाग दौड़ कर कर रहे थे , मैंने अपनी दोनों बेटियों को आवाज़ दी , और उनसे मिलवाया, मिलने के तुरंत बाद उन्होंने फिर पूछा: "बच्चे कहाँ हैं ?" 
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, सोचा अभी तो इन्हें मिलवाया था, मैंने कहा: "ये ही तो हैं हमारे बच्चे "भोली-भोली सी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखकर उन्होंने अपना प्रश्न फिर दोहराया: "बच्चे कहाँ है?"
मैंने पुनः बेटियों की ओर इशारा किया, वो बोलीं: "ये तो लड़कियाँ हैं, साहब का बच्चा नहीं है ?" 
बाद में हमारी पोस्टिंग दिल्ली हों गई थी। रशीद एक दिन अचानक अपने बेटे के साथ वहाँ पहुँच गया, मेरे पति की यूनिट में आया  उसने बताया उसका एकलौता बेटा बीमार रहता है , मिलिटरी अस्पताल में मानवता के नाते उसकी जाँच करवाई, पता चला उसकी दोनों किडनी खराब हो गयी थी मात्र दस बरस का था।  उसके इलाज के लिए पैसा कहाँ से लाता, दिल्ली में कहाँ ठहरता? जो मदद हम कर सकते थे की, फिर उसे वापसी का किराया दे कर भेज दिया, बाद में पता चला वो बच नहीं पाया था। अब बस करतीं हूँ आज भी दिल डूबता है , .---.
Madhu Gupta <madhuvmsd@gmail.com>

सोमवार, 16 जुलाई 2012

स्मरण: साहिल सहरी --आदिल रशीद

स्मरण:

साहिल सहरी

आदिल रशीद
 



Aadil Rasheed

*
मैं लौटने के इरादे से जा रहा हूँ मगर 
सफ़र सफ़र है मेरा इंतज़ार मत करना ..  साहिल सहरी
हिंदी उर्दू साहित्य मे दिलचस्पी रखने वाला शायद ही कोई  शख्स हो जिस ने ये शेर न सुना हो ये मशहूर शेर साहिल सहरी नैनीताली का है जिन्होंने कभी दिमाग  का कहना नहीं माना, हमेशा दिल का कहना ही किया उसी दिल ने आज उनके साथ बेवफाई की और धड़कन बंद हो जाने के सबब आज सुब्ह ८.30 बजे  उनका निधन हो गया... अल्लाह उन्हें जन्नत मे ऊँचा  मुकाम अता फरमाए.
साहिल सहरी का जन्म 4  नवम्बर 1949   को नैनीताल में हुआ उनका असली नाम रहीम खान था. उनके पिता रहमत अली खान भी एक उस्ताद शायर थे और अह्कर देहलवी तखल्लुस फरमाते थे. उनकी माँ और साहिल सहरी की दादी पुरानी दिल्ली के एक इल्मी अदबी बाजौक घराने से तआल्लुक रखती थी. इसलिए उन्होंने अपने तखल्लुस में नैनीताल के होते हुए भी दिल्ली की निस्बत को प्राथमिकता दी. इस तरह ये बात दलील के साथ कही जा सकती है कि साहिल सहरी को शायरी का ज्ञान विरासत में मिला और शायरी उनके खून में शामिल थी.
साहिल सहरी के लिए यह बात कही जा सकती है की जो लोग उनके पास उठे-बैठे वो शायर हो गए तो भला साहिल सहरी साहिब की पत्नि उनके प्रभाव से कैसे बचतीं साहिल सहरी की पत्नि निशात साहिल ने भी उनके रहनुमाई में बड़ी पुख्ता शायरी की है. उनकी औलादों में 6   बेटियां, 1 बेटा है. एक बहुत पुरानी कहावत है कि  मछली के बच्चों को तैराकी सीखनी नहीं पड़ती, ये हुनर उनमें  पैदाइशी होता है. साहिल सहरी की औलादों में भी शायरी के गुण पाये गये. उनकी बेटियों ने वालिद के नक़्शे-क़दम पर चलते हुए हमेशा मेआरी शायरी की है. उनकी एक बेटी तरन्नुम निशात ने अपने मेंआरी कलाम से अदब की खूब खिदमत की और शादी के बाद अपने परिवार को समय देने के  कारण खुद को मुशायरों से दूर कर लिया लेकिन शेर अब भी कहती हैं. उनकी छोटी बेटी नाजिया सहरी इस समय  मुशायरों में बहुत कामयाब शायरा है तथा पूरे भारत में उनको पसंद किया जाता है.
मरहूम साहिल सहरी से मेरी बड़ी कुर्बत थी. वे हमेशा मेरा हौसला बढ़ाते थे और जब देहली आते तो ज़रूर मुलाक़ात करते. उनसे मेरी  पहली मुलाक़ात तब हुई थी जब मैंने और हामिद अली अख्तर ने एक कुल हिंद मुशायरा बा उनवान "एक शाम डाक्टर ताबिश मेहदी के नाम" दिल्ली में कराया था. इसमें साहिल सहरी के शागिर्द मशहूर शायर और नाज़िमे मुशायरा एजाज़ अंसारी ने उन्हें आमंत्रित किया था. वे अपने बेहद अज़ीज़ शागिर्द जदीद लहजे के मुनफ़रिद शायर व् कवि और उत्तरांचल पावर कारपोरेशन में  DGM  के पद पर कार्यरत जनाब इकबाल आज़र के साथ तशरीफ़ लाये थे. इकबाल आज़र साहेब में एक खास बात यह है की वे ब यक वक़्त उर्दू और हिंदी भाषा में शायरी करते हैं जो की एक व्यक्ति का दायें और बाएं हाथ से लिखने जैसा बेहद कठिन काम है लेकिन इकबाल आज़र  साहेब उसको उतनी ही आसानी से कर लेते है जितनी आसानी से नट रस्सी पर सीधा चलता है.
साहिल सहरी साहब ने मुझे बहुत से मुशायरों में खुद भी बुलाया और  दूसरी जगह भी प्रमोट किया, यह कह कर कि   "अच्छी शायरी  को अच्छे  लोगों तक पहुंचना चाहिए. यह हम अदीबों की ज़िम्मेदारी है. मैं स्वयं  भी और मेरी टूटी-फूटी शायरी भी उनके इस सच्चे जज्बे की हमेशा ममनून रहेगी. मरहूम बड़े साफ़ दिल, बड़ी साफ़-साफ़ बात करने वाले इंसान थे किसी तरह की मसलहत और गीबत को बिलकुल पसंद नहीं करते थे.
एक बार उनका यही मिसरा " सफ़र सफ़र है मेरा इंतज़ार मत करना" तरही के तौर पर दिया गया जिस पर मैं ने कुछ यूँ गिरह लगायी जो उनके इस बड़े शेर से बिलकुल उलट थी के
ये बात सच है मगर कह के कौन जाता है 
" सफ़र सफ़र है मेरा इंतज़ार मत करना"
                                                                                                               - आदिल रशीद,2005
 कुछ "अजब से लोगों ने"  कुछ "अजब से अंदाज़" में उनको ये शेर सुनाया और उनको "कुछ अजब" से मतलब समझाने चाहे. उन्होंने उन्हें कोई भी उत्तर दिए बिना जेब से मोबाइल निकालकर उन लोगों के सामने ही मुझे फ़ोन लगाया और आदत अनुसार हँसते हुए कहा "बरखुरदार मुबारक हो हमारा रिकॉर्ड तोड़ दिया". मैं सटपटा गया और घबराते हुए मैं ने कहा  "उस्ताद मैं समझा नहीं" तो उन्होंने हँसते हुए बगैर किसी का नाम लेते हुए कहा "कुछ लोग मुझे  तुम्हारा ये शेर सुना रहे हैं जो तुमने मेरे मिसरे पर मिसरा लगाया है, मैं ने सोचा के तुमने अच्छा काम किया है तो इनके सामने ही तुम्हें  मुबारकबाद दे दूँ". मेरे उस वक़्त भी और बाद में भी कई कई बार इल्तिजा करने पर भी उन्होंने मुझे उन "अजीब से लोगों" के नाम कभी नहीं बताये और अब अगर वो उनके नाम बताना भी चाहें तो बता नहीं सकते क्योंकि रूहें बोलती नहीं. उनको  अपनी बात कहने के लिये जिस्म  की ज़रुरत होती है और जिस्म तो आज सुपुर्दे खाक हो गया.
मैं ने जब-जब उनसे ऐसे "अजीब आदमी नुमा प्राणियों" के विषय में बात की उन्होंने यही कहा 'आदिल मियां तुम अपना काम {साहित्य सेवा} करते रहो इस साहित्य के सफ़र में तुमको अभी बहुत से अजीब अजीब प्राणी मिलेंगे'.

साहिल सहरी भी पेशे से घडी साज़ थे और मैं भी पेशे से घडी साज़. एक बार जब  मैं ने उन्हें अपना ये शेर सुनाया
''औरों की घड़ियाँ हमने संवारी हैं रात दिन -
और अपनी इक घडी की हिफाज़त न कर सके"
तो उनकी आँख नम हो गई और उन्होंने मेरे सर पर हाथ रख कर मुबारकबाद दी और कहा मुझे ख़ुशी के साथ अफ़सोस है  आदिल रशीद कि यह शेर मुझे कहना चाहिए था.
मरहूम साहिल सहरी सच्चे शायर सच्चे इंसान थे उन्होंने कभी मुशायरे पढने के लिए जोड़-तोड़ की राजनीती नहीं की, कभी दाद हासिल करने के लिए अपने ही बन्दों द्वारा फरमाइश की पर्ची भेजने का भोंडा ढोंग भी नहीं किया. वे अपने आपको संतुष्ट करने के लिए शेर कहते थे. अच्छे शेर कहने और सुनने का उन्हें जूनून था. अक्सर रात के पिछले पहर उनका फोन आ जाता और हमेशा की तरह  वही एक जुमला होता "भाई, कोई अच्छा शेर सुना दो". जब  मैं अपना या अपने हाफ़िज़े में से किसी और का कोई अच्छा शेर उन्हें सुना देता तो एक लम्बी ठंडी सांस लेते हुए कहते अब नींद आ जायेगी. वे  अक्सर शेर कहने के लिए पूरी-पूरी रात जागते  इसीलिए उन्होंने कहा
''ये हमसे पूछो के किस तरह शेर होते हैं
के हम सहर की अजानो के बाद सोते हैं''
साहिल सहरी के उस्ताद कुंवर महिंदर सिंह बेदी "सहर" थे, इसीलिए वे सहरी लिखते थे. साहिल सहरी कुंवर महिंदर सिंह बेदी "सहर" जिन्हें सब "आली जा " कहते थे के बेहद अज़ीज़ शागिर्द थे, जिसका ज़िक्र आली जा ने 'यादों का जश्न' में बड़ी ही मुहब्बत से किया है, जो लोग आली जा की ज़िदगी में आली जा से एक मुलाक़ात करने या आली जा का शागिर्द होने के लिए साहिल सहरी के आगे-पीछे घूमते थे आली जा की आँखे बंद होते ही उन्हीं लोगों ने उनके पीछे से गाल बजाने शुरू कर दिए लेकिन उनके मरते दम तक उनके सामने नज़रें उठाने की हिम्मत न कर सके.
उन्हें हमेशा इस बात का गिला रहा कि लोगों ने उनसे लिया तो बहुत कुछ मगर उन्हें उसका सिला जो उनका  हक था वो तक  कभी नहीं दिया. कच्ची मिटटी के ऐसे कई दिये हैं जिन्हें साहिल सहरी ने आफ़ताब किया था, लेकिन मौक़ा पड़ने पर उन्होंने अपने मुहसिन का हाथ जलाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.
साहिल सहरी साहिब से मशवरा करनेवालों की गिनती यूँ तो बहुत ही जियादा है लेकिन चन्द शागिर्द जिनका नाम साहिल सहरी साहिब बड़े ही फख्र से लेते थे उनमें ख्याल खन्ना कानपुरी, मशहूर नाजिम ऐ मुशायरा एजाज़ अंसारी दिल्ली, इकबाल आजर देहरादून, वसी अहमद वसी फरुखाबाद, अबसार सिद्दीकी खटीमा, शकील सहर एटवी के नाम काबिले ज़िक्र हैं.
उनका एक ग़ज़ल संग्रह "सफ़र सफर है" 2005 में प्रकाशित होकर मशहूर हो चुका था और उनकी ज़िन्दगी में ही उनके अज़ीज़ शागिर्द इकबाल आजर साहेब के हाथों उनकी दूसरी किताब पर काम शुरू हो चुका था जिसे अब जनाब इकबाल आजर "कुल्लियाते साहिल सहरी " के नाम से मुरत्तब कर रहे हैं जो जल्द प्रकाशित होगा.
साहिल सहरी को अनेको सम्मान मिले. दूरदर्शन, आकाशवाणी, ऍफ़ एम् चैनलों पर उनका कलाम प्रसारित हुआ तथा भारत और भारत से बाहर पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ.       
एक समय पर मुशायरों पर राज करने वाला बड़ा शायर, मुशायरे के माईक से शेर की तरह दहाड़ने वाला शायर {जिसकी नकल करके बहुत से शायर मुशायरों में बहुत कामयाब हुए} अपनी बढ़ती उम्र के साथ रफ्ता-रफ्ता मुशायरों से दूर होता गया और आखिरकार आज दुनिया से भी दूर हो गया लेकिन अगर वो चाहे भी तो साहित्य और साहित्य प्रेमियों के दिल से दूर नहीं हो सकता उनके कहे अशआर अदब पारों में हमेशा महफूज़ रहेंगे.
--
aadil.rasheed1967@gmail.com

सोमवार, 28 नवंबर 2011

स्मरण : बच्चन --अमिताभ बच्चन द्वारा मधुशाला गायन:


स्मरण : बच्चन -- प्रो. ए. अच्युतन



स्मरण : बच्चन 

लोकधर्मी कवि हरिवंशराय बच्चन


- प्रो. ए. अच्युतन, हिन्दी विभाग, कालिकट विश्वविद्यालय, कालिकट (केरल)

प्रवासी दुनिया.कॉम से प्रसिद्ध रचनाकार बच्चन जी की जयन्ती 27 नवंबर पर साभार प्रस्तुत हैं निम्न लेख:

आधुनिक हिन्दी कविता की हालावादी प्रवृत्ति के सूत्रधार हरिवंशराय बच्चन की काव्य यात्रा प्रेमी से श्रद्धालु तक की यात्रा है। बच्चन की काव्य प्रवृत्ति लोकमानस से शुरू होकर जनमानस और मुनिमानस तक यात्रा करती है। लोकमानस से ही लोक साहित्य एवं कला अनेक संभावनाओं के साथ उपजते हैं। लोकमानस से मुनिमानस तक की यात्रा का विकास एक तरह से मनुष्य की कलाभिव्यक्ति या संस्कृति के ही इतिहास का सार है। लोक साहित्य में मानव के सुख-दुख की सहज, स्वाभाविक और अकृत्रिम अभिव्यक्ति ही होती हैं। लोक जो कुछ कहता है, सुनता है, उसे समूह की वाणी बनकर ही कहता है, सुनता है। लोक साहित्य के इस सामूहिक पक्ष को बच्चनजी ने अपने काव्य का मूल मंत्र बनाया है। इसी आधार पर बच्चन के काव्य में लोक तत्व के विभिन्न पक्षों पर विचार करना हमारा अभीष्ट है।
वस्तुत: बच्चनजी का काव्य व्यक्तिनिष्ठ है, लेकिन उनके काव्य के प्राण में जो प्रेम तत्व है, जीवन तत्व है, भाव तत्व है, वह अकेले बच्चनजी की ही नहीं, जन-जन की संपदा है, लोक संपत्ति है। अत: बच्चन का काव्य और उनके गीत जन-जीवन में समा जाने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। बच्चन की अनुभूतियां मानवीय हैं। देश, काल के घेरे में उन्हें नहीं बांध सकते। सहजता, सरलता, नैसर्गिकता, गेयता आदि गुण लोकतत्व के अंतर्गत आ सकते हैं। लोकतत्व संबंधी अवधारणा अधिकतर बच्चन के गीत संबंधी विचारों में स्पष्ट हो जाती है क्योंकि गीत शैली लोक से ही आयी है – उनका मानना है कि – गीत की अपनी इकाई होती है – भावों विचारों की और एक हद तक अभिव्यक्ति के उपकरणों की भी… प्रत्येक गीत को सर्वस्वतंत्र अपराश्रित और अपने में ही पूर्ण मानकर प्राय: पढ़ा, गाया जाता है और उसका रस लिया जाता है। (आरती और अंगारे – भूमिका पृ. 11) गीत समाप्त हो जाने पर उसकी गूंज श्रोता के कानों में बस जाए और बहुत सी अनुगूंजों को जगाए। जगजीवन की विभिन्न हलचलों के बाद वह ध्यान से भले ही उतर हो जाय पर सहसा यदि उसकी याद आ जाए तो वह अपने पूरे आवेग से फिर गूंज उठे। (प्रणय पत्रिका – भूमिका – पृ. 11-12) गीत वह है जिस में भाव-विचार-अनुभूति-कल्पना, एक शब्द में कथ्य की एकता हो और उसका एक ही प्रभाव हो। (त्रिभंगिमा – भूमिका – पृ. 91) उपर्युक्त कथनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बच्चन की गीत संबंधी धारणा लोक मानस के आधार पर है। अत: स्वाभाविक और गीतात्मक है।
ताल-लय समन्वय लोकतत्व का आत्मस्वरूप : संगीत दिल की भाषा है। ताल-लय के बिना गीत या संगीत नहीं है। ताल-लय प्रकृत्ति की हर वस्तु में खोजा जा सकता है। इस ताल-लय समन्वय ने ही प्रकृत्ति को संतुलित बना रखा है। हमारे पूर्वजों ने अपने निरीक्षण बल पर इसी तथ्य को जान लिया था। इसीलिये ताल-लय समन्वय लोक का आत्मस्वरूप बन गया। ताल-लय सन्तुलन बिगड़ने से ही प्रकृत्ति में कई तरह के विनाश या ताण्डव जैसे बाढ़, तूफान, लावा, सुनामी आदि घटते हैं। ‘लोक’ ने जान लिया कि ऋतु संतुलन बनाये रखने के लिये ताल-लय (शिव-शक्ति – पुरूष-स्त्री) का संयोग सही अनुपात में बना रहना जरूरी है। तुलसी के समन्वय, प्रसाद के समरसता आदि सिद्धांतों का यही लोकाधार है। बच्चनजी ने अपनी रचनाओं में इसी समन्वय को बनाये रखने का प्रयास किया है चाहे वह सामाजिक पक्ष की दृष्टि से हो या वैयक्तिक दृष्टि से या काव्य की दृष्टि से। बच्चन ने यह महसूस किया कि सामाजिक विषमता,र् ईष्या, द्वेष की भावना को पैदा करने वाले ऊंचे परिवार के ही लोग, महलों में रहने वाले जो मानवता पर क्रूर, कठोर, अमानवीयता का व्यवहार करते हैं और लाखों करोड़ों गरीब असहायों का खून चूसकर स्वयं आराम से जीवन बिताते हैं – तभी मधुशाला की कवि ने अपनी आवाज समानता-समन्वय के लिये बुलन्द की।
बड़े बड़े परिवार मिटे यों
एक न हो रोनेवाला
हो जाए सुनसान महल वे
जहां थिरकती सुरबाला
राज्य उलट जाएं भूपों की
भाग्य-सुलक्ष्मी सो जाए
जमें रहेंगे पीने वाले
जगा करेगी मधुशाला।
समाज में निरंतर भेद भाव की भावना उग्र रूप धारण कर रही थी। ऊंच-नीच छुआछूत का बोलबाला था। इसलिये समाज की असंगठित शक्ति, एकता नष्ट हो रही थी। इसलिये बच्चन ने अपनी मधुशाला के लिये कहा है -
भूसुर-भंगी सभी यहां पर
साथ बैठकर पीते हैं
सौ सुधारकों का करती है
काम अकेली मधुशाला।
उन्होंने प्रणय गीत, राष्ट्रीय गीत, नवगीत, लोक आधारित गीत आदि तरह तरह के गीत लिखे हैं। बच्चन के गीतों में जो गति है, प्रवाह है वह स्वाभाविक रूप से आया है क्योंकि उसके भाव और लय लोक के करीब है – इन गीतों में स्वर संगीत की अपेक्षा शब्द संगीत विद्यमान रहता है। स्वर तथा व्यंजनों की संगति से अर्थ व्यंजक तथा नाद व्यंजक पंक्तियां बच्चन के गीतों में प्रचुर मात्रा में मिलती है -
चांदनी रात के आंगन में
कुछ छिटके-छिटके से बादल
कुछ सपनों में डूबा-डूबा,
कुछ सपनों में उमगा उमगा।
(मिलन भामिनी – गीत – 13)
बच्चन के गीतों में भावपक्ष प्रबल है। अनुभूति की सत्यता की लोकधर्मिता शब्द-शब्द से टपकती है। बच्चन का प्रेमी हृदय सदैव अपनी भावुकता और कल्पना को काव्य में प्रकट करता रहा है। मार्मिकता के कारण आपका काव्य लोकप्रिय बन गया है। कवि अपनी प्रेमानुभूति को प्राकृतिक व्यापारों में संश्लिष्ट करते हुए प्रकट करता है -
प्राण संध्या झुक गयी गिरि ग्राम तरु पर
उठ रहा है क्षितिज के ऊपर सिंदूरी चांद
मेरा प्यार पहली बार लो तुम
हम किसी के हाथ में साधन बने हैं
सृष्टि की कुछ मांग पूरी हो रही है।
गीत की प्राणमयता संक्षिप्तता में निहित है। बच्चन के गीतों की संक्षिप्तता में उनके हृदय की गंभीरता भी भरी पड़ी है -
कोई पार नदी के गाता
भंग निशा की नीरवता कर
इस देहाती गाने का स्वर
ककड़ी के खेतों में उठकर
आज जमुना पर लहराता
आज न जाने क्यों होता मन
सुनकर यह एकाकी गायन
सदा इसे मैं सुनता रहता
सदा इसे यह गाता जाता
कोई पार नदी के गाता।
(निशानिमंत्रण – गीत 25)
लोकगीत शैली
लोकगीत अतिवार्यत: वस्तुव्यंजक होता है। लोकगीत लोककाव्य ही है। इस शैली में श्रमसाध्य कलात्मकता (नाटयधर्मिता) नहीं होती। विचारों की सरलता, नैसर्गिक भावाभिव्यक्ति आदि गीतों के गुण अतीत के मानव समाज से जोड़ देते हैं। इसमें प्रयुक्त उपमान शब्द व्यावहारिक जीवन से गृहित होते हैं। सीधे सादे सरल एवं गेय होते हैं। आज के संगर्भ में गीत का सर्वाधिक महत्व है। लोकगीत की सत्ता ढूंढते आलोचक सुरेश गौतम ने गीत को हमारे समूचे सांस्कृतिक जीवन की रीढ़ स्वीकार कर बताया कि – ‘यदि हमें मानवता को पुनर्जीवित करना है तो गीत को पहचानना होगा। लोक मानस की तरंगों को अपनाना होगा। गीत के वैराटय बोध को समयानुकूल मानव कसौटियों पर मानव की बुनियादी वृत्तियों के साथ कसना होगा। बुद्धि और हृदय के बीच सेतु संकल्पों को वृक्ष धर्म बनना होगा।’ यह कहा जा सकता है कि मानवता के अभ्युत्थान का सारा बोझ शायद आज गीत के ही कंधों पर है। गहरे में यदि सोचें तो यही सत्य अभरेगा कि गीत ही वह प्रथम भावनेता है जो मनुष्य को जगाकर उसके विकास का प्रयत्न करता है। मानवता की सभ्यता का अभिव्यक्ति रूप गीत है। मानवता को हर गीत में जगाया है, वह वेद में हो, कुरान में हो, बाईबिल में हो, गुरू ग्रंथ साहिब में हो अथवा लोकगीत में। (लोकगीत की सत्ता – सु. गौतम – शब्द सेतु पृ. 41)
बच्चन के दो काव्य संग्रहों में विशेषकर ‘त्रिभंगिमा’ और ‘चार खेमे : चौंसठ खूंटे’ में लोकगीत शैली का प्रयोग किया गया है। भाषा खड़ी बोली हिन्दी है पर शब्द विन्यास ऐसा है कि गीत की सरलता साकार हो जाती है। त्रिभंगिमा का प्रथम गीत ‘नैया जाती’ है। यह उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित है। (बच्चन का साहित्य : काव्य और शिल्प, डॉ. जयप्रकाश भाटी – पंछी प्रकाशन, जयपुर)
‘चढ़ना हो, चढ़ना हो जि चढ़ जाय, नैया जाती है।
चंदन की यह नाव बनायी कोमल कमल दलों से छायी
फूलों की झालर लटकाई, रेशम के है पाल, छटा छहराती है।
ये खोजेंगे अलख परी का’ -
यहां नौका की रचना और सजना लोकमानस के अनुरूप है। नौका चंदन से बनी है, कोमल कमलों से छाई है, फूलों की झालर से सजी है। उसका विस्तार इतना है कि मस्तूल गगन को छूता है और बांस नदी की धड़कन को नापता है। नौका अमर पुरी जाएगी और अलख-परी को खोजेगी। लोकधुनों व लोकगीत शैली पर आधारित इन गीतों के प्रति बच्चन का यह आग्रह स्पष्ट है। बच्चन के अधिकांश गीत ऐसे हैं जिन में परंपरा-मुक्त लोकगीतों की भांति कोई कहानी चलती है और मिलन व्यापार के पश्चात् किसी निष्कर्ष के साथ समाप्त हो जाती है। सोन मछरी, गंधर्व ताल, आगाही और नीलपरी ऐसी रचनाएं हैं जो लघुकथानक को लेकर आगे बढ़ती है। सोन-मछरी में एक स्त्री पुरूष से सोन मछरी लाने का आग्रह करती है लेकिन वह सोने की परी ले आता है और वह कहती है – जो मनुष्य कंचन में आसक्त है, वह प्यार नहीं दे सकता – सिर्फ पीड़ा ही दे सकता है – पूर्ण रूप से लोकानुरूप यह गीत बच्चन की गीत रचना में प्रयोग का ही परिणाम है।
वास्तव में प्रत्येक कवि किसी न किसी क्षण में लोकगीत का आश्रय लेता है, जो स्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि कवि भाव का ही आविष्कार करता है और भाव लोकधर्मी है। कुछ लोकगीतों में बच्चन ने समाज के उन मूल्यों को स्पर्श किया है जिनमें जन की अपेक्षा धन को अधिक महत्व दिया जाता है -
आज महंगा है सैंया रुपैया बेटी न प्यारी
बेटा न प्यारा, प्यारा है सैंया रुपैया
(चार खेमे)
लोकगीत शैली के इन गीतों में सामाजिक यथार्थ का भी चित्रण किया गया है। ‘माटी’ तथा ‘गगन’ प्रतीकों के माध्यम से ‘कड़ी मिट्टी’ निष्क्रिय दलित वर्ग तथा शोषित वर्ग की बात इसका प्रमाण है।
मैं इस माटी तोडूंगा, ऐसे तो न इसे छोड़ूगा
इसे दूंगा, इसे दूंगा परीने की धार
(त्रिभंगिमा)
‘माटी की महक’ में समाज के संदर्भ में जीवन के औचित्य को स्वर मिला है -
जिसे माटी की महक न भाए उसे नहीं जीने का हक है
(त्रिभंगिमा)
ये पंक्तियां हमेशा के लिये प्रासंगिक इसलिये हैं कि ये पूर्ण रूप से लोक दृष्टि पर आधारित हैं। आंचलिकता ‘लोक’ की अपनी संस्कृति के साथ जुड़ी हुई चीज है। ‘हरियाने की लली’ तथा ‘बीकानेर का सावन’ में लोक संस्कृति की सही पहचान मिल सकती है -
आई है दिल्ली की नगरिया में हरियाने की लली
देशों में प्रदेश हरियाना, जिस में दूध दहि का खाना
माटी के मथने से जैसे लबनी-सी-निकली।
(चार खेते)
इस तरह लोक के जीवन रीति, आचार, विचार, आचंलिक स्वभाव तथा सोचने का ढंग आदि के अनुकूल बच्चन के गीत हिन्दी के लोकगीत परंपरा में एक नया प्रयोग कहे जा सकते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि बच्चन गीत या कविता लिखने वाले कवि नहीं, बल्कि कविता कहे जाने वाले, कविता के हाथों पूरी तरह समर्पित कवि हैं। उनके काव्य और जीवन दोनों में रास्ता मनुष्य या लोक की ओर ले जाने वाला रास्ता है। क्योंकि बच्चन जी पहले आदमी हैं फिर कवि। तभी बच्चन का कवि आदमियत को अपनाए रहता है और आदमियत में रहकर ही आदमियत की कविता करता रहता है। इसीलिये, शायद बच्चन की कविता में न शब्दों को खिलवाड़ मिलता है – न पांणित्यपूर्ण प्रदर्शन – न गहर गुरु गंभीर निनाद – न चमत्कार – न चीत्कार – न अलंकार – न व्यर्थ का वाग्विचार – न आत्म-दोहरन – न दुराग्रह (केदारनाथ अग्रवाल – बच्चन निकट से – पृ. 53)। असल में बच्चन लोक के कवि हैं, लोकधर्मी कवि हैं क्योंकि उनकी रचनाओं में लोक तत्व ही भरे पड़े हैं।






स्मरण : डॉ. हरिवंश राय बच्चन

स्मरण : डॉ. हरिवंश राय बच्चन



 
आज का युवा ट्विटर और फेसबुक के मायाजाल में फंसता चला जा रहा है। किताबों से दूरी बढ़ गई है। आधुनिक समाज में इसके यंत्रो और तंत्रो से मुक्ति का प्रयास भी हास्यास्पद लगता है।  हरिवंश राय बच्चन जी का भी यही मानना था कि काल और स्थान के दिखाए अनगिनत रास्तों में से एक चुनकर बेधड़क बढ़ते चले जाओं, ‘मधुशाला’ यानी मंजिल मिल जाएगी पर जब सब एक हीं रास्ते पर बढ़ते चले जाए तो एकरसता और सामाजिक रंगों में कमी का डर सदैव बना रहता है। अगर ऐसा हुआ तो फिर कोई हरिवंशराय बच्चन इस भारत भूमि पर जन्म नहीं लेगा। बच्चन जी की १०४ वीं जयन्ती के अवसर पर ''प्रवासी दुनिया'' द्वारा प्रस्तुत सामग्री आभार सहित दिव्य नर्मदा के पाठकों के लिये  पुनर्प्रस्तुत की जा रही है ।

हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार श्री हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को  इलाहाबाद के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में २७ नवम्बर १९०७ को जन्मे श्री हरिवंश राय बच्चन ने १९२९ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधी प्राप्त की और फिर जल्द ही उनका ध्यान स्वतंत्रता के लिये चल रहे संघर्ष ने भी खींचा। कुछ समय पत्रकारिता में बिताने के बाद उन्होनें एक स्थानीय अग्रवाल विद्यालय में अध्यापक की नौकरी कर ली। अध्यापन के काम के साथ-साथ वे पढाई भी करते रहे और एम.ए. तथा बी.टी की उपाधियां प्राप्त की।

उन्होनें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोधकर्ता के रूप में कार्य आरम्भ किया और १९४१ में अंग्रेज़ी साहित्य में लैक्चरर का पद संभाल लिया। कुछ समय के बाद उन्होने विश्वविद्यालय से छुट्टी ली और ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गये। वहां उन्होने “डब्ल्यू. बी. यीट्स और आकल्टिज़म” नामक विषय पर शोध किया और १९५२ में अंग्रेज़ी साहित्य में पी. एच. डी. की उपाधी प्राप्त की। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में पी. एच. डी. की उपाधी प्राप्त करने वाले वह प्रथम भारतीय थे। भारत वापस लौट कर कुछ समय के लिये उन्होने आल इंडिया रेडियो के साथ निर्माता के तौर पर काम किया। फिर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के आग्रह पर १९५५ में श्री बच्चन विदेश मंत्रालय के हिन्दी विभाग से जुड गये। यहां उन्होनें अंग्रेज़ी में लिखे आधिकारिक दस्तावेजो का हिन्दी में अनुवाद करने का काम प्रारम्भ किया और इस काम को वे अपनी सेवानिवृत्ती तक करते रहे।

आलोचनाओ की परवाह किये बिना, बच्चन जी ने लेखन का काम जारी रखा। उनके समक्ष बहुत सी कठिनाईयां आयीं। उनके सामने वित्तीय समस्याएं थी और वे बहुत अकेलापन अनुभव करते थे -जो कि उनकी पहली पत्नी श्यामा के असमय देहांत के कारण और भी बढ गया था। लेकिन जब उन्होने तेजी सूरी के साथ विवाह किया तो उनका जीवन ही बदल गया। बच्चन जी ने यह भी स्वीकार किया की इस विवाह के बाद उनका काव्य भी बदला। उनका रचनात्मक कार्यकाल, जो १९३२ में आरम्भ हुआ और १९९५ तक चला, एक ६३ वर्ष लम्बी साहित्यिक यात्रा था।

“तेरा हार” उनकी कविताओं का पहला संकलन था। १९३५ में “मधुशाला” के प्रकाशन के बाद एक प्रमुख हिन्दी कवि के रूप में उनकी प्रतिष्ठा मज़बूती के साथ स्थापित हो गयी थी। १९३५ की एक शाम जब उन्होने मधुशाला की रूबाइयों का श्रोताओ के एक विशाल समूह के सामने पाठ किया तो वह हिन्दी काव्य के क्षितिज पर एक चमकते हुए सितारे के रूप में उभरे। मधुशाला की रूबाइयां, असंख्य दुख सहे चुके एक नौजवान के हृदय से निकली करुण पुकार थी।

बच्चन जी की काव्य शैली

उमर खैय्याम की रूबाइयत का असर मधुशाला के अलावा उनकी दो और लम्बी कविताओं पर दिखा। १९३६ में “मधुबाला” और १९३७ में “मधुकलश” के प्रकाशन के साथ ही तीन पुस्तको की यह श्रृंखला पूरी हुई। इन तीनो ही कविताओं में यह संदेश छुपा था कि सांसारिक इच्छाएं, लालच, धार्मिक असहिषुण्ता और नैतिकता जैसी चीज़ों का कोई अर्थ नहीं है। बच्चन जी ने इन कविताओ के ज़रिये नैतिकतावादियों को चुनौती दे कर हिन्दी काव्य में एक नई राह की शुरुआत की।

श्यामा की अकाल मृत्यु ने उनकी मानसिकता पर एक गहरा असर छोडा और उनकी सभी आशाओं और स्वपनों को चूर-चूर कर दिया। उनका यह गहरा दुख और निराशा “निशा निमन्त्रण” के माध्यम से व्यक्त हुई जो उनकी सौ कविताओं का १९३८ में प्रकाशित एक संग्रह था। इस संग्रह में बच्चन जी ने अपनी एक अलग शैली विकसित करने का प्रयत्न किया। परम्परागत छ: और आठ पन्क्तियों के पद्य के स्थान पर उन्होनें १३ पन्क्तियों के पद्य का प्रयोग किया। अकेलेपन के क्रंदन से आरम्भ हो कर इन कविताओ का समापन एक आश्वासन के साथ होता है। यह कविताएं मुख्यत: निराशा रूपी अंधकार से जुडी हैं जिनमें प्रकाश को आशा के प्रतिमान के रूप में प्रयोग किया गया है। इन रचनाओं में कवि ने अपने अंतर्मन के भावों को बाहरी संसार के प्रतिमानो के रूप में प्रकट किया है। इसीलिये बहुत से प्रतीकों का भी प्रयोग हुआ है। माथुर जी के शब्दों में “निशा निमन्त्रण हमेशा ही एक मन को छू लेने वाली दुख और व्यथा की रचना बनी रहेगी।”

“निशा निमन्त्रण” के बाद बच्चन जी ने “एकांत संगीत” को १९३८-३९ के उस समय में लिखा जब वह घोर मानसिक यातना के दौर से गुज़र रहे थे। “एकांत संगीत” की पन्क्तियां उनके संवेदनशील मन और दुखो से भरे उस समय को चित्रित करती हैं। यह संग्रह उनकी काव्य प्रतिभा के शिखर को दर्शाता है। कवि ने लिखा कि “निशा निमन्त्रण” के अंधकार ने उन्हें “एकांत संगीत” सुनने के लिये प्रेरित किया और इस संगीत ने उन्हे “आकुल अंतर” (सन १९४३) लिखने की प्रेरणा दी। “आकुल अंतर” के प्रकाशन के साथ ही उनकी काव्य यात्रा का एक चरण पूरा हो गया।

बंगाल में भुखमरी से आहत मन

“सतरंगिनी” का प्रकाशन १९४५ में हुआ। १९४३ में बंगाल में भुखमरी के हालात पैदा हो गये थे और इससे द्रवित हो बच्चन जी अपनी पहले की सोच से हट कर लिखने लगे। मानवीय समस्याओं से उनके काव्य के इस जुडाव के फ़लस्वरूप १९४६ में “बंगाल का कल” नामक संग्रह प्रकाशित हुआ। भूपेन्द्रनाथ दास ने इस संकलन का सन १९४८ में बंगाली भाषा में अनुवाद किया। जनता की समस्याओं और अपने निजी दु:ख की छांह तले उन्होनें १९४६ में ही “हलाहल” का प्रकाशन किया।

प्रसन्नता के भाव

१९५० के दशक में बच्चन जी ने अपने काव्य में लम्बे समय के बाद प्रसन्नता के भावो को व्यक्त किया। उन्होनें १९५० में “मिलन यमिनी” और १९५५ में तुलसीदास की विनय पत्रिका के नाम पर आधारित “प्रणय पत्रिका” की रचना की। १९५७ में “घर के इधर उधर” नामक संकलन में उन्होने अपने वंश के गौरव को दर्शाने का प्रयत्न किया और १९५७ में छपे संकलन “आरती और अंगारे” में उन्होनें व्यक्ति के उसकी विरासत की ओर लौटने की चर्चा की।

अपने बाद के प्रकाशनों में उन्होने अकेलेपन और अस्तित्व की उद्देश्यहीनता से होते हुए जीवन की छोटी छोटी प्रसन्नताओं तक पहुचनें का संदेश दिया। सन १९५८ में “बुद्ध और नाचघर” के प्रकाशन के बाद उनकी लेखन शैली में एक बार फिर से बदलाव आया। स्वंय बच्चन जी के अनुसार “बुद्ध और नाचघर” उनके लेखन में एक मील का पत्थर था। इसमें वह अपने चारो ओर के समाज में पनप रहे क्रोध को व्यक्त करने में सक्षम हुए थे। “त्रिभंगिमा”, “चार खेमे चौसठ खूंटे”, “रूप और आवाज़” और “बहुत दिन बीते” नामक संकलनो में उन्होने लोक-कथाओं की भाषा के साथ प्रयोग कई किये।

दो चट्टानें

१९६५ में छपी “दो चट्टानें” नामक पुस्तक में ५३ कविताएं थी जिन्हें बच्चन जी ने १९६२ से १९६४ के बीच लिखा था। इस संकलन को १९६८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बहुत सी अन्य कविताओं के अलावा इस संकलन की शीर्षक कविता बहुत महत्वपूर्ण थीं। इसमें बच्चन जी ने जीवन के दो दृष्टिकोणो को सिसिफ़स (यूनानी धर्मकथाओं के एक पात्र) और हनुमान के उदाहरण ले कर व्यक्त किया था। सिसिफ़स और हनुमान, दोनो ही अमरता पाना चाहते थे (या उन्होने अमरता पाई थी) परन्तु इसे पाने के लिये दोनो के रास्ते अलग अलग थे। जहां सिसिफ़स ने २०वीं सदी के विश्वासहीन पश्चिमी मानसिकता वाले मानव को चरितार्थ किया वही हनुमान ने अमरता को भक्ति, अटूट विश्वास और मानवता के ज़रिये हासिल किया था।
सदी के सातवें दशक में बच्चन जी ने कविताओं के माध्यम से और भी बहुत से मुद्दो पर अपने विचार व्यक्त किये। इन मुद्दो में चीन का भारत पर आक्रमण, पंडित नेहरु का देहांत, युवाओं में बढते क्रोध, उनकी स्वंय की बढती आयु और तात्कालिक सहित्य इत्यादी शामिल थे।

हिन्दी लेखको के लेखन पर सत्याग्रह के और उसके बाद के दशको में महात्मा गांधी का बहुत प्रभाव पडा। बच्चन जी भी इससे अछूते नहीं रहे। सुमित्रानंदन पंत के साथ मिल कर बच्चन जी ने महात्मा गांधी के बारे में कविताओं का एक संकलन प्रकाशित किया। १९४८ में छपे “खादी के फूल” नामक इस संकलन में बच्चन जी की ९३ कविताएं और पंत जी की १५ कविताएं थी। दोनो ही कवियों ने इन कविताओं के माध्यम से महात्मा गांधी को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किये थे। इसके अलावा, बच्चन जी ने “सूत की माला” शीर्षक से एक और संकलन प्रकाशित किया जिसमें उन्होने गांधी जी की मृत्यु पर अपना शोक व्यक्त किया। ये दोनो ही पुस्तकें बहुत अधिक महत्व की हैं।

एक ऐसे परिवार से होने के कारण जो की अपनी फ़ारसी भाषा की विद्वत्ता और वैष्णव धर्म को मानने के लिये जाना जाता था -बच्चन जी की कविताओं में संस्कृत, फ़ारसी और अरबी भाषाओं का सुंदर संगम देखने को मिलता है। कबीर, कीट्स, टैगोर, शेक्सपीयर और उमर खैय्याम का प्रभाव उनके पूरे काव्य पर देखा जा सकता है। उन्होनें शेक्सपीयर के “मैकबेथ” और “आथेलो” का हिन्दी में अनुवाद भी किया। इसके अलावा उन्होने ६४ रूसी कविताओं और डब्ल्यू. बी. यीट्स की १०१ कविताओं का भी हिन्दी में अनुवाद किया। रूसी कविताओं के हिन्दी अनुवाद के लिये उन्हें १९६६ में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
बच्चन जी ने श्रीमद भगवदगीता का अवधी भाषा में “जनगीता” (१९५८) और आधुनिक हिन्दी में “नागरगीता” (१९६६) नाम से अनुवाद किया। उनकी कुछ चुनी हुई कविताओं का अनुवाद भी कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में हो चुका है। इसके अलावा उन्होनें निबंध, यात्रा-वर्णन इत्यादी का लेखन किया और अपने तथा अन्य कई कवियों के काव्य संकलनों का संपादन भी किया। हिन्दी सिनेमा में भी उन्होने यश चोपडा की फ़िल्म सिलसिला (१९८१) के लिये “रंग बरसे” और फ़िल्म आलाप (१९७७) के लिये “कोई गाता मैं सो जाता” जैसे लोकप्रिय गीत लिख कर अपना योगदान दिया।

गद्य लेखन में बच्चन जी की महान उपलब्धि उनकी चार खंडो में प्रकाशित आत्मकथा है।

पुरस्कार

बच्चन जी को अपने जीवन में बहुत से पुरस्कार और सम्मान मिले। उनमें से कुछ प्रमुख हैं:
साहित्य अकादमी पुरस्कार
सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार
पद्म भूषण (१९७६)
सरस्वती सम्मान (के.के. बिरला फ़ाउंडेशन द्वारा दिया जाने वाला यह सम्मान प्रथम बार बच्चन जी को ही दिया गया था)
एफ़्रो-एशियन राइटर्स कांफ़्रेंस लोटस पुरस्कार
सदस्यता

भारत के राष्ट्रपति द्वारा १९६६ में राज्यसभा के लिये मनोनीत
हिन्दी सलाहकार मंडल, साहित्य अकादमी, की सदस्यता (१९६३-६७)
भारतवर्ष ने हिन्दी भाषा का यह महान कवि १८ जनवरी २००३ को खो दिया। बच्चन जी का देहांत ९६ वर्ष की आयु में सांस की तकलीफ़ के कारण हुआ। मुंबई में उनकी अंतिम यात्रा में हज़ारो लोगो ने हिस्सा लिया।

रचना संसार :

तेरा हार (1932)
मधुशाला (1935)
मधुबाला (1936)
मधुकलश (1937)
निशा निमंत्रण (1938)
एकांत संगीत (1939)
आकुल अंतर (1943)
सतरंगिनी (1945)
हलाहल (1946)
बंगाल का काव्य (1946)
खादी के फूल (1948)
सूत की माला (1948)
मिलन यामिनी (1950)
प्रणय पत्रिका (1955)
धार के इधर उधर (1957)
आरती और अंगारे (1958)
बुद्ध और नाचघर (1958)
त्रिभंगिमा (1961)
चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962)
दो चट्टानें (1965)
बहुत दिन बीते (1967)
कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968)
उभरते प्रतिमानों के रूप (1969)
जाल समेटा (1973) 

विविध
बचपन के साथ क्षण भर (1934)
खय्याम की मधुशाला (1938)
सोपान (1953)
मैकबेथ (1957)
जनगीता (1958)
ओथेलो(1959)
उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959)
कवियों के सौम्य संत: पंत (1960)
आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960)
आधुनिक कवि (1961)
नेहरू: राजनैतिक जीवनचित्र (1961)
नये पुराने झरोखे (1962)
अभिनव सोपान (1964)
चौसठ रूसी कविताएँ (1964)
डब्लू बी यीट्स एंड औकल्टिज़्म (1968)
मरकट द्वीप का स्वर (1968)
नागर गीत) (1966)
बचपन के लोकप्रिय गीत (1967)
हैमलेट (1969)
भाषा अपनी भाव पराये (1970)
पंत के सौ पत्र (1970)
प्रवास की डायरी (1971)
1972)
टूटी छूटी कड़ियाँ(1973)
मेरी कविताई की आधी सदी (1981)
सोहं हँस (1981)
आठवें दशक की प्रतिनिधी श्रेष्ठ कवितायें (1982)
मेरी श्रेष्ठ कविताएँ (1984)

आत्मकथा / रचनावली 
क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969)
नीड़ का निर्माण फिर(1970)
बसेरे से दूर (1977)
दशद्वार से सोपान तक (1965)
बच्चन रचनावली के नौ खण्ड (1983)

***** 

रविवार, 24 जुलाई 2011

संस्मरण : ममतामयी महादेवी संजीव वर्मा 'सलिल'


संस्मरण :
ममतामयी महादेवी
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
नेह नर्मदा धार:
     महीयसी महादेवी वर्मा केवल हिन्दी साहित्य नहीं अपितु विश्व वांग्मय की ऐसी धरोहर हैं जिन्हें पढ़ने और समझने के लिये पाठक को उनके धरातल तक उठना होगा। उनका विराट व्यक्तित्व और उदात्त कृतित्व उन्हें एक दिव्य आभा से मंडित करता तो उनकी निरभिमानता, सहजता और ममतामय दृष्टि नैकट्य की अनुभूति कराती। सफलता, यश और मान्यता के शिखर पर भी उनमें जैसी सरलता, सहजता, विनम्रता और सत्य के प्रति दृढ़ता थी वह अब दुर्लभ है। 

     पूज्य बुआश्री ने जिन अपने साहित्य में जिन मूल्यों का सृजन किया उन्हें अपने जीवन में मूर्तिमंत भी किया। 'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो' को मूर्तिमंत करनेवाली कलम की स्वामिनी का लंबा सामाजिक-साहित्यिक कार्यकाल अविवादित और निष्कलुष रहा। उन्होंने सबको स्नेह-सम्मान दिया और शतगुण श्रृद्धा पायी। उनके निकट हर अंतर्विरोध इस तरह विलीन हो जाता था जैसे पावस में पावक।

                  हर बड़ा-छोटा, साहित्यकार-कलाकार, समाजसेवी-राजनेता, विशिष्ट-सामान्य, भाषा -भूषा, पंथ-संप्रदाय, क्षेत्र-प्रान्त, मत-विमत का अंतर भूलकर उनके निकट आते ही उनके पारिवारिक सदस्य की तरह नेह-नर्मदा में अवगाहन कर धन्यता की प्रतीति कर पाता था।      महीयसी ने महाकवि प्रसाद, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), दादा (माखन लाल चतुर्वेदी), महापंडित राहुल जी, महाप्राण निराला, युगकवि पन्त, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, दिनकर, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, फणीश्वर नाथ 'रेणू', नवीन, सुमन, भारती, उग्र आदि तीन पीढ़ियों के सरस्वती सुतों को अपने ममत्व और वात्सल्य से सराबोर किया। समस्त साहित्यिक-सामाजिक-राजनैतिक अंतर्विरोध उनकी उपस्थिति में स्वतः विलीन या क्षीण हो जाते थे। उन्हें बापू और जवाहर से आशीष मिला तो अटल जी और इंदिरा जी से आत्मीयता और सम्मान।

ममता की शुचि मूर्ति वे, नेह नर्मदा धार।
माँ वसुधा का रत्न थीं, श्वासों का श्रृंगार॥
अपनेपन की चाह :

     महादेवी जी में चिरंतन आदर्शों को जीवंत करने की ललक के साथ नव परम्पराओं से सृजित करने की पुलक भी थी। वे समग्रता की उपासक थीं। गौरवमयी विरासत के साथ सामयिक समस्याओं के सम्यक समाधान में उनकी तत्परता स्तुत्य थी। वे अपने सृजन संसार में लीन रहते हुए भी राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक नातों तथा अपने उत्स के प्रति सतत सचेष्ट रहती थीं। उनका परिवार रक्त संबंधों नहीं, स्नेह संबंधों से बना था। अजनबी से अपना बना  लेने में उनका सानी नहीं था। वे प्रशंसा का अमृत, आलोचना का गरल, सुख की धूप, दुःख की छाँव समभाव से ग्रहण कर निर्लिप्त रहती थीं। 


     सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर उन्हें अतिप्रिय रहा। जब भी अवसर मिलता वे जबलपुर आतीं और यहाँ के रचनाकारों पर आशीष बरसातीं। इस निकटता का प्रत्यक्ष तात्कालिक कारण स्व. रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', नर्मदा प्रसाद खरे तथा उनकी प्राणप्रिय सखी सुभद्रा कुमारी चौहान थीं जो अपने पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रहों की अलख जलाये थीं। दादा भी कर्मवीर के सिलसिले में बहुधा जबलपुर रहते।
मूल की तलाश:

     जबलपुर से लगाव का परोक्ष कारण महादेवी जी की ननिहाल थी जो किसी चित्रपटीय कथा से अधिक रोमांचक घटनाओं के प्रवाह में उनसे छूट चुकी थी। दो पीढ़ियों के मध्य का अंतराल नयी पीढ़ियों का अपरिचय बन गया। वे किसी से कुछ न कहतीं पर मन से चाहतीं की बिछुड़े परिजनों से कभी मिल सकें। अंततः, उनके अंतिम जबलपुर प्रवास में उनके धैर्य का बाँध टूट गया। उन्होंने नगर निगम भवन के समक्ष सुभद्रा जी की मूर्ति के समीप हुए कवि सम्मेलन को अध्यक्षीय आसंदी से संबोधित करते हुए जबलपुर में अपने ननिहाल होने की जानकारी दी तथा अपेक्षा की कि उस परिवार में से कोई सदस्य हों तो उनसे मिले। 


     साप्ताहिक हिंदुस्तान के होली विशेषांक में उनका एक साक्षात्कार छपा। प्रसिद्ध पत्रकार पी. डी. टंडन से चर्चा करते हुए उन्होंने पुनः परिवार की बिखरी शाखा से मिलने-जुड़ने की कामना व्यक्त की। कहते हैं 'जहाँ चाह, वहाँ राह' उनकी यह चाह किसी निज हित के कारण नहीं स्नेह संबंध की उस टूटी कड़ी से जोड़ने की थी जिसे उनकी माताश्री प्रयास करने पर भी नहीं जोड़ सकीं थीं। शायद वे अपनी माँ की अधूरी इच्छा को पूरा करना चाह रही थीं। नियति को उनकी चाह के आगे झुकना पड़ा। 

     रहीम ने कहा है-
'रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।'

    महादेवी जी की जिजीविषा ने टूटे धागे को जोड़ ही दिया। अपने सामान्य कार्यक्रम के निर्धारित भ्रमण से लौटने पर मैंने उनके ये दोनों वक्तव्य मैंने पढ़े, तब तक वे वापिस जा चिकी थीं । मैं आजीविका से अभियंता तथा शासकीय सेवा में होने पर भी उन दिनों रात्रिकालीन कक्षाओं में पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहा था। महादेवी जी द्वारा बताया विवरण परिवार से मेल खाता था। उत्सुकतावश मैंने परिवार के बुजुर्गों से चर्चा की। उन दिनों का अनुशासन... कहीं डांट पड़ी, कहीं से अधूरी जानकारी... अधिकांश अनभिज्ञ थे। 


     कुछ निराशा के बाद मैंने अपने परिवार का वंश-वृक्ष (शजरा) बनाया, इसमें महादेवी जी या उनके माता-पिता का नाम कहीं नहीं था। ऐसा लगा कि यह परिवार वह नहीं है जिसे महीयसी खोज रही हैं। अन्दर का पत्रकार कुलबुलाता रहा... खोजबीन जारी रही... एक दिन जितनी जानकारी मिली थी वह महीयसी से भेजते हुए निवेदन किया कि कुछ बड़े आपसे रिश्ता होने से स्वीकारते हैं पर नहीं जानते कि क्या नाता है? मुझे नहीं मालूम किस संबोधन से आपको पुकारूँ? आपके आव्हान पर जो जुटा सका भेज रहा हूँ।

     आप ही कुछ बता सकें तो बताइये। मैं आपकी रचनायें पढ़कर बड़ा हुआ हूँ। इस बहाने ही सही आपका आशीर्वाद पाने के सौभाग्य से धन्य हो सकूँगा।उन जैसी प्रख्यात और अति व्यस्त व्यक्तित्व किसी अजनबी के पत्र पर कोई प्रतिक्रिया दे इसकी मैंने आशा ही नहीं की थी किंतु लगभग एक सप्ताह बाद एक लिफाफे में प्रातः स्मरणीया महादेवी जी का ४ पृष्ठों का पत्र मिला। पत्र में मुझ पर आशीष बरसाते हुए उन्होंने लिखा था कि किसी समय कुछ विघ्न संतोषी संबंधियों द्वारा पनपाये गए संपत्ति विवाद में एक खानदान की दो शाखाओं में ऐसी टूटन हुई कि वर्तमान पीढ़ियाँ अपरिचित हो गयीं। पत्र के अंत में उन्होंने आशीष दिया कि धन का मोह मुझे कभी न व्यापे. मैं धन्य हुआ. 


     उनके पत्र से विदित हुआ कि उनके नाना स्व. खैरातीलाल जी मेरे परबाबा स्व. सुंदर लाल तहसीलदार के सगे छोटे भाई थे। पिताजी जिन चिन्जा बुआ की चर्चा करते थे उनका वास्तविक नाम हेमरानी देवी था और वे महादेवी जी की माता श्री थीं। हमारे कुल में काव्य साधन के प्रति लगाव हर पीढ़ी में रहा पर प्रतिभाएँ अवसर के अभाव में घर-आँगन तक सिमट कर रह गयीं। सुंदरलाल व खैरातीलाल दोनों भाई शिव भक्त थे। शिव भक्ति के स्तोत्र रचते-गाते। उनसे यह विरासत हेमरानी को मिली। बचपन में हेमरानी को भजन रचते-गाते देख-सुनकर महादेवी जी ने पहली कविता लिखी-

माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
ठंडे पानी से नहलातीं।
गीला चंदन उन्हें लगतीं।
उनका भोग हमें दे जातीं।
फिर भी कभी नहीं बोले हैं।
माँ के ठाकुर जी भोले हैं...

     माँ से शिव-पार्वती, नर्मदा, सीता-राम, राधा- कृष्ण के भजन-आरती, तथा पर्वों पर बुन्देली गीत सुनकर बचपन से ही महादेवी जी को काव्य तथा हिन्दी के प्रति लगाव के संस्कार मिले। माँ की अपने मायके से बिछड़ने की पीड़ा अवचेतन में पोसे हुए महादेवी जी अंततः टूटी कड़ी से जुड़ सकीं। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का सुफल मुझे इस रूप में मिला कि मैं उनके असीम स्नेह का भाजन बना।
जो महान उसमें पले, अपनेपन की चाह।
क्षुद्र मनस जलता रहे, मन में रखकर डाह। 

बिंदु सिंधु से जा मिला:

कबीर ने लिखा है:
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
जो बौरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ। 

     पूज्या बुआश्री से मिलने की उत्कंठा मुझे इलाहाबाद ले गयी। आवास पर पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि वे किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता हेतु बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी गयी हैं ।इलाहबाद में अन्य किसी से घनिष्ठता थी नहीं सो निराश लौटने को हुआ कि एक कार को द्वार पर रुकते देख ठिठक गया। पलटकर देखा एक तरुणी वृद्धा को सहारा देकर कार से उतारने का जतन कर रही है। 

    मैं तत्क्षण कार के निकट पहुँचा तब तक वृद्धा जमीन पर पैर रखते हुए हाथ सहारे के लिए बढ़ा रहीं थीं। पहले कभी न देखने पर भी मन ने कहा हो न हो यही बुआ श्री हैं। मैंने चरण स्पर्शकर उन्हें सहारा दिया। एक अजनबी युवा को निकट देख तरुणी संकुचाई, 'खुश रहो' कहते हुए बुआजी ने हाथ थामकर दृष्टि उठाई और पहचानने का यत्न करने लगीं कि कौन है? 


     तब तक घर के भीतर से एक महिला और पुरुष आ गये थे। लम्बी यात्रासे लौटी श्रांत-क्लांत महीयसी को थामे अजनबी को देख कर उनके मन की उलझन स्वाभाविक थी। मैं परिचय दूँ इसके पहले ही वे बोलीं 'चलो, अंदर चलो', मैंने कहा-'बुआजी! मैं संजीव' नाम सुनते ही उनके चेहरे पर जिस चमक, हर्ष और उल्लास की झलक देखी वह अविस्मरणीय है। उन्होंने भुजाओं में भरते हुए मस्तक चूमा। पूछा- 'कब आया?' 

     सब विस्मित कि यह कौन अजनबी इतने निकट आने की धृष्टता कर बैठा और उसे हटाया भी नहीं जा रहा। बुआ जी मुस्कुराते हुए जैसे सबकी उलझन का आनंद ले रहीं हो, कुछ पल मौन रहकर बोलीं- 'ये संजीव है, मेरा भतीजा... जबलपुर से आया है।मैंने सबका अभिवादन किया। 

     उन्होंने सबका परिचय कराते हुए कहा 'ये मेरे बेटे की तरह रामजी, ये बहु, ये भतीजी आरती...चल घर ले चल' मैं उन्हें थामे हुए घर में अंदर ले आया।  कमरे में एक तख्त पर उजली सफ़ेद चादर बिछी थी, सिरहाने की ओर भगवान श्री कृष्ण की सुन्दर श्वेत बाल रूप की मूर्ति थी। बुआ जी बैठ गयीं। मुझे अपनी बगल में बैठा लिया, ऐसा लगा किसी तपस्विनी की शीतल वात्सल्यमयी छाया में हूँ। 


     तभी स्नेह सिक्त वाणी सुनी- 'बेटा! थक गया होगा, कुछ खा-पीकर आराम कर ले फिर तुझसे बहुत सी बातें करना है। सामान कहाँ है?' तब तक आरती पानी ले आयी थी। मैंने पानी पिया, बताया चाय नहीं पीता, सुनकर कुछ विस्मित और प्रसन्न हुईं, मेरे मना करने पर भी दूध पिलवाकर ही मानीं। मुझे चेत हुआ कि वे स्वयं सुदूर यात्रा कर थकी लौटी हैं। उन्होंने आरती को स्नान आदि की व्यवस्था करने को कहा तो मैंने बताया कि मैं निवृत्त हो चुका हूँ। मैं धीरे से तखत के समीप बैठकर उनके पैर दबाने लगा... उन्होंने मना किया पर मैंने मना लिया कि वे थकी हैं कुछ आराम मिलेगा। 

     बुआ जी अपनी उत्कंठा को अधिक देर तक दबा नहीं सकीं। पूछा: कौन-कौन हैं घर-परिवार में? मैंने धीरे-धीरे सब जानकारी दी। मेरे मँझले ताऊ जी स्व. ज्वालाप्रसाद वर्मा ने स्व. द्वारकाप्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्द दास और व्यौहार राजेंद्र सिंह के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका निभायी, नानाजी रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा 'रईस', मैनपुरी ने ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का पद व खिताब ठुकराकर बापू के आव्हान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर नेहरु जी के साथ त्रिपुरी कांग्रेस में भाग लिया और तभी इन दोनों की भेंट से मेरे पिताजी और माताजी का विवाह हुआ- यह सुनकर वे हँसी और बोलीं 'यह तो कहानी की तरह रोचक है।' उनका वह निर्मल हास्य अभी तक कानों में गूंजता है


     मेरे एक फूफा जी १९३९ में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री थे तथा कैप्टेन मुंजे व डॉ. हेडगेवार के साथ राम सेना व शिव सेना नामक सशस्त्र संगठनों के माध्यम से दंगों में अपहृत हिन्दू युवतियों को मुक्त कराकर उनकी शुद्धि तथा पुनर्विवाह द्वारा सामाजिक स्वीकृति कराते थे । यह जानकर वे बोलीं- 'रास्ता कोई भी हो, भारत माता की सेवा ही असली बात है।' बुआ श्री ने १८५७ के स्वातंत्र्य समर में अपने पूर्वजों के योगदान और संघर्ष की चर्चा की। आरती ने उनसे स्नानकर भोजन करने का अनुरोध किया तो बोलीं- 'संजीव की थाली लगाकर यहीं ले आ, इसे अपने सामने ही खिलाऊँगी। बाद में नहा लूँगी।'

     मैंने निवेदन किया कि वे स्नान कर लें तब साथ ही खा लेंगे तो बोलीं 'जब तक तुझे खिला न लूँ, पूजा में मन न लगेगा, चिंता रहेगी कि तूने कुछ नहीं खाया।' ऐसी दिव्य भावना उनके स्नेहपूर्ण आदेश का सम्मान करते हुए मैं भोजन हेतु प्रस्तुत हो गया । उन्होंने अपने मुझे सामने ही बैठाया। एक रोटी तोड़-तोड़कर अपने हाथों से खिलायी। भोजन के मध्य आरती से कह-कहकर सामग्री मंगाती रहीं।
    
      मेरा मन उनके स्नेह-सागर में अवगाहन कर तृप्त हो गया। उनके हाथों से घी लगी एक-एक रोटी अमृत जैसा स्वाद दे रही थी। फुल्के, दाल, सब्जी, अचार, पापड़ जैसी सामान्यतः नित्य मिलनेवाली भोजन सामग्री में उस दिन जैसी मिठास फिर कभी नहीं मिली। पेट भर जाने पर भी आग्रह कर-कर के २ रोटी और खिलाईं, फिर मिठाई... बीच में लगातार बातें...फिर बोलीं- 'अब तुम आराम करो, हम नहाकर पूजा करेंगी।' 


     लगभग आधे घंटे में स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर आयीं तो उनके तखत पर विराजते ही मैं फिर समीप बैठ गया। उनके पैर दबाते-दबाते कितनी ही बातें हुईं...काश तब आज जैसे यंत्र होते तो वह सब अंकित कर लिया जा सकता। परिवार के बाद अब वे मेरे बारे में पूछ रहीं थीं...क्या-क्या पढ़ लिया?, क्या कर रहा हूँ?, किन विधाओं में लिखता हूँ?, कौन-कौन से कवि-लेखक तथा पुस्तकें पसंद हैं?, घर में किसकी क्या रूचि है?, उनकी कौन-कौन सी कृतियाँ मैंने पढ़ीं हैं? कौन सी सबसे ज्यादा पसंद है? यामा देखी या नहीं?, कौनसा चित्र अधिक अच्छा लगा? प्रश्न ही प्रश्न... जैसे सब कुछ जान लेना चाहती हों, वह सब जो समय-चक्र ने इतने सालों तक नहीं जानने दिया। 

     मैं अनुभव कर सका कि उनके मन में कितना ममत्व है, अदेखे-अनजाने नातों के लिए। शायद मानव और महामानव के बीच की यही सीमा रेखा होती है कि महामानव सब पर स्नेह अमृत बरसाते हैं जबकि मानव अपनों को खोजकर स्नेहवर्षण करता है । मेरे बहुत आग्रह पर वे आराम करने को तैयार हुईं... 'तू क्या करेगा?,ऊब तो नहीं जायेगा?' आश्वस्त किया कि मैं भैया (डॉ.पाण्डेय) - भाभी से गप्प कर रहा हूँ, आप विश्राम कर लें। 

     कुछ देर बाद उठीं तो फिर बातचीत का सिलसिला चला। मुझसे पूछा- 'तू अपना उपनाम 'सलिल' क्यों लिखता है?' मैंने कभी गहराई से सोचा ही न था, क्या बताता? मौन देखकर बोलीं- 'सलिल माने पानी... पानी ज़िंदगी के लिए जरूरी है...पर गंगा में हो या नाले में दोनों ही सलिल होते हैं। बहता पानी निर्मला... सो तो ठीक है पर... सलिल ही क्यों?, सलिलेश क्यों नहीं?' उनका आशय था कि नाम सबसे अच्छा हो तो काम भी अच्छा करने की प्रवृत्ति होगी। वे स्वयं नाम से ही नहीं वास्तव में भी महादेवी ही थीं। कुछ वर्ष पूर्व ही मैंने दिनकर जी का एक निबंध 'नेता नहीं नागरिक चाहिए' पाठ्य पुस्तक विचार और अनुभूति में पढ़ा था । इससे प्रभावित किशोर मन में वैशिष्ट्य के स्थान पर सामान्यता की चाह उपजी थी

           बातचीत के बीच-बीच में वे आरती की प्रशंसा करतीं तो वह संकुचा जाती। मैं भी सुबह से देख रहा था कि वह कितनी ममता से बुआश्री की सेवा में जुटी थी। बुआजी डॉ. पाण्डेय व भाभी जी की भी बार-बार प्रशंसा करती रहीं। कुछ देर बाद कहा- 'तू क्या पूछना चाहता है पूछ न ? सुबह से मैं ही बोल रही हूँ। अब तू पूछ...जो मन चाहे...मैं तेरी माँ जैसी हूँ... माँ से कोई संकोच करता है? पूछ...' उन्होंने न जाने कैसे अनुमान लगाया कि मेरे मन में कुछ जिज्ञासाएँ हैं। 

     पत्रकारिता में पढ़ते समय वरिष्ठ पत्रकार स्व. कालिकाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर' विभागाध्यक्ष थे। उनकी धारणा थी कि महादेवी जी ने निराला जी का अर्थ शोषण किया, मैं असहमति व्यक्त करता तो कहते 'तुम क्या जानो?' आज अवसर था लेकिन पूछूँ तो कैसे? उनके मन को चोट न लगे और शंका का समाधान भी हो, अंततः बुआ जी के प्रोत्साहित करने पर मैंने कहा- 'निराला जी के बारे में कुछ बताइए।?'
             'वे महाप्राण थे विषपायी...बुआजी के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आये, ऐसा लगा कि उनकी रूचि का प्रसंग है...कुछ क्षण आँखें मूँद कर जैसे उन पलों को जी रहीं हों जब निराला साथ थे। फिर बोलीं क्या कहूँ?...कितना कहूँ? ऐसा आदमी न पहले कभी हुआ... न आगे होगा... वो मानव नहीं महामानव थे...विषपायी थे। उनके बाद मेरी राखी सूनी हो गयी... आँखों में आसूं छलक आये... उस एक ही पल में मैं समझ गया था कि कुसुमाकर जी की धारणा निराधार थी। 

'निराला जी आम लोगों की तरह दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रखते थे। प्रकाशक उनकी किताबें छापकर अमीर हो गये पर वे फकीर ही रह गये। एक बार हम लोगों ने बहुत कठिनाई से दुलारेलाल भार्गव से उन्हें रोयल्टी की राशि दिलवाई, वे मेरे पास छोड़कर जाने लगे मुश्किल से अपने साथ ले जाने को तैयार हुए, मैं खुश थी कि अब वे हमेशा रहनेवाले आर्थिक संकट से कुछ दिनों तक मुक्त रहेंगे।'

     कुछ दिनों बाद आये तो बोले कुछ रुपये चाहिए। मुझे अचरज हुआ कि इतने रुपये कहाँ गए? पूछा तो बोले: 'उस दिन तुम्हारे पास से गया तो भूख से परेशान एक बुढ़िया को भीख माँगते देखा। जेब से एक नोट निकलकर उसके हाथ पर रखकर पूछा कि अब तो भीख नहीं मांगेगी। बुढिया बोली जब तक इनसे काम चलेगा नहीं मांगूगी। निराला जी ने एक गड्डी निकल कर उसके हाथों में रखकर पूछ अब कब तक भीख नहीं मांगेगी? बुढिया बोली 'बहुत दिनों तक।' निराला जी ने सब गड्डियाँ भिखारिन की झोली में डालकर पूछा- 'अब?' 'कभी नहीं' बुढिया बोली। निराला जी खाली हाथ घर चले गए।
       जब खाने को कुछ न बचा तथा बनिए ने उधार देने से मना कर दिया तो मेरे पास आ गए थे। ऐसे थे भैया। कुछ देर रुकीं...शायद कुछ याद कर रहीं थी...फिर बोलीं एक बार कश्मीर में मेरा सम्मान कर पश्मीना की शाल उढ़ायी गयी। मेरे लौटने की खबर पाकर भैया मिलने आये। ठण्ड के दिनों में भी उघारे बदन, मैंने सब हाल बताया तथा शाल उन्हें उढ़ा दी कि अब ठण्ड से बचे रहेंगे। कुछ दिन बाद ठण्ड से काँपते हुए आये। मैंने पूछा शाल कहाँ है? पहले तो सर झुकाये चुप बैठे रहे। दोबारा पूछने पर बताया कि रास्ते में ठण्ड से पीड़ित किसी भिखारी को कांपते देख उसे उढा दी। बोल, देखा है कोई दूसरा ऐसा अवढरदानी ?' मेरी वाणी अवाक् मौन थी और कान ऐसे दुलभ अन्य प्रसंग सुनने के लिये व्याकुल। 

     चर्चा...और चर्चा, प्रसंग पर प्रसंग... निराला और नेहरु, निराला और पन्त, निराला और इलाचंद्र जोशी,, निराला और राजेंद्र प्रसाद, निराला और हिंदी, निराला और रामकृष्ण, निराला और आकाशवाणी, आदि...कभी कंठ रुद्ध हो जाता... कभी आँखें भर आतीं...कभी सर गर्व से उठ जाता... निराला और राखी की चर्चा करते हुए बताया कि निराला और इलाचंद्र जोशी में होड़ होती कि कौन पहले राखी बंधवाये ? निराला राखी बाँधने के पहले रूपये मांगते फिर राखी बंधने पर वही दे देते क्योंकि उनके पास कुछ होता ही नहीं था और खाली हाथ राखी बंधवाना उन्हें गवारा नहीं होता था। 

स्मृतियों के महासागर में डूबती-तिरती बुआश्री का अगला पड़ाव था दद्दा और जिया... चिरगांव की राखी। दद्दा का संसद में कवितामय बजट भाषण... हिंदी संबंधी आंदोलन... फिर प्रसाद और कामायनी की चर्चा। फिर दिनकर... फिर नंददुलारे वाजपेई... हजारीप्रसाद द्विवेदी... नवीन... सुमन... जवाहरलाल नेहरु... इंदिरा जी, द्वारकाप्रसाद मिश्र... पत्रकार पी. डी. टंडन अनेक नाम... अनेक प्रसंग... अनंत कोष स्मृतियों का।
        मैंने प्रसंग परिवर्तन के लिए कहा- 'कुछ अपने बारे में बताइए। 'क्या बताऊँ? अपने बारे में क्या कहूं? मैं तो अधूरी रह गयी हूँ उसके बिना...'

मैं अवाक् था। किसकी कथा सुनने को मिलेगी? ...कौन है वह महाभाग?

'वह तो थी ही विद्रोहिणी... बचपन से ही... निर्भीक, निस्संकोच, वात्सल्यमयी, सेवाभावी, रूढ़िभंजक... फिर प्रारंभ हुआ सुभद्रा पुराण... स्कूल में भेंट... दोनों का कविता लिखना, चूड़ी बदलना... लक्ष्मणप्रसाद जी से भेंट... दोनों का विवाह... पर्दा प्रथा को तोड़ना... दुधमुंहे बच्चों को छोड़कर सत्याग्रह में भाग लेना-जेल यात्रा... फिर सुभद्रा जी के विधायक बनने में सेठ गोविंददास द्वारा बाधा... सरदार पटेल द्वारा समर्थन... गाँधी जी के अस्थि विसर्जन में सुभद्रा जी द्वारा झुग्गीवासियों को लेकर जाना...अंत में मोटर दुर्घटना में निधन... की चर्चा कर रो पड़ीं...खुद को सम्हाला...आंसू पोंछे...पानी पिया...प्रकृतिस्थ हुईं...
     'थक गया न ? जा आराम कर।'

     'नहीं बुआजी! बहुत अच्छा लग रहा है...ऐसा अवसर फिर न जाने कब मिले?...तो क्या सुनना है अब?...इतनी कथा तो पंडित दक्षिणा लेकर भी नहीं कहता'...
'बुआ जी आपके कृष्ण जी!'...;

     ' मेरे नहीं... कृष्ण तो सबके हैं जो उन्हें जिस भाव से भज ले...उन्हें वही स्वीकार। तू न जानता होगा...एक बार पं. द्वारकाप्रसाद और मोरारजी देसाई में प्रतिद्वंदिता हो गयी कि बड़ा कृष्ण-भक्त कौन है? पूरा प्रसंग सुनाया फिर बोलीं- भगवन! ऐसा भ्रम कभी न दे।' 

      अब भी मुझे आगे सुनने के लिए उत्सुक पाया तो बोलीं तू अभी तक नहीं थका?...पी. डी. टन्डन का नाम सुना है? एक बार साक्षात्कार लेने आया तो बोला आज बहुत खतरनाक सवाल पूछने आया हूँ। मैनें कहा- 'पूछो' तो बोला अपनी शादी के बारे में बताइये। मैनें कहा- 'बाप रे, यह तो आज तक किसी ने नहीं पूछा। क्या करेगा जानकर?'
     'बुआ जी बताइए न, मैं भी जानना चाहता हूँ।' -मेरे मुँह से निकला

'तू भी कम शैतान नहीं है...चल सुन...फिर अपने बचपन...बाल विवाह...गाँधी जी व् बौद्ध धर्म के प्रभाव, दीक्षा के अनुभव, मोह भंग, प्रभावतीजी से मित्रता, जे. पी. के संस्मरण... अपने बाल विवाह के पति से भेंट... गृहस्थ जीवन के लिए आमंत्रण, बापू को दिया वचन गार्हस्थ से विराग आदि प्रसंग उन्होंने पूरी निस्संगता से सुनाये। 

     उनके निकट लगभग ६ घंटे किसी चलचित्र की भांति कब कटे पता ही न चला...मुझे घड़ी देखते पाया तो बोलीं- 'तू जायेगा ही? रुक नहीं सकता? तेरे साथ एक पूरा युग फिर से जी लिया मैंने।'
     सबेरे वे अपनी नाराजगी जता चुकी थीं कि इतने कम समय में क्यों जा रहा हूँ?, रुकता क्यों नहीं? पर इस समय शांत थीं...उनका वह वात्सल्य...वह स्पर्श...वह स्नेह...अब तक रोमांचित कर देता है...बाद में ३-४ बार और बुआ जी का शुभाशीष पाया। 

     कभी ईश्वर मिले और वर माँगने को कहे तो मैं बुआ जी के साथ के वही पल फिर से जीना चाहूँगा। 
                                               चित्र : आभार गूगल.
*************************

Acharya Sanjiv Salil

रविवार, 12 सितंबर 2010

स्मरण : नागार्जुन" उर्फ "यात्री - विवेक रंजन श्रीवास्तव

स्मरण : 

विविधता , नूतनता व परिवर्तनशीलता के धनी रचनाकार :  
                       ठक्कन मिसर ..... वैद्यनाथ मिश्र..... "नागार्जुन" उर्फ "यात्री".

- विवेक रंजन श्रीवास्तव                                                                            

                "जब भी बीमार पडूँ तो किसी नगर के लिए टिकिट लेकर ट्रेन में बैठा देना, स्वस्थ हो जाऊँगा। "... अपने बेटे शोभाकांत से हँसते हुये ऐसा कहनेवाले विचारक, घुमंतू जन कवि, उपन्यासकार, व्यंगकार, बौद्ध दर्शन से प्रभावित रचनाकार, "यात्री" नाम से लिखे यह   स्वाभाविक ही है .यह साल बाबा का जन्म शताब्दी वर्ष है . हिंदी के यशस्वी कवि बाबा नागार्जुन का जीवन सामान्य नहीं था। उसमें आदि से अंत तक कोई स्थाई संस्कार जम ही नहीं पाया। 
                                                                                                          
                अपने बचपन में वे ठक्कन मिसर थे पर जल्दी ही अपने उस चोले को ध्वस्त कर वे वैद्यनाथ मिश्र हुए, और फिर बाबा नागार्जुन...मातृविहीन तीन वर्षीय बालक पिता के साथ नाते-रिश्तेदारों के यहाँ जगह-जगह जाता-आता था, यही प्रवृति, यही यायावरी उनका स्वभाव बन गया जो जीवन पर्यंत जारी रहा .राहुल सांस्कृत्यायन उनके आदर्श थे। उनकी दृष्टि में जैसे इंफ्रारेड...अल्ट्रा वायलेट कैमरा छिपा था , जो न केवल जो कुछ आँखों से दिखता है उसे वरन् जो कुछ अप्रगट , अप्रत्यक्ष होता , उसे भी भाँपकर मन के पटल पर अंकित कर लेता .. उनके ये ही सारे अनुभव समय-समय पर उनकी रचनाओ में नये नये शब्द चित्र बनकर प्रगट होते रहे  जो आज साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं.
                                                                       
              "हम तो आज तक इन्हें समझ नहीं पाए!" उनकी पत्नी अपराजिता देवी की यह टिप्पणी बाबा के व्यक्तित्व की विविधता, नित नूतनता व परिवर्तनशीलता को इंगित करती है. उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी दिखाने के बाद समाप्त हो गये पर "नागार्जुन" की कविता इनमें से किसी फ्रेम में बंध कर नहीं रही, उनके काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने काव्य-सरोकार ‘जनसामान्य’ से ग्रहण करते रहे , और जनभावों को ही अपनी रचनाओ में व्यक्त करते रहे. उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया बल्कि अपने काव्य के लिये स्वयं की नयी लीक का निर्माण किया. तरौनी दरभंगा-मधुबनी जिले के गनौली-पटना-कलकत्ता-इलाहाबाद-बनारस-जयपुर-विदिशा-दिल्ली-जहरीखाल, दक्षिण भारत और श्रीलंका न जाने कहाँ-कहाँ की यात्राएँ करते रहे, जनांदोलनों में भाग लेते रहे और जेल भी गए. सच्चे अर्थो में उन्होने घाट-घाट का पानी पिया था. आर्य समाज, बौद्ध दर्शन  व मार्क्सवाद से वे प्रभावित थे. मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान उनके अध्ययन , व अभिव्यक्ति को इंद्रधनुषी रंग देता है  किंतु उनकी रचनाधर्मिता का मूल भाव सदैव स्थिर रहा , वे जन आकांक्षा को अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार थे .उन्होंने हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है.

                 उनकी वर्ष १९३९ में प्रकाशित आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष १९९८ में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से बुनियादी तौर पर समान है. उनकी विचारधारा नितांत रूप से भारतीय जनाकांक्षा से जुड़ी हुई रही. आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने पर, यदि उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके रचनाकाल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है. दोनों कविताओं के अंश इस तरह हैं

१९३९  में प्रकाशित‘उनको प्रणाम’......

...जो नहीं हो सके पूर्ण-काम                                                                                               

मैं उनको करता हूँ प्रणाम

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय 

पर विज्ञापन से रहे दूर,

प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके 

कर दिए मनोरथ चूर-चूर! 

- उनको प्रणाम...

*

१९९८  में ‘अपने खेत में’......

.....अपने खेत में हल चला रहा हूँ

इन दिनों बुआई चल रही है

इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही 

मेरे लिए बीज जुटाती हैं

हाँ, बीज में घुन लगा हो 

तो अंकुर कैसे निकलेंगे?

जाहिर है बाजारू बीजों की 

निर्मम छँटाई करूँगा

खाद और उर्वरक और 

सिंचाई के साधनों में भी

पहले से जियादा ही 

चौकसी बरतनी है

मकबूल फिदा हुसैन की 

चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक

हमारी खेती को 

चौपट कर देगी!

जी, आप अपने रूमाल में 

गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!

उनकी विख्यात कविता "प्रतिबद्ध" की पंक्तियाँ:

प्रतिबद्ध हूँ,

संबद्ध हूँ,

आबद्ध हूँ...

जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ.

तुमसे क्या झगड़ा है

हमने तो रगड़ा है

इनको भी, उनको भी, 

उनको भी, इनको भी!

उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति है .

                अपनी कई प्रसिद्ध कविताओं जैसे कि 'इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको','अब तो बंद करो हे देवी!,  यह चुनाव का प्रहसन' और 'तीन दिन, तीन रात'  आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओं पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है .

‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘ की ये पंक्तियाँ देखिए.............

यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो

एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो

बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो

जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!                                                                           
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,

                व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं….. कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ. नागार्जुन का काव्य व्यंग्य शब्द-चित्रों का विशाल अलबम है. देखिये झलकियाँ:

                  कभी किसी जीर्ण-शीर्ण स्कूल भवन को देखकर बाबा ने व्यंग्य किया था, "फटी भीत है छत चूती है…" उनका यह व्यंग क्या आज भी देश भर के ढेरों गाँवों का सच नहीं है ? अपने गद्य लेखन में भी उन्होंने समाज की सचाई को सरल शब्दों में सहजता से स्वीकारा, संजोया और आम आदमी के हित में समाज को आइना दिखाया है.                                  .....पारो से.

                 “क्यों अपने देश की क्वाँरी लड़कियाँ तेरहवाँ-चौदहवाँ चढ़ते-चढ़ते सूझ-बूझ में बुढ़ियों का कान काटने लगती हैं। बाप का लटका चेहरा, भाई की सुन्न आँखें उनके होश ठिकाने लगाये रखती है। अच्छा या बुरा, जिस किसी के पाले पड़ी कि निश्चिन्त हुईं। क्वारियों के लिए शादी एक तरह की वैतरणी है। डर केवल इसी किनारे है, प्राण की रक्षा उस पार जाने से ही सम्भव। वही तो, पारो अब भुतही नदी को पार चुकी है। ठीक ही तो कहा अपर्णा ने। मैं क्या औरत हूँ? समय पर शादी की चिन्ता तो औरतों के लिए न की जाए, पुरुष के लिए क्या? उसके लिए तो शादी न हुई होली और दीपावली हो गई। 
                                                                                                ..... दुख मोचन से.
                 पंचायत गाँव की गुटबंदी को तोड़ नही सकी थी,  अब तक. चौधरी टाइप के लोग स्वार्थसाधन की अपनी पुरानी लत छोड़ने को तैयार नही थे. जात-पांत, खानदानी घमंड, दौलत की धौंस, अशिक्षा का अंधकार, लाठी की अकड़, नफरत का नशा, रुढ़ि-परंपरा का बोझ, जनता की सामूहिक उन्नति के मार्ग में एक नही अनेक रुकावटें थीं. आज भी कमोबेश हमारे गाँवों की यही स्थिति नही है क्या ?

                  समग्र स्वरूप में ठक्कन मिसर ..... वैद्यनाथ मिश्र..... "नागार्जुन" उर्फ "यात्री" ....विविधता, नित नूतनता एवं परिवर्तनशीलता के धनी...पर जनभाव के सरल रचनाकार थे. उनकी जन्म शती पर उन्हें शतशः प्रणाम, श्रद्धांजली और यही कामना कि बाबा ने उनकी रचनाओ के माध्यम से हमें जो आइना दिखाया है, हमारा समाज, हमारी सरकारें उसे देखे और अपने चेहरे पर लगी कालिख को पोंछकर स्वच्छ छबि धारण करे , जिससे भले ही आनेवाले समय में नागार्जुन की रचनायें भले ही अप्रासंगिक हो जावें पर उनके लेखन का उद्देश्य तो पूरा हो सके . 
                                                                                               -- vivek1959@yahoo.co.इन, चलभाष:  ९४२५४८४४५२
                                                                       **********