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बुधवार, 8 अगस्त 2012

चित्र पर कविता: 4 - एस. एन. शर्मा 'कमल' , संजीव 'सलिल'

चित्र पर कविता: 4 

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ चित्र में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं. 

चित्र और कविता की प्रथम कड़ी में शेर-शेरनी संवाद, कड़ी २ में,
कड़ी ३ में दिल -दौलत,  तराजू  पर आपकी कलम के जौहर देखने के बाद सबके समक्ष प्रस्तुत है  कड़ी 4  का चित्र. 

इस प्राकृतिक छटा में डूबकर अपने मनोभावों को शब्दों के पंख लगाइए और रचना-पाखी को हम तक पहुंचाइये: 




- एस. एन. शर्मा 'कमल'

चित्र का  भाव और सन्देश  / तृप्त होते नयनों से देख 
 कल्पना में उभरे जो बिम्ब / उसी का प्रस्तुत रचना-वेष

*

      प्रकृति का यह अदभुत सौन्दर्य
     निरख कर लोचन हैं  स्तब्ध
     ताकते विस्मय से यह दृश्य
     हो रही गिरा मूक  निःशब्द
            *
     कि दिनकर के पड़ते प्रतिबिम्ब
     हुई स्फटिक शिला द्युतिमान
     खुले वातायन विटपों बीच
     कर रहे  हरित-द्वीप द्युतिवान
               *
     भरे अंतस में रति का ज्वार
     अघाती नहीं लहर सुकुमार
     पसरती तट पर बारम्बार
     करे सिकता-कण से अभिसार
            *
      प्रकृति का मदिर मनोहर रूप
      बना यह छाया-चित्र अनूप 
      सलिल पर नर्तन करती धूप 
      विधाता की यह कला अचूक
               *
      द्वीप का नैसर्गिक सिंगार
      हरीतिमा का नव वन्य-विहार
      शस्य श्यामल भू का विस्तार
      अलौकिक छवि का पारावार
              *
       सलिल का ऐसा रूप-निखार
       चित्र गतिमान हुआ साकार
       कला का यह अनुपम उपहार
       दे गया मन को तोष  अपार
               *
       रम्य-दृश्यावलि के इस पार
       मुग्ध कवि ऐसी छटा निहार
       प्रकृति में प्राणों का संचार
       नयन से घट में रहा उतार !
       
       **** 

संजीव 'सलिल'





शिशु सूरज की अविकल किरणें
बरस रही हैं जल-थल पर.
सुरपति-धनपति को बेकल कर-
सकल सृष्टि स्वर्णाभित कर..

वृक्षों की डालों में छिपकर
आँखमिचौली रवि खेले.
छिपा नीर में बिम्ब दूसरा,
मन हो बाँहों में ले-लें..

हाथ लगे सूरज हट जाये,
चेहरा अपना आये नजर.
नीर कहे: 'निर्मल रहने दे
मुझ बिन तेरी नहीं गुजर.'

दूब कहे: 'मैं नन्हीं, लेकिन,
माटी मैया की रक्षक.
डूब बाढ़ में मौन बचाती,
खोद रहा मानव भक्षक.

शाखाएँ हिल-मिलकर रहतीं,
झगड़ा कभी न कोई करे.
हक न एक का दूजा छीने,
यह न डराए, वह न डरे..

ताली बजा-बजाकर पत्ते,
करें पवन का अभिनन्दन.
स्वागत करते हर मौसम का-
आओ घूमो नंदन वन..

जंगल में हम देख न पाते,
जंगलीपन है शहरों में.
सुने न प्रकृति का क्रंदन
मानव की गिनती बहरों में..

प्रकृति पुत्र पोषण-सुख भूले,
शोषण कर दुःख पाल रहे.
जला रहे सुख, चैन, अमन को
दिया न स्नेहिल बाल रहे..

बिम्ब और प्रतिबिम्ब गले मिल,
कहते दूरी दूर करो.
लहर-लहर सम सँग रहो सब,
मत घमंड में चूर रहो..

तने रहें गर तने सरीखे,
पत्ते-डाल थाम दें छाँव.
वहम अहं का पाल लड़े तो-
उजड़ जायेंगे पल में गाँव..

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