चित्र पर कविता: 4
इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ चित्र में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं.
चित्र और कविता की प्रथम कड़ी में शेर-शेरनी संवाद, कड़ी २ में, कड़ी ३ में दिल -दौलत, तराजू पर आपकी कलम के जौहर देखने के बाद सबके समक्ष प्रस्तुत है कड़ी 4 का चित्र.
इस प्राकृतिक छटा में डूबकर अपने मनोभावों को शब्दों के पंख लगाइए और रचना-पाखी को हम तक पहुंचाइये:

****
संजीव 'सलिल'

शिशु सूरज की अविकल किरणें
बरस रही हैं जल-थल पर.
सुरपति-धनपति को बेकल कर-
सकल सृष्टि स्वर्णाभित कर..
वृक्षों की डालों में छिपकर
आँखमिचौली रवि खेले.
छिपा नीर में बिम्ब दूसरा,
मन हो बाँहों में ले-लें..
हाथ लगे सूरज हट जाये,
चेहरा अपना आये नजर.
नीर कहे: 'निर्मल रहने दे
मुझ बिन तेरी नहीं गुजर.'
दूब कहे: 'मैं नन्हीं, लेकिन,
माटी मैया की रक्षक.
डूब बाढ़ में मौन बचाती,
खोद रहा मानव भक्षक.
शाखाएँ हिल-मिलकर रहतीं,
झगड़ा कभी न कोई करे.
हक न एक का दूजा छीने,
यह न डराए, वह न डरे..
ताली बजा-बजाकर पत्ते,
करें पवन का अभिनन्दन.
स्वागत करते हर मौसम का-
आओ घूमो नंदन वन..
जंगल में हम देख न पाते,
जंगलीपन है शहरों में.
सुने न प्रकृति का क्रंदन
मानव की गिनती बहरों में..
प्रकृति पुत्र पोषण-सुख भूले,
शोषण कर दुःख पाल रहे.
जला रहे सुख, चैन, अमन को
दिया न स्नेहिल बाल रहे..
बिम्ब और प्रतिबिम्ब गले मिल,
कहते दूरी दूर करो.
लहर-लहर सम सँग रहो सब,
मत घमंड में चूर रहो..
तने रहें गर तने सरीखे,
पत्ते-डाल थाम दें छाँव.
वहम अहं का पाल लड़े तो-
उजड़ जायेंगे पल में गाँव..
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चित्र और कविता की प्रथम कड़ी में शेर-शेरनी संवाद, कड़ी २ में, कड़ी ३ में दिल -दौलत, तराजू पर आपकी कलम के जौहर देखने के बाद सबके समक्ष प्रस्तुत है कड़ी 4 का चित्र.
इस प्राकृतिक छटा में डूबकर अपने मनोभावों को शब्दों के पंख लगाइए और रचना-पाखी को हम तक पहुंचाइये:
- एस. एन. शर्मा 'कमल'
चित्र का भाव और सन्देश / तृप्त होते नयनों से देख
कल्पना में उभरे जो बिम्ब / उसी का प्रस्तुत रचना-वेष
कल्पना में उभरे जो बिम्ब / उसी का प्रस्तुत रचना-वेष
*
प्रकृति का यह अदभुत सौन्दर्य
निरख कर लोचन हैं स्तब्ध
ताकते विस्मय से यह दृश्य
हो रही गिरा मूक निःशब्द
*
कि दिनकर के पड़ते प्रतिबिम्ब
हुई स्फटिक शिला द्युतिमान
खुले वातायन विटपों बीच
कर रहे हरित-द्वीप द्युतिवान
*
भरे अंतस में रति का ज्वार
अघाती नहीं लहर सुकुमार
पसरती तट पर बारम्बार
करे सिकता-कण से अभिसार
*
प्रकृति का मदिर मनोहर रूप
बना यह छाया-चित्र अनूप
सलिल पर नर्तन करती धूप
विधाता की यह कला अचूक
*
द्वीप का नैसर्गिक सिंगार
हरीतिमा का नव वन्य-विहार
शस्य श्यामल भू का विस्तार
अलौकिक छवि का पारावार
*
सलिल का ऐसा रूप-निखार
चित्र गतिमान हुआ साकार
कला का यह अनुपम उपहार
दे गया मन को तोष अपार
*
रम्य-दृश्यावलि के इस पार
मुग्ध कवि ऐसी छटा निहार
प्रकृति में प्राणों का संचार
नयन से घट में रहा उतार !
निरख कर लोचन हैं स्तब्ध
ताकते विस्मय से यह दृश्य
हो रही गिरा मूक निःशब्द
*
कि दिनकर के पड़ते प्रतिबिम्ब
हुई स्फटिक शिला द्युतिमान
खुले वातायन विटपों बीच
कर रहे हरित-द्वीप द्युतिवान
*
भरे अंतस में रति का ज्वार
अघाती नहीं लहर सुकुमार
पसरती तट पर बारम्बार
करे सिकता-कण से अभिसार
*
प्रकृति का मदिर मनोहर रूप
बना यह छाया-चित्र अनूप
सलिल पर नर्तन करती धूप
विधाता की यह कला अचूक
*
द्वीप का नैसर्गिक सिंगार
हरीतिमा का नव वन्य-विहार
शस्य श्यामल भू का विस्तार
अलौकिक छवि का पारावार
*
सलिल का ऐसा रूप-निखार
चित्र गतिमान हुआ साकार
कला का यह अनुपम उपहार
दे गया मन को तोष अपार
*
रम्य-दृश्यावलि के इस पार
मुग्ध कवि ऐसी छटा निहार
प्रकृति में प्राणों का संचार
नयन से घट में रहा उतार !
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संजीव 'सलिल'
शिशु सूरज की अविकल किरणें
बरस रही हैं जल-थल पर.
सुरपति-धनपति को बेकल कर-
सकल सृष्टि स्वर्णाभित कर..
वृक्षों की डालों में छिपकर
आँखमिचौली रवि खेले.
छिपा नीर में बिम्ब दूसरा,
मन हो बाँहों में ले-लें..
हाथ लगे सूरज हट जाये,
चेहरा अपना आये नजर.
नीर कहे: 'निर्मल रहने दे
मुझ बिन तेरी नहीं गुजर.'
दूब कहे: 'मैं नन्हीं, लेकिन,
माटी मैया की रक्षक.
डूब बाढ़ में मौन बचाती,
खोद रहा मानव भक्षक.
शाखाएँ हिल-मिलकर रहतीं,
झगड़ा कभी न कोई करे.
हक न एक का दूजा छीने,
यह न डराए, वह न डरे..
ताली बजा-बजाकर पत्ते,
करें पवन का अभिनन्दन.
स्वागत करते हर मौसम का-
आओ घूमो नंदन वन..
जंगल में हम देख न पाते,
जंगलीपन है शहरों में.
सुने न प्रकृति का क्रंदन
मानव की गिनती बहरों में..
प्रकृति पुत्र पोषण-सुख भूले,
शोषण कर दुःख पाल रहे.
जला रहे सुख, चैन, अमन को
दिया न स्नेहिल बाल रहे..
बिम्ब और प्रतिबिम्ब गले मिल,
कहते दूरी दूर करो.
लहर-लहर सम सँग रहो सब,
मत घमंड में चूर रहो..
तने रहें गर तने सरीखे,
पत्ते-डाल थाम दें छाँव.
वहम अहं का पाल लड़े तो-
उजड़ जायेंगे पल में गाँव..
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