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गुरुवार, 23 मई 2013

shriddhanjali: saaz jabalpuri -sanjiv

स्मरण:
साज़ गया आवाज शेष है...
संजीव
*
जबलपुर, १८ मई २००१३. सनातन सलिल नर्मदा तट पर पवित्र अग्नि के हवाले की गयी क्षीण काया चमकती आँखों और मीठी वाणी को हमेशा-हमेशा के लिए हम सबसे दूर ले गयी किन्तु उसका कलाम उसकी किताबों और हमारे ज़हनों में चिरकाल तक उसे जिंदा रखेगा. साज़ जबलपुरी एक ऐसी शख्सियत है जो नर्मदा के पानी को तरह का तरह पारदर्शी रहा. उसे जब जो ठीक लगा बेबाकी से बिना किसी की फ़िक्र किये कहा. आर्थिक-पारिवारिक-सामाजिक बंदिशें उसके कदम नहीं रोक सकीं.

उसने वह सब किया जो उसे जरूरी लगा... पेट पालने के लिए सरकारी नौकरी जिससे उसका रिश्ता तन के खाने के लिए तनखा जुटाने तक सीमित था, मन की बात कहने के लिए शायरी, तकलीफज़दा इंसानों की मदद और अपनी बात को फ़ैलाने के लिए पत्रकारिता, तालीम फ़ैलाने और कुछ पैसा जुगाड़ने के लिए एन.जी.ओ. और साहित्यिक मठाधीशों को पटखनी देने के लिए संस्था का गठन-किताबों का प्रकाशन. बिना शक साज़ किताबी आदर्शवादी नहीं, व्यवहारवादी था.

उसका नजरिया बिलकुल साफ़ था कि वह मसीहा नहीं है, आम आदमी है. उसे आगे बढ़ना है तो समय के साथ उसी जुबान में बोलना होगा जिसे समय समझता है. हाथ की गन्दगी साफ़ करने के लिए वह मिट्टी को हाथ पर पल सकता है लेकिन गन्दगी को गन्दगी से साफ़ नहीं किया जा सकता. उसका शायर उसके पत्रकार से कहीं ऊँचा था लेकिन उसके कलाम पर वाह-वाह करनेवाला समाज शायरी मुफ्त में चाहता है तो अपनी और समाज की संतुष्टि के लिए शायरी करते रहने के लिए उसे नौकरी, पत्रकारिता और एन. जी. ओ. से धन जुटाना ही होगा. वह जो कमाता है उसकी अदायगी अपनी काम के अलावा शायरी से भी कर देता है.

साज़ की इस बात से सहमति या असहमति दोनों उसके लिए एक बार सोचने से ज्यादा अहमियत नहीं रखती थीं. सोचता भी वह उन्हीं के मशविरे पर था जो उसके लिए निजी तौर पर मानी रखते थे. सियासत और पैसे पर अदबी रसूख को साज ने हमेशा ऊपर रखा. कमजोर, गरीब और दलित आदमी के लिए तहे-दिल से साज़ हमेशा हाज़िर था.

साज़ की एक और खासियत जुबान के लिए उसकी फ़िक्र थी. वह हिंदी और उर्दू को माँ और मौसी  की तरह एक साथ सीने से लगाये रखता था. उसे छंद और बहर के बीच पुल बनाने की अहमियत समझ आती थी... घंटों बात करता था इन मुद्दों पर. कविता के नाम पर फ़ैली अराजकता और अभिव्यक्ति का नाम पर मानसिक वामन को किताबी शक्ल देने से उसे नफरत थी. चाहता तो किताबों का हुजूम लगा देता पर उसने बहुतों द्वारा बहुत बार बहुत-बहुत इसरार किये जाने पर अब जाकर किताबें छापना मंजूर किया.

साज़ की याद में मुक्तक :
*
लग्न परिश्रम स्नेह समर्पण, सतत मित्रता के पर्याय
दुबले तन में दृढ़ अंतर्मन, मौलिक लेखन के अध्याय
बहर-छंद, उर्दू-हिंदी के, सृजन सेतु सुदृढ़ थे तुम-
साज़ रही आवाज़ तुम्हारी, पर पीड़ा का अध्यवसाय
*
गीत दुखी है, गजल गमजदा, साज मौन कुछ बोले ना
रो रूबाई, दर्द दिलों का छिपा रही है, खोले ना
पत्रकारिता डबडबाई आँखों से फलक निहार रही
मिलनसारिता गँवा चेतना, जड़ है किंचित बोले ना
*
सम्पादक निष्णात खो गया, सुधी समीक्षक बिदा हुआ
'सलिल' काव्य-अमराई में, तन्हा- खोया निज मीत सुआ
आते-जाते अनगिन हर दिन, कुछ जाते जग सूनाकर
नैन न बोले, छिपा रहे, पर-पीड़ा कहता अश्रु  चुआ
*
सूनी सी महफिल बहिश्त की, रब चाहे आबाद रहे
जीवट की जयगाथा, समय-सफों पर लिख नाबाद रहे
नाखूनों से चट्टानों पर, कुआँ खोद पानी की प्यास-  
आम आदमी के आँसू की। कथा हमेशा याद रहे
*
साज़ नहीं था आम आदमी, वह आमों में आम रहा
आडम्बर को खुली चुनौती, पाखंडों प्रति वाम रहा
कंठी-तिलक छोड़, अपनापन-सृजनधर्मिता के पथ पर
बन यारों का यार चला वह, करके नाम अनाम रहा

आपके और साज़ के बीच से हटते हुए पेश करता हूँ साज़ की शायरी के चंद नमूने: 
अश'आर:
लोग नाखून से चट्टानों पे बनाते हैं कुआँ
और उम्मीद ये करते हैं कि पानी निकले
*
कत'आत
जिंदगी दर्द नहीं, सोज़ नहीं, साज़ नहीं
एक अंजामे-तमन्ना है ये आगाज़ नहीं
जिंदगी अहम् अगर है तो उसूलें से है-
सांस लेना ही कोई जीने का अंदाज़ नहीं
*
कोई बतलाये कि मेरे जिस्मो-जां में कौन है?
बनके उनवां ज़िन्दगी की दास्तां में कौन है?
एक तो मैं खुद हूँ, इक तू और इक मर्जी तिरी-
सच नहीं ये तो बता, फिर दोजहां में कौन है?
*
गजल
या माना रास्ता गीला बहुत है
हमारा अश्म पथरीला बहुत है

ये शायद उनसे मिलके आ रहा है
फलक का चाँद चमकीला बहुत है

ये रग-रग में बिखरता जा रहा है
तुम्हारा दर्द फुर्तीला बहुत है

लबों तक लफ्ज़ आकर रुक गए हैं
हमारा प्यार शर्मीला बहुत है

न कोई पेड़, न साया, न सब्ज़ा
सफर जीवन का रेतीला बहुत है

कहो साँपों से बचकर भाग जाएं
यहाँ इन्सान ज़हरीला बहुत है
 *
गजल 
 तन्हा न अपने आप को अब पाइये जनाब,
मेरी ग़ज़ल को साथ लिए जाइये जनाब।


ऐसा न हो थामे हुए आंसू छलक पड़े,
रुखसत के वक्त मुझको न समझाइये जनाब।


मैं ''साज़'' हूँ ये याद रहे इसलिए कभी,
मेरे ही शे'र मुझको सुना जाइये जनाब।।

*

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के निधन से हिंदी जगत की अपूरणीय क्षति

शुक्रवार, ८ अप्रैल २०११

महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के निधन से हिंदी जगत की अपूरणीय क्षति 

मुजफ्फरपुर सुनसान लागि रहल ये जिम्हर देखियो उम्हरे शोक आ शंताप के माहौल ये। अनाथ भए गेल सोंसे देश कियाकि महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शाश्त्री जी के निधन भए गेल। शुक्रवार के हुनकर सम्मान में शोकसभाएं आयोजित कए के श्रदांजलि दए वाला के ताँता लागल रहय।साथ ही साथ सरकार से ओ महाकवि के देशरत्ना से विभूषित करय के मांग जोर पकड़य लागल ये।'ऊपर-ऊपर पी जाते हैं, जो पीने वाले होतें हैं जेइसन अमर पंक्ति से समाज के वंचित लोगेन के प्रति अपन वेदना के उड़ेलइ वाला महाकवि के निधन से भारतीय साहित्य के बहुत पैघ क्षति पहुंचल ये।
[055[4].jpg]हुनकर दिवंगत आत्मा के चिरशांति आ दुःख के ई घडी में हुनकर परिजन के धैर्य धारण करय के क्षमता प्रदान करय के लेल इश्वर से प्रार्थना करल गेल।महाकवि के आत्मा के शांति के लेल कैकटा विद्वान् आ नेता हुनकर घोर पहुंचल। महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शाश्त्री जी जन्म 5 जनवरी सन 1916 के औरंगाबाद के मैगरा गाम मे भेल छलन्हि. करीब सत्तर साल पहिने मुजफ्फरपुर अएला के बाद एहिठाम बसि गेलखिन्ह. एहिठाम रामदयालु सिंह कॉलेज,आरडीएस कॉलेज हिन्दी के विभागाध्यक्ष सेहो रहलखिन्ह। हुनकर निधन से सोंसे साहित्य जगत अनाथ भए गेल ये,मुदा उम्र के तकाजा कहियो आ होनी जिनकर बुलावा आबय छैक हुनका जाय से कियो नै रोकि सकय अछि।
हिनकर रचना हिनकर प्रसिद्ध रचना मे मेघगीत,अवन्तिका,राधा,श्यामासंगीत,एक किरण: सौ झाइयां,दो तिनकों का घोंसला,इरावती,कालीदास,अशोक वन, सत्यकाम..आदि प्रसिद्ध अछि।
साहित्य जगत हुनकर निधन से अनाथ ते भए ही गेल ये साथ ही साथ हुनकर कमी के साहित्य जगत कहियो पूरा कए सकत की नै ई एकता सोचनिये विषय अछि।

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

श्रद्धांजलि :: स्वतंत्रता सत्याग्रही सुशीला देवी दीक्षित दिवंगत :: दिव्य नर्मदा परिवार श्रद्धांजलि





 दिव्य नर्मदा परिवार की श्रद्धांजलि;

स्वातंत्र्य सत्याग्रही श्रीमती सुशीला देवी दीक्षित के प्रति काव्यांजलि:

भारत माँ रक्षा के हित, तुमने दी थी कुर्बानी.
नेह नर्मदा सदृश तुम्हारी, अमृतमय निर्मल वाणी..
स्निग्ध दृष्टि, ममतामय आनन्, तुम जग जननी लगती थीं.
मैया की संज्ञा तुम पर ही सत्य कहूँ मैं सजती थी..
दुर्बल काया सुदृढ़ मनोबल, 'आई' तुम थीं स्नेहागार.
बिना तुम्हारे स्मृतियों का सूना ही लगता संसार..
छाया प्रभा विनोद तुम्हारे सांस-सांस में बसते थे.
पाया था रेवा प्रसाद, तुम उनमें थीं वे तुममें थे..
पाँच पीढ़ियों से जुड़कर तुम सचमुच युग निर्माता थीं.
माया-मोह न व्यापा तुमको, तुम निज भाग्य विधाता थीं..
स्नेह 'सलिल' को मिला तुम्हारा, पूर्व जन्म के पुण्य फले.
चली गयीं तुम विकल खड़े हम, अपने खाली हाथ मले..
तुममें था इतिहास समाया, घटनाओं का हिस्सा तुम.
जो न समय देखा था हमने, सुना सकीं थीं किस्सा तुम..
तुम अभियान राष्ट्र सेवा का, तुम पाथेय-प्रेरणा थीं.
मूर्तिमंत तुम लोकभावना,  तुम ही लोक चेतना थीं..
नत मस्तक शत वन्दन कर हम, अपना भाग्य सराह रहे.
पाया था आशीष तुम्हारा, यादों में अवगाह रहे..
काया नहीं तुम्हारी लेकिन छाया-माया शेष यहीं.
'सलिल' प्रेरणा तुम जीवन की, भूलेंगे हम तुम्हें नहीं.
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