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शुक्रवार, 25 अगस्त 2023

सॉनेट, मुक्तक, रेल, नवगीत, पद, जन्माष्टमी, पोयम

सॉनेट

*
रंगभूमि से जंगभूमि तक
मनमानी अरु मन की बातें
काम करे निष्ठा से जनगण
नेता जी करते हैं घातें
कुटिया का दिन अँधियारा है
संसद की रातें भी उजली
हर अफसर का पौ बारा है
धनपतियों की तबियत मचली
न्याय वही जो कुर्सी चाहे
लिए तराजू तौले अँधा
मन का कालापन वस्त्रों पर
बहस कुतर्कों का है धंधा
बेच-खरीदों जनप्रतिनिधियों को
जो न बिके वह खाए लातें
२५-८-२०२२
***
मुक्तक रेल के
प्रभु तो प्रभु है, ऊपर हो या नीचे हो।
नहीं रेल के प्रभु सा आँखें मीचे हो।।
निचली श्रेणी की करता कुछ फ़िक्र न हो-
ऊँची श्रेणी के हित लिए गलीचे हो।।
***
ट्रेन पटरी से उतरती जा रही।
यात्रियों को अंत तक पहुँचा रही।।
टिकिट थोड़ी यात्रा का था लिया-
पार भव से मुफ्त में करवा रही।।
***
आभार करिए रेलवे का रात-दिन।
काम चलता ही नहीं है ट्रेन बिन।।
करें पल-पल याद प्रभु को आप फिर-
समय काटें यार चलती श्वास गिन।।
***
जो चाहे भगवान् वही तो होता है।
दोष रेल मंत्री को क्यों जग देता है।।
चित्रगुप्त प्रभु दुर्घटना में मार रहे-
नाव आप तू कर्म नदी में खेता है।।
***
आय घटे, वेतन रुके तो हो हाहाकार।
बढ़े टिकिट दर तो हुई जनता ही बेज़ार।।
रिश्वत लेना छोड़ता कभी नहीं स्टाफ-
दोष न मंत्री का तनिक, सत्य करें स्वीकार।।
२५-८-२०१७
***
नवगीत
*
नयनों ने
नयनों को
नेहिल आमन्त्रण दे
नयनों में बसा लिया।
हुलस-पुलक गया हिया।
*
मधुरिम-मादक चितवन
खिले अगिन स्नेह-सुमन
मन-प्राणों ने पाती
भेजी, संलग्न जिया।
हुलस-पुलक गया हिया।
*
मन भाई छवि बाँकी
एकटक देखी झाँकी
नयन कलश, नयन अधर
प्रेमामृत घूँट पिया
हुलस-पुलक गया हिया।
*
प्रकृति-पुरुष पुनः मिले
शत सरसिज विहँस खिले
नयनातुर नयनों ने
नयनों में गेह दिया
हुलस-पुलक गया हिया।
*
प्रणय-पत्र अनबाँचा
नयन-नयन ने बाँचा
पाणिग्रहण पल भर में
नयनों ने आप किया
हुलस-पुलक गया हिया।
*
युग गाथा गायेगा
चरण-सर नवायेगा
नयनों में नयनों को
बसा कहे 'धन्य प्रिया'
हुलस-पुलक गया हिया।
कृष्ण जन्माष्टमी २०१६
***
पद
प्रभु जी! झूलें विहँस हिंडोला
*
मैया खोंसें कान कजलियाँ, मुस्कायें बम भोला।
ग्वाल-बाल सँग खाँय खजुरियाँ, तजकर माखन-गोला।
हमें बुला बिठलाँय बगल में, राधा का मन डोला।
रिमझिम-रिमझिम बादल बरसें, भीगा सबका चोला।
सावन गीत गा रहीं सखियाँ, प्रेम सुरों में घोला।
२५-८-२०१६
***
गीत :
संजीव
*
मैं बना लूँ मित्र
तो क्या साथ
डेटिंग पर चलोगी?
*
सखी हो तुम
साथ बगिया-गली में
हम खूब खेले
हाथ थामे
मंदिरों में गये
देखे झूम मेले
खाई अमिया तोड़ खट्टी
छीन इमली करी कट्टी
पढ़ी मानस, फाग गायी
शरारत माँ से छिपायी
मैं पकड़ लूँ कान
तो बन सपन
नयनों में प लोगी?
मैं बना लूँ मित्र
तो क्या साथ
डेटिंग पर चलोगी?
*
आस हो तुम
प्यास मटकी उठाकर
पनघट गये हम
हास समझे ज़िंदगी
तज रास, हो
बेबस वरे गम
साथ साया भी न आया
हुआ हर अपना पराया
श्वास सूली पर चढ़े चुप
किन्तु कब तुमसे सके छुप
आखिरी दम हे सुधा!
क्या कभी
चन्दर से मिलोगी?
मैं बना लूँ मित्र
तो क्या साथ
डेटिंग पर चलोगी?
*
बड़ों ने ही
बड़प्पन खोकर
डुबायी हाय नौका
नियति निष्ठुर
दे सकी कब
भूल सुधरे- एक मौक़ा?
कोशिशों का काग बोला
मुश्किलों ने ज़हर घोला
प्रथाओं ने सूर्य सुत तज
कन्हैया की ली शरण भज
पाँच पांडव इन्द्रियों
की मौत कृष्णा
बनोगी, अब ना छलोगी?
मैं बना लूँ मित्र
तो क्या साथ
डेटिंग पर चलोगी?

*

***

POEM:

*
I slept
I awakened
I entered my childhood
I smiled.
I slept
I awakened
I entered my young age
I quarreled.
I slept
I awakened
I entered my old age
I repented.
An angel came in dream
And asked
If I get a new life
How will I like to live?
I replied
My life and way of living
Are my own
I will live it in the same way.
I will do nothing better
I will do nothing worse
I will like to live in my own way
It's better to die than to live
According to other's values.
२५-८-२०१५
***

गुरुवार, 24 अगस्त 2023

सोरठा सलिला

सोरठा सलिला 
*
कहाँ मिले संतोष, आस पास तो है नहीं।
रीत रहा है कोष, तुष्टि नहीं मिलती कहीं।। 
*
कैसे पाएँ खोज, कहाँ गुम हुई प्रेरणा। 
निरुत्तरित हो रोज, प्रश्न आपसे पूछता।। 
*
यायावर प्रज्ञान, भटक रहा है चाँद पर। 
भारत का अभिमान, जनगण का अरमान है।।
*
विक्रम पर प्रज्ञान, लदा हुआ बैताल बन।
जान रहा अनजान, भेजे डाटा निरंतर।। 
*
लैंडर करता लैंड, जब तब रुकती श्वास हर।
है सचमुच यह ट्रेंड, सॉफ्ट लैंडिंग कर सका।।     
 *

व्यंग्य लेख, गीत, दण्डक छंद, कौआ स्नान, दोहा, शिक्षक, मंदिर अलंकार

***
गीत
जन्म दिवस हर सुबह मनाएँ, आँख मूँद लें रजनी में हम
सपने हों साकार यत्न कर, निराकार हों तो न करें गम
मनोरमा हो रश्मि विभा की, पाखी शोभित नीलाम्बर में
विजय-स्मृति हो पद्म गुच्छ सी, ज्योति अमर हो निविड़ तिमिर में
हो संदीप प्रदीप पथिक मैं, संग देवकीनंदन पाऊँ
हर हिंदुस्तानी मनोज हो, सदा भारती की जय गाऊँ
अंजु लता सम नीलोफ़र हँस, साथ चले जय हिंद गुँजाए
त्यागी राज करे पूनम सह, शरतचंद्र अमृत बरसाए
सूरज दीप्त दिनेश दिवाकर, ओमप्रकाश बिखेरे भू पर
ता ता धिन्ना नाचे मिन्नी, परी तनूजा उपमा मिलकर
योगी दुर्गा-राधा की जय, कहे मुरारि राजमणि पाए
जनसेवक राजेंद्र बन सके, करुणा हरदम हृदय बसाए
नमन अन्नपूर्णा सरस्वती, वेदप्रकाश महेश बिखेरे
सरला मनी हंस देवांशी, हों संजीव लगाएँ फेरे
सृजन कुंज पुष्पित मुकुलित हो, कथ्य भाव रस लय आनंदी
स्नेह सलिल सिंचन कर, मधुकर, छंद गुँजाए परमानंदी
२४-८-२०२२
***
श्रद्धांजलि
सुषमा गईं, डूबा अरुण भी, शोक का है यह समय।
गौरव बढ़ाया देश का, देगा गवाही खुद समय।।
जन से सदा रिश्ते निगाहे, थे प्रभावी दक्ष भी-
वाक्पटुता-विद्वता अद्भुत रही कहता समय।।
*
धूमिल न होंगी याद, छवियाँ, कार्यपटुता भी कभी।
दल से उठे ऊपर, कमाया जन-समर्थन नाम भी।।
दृढ़ता-प्रखरता-अभयता का त्रिवेणी दोनों रहे-
इतिहास लेगा नाम दोनों ने किए सत्कार्य भी।।
***
छंद सलिला
नवाविष्कृत मात्रिक दंडक
*
विधान-
प्रति पद ५६ मात्रा।
यति- १४-१४-१४-१४।
पदांत-भगण।
*
अवस्था का बहाना मत करें, जब जो बने करिए, समय के साथ भी चलिए, तभी होगा सफल जीवन।
गिरें, उठकर बढ़ें मंजिल मिले तब ही तनिक रुकिए, न चुकिए और मत भगिए, तभी फागुन बने सावन।
न सँकुचें लें मदद-दें भी, न कोई गैर है जग में, सभी अपने न सच तजिए, कहें सच मन न हो उन्मन-
विरागी हों या अनुरागी, करें श्रम नित्य तज आलस, न केवल मात्र जप करिए, स्वेद-सलिला करे पावन।।
*
टीप-छंद लक्षणानुसार नाम सुझाएँ।
संजीव
२४-८-२०१९
***
व्यंग्य लेख
अफसर, नेता और ओलंपिक
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ओलंपिक दुनिया का सबसे बड़ा खेल कुंभ होता है। सामान्यत:, अफसरों और नेताओं की भूमिका गौड़ और खिलाडियों और कोचों की भूमिका प्रधान होना चाहिए। अन्य देशों में ऐसा होता भी है पर इंडिया में बात कुछ और है। यहाँ अफसरों और नेताओं के बिना कौआ भी पर नहीं मार सकता। अधिक से अधिक अफसर सरकारी अर्थात जनगण के पैसों पाए विदेश यात्रा कर सैर-सपाट और मौज-मस्ती कर सकें इसलिए ज्यादा से ज्यादा खिलाडी और कोच चुने जाने चाहिए। खिलाडी ऑलंपिक स्तर के न भी हों तो कोच और अफसर फर्जी आँकड़ों से उन्हें ओलंपिक स्तर का बता देंगे। फर्जीवाड़ा की प्रतियोगिता हो तो स्वर्ण, रजत और कांस्य तीनों पदक भारत की झोली में आना सुनिश्चित है। यदि आपको मेरी बात पर शंका हो तो आप ही बताएं की इन सुयोग्य अफसरों और कोचों के मार्गदर्शन में जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर श्रेष्ठ प्रदर्शन और ओलंपिक मानकों से बेहतर प्रदर्शन कर चुके खेलवीर वह भी एक-गो नहीं सैंकड़ों अपना प्रदर्शन दुहरा क्यों नहीं पाते?
कोई खिलाडी ओलंपिक तक जाकर सर्वश्रेष्ठ न दे यह नहीं माना जा सकता। इसका एक ही अर्थ है कि अफसर अपनी विदेश यात्रा की योजना बनाकर खिलाडियों के फर्जी आँकड़े तैयार करते हैं जिसमें इन्डियन अफसरशाही को महारत हासिल है। ऐसा करने से सबका लाभ है, अफसर, नेता, कोच और खिलाडी सबका कद बढ़ जाता है, घटता है केवल देश का कद। बिके हुई खबरिया चैनल किसी बात को बारह-चढ़ा कर दिखाते हैं ताकि उनकी टी आर पी बढ़े, विज्ञापन अधिक मिलें और कमाई हो। इस सारे उपक्रम में आहत होती हैं जनभावनाएँ, जिससे किसी को कोई मतलब नहीं है।
रियो से लौटकर रिले रेस खिलाडी लाख कहें कि उन्हें पूरी दौड़ के दौरान कोई पेय नहीं दिया गया, वे किसी तरह दौड़ पूरी कर अचेत हो गईं। यह सच सारी दुनिया ने देखा लेकिन बेशर्म अफसरशाही आँखों देखे को भी झुठला रही है। यह तय है कि सच सामने लानेवाली खिलाड़ी अगली बार नहीं चुनी जाएगी। कोच अपना मुँह बंद रखेगा ताकि अगली बार भी उसे ही रखा जाए। केर-बेर के संग का इससे बेहतर उदाहरण और कहाँ मिलेगा? अफसरों को भेज इसलिए जाता है की वे नियम-कायदे जानकार खिलाडियों को बता दें, आवश्यक व्यवस्थाएं कर दें ताकि कोच और खिलाडी सर्वश्रेष्ठ दे सकें पर इण्डिया की अफसरशाही आज भी खुद को खुदमुख्तार और बाकि सब को गुलाम समझती है। खिलाडियों के सहायक हों तो उनकी बिरादरी में हेठी हो जाएगी। इसलिए, जाओ, खाओ, घूमो, फिरो, खरीदी करो और घरवाली को खुश रखो ताकि वह अन्य अफसरों की बीबीयों पर रौब गांठ सके।
रियो ओलंपिक में 'कोढ़ में खाज' खेल मंत्री जी ने कर दिया। एक राजनेता को ओलंपिक में क्यों जाना चाहिए? क्या अन्य देशों के मंत्री आते है? यदि नहीं, तो इंडियन मंत्री का वहाँ जाना, नियम तोडना, चेतावनी मिलना और बेशर्मी से खुद को सही बताना किसी और देश में नहीं हो सकता। व्यवस्था भंग कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करने की दयनीय मानसिकता देश और खिलाडियों को नीच दिखती है पर मोटी चमड़ी के मंत्री को इस सबसे क्या मतलब?
रियो ओलंपिक के मामले में प्रधानमंत्री को भी दिखे में रख गया। पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने खिलाडियों का हौसला बढ़ाने के लिए उनसे खुद पहल कर भेंट की। यदि उन्हें बताया जाता कि इनमें से किसी के पदक जीतने की संभावना नहीं है तो शायद वे ऐसा नहीं करते किन्तु अफसरों और पत्रकारों ने ऐसा माहौल बनाया मानो भारत के खलाड़ी अब तक के सबसे अधिक पदक जीतनेवाले हैं। झूठ का महल कब तक टिकता? सारे इक्के एक-एक कर धराशायी होते रहे।
अफसरों और कर्मचारियों की कारगुजारी सामने आई मल्ल नरसिह यादव के मामले में। दो हो बाते हो सकती हैं। या तो नरसिंह ने खुद प्रतिबंधित दवाई ली या वह षड्यन्त्र का शिकार हुआ। दोनों स्थितियों में व्यवस्थापकों की जिम्मेदारी कम नहीं होती किन्तु 'ढाक के तीन पात' किसी के विरुद्ध कोइ कदम नहीं उठाया गया और देश शर्मसार हुआ।
असाधारण लगन, परिश्रम और समर्पण का परिचय देते हुए सिंधु, साक्षी और दीपा ने देश की लाज बचाई। उनकी तैयारी में कोई योगदान न करने वाले नेताओं में होड़ लग गयी है पुरस्कार देने की। पुरस्कार दें है तो पाने निजी धन से दें, जनता के धन से क्यों? पिछले ओलंपिक के बाद भी यही नुमाइश लगायी गयी थी। बाद में पता चला कई घोषणावीरों ने खिलाडियों को घोषित पुरस्कार दिए ही नहीं। अत्यधिक धनवर्षा, विज्ञापन और प्रचार के चक्कर में गत ओलंपिक के सफल खिलाडी अपना पूर्व स्तर भी बनाये नहीं रख सके और चारों खाने चित हो गए। बैडमिंटन खिलाडी का घुटना चोटिल था तो उन्हें भेजा ही क्यों गया? वे अच्छा प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकीं लंबी शल्यक्रिया के लिए विवश भी हो गयीं।
होना यह चाइये की अच्छा प्रदर्शन कर्नेवले खिलाडी अगली बार और अच्छा प्रदर्शन कर सकें इसके लिए उन्हें खेल सुविधाएँ अधिक दी जानी चाहिए। भुकमद, धनराशि और फ़्लैट देने नहीं सुधरता। हमारा शासन-प्रशासन परिणामोन्मुखी नहीं है। उसे आत्मप्रचार, आत्मश्लाघा और व्यक्तिगत हित खेल से अधिक प्यारे हैं। आशा तो नहीं है किन्तु यदि पूर्ण स्थिति पर विचार कर राष्ट्रीय खेल-नीति बनाई जाए जिसमें अफसरों और नेताओं की भूमिका शून्य हो। हर खेल के श्रेष्ठ कोच और खिलाडी चार सैलून तक प्रचार से दूर रहकर सिर्फ और सिर्फ अभ्यास करें तो अगले ओलंपिक में तस्वीर भिन्न नज़र आएगी। हमारे खिलाडियों में प्रतिभा और कोचों में योग्यता है पर गुड़-गोबर एक करने में निपुण अफसरशाही और नेता को जब तक खेओं से बाहर नहीं किया जायेगा तब तक खेलों में कुछ बेहतर होने की उम्मीद आकाश कुसुम ही है।
===
हिंदी दिवस पर विशेष
मुहावरा कौआ स्नान
*
कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
*
पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
*
पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
*
नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
*
निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
*
घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
*
जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
*
पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी देखो आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
*
रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
*
गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
*
उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
---
***
दोहा सलिला:
शिक्षक पारसमणि सदृश...
*
शिक्षक पारसमणि सदृश, करे लौह को स्वर्ण.
दूर करे अज्ञानता, उगा बीज से पर्ण..
*
सत-शिव-सुंदर साध्य है, साधन शिक्षा-ज्ञान.
सत-चित-आनंद दे हमें, शिक्षक गुण-रस-खान..
*
शिक्षक शिक्षा दे सदा, सकता शिष्य निखार.
कंकर को शंकर बना, जीवन सके सँवार..
*
शिक्षक वह जो सिखा दे, भाषा गुण विज्ञान.
नेह निनादित नर्मदा, बहे बना गुणवान..
*
प्रतिभा को पहचानकर, जो दिखलाता राह.
शिक्षक उसको जानिए, जिसमें धैर्य अथाह..
*
जान-समझ जो विषय को, रखे पूर्ण अधिकार.
उस शिक्षक का प्राप्य है, शत शिष्यों का प्यार..
*
शिक्षक हो संदीपनी, शिष्य सुदामा-श्याम.
बना सकें जो धरा को, तीरथ वसुधा धाम..
*
विश्वामित्र-वशिष्ठ हों, शिक्षक ज्ञान-निधान.
राम-लखन से शिष्य हों, तब ही महिमावान..
*
द्रोण न हों शिक्षक कभी, ले शिक्षा का दाम.
एकलव्य से शिष्य से, माँग अँगूठा वाम..
*
शिक्षक दुर्वासा न हो, पल-पल दे अभिशाप.
असफल हो यदि शिष्य तो, गुरु को लगता पाप..
*
राधाकृष्णन को कभी, भुला न सकते छात्र.
जानकार थे विश्व में, वे दर्शन के मात्र..
*
महीयसी शिक्षक मिलीं, शिष्याओं का भाग्य.
करें जन्म भर याद वे, जिन्हें मिला सौभाग्य..
*
शिक्षक मिले रवीन्द्र सम, शिष्य शिवानी नाम.
मणि-कांचन संयोग को, करिए विनत प्रणाम..
*
ओशो सा शिक्षक मिले, बने सरल-हर गूढ़.
विद्वानों को मात दे, शिष्य रहा हो मूढ़..
*
हो कलाम शिक्षक- 'सलिल', झट बन जा तू छात्र.
गत-आगत का सेतु सा, ज्ञान मिले बन पात्र..
*
ज्यों गुलाब के पुष्प में, रूप गंध गुलकंद.
त्यों शिक्षक में समाहित, ज्ञान-भाव-आनंद..
२४-८-२०१६
===
मंदिर अलंकार


हिंदी पिंगल ग्रंथों में चित्र अलंकार की चर्चा है. जिसमें ध्वज, धनुष, पिरामिड आदि के शब्द चित्र की चर्चा है. वर्तमान में इस अलंकार में लिखनेवाले अत्यल्प हैं. मेरा प्रयास मंदिर अलंकार
हिंदी
जन-मन में बसी
जन प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर छा रहा कैसा अद्भुत नूर
जन आकांक्षा गीत है,जनगण-हित संतूर
२४-८-२०१५
***

बुधवार, 23 अगस्त 2023

सॉनेट, इसरो

सॉनेट
इसरो
इस रो में कोई नहीं,
इसरो जैसा अन्य है,
जिस रो में इसरो खड़ा,
वह रो सिर्फ अनन्य है।

चंदा मामा दूर के,
अब लगते हैं पास के,
टूरा-टूरी टूर पे,
जाएँ लब पर हास ले।

धरती रक्षा-सूत्र ले,
भेजे चंदा बंधु को,
विक्रम उतरा आस ले,
लिए भू पर मृदा को।

जय जय जय तकनीक की।
भारत माँ की जीत की।।
२३-८-२०२३
•••

सॉनेट, सुधियाँ, दोहा, बघेली मुक्तिका, यगणादित्य घनाक्षरी, बाल गीत पारुल, जनकछंदी गीत, आँख

सॉनेट  
शतक वीर 
*
शतकवीरों का होता है कुल श्रेष्ठ,
श्री वास्तव में उनको ही मिलती है, 
राह में उनकी बाधक होते नेष्ठ,
फिर भी प्रतिभा उगती है, खिलती है।  

लक्ष्मण-रेखा खींचते शतकवीर,
लाँघना होता है सत्य ही दुष्कर,
शतकवीर नहीं होते कभी अधीर,
कठिन परीक्षा होती उनकी अक्सर। 

शतकवीर होते हैं नीलम सा नग,
जिस-तिस को अनुकूल नहीं होते हैं, 
वे रख देते हैं अंगद जैसे पग,
नव आशा के बीज सदा बोते हैं। 

सब मिल करिए शतकवीरों को नमन। 
अनुकरण कीजिए, महकाइए चमन।।    
***
सॉनेट 
लेखक 
*
लेखक नहीं होता छोटा या बड़ा,
लेखक कदापि नहीं होता बिकाऊ,
लेखक नहीं होता सिर के बल खड़ा, 
लेखक नहीं है उत्पादन टिकाऊ। 

चारण-भाट नहीं हो सकते लेखक,
सच अदेखा नहीं कर सकते लेखक, 
तारणहार नहीं  हो सकते लेखक,
समय-सत्य-साक्षी होते हैं लेखक। 

लेखक का सच्चा सम्मान धन नहीं, 
लेखक का लिखा पढ़ना-समझना है,
लेखक की पहचान जाति-वर्ण नहीं, 
लेखक का इंसानियत बरतना है। 

अक्षर-रक्षक, शब्द-सिपाही लेखक। 
न तो तालियाँ, न वाहवाही लेखक।।    
***
सॉनेट
सुधियाँ
सुधियाँ सखी-सहेली प्यारी,
भुज भर भेंट विहँस दुलराया,
गोद खिलाया कुछ थीं न्यारी,
गिरी उठा चलना सिखलाया।

खेल-कूद लड़-मिल बढ़ आगे,
हुई किशोरी तरुण युवा झट,
सतरंगे सपने अनुरागे,
गोदी भरी रँगा जीवन-पट।

फिर बसंत की हुई बिदाई,
शीत-ग्रीष्म एकाकीपन दे,
कहते दुनिया नहीं पराई,
निरख उसे हँस तोड़ो फंदे।

छोड़ नीड़ उड़ना है पाखी।
सुमिर ईश-गुण, गुरु की साखी।।
२३-८-२०२३
•••
दोहा सलिला
मिली तरुण की तरुणता, संगीता के साथ
याद हरी हो गई झट, झुका आप ही माथ
*
संस्कार ही अस्मिता, सीख रखें हम याद
गूँगे के गुड़ सा सरस, स्नेह सलिल का स्वाद
*
अनुकृति हो सद्गुणों की, तभी मिले सम्मान
पथिक सदृश हों मधुर हम, जीवन हो रसखान
*
कान कजलियाँ खोंसकर, दें मन से आशीष
पूज्य-चरण पर हो विनत, सदा हमारा शीश
*
लोक मनाता कजलियाँ, गाकर कजरी गीत
कजरारे बंकिम नयन, कहें बनो मन मीत
*
मन मंदिर में बस गए, जो जन वे हैं धन्य
बसा सके जो किसी को, सचमुच वहीअनन्य
*
अपने अपनापन बिसर, बनते हों जब गैर
कान कजलिया खोँसिए, मिटा दिलों से बैर
२३-८-२०२१
***
बघेली मुक्तिका
*
बढ़िगा बहुतै पाप
रुपिया मैया-बाप
सलगे नेता चोर
जन-जन के संताप
भागिस सूरज-धूप
काय न लागिस खाप
साधू कीन्हिस ढोंग
हाय अकारथ जाप
सबकै खुलि गै पोल
जोरू के पग चाप
जउने पंडा-देव
तउने टीका-छाप
लड़िकन केर पढ़ाई
लीन्हिस खेती ताप
डूब गइस घर-गाँव
आसमान से नाप
२३-८-२०२०
***
नवान्वेषित दण्डक छंद
यगणादित्य घनाक्षरी
*
विधान- बारह यगण
संकेत-यगण = १२२, आदित्य = १२।
*
कन्हैया! कन्हैया! पुकारें हमेशा, तुम्हें राधिका जी! गुहारें हमेशा, सभी गीत गाएँ तुम्हारे हमेशा।
नहीं कर्म भूलें, नहीं मर्म भूलें, लड़ें राक्षसों से नहीं धर्म भूलें, तुम्हीं को मनाएँ-बुलाएँ हमेशा।।
कहा था तुम्हीं ने 'उठो पार्थ प्यारे!, लड़ो कौरवों से नहीं हारना रे!, झुका या डरो ना बुराई से जूझो।
करो कर्म सारे, न सोचो मिले क्या?, मिला क्या?, गुमा क्या?, रहा क्या? हमेशा।।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
२३-८-२०१९
दोहा
*
हो प्रशांत मन सिंधु सा, गिरि सा दृढ़ संकल्प.
स्वप्न सदा शुभ देखना, जिसका नहीं विकल्प.
२३-८-२०१७
***
- स्मृति के वातायन से
हिन्दयुग्म
बाल गीत
पारुल
रुन-झुन करती आयी पारुल।
सब बच्चों को भायी पारुल।
बादल गरजे, तनिक न सहमी।
बरखा लख मुस्कायी पारुल।
चम-चम बिजली दूर गिरी तो,
उछल-कूद हर्षायी पारुल।
गिरी-उठी, पानी में भीगी।
सखियों सहित नहायी पारुल।
मैया ने जब डाँट दिया तो-
मचल-रूठ-गुस्सायी पारुल।
छप-छप खेले, ता-ता थैया।
मेंढक के संग धायी पारुल।
'सलिल' धार से भर-भर अंजुरी।
भिगा-भीग मस्तायी पारुल।
मंगलवार ७-७-२००९
अभिनव प्रयोग
जनकछंदी (त्रिपदिक) गीत
*
मेघ न बरसे राम रे!
जन-मन तरसे साँवरे!
कब आएँ घन श्याम रे!!
*
प्राण न ले ले घाम अब
झुलस रहा है चाम अब
जान बचाओ राम अब
.
मेघ हो गए बाँवरे
आए नगरी-गाँव रे!
कहीं न पाई ठाँव रे!!
*
गिरा दिया थक जल-कलश
स्वागत करते जन हरष
भीगे-डूबे भू-फ़रश
.
कहती उगती भोर रे
चल खेतों की ओर रे
संसद-मचे न शोर रे
*
काटे वन, हो भूस्खलन
मत कर प्रकृति का दमन
ले सुधार मानव चलन
.
सुने नहीं इंसान रे
भोगे दण्ड-विधान रे
कलपे कह 'भगवान रे!'
*
तोड़े मर्यादा मनुज
करे आचरण ज्यों दनुज
इससे अच्छे हैं वनज
.
लोभ-मोह के पाश रे
करते सत्यानाश रे
क्रुद्ध पवन-आकाश रे
*
तूफ़ां-बारिश-जल प्रलय
दोषी मानव का अनय
अकड़ नहीं, अपना विनय
.
अपने करम सुधार रे
लगा पौध-पतवार रे
कर धरती से प्यार रे
***
पुस्तक सलिला
"खेतों ने खत लिखा" गीतिकाव्य के नाम
*�
[पुस्तक विवरण- खेतों ने खत लिखा, गीत-नवगीत, कल्पना रामानी, वर्ष २०१६ ISBN ९७८-८१-७४०८-८६९-७, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार डिमाई, पृष्ठ १०४, मूल्य २००/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली, नई दिल्ली ११००३०, लेखिका संपर्क ६०१/५ हेक्स ब्लॉक, सेक्टर १०, खारघर, नवी मुम्बई ४१०२१०, चलभाष ७४९८८४२०७२, ईमेल kalpanasramani@gmail.com]
*
गीत-नवगीत के मध्य भारत-पकिस्तान की तरह सरहद खींचने पर उतारू और एक को दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के दुष्प्रयास में जुटे समीक्षक समूह की अनदेखी कर मौन भाव से सतत सृजन साधना में निमग्न रहकर अपनी रचनाओं के माध्यम से उत्तर देने में विश्वास रखनेवाली कल्पना रामानी का यह दूसरा गीत-नवगीत संग्रह आद्योपांत प्रकृति और पर्यावरण की व्यथा-कथा कहता है। आवरण पर अंकित धरती के तिमिर को चीरता-उजास बिखेरता आशा-सूर्य और झूमती हुई बालें आश्वस्त करती हैं कि नवगीत प्रकृति और प्रकृतिपुत्र के बीच संवाद स्थापितकर निराश में आशा का संचार कर सकने में समर्थ है। अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में सूर्य की विविध भाव-भंगिमाओं पर ८ तथा नए साल पर ६ रचनाएँ देने के बाद इस संकलन में सूर्य तथा नव वर्ष पर केंद्रित ३-३ रचनाएँ पाकर सुख हुआ। एक ही समय में समान अनुभूतियों से गुजरते दो रचनाकारों की भावसृष्टि में साम्य होते हुए भी अनुभति और अभिव्यक्ति में विविधता स्वाभाविक है। कल्पना जी ने 'शत-शत वंदन सूर्य तुम्हारा', 'सूरज संक्रांति क्रांति से' तथा 'भक्ति-भाव का सूर्य उगा' रचकर तिमिरांतक के प्रति आभार व्यक्त किया है। 'नव वर्ष आया', 'शुभारंभ है नए साल का' तथा 'नए साल की सुबह' में परिवर्तन की मांगल्यवाहकता तथा भविष्य के प्रति नवाशा का संकेत है।
सूरज की संक्रांति क्रांति से / जन-जन नीरज वदन हुआ
*
एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर
नींद से बोला- 'उठो / नव वर्ष आया
कल्पना जी ने अपने प्रथम नवगीत संग्रह से अपने लेखन के प्रति आशा जगाई है।जंगल, हरियाली, बाग़-बगीचे, गुलमोहर, रातरानी, बेल, हरसिंगार, चंपा, बाँस, गुलकनेर, बसन्त, पंछी, कौआ, कोयल, सावन, फागुन, बरखा, मेघ, प्रात, दिन, सन्ध्या, धूप, शीत आदि के माध्यम से गीत-गीत में प्रकृति से साक्षात कराती यह कृति अधिक परिपक्व रचनाएँ समाहित किये है। मौसम के बदलते रंग जन-जीवन को प्रभावित करते हैं-
धड़क उठेंगी फिर से साँसें / ज्यों मौसम बदलेगा चोला
*
देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है
आधी उधड़ी ओढ़ रजाई / खींच-खींचकर नाप रही है
जर्जर गात, कुहासा कथरी / वेध रहा बनकर हथगोला
*
'बेबस कमली' की व्यथा-कथा कल्पना जी की रचना सामर्थ्य की बानगी है। एक दिन बिना नहाये काम पर जाने का दंड उससे काम छुड़ाकर दिया जाता है-
रूठी किस्मत, टूटी हिम्मत / ध्वस्त हुए कमली के ख्वाब
काम गया क्या दे पायेगी / बच्चों को वो सही जवाब?
लातों से अब होगी खिदमत / मुआ मरद है क्रूर / कसाई
*
हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू के कटघरों से मुक्त कल्पना जी कथ्य की आवश्यकतानुसार शब्दों का प्रयोग करती हैं।इन नवगीतों में जलावतन, वृंत, जर्जर, सन्निकट, वृद्धाश्रम, वसन, कन्दरा, आम्र, पीतवर्णी, स्पंदित, उद्घोष, मृदु, श्वेताभ जैसे तत्सम शब्द आखर, बतरस, बतियाते, चौरा, बिसरा, हुरियारों, पैंजन, ठेस, मारग, चौबारे, पुरवाई, अगवानी, सुमरन, जोगन आदि तद्भव शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले हैं तो खत, ज़िंदा, हलक, नज़ारा, आशियां, कारवां, खौफ, रहगुजर, क़ातिल, फ़क़ीर, इनायत, रसूल, खुशबू आदि उर्दू शब्द कोर्ट, डी जे, पास, इंजीनियर, डॉक्टर जैसे अंग्रेजी शब्दों के साथ आँख मिचौली खेल रहे हैं।
कल्पना जी परंपरा का अनुसरण करने के साथ-साथ नव भाषिक प्रयोग कर पाठकों-श्रोताओं का अभिव्यक्ति सामर्थ्य बढ़ाती हैं। सरसों की धड़कन, ओस चाटकर सोई बगिया, लातों से अब होगी खिदमत, मुआ मरद है क्रूर कसाई, ख़ौफ़ ही बेख़ौफ़ होकर अब विचरता जंगलों में, अंजुरी अनन्त की, देव! छोड़ दो अब तो होना / पल में माशा पल में तोला, उनके घर का नमक न खाना, लहरें आँख दिखाएँ तो भी / आँख मिला उन पर पग धरना, 'पल में माशा, पल में तोला' जैसे मुहावरे, 'घड़ा देखकर प्यासा कौआ / चला चोंच में पत्थर लेकर' जैसी बाल कथाएँ, गुणा-भाग, कर्म-कलम, छान-छप्पर, लेख-जोखा, बिगड़ते-बनते, जोड़-तोड़, रूखी-सूखी, हल-बैल-बक्खर, काया-कल्प, उमड़-घुमड़, गिल्ली-डंडा, सुख-दुःख, सूखे-भीगे, चाक-चौबंद, झील-ताल, तिल-गुड़, शिकवे-गिले, दान-पुण्य आदि शब्द युग्म तथा दिनकर दीदे फाड़ रहा, सून सकोरा, सूखी खुरचन, जूते चित्र बनाते आये, जोग न ले अमराई, घने पेड़ का छायाघर, सूरज ने अरजी लौटाई, अमराई को अमिय पिलाओ, घिरे अचानक श्याम घन घने, खोल गाँठें गुत्थियों की, तिल-तिल बढ़ता दिन बंजारा, खेतों ने खत लिखा, पालकी बसन्त की, दिन बसन्ती ख्वाब पाले, रात आई रातरानी ख्वाब पाले, गीत कोकिला गाती रहना, बेला महके कहाँ उगाऊँ हरसिंगार, गुलकनेर यादों में छाया, हमें बुलाते बाग़-बगीचे, धान की फसल पुकारे, कभी न होना धूमिल चंदा जैसे सरस प्रयोग मन में चाशनी सी घोल देते हैं।
'खेतों ने खत लिखा सूर्य को', 'नज़रें नूर बदन नूरानी', 'सर्प सारे सर उठा, अर्ध्य अर्पित अर्चना का', 'कन्दरा से कोकिला का मौन बोला', आदि में अनुप्रास की मोहक छटा यत्र-तत्र दर्शनीय है। 'देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है' में पुनरावृत्ति अलंकार, 'चाट गया जल जलता तापक', 'रात आई रातरानी' आदि में यमक अलंकार, 'कर्म कलम', 'दिन भट्टी' आदि में रूपक अलंकार हैं।
'एक मन्त्र दें वृक्षारोपण' कहते समय यह तथ्य अनदेखा हुआ है कि वृक्ष नहीं, पौधा रोपा जाता है। 'साथ चमकता पथ जब चलता' में तथ्य दोष है क्योंकि पथ नहीं पथिक चलता है। 'उगी पुनः नयी प्रभात' के स्थान पर 'उगा पुनः नया प्रभात' होना था। 'माँ होती हैं जाँ बच्चों की' के सन्दर्भ में स्मरणीय है कि किसी शब्द के अंत में 'न' आने पर एक मात्रा कम करने के लिए उसे पूर्व के दीर्घाक्षर में समाहित कर दीर्घाक्षर पर बिंदी लगाई जाती है। 'जान' के स्थान पर 'जां' होगा 'जाँ' नहीं।
हिंदी के आदि कवि अमीर खुसरो को प्रिय किंतु आजकल अल्प प्रचलित 'मुकरी' विधा की रचनाओं का नवगीत में होना असामान्य है। बेहतर होता कि समतुकांती मुकरियों का प्रयोग अंतरे के रूप में करते हुए कुछ नवगीत रचे जाते। ऐसा प्रयोग रोचक और विचारणीय होता।
नवगीत को लेकर कल्पना जी की संवेदनशीलता कुछ पंक्तियों में व्यक्त हुई है- 'दिनचर्या के गुणा-भाग से / रधिया ने नवगीत रचा', 'रच लो जीवन-गीत, कर्म की / कलम गहो हलधर', 'भाव, भाषा, छंद, रस-लय / साथ सब ये गीत माँगें', 'गीत सलोने बिखरे चारों ओर', 'गर्दिशों के भूलकर शिकवे-गिले / फिर उमंगों के / चलो नवगीत गायें'। नवगीत को सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं, त्रासदियों और टकरावों से उपजे दर्द, पीड़ा और हताश का पर्याय मानने-बतानेवाले साम्यवादी चिन्तन से जुड़े समीक्षकों को नवगीत के सम्बन्ध में कल्पना जी की सोच से असहमति और उनके नवगीतों को स्वीकारने में संकोच हो सकता है किन्तु इन्हीं तत्वों से सराबोर नयी कविता को जनगण द्वारा ठुकराया जाना और इन्हीं प्रगतिवादियों द्वारा गीत के मरण की घोषणा के बाद भी गीत की लोकप्रियता बढ़ती जाना सिद्ध करता है नवगीत के कथ्य और कहन के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे उद्भव कालीं दमघोंटू और सामाजिक बिखरावजनित मान्यताओं से मुक्त कर उत्सवधर्मी नवाशा से संयुक्त किया जाना समय की माँग है। इस संग्रह के गीत-नवगीत यह करने में समर्थ हैं।
'बाँस की कुर्सी', 'पालकी बसन्त की', दिन बसन्ती ख्वाबवाले', 'मन जोगी मत बन', 'कलम गहो हलधर' आदि गीत इस संग्रह की उपलब्धि हैं। सारत:, कल्पना जी के ये गीत अपनी मधुरता, सरसता, सामयिकता, सरलता और पर्यावरणीय चेतना के लिए पसंद किये जाएंगे। इन गीतों में स्थान-स्थान पर सटीक बिम्ब और प्रतीक अन्तर्निहित हैं। 'सर्प सारे सिर उठा चढ़ते गए / दबती रहीं ये सीढ़ियाँ', 'एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर', घने पेड़ के छाया घर में / आये आज शरण में इसकी / ज़ख़्मी जूते भर दुपहर में', दाहक रहे दिन भाटी बन / भून रहे बेख़ता प्राण-मन', 'बनी रहें इनायतें रसूल दानवन्त की / जमीं पे आई व्योम वेध पालकी बसन्त की', 'क्रूर मौसम के किले को तोड़कर फिर / लौट आये दिन बसन्ती ख्वाबवाले' जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक के साथ रह जाती हैं। कल्पना जी के मधुर गीत-नवगीत फिर-फिर पढ़ने की इच्छा शेष रह जाना और अतृप्ति की अनुभूति होना ही इस संग्रह की सफलता है।
***
पुस्तक सलिला
"रिश्ते बने रहें" पाठक से नवगीत के
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*�
[पुस्तक विवरण- रिश्ते बने रहें, गीत-नवगीत, योगेंद्र वर्मा 'व्योम', वर्ष २०१६ ISBN ९७८-९३-८०७५३-३१-७, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार डिमाई, पृष्ठ १०४, मूल्य २००/-, गुंजन प्रकाशन सी १३० हिमगिरि कॉलोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद २४४००१ गीतकार संपर्क- ए एल ४९ सचिन स्वीट्स क्व पीछे, दीनदयाल नगर प्रथम, कांठ रोड मुरादाबाद २४४००१ चलभाष ९४१२८०५९८१ ईमेल vyom70 @gmail.com]
*
समय के साथ सतत होते परिवर्तनों को सामयिक विसंगतियों और सामाजिक विडंबनाओं मात्र तक सीमित न रख, उत्सवधर्मिता और सहकारिता तक विस्तारित कर ईमानदार संवेदनशीलता सहित गति-यतिमय लयात्मत्कता से सुसज्ज कर नवगीत का रूप देनेवाले समर्थ नव हस्ताक्षरों में श्री योगेंद्र वर्मा 'व्योम' भी हैं। उनके लिए नवगीत रचना घर-आँगन की मिट्टी में उगनेवाले रिश्तों की मिठास को पल्लवित-पोषित करने की तरह है। व्योम जी कागज़ पर नवगीत नहीं लिखते, वे देश-काल को महसूसते हुए मन में उठ रहे विचारों साथ यात्राएँ कर अनुभूतियों को शब्दावरण पहना देते हैं और नवगीत हो जाता है।
कुछ यात्राएँ /बाहर हैं /कुछ मन के भीतर हैं
यात्राएँ तो / सब अनंत हैं / बस पड़ाव ही हैं
राह सुगम हो / पथरीली हो / बस तनाव ही हैं
किन्तु नयी आशाओंवाले / ताज़े अवसर हैं
गत सात दशकों से विसंगति और वैषम्यप्रधान विधा मानने की संकीर्ण सोच से हटकर व्योम जी के गीत मन के द्वार पर स्वप्न सजाते हैं, नई बहू के गृहप्रवेश पर बन्दनवार लगाते हैं, आँगन में सूख रही तुलसी की चिंता करते हैं, बच्चे को भविष्य के बारे में बताते हैं, तन के भीतर मन का गाँव बसाते हैं, पुरखों को याद कर ताज़गी अनुभव करते हैं, यही नहीं मोबाइल के युग में खत भी लिखते हैं।
मोबाइल से / बातें तो काफ़ी / हो जाती हैं
लेकिन शब्दों की / खुशबुएँ / कहाँ मिल पाती हैं?
थके-थके से / खट्टे-मीठे / बीते सत्र लिखूँ
कई दिनों से / सोच रहा हूँ , तुमको पत्र लिखूँ
निराशा और हताशा पर नवाशा को वरीयता देते ये नवगीत घुप्प अँधेरे में आशा- किरण जगाते हैं।
इस बच्चे को देखो / यह ही / नवयुग लाएगा
संबंधों में मौन / शिखर पर / बंद हुए संवाद
मौलिकता गुम हुई / कहीं, अब / हावी हैं अनुवाद
घुप्प अँधेरे में / आशा की / किरण जगाएगा
व्योम जी का कवि ज़िंदगी की धूप-छाँव, सुख-दुःख समभाव से देखता है। वे गली में पानी भरने से परेशान नहीं होते, उसका भी आनंद लेते हैं। उन्हें फिसलना-गिरना भी मन भाता है यूँ कहें कि उन्हें जीना आता है।
गली-मुहल्लों की / सड़कों पर / भरा हुआ पानी
चोक नालियों के / संग मिलकर / करता शैतानी
ऐसे में तो / वाहन भी / इतराकर चलते हैं...
... कभी फिसलना / कभी सँभलना / और कभी गिरना
पर कुछ को / अच्छा लगता है / बन जाना हिरना
उतार-चढ़ाव के बावज़ूद जीवन के प्रति यह सकारात्मक दृष्टि नवगीतों का वैशिष्ट्य है।व्योम जी का कवि अंधानुकरण में नहीं परिवर्तन हेतु प्रयासों में विश्वास करता है।
संबंधों सपनों / की सब /परिभाषाएँ बदलीं
तकनीकी युग में / सबकी / अभिलाषाएँ बदलीं
संस्कृति की मीनार / यहाँ पर / अनगिन बार ढही
विवेच्य संकलन के नवगीत विसंगतियों, त्रासदियों और विडंबनाओं की मिट्टी, खाद, पानी से परिवर्तन की उपज उगाते हैं। ये नवगीत काल्पनिक या अतिरेकी अभाव, दर्द, टकराव, शोषण, व्यथा, अश्रु और कराह के लिजलिजेपन से दूर रहकर शांत, सौम्य, मृदुभाषी हैं। वे हलाहल-पान कर अमृत लुटाने की विरासत के राजदूत हैं। उनके नवगीत गगनविहारी नहीं, धरती पर चलते-पलते, बोलते-मुस्काते हैं।
गीतों को / सशरीर बोलते-मुस्काते / देखा है मैंने / तुमने भी देखा?
साधक है वह / सिर्फ न कवि है / एक तपस्वी जैसी छवि है
शांत स्वभाव, / सौम्य मृदुभाषी / मुख पर प्रतिबिंबित ज्यों रवि है
सदा सादगी / संग ताज़गी को / गाते देखा है मैंने / तुमने भी देखा?
राजनैतिक स्वार्थ और वैयक्तिक अहं जनित सामाजिक टकरावों के होते हुए भी ये नवगीत स्नेह-सरसिज उगाने का दुस्साहस कर आर्तनादवादियों को चुनौती देते हैं।
इन विषमता के पलों में / स्वार्थ के इन मरुथलों में
नेह के सरसिज उगायें / हों सुगंधित सब दिशाएँ
भूमिका में श्री माहेश्वर तिवारी ठीक लिखते हैं कि इन नवगीतों की भाषा अपनी वस्तु-चेतना के अनुरूप सहज, सरल और बोधगम्य है। ये नवगीत बतियाहट से भरे हैं। मेरी दृष्टि में व्योम जी रचित ये नवगीत 'मुनिया ने / पीहर में / आना-जाना छोड़ दिया', ' दहशत है अजब सी / आज अपने गाँव में', 'अपठनीय हस्ताक्षर जैसे / कॉलोनी / के लोग', 'जीवन में हम / ग़ज़लों जैसा / होना भूल गए', 'उलझी / वर्ग पहेली जैसा / जीवन का हर पल', 'जीन्स-टॉप में / नई बहू ने / सबको चकित किया', 'संबंधों में मौन / शिखर पर / बंद हुए संवाद', 'गौरैया / अब नहीं दीखती / छतों-मुँडेरों पर', 'सुना आपने? / राजाजी दौरे पर आयेंगे / सुनहरे स्वप्न दिखायेंगे' जैसी विसंगतियों में जीने के बाद भी आम आदमी की आशा-विश्वास के साक्षी बने रह सके हैं। ये गीत नेता, पत्रकार, अधिकारी, मठाधीश या साहित्यकार नहीं माँ और पिता बने रह सके हैं। 'माँ का होना / मतलब दुनिया / भर का होना है' तथा 'याद पिता की / जगा रही है / सपनों में विश्वास'। नवगीत भली भाँति जानते, मानते और बताते हैं 'माँ को खोना / मतलब दुनिया / भर को खोना है' तथा 'जब तक पिता रहे / तब तक ही / घर में रही मिठास'।
अपनी थाती और विरासत के प्रति बढ़ते अविश्वास, सामाजिक टकराव राजनैतिक संकीर्णताओं के वर्तमान संक्रमण काल में व्योम जी के नवगीत सूर्य तरह प्रकाश और चंद्रमा की तरह उजास बिखरते रहें। उनके नवगीतों की आगामी मंजूषा से निकलने वाले नवगीत रत्नों की प्रतीक्षा होना स्वाभाविक है।
२३-८-२०१६
***
चित्र अलंकार :
हिंदी पिंगल ग्रंथों में चित्र अलंकार की चर्चा है जिसमें ध्वज, धनुष, पिरामिड आदि के शब्द चित्र की चर्चा। वर्तमान में इस अलंकार में लिखनेवाले अत्यल्प हैं। मेरा प्रयास ध्वज अलंकार :
भोर हुई
सूरज किरण
झाँक थपकती द्वार।
पुलकित सरगम गा रही
कलरव संग बयार।।
चलो
हम
ध्वज
फहरा
दें।
संग
जय
हिन्द
गुँजा
दें।
***
नवगीत:
*
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
कलम नहीं
पेडों की रहती
कभी पेड़ के साथ.
झाड़ न लेकिन
झुके-झुकाता
रोकर अपना माथ.
आजीवन फल-
फूल लुटाता
कभी न रोके हाथ
गम न करे
न कभी भटकता
थामे प्याला-साकी
मानव! क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
तिनके चुन-चुन
नीड बनाते
लाकर चुग्गा-दाना।
जिन्हें खिलाते
वे उड़ जाते
पंछी तजें न गाना।
आह न भरते
नहीं जानते
दुःख कर अश्रु बहाना
दोष नहीं
विधना को देते,
जियें ज़िंदगी बाकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
जैसा बोये
वैसा काटे
नादां मनुज अकेला
सुख दे, दुःख ले
जिया न जीवन
कह सम्बन्ध झमेला.
सीखा, नहीं सिखाया
पाया, नहीं
लुटाना जाना।
जोड़ा, काम न आया
आखिर छोड़ी
ताका-ताकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
***
याद आ रही है फ़िल्मी गीतों की कुछ पंक्तियाँ जिनका केंद्रीय विषय है आँख या आँख के पर्यायवाची शब्द नैन, नज़र,निगाह आदि. अन्य पाठक इसमें योगदान करें, गैर फ़िल्मी पंक्तियाँ भी दे सकते हैं. रचनाकार का नाम या अन्य जानकारियों का भी स्वागत है.
*
आँख:
भूल सकता है भला कौन ये प्यारी आँखें
रंज में डूबी हुई नींद से भारी आँखें
.
मेरी हर साँस ने, हर आस ने चाहा है तुम्हें
जब से देखा है तुम्हें तब से सराहा है तुम्हें
बस है गयी हैं मेरी आँखों में तुम्हारी आँखें
.
तुम जो नज़रों को उठाओ तो सितारे झुक जाएँ
तुम जो पलकों को झुकाओ तो ज़माने झुक जाएँ
क्यों न बन जाएँ इन आँखों की पुजारी आँखें
.
जागती रात को सपनों का खज़ाना मिल जाए
तुम जो मिल जाओ तो जीने का बहन मिल जाए
अपनी किस्मत पे करें नाज़ हमारी आँखें
***
आँखों-आँखों में बात होने दो
मुझको अपनी बाँहों में सोने दो
*
जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमें
राख के ढेर में शोला है, न चिंगारी है
*
उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता
जिस मुल्क की सरहद की निगहबान हैं आँखें
*
नैन:
सारंगा तेरी याद में नैन हुए बेचैन
मधुर तुम्हारे मिलन बिन दिन तरसेसे नहीं रैन
.
वो अम्बुआ का झूलना, वो पीपल छाँव
घूंघट में जब चाँद था, मेंहदी लगी थी पाँव
आज उजड़ कर रह गया, वो सपनों का गाँव
.
संग तुम्हारे दो घडी, बीत गए दो पल
जल भर कर मेरे नैन में, आज हुए ओझल
सुख लेकर दुःख दे गयीं दो अँखियाँ चंचल
***
हम तुम एक कमरे में बंद हों और चाबी खो जाए
तेरे नैनों की भूल-भुलैयाँ में बॉबी खो जाए
*
नज़र :
जाने कहाँ गए वो दिन कहते थे तेरी याद में
नज़रों को हम बिछायेंगे
चाहे कहीं भी तुम रही, चाहेंगे तुमको उम्र भर
तुमको न भूल पाएंगे
२३-८-२०१५
***
विमर्श- अनावश्यक कुप्रथा: वरमाल या जयमाल???
*
आजकल विवाह के पूर्व वर-वधु बड़ा हार पहनाते हैं। क्यों? इस समय वर के मिटे हुल्लड़ कर उसे उठा लेते हैं ताकि वधु माला न पहना सके। प्रत्युत्तर में वधु पक्ष भी यही प्रक्रिया दोहराता है।
दुष्परिणाम:
वहाँ उपस्थित सज्जन विवाह के समर्थक होते हैं और विवाह की साक्षी देने पधारते हैं तो वे बाधा क्यों उपस्थित करते हैं? इस कुप्रथा के दुपरिणाम देखने में आये हैं, वर या वधु आपाधापी में गिरकर घायल हुए तो रंग में भंग हो गया और चिकित्सा की व्यवस्था करनी पडी। सारा कार्यक्रम गड़बड़ा गया. इस प्रसंग में वधु को उठाते समय उसकी साज-सज्जा और वस्त्र अस्त-व्यस्त हो जाते हैं. कोई असामाजिक या दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति हो तो उसे छेड़-छाड़ का अवसर मिलता है. यह प्रक्रिया धार्मिक, सामाजिक या विधिक (कानूनी) किसी भी दृष्टि से अनिवार्य नहीं है.
औचित्य:
यदि जयमाल के तत्काल बाद वर-वधु में से किसी एक का निधन हो जाए या या किसी विवाद के कारण विवाह न हो सके तो क्या स्थिति होगी? सप्तपदी, सिंदूर दान या वचनों का आदान-प्रदान न हुआ तो क्या केवल माला को अदला-बदली को विवाह माना जाएगा?हिन्दू विवाह अधिनियम ऐसा नहीं मानता।ऐसी स्थिति में वधु को वर की पत्नी के अधिकार और कर्तव्य (चल-अचल संपत्ति पर अधिकार, अनुकम्पा नियुक्ति या पेंशन, वर का दूसरा विवाह हो तो उसकी संतान के पालन-पोषण का अधिकार) नहीं मिलते।सामाजिक रूप से भी उसे अविवाहित माना जाता है, विवाहित नहीं। धार्मिक दृष्टि से भी वरमाल को विवाह की पूर्ति अन्यथा बाद की प्रक्रियाओं का महत्त्व ही नहीं रहता।
कारण:
धर्म, समाज तथा विधि तीनों दृष्टियों से अनावश्यक इस प्रक्रिया का प्रचलन क्यों, कब और कैसे हुआ?
सर्वाधिक लोकप्रिय राम-सीता जयमाल प्रसंग का उल्लेख राम-सीता के जीवनकाल में रचित वाल्मीकि रामायण में नहीं है. रामचरित मानस में तुलसीदास प्रसंग का मनोहारी चित्रण किया है। तभी श्री राम के ३ भाइयों के विवाह सीता जी की ३ बहनों के साथ संपन्न हुए किन्तु उनकी जयमाल का वर्णन नही है।
श्री कृष्ण के काल में द्रौपदी स्वयंवर में ब्राम्हण वेषधारी अर्जुन ने मत्स्य वेध किया। जिसके बाद द्रौपदी ने उन्हें जयमाल पहनायी किन्तु वह ५ पांडवों की पत्नी हुईं अर्थात जयमाल न पहननेवाले अर्जुन के ४ भाई भी द्रौपदी के पति हुए। स्पष्ट है कि जयमाल और विवाह का कोई सम्बन्ध नहीं है। रुक्मिणी का श्रीकृष्ण ने और सुभद्रा का अर्जुन के पूर्व अपहरण कर लिया था। जायमाला कैसी होती?
ऐतिहासिक प्रसंगों में पृथ्वीराज चौहा और संयोगिता का प्रसंग उल्लेखनीय है। पृथ्वीराज चौहान और जयचंद रिश्तेदार होते हुए भी एक दूसरे के शत्रु थे। जयचंद की पुत्री संयोगिता के स्वयंवर के समय पृथ्वीराज द्वारपाल का वेश बनाकर खड़े हो गये। संयोगिता जयमाल लेकर आयी तो आमंत्रित राजाओं को छोड़कर पृथ्वीराज के गले में माल पहना दी और पृथ्वीराज चौहान संयोगिता को लेकर भाग गये। इस प्रसंग से बढ़ी शत्रुता ने जयचंद के हाथों गजनी के मो. गोरी को भारत आक्रमण के लिए प्रेरित कराया, पृथ्वीराज चौहान पराजितकर बंदी बनाये गये, देश गुलाम हुआ।
स्पष्ट है कि जब विवाहेच्छुक राजाओं में से कोई एक अन्य को हराकर अथवा निर्धारित शर्त पूरी कर वधु को जीतता था तभी जयमाल होता था अन्यथा नहीं।
मनमानी व्याख्या:
तुलसी ने राम को मर्यादपुषोत्तम मुग़लों द्वारा उत्साह जगाने के लिए कई प्रसंगों की रचना की। प्रवचन कारों ने प्रमाणिकता का विचार किये बिना उनकी चमत्कारपूर्ण सरस व्याख्याएँ चढ़ोत्री बढ़े। वरमाल तब भी विवाह का अनिवार्य अंग नहीं थी। तब भी केवल वधु ही वर को माला पहनाती थी, वर द्वारा वधु को माला नहीं पहनायी जाती थी। यह प्रचलन रामलीलाओं से प्रारम्भ हुआ। वहां भी सीता की वरमाला को स्वीकारने के लिये उनसे लम्बे राम अपना मस्तक शालीनता के साथ नीचे करते हैं। कोई उन्हें ऊपर नहीं उठाता, न ही वे सर ऊँचा रखकर सीता को उचकाने के लिए विवश करते हैं।
कुप्रथा बंद हो:
जयमाला वधु द्वारा वर डाली जाने के कारण वरमाला कही जाने लगी। रामलीलाओं में जान-मन-रंजन के लिये और सीता को जगजननी बताने के लिये उनके गले में राम द्वारा माला पहनवा दी गयी किन्तु यह धार्मिक रीति न थी, न है। आज के प्रसंग में विचार करें तो विवाह अत्यधिक अपव्ययी और दिखावे के आयोजन हो गए हैं। दोनों पक्ष वर्षों की बचत खर्च कर अथवा क़र्ज़ लेकर यह तड़क-भड़क करते हैं। हार भी कई सौ से कई हजार रुपयों के आते हैं। मंच, उजाला, ध्वनिविस्तारक सैकड़ों कुसियों और शामियाना तथा सैकड़ों चित्र खींचना, वीडियो बनाना आदि पर बड़ी राशि खर्चकर एक माला पहनाई जाना हास्यास्पद नहीं तो और क्या है?
इस कुप्रथा का दूसरा पहलू यह है की लाघग सभी स्थानीयजन तुरंत बाद भोजन कर चले जाते हैं जिससे वे न तो विवाह सम्बन्ध के साक्षी बन पते हैं, न वर-वधु को आशीष दे हैं, न व्धु को मिला स्त्रीधन पाते हैं। उन्हें के २ कारण विवाह का साक्षी बनना तथा विवाह पश्चात नव दम्पति को आशीष देना ही होते हैं। जयमाला के तुरंत बाद चलेजाने पर ये उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाते। अतः, विवेकशीलता की मांग है की जयमाला की कुप्रथा का त्याग किया जाए। नारी समानता के पक्षधर वर द्वारा वधु को जीतने के चिन्ह रूप में जयमाला को कैसे स्वीकार सकते हैं? इसी कारण विवाह पश्चात वार वधु से समानता का व्यवहार न कर उसे अपनी अर्धांगिनी नहीं अनुगामिनी और आज्ञानुवर्ती मानता है। यह प्रथा नारी समानता और नारी सम्मान के विपरीत और अपव्यय है। इसे तत्काल बंद किया जाना उचित होगा।
२३-८-२०१४
***
सामयिक व्यंग्य कविता:
दवा और दाम
*
देव! कभी बीमार न करना...
*
यह दुनिया है विकट पहेली.
बाधाओं की साँस सहेली.
रहती है गंभीर अधिकतर-
कभी-कभी करती अठखेली.
मुश्किल बहुत ज़िंदगी लेकिन-
सहज हुआ जीते जी मरना...
*
मर्ज़ दिए तो दवा बनाई.
माना भेजे डॉक्टर भाई.
यह भी तो मानो हे मौला!
रूपया आज हो गया पाई.
थैले में रुपये ले जाएँ-
दवा पड़े जेबों में भरना...
*
तगड़ी फीस कहाँ से लाऊँ?
कैसे मँहगे टेस्ट कराऊँ??
ओपरेशन फी जान निकले-
ब्रांडेड दवा नहीं खा पाऊँ.
रोग न हो परिवार में कोई-
सबको पड़े रोग से डरना...
२२-८-२०१२
*

मंगलवार, 22 अगस्त 2023

मुक्तिका, नवगीत, मुक्तक, चिरैया, बघेली मुक्तिका, गणपति बब्बा, रक्षाबंधन, सॉनेट

सॉनेट
असमंजस
मैं इधर जाऊँ,
तो सफल होऊँ,
या उधर जाऊँ,
तो विफल होऊँ?

हूँ खड़ा ठिठका,
पंथ ही न पता,
भूल से भटका,
बोलिए न खता।

राह खुद न मिली,
जो कदम न बढ़ा,
न कली ही खिली,
बीज घर न उगा।

छोड़ असमंजस,
यह न जस का तस।
२२-८-२०२३
•••
विशेष आलेख-
रक्षाबंधन : कल, आज और कल
*
भारतीय लोक मनीषा उत्सवधर्मी है। ऋतु परिवर्तन, पवित्र तिथियों-मुहूर्तों, महापुरुषों की जयंतियों आदि प्रसंगों को त्यौहारों के रूप में मनाकर लोक मानस अभाव पर भाव का जयघोष करता है। ग्राम्य प्रथाएँ और परंपराएँ प्रकृति तथा मानव के मध्य स्नेह-सौख्य सेतु स्थापना का कार्य करती हैं। नागरजन अपनी व्यस्तता और समृद्धता के बाद भी लोक मंगल पर्वों से संयुक्त रहे आते हैं। हमारा धार्मिक साहित्य इतिहास, धर्म, दर्शन और सामाजिक मूल्यों का मिश्रण है। विविध कथा प्रसंगों के माध्यम से सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों के नियमन का कार्य पुराणादि ग्रंथ करते हैं। श्रावण माह में त्योहारों की निरंतरता जन-जीवन में उत्साह का संचार करती है। रक्षाबंधन, कजलियाँ और भाईदूज के पर्व भारतीय नैतिक मूल्यों और पावन पारिवारिक संबंधों की अनूठी मिसाल हैं।
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम, झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह, एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह, मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं, भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
(विजया घनाक्षरी)
रक्षा बंधन क्यों ?
स्कंदपुराण, पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत में वामनावतार प्रसंग के अनुसार दानवेन्द्र राजा बलि का अहंकार मिटाकर उसे जनसेवा के सत्पथ पर लाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन रूप धारणकर भिक्षा में ३ पग धरती माँगकर तीन पगों में तीनों लोकों को नाप लिया तथा उसके मस्तक पर चरणस्पर्श कर उसे रसातल भेज दिया। बलि ने भगवान से सदा अपने समक्ष रहने का वर माँगा। नारद के सुझाये अनुसार इस दिन लक्ष्मी जी ने बलि को रक्षासूत्र बाँधकर भाई माना तथा विष्णु जी को वापिस प्राप्त किया।
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का, तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई, हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया, हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ, हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
(कलाधर घनाक्षरी)
भवन विष्णु के छल को पहचान कर असुर गुरु शुक्राचार्य ने शिष्य बलि को सचेत करते हुए वामन को दान न देने के लिए चेताया पर बलि न माना। यह देख शुक्राचार्य सक्षम रूप धारणकर जल कलश की टोंटी में प्रवाह विरुद्ध कर छिप गए ताकि जल के बिना भू दान का संकल्प पूरा न हो सके। इसे विष्णु ने भाँप लिया। उनहोंने कलश की टोंटी में एक सींक घुसेड़ दी जिससे शुक्राचार्य की एक आँख फुट गयी और वे भाग खड़े हुए-
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने, एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली, हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये, शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े, साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
(कलाधर)
भविष्योत्तर पुराण के अनुसार देव-दानव युद्ध में इंद्र की पराजय सन्निकट देख उसकी पत्नी शशिकला (इन्द्राणी) ने तपकर प्राप्त रक्षासूत्र श्रवण पूर्णिमा को इंद्र की कलाई में बाँधकर उसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि वह विजय प्राप्त कर सका।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'मयि सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव' अर्थात जिस प्रकार सूत्र बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर माला के रूप में एक बनाये रखता है उसी तरह रक्षासूत्र लोगों को जोड़े रखता है। प्रसंगानुसार विश्व में जब-जब नैतिक मूल्यों पर संकट आता है भगवान शिव प्रजापिता ब्रम्हा द्वारा पवित्र धागे भेजते हैं जिन्हें बाँधकर बहिने भाइयों को दुःख-पीड़ा से मुक्ति दिलाती हैं। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध में विजय हेतु युधिष्ठिर को सेना सहित रक्षाबंधन पर्व मनाने का निर्देश दिया था।
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी, कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका, बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी, आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें, बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
(कलाधर घनाक्षरी)
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहा जाता है तथा यजुर्वेदी विप्रों का उपकर्म (उत्सर्जन, स्नान, ऋषितर्पण आदि के पश्चात नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।) राजस्थान में रामराखी (लालडोरे पर पीले फुंदने लगा सूत्र) भगवान को, चूड़ाराखी (भाभियों को चूड़ी में) या लांबा (भाई की कलाई में) बाँधने की प्रथा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में बहनें शुभ मुहूर्त में भाई-भाभी को तिलक लगाकर राखी बाँधकर मिठाई खिलाती तथा उपहार प्राप्त कर आशीष देती हैं।महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा कहा जाता है। इस दिन समुद्र, नदी तालाब आदि में स्नान कर जनेऊ बदलकर वरुणदेव को श्रीफल (नारियल) अर्पित किया जाता है। उड़ीसा, तमिलनाडु व् केरल में यह अवनिअवित्तम कहा जाता है। जलस्रोत में स्नानकर यज्ञोपवीत परिवर्तन व ऋषि का तर्पण किया जाता है।
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये, स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें, कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व, निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो, धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
(कलाधर घनाक्षरी)
रक्षा बंधन से जुड़ा हुआ एक ऐतिहासिक प्रसंग भी है। राजस्थान की वीरांगना रानी कर्मावती ने राज्य को यवन शत्रुओं से बचने के लिए मुग़ल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजी थी। राखी पाते ही हुमायूँ ने अपना कार्य छोड़कर बहिन कर्मवती की रक्षा के लिए प्रस्थान किया। विधि की विडंबना यह कि हुमायूँ के पहुँच पाने के पूर्व ही कर्मावती ने जौहर कर लिया, तब हुमायूँ ने कर्मवती के शत्रुओं का नाश किया।
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी, शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी, शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी, बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया, नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
(कलाधर घनाक्षरी )
रक्षा बंधन के दिन बहिन भाई के मस्तक पर कुंकुम, अक्षत के तिलक कर उसके दीर्घायु और समृद्ध होने की कामना करती है। भाई बहिन को स्नेहोपहारों से संतुष्ट कर, उसकी रक्षा करने का वचन देकर उसका आशीष पाता है।
कजलियाँ
कजलियां मुख्‍यरूप से बुंदेलखंड में रक्षाबंधन के दूसरे दिन की जाने वाली एक परंपरा है जिसमें नाग पंचमी के दूसरे दिन खेतों से लाई गई मिट्टी को बर्तनों में भरकर उसमें गेहूं बो दिये जाते हैं और उन गेंहू के बीजों में रक्षाबंंधन के दिन तक गोबर की खाद् और पानी दिया जाता है और देखभाल की जाती है, जब ये गेंहू के छोटे-छोटे पौधे उग आते हैं तो इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इस बार फसल कैसी होगी, गेंहू के इन छोटे-छोटे पौधों को कजलियां कहते हैं। कजलियां वाले दिन घर की लड़कियों द्वारा कजलियां के कोमल पत्‍ते तोडकर घर के पुरूषों के कानों के ऊपर लगाया जाता है, जिससे लिये पुरूषों द्वारा शगुन के तौर पर लड़कियों को रूपये भी दिये जाते हैं। इस पर्व में कजलिया लगाकर लोग एक दूसरे की शुभकामनाये के रूप कामना करते है कि सब लोग कजलिया की तरह खुश और धन धान्य से भरपूर रहे इसी लिए यह पर्व सुख समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
भाई दूज
कजलियों के अगले दिन भाई दूज पर बहिनें गोबर से लोककला की आकृतियाँ बनाती हैं। भटकटैया के काँटों को मूसल से कूट-कूटकर भाई के संकट दूर होने की प्रार्थना करती हैं। नागपंचमी, राखी, कजलियाँ और भाई दूज के पर्व चतुष्टय भारतीय लोकमानस में पारिवारिक संबंधों की पवित्रता और प्रकृति से जुड़ाव के प्रतीक हैं। पाश्चात्य मूल्यों के दुष्प्रभाव के कारण नई पीढ़ी भले ही इनसे कम जुड़ पा रही है पर ग्रामीणजन और पुरानी पीढ़ी इनके महत्व से पूरी तरह परिचित है और आज भी इन त्योहारों को मनाकर नव स्फूर्ति प्राप्त करती है।
***
***
बघेली मुक्तिका
गणपति बब्बा
*
रात-रात भर भजन सुनाएन गणपति बब्बा
मंदिर जाएन, दरसन पाएन गणपति बब्बा
कोरोना राच्छस के मारे, बंदी घर मा
खम्हा-दुअरा लड़ दुबराएन गणपति बब्बा
भूख-गरीबी बेकारी बरखा के मारे
देहरी-चौखट छत बिदराएन गणपति बब्बा
छुटकी पोथी अउर पहाड़ा घोट्टा मारिन
फीस बिना रो नाम कटाएन गणपति बब्बा
एक-दूसरे का मुँह देखि, चुरा रए अँखियाँ
कुठला-कुठली गाल फुलाएन गणपति बब्बा
माटी रांध बनाएन मूरत फूल न बाती
आँसू मोदक भोग लगाएन गणपति बब्बा
चुटकी भर परसाद मिलिस बबुआ मुसकाएन
केतना मीठ सपन दिखराएन गणपति बब्बा
२२-८-२०२०
***
चिरैया!
आ, चहचहा
*
द्वार सूना
टेरता है।
राह तोता
हेरता है।
बाज कपटी
ताक नभ से-
डाल फंदा
घेरता है।
सँभलकर चल
लगा पाए,
ना जमाना
कहकहा।
चिरैया!
आ, चहचहा
*
चिरैया
माँ की निशानी
चिरैया
माँ की कहानी
कह रही
बदले समय में
चिरैया
कर निगहबानी
मनो रमा है
मन हमेशा
याद सिरहाने
तहा
चिरैया!
आ चहचहा
*
तौल री पर
हारना मत।
हौसलों को
मारना मत।
मत ठिठकना,
मत बहकना-
ख्वाब अपने
गाड़ना मत।
ज्योत्सना
सँग महमहा
चिरैया!
आ, चहचहा
२१-८-२०१९
***
नवगीत
*
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
संविधान कर प्रावधान
जो देता, लेता छीन
सर्वशक्ति संपन्न जनता
केवल बेबस-दीन
नाग-साँप-बिच्छू चुनाव लड़
बाँट-फूट डालें
विजयी हों, मिल जन-धन लूटें
जन-गण हो निर्धन
लोकतंत्र का पोस्टर करती
राजनीति बदरंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
आश्वासन दें, जीतें चुनाव, कह
जुमला जाते भूल
कहें गरीबी पर गरीब को
मिटा, करें निर्मूल
खुद की मूरत लगा पहनते,
पहनाते खुद हार
लूट-खसोट करें व्यापारी
अधिकारी बटमार
भीख , पा पुरस्कार
लौटा करते हुड़दंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
गौरक्षा का नाम, स्वार्थ ही
साध रहे हैं खूब
कब्ज़ा शिक्षा-संस्थान पर
कर शराब में डूब
दुश्मन के झंडे लहराते
दें सेना को दोष
बिन मेहनत पा सकें न रोटी
तब आएगा होश
जनगण जागे, गलत दिखे जो
करे उसी से जंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
***
मुक्तक
राकेशी चंदनी चाँदनी, बिम्बित हुई सलिल में जब-जब
श्री प्रकाश महिमा सुरेंद्र सँग, निरख गए आकर महेश तब
कुसुम-सुमन की गीत-अंजुरी, पिंगल नाग सुने हर्षाए
बरसाए अमृत धरती पर, गगन-मेघ हँस बलि-बलि जाए
२२-८-२०१६
***
नवगीत:
*
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
कलम नहीं
पेडों की रहती
कभी पेड़ के साथ.
झाड़ न लेकिन
झुके-झुकाता
रोकर अपना माथ.
आजीवन फल-
फूल लुटाता
कभी न रोके हाथ
गम न करे
न कभी भटकता
थामे प्याला-साकी
मानव! क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
तिनके चुन-चुन
नीड बनाते
लाकर चुग्गा-दाना।
जिन्हें खिलाते
वे उड़ जाते
पंछी तजें न गाना।
आह न भरते
नहीं जानते
दुःख कर अश्रु बहाना
दोष नहीं
विधना को देते,
जियें ज़िंदगी बाकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
जैसा बोये
वैसा काटे
नादां मनुज अकेला
सुख दे, दुःख ले
जिया न जीवन
कह सम्बन्ध झमेला.
सीखा, नहीं सिखाया
पाया, नहीं
लुटाना जाना।
जोड़ा, काम न आया
आखिर छोड़ी
ताका-ताकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
***
कविता
*
मात्र कर्म अधिकार है'
बता गये हैं ईश।
मर्म कर्म का चाहकर
बूझ न सके मनीष।
'जब आये संतोष धन
सब धन धूरि समान'
अगर सत्य तो कर्म क्यों
करे कहें इंसान?
कर्म करें तो मिलेगा
निश्चय ही परिणाम।
निष्फल कर्म न वरेगा
कोई भी प्रतिमान।
धर्म कर्म है अगर तो
जो न कर रहे कर्म
जीभर भरते पेट नित
आजीवन बेशर्म
क्यों न उन्हें दंडित करे
धर्म, समाज, विधान?
पूजक, अफसर, सेठ या
नेता दुर्गुणवान।
श्रम उत्पादक हो तभी
देश बने संपन्न।
अनुत्पादक श्रम अगर
होगा देश विपन्न।
जो जितना पैदा करे
खर्च करे कम मीत
तभी जुड़े कुछ, विपद में
उपयोगी हो, रीत।
हर जन हो निष्काम तो
निकल जाएगी जान
रहे सकाम बढ़े तभी
जीवन ले सच मान।
***
मुक्तिका:
*
तन माटी सा, मन सोना हो
नभ चादर, धरा बिछौना हो
साँसों की बहू नवेली का
आसों के वर सँग गौना हो
पछुआ लय, रस पुरवैया हो
मलयानिल छंद सलोना हो
खुशियाँ सरसों फूलें बरसों
मृग गीत, मुक्तिका छौना हो
मधुबन में कवि मन झूम उठे
करतल ध्वनि जादू-टोना हो
२२-८-२०१५
*