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शनिवार, 23 मार्च 2013

धरोहर: ब्राह्म मुहूर्त:स्वस्ति वाचन अज्ञेय

धरोहर:
ब्राह्म मुहूर्त:स्वस्ति वाचन अज्ञेय
 *

जिओ उस प्यार में
जो मैंने तुम्हे दिया है,
उस दुःख में नहीं, जिसे
बेझिझक मैंने पिया है|
उस गान में जिओ
जो मैंने तुम्हे सुनाया है,
उस आह में नहीं, जिसे
मैनें तुमसे छिपाया है|
वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगा;
वो कांटे गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ, चुनूँगा|
सागर के किनारे तुम्हे पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो,
फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,
सोन तरी हो, अरुण सवेरा हो,
वो सब ओ मेरे वर्य! ( श्रेष्ठ )
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो|

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

hindi kavita manoshi chatterji

कविता 
मानोशी चटर्जी
* 
मैं जब शाख़ पर घर बसाने की बात करती हूँ  
पसंद नहीं आती 
उसे मेरी वह बात, 
जब आकाश में फैले   
धूप को बाँधने के स्वप्न देखती हूँ,  
तो बादलों का भय दिखा जाता है वह,  
उड़ने की ख़्वाहिश से पहले ही   
वह चुन-चुन कर मेरे पंख गिनता है,  
धरती पर भी दौड़ने को मापता है पग-पग,  
और फिर जब मैं भागती हूँ,  
तो पीछे से आवाज़ देता है,  
मगर मैं नहीं सुनती  
और अकेले जूझती हूँ...  
पहनती हूँ दोष,  
ओढ़ती हूँ गालियाँ,  
और फिर भी सर ऊँचा कर  
खु़द को पहचानने की कोशिश करती हूँ  
क्या वही हूँ मैं?   
चट्टान, पत्थर, दीवार ...  
अब कुछ असर नहीं करता...  
मगर मैंने तय किये हैं रास्ते  
पाई है मंज़िल  
जहाँ मैं उड़ सकती हूँ,   
शाख़ पर घर बसाया है मैंने  
और धूप मेरी मुट्ठी में है...  
Manoshi Chatterjee <cmanoshi@gmail.com>


मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

आभार: संजीव 'सलिल

एक रचना:

आभार:

संजीव 'सलिल
*
माननीय राकेश जी और ई-कविता परिवार को सादर
*
शत वंदन करता सलिल, विनत झुकाए शीश.
ई कविता से मिल सके, सदा-सदा आशीष..

यही विनय है दैव से, रहे न अंतर लेश.
सलिल धन्य प्रतिबिम्ब पा, प्रतिबिंबित राकेश..

शार्दूला-मैत्रेयी जी, सदय रहीं, हूँ धन्य.
कुसुम-कृपा आशा-किरण, सुख पा सका अनन्य..

श्री प्रकाश से ॐ तक, प्रणव दिखाए राह.
ललित-सुमन सज्जन-अचल, कौन गह सके थाह..

शीश रखे अरविन्द को, दें महेश संतोष.
'सलिल' करे घनश्याम का, हँस वन्दन-जयघोष..

ममता अमिता अमित सँग, खलिश रखें सिर-हाथ.
भूटानी-महिपाल जी, मुझ अनाथ के नाथ..

दे-पाया अनुराग जो, जीवन का पाथेय.
दीप्तिमान अरविन्द जी, हो अज्ञेयित ज्ञेय..

कविता सविता सम 'सलिल',  तम हर भरे उजास.
फागुन की ऊष्मा सुखद, हरे शीत का त्रास..

बासंती मनुहार है, जुड़ें रहें हृद-तार.
धूप-छाँव में सँग हो, कविता बन गलहार..

मंदबुद्धि है 'सलिल' पर, पा विज्ञों का सँग.
ढाई आखर पढ़ सके, दें वरदान अभंग..

ज्यों की त्यों चादर रहे, ई-कविता के साथ.
शत-शत वन्दन कर 'सलिल', जोड़े दोनों हाथ..

***
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 9 जनवरी 2013

दो कवितायेँ: पंखुरी सिन्हा

दो कवितायेँ:
पंखुरी सिन्हा
 ***
1. सवाल का हल
जो हल कर रही हो तुम,
वो सवाल नहीं है,
सवाल ये नहीं है,
कि मेरे तुम्हारे बीच क्या है,
कितना प्यार, कितनी नफरत,
आक्रोश कितना, गणित कितना,
सवाल ये है कि वो लोग कहाँ हैं,
हमारे कितने दूर, कितने पास,
जो तय कर रहे हैं,
कि हमारे बीच क्या हो,
क्या ये सच नहीं है?
कि वो आसपास हैं,
करीब हमारे?
*
2. पश्चिम की ओर की खिड़की
प्राकृतिक विपदायों की त्रासदी थी,
कोई उनकी लगाम बनाकर,
कर रहा था शासन,
दूर और पास,
किन्ही ख़ास ज़िन्दिगों पर,
और उसे जैसे हर रात ये लगता रहा था,
कि एक खिड़की खुली छूट गयी है,
और घर लौटकर बंद करना है उसे।
-------------

बुधवार, 22 अगस्त 2012

कविता: तुम, मेरी देवी -- विजय निकोर

कविता:
 

                               तुम, मेरी देवी
 
                               -- विजय निकोर
 
                                            
                    
 
 
 
 
 
 
 
 
 
भोर की अप्रतिम ओस में धुली
                    निर्मल, निष्पाप
                    प्रभात की हँसी-सी
                                        खिलखिला उठती,
                    कभी  दोपहर  की  ऊष्मा ओढ़े
                    फिर पीली शाम-सी सरकती
                    तुम्हारी याद
                    रात के अँधेरे में घुल जाती है ।
                    निद्राविहीन  कँटीले पहरों में
                    अपने सारे रंग
                    मुझमें निचोड़ जाती है,
                    और एक और भोर के आते ही
                    कुंकुम किरणों का  घूँघट ओढ़े
                    शर्मीली-सी लौट आती है फिर ।
                    
                    कन्हैया  की वंशी-धुन में समायी
                    वसन्त पंचमी की पूजा में सरस्वती बनी,
                    शंभुगिरि के शिख़र पर पार्वती-सी,
                    मेरे लिये 
                    तुम वीणा में अंतर्निहित स्वर मधुर हो ।
                    हर आराधना में तुम्हारा
                                               विमल नाम अधर पर,
                    मेरी अंतर्भावना में मुझे तो लगता है
                    पिघलते हिमालय के शोभान्वित शिख़र से
                    पावन गंगा बनी
                                        तुम धरती पर उतर आयी हो ।
 
                           
 
                                           ------
                         vijay <vijay2@comcast.net>                                              
  ११ जुलाई, २०१०

शनिवार, 21 जनवरी 2012

मैं सन्‌ ३६ की दिल्ली में - राजेन्द्र उपाध्याय

मैं सन्‌ ३६ की दिल्ली में- राजेन्द्र उपाध्याय
 
ऐसे समय जब सब क्रांतिकारी कवि
विदूषकों के हाथों पुरस्कृत हो रहे हैं
मैं सन्‌ ३६ की दिल्ली में जाना चाहता हूँ
जब पहली बार प्रेमचन्द जैनेन्द्र से मिलने दिल्ली आए थे
और दरियागंज के एक पुराने मकान में ठहरे थे।
मैं वहीं तंग सीढ़ियाँ चढ कर उपन्यास सम्राट के पांव छूना चाहता हूँ।
 
मैं जैनेन्द्र और प्रेमचन्द के साथ तांगे में बैठकर
कुतुबमीनार जाना चाहता हूँ।
मैं इन दोनों थके हुए बूढ़ों को कुतुबमीनार की सबसे ऊंची मंजिल पर
ले जाकर दुनिया दिखाना चाहता हूँ।
मैं इनसे कहूँगा तुम्हारे चढ़ने से ये मीनार छोटी नहीं होगी
चढ़ों तुम चढ़ों इस पर
गर्व को इसके चूर करो
बताओ कि तुम्हारा लिखा इससे भी बड़ा है
तुम्हारे लिखे पर कभी जंग नहीं लगेगी
जबकि विदूषक के हाथों पुरस्कृत होने वाले क्रांतिकारी कवि की सारी रचनाएं
एक दिन कबाड़ी भी ले जाने से इंकार देगा।
 
मैं कैप्टन वात्स्यायन के साथ पूर्वोत्तर की पहाड़ियाँ
रौंदना चाहता हूँ ट्रक में उनकी बगल में बैठकर
मैं उनके साथ चिरगांव जाना चाहता हूँ
देखना चाहता हूँ राष्ट्रकवि कैसे पैर छूते हैं अपने से काफी छोटे युवा कवि के।
मैं शमशेर के 'जस्टफिट'  में काली चाय पीना चाहता हूँ
केदार को अदालत में वकालत करते देखना चाहता हूँ
मैं सुभद्रा के हाथ के दालचावल खाना चाहता हूँ
मैं नागार्जुन के साथ बैलगाड़ी में बिहार के एक पिछड़े गांव में
कानी कुतिया के पास जाना चाहता हूँ।
मैं बच्चन की साईकिल पर पीछे बैठकर इलाहाबाद के अमरूद खाना चाहता हूँ।
 
मैं सुनना चाहता हूँ टेलिफोन पर नवीन की वो आवाज
जिसमें उन्होंने इंदिरा से कहा था
मुझे तुमसे नहीं तुम्हारे बाप से बात करनी है।
 
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शनिवार, 30 जुलाई 2011

लेखमाला: जगवाणी हिंदी का वैशिष्ट्य छंद और छंद विधान - आचार्य संजीव वर्मा सलिल

ः लेखमाला:

                                 जगवाणी हिंदी का वैशिऽष्टय् छंद और छंद विधान: 1
                                                         आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

          वेद को सकल विद्याओं का मूल माना गया है । वेद के 6 अंगों 1. छंद, 2. कल्प, 3. ज्योतिऽष , 4. निरुक्त, 5. शिक्षा तथा 6. व्याकरण में छंद का प्रमुख स्थान है ।

                            छंदः पादौतु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते ।                                                         

                              ज्योतिऽषामयनं नेत्रं निरुक्तं श्रोत्र मुच्यते ।।
                               शिक्षा  घ्राणंतुवेदस्य  मुखंव्याकरणंस्मृतं ।                                                           
                           तस्मात्  सांगमधीत्यैव  ब्रम्हलोके  महीतले ।।

           वेद का चरण होने के कारण छंद पूज्य है । छंदशास्त्र का ज्ञान न होने पर मनुष्य पंगुवत है, वह न तो काव्य की यथार्थ गति समझ सकता है न ही शुद्ध रीति से काव्य रच सकता है । छंदशास्त्र को आदिप्रणेता महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल तथा पर्यायवाची शब्दों सर्प, फणि, अहि, भुजंग आदि नामों से संबोधित कर शेषावतार माना जाता है । जटिल से जटिल विषय छंदबद्ध होने पर सहजता से कंठस्थ ही नहीं हो जाता, आनंद भी देता है ।

                                      नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा ।
                                     कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ।।

           अर्थात संसार में नर तन दुर्लभ है, विद्या अधिक दुर्लभ, काव्य रचना और अधिक दुर्लभ तथा सुकाव्य-सृजन की शक्ति दुर्लभतम है । काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है । 

                                  काव्यशास्त्रेण विनोदेन कालो गच्छति धीमताम ।
                                        व्यसने नच मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ।।

           विश्व की किसी भी भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित है । प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम होने के कारण काव्य-सृजन केवल कवित्व शक्ति संपन्न प्रतिभावान महानुभावों द्वारा किया जाता था जो श्रवण परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर अपने सृजन में यथावत अभिव्यक्त कर पाते थे । वर्तमान काल में शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने तथा भाषा या काव्यशास्त्र से आजीविका के साधन न मिलने के कारण सामान्यतः अध्ययन काल में इनकी उपेक्षा की जाती है तथा कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण- पिंगल समझे बिना छंदहीन तथा दोषपूर्ण काव्य रचनाकर आत्मतुष्टि पाल ली जाती है जिसका दुष्परिणाम आमजनों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में दृष्टव्य है । काव्य के तत्वों रस, छंद, अलंकार आदि से संबंधित सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित भाषा / बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के  वर्तमान रूप से परिचित छात्र पूरी तरह समझ नहीं पाते । प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलन ने हिंदी की समझ और घटायी है । 

छंद विषयक चर्चा के पूर्व हिंदी भाषा की आरंभिक जानकारी दोहरा लेना लाभप्रद होगा ।      
भाषा :
            अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।

                                      चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप
                                       भाषा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप।।


            भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।

                                        निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
                                      भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द


व्याकरण ( ग्रामर ) -

            व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि, शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है।

वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार
।।

वर्ण / अक्षर :

            वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।


अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।

स्वर ( वोवेल्स ) :

             स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं।


अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।

व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

           व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।


भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।

शब्द :

                                            अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ

मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।

            अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है। शब्द के निम्न प्रकार हैं-
१. अर्थ की दृष्टि से :

सार्थक शब्द : जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि एवं
निरर्थक शब्द : जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि ।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से :

रूढ़ शब्द : स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि ।
यौगिक शब्द : दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि एवं

योगरूढ़ शब्द : जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि ।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर:

तत्सम शब्द : मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि।
तद्भव शब्द : संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि।
अनुकरण वाचक शब्द : विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोड़े की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि।
देशज शब्द : आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिये गये शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि।
विदेशी शब्द : संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिये गये शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं। यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि।
४. प्रयोग के आधार पर:

विकारी शब्द : वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किये जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है। यथा - लड़का, लड़के, लड़कों, लड़कपन, अच्छा, अच्छे, अच्छी, अच्छाइयाँ  आदि।

अविकारीशब्द : वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इन्हें अव्यय कहते हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि।  इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं।
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल।।


कविता के तत्वः
कविता के 2 तत्व बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं ।

कविता के बाह्य तत्वः
लयः
           भाषा के उतार-चढ़ाव, विराम आदि के योग से लय बनती है । कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके ।

छंदः
           मात्रा, वर्ण, विराम, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं । छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली व हृदयग्राही होती है । छंद के 2 मुख्य प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है)  तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं । छंद के असंख्य उपप्रकार हैं जो ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं ।

ब्दयोजनाः 
           कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो ।

तुकः
          काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं । अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता । मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के 2 प्रकार तुकांत व  पदांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफि़या व रदीफ़ कहते हैं । 

अलंकारः
          अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है । अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष माने गये हैं । अलंकार के 2 मुख्य प्रकार शब्दालंकार व अर्थालंकार तथा अनेक भेद-उपभेद हैं ।

कविता के आंतरिक तत्वः

रस:
          कविता को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं । रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर आदि कहा गया है । यदि कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी तो वह सफल कविता कही जाती है । रस के 9 प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत तथा अद्भुत हैं । कुछ विद्वान वात्सल्य को दसवां रस मानते हैं ।

अनुभूतिः
           गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृद्स्पर्शी होता है चूंकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है कविता हृदय को ।

भावः
           रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं । हर रस के अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं । श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, शांत-निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता ।

           इन प्रसंगों पर पाठकों से जानकारियाँ और जिज्ञासाएँ आमंत्रित हैं। इस आधारभूत प्राथमिक जानकारी के पश्चात् आगामी सत्र में किस प्रसंग पर हो? सुझाइए।
                                                              ******************

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

सामयिक कविता : है बुरा हाल मंहगाई की मार है ---प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

सामयिक कविता :

देश दिखता मुझे बहुत बीमार है...........

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
*
है बुरा हाल मंहगाई की मार है, देश दिखता मुझे बहुत बीमार है।

गांव की हर गली झोपडी है दुखी, भूख से बाल-बच्चों में चीत्कार है।
*
 शांति उठ सी गई आज धरती से है, लोग सारे ही व्याकुल है बेचैन हैं

पेट की आग को बुझाने की फिकर में, सभी जन सतत व्यस्त दिन रैन है।

जो जहाँ भी है उलझन में गंभीर है, आयें दिन बढती जाती नई पीर है।

रोजी रोटी के चक्कर में है सब फंसे, साथ देती नहीं किंतु तकदीर है।

प्रदर्शन है कहीं, कहीं हड़ताल है, कहीं करफ्यू कहीं बंद बाजार है।

लाठियाँ, गोलियाँ औ‘ गिरफ्तारियाँ, जो जहाँ भी है भड़भड़ से बेजार है।
*
समझ आता नहीं, क्यों ये क्या हो रहा, लोग आजाद हैं डर किसी को नहीं।

मानता नहीं कोई किसी का कहा, जिसे जो मन में आता है करता वहीं।

बातों में सब हुये बड़े होषियार है, सिर्फ लेने को हर लाभ आगे खड़े।

किंतु सहयोग और समझारी भुला, स्वार्थ हित सिर्फ लड़ने को रहते अड़े है।

आदमी खो चुका आदमियत इस तरह, कहीं कोई न दिखता समझदार है,

जैसे रिष्ता किसी का किसी से नहीं, जिसे देखो वो लड़ने को तैयार है।
*
समझते लोग कम है नियम कायदे, देखते सभी अपने ही बस फायदे,

राजनेताओं को याद रहते नहीं, कभी जनता से जो भी किये वायदे।

चाह उनकी हैं पहले सॅंवर जाये घर, देशहित की किसी को नहीं कोई फिकर,

बढ़ रही है समस्यायें नित नई मगर, रीति और नीति में कोई न दिखता असर।

घूंस लेना औ‘ देना चलन बन गई, सीधा- सच्चा जहाँ जो हैं लाचार है।

रोज घपले घोटाले है सरकार में, किंतु होता नहीं कोई उपचार है।
*
योजनायें नई बनती है आयें दिन, किंतु निर्विघ्न होने न पातीं सफल।

बढ़ता जाता अंधेरा हर एक क्षेत्र में, डर है शायद न हो घना और ज्यादा कल।

सिर्फ आशा है भगवान से, उठ चुका आपसी प्रेम सद्भाव विष्वास है।

देष की दुर्दशा देख होता है दुख, जिसका उज्जवल रहा पिछला इतिहास है।

आज की रीति हुई काम जिससे बने, कहा जाता उसी को सदाचार है।

जो निरूपयोगी उसका तिरस्कार है, आज का ‘विदग्ध‘ यह ही सुसंस्कार है।
*
कल क्या होगा यह कहना बहुत ही कठिन है, कोई भी नहीं दिखता खबरदार है

जिसे देखों जहाँ देखों, वह ही वहाँ कम या ज्यादा बराबर गुनहगार है।

                                      --- ओ.बी. 11 एम.पी.ई.बी. कालोनी, रामपुर, जबलपुर म.प्र.
********************