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सोमवार, 10 सितंबर 2018

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

नदियाँ क्यों चुप हैं - राधेश्याम बंधु

- डॉ. परमानंद श्रीवास्तव
वरिष्ठ जनचेतना के कवि राधेश्याम बंधु के नवगीतों का यह चौथा संग्रह है ’नदियाँ क्यों चुप है ?‘ इसके पहले उनके तीन नवगीत संग्रह ’बरसो रे घन‘ , ’प्यास के हिरन‘ , ’एक गुमसुम धूप‘ और एक खण्डकाव्य ’एक और तथागत‘ भी प्रकाशित और चर्चित हो चुके हैं। ’नदियाँ क्यों चुप हैं?‘ के नवगीत अपनी प्रखर अन्तर्वस्तु और सहज शिल्प के कारण पठनीय भी हैं और एक बड़े पाठक समुदाय तक पहुँचने में सक्षम भी हैं। इसके पहले राधेश्याम बंधु द्वारा सम्पादित ’नवगीत और उसका युगवोध‘ के माध्यम से ’नवगीत‘ को लेकर सघन विचार-मंथन भी हो चुका है और उसकी परम्परा को निराला और नागार्जुन से जोड़ने की बात भी की गयी है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि समय का दंश इन गीतों में प्रकट है। कवि की दृष्टि में आज ’रिश्तों की नदियाँ‘ सूख गयी हैं। महानगरों में अमानवीयकरण ने व्यवहार में एक ठंढेपन को जन्म दिया है। ज्यों-ज्यों नगर महान हो रहे हैं, नदियाँ सूख रही हैं। यह केवल पर्यावरण का संकट नहीं है बल्कि सामाजिक रिश्तों के छीजने का संकट भी है।
राधेश्याम बंधु मानवीय रिश्तों की भाषा में नदियों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं -
’दादी सी दुबली, गरीब हैं, नदियाँ बहुत उदास,
सबकी प्यास बुझातीं उनकी, कौन बुझाये प्यास ?‘

इसी तरह वे भ्रष्ट व्यवस्था की ओर भी इंगित करते हुए कहते हैं- नहरे तो हैं लेकिन वे फाइलों में ही बहती हैं। अब पानी बोतलों में बिकता है। अब तो प्यासी नदी भी बादलों को टेरती है -
’प्यासी नदी रेत पर तड़पे , अब तो बादल आ।‘
मुंह उचकाये बछिया टेरे , अब तो बादल आ।‘
दादी की गुड़गुड़ी बुलाये ,
अब तो बादल आ।‘

पर्यावरण दिवस पर वृक्षारोपण केवल रस्म नहीं है बल्कि कवि की लोकचेतना की दृष्टि से हार्दिक कामना भी है कि हर आँगन में हरियल पेड़ रोपे जांय, रिश्तों की बगिया मुरझाने न पाये, आँगन की तुलसी एक अम्मा की हर अरदास पहुँचे। साथ ही सफेदपोश बादलों की झूठी हमदर्दी पर भी कवि व्यंग्य करते हुए कहता है -
’बादल भी हो गये सियासी , दर्द नहीं सुनते ,
लगते हैं ये मेघदूत , पर प्यास नहीं हरते,
पानी औ गुड़धानी देंगे ,
फिर - फिर हैं कहते।‘

 यह कैसी बिडम्बना है कि सामाजिक प्रदूषण के प्रभाव से अब बादल भी अछूते नहीं हैं और अब बादल भी तस्कर हो गये हैं। उनसे भी अब प्यास नहीं बुझती। बल्कि उनके शोरगुल से लोगों की नींद ही खराब होती है -
’बदरा सारी रात जगाते,
फिर भी प्यास नहीं बुझ पाती।‘

 इनके अतिरिक्त ’बरखा की चाँदनी‘ जैसे गीत कवि - दृष्टि के सार्थक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यहाँ भी रिश्ते अर्थवान हैं-
’कभी उतर आँगन में , निशिगंधा चूमती,
कभी खड़ी खिड़की पर, ननदी सी झांकती।
 करती रतजगा कभी, गुमसुम सी रेत पर,
 बरखा की चाँदनी, फिरती मुंडेर पर।‘

 कभी-कभी तनावग्रस्त जिन्दगी की जटिलतायें और बेचैनियाँ इतनी असह्य हो उठती हैं कि चाँदनी भी बेचैन लगने लगती है -
’लेटी है बेचैन चाँदनी, पर आंखों में नींद कहाँ ?
आंखें जब रतजगा करें तो, सपनों की उम्मीद कहाँ ?‘

 इसी तरह ’यादों की निशिगंधा‘ गीत की ये पंक्तियाँ रिश्तों की असंगतियों को आत्मीयता की लय से सुलझा लेने का सुझाव कुछ इस प्रकार देती हुई प्रतीत होती हैं -
’चाहो तो बांहों को, हथकड़ी बना लेना,
मौन के कपोलों पर, सन्धिपत्र लिख देना।
 महुआ - तन छेड़-छेड़, इठलाती चाँदनी,
 पिछवाड़े बेला संग, बतियाती चाँदनी।‘

इसी संग्रह के एक गीत ’चाँदनी को धूप मैं कैसे कहूं ?‘ मे राधेश्याम बंधु रागात्मक संवेदना की तीव्रता को प्रकट करने के लिए कुछ विरोधाभाषी शब्दों का सहारा लेते हैं और इस प्रकार वाक्य के कुछ टुकड़े भाषा का संगीत रचते हुए प्रतीत होते हैं-
’तुम मिले तो गंध की चर्चा हुई,
प्यार के सौगंध की चर्चा हुई,
चाँदनी जो नहीं मेरी हो सकी,
रूप के अनुबंध की चर्चा हुई।‘

कभी-कभी असंगति में संगति की तलाश भी जिन्दगी के कुछ नये आयाम खोलती है। ऐसे में किसी का मौन भी जब मादक लगने लगे तो उसका बोलना कितना आकर्षक होगा ? फिर उसके चित्र की मोहकता, पत्र की रोचकता भी जीवन को अर्थवान बनाने में कितनी सहायक हो सकती है? इस प्रकार हम देखते हैं कि कवि का प्रकृति- राग कितना अर्थपूर्ण है-
’कभी पलाशों के उत्सव में, कोकिल बन गाते,
कभी जुही, गुलनार, केतकी, के संग इठलाते।‘

राधेश्याम बंधु द्वारा निर्मित फिल्म ’रिश्ते‘ में उनका एक गीत ’कभी हंसाते कभी रूलाते‘ टाइटिल सांग के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यहाँ भी यथार्थ के साथ सघन लयात्मकता विद्यमान है-
’सम्बोधन बेकार हो गये,
बेमानी सब प्यार हो गये,
माली ही जब बगिया लूटे,
रिश्ते सब व्यापार हो गये।‘

यह आज के आधुनिकतावादी और उपभोक्तावादी समाज की कैसी विडम्बना है कि जहाँ व्यक्ति की हर चीज बिकाऊ है। ऐसे में कवि संकल्प करता है कि चाहे जो भी हो, ’हम कलम बिकने न देंगे‘ और शायद सच्चे कवि की यही पहचान भी है। राधेश्याम बंधु की काव्ययात्रा में कई नये प्रस्थान आते हैं। पर मूल संवेदना गीत-संवेदना ही है। उनके गीतों में कहीं महाभारत का प्रसंग है तो कहीं निठारी-काण्ड के प्रति आक्रोश भी है। यूरिया - बोफोर्स के घुटालों के प्रसंग कविता को राजनीतिक परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं। वहीं बुध्द, गांधी, नानक के संदर्भ धर्म निरपेक्ष संवेदना का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। इसी भारत की आजादी और उसकी अस्मिता का सवाल भी है। इसलिए कवि कहता है-
’चाहे सब दुनिया बिक जाये,
हम तक़दीर नहीं बेचेंगे,
जब तक तन में लहू शेष है,
हम कश्मीर नहीं बेचेंगे।‘

ये पंक्तियाँ हमारे इस विश्वास को मजबूत बनाती हैं कि यदि देश है तो हम है और यदि हम हैं तो देश है। मैं आशा करता हूं कि राधेश्याम बंधु का यह ’नदियाँ क्यों चुप हैं ?‘ नवगीत संग्रह, नवगीत को व्यक्ति प्रदान करेगा और पाठकों से संवाद बनाने में भी सफल होगा।
२७.१०.२०१२ 
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नवगीत संग्रह- नदियाँ क्यों चुप हैं, रचनाकार- राधेश्याम बन्धु, प्रकाशक- कोणार्क प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०११ , मूल्य-रू. १५०/-, पृष्ठ-११२, समीक्षा लेखक- डॉ. परमानंद श्रीवास्तव।

गुरुवार, 6 सितंबर 2018

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

फागुन के हस्ताक्षर- श्रीकृष्ण शर्मा

आचार्य भगवत दुबे 
गीत संग्रह ‘फागुन के हस्ताक्षर’ के रचयिता एवं वरिष्ठ गीतकार श्रीयुत् श्रीकृष्ण शर्माजी हिन्दी के उन मूर्धन्य रचनाकारों में से हैं, जो छान्दस कविता एवं गीत की प्रतिष्ठा के लिए जीवन भर संघर्षरत रहे और आज जबकि उनकी नेत्र-ज्योति क्षीणतर हो चुकी है तब भी पूरी निष्ठा के साथ सृजन यज्ञ में अपनी सारस्वत समिधाएँ समर्पित करते चले जा रहे हैं। आपने जीवन के कटु यथार्थ को प्रत्यक्षतः देखा ही नहीं अपितु उसे स्वयं भोगा भी है। उन्हीं संवेदनात्मक अनुभूतियों को आपने अपने गीतों में सशक्त अभिव्यक्ति दी है।

मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के ग्राम सिलपुरी में आपकी प्रथम नियुक्ति शिक्षक के पद पर हुई। चट्टानी पहाड़ी पर अवस्थित इस गाँव के निकट बहने वाली सदानीरा ‘बेतवा’ एवं चारो ओर फैले ऊँचे-ऊँचे वृक्षों युक्त सघन वन का प्राकृतिक सौन्दर्य कवि के भाव जगत एवं रचना संसार का सदैव साथी बना रहा। प्रकृति का यह आंचलिक स्वर आपके गीतों में प्राणवंत हो उठा है। प्रकृति की मनोहारी छवि-छटायें अभावों एवं दुर्दिनों में भी आपके गीतों में रच-पच कर जीवन का जयघोष करती रहीं हैं। समीक्ष्य गीत संग्रह आपकी इसी संघर्ष यात्रा का प्रामाणिक दस्तावेज है, जिसमें फागुन के हस्ताक्षर हैं और कोयल उसकी गवाही देती है।
उदाहरण दृष्टव्य है-
‘‘इन कच्चे पत्तों की पीठ थपथपाने / हवा सब विकल्पों को लात मार आयी।
सठियाया पतझर कर चुका आत्महत्या / फागुन के हस्ताक्षर, पिकी की गवाही।’’

शर्माजी के गीत प्रकृति की आत्मा से सीधा साक्षात्कार करते हैं तथा आम आदमी की व्यथा कथा और उसके मनोभावों को समय की शिला पर कस कर उसके अंतर्द्वद्वं एवं अहसास की परख करते हैं। इसी संग्रह की एक गीतिका के कुछ अंश देखिये-

‘‘अँधियारा इस तरह बढ़ रहा / जैसे मँहगाई की काया।
दूर-दूर तक नजर न आती / उम्मीदों की उजली छाया।
कितना कठिन समय आया है / अपनापन तक बना पराया।’’

स्वतंत्रता के पश्चात् सामाजिक वातावरण, विशेषकर राजनैतिक चरित्र में आयी शर्मनाक गिरावट के कारण राष्ट्र की खुशहाली के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर देने वाले सुयोग्य व्यक्तियों का तिरस्कार विमूढ़ों की सभा में किस तरह हो रहा है, इसका एक यथार्थ चित्र ‘उत्तर रामचरित के पन्ने’ नामक गीत की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

‘‘धुँआ-धुँआ अम्बर का चेहरा / मंच हुआ तारों से खाली,
जो कि तिमिर में जले उम्र भर / वही सभा से गये उठाये।

सर्वथा नवीन प्रतीक योजना, स्मृति, ध्वनि एवं चाक्षुष बिम्बों से रचे गये प्रायः सभी गीत इतने सशक्त एवं हृदय-स्पर्शी हैं कि मुँह से सहसा वाह-वाह निकल जाता है। गीत ‘झील रात की’ का यह गीतांश देखिये -
‘‘साँझ-सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की,
भरी हुई है अँधियारे से।
इसी झील के तट पर पेड़ गगन है वट का,
काला बादल चमगादड़-सा उल्टा लटका;
शंख-सीप नक्षत्र रेत में हैं पारे से।’’

गीत संग्रह ‘फागुन के हस्ताक्षर’ में जीवन-जगत की विविधवर्णी भाव-भंगिमाओं को प्राकृतिक छवि-छटाओं के साथ कवि ने सशक्त संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दी है। अगहन की ठिठुरन को कवि ने एक दृश्य-बिम्ब के माध्यम से आम आदमी की विवशता को रेखांकित किया है। काव्यांश देखें -

‘‘कोहरे के मोटे परदे के / पार नहीं जाती हैं आँखें,
किन्तु टँगी रह गयीं दृष्टि की / चौखट पर पेड़ों की शाखें ;
समय साँप के काटे जैसा / कैसे कटे रात की दूरी ?’’

इसी तरह एक ध्वनि बिम्ब भी देखिए -
‘‘गीत तुम्हें गा-गा कर हार गये। अनजाने भ्रम की इन लहरों ने / आ-आकर मुझको भरमाया है, पेड़ों की बाँसुरियों ने बजकर / बरबस ही मन को भटकाया है।’’

संग्रह के इन गीतों में आम आदमी की जिन्दगी कहीं मैले बिछौने के समान है या चूल्हे पर चढ़े फूटे भगौने के समान है अथवा भीड़ के बीच चाट कर फैंके गये दोने की तरह है। कहीं शंकाकुल जंगल में जीने की लाचारी है कि हर आँसू बह-बह कर सूख गया है। घी और सिन्दूर से भित्तियों पर जो सपनीले, शुभंकर साँतियें और हल्दी के छापे बनाये गये थे, वे आश्वासन के चमकीले चेहरे भ्रष्टाचारी-आतंकी अँधियारे ने ढाँप लिये हैं। सर्वत्र शातिर सन्नाटे की रौबदार ठकुराइन पसरी दिखायी देती है।

आज जब घिसे-पिटे शब्दों की मारक क्षमता मंथर होती जा रही है तब कविवर श्रीकृष्ण शर्माजी ने नये छन्द, नवीन प्रतीक एवं नूतन बिम्ब योजना के माध्यम से गीत को धारदार बनाया है।
इस संग्रह में कुल छियालीस गीत हैं जिनमें ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत के ऋतु चित्र सर्वथा नवीन परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक गीतिका एवं एक प्रलम्ब गीत ‘अम्माँ की याद में’ लिखा गया है। इस अभिधात्मक गीत में अनाथ बच्चों का पालन-पोषण करने वाली सर्वहारा माँ की संघर्ष-यात्रा का बड़ा कारुणिक एवं मार्मिक वृत्तान्त है। शेष सभी गीत नवगीतात्मकता से ओत-प्रोत हैं, जिन्हें ‘गीत नवान्तर’ कहना अधिक उचित प्रतीत होता है।

इन गीतों में जो नयापन है उसमें कल्पना लोक के अविश्वसनीय वायवी चित्र नहीं हैं अपितु वर्तमान के यथार्थ का सहज स्वीकार्य एवं विश्वसनीय रेखाकंन है, जो भुक्त भोगियों के अहसास एवं आंचलिक पृष्ठभूमि के अत्यधिक सन्निकट हैं। प्राकृतिक सौन्दर्यानुराग को कवि ने प्राणवंत आंचलिक बोध प्रदान कर सर्वथा नये सन्दर्भों में प्रतिष्ठापित किया है, जो प्रशंसनीय है।
२३.११.२०१५
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गीत- नवगीत संग्रह - फागुन के हस्ताक्षर, रचनाकार- श्रीकृष्ण शर्मा, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद। प्रथम संस्करण- २००६, मूल्य- रूपये १००/-, पृष्ठ- ८६, समीक्षा - आचार्य भगवत दुबे।