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मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

दिसंबर २, पैरोडी, विद्यासागर, नरेंद्र शर्मा, भाषा-गीत, सवैया मुक्तक, बृज, मुक्तिका, पद


सलिल सृजन दिसंबर २
*
पूर्णिका
हर हाल में खुशहाल रह
बन नर्मदा हर हाल बह
सब द्वेष-चिंता दे भुला
धोकर चदरिया मौन तह
होकर न है जो वह सुमिर
जो हो रहा चुपचाप सह
सद्गुरु मिले बन चरण-रज
शिव परम गुरु से पीर कह
हों हाथ खाली नित मना
माटी मिले माटी, न गह
संजीव जब संजीव हो
निर्जीव हो तब हो विरह
२.१२.२०२५
०००
एक पद
*
मैया! मोहे मन की बात न भाए।
मनमानी कर रई रे सत्ता, अंधभक्त गुर्राए।।
नोट बंद कर बरसों जोड़ी रकम धुआँ करवाए।
काला धन सुरसा मूँ घाईं, पल पल बढ़ता जाए।।
बैर बढ़ा रओ परोसियन से, नन्नो सोइ गुर्राए।
ताकतवर खों आँख दिखा के, अपनी जमीं गँवाए।।
सेना करे पराक्रम, पीट ढिंढोरा वोट मँगाए।
सरकारी संपत्ति बेंच के, बचतें सोई गँवाए।।
कोरोना सौ को मारे, जे झूठी दो बतलाए।
कष्ट कोऊ खों देखत नई, बरसों धरना धरवाए।।
नदी लास पै लास उगल रई, चादर डाल छिपाए।
चुनी भई सरकारें दईया, कैसऊँ करें गिराए।।
जन की बात कोऊ नई सुन रओ, प्रैस झूठ फैलाए।
हाँ में हाँ जो नई मिलाए, ओ पे जाँच बिठाए।।
२.१२.२०२१
***
बृज मुक्तिका
*
जी भरिकै जुमलेबाजी कर
नेता बनि कै लफ्फाजी कर
*
दूध-मलाई गटक; सटक लै
मुट्ठी में मुल्ला-काजी कर
*
जनता कूँ आपस में लड़वा
टी वी पै भाषणबाजी कर
*
अंडा शाकाहारी बतला
मुर्ग-मुसल्लम को भाजी कर
*
सौ चूहे खा हज करने जा
जो शरीफ उसको पाजी कर
***
सवैया मुक्तक
एक अकेला
*
एक अकेला दिनकर तम हर, जगा कह रहा हार न मानो।
एक अकेला बरगद दृढ़ रह, कहे पखेरू आश्रय जानो।
एक अकेला कंकर, शंकर बन सारे जग में पुजता है-
एक अकेला गाँधी आँधी, गोरी सत्ता तृणमूल अनुमानो।
*
एक अकेला वानर सोने की लंका में आग लगाता।
एक अकेला कृष्ण महाभारत रचकर अन्याय मिटाता।
एक अकेला ध्रुव अविचल रह भ्रमित पथिक को दिशा ज्ञान दे-
एक अकेला यदि सुभाष, सारे जग से लोहा मनवाता।
*
एक अकेला जुगनू; दीपक जले न पग ठोकर खाता है
एक अकेला लालबहादुर जिससे दुश्मन थर्राता है
एक अकेला मूषक फंदा काट मुक्त करता नाहर को-
एक अकेला जगता जब तब शीश सभी का झुक जाता है।
२-१२-२०२०
***
त्रिपदिक मुक्तिका
*
निर्झर कलकल बहता
किलकिल न करो मानव
कहता, न तनिक सुनता।
*
नाहक ही सिर धुनता
सच बात न कह मानव
मिथ्या सपने बुनता।
*
जो सुना नहीं माना
सच कल ने बतलाया
जो आज नहीं गुनता।
*
जिसकी जैसी क्षमता
वह लूट खा रहा है
कह कैसे हो समता?
*
बढ़ता न कभी कमता
बिन मिल मिल रहा है
माँ का दुलार-ममता।
***
***
द्विपदियाँ (अश'आर)
*
आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
*
एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
*
बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
*
आ काश! कि आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
२.१२.२०१८
***
दो दोहे जुगुनू जगमग कर रहे सूर्य-चंद्र हैं अस्त.
मच्छर जी हैं जगजयी, पहलवान हैं पस्त.
*
अपनी अपनी ढपलियाँ अपने-अपने राग.
कोयल-कंठी मौन है, सुरमणि होते काग.
२.१२.२०१७
***
भाषा-गीत 
*
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
सिंधी सीखें बोल, लिखें व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
गीत में ५ पद ६६ (२२+२३+२१) भाषाएँ / बोलियाँ हैं। १,२ तथा ३ अंतरे लघुरूप में पढ़े जा सकते हैं। पहले दो अंतरे पढ़ें तो भी संविधान में मान्य भाषाओँ की वन्दना हो जाएगी।
***
आइये कविता करें:१.
[लेखक परिचय- आचार्य संजीव वर्मा
'सलिल' गत ३ दशकों से हिंदी साहित्य, भाषा के विकास के लिये सतत समर्पित और सक्रिय हैं। गद्य,-पद्य की लगभग सभी विधाओं, समीक्षा, तकनीकी लेखन, शोध लेख, संस्मरण, यात्रा वृत्त, साक्षात्कार आदि में आपने निरंतर सृजन कर अपनी पहचान स्थापित की है। १२ राज्यों की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा शताधिक अलंकरणों, पुरस्कारों आदि से सम्मानित किये जा चुके सलिल जी की ५ पुस्तकें (१. कलम के देव भक्ति गीत संग्रह, २ लोकतंत्र का मक़बरा कविता संग्रह, ३. मीत मेरे कविता संग्रह, ४. भूकम्प के साथ जीना सीखें तकनीकी लोकोपयोगी, ५. काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह,) प्रकाशित हैं जबकि लघुकथा, दोहा, गीत, नवगीत, मुक्तक, मुक्तिका, लेख, आदि की १० पांडुलिपियाँ प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल अधिकारी विद्वान सलिल जी ने सिविल अभियंता तथा अधिवक्ता होते हुए भी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरयाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। मेकलसुता पत्रिका तथा साइट हिन्दयुग्म व् साहित्य शिल्पी पर भाषा, छंद, अलंकार आदि पर आपकी धारावाहिक लेखमालाएँ बहुचर्चित रही हैं। अपनी बुआ श्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा प्रेम की प्रेरणा माननेवाले सलिल जी प्रस्तुत लेख में गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला है।]
काव्य रचना के आरम्भिक तत्व १. भाषा, २. कथ्य या विषय, ३. शब्द भण्डार, ४. छंद तथा ५. कहन अर्थात कहने का तरीका हैं.
शब्दों को विषय के भावों के अनुसार चुनना और उन्हें इस तरह प्रस्तुत करना कि उन्हें पढ़ते-सुनते समय लय (प्रवाह) की अनुभूति हो, यही कविताई या कविता करने की क्रिया है.
आप नदी के किनारे खड़े होकर देखें बहते पानी की लहरें उठती-गिरती हैं तो उनमें समय की एकरूपता होती है, एक निश्चित अवधि के पश्चात दूसरी लहर उठती या गिरती है. संगीत की राग-रागिनियों में आरोह-अवरोह (ध्वनि का उतार-चढ़ाव) भी समय बद्ध होता है. यहाँ तक कि कोयल के कूकने, मेंढक के टर्राने आदि में भी समय और ध्वनि का तालमेल होता है. मनुष्य अपनी अनुभूति को जब शब्दों में व्यक्त करता है तो समय और शब्द पढ़ते समय ध्वनि का ताल-मेल निश्चित हो तो एक प्रवाह की प्रतीति होती है, इसे लय कहते हैं. लय कविता का अनिवार्य गुण है.
लय को साधने के लिये शब्दों का किसी क्रम विशेष में होना आवश्यक है ताकि उन्हें पढ़ते समय समान अंतराल पर उतार-चढ़ाव हो, ये वांछित शब्द उच्चारण अवधि के साथ सार्थक तथा कविता के विषय के अनुरूप और कवि जो कहना चाहता है उसके अनुकूल होना चाहिए। यहाँ कवि कौशल, शब्द-भण्डार और बात को आवश्यकता के अनुसार सीधे-सीधे, घुमा-फिराकर या लक्षणों के आधार पर या किसी बताते हुए इस तरह लय भंग न हो और जो वह कह दिया जाए. छान्दस कविता करना इसीलिये कठिन प्रतीत होता है.
छन्दहीन कविता में लय नहीं कथ्य (विचार) प्रधान होता है. विराम स्थलों पर पंक्ति परिवर्तन कर दिया जाता है.
कविता में पंक्ति (पद) के उच्चारण का समय समान रखने के लिए ध्वनि को २ वर्गों में रखा गया है १. लघु २. दीर्घ. लघु ध्वनि की १ मात्रा तथा दीर्घ मात्राएँ गिनी जाती हैं. छोटे-बड़े शब्दों को मिलाकर कविता की हर पंक्ति समान समय में कही जा सके तो जा सके तो लय आती है. पंक्ति को पढ़ते समय जहाँ श्वास लेने के लिये शब्द पूर्ण होने पर रुकते हैं उसे यति कहते हैं. यति का स्थान पूर्व निश्चित तथा आवश्यक हो तो उससे पहले तथा बाद के भाग को चरण कहा जाता है. अ, इ, उ तथा ऋ लघु हैं जिनकी मात्रा १ है, आ, ई, ऊ, ओ, औ, तथा अं की २ मात्राएँ हैं.
आभा सक्सेना: संजीव जी मेरा आपके दिये मार्गदर्शन के बाद प्रथम प्रयास प्रतिक्रिया अवश्य देखें .....
बसन्त
बागों में बसन्त छाया जब से २२ २ १२१ २२ ११ २ = १८
खिल उठे हैं पलाश तब से ११ १२ २ १२१ ११ २ = १५
रितु ने ली अंगडाई जम के ११ २ २ ११२२ ११ २ = १६
सोच रही कुछ बैठी बैठी २१ १२ ११ २२ २२ = १६
घर जाऊँ मैं किसके किसके ११ २२ २ ११२ ११२ = १६
टूट रही है ठंड की झालर २१ १२ २ २१ २ २११ = १७
ठंडी ठंडी छांव भी खिसके २२ २२ २१ २ ११२ = १७
अब तो मौसम भी अच्छा है ११ २ २११ २ २२ २ = १६
दुबक रजाई में क्यों तुम बैठे १११ १२२ २ २ ११ २२ = १८
क्यों बिस्तर में बैठे ठसके २२ २११ २ २२ ११२ = १६
अब तो बाहर निकलो भैया ११ २ २११ ११२ २२ = १६
लिये जा रहे चाय के चस्के १२ २ १२ २१ २ २२ = १७
फूल खिल उठे पीले पीले २१ ११ १२ २२ २२ = १६
सरसों भी तो पिलियायी है ११२ २ २ ११२२ २ = १६
देख अटारी बहुयें चढ़तीं २१ १२२ ११२ ११२ = १६
बतियातीं वह मुझसे हंसके ११२२ ११ ११२ ११२ = १६
बसन्त है रितुराज यहाँ का १२१ २ ११२१ १२ २ = १६
पतंग खेलतीं गांव गगन के १२१ २१२ २१ १११ २ = १७
होली की अब तैयारी है २२ २ ११ २२२ २ = १६
रंग अबीर उड़ेगे खिल के.. २१ १२१ १२२ ११ २ = १६
इस रचना की अधिकांश पंक्तियाँ १६ मात्रीय हैं. अतः, इसकी शेष पंक्तियों को जो कम या अधिक मात्राओं की हैं, को १६ मात्रा में ढालकर रचना को मात्रिक दृष्टि से निर्दोष किया जाना चाहिए। अलग-अलग रचनाकार यह प्रयास अपने-अपने ढंग से कर सकते हैं. एक प्रयास देखें:
बागों में बसन्त आया है २२ २ १२१ २२ २ = १६
पर्वत पर पलाश छाया है २२ ११ १२१ २२ २ = १६
रितु ने ली अँगड़ाई जम के ११ २ २ ११२२ ११ २ = १६
सोच रही है बैठी-बैठी २१ १२ २ २२ २२ = १६
घर जाऊँ मैं किसके-किसके ११ २२ २ ११२ ११२ = १६
टूट रही झालर जाड़े की २१ १२ २११ २२ २ = १६
ठंडी-ठंडी छैंया खिसके २२ २२ २२ ११२ = १६
अब तो मौसम भी अच्छा है ११ २ २११ २ २२ २ = १६
कहो दुबककर क्यों तुम बैठे १२ १११११ २ ११ २२ = १६
क्यों बिस्तर में बैठे ठसके २२ २११ २ २२ ११२ = १६
अब तो बाहर निकलो भैया ११ २ २११ ११२ २२ = १६
चैया पी लो तन्नक हँसके २२ २ २ २११ ११२ = १६
फूल खिल उठे पीले-पीले २१ ११ १२ २२ २२ = १६
सरसों भी तो पिलियायी है ११२ २ २ ११२२ २ = १६
देख अटारी बहुयें चढ़तीं २१ १२२ ११२ ११२ = १६
बतियातीं आपस में छिपके ११२२ २११ २ ११२ = १६
है बसन्त रितुराज यहाँ का २ १२१ ११२१ १२ २ = १६
उड़ा पतंग गाँव में हँसके १२ १२१ २१ २ ११२ = १६
होली की अब तैयारी है २२ २ ११ २२२ २ = १६
रंग अबीर उड़ेगे खिल के.. २१ १२१ १२२ ११ २ = १६
मात्रिक संतुलन की दृष्टि से यह रचना अब निर्दोष है. हर पंक्ति में १६ मात्राएँ हैं. एक बात और देखें: यहाँ हर पंक्ति का अंतिम वर्ण दीर्घ है.
***
कार्यशाला-
दो कवि एक मुक्तक
*
तुम एक सुरीला मधुर गीत, मैं अनगढ़ लोकगीत सा हूँ
तुम कुशल कलात्मक अभिव्यंजन, मैं अटपट बातचीत सा हूँ - फौजी
तुम वादों को जुमला कहतीं, मैं जी भर उन्हें निभाता हूँ
तुम नेताओं सी अदामयी, मैं निश्छल बाल मीत सा हूँ . - सलिल
२.१२.२०१६
***
संस्मरण
कवि प्रदीप द्वारा पण्डित नरेंद्र शर्मा का उल्लेख
*
"अतीत के झरोखे से झाँक रहा हूँ। इलाहाबाद में एक कवि-सम्मेलन का आयोजन था। काफ़ी भीड़ थी। उसी सम्मेलन में नरेन्द्र जी से मेरा अनायास परिचय हो गया था। समय की लीला अजीब होती है। मैं नया कवि होने के नाते मंच के एक कोने में सिमटा-सिकुड़ा बैठा था।"
"अपने से थोड़ी दूर बैठे एक गौरवर्ण सुकुमार-सौम्य युवक को न जाने क्यों मैं बार-बार देख लिया करता था। वे भी कविता पाठ के लिए आमंत्रित थे और मैं भी। अध्यक्ष की घोषणा से पता चला कि यही पंडित नरेन्द्र शर्मा हैं। जब दो कवियों के बाद मेरी बारी आयी, तो मैंने एक गीत सुनाया (यह बता दूँ कि शुरू से ही मेरी पठन-शैली बड़ी अच्छी थी)। गीत के बोल थे-
'मुरलिके छेड़ सुरीली तान,
सुना-सुना मादक-अधरे,
विश्व - विमोहन तान।'
"मैंने देखा सुंदर युवक नरेन्द्र जी मेरे पास आ कर बैठ गये और गीत में मेरे शब्द-प्रयोग 'मादक-अधरे' की ख़ूब प्रशंसा करके शाबाशी दी।"
"यही हमारी पहली मुलाक़ात मित्रता में बदल गयी। फिर तो हम अनेकों बार लगातार मिलते रहे। उक्त बात क़रीब साठ वर्ष पहले की है। उमर में नरेन्द्र जी दो वर्ष मेरे अग्रज थे।"
"सन् 1934 में इलाहाबाद छोड़ कर मैं लखनऊ आ गया। फिर तो हमारी जन्म-कुंडलियों ने अपना-अपना काम शुरू कर दिया। नरेन्द्र जी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ही रहे और मैं आगे के विद्याभ्यास के लिए लखनऊ आ गया। इस प्रकार हम एक-दूसरे से दूर हो गये। लखनऊ में चार वर्ष रहने के बाद, अचानक भाग्य की आँधी ने मुझे फ़िल्म क्षेत्र में ला पटका एक गीतकार के रूप में। यह सन् 1939 की बात है। नरेन्द्र जी के कार्यक्षेत्र भी बदलते रहे।"
"हम दोनों अपने-अपने क्षेत्र में काम करते रहे। परंतु हमारे स्नेह-बंधन में कभी कमी नहीं आयी।"
"उनके पास बैठे हुए मेरे भीतर वैसे ही तरंगें उठती थी, जैसी बचपन में अपने नाना, मौसा के पास बैठ कर उठती थी। वही भव्य भारतीयता, ऐसी साधारणता कि जिसके आगे कैसी भी विशिष्टता फीकी पड़ जाए।"
***
स्मरण:
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
(२६ दिसंबर १८२० - २९ जुलाई १८९१)
*
ईश्वरचंद्र विद्यासागर बांग्ला साहित्य के समर्पित रचनाकार तथा श्रेष्ठ शिक्षाविद रहे हैं। आपका जन्म २६ दिसंबर १८२० को अति निर्धन परिवार में हुआ था। पिताश्री ठाकुरदास तथा माता श्रीमती भगवती देवी से संस्कृति, समाज तथा साहित्य के प्रति लगाव ही विरासत में मिला। गाँव में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर आप १८२८ में पिता के साथ पैदल को कलकत्ता (कोलकाता) पहुँचे तथा संस्कृत महाविद्यालय में अध्ययन आरम्भ किया। अत्यधिक आर्थिक अभाव, निरंतर शारीरिक व्याधियाँ, पुस्तकें न खरीद पाना तथा सकल गृह कार्य हाथ से करना जैसी विषम परिस्थितियों के बावजूद अपने हर परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
सन १८४१ में आपको फोर्ट विलियम कोलेज में ५०/- मासिक पर मुख्य पंडित के पद पर नियुक्ति मिली। आपके पांडित्य को देखते हुए आपको 'विद्यासागर' की उपाधि से विभूषित किया गया। १८५५ में आपने कोलेज में उपसचिव की आसंदी को सुशोभित कर उसकी गरिमा वृद्धि की। १८५५ में ५००/- मासिक वेतन पर आप विशेष निरीक्षक (स्पेशल इंस्पेक्टर) नियुक्त किये गये।
अपने विद्यार्थी काल से अंत समय तक आपने निरंतर सैंकड़ों विद्यार्थिओं, निर्धनों तथा विधवाओं को अर्थ संकट से बिना किसी स्वार्थ के बचाया। आपके व्यक्तित्व की अद्वितीय उदारता तथा लोकोपकारक वृत्ति के कारण आपको दयानिधि, दानवीर सागर जैसे संबोधन मिले।
आपने ५३ पुस्तकों की रचना की जिनमें से १७ संकृत में,५ अंग्रेजी में तथा शेष मातृभाषा बांगला में हैं। बेताल पंचविंशति कथा संग्रह, शकुन्तला उपाख्यान, विधवा विवाह (निबन्ध संग्रह), सीता वनवास (कहानी संग्रह), आख्यान मंजरी (बांगला कोष), भ्रान्ति विलास (हास्य कथा संग्रह) तथा भूगोल-खगोल वर्णनं आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
दृढ़ प्रतिज्ञ, असाधारण मेधा के धनी, दानवीर, परोपकारी, त्यागमूर्ति ईश्वरचंद्र विद्यासागर ७० वर्ष की आयु में २९ जुलाई १८९१ को इहलोक छोड़कर परलोक सिधारे। आपका उदात्त व्यक्तित्व मानव मात्र के लिए अनुकरणीय है।
***
ई मित्रता पर पैरोडी:
*
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
***

गुरुवार, 20 नवंबर 2025

नवंबर २०, दोहा, सॉनेट, दण्डक मुक्तक, अठसल सवैया, नवगीत, पैरोडी,

सलिल सृजन नवंबर २०
*
सॉनेट
(लयखण्ड: ११२२१)
भजना राम
मत तू भूल
कर ले काम
बन जा धूल।
प्रभु की रीत
जिसके इष्ट
करते प्रीत
हरते कष्ट।
हरसिंगार
तजता गर्व
खुद को हार
वरता सर्व।
कर विश्वास
प्रभु हैं पास।
•••
एक दोहा
कहते 'her' सिंगार पर, है वह 'his' सिंगार।
हर को मिलता ही नहीं, हरि पाते मनुहार।।
२०.११.२०२४
*
कार्यशाला
दण्डक मुक्तक
छंद - दोहा, पदभार - ४८ मात्रा।
यति - १३-११-१३-११।
*
सब कुछ दिखता है जहाँ, वहाँ कहाँ सौन्दर्य?,
थोडा तो हो आवरण, थोड़ी तो हो ओट
श्वेत-श्याम का समुच्चय ही जग का आधार,
सब कुछ काला देखता, जिसकी पिटती गोट
जोड़-जोड़ बरसों रहे, हलाकान जो लोग,
देख रहे रद्दी हुए पल में सारे नोट
धौंस न माने किसी की, करे लगे जो ठीक
बेच-खरीद न पा रहे, नहीं पा रहे पोट
***
छंद कार्य शाला
नव छंद - अठसल सवैया
पद सूत्र - ८ स + ल
पच्चीस वर्णिक / तैंतीस मात्रिक
पदभार - ११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-१
*
उदाहरण
हम शक्ति वरें / तब ही कर भक्ति / हमें मिलता / प्रभु से वरदान
चुप युक्ति करें / श्रम भी तब मुक्ति / मिले करना / प्रभु का नित ध्यान
गरिमा तब ही / मत हाथ पसार / नहीं जग से / करवा अपमान
विधि ही यश या / धन दे न बिसार / न लालच या /करना अभिमान
***
कार्य शाला
छंद बहर दोउ एक हैं
*
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४)
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४)
गण सूत्र - र र य ग
पदभार - २१२ २१२ १२२ २
*
दे भुला वायदा वही नेता
दे भुला कायदा वही जेता
जूझता जो रहा नहीं हारा
है रहा जीतता सदा चेता
नाव पानी बिना नहीं डूबी
घाट नौका कभी नहीं खेता
भाव बाजार ने नहीं बोला
है चुकाता रहा खुदी क्रेता
कौन है जो नहीं रहा यारों?
क्या वही जो रहा सदा देता?
छोड़ता जो नहीं वही पंडा
जो चढ़ावा चढ़ा रहा लेता
कोकिला ने दिए भुला अंडे
काग ही तो रहा उन्हें सेता
***
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४)
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४)
गण सूत्र - र र ज ल ग
पदभार - २१२ २१२ १२१ १२
*
हाथ पे हाथ जो बढ़ा रखते
प्यार के फूल भी हसीं खिलते
जो पुकारो जरा कभी दिल से
जान पे खेल के गले मिलते
जो न देखा वही दिखा जलवा
थामते तो न हौसले ढलते
प्यार की आँच में तपे-सुलगे
झूठ जो जानते; नहीं जलते
दावते-हुस्न जो नहीं मिलती
वस्ल के ख्वाब तो नहीं पलते
जीव 'संजीव' हो नहीं सकता
आँख से अश्क जो नहीं बहते
नेह की नर्मदा बही जब भी
मौन पाषाण भी कथा कहते
***
टीप - फ़ारसी छंद शास्त्र के आधार पर उर्दू में कुछ
बंदिशों के साथ गुरु को २ लघु या २ लघु को गुरु किया जाता है।
वज़्न - २१२२ १२१२ २२/११२
अर्कान - फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन / फ़अलुन
बह्र - बह्रे ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ मक़्तूअ
क़ाफ़िया - ख़ूबसूरत (अत की बंदिश)
रदीफ़ - है
इस धुन पर गीत
१. फिर छिड़ी रात बात फूलों की
२. तेरे दर पे सनम चले आये
३. आप जिनके करीब होते हैं
४. बारहा दिल में इक सवाल आया
५. यूँ ही तुम मुझसे बात करती हो,
६. तुमको देखा तो ये ख़याल आया,
७. मेरी क़िस्मत में तू नहीं शायद
८. आज फिर जीने की तमन्ना है
९. ऐ मेरे दोस्त लौट के आजा
२०-११-२०१९
***
कार्यशाला
प्रश्न- मीना धर द्विवेदी पाठक
लै ड्योढ़ा ठाढ़े भये श्री अनिरुद्ध सुजान
बाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान
ड्योढ़ा का अर्थ क्या है?
*
प्रसंग
श्री कृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध पर मोहित होकर दानवराज बाणासुर की पुत्री उषा उसे अचेत कर ले गई और महल में बंदी कर लिया। ज्ञात होने पर कृष्ण उसे छुड़ाने गए। भयंकर युद्ध हुआ।
शब्दार्थ
ड्योढ़ी = देहरी या दरवाज़ा
ड्योढ़ा = डेढ़ गुना, सामान्य से डेढ़ गुना बड़ा दरवाज़ा। दरवाजे को बंद करने के लिए प्रयोग किये जाने वाले आड़े लंबे डंडे को भी ड्योढ़ा कहा जाता है।
पदार्थ
श्री अनिरुद्ध ड्योढ़ा लेकर खड़े हुए और कृष्ण जी बाणासुर की सेना को मारने लगे।
भावार्थ
कृष्ण जी अनिरुद्ध को छुड़ाने के लिए बाणासुर के महल पर पहुँचे। यह जानकर अनिरुद्ध दरवाज़ा बंद करने के लिए प्रयोग किये जानेवाले डंडे को लेकर दरवाजे पर आ गये। बाणासुर की सेना ने रोका तो भगवान सेना का वध करने लगे।
०००
कार्यशाला
दोहे
बीनू भटनागर
*
सुबह सवेरे से लगी, बैंक मे है कतार।
सारे कारज छोड़के,लाये चार हज़ार।
अब हज़ार के नोट का, रहा न कोई मोल
सौ रुपये का नोट भी,हुआ बड़ा अनमोल।
बैंक खुले तो क्या हुआ,ख़त्म हो गया कैश।
खड़े खड़े थकते रहे, आया तब फिर तैश।
दो हज़ार का नोट भी, आये बहुत न काम।
दूध, ब्रैड,सब्ज़ी,फल के,कैसे चुकायें दाम।
मोदी जी ने कौन सा,खेल दिया ये दाव।
निर्धन खड़ा कतार में,धनी डुबाई नाव।
काला धन मत जोड़िये,आये ना वो काम।
आयकर देते रहिये,चैन मिले आराम।
---------------
​१.
लगी​ सुबह से बैंक ​में, ​लंबी बहुत कतार।
सारे कारज छोड़​कर,​ ​लाये चार हज़ार।।
२.
अब हज़ार के नोट का, रहा न कोई मोल
सौ रुपये का नोट भी,​ आज ​हुआ अनमोल।।
३.
बैंक खुले तो क्या हुआ,​ ​ख़त्म हो गया कैश।
खड़े खड़े थक​ गए तो, ​आया ​बेहद तैश।।
४.
दो हज़ार का नोट भी, आये बहुत न काम।
​साग, ​दूध, ​फल, ​ब्रैड के,​ ​कैसे ​दें हम दाम​?
५.
मोदी जी ने कौन सा,​ ​खेल दिया ये ​दाँव।
निर्धन खड़ा कतार में,​ ​धनी ​थकाए पाँव।।
६.
काला धन मत जोड़िये,​ ​आये ​नहीं वह काम।
​चुका ​आयकर ​मस्त हों,​ मिले ​चैन​-आराम।।
०००
दोहा मुक्तक
*
सब कुछ दिखता है जहाँ, वहाँ कहाँ सौन्दर्य?,
थोडा तो हो आवरण, थोड़ी तो हो ओट
श्वेत-श्याम का समुच्चय ही जग का आधार,
सब कुछ काला देखता, जिसकी पिटती गोट
जोड़-जोड़ बरसों रहे, हलाकान जो लोग,
देख रहे रद्दी हुए पल में सारे नोट
धौंस न माने किसी की, करे लगे जो ठीक
बेच-खरीद न पा रहे, नहीं पा रहे पोट
२०-११-२०१६
***
नवगीत:
भाग-दौड़ आपा-धापी है...
नहीं किसी को फिक्र किसी की
निष्ठा रही न ख़ास इसी की
प्लेटफॉर्म जैसा समाज है
कब्जेधारी को सुराज है
आती-जाती अवसर ट्रेन
जगह दिलाये धन या ब्रेन
बेचैनी सबमें व्यापी है...
इंजिन-कोच ग्रहों से घूमें
नहीं जमाते जड़ें जमीं में
यायावर-पथभ्रष्ट नहीं हैं
पाते-देते कष्ट नहीं हैं
संग चलो तो मंज़िल पा लो
निंदा करो, प्रशंसा गा लो
बाधा बाजू में चाँपी है...
कोशिश टिकिट कटाकर चलना
बच्चों जैसे नहीं मचलना
जाँचे टिकिट घूम तक़दीर
आरक्षण पाती तदबीर
घाट उतरते हैं सब साथ
लें-दें विदा हिलाकर हाथ
यह धर्मात्मा वह पापी है...
१९-११-२०१४
***
पैरोडी
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
१९-११-२०१२
***
एक दोहा
ऋषिवर-तरुवर का मिलन, नेह नर्मदा-घाट.
हुआ जबलपुर धन्य लख, सीधी-सच्ची बाट..

१७.११.२००९ 

मंगलवार, 4 नवंबर 2025

नवंबर ४, लक्ष्मी, हाथी, एकाक्षरी श्लोक, माघ, दोही छंद, पैरोडी, नवगीत, गणितीय दोहा मुक्तक,

सलिल सृजन नवंबर ४
लक्ष्मी जी के १०८ नाम
१. प्रकृति, २. विकृति, ३. विद्या, ४. सर्वभूतहितप्रदा, ५. श्रद्धा,६. विभूति, ७. सुरभि, ८. परमात्मिका, ९. वाचि, १०. पद्मालया, ११. पद्मा, १२. शुचि, १३. स्वाहा, १४. स्वधा, १५. सुधा, १६. धन्या, १७. हिरण्मयी, १८. लक्ष्मी, १९. नित्यपुष्टा, २०. विभा, २१. आदित्या, २२. दित्या, २३. दीपायै, २४. वसुधा, २५. वसुधारिणी, २६. कमलसम्भवा, २७. कान्ता, २८. कामाक्षी, २९. क्ष्रीरोधसंभवा, ३०क्रोधसंभवा, ३१. अनुग्रहप्रदा, ३२. बुध्दि, ३३. अनघा, ३४. हरिवल्लभा, ३५. अशोका, ३६. अमृता, ३७. दीप्ता, ३८. लोकशोकविनाशि, ३९. धर्मनिलया, ४०. करुणा, ४१. पद्मप्रिया, ४२. पद्महस्ता, ४३. पद्माक्ष्या, ४४. पद्मसुन्दरी, ४५. पद्मोद्भवा, ४६. पद्ममुखी, ४७. पद्मनाभाप्रिया, ४८. रमा, ४९. पद्ममालाधरा, ५०. देवी, ५१. पद्मिनी, ५२. पद्मगन्धिनी, ५३. पुण्यगन्धा, ५४. सुप्रसन्ना, ५५. प्रसादाभिमुखी, ५६. प्रभा, ५७. चन्द्रवदना, ५८. चन्द्रा, ५९. चन्द्रसहोदरी, ६०. चतुर्भुजा, ६१. चन्द्ररूपा, ६२. इन्दिरा, ६३. इन्दुशीतला, ६४. आह्लादजननी, ६५. पुष्टि, ६६. शिवा, ६७. शिवकरी, ६८. सत्या, ६९. विमला, ७०. विश्वजननी, ७१. तुष्टि, ७२. दारिद्र्यनाशिनी, ७३. प्रीतिपुष्करिणी, ७४. शान्ता, ७५. शुक्लमाल्यांबरा, ७६. श्री, ७७. भास्करी, ७८. बिल्वनिलया, ७९. वरारोहा, ८०. यशस्विनी, ८१. वसुन्धरा, ८२. उदारांगा, ८३. हरिणी, ८४. हेममालिनी, ८५. धनधान्यकी, ८६. सिध्दि, ८७. स्त्रैणसौम्या, ८८. शुभप्रदा, ८९. नृपवेश्मगतानन्दा, ९०. वरलक्ष्मी, ९१. वसुप्रदा, ९२. शुभा, ९३. हिरण्यप्राकारा, ९४. समुद्रतनया, ९५. जया, ९६. मंगला देवी, ९७. विष्णुवक्षस्स्थलस्थिता, ९८. विष्णुपत्नी, ९९. प्रसन्नाक्षी, १००. नारायणसमाश्रिता, १०१. दारिद्र्यध्वंसिनी, १०२. देवी, १०३. सर्वोपद्रव वारिणी, १०४. नवदुर्गा, १०५. महाकाली, १०६. ब्रह्माविष्णुशिवात्मिका, १०७. त्रिकालज्ञानसम्पन्ना, १०८. भुवनेश्वरी ।
***
हिंदी वैभव - समानार्थी शब्द : हाथी
कुञ्जरः,गजः,हस्तिन्, हस्तिपकः,द्विपः, द्विरदः, वारणः, करिन्, मतङ्गः, सुचिकाधरः, सुप्रतीकः, अङ्गूषः, अन्तेःस्वेदः, इभः, कञ्जरः, कञ्जारः, कटिन्, कम्बुः, करिकः, कालिङ्गः, कूचः, गर्जः, चदिरः, चक्रपादः, चन्दिरः, जलकाङ्क्षः, जर्तुः, दण्डवलधिः, दन्तावलः, दीर्घपवनः, दीर्घवक्त्रः, द्रुमारिः, द्विदन्तः, द्विरापः, नगजः, नगरघातः, नर्तकः, निर्झरः, पञ्चनखः, पिचिलः, पीलुः, पिण्डपादः, पिण्डपाद्यः, पृदाकुः, पृष्टहायनः, पुण्ड्रकेलिः, बृहदङ्गः, प्रस्वेदः, मदकलः, मदारः, महाकायः, महामृगः, महानादः, मातंगः, मतंगजः, मत्तकीशः, राजिलः, राजीवः, रक्तपादः, रणमत्तः, रसिकः, लम्बकर्णः, लतालकः, लतारदः, वनजः, वराङ्गः, वारीटः, वितण्डः, षष्टिहायनः, वेदण्डः, वेगदण्डः, वेतण्डः, विलोमजिह्वः, विलोमरसनः, विषाणकः।
(आभार - जमुना कृष्णराज)
***
संस्कृत - चमत्कारी भाषा
*
एकाक्षरी श्लोक
महाकवि माघ ने अपने महाकाव्य 'शिशुपाल वध' में एकाक्षरी श्लोक दिया है -
दाददो दुद्ददुद्दादी दाददो दूददीददोः ।
दुद्दादं दददे दुद्दे दादाददददोऽददः ॥ १४४
अर्थ - वरदाता, दुष्टनाशक, शुद्धक, आततायियों के अंतक क्षेत्रों पर पीड़क शर का संधान करें।
विलोम पद
माघ विलोमपद रचने में भी निपुण थे।
वारणागगभीरा सा साराभीगगणारवा ।
कारितारिवधा सेना नासेधा वारितारिका ॥४४
पर्वतकारी हाथियों से सुसज्ज सेना का सामना करना अति दुष्कर है। यह विराट सेना है, त्रस्त-भयभीत लोगों की चीत्कार सुनाई दे रही है। इसने अपने शत्रुओं को मार दिया है।
विलोम काव्य
श्री राघव यादवीयं - बाएँ से दाएँ रामकथा, दाएँ से बाएँ कृष्णकथा
बाएँ से दाएँ
वन्देऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥
मैं श्री राम का वंदन करता हूँ जो सीता जी के लिए धड़कते हुए ह्रदय के साथ
रावण और उसके सहायकों का वधकर, सह्याद्रि पर्वतों को पार कर, रावण तथा उसके सहायकों का वध कर, लंबे समय बाद, सीता सहित अयोध्या वापिस आए हैं।
I pay my obeisance to Lord Shri Rama, who with his heart pining for Sita, travelled across the Sahyadri Hills and returned to Ayodhya after killing Ravana and sported with his consort, Sita, in Ayodhya for a long time.
दाएँ से बाएँ
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी मारामोरा ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देहं देवं ॥
मैं श्री कृष्ण का वंदन करता हूँ जिनका ह्रदय श्री लक्ष्मी का निवास है, जो त्याग-तप से ध्यान करने योग्य हैं, जो रुक्मिणी तथा अन्य संगणियों को दुलारते हैं, जो गोपियों द्वारा पूजित हैं तथा जगनागाते हुए रत्नों से शोभायमान हैं।
I bow to Lord Shri Krishna, whose chest is the sporting resort of Shri Lakshmi; who is fit to be contemplated through penance and sacrifice, who fondles Rukmani and his other consorts and who is worshipped by the gopis, and who is decked with jewels radiating splendour.
आभार: श्रीमती जमुना कृष्णराज
०००
कार्य शाला
छंद सलिला ;
दोही छंद
*
लक्षण छंद -
चंद्र कला पंद्रह शुभ मान, रचें विषम पद आप।
एक-एक ग्यारह सम जान, लघु पद-अंत सुमाप।।
*
उदहारण -
स्नेह सलिल अवगाहन करे, मिट जाए भव ताप।
मदद निबल की जो नित करे, हो जाए प्रभु जाप।।
***
************************
नवंबर : कब - क्या?
०१ गुरु गोविंद सिंह पुण्यतिथि
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ दिवस
०३ संत दयाराम वाला जयंती
०४ गणितविद् शकुंतला देवी जयंती १९९९, प्रतिदत्त ब्रह्मचारी जन्म
०५ अक्षय/आँवला जयंती
०६ अभिनेता संजीव कुमार निधन
०७ भौतिकीविद् चंद्रशेखर वेंकटेश्वर रमण जन्म १८८८
०८ देव उठनी एकादशी, गन्ना ग्यारस, तुलसी विवाह, संत नामदेव जयंती, महाकवि कालिदास जयंती।
१० मिलाद-उन-नबी, महाप्रसाद अग्निहोत्री निधन।
१२ गुरु नानक देव जयंती, म. सुदर्शन जयंती, महामना मालवीय निधन १९४६।
१३ भेड़ाघाट मेला।
१४ बाल दिवस, जवाहरलाल नेहरू जयंती, विश्व मधुमेह दिवस।
१५ बिरला मुंडा जयंती, समय विनोबा दिवस, जयशंकर प्रसाद निधन १९३७।
१६ विश्व सहिष्णुता दिवस, सचिव तेंदुलकर रिटायर २०१३।
१७ लाला लाजपतराय बलिदान दिवस १९२८, बाल ठाकरे दिवंगत २०१२, तुकड़ोजी जयंती, भ. मायानंद चैतन्य जयंती।
१८ काशी विश्वनाथ प्रतिष्ठा दिवस।
१९ म. लक्ष्मीबाई जयंती १८२८, इंदिरा गाँधी जयंती १९१७, मातृ दिवस
२१- भौतिकीविद् चंद्र शेखर वेंकट रमण निधन १९७०
२२ झलकारी बाई जयंती, दुर्गादास पुण्यतिथि।
२३ सत्य साई जयंती, जगदीश चंद्र बलि निधन १९३७।
२४ गुरु तेगबहादुर बलिदान, अभिनेता महीपाल जन्म १९१९, अभिनेत्री टुनटुन निधन २००३, साहित्यकार महीप सिंह २०१५, ।
२६ डॉ. हरि सिंह गौर जयंती।
२७ बच्चन निधन १९०७।
२८ जोतीबा फूले निधन १८९०।
२९ शरद सिंह १९६३।
३० जगदीश चंद्र बसु जन्म १८५८, मायानंद चैतन्य जयंती, मैत्रेयी पुष्पा जन्म।
***
संस्कृत - चमत्कारी भाषा
*
एकाक्षरी श्लोक
महाकवि माघ ने अपने महाकाव्य 'शिशुपाल वध' में एकाक्षरी श्लोक दिया है -
दाददो दुद्ददुद्दादी दाददो दूददीददोः ।
दुद्दादं दददे दुद्दे दादाददददोऽददः ॥ १४४
अर्थ - वरदाता, दुष्टनाशक, शुद्धक, आततायियों के अंतक क्षेत्रों पर पीड़क शर का संधान करें।
विलोम पद
माघ विलोमपद रचने में भी निपुण थे।
वारणागगभीरा सा साराभीगगणारवा ।
कारितारिवधा सेना नासेधा वारितारिका ॥४४
पर्वतकारी हाथियों से सुसज्ज सेना का सामना करना अति दुष्कर है। यह विराट सेना है, त्रस्त-भयभीत लोगों की चीत्कार सुनाई दे रही है। इसने अपने शत्रुओं को मार दिया है।
विलोम काव्य
श्री राघव यादवीयं - बाएँ से दाएँ रामकथा, दाएँ से बाएँ कृष्णकथा
बाएँ से दाएँ
वन्देऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥
मैं श्री राम का वंदन करता हूँ जो सीता जी के लिए धड़कते हुए ह्रदय के साथ
रावण और उसके सहायकों का वधकर, सह्याद्रि पर्वतों को पार कर, रावण तथा उसके सहायकों का वध कर, लंबे समय बाद, सीता सहित अयोध्या वापिस आए हैं।
I pay my obeisance to Lord Shri Rama, who with his heart pining for Sita, travelled across the Sahyadri Hills and returned to Ayodhya after killing Ravana and sported with his consort, Sita, in Ayodhya for a long time.
दाएँ से बाएँ
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी मारामोरा ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देहं देवं ॥
मैं श्री कृष्ण का वंदन करता हूँ जिनका ह्रदय श्री लक्ष्मी का निवास है, जो त्याग-तप से ध्यान करने योग्य हैं, जो रुक्मिणी तथा अन्य संगणियों को दुलारते हैं, जो गोपियों द्वारा पूजित हैं तथा जगनागाते हुए रत्नों से शोभायमान हैं।
I bow to Lord Shri Krishna, whose chest is the sporting resort of Shri Lakshmi; who is fit to be contemplated through penance and sacrifice, who fondles Rukmani and his other consorts and who is worshipped by the gopis, and who is decked with jewels radiating splendour.
आभार: श्रीमती जमुना कृष्णराज
हाथी के समानार्थी शब्द:
*
समानार्थी कुञ्जरः,गजः,हस्तिन्, हस्तिपकः,द्विपः, द्विरदः, वारणः, करिन्, मतङ्गः, सुचिकाधरः, सुप्रतीकः, अङ्गूषः, अन्तेःस्वेदः, इभः, कञ्जरः, कञ्जारः, कटिन्, कम्बुः, करिकः, कालिङ्गः, कूचः, गर्जः, चदिरः, चक्रपादः, चन्दिरः, जलकाङ्क्षः, जर्तुः, दण्डवलधिः, दन्तावलः, दीर्घपवनः, दीर्घवक्त्रः, द्रुमारिः, द्विदन्तः, द्विरापः, नगजः, नगरघातः, नर्तकः, निर्झरः, पञ्चनखः, पिचिलः, पीलुः, पिण्डपादः, पिण्डपाद्यः, पृदाकुः, पृष्टहायनः, पुण्ड्रकेलिः, बृहदङ्गः, प्रस्वेदः, मदकलः, मदारः, महाकायः, महामृगः, महानादः, मातंगः, मतंगजः, मत्तकीशः, राजिलः, राजीवः, रक्तपादः, रणमत्तः, रसिकः, लम्बकर्णः, लतालकः, लतारदः, वनजः, वराङ्गः, वारीटः, वितण्डः, षष्टिहायनः, वेदण्डः, वेगदण्डः, वेतण्डः, विलोमजिह्वः, विलोमरसनः, विषाणकः।
(आभार - जमुना कृष्णराज)
छंद सलिला ;
दोही
*
लक्षण छंद -
चंद्र कला पंद्रह शुभ मान, रचें विषम पद आप।
एक-एक ग्यारह सम जान, लघु पद-अंत सुमाप।।
*
उदहारण -
स्नेह सलिल अवगाहन करे, मिट जाए भव ताप।
मदद निबल की जो नित करे, हो जाए प्रभु जाप।।
४.११.२०१९
***
नवगीत:
महका-महका
संजीव
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
लख मयंक की छटा अनूठी
सज्जन हरषे.
नेह नर्मदा नहा नवेली
पायस परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
४.८.२०१९
***
एक गीत -एक पैरोडी
*
ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा ३१
कहा दो दिलों ने, कि मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा ३०
*
ये क्या बात है, आज की चाँदनी में २१
कि हम खो गये, प्यार की रागनी में २१
ये बाँहों में बाँहें, ये बहकी निगाहें २३
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा १९
*
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा २२
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा २१
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो २१
करे कोई दिल आरजू और क्या १९
*
कसम है तुम्हे, तुम अगर मुझ से रूठे २१
रहे सांस जब तक ये बंधन न टूटे २२
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है २१
सनम मैं तुम्हारी रहूंगी सदा १८
फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ 1958
*****
पैरोडी
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा ३०
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा ३१
*
ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा २२
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा २०
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले २१
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा १८
*
अमरनाथ हमको, हैं जां से भी प्यारा २२
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा २०
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे २१
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां २०
*
लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की २१
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की २०
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको २१
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा १७
४-११-२०१९
***
गणितीय दोहा मुक्तक:
*
बिंदु-बिंदु रखते रहे, जुड़ हो गयी लकीर।
जोड़ा किस्मत ने घटा, झट कर दिया फकीर।।
कोशिश-कोशिश गुणा का, आरक्षण से भाग-
रहे शून्य के शून्य हम, अच्छे दिन-तकदीर।।
*
खड़ी सफलता केंद्र पर, परिधि प्रयास अनाथ।
त्रिज्या आश्वासन मुई, कब कर सकी सनाथ।।
छप्पन इंची वक्ष का निकला भरम गुमान-
चाप सिफारिश का लगा, कभी न श्रम के हाथ।।
*
गुणा अधिक हो जोड़ से, रटा रहे तुम पाठ।
उल्टा पा परिणाम हम, आज हुए हैं काठ।।
एक गुणा कर एक से कम, ज्यादा है जोड़-
एक-एक ग्यारह हुए जो उनके हैं ठाठ।।
***
दोहा गीत:
दीपक लेकर हाथ
*
भक्त उतारें आरती,
दीपक लेकर हाथ।
हैं प्रसन्न माँ भारती,
जनगण-मन के साथ।।
*
अमरनाथ सह भवानी,
कार्तिक-गणपति झूम।
चले दिवाली मनाने,
भायी भारत-भूम।।
बसे नर्मदा तीर पर,
गौरी-गौरीनाथ।
भक्त उतारें आरती,
दीपक लेकर हाथ।।
*
सरस्वती सिंह पर हुईं,
दुर्गा सदृश सवार।
मेघदूत सम हंस उड़,
गया भुवन के पार।।
ले विरंचि को आ गया,
कर प्रणाम नत माथ।
भक्त उतारें आरती,
दीपक लेकर हाथ।।
*
सलिल लहर संजीव लख,
सफल साधना धन्य।
त्याग पटाखे, शंख-ध्वनि,
दस दिश गूँज अनन्य।।
श्रम-सीकर से स्नानकर,
मानव हुआ सनाथ।
भक्त उतारें आरती,
दीपक लेकर हाथ।।
*
४.११.२०१८
***
मुक्तक:
सह सकें जितना वही है परिधि अपनी
कह सकें जिससे विधा-विधि वही अपनी
बह सके उस अंजुरि तक जो तृषित है-
तह सके चादर अमल सिधि यही अपनी
(सिधि = सिद्धि)
४.११.२०१५
***
गीत:
उत्तर, खोज रहे...
*
उत्तर, खोज रहे प्रश्नों को, हाथ न आते।
मृग मरीचिकावत दिखते, पल में खो जाते।
*
कैसा विभ्रम राजनीति, पद-नीति हो गयी।
लोकतन्त्र में लोभतन्त्र, विष-बेल बो गयी।।
नेता-अफसर-व्यापारी, जन-हित मिल खाते...
*
नाग-साँप-बिच्छू, विषधर उम्मीदवार हैं।
भ्रष्टों से डर मतदाता करता गुहार है।।
दलदल-मरुथल शिखरों को बौना बतलाते...
*
एक हाथ से दे, दूजे से ले लेता है।
संविधान बिन पेंदी नैया खे लेता है।।
अँधा न्याय, प्रशासन बहरा मिल भरमाते...
*
लोकनीति हो दलविमुक्त, संसद जागृत हो।
अंध विरोध न साध्य, समन्वय शुचि अमृत हो।।
'सलिल' खिलें सद्भाव-सुमन शत सुरभि लुटाते...
*
जो मन भाये- चुनें, नहीं उम्मीदवार हो।
ना प्रचार ना चंदा, ना बैठक उधार हो।।
प्रशासनिक ढाँचे रक्षा का खर्च बचाते...
*
जन प्रतिनिधि निस्वार्थ रहें, सरकार बनायें।
सत्ता और समर्थक, मिलकर सदन चलायें।।
देश पड़ोसी देख एकता शीश झुकाते...
*
रोग हुई दलनीति, उखाड़ो इसको जड़ से।
लोकनीति हो सबल, मुक्त रिश्वत-झंखड़ से।।
दर्पण देख न 'सलिल', किसी से आँख चुराते...
४-११-२०१२
***
नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना:
*
असुर स्वर्ग को नरक बनाते
उनका मरण बने त्यौहार.
देव सदृश वे नर पुजते जो
दीनों का करते उपकार..
अहम्, मोह, आलस्य, क्रोध, भय,
लोभ, स्वार्थ, हिंसा, छल, दुःख,
परपीड़ा, अधर्म, निर्दयता,
अनाचार दे जिसको सुख..
था बलिष्ठ-अत्याचारी
अधिपतियों से लड़ जाता था.
हरा-मार रानी-कुमारियों को
निज दास बनाता था..
बंदीगृह था नरक सरीखा
नरकासुर पाया था नाम.
कृष्ण लड़े, उसका वधकर
पाया जग-वंदन कीर्ति, सुनाम..
रजमहिषियाँ कृष्णाश्रय में
पटरानी बन हँसी-खिलीं.
कहा 'नरक चौदस' इस तिथि को
जनगण को थी मुक्ति मिली..
नगर-ग्राम, घर-द्वार स्वच्छकर
निर्मल तन-मन कर हरषे.
ऐसा लगा कि स्वर्ग सम्पदा
धराधाम पर खुद बरसे..
'रूप चतुर्दशी' पर्व मनाया
सबने एक साथ मिलकर.
आओ हम भी पर्व मनाएँ
दें प्रकाश दीपक बनकर..
'सलिल' सार्थक जीवन तब ही
जब औरों के कष्ट हरें.
एक-दूजे के सुख-दुःख बाँटें
इस धरती को स्वर्ग करें..
४-११-२०१०

***

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

अप्रैल ४, दोहे, हरदयाल, माखनलाल, लावणी छंद, सॉनेट, कुण्डलिया, लघुकथा, पैरोडी

सलिल सृजन अप्रैल ४
दोहा सलिला
शारद माँ लैंग्वेज हैं, ब्रह्मा जी प्रोग्राम।
मिल अनंत गतिविधि करें, निशि-दिन अथक अनाम।।
.
लछमी का आगार है, सी पी यू लें मान।
मॉनीटर हैं विष्णु जी, सकल रसों की खान।।
.
शिव-शंकर की बोर्ड हैं, माउस में गणराज।
पार्वती संचालिका, हैं सबकी सरताज।।
.
सुरगण तैंतिस कोटि मिल, माया रचते नित्य।
भरमाए प्राणी सकल, क्या जाने क्या सत्य।।
.
जो दिखता होता नहीं, जो हो सकें न देख।
व्यर्थ सलिल पर खींचते, फूँक मारकर रेख।।
.
कब क्या होगा सच कहें, जान सका है कौन?।
बड़े-बड़े दावे करें, नादां दाना मौन।।
४.४.२०२५
०००
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की कलम से
प्रश्न यह है कि काम निकाल लेना बुद्धिमानी है या मान के लिए मर मिटना मनुष्यत्व की निशानी है । पहला मत उन लोगों का है जो समझदार माने जाते हैं, जो भावुक नहीं होते, जिनकी दृष्टि सीधे परिणाम तक पहुँची होती है । वे हाथ पर रखे हुए आँवला के फल के समान प्रत्येक वस्तु की उपयोगिता और अनुपयोगिता को स्पष्ट देख लेते हैं । उनकी दृष्टि में काम बड़ी चीज़ है, मान केवल भावुकता का नामांतर है । ऐसे समझदार लोग काम को बड़ा मानते हैं, मान उनकी दृष्टि में नगण्य है । पुराने काव्य की उतावली नायिका के समान वे कहते हैं कि -
मान घटे तै कहा घटिहै
जो पै प्रानपियारे के दर्शन पैये ।
दूसरे मत के माननेवाले लोग सचमुच भावुक होते हैं । उनकी दृष्टि में मान का बड़ा महत्व है । वे मान के साथ दिये गए विष को भी पी लेते हैं और गर्वपूर्वक घोषणा करते हैं कि -
मान सहित विष खाइके शंभु भये जगदीस
बिना मान अमृत पिए राहू कटाए सीस ।
०००
क्रांतिकारियों के सरताज लाला हरदयाल

लाला हरदयाल (१४ अक्टूबर,१८८४-४ मार्च,१९३९) भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के उन अग्रणी क्रान्तिकारियों में थे जिन्होंने विदेश में रहने वाले भारतीयों को देश की आजादी की लडाई में योगदान के लिये प्रेरित व प्रोत्साहित किया। इसके लिये उन्होंने अमरीका में जाकर गदर पार्टी की स्थापना की। उन्होंने प्रवासी भारतीयों के बीच प्रचण्ड देशभक्ति की जो अलख जगायी उसका आवेग उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। काकोरी काण्ड का ऐतिहासिक फैसला आने के बाद मई, सन् १९२७ में लाला हरदयाल को भारत लाने का प्रयास किया गया किन्तु ब्रिटिश सरकार ने अनुमति नहीं दी। इसके बाद सन् १९३८ में पुन: प्रयास करने पर अनुमति भी मिली परन्तु भारत लौटते हुए रास्ते में ही ४ मार्च, १९३९ को अमेरिका के महानगर फिलाडेल्फिया में उनकी रहस्यमय मृत्यु हो गयी।
अनुक्रम
जीवन वृत्त
लाला हरदयाल का जन्म १४ अक्टूबर, १८८४ को दिल्ली में गुरुद्वारा शीशगंज के पीछे स्थित चीराखाना मुहल्ले में हुआ। उनकी माता भोली रानी ने तुलसीकृत रामचरितमानस एवं वीर पूजा के पाठ पढ़ा कर उदात्त भावना, शक्ति एवं सौन्दर्य बुद्धि का संचार किया। उर्दू तथा फारसी के पण्डित पिता गौरीदयाल माथुर ने बेटे को विद्याव्यसनी बना दिया। १७ वर्ष की आयु में सुन्दर रानी नाम की अत्यन्त रूपसी कन्या से उनका विवाह हुआ। दो वर्ष बाद उन दोनों को एक पुत्र की प्राप्ति हुई
शिक्षा दीक्षा
लाला हरदयाल की आरम्भिक शिक्षा कैम्ब्रिज मिशन स्कूल में हुई। इसके बाद सेंट स्टीफेंस कालेज, दिल्ली से संस्कृत में स्नातक किया। तत्पश्चात् पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से संस्कृत में ही एम०ए० किया। इस परीक्षा में उन्हें इतने अंक प्राप्त हुए थे कि सरकार की ओर से २०० पौण्ड की छात्रवृत्ति दी गयी। हरदयाल जी उस छात्रवृत्ति के सहारे आगे पढ़ने के लिये लन्दन चले गये और सन् १९०५ में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहाँ उन्होंने दो छात्रवृत्तियाँ और प्राप्त कीं। हरदयाल जी की यह विशेषता थी कि वे एक समय में पाँच कार्य एक साथ कर लेते थे। १२ घंटे का नोटिस देकर इनके सहपाठी मित्र इनसे शेक्सपियर का कोई भी नाटक मुँहज़बानी सुन लिया करते थे ।
इसके पहले ही वे मास्टर अमीरचन्द की गुप्त क्रान्तिकारी संस्था के सदस्य बन चुके थे। उन दिनों लन्दन में श्यामजी कृष्ण वर्मा भी रहते थे जिन्होंने देशभक्ति का प्रचार करने के लिये वहीं इण्डिया हाउस की स्थापना की हुई थी । इतिहास के अध्ययन के परिणामस्वरूप अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को पाप समझकर सन् १९०७ में "भाड़ में जाये आई०सी०एस०" कह कर उन्होंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय तत्काल छोड़ दिया और लन्दन में देशभक्त समाज स्थापित कर असहयोग आन्दोलन का प्रचार करने लगे जिसका विचार गान्धी जी को काफी देर बाद सन् १९२० में आया। भारत को स्वतन्त्र करने के लिये लाला जी की यह योजना थी कि जनता में राष्ट्रीय भावना जगाने के पश्चात् पहले सरकार की कड़ी आलोचना की जाये फिर युद्ध की तैयारी की जाये, तभी कोई ठोस परिणाम मिल सकता है, अन्यथा नहीं। कुछ दिनों विदेश में रहने के बाद १९०८ में वे भारत वापस लौट आये।
यंग मैन इण्डिया एसोसियेशन की स्थापना
बात उन दिनों की है जब लाहौर में युवाओं के मनोरंजन के लिये एक ही क्लब हुआ करता था जिसका नाम था यंग मैन क्रिश्चयन एसोसियेशन या 'वाई एम् सी ए'। उस समय लाला हरदयाल लाहौर में एम० ए० कर रहे थे। संयोग से उनकी क्लब के सचिव से किसी बात को लेकर तीखी बहस हो गयी। लाला जी ने आव देखा न ताव, तुरन्त ही 'वाई एम् सी ए'के समानान्तर यंग मैन इण्डिया एसोसियेशन की स्थापना कर डाली। लाला जी के कालेज में मोहम्मद अल्लामा इक़बाल भी प्रोफेसर थे जो वहाँ दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। उन दोनों के बीच अच्छी मित्रता थी। जब लाला जी ने प्रो० इकबाल से एसोसियेशन के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने को कहा तो वह सहर्ष तैयार हो गये। इस समारोह में इकबाल ने अपनी प्रसिद्ध रचना "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा" तरन्नुम में सुनायी थी। ऐसा शायद पहली बार हुआ कि किसी समारोह के अध्यक्ष ने अपने अध्यक्षीय भाषण के स्थान पर कोई तराना गाया हो। इस छोटी लेकिन जोश भरी रचना का श्रोताओं पर इतना गहरा प्रभाव हुआ कि इक़बाल को समारोह के आरम्भ और समापन- दोनों ही अवसरों पर ये गीत सुनाना पड़ा।
भारत आगमन
भारत लौट कर सबसे पहले पूना जाकर वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से मिले। उसके बाद फिर न जाने क्या हुआ कि उन्होंने पटियाला पहुँच कर गौतम बुद्ध के समान सन्यास ले लिया। शिष्य-मण्डली के सम्मुख लगातार 3 सप्ताह तक संसार के क्रान्तिकारियों के जीवन का विवेचन किया। तत्पश्चात् लाहौर के अँगरेजी दैनिक पंजाबी का सम्पादन करने लगे। लाला जी के आलस्य-त्याग, अहंकार-शून्यता, सरलता, विद्वत्ता, भाषा पर आधिपत्य, बुद्धिप्रखरता, राष्ट्रभक्ति का ओज तथा परदु:ख में संवेदनशीलता जैसे असाधारण गुणों के कारण कोई भी व्यक्ति एक बार उनका दर्शन करते ही मुग्ध हो जाता था। वे अपने सभी निजी पत्र हिन्दी में ही लिखते थे किन्तु दक्षिण भारत के भक्तों को सदैव संस्कृत में उत्तर देते थे। लाला जी वहुधा यह बात कहा करते थे- "अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से राष्ट्रीय चरित्र तो नष्ट होता ही है राष्ट्रीय जीवन का स्रोत भी विषाक्त हो जाता है। अंग्रेज ईसाइयत के प्रसार द्वारा हमारे दासत्व को स्थायी बना रहे हैं।" आज उनकी कही हुई बातों को हिन्दुस्तान में घटित होता हुआ सभी देख रहे हैं।
पुन: विदेश गमन
१९०८ में फिर सरकारी दमन चक्र चला। लाला जी के आग्नेय प्रवचनों के परिणामस्वरूप विद्यार्थी कॉलेज छोड़ने लगे और सरकारी कर्मचारी अपनी-अपनी नौकरियाँ। भयभीत सरकार इन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनाने में जुट गयी। लाला लाजपत राय के परामर्श को शिरोधार्य कर आप फौरन पेरिस चले गये और वहीं रहकर जेनेवा से निकलने वाली मासिक पत्रिका वन्दे मातरम् का सम्पादन करने लगे। गोपाल कृष्ण गोखले जैसे मॉडरेटों की आलोचना अपने लेखों में खुल कर किया करते थे। हुतात्मा मदनलाल ढींगरा के सम्बन्ध में उन्होंने एक लेख में लिखा था - "इस अमर वीर के शब्दों एवं कृत्यों पर शतकों तक विचार किया जायेगा जो मृत्यु से नव-वधू के समान प्यार करता था।" मदनलाल ढींगरा ने फाँसी से पूर्व कहा था - "मेरे राष्ट्र का अपमान परमात्मा का अपमान है और यह अपमान मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता था अत: मैं जो कुछ कर सकता था वही मैंने किया। मुझे अपने किये पर जरा भी पश्चात्ताप नहीं है। "
लाला हरदयाल ने पेरिस को अपना प्रचार-केन्द्र बनाना चाहा था किन्तु वहाँ पर इनके रहने खाने का प्रबन्ध प्रवासी भारतीय देशभक्त न कर सके। विवश होकर वे सन् १९१० में पहले अल्जीरिया गये बाद में एकान्तवास हेतु एक अन्य स्थान खोज लिया और लामार्तनीक द्वीप में जाकर महात्मा बुद्ध के समान तप करने लगे। परन्तु वहाँ भी अधिक दिनों तक न रह सके और भाई परमानन्द के अनुरोध पर हिन्दू संस्कृति के प्रचारार्थ अमरीका चले गये। तत्पश्चात् होनोलूलू के समुद्र तट पर एक गुफा में रहकर आदि शंकराचार्य, काण्ट, हीगल व कार्ल मार्क्स आदि का अध्ययन करने लगे। भाई परमानन्द के कहने पर इन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में हिन्दू दर्शन पर कई व्याख्यान दिए। अमरीकी बुद्धिजीवी इन्हें हिन्दू सन्त, ऋषि एवं स्वतन्त्रता सेनानी कहा करते थे। १९१२ में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में हिन्दू दर्शन तथा संस्कृत के ऑनरेरी प्रोफेसर नियुक्त हुए। वहीं रहते हुए आपने गदर पत्रिका निकालनी प्रारम्भ की। पत्रिका ने अपना रँग दिखाना प्रारम्भ ही किया था कि जर्मनी और इंग्लैण्ड में भयंकर युद्ध छिड़ गया। लाला जी ने विदेश में रह रहे सिक्खों को स्वदेश लौटने के लिये प्रेरित किया। इसके लिये वे स्थान-स्थान पर जाकर प्रवासी भारतीय सिक्खों में ओजस्वी व्याख्यान दिया करते थे। आपके उन व्याख्यानों के प्रभाव से ही लगभग दस हजार पंजाबी सिक्ख भारत लौटे। कितने ही रास्ते में गोली से उड़ा दिये गये। जिन्होंने भी विप्लव मचाया वे सूली पर चढ़ा दिये गये। लाला हरदयाल ने उधर अमरीका में और भाई परमानन्द ने इधर भारत में क्रान्ति की अग्नि को प्रचण्ड किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि दोनों ही गिरफ्तार कर लिये गये। भाई परमानन्द को पहले फाँसी का दण्ड सुनाया गया बाद में उसे काला पानी की सजा में बदल दिया गया परन्तु हरदयाल जी अपने बुद्धि-कौशल्य से अचानक स्विट्ज़रलैण्ड खिसक गये और जर्मनी के साथ मिल कर भारत को स्वतन्त्र करने के यत्न करने लगे। महायुद्ध के उत्तर भाग में जब जर्मनी हारने लगा तो लाला जी वहाँ से चुपचाप स्वीडन चले गये। उन्होंने वहाँ की भाषा आनन-फानन में सीख ली और स्विस भाषा में ही इतिहास, संगीत, दर्शन आदि पर व्याख्यान देने लगे। उस समय तक वे विश्व की तेरह भाषाएं पूरी तरह सीख चुके थे।
परदेश में ही प्राणान्त
लाला जी को सन् १९२७ में भारत लाने के सारे प्रयास जब असफल हो गये तो उन्होंने इंग्लैण्ड में ही रहने का मन बनाया और वहीं रहते हुए डॉक्ट्रिन्स ऑफ बोधिसत्व नामक शोधपूर्ण पुस्तक लिखी जिस पर उन्हें लंदन विश्वविद्यालय ने पीएच०डी० की उपाधि प्रदान की। बाद में लन्दन से ही उनकी कालजयी कृति हिंट्स फार सेल्फ कल्चर छपी जिसे पढ़िये तो आपको लगेगा कि लाला हरदयाल की विद्वत्ता अथाह थी। अन्तिम पुस्तक ट्वेल्व रिलीजन्स ऐण्ड मॉर्डन लाइफ में उन्होंने मानवता पर विशेष बल दिया। मानवता को अपना धर्म मान कर उन्होंने लन्दन में ही आधुनिक संस्कृति संस्था भी स्थापित की। तत्कालीन ब्रिटिश भारत की सरकार ने उन्हें सन् १९३८ में हिन्दुस्तान लौटने की अनुमति दे दी। अनुमति मिलते ही उन्होंने स्वदेश लौटकर जीवन को देशोत्थान में लगाने का निश्चय किया।
हिन्दुस्तान के लोग इस बात पर बहस कर रहे थे कि लाला जी स्वदेश आयेंगे भी या नहीं, किन्तु इस देश के दुर्भाग्य से लाला जी के शरीर में अवस्थित उस महान आत्मा ने फिलाडेल्फिया में ४ मार्च, १९३८ को अपने उस शरीर को स्वयं ही त्याग दिया। लाला जी जीवित रहते हुए भारत नहीं लौट सके। उनकी अकस्मात् मृत्यु ने सभी देशभक्तों को असमंजस में डाल दिया। तरह-तरह की अटकलें लगायी जाने लगीं। परन्तु उनके बचपन के मित्र लाला हनुमन्त सहाय जब तक जीवित रहे बराबर यही कहते रहे कि हरदयाल की मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी, उन्हें विष देकर मारा गया।
लाला हरदयाल की रचनाएँ
लाला हरदयाल गम्भीर आदर्शवादी, भारतीय स्वतन्त्रता के निर्भीक समर्थक, ओजस्वी वक्ता और लब्धप्रतिष्ठ लेखक थे। वे हिन्दू तथा बौद्ध धर्म के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनके जैसा अद्भुत स्मरणशक्ति धारक व्यक्तित्व विश्व में कोई विरला ही हुआ होगा। वे उद्धरण देते समय कभी ग्रन्थ नहीं पलटते थे बल्कि अपनी विलक्षण स्मृति के आधार पर सीधा लिख दिया करते थे कि यह अंश अमुक पुस्तक के अमुक पृष्ठ से लिया गया है। लोगबाग उनकी विद्वत्ता के कायल थे। यहाँ पर उनकी रचनाओं की सूची दी जा रही है।
Thoughts on Education
युगान्तर सरकुलर
राजद्रोही प्रतिबन्धित साहित्य(गदर,ऐलाने-जंग,जंग-दा-हांका)
Social Conquest of Hindu Race
Writings of Hardayal
Forty Four Months in Germany & Turkey
स्वाधीन विचार
लाला हरदयाल जी के स्वाधीन विचार
अमृत में विष
Hints For Self Culture
Twelve Religions & Modern Life
Glimpses of World Religions
Bodhisatva Doctrines
व्यक्तित्व विकास (संघर्ष और सफलता)
***
मुक्तिका
याद आ रही याद फिर।
या आए हैं मेघ घिर?
देख रहे वर्तुल अगिन।
जल में कंकर फेंककर।।
जब छूता सुरभित पवन।
'आया' सोचे मन सिहर।।
प्राची में छवि दिख कहे- पकड़,
किरण बनकर निखर।।
दस दिश में सुधियाँ ही सुधियाँ।
हाथ न आतीं, बिखर बिखर।।
•••
मुक्तक
लावणी छंद
महलों में सन्नाटा छाया, कलरव है फुटपाथों पे
हाथों की रेखाएँ हँसकर, आ बैठी हैं माथों में
चाहों में है एक बसा तो दूजा क्यों है बाँहों में
कौन बताए किससे पूछें, किसकी कौन पनाहों में?
४-४-२०२३
सॉनेट
दादा
*
दादा माखनलाल प्रणाम।
खासुलखास, रहे बन आम।
सदा देश के आए काम।।
दसों दिशा में गूँजा नाम।।
शस्त्र उठा विद्रोह किया।
अमिय अहिंसा विहँस पिया।।
शब्द-बाण जब चला दिया।।
अँग्रेजों का हिला जिया।।
'प्रभा','प्रताप' मशाल बना।
कर्मवीर' युग-नाद घना।
'हिम किरीटिनी' दर्द घना।
रखे 'युग चरण' ख्वाब बुना।
जीवन जिया नर्मदा सम।
सुदृढ़ वज्र, माखन सम नम।।
४-४-२०२२
•••
सॉनेट
विनय
विनय सुनें हे तारणहार!
ले भावों का बंदनवार।
आया तव आत्मज सब हार।।
लाया है अँजुरी भर प्यार।।
करी बहुत तज दी तकरार।
किया बहुत त्यागा श्रंगार।
है समान अब हिम-अंगार।।
तुम पर बरबस ही दिल हार।।
पल भर तो लो ईश! निहार।
स्वीकारो हँसकर सत्कार।
मैं कैसे बिसरे सरकार!
युक्ति बता दो प्रभु! पुचकार।।
हारा, हरि! अब हो दीदार।
करुणा कर मेरे करतार!!
४•४•२०२२
•••
कुण्डलिया
नोटा
नोटा तो ब्रह्मास्त्र है, समझ लीजिए आप।
अनाचार पर चलाकर, मिटा दीजिए पाप।।
मिटा दीजिए पाप, न भ्रष्टाचार सहो अब।
जो प्रत्याशी गलत, उसे मिल दूर करो सब।।
कहे 'सलिल' कविराय, न जाए तुमको पोटा।
सजग मौन रह आप, मात दें चुनकर नोटा।।
***
एक द्विपदी
करें न शिकवा, नहीं शिकायत, तुमने जात दिखा दी है।
अश्क़ बहकर मौन-दूर हम, तुमको यही सजा दी है।।
४-४-२०२१
***
लघुकथा
*
अँधा बाँटे रेवड़ी
*
जंगल में भीषण गर्मी पड़ रही थी। नदियों, झरनों, तालाबों, कुओं आदि में पानी लगातार कम हो रहा था। दोपहर में गरम लू चलती तो वनराज से लेकर भालू और लोमड़ी तक गुफाओं और बिलों में घुसकर ए.सी., पंखे आदि चलाते रहते। हाथी और बंदर जैसे पशु अपने कानों और वृक्षों की पत्तियों से हवा करते रहते फिर भी चैन न पड़ता।
जंगल के प्रमुख विद्युत् मंत्री चीते की चिंता का ठिकाना नहीं था। हर दिन बढ़ता विद्युत् भार सम्हालते-सम्हालते उसके दल को न दिन में चैन था, न रात में। लगातार चलती टरबाइनें ओवरहालिंग माँग रही थीं। विवश होकर उसने वनराज शेर से परामर्श किया। वनराज ने समस्या को समझा पर समस्या यह थी कोई भी वनवासी सुधार कार्य के लिए स्वेच्छा से बिजली कटौती के लिए तैयार नहीं था और जबरदस्ती बिजली बंद करने पर जन असंतोष भड़कने की संभावना थी।
महामंत्री गजराज ने गहन मंथन के बाद एक समाधान सुझाया। तदनुसार एक योजना बनाई गयी। वनराज ने जंगल के सभी निवासियों से अपील की कि वे एक दिन निर्धारित समय पर बिजली बंद कर सिर्फ मोमबत्ती, दिया, लालटेन, चिमनी आदि जलाकर इंद्र देवता को प्रसन्न करें ताकि आगामी वर्ष वर्षा अच्छी हो। संचार मंत्री वानर सब प्राणियों को सूचित करने के लिए अपने दल-बल के साथ जुट गए।
वनराज के साथ के साथ विद्युत् मंत्री, विद्युत सचिव, प्रमुख विद्युत् अभियंता आदि कार्य योजना को अंतिम रूप देनेके लिए बैठे। अभियंता के अनुसार गंभीर समस्या यह थी कि जंगल के भिन्न-भिन्न हिस्सों में बिजली प्रदाय ग्रिड बनाकर किया जा रहा था। एकाएक ग्रिडों में बिजली की माँग घटने के कारण फ्रीक्वेंसी संतुलन बिगड़ने, रिले , कंडक्टर आदि पर असामान्य विद्युत् भार के कारण प्रणाली जर्क और ग्रिड फेल होने की संभावना थी। ऐसा होने पर सुधार कार्य में अधिक समय लगता। मंत्री, सचिव आदि घंटों सिर खपकर भी कोई समाधान नहीं निकल सके। प्रमुख अभियंता के साथ आये एक फील्ड इंजीनियर ने सँकुचाते हुए कुछ कहने के लिए हाथ उठाया। सचिव ने उसे घूरकर देखा तो उसने झट हाथ नीचे कर लिया पर वनराज ने उसे प्रोत्साहित करते हुए कहा 'रुक क्यों गए? बेझिझक कहो, जो कहना है।"
फील्ड इंजीनियर ने कहा यदि हम लोगों को केवल बल्ब-ट्यूबलाइट आदि बंद करने के लिए कहें और पंखे, ए.सी. आदि बंद न करने के लिए कहें तो ग्रिड में फ्रीक्वेंसी संतुलन बिगड़ने की संभावना न्यूनतम हो जायेगी। विचार-विमर्श के बाद इस योजना को स्वीकार कर तदनुसार लागू किया गया। वन्य प्रजा को बिजली कम खर्च करने की प्रेरणा मिली। ग्रिड फेल नहीं हुआ। इस सफलता के लिए मंत्री और सचिव को सम्मान मिले, किसी को याद न रहा कि अभियंता की भी कोई भूमिका था। सम्मान समारोह में आया काला कौआ बोलै पड़ा 'अँधा बाँटे रेवड़ी"
***
***
गीत
*
रक्तबीज था हुआ कभी जो
लौट आया है।
राक्षस ने कोरोना का
नाम पाया है।
गिरेगी विष बूँद
जिस भी सतह पर
उसे छूकर मनुज जो
आगे बढ़ेगा
उसीको माध्यम बनाकर
यह चढ़ेगा
बढ़ा तन का ताप
देगा पीर थोड़ी
किन्तु लेगा रोक श्वासा
आस छोड़ी
अंतत: स्वर्गीय हो
चाहे न भाया है।
सीख दुर्गा माई से
हम भी तनिक लें
कोरोना जी बच सकें
वह जगह मत दें
रहें घर में, घर बने घर
कोरोना से कहें: 'जा मर'
दूरियाँ मन में न हों पर
बदन रक्खें दूर ही हम
हवा में जो वायरस हैं
तोड़ पंद्रह मिनिट में दम
मर-मिटें मानव न यदि
आधार पाया है।
जलाएँ मिल दीप
आशा के नए हम
भगाएँ जीवन-धरा से
भय, न हो तम
एकता की भावधारा
हो सबल अब
स्वच्छता आधार
जीवन का बने अब
न्यून कर आवश्यकताएँ
सर तनें सब
विपद को जय कर
नया वरदान पाया है
रक्तबीज था हुआ कभी जो
लौट आया है।
राक्षस ने कोरोना का
नाम पाया है।
४.४.२०२०
***
एक गीत -एक पैरोडी
*
ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा ३१
कहा दो दिलों ने, कि मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा ३०
*
ये क्या बात है, आज की चाँदनी में २१
कि हम खो गये, प्यार की रागनी में २१
ये बाँहों में बाँहें, ये बहकी निगाहें २३
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा १९
*
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा २२
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा २१
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो २१
करे कोई दिल आरजू और क्या १९
*
कसम है तुम्हे, तुम अगर मुझ से रूठे २१
रहे सांस जब तक ये बंधन न टूटे २२
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है २१
सनम मैं तुम्हारी रहूंगी सदा १८
फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ 1958
*****
पैरोडी
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा ३०
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा ३१
*
ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा २२
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा २०
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले २१
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा १८
*
अमरनाथ हमको, हैं जां से भी प्यारा २२
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा २०
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे २१
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां २०
*
लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की २१
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की २०
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको २१
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा १७
४-४-२०१९
***
कार्यशाला:
दोहा से कुंडली
*
ऊँची-ऊँची ख्वाहिशें, बनी पतन का द्वार।
इनके नीचे दब गया, सपनों का संसार।।
दोहा: तृप्ति अग्निहोत्री,लखीमपुर खीरी
सपनों का संसार न लेकिन तृप्ति मिल रही
अग्निहोत्र बिन हवा विषैली आस ढल रही
सलिल' लहर गिरि नद सागर तक बहती नीची
कैसे हरती प्यास अगर वह बहती ऊँची
रोला: संजीव वर्मा सलिल
४-४-२०१९
***
मुक्तक: अर्पण
मैला-चटका है, मेरा मन दर्पण
बतलाओ तो किसको कर दू अर्पण?
जो स्वीकारे सहज भाव से इसको
होकर क्रुद्ध न कर दे मेरा तर्पण
४-४-२०१८
***
विमर्श
सात लोक और लौकिक छन्द
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अध्यात्म शास्त्र में वर्णित सात लोक भू-लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, तपः लोक, महः लोक, जनः लोक और सत्य लोक हैं। ये किसी ग्रह, नक्षत्र में स्थित अथवा अधर में लटके हुए स्थान नहीं, स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की स्थिति मात्र हैं। पिंगल शास्त्र में सप्त लोकों के आधार पर सात मात्राओं के छंदों को 'लौकिक छंद' कहा गया है।
सामान्य दृष्टि से भूलोक में रेत, पत्थर, वृक्ष, वनस्पति, खनिज, प्राणी, जल आदि पदार्थ हैं। इसके भीतर की स्थिति है आँखों से नहीं, सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखी-समझी जा सकती है। हवा में मिली गैसें, जीवाणु आदि इस श्रेणी में हैं। इससे गहरी अणु सत्ता के विश्लेषण में उतरने पर विभिन्न अणुओं-परमाणुओं के उड़ते हुए अन्धड़ और अदलते-बदलते गुच्छक हैं। अणु सत्ता का विश्लेषण करने पर उसके सूक्ष्म घटक पदार्थ नहीं,विद्युत स्फुल्लिंग मात्र दृष्टिगोचर होते हैं। तदनुसार ऊर्जा प्रवाह ही संसार में एकमात्र विद्यमान सत्ता प्रतीत होती है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हुए हम कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं किंतु स्थान परिवर्तन नहीं होता। अपने इसी स्थान में यह स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से अति सूक्ष्म, अति सूक्ष्म से महा सूक्ष्म की स्थिति बनती जाती है।
सात लोकों का स्थान कहीं बाहर या अलग-अलग नहीं है। वे एक शरीर के भीतर अवयव, अवयवों के भीतर माँस-पेशियाँ, माँस-पेशियों के भीतर ज्ञान-तंतु, ज्ञान-तन्तुओं के भीतर मस्तिष्कीय विद्युत आदि की तरह हैं। वे एक के भीतर एक के क्रम से क्रमशः भीतर के भीतर-समाये, अनुभव किये जा सकते हैं। सात लोकों की सत्ता स्थूल लोक के भीतर ही सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम और अति सूक्ष्म होती गई है। सबका स्थान वही है जिसमें हम स्थित हैं। ब्रह्मांड के भीतर ब्रह्मांड की सत्ता परमाणु की मध्यवर्ती नाभिक के अन्तर्गत प्राप्त अति सूक्ष्म किन्तु विशाल ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करनेवाले ब्रह्म-बीज में प्राप्य है।
जीव की देह भी ब्रह्म शरीर का प्रतीक प्रतिनिधि (बीज) है। उसके भीतर भी सात लोक हैं। इन्हें सात शरीर (सप्त धातु-रस, रक्त, माँस, अस्थि, मज्जा, शुक्र, ओजस) कहा जाता है। भौतिक तन में छह धातुएँ हैं, सातवीं ओजस् तो आत्मा की ऊर्जा मात्र है। इनके स्थान अलग-अलग नहीं हैं। वे एक के भीतर एक समाये हैं। इसी तरह चेतना शरीर भी सात शरीरों का समुच्चय है। वे भी एक के भीतर एक के क्रम से अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं।
योग शास्त्र में इन्हें चक्रों का नाम दिया गया है। छह चक्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सातवाँ सहस्रार कमल। कहीं छह, कहीं सात की गणना से भ्रमित न हों। सातवाँ लोक सत्यलोक है। सत्य अर्थात् पूर्ण परमात्मा । इससे नीचे के लोक भी तथा साधना में प्रयुक्त होने वाले चक्र छ:-छ: ही हैं। सातवाँ सहस्रार कमल ब्रह्मलोक है। उस में शेष ६ लोक लय होते है। सात या छह के भेद-भाव को इस तरह समझा जा सकता है। देवालय सात मील दूर है। बीच में छह मील के पत्थर और सातवाँ मील पत्थर प्रत्यक्ष देवालय। छह गिने या सात इससे वस्तुस्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।
मनुष्य के सात शरीरों का वर्णन तत्ववेत्ताओं ने इस प्रकार किया हैं- (१) स्थूल शरीर-फिजिकल बाड़ी (२) सूक्ष्म शरीर इथरिक बॉडी (३) कारण शरीर-एस्ट्रल बॉडी (४)मानस शरीर-मेन्टल बॉडी (५) आत्मिक शरीर-स्प्रिचुअल बॉडी (६) देव शरीर -कॉस्मिक बॉडी (७) ब्रह्म शरीर-वाडीलेस बॉडी।
सप्त धातुओं का बना भौतिक शरीर प्रत्यक्ष है। इसे देखा, छुआ और इन्द्रिय सहित अनुभव किया जा सकता है। जन्मतः प्राणी इसी कलेवर को धारण किये होता है। उनमें प्रायः इन्द्रिय चेतना जागृत होती है। भूख, सर्दी-गर्मी जैसी शरीरगत अनुभूतियाँ सक्षम रहती हैं। पशु शरीर आजीवन इसी स्थिति में रहते हैं। मनुष्य के सातों शरीर क्रमशः विकसित होते हैं। भ्रूण पड़ते ही सूक्ष्म मानव शरीर जागृत होने लगता है। इच्छाओं और सम्वेदनाओं के रूप में इसका विकास होता है। मानापमान, अपना-पराया, राग-द्वेष, सन्तोष-असन्तोष, मिलन-वियोग जैसे अनुभव भाव (सूक्ष्म) शरीर को होते हैं। बीज में से पहले अंकुर निकलता है, तब उसका विकास पत्तों के रूप में होता है। स्थूल शरीर को अंकुर और सूक्ष्म शरीर पत्ता कह सकते हैं। फिजिकल बॉडी यथास्थान बनी रहती है, पर उसमें नई शाखा भाव शरीर एस्ट्रल बॉडी के रूप में विकसित होती है।सातों शरीरों का अस्तित्व आत्मा के साथ-साथ ही है, पर उनका विकास आयु और परिस्थितियों के आधार पर धीमे अथवा तीव्र गति से स्वल्प-अधिक मात्रा में होता है।
तीसरा कारण शरीर विचार, तर्क, बुद्धि से सम्बन्धित है। इसका विकास, व्यावहारिक, सभ्यता और मान्यतापरक संस्कृति के आधार पर होता है। यह किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते आरम्भ होता है और वयस्क होने तक अपने अस्तित्व का परिचय देने लगता है। बालक को मताधिकार १८ वर्ष की आयु में मिलता है। अल्प वयस्कता इसी अवधि में पहुँचने पर पूरी होती है। बारह से लेकर अठारह वर्ष की आयु में शरीर का काम चलाऊ विकास हो जाता है। यौन सम्वेदनाएँ इसी अवधि में जागृत होती हैं। सामान्य मनुष्य इतनी ही ऊँचाई तक बढ़ते हैं। फिजिकल-इथरिक और एस्ट्रल बॉडी के तीन वस्त्र पहनकर ही सामान्य लोग दरिद्रता में जीवन बिताते हैं। इसलिए सामान्यत: तीन शरीरों की ही चर्चा होती है। स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीरों की व्याख्या कर बात पूरी कर ली जाती है। प्रथम शरीर में शरीरगत अनुभूतियों का सुख-दुःख, दूसरे में भाव सम्वेदनाएँ और तीसरे में लोकाचार एवं यौनाचार की प्रौढ़ता विकसित होकर एक कामचलाऊ मनुष्य का ढाँचा खड़ा हो जाता है।
तीन शरीरों के बाद मनुष्य की विशिष्टताएँ आरम्भ होती हैं। मनस् शरीर में कलात्मक रसानुभूति होती है। कवित्व जगता है। कोमल सम्वेदनाएँ उभरती हैं। कलाकार, कवि, सम्वेदनाओं के भाव लोक में विचरण करने वाले भक्त-जन, दार्शनिक, करुणार्द्र, उदार, देश-भक्त इसी स्तर के विकसित होने से बनते हैं। यह स्तर उभरे तो पर विकृत बन चले तो व्यसन और व्याभिचार जन्य क्रीड़ा-कौतुकों में रस लेने लगता है। विकसित मनस् क्षेत्र के व्यक्ति असामान्य होते हैं। इस स्तर के लोग कामुक-रसिक हो सकते हैं। सूरदास, तुलसीदास जैसे सन्त अपने आरम्भिक दिनों में कामुक थे। वही ऊर्जा जब भिन्न दिशा में प्रवाहित हो तो सम्वेदनाएँ कुछ से कुछ करके दिखाने लगीं। महत्वाकाँक्षाएँ (अहंकार) इसी क्षेत्र में जागृत होती हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति भौतिक जीवन में तरह-तरह के महत्वपूर्ण प्रयास कर असाधारण प्रतिभाशाली कहलाते हैं। प्रतिभागी लोगों का मनस् तत्व प्रबल होता है। उन्हें मनस्वी भी कहा जा सकता है। बाल्मीक, अँगुलिमाल, अशोक जैसे महत्वाकांक्षी विकृत मनःस्थिति में घोर आतंकवादी रहे, पर जब सही दिशा में मुड़ गये तो उन्हें चोटी की सफलता प्राप्त करने में देर नहीं लगी। इसे मेन्टल बॉडी की प्रखरता एवं चमत्कारिता कहा जा सकता है।
पाँचवाँ शरीर-आत्मिक शरीर स्प्रिचुअल बॉडी अतीन्द्रिय शक्तियों का आवास होता है। अचेतन मन की गहरी परतें जिनमें दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। इसी पाँचवें शरीर से सम्बन्धित हैं। मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, टेलीपैथी, क्लैरेहवाइंस जैसे प्रयोग इसी स्तर के विकसित होने पर होते हैं । कठोर तन्त्र साधनाएँ एवं उग्र तपश्चर्याएँ इसी शरीर को परिपुष्ट बनाने के लिए की जाती हैं। संक्षेप में इसे ‘दैत्य’ सत्ता कहा जा सकता है। सिद्धि और चमत्कारों की घटनाएँ- संकल्प शक्ति के बढ़े-चढ़े प्रयोग इसी स्तर के समर्थ होने पर सम्भव होते हैं। सामान्य सपने सभी देखते हैं पर जब चेतना इस पाँचवे शरीर में जमी होती है तो किसी घटना का सन्देश देने वाले सपने भी दीख सकते हैं। उनमें भूत, भविष्य की जानकारियों तथा किन्हीं रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन भी होता है। भविष्यवक्ताओं, तान्त्रिकों एवं चमत्कारी सिद्धि पुरुषों की गणना पाँचवे शरीर की जागृति से ही सम्भव होती है। ऊँची मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य जमीन पर खड़े मनुष्य की तुलना में अधिक दूर की स्थिति देख सकता है। जमीन पर खड़ा आदमी आँधी का अनुभव तब करेगा जब वह बिलकुल सामने आ जायगी। पर मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य कई मील दूर जब आँधी होंगी तभी उसकी भविष्यवाणी कर सकता है। इतने मील दूर वर्षा हो रही है। अथवा अमुक स्थान पर इतने लोग इकट्ठे हैं। इसका वर्णन वह कर सकता जो ऊँचे पर खड़ा है और आँखों पर दूरबीन चढ़ाये है, नीचे खड़े व्यक्ति के लिए यह सिद्धि चमत्कार है, पर मीनार पर बैठे व्यक्ति के लिए यह दूरदर्शन नितान्त सरल और स्वाभाविक है।
छठे शरीर को देव शरीर कहते हैं-यही कॉस्मिक बाड़ी है। ऋषि , तपस्वी, योगी इसी स्तर पर पहुँचने पर बना जा सकता है। ब्राह्मणों और सन्तों का भू-देव, भू-सुर नामकरण उनकी दैवी अन्तःस्थिति के आधार पर है। स्वर्ग और मुक्ति इस स्थिति में पहुँचने पर मिलनेवाला मधुर फल है। सामान्य मनुष्य चर्म-चक्षुओं से देखता है, पर देव शरीर में दिव्य चक्षु खुलते हैं और “सियाराम मय सब जग जानी” के विराट ब्रह्मदर्शन की मनःस्थिति बन जाती है। कण-कण में ईश्वरीय सत्ता के दर्शन होते हैं और इस दिव्य उद्यान में सर्वत्र सुगंध महकती प्रतीत होती हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण ही स्वर्ग है। स्वर्ग में देवता रहते हैं। देव शरीर में जागृत मनुष्यों के अन्दर उत्कृष्ट चिन्तन और बाहर आदर्श कर्तृत्व सक्रिय रहता है। तदनुसार भीतर शान्ति की मनःस्थिति और बाहर सुख भरी परिस्थिति भरी-पूरी दृष्टिगोचर होती है। स्वर्ग इसी स्थिति का नाम है। जो ऐसी भूमिका में निर्वाह करते हैं। उन्हें देव कहते हैं। असुर मनुष्य और देव यह आकृति से तो एक किन्तु प्रकृति से भिन्न होते हैं।
भौतिकवादी लोक-मान्यताओं का ऐसे देव मानवों पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ता । वे निन्दा-स्तुति की, संयोग-वियोग की, हानि-लाभ की, मानापमान की लौकिक सम्वेदनाओं से बहुत ऊँचे उठ जाते हैं। लोक मान्यताओं को वे बाल-बुद्धि की दृष्टि से देखते हैं। लोभ-मोह, वासना-तृष्णा के भव-बन्धन सामान्य मनुष्यों को बेतरह जकड़कर कठपुतली की तरह नचाते हैं। छठवीं देव भूमिका में पहुँची देव आत्माएँ आदर्श और कर्त्तव्य मात्र को पर्याप्त मानती हैं। आत्मा और परमात्मा को सन्तोष देना ही उन्हें पर्याप्त लगता है। वे अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करते समय लोक मान्यताओं पर तनिक भी ध्यान नहीं देते वरन् उच्चस्तरीय चेतना से प्रकाश ग्रहण करते हैं। इन्हें भव-बन्धनों से मुक्त-जीवन मुक्त कहा जाता है। मुक्ति या मोक्ष प्राप्त कर लेना इसी स्थिति का नाम है। यह छोटे शरीर में देव स्थिति में कॉस्मिक बॉडी में विकसित आत्माओं को उपलब्ध होता है।
सातवाँ ब्रह्म शरीर है। इसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होता है। वे शरीर झड़ जाते हैं जो किसी न किसी प्रकार भौतिक जगत से सम्बन्धित थे। उनका आदान-प्रदान प्रत्यक्ष संसार से चलता है। वे उससे प्रभावित होते और प्रभावित करते हैं। ब्रह्म शरीर का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से होता है। उसकी स्थिति लगभग ब्रह्म स्तर की हो जाती है। अवतार इसी स्तर पर पहुँची हुई आत्माएँ हैं। लीला अवतरण में उनकी अपनी कोई इच्छा आकाँक्षा नहीं होती, वे ब्रह्मलोक में निवास करते हैं। ब्राह्मी चेतना किसी सृष्टि सन्तुलन के लिए भेजती है तो उस प्रयोजन को पूरा करके पुनः अपने लोक वापस लौट जाते हैं। ऐसे अवतार भारत में १० या २४ मान्य है। वस्तुतः उनकी गणना करना कठिन है। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रयोजनों के लिए वे समय-समय पर विलक्षण व्यक्तित्व सहित उतरते हैं और अपना कार्य पूरा करके वापिस चले जाते हैं। यह स्थिति ‘अहम् ब्रह्मोसि’ सच्चिदानन्दोऽहम्, शिवोऽहम् सोऽहम्, कहने की होती है। उस चरम लक्ष्य स्थल पर पहुँचने की स्थिति को चेतना क्षेत्र में बिजली की तरह कोंधाने के लिए इन वेदान्त मन्त्रों का जप, उच्चारण एवं चिन्तन, मनन किया जाता है।
पाँचवें शरीर तक स्त्री-पुरुष का भेद, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा अगले जन्म में उसी लिंग का शरीर बनने की प्रक्रिया चलती है। उससे आगे के छठे और सातवें शरीर में विकसित होने पर यह भेदभाव मिट जाता है। तब मात्र एक आत्मा की अनुभूति होती है। स्त्री-पुरुष का आकर्षण-विकर्षण समाप्त हो जाता है। सर्वत्र एक ही आत्मा की अनुभूति होती है। अपने आपकी अन्तः स्थिति लिंग भेद से ऊपर उठी होती है यद्यपि जननेंद्रिय चिन्ह शरीर में यथावत् बने रहते हैं। यही बात साँसारिक स्थिति बदलने के कारण मन पर पड़ने वाली भली-बुरी प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में भी होती है। समुद्र में लहरें उठती-गिरती रहती हैं। नाविक उनके लिए हर्ष-शोक नहीं करता, समुद्री हलचलों का आनन्द लेता है। छठे शरीर में विकसित देवात्माएँ इस स्थिति से ऊपर उठ जाती हैं। उनका चेतना स्तर गीता में कहे गये 'स्थित प्रज्ञ ज्ञानी' की और उपनिषदों में वर्णित 'तत्वदर्शी' की बन जाती है। उसके आत्म सुख से संसार के किसी परिवर्तन में विक्षेप नहीं पड़ता। लोकाचार हेतु उपयुक्त लीला प्रदर्शन हेतु उसका व्यवहार चलता रहता है। यह छठे शरीर तक की बात है। सातवें शरीर वाले अवतारी (भगवान) संज्ञा से विभूषित होते हैं। इन्हें ब्रह्मात्मा, ब्रह्म पुरुष का सकते हैं। उन्हें ब्रह्म साक्षात्कार, ब्रह्म निर्वाण प्राप्त भी कहा जा सकता है।
छठे शरीर में स्थित देव मानव स्थितिवश शाप और वरदान देते हैं, पर सातवें शरीर वाले के पास शुभेच्छा के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। उनके लिए पराया एवं बैरी कोई रहता ही नहीं। दोष, अपराधों को वे बाल बुद्धि मानते हैं और द्वेष दण्ड के स्थान पर करुणा और सुधार की बात भर सोचते हैं।
सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार पृथ्वी के नीचे सात पाताल लोक वर्णित हैं जिनमें पाताल अंतिम है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में पाताल लोक से सम्बन्धित असंख्य कहानियाँ, घटनायें तथा पौराणिक विवरण मिलते हैं। पाताल लोक को नागलोक का मध्य भाग बताया गया है, क्योंकि जल-स्वरूप जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब वहाँ पर्याप्त रूप से गिरती हैं। पाताल लोक में दैत्य तथा दानव निवास करते हैं। जल का आहार करने वाली आसुर अग्नि सदा वहाँ उद्दीप्त रहती है। वह अपने को देवताओं से नियंत्रित मानती है, क्योंकि देवताओं ने दैत्यों का नाश कर अमृतपान कर शेष भाग वहीं रख दिया था। अत: वह अग्नि अपने स्थान के आस-पास नहीं फैलती। अमृतमय सोम की हानि और वृद्धि निरंतर दिखाई पड़ती है। सूर्य की किरणों से मृतप्राय पाताल निवासी चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से पुन: जी उठते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार पूरे भू-मण्डल का क्षेत्रफल पचास करोड़ योजन है। इसकी ऊँचाई सत्तर सहस्र योजन है। इसके नीचे सात लोक इस प्रकार हैं-१. अतल, २. वितल, ३. सुतल, ४. रसातल, ५. तलातल, ६. महातल, ७. पाताल।
पौराणिक उल्लेख
पुराणों में पाताल लोक के बारे में सबसे लोकप्रिय प्रसंग भगवान विष्णु के अवतार वामन और पाताल सम्राट बलि का है। रामायण में अहिरावण द्वारा राम-लक्ष्मण का हरण कर पाताल लोक ले जाने पर श्री हनुमान के वहाँ जाकर अहिरावण वध करने का प्रसंग आता है। इसके अलावा भी ब्रह्माण्ड के तीन लोकों में पाताल लोक का भी धार्मिक महत्व बताया गया है।
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मुक्तक: अर्पण
मैला-चटका है, मेरा मन दर्पण
बतलाओ तो किसको कर दू अर्पण?
जो स्वीकारे सहज भाव से इसको
होकर क्रुद्ध न कर दे मेरा तर्पण
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जनक छंद
हरी दूब सा मन हुआ
जब भी संकट ने छुआ
'सलिल' रहा मन अनछुआ..
४-४-२०११
पत्थर से हर शहर में,
मिलते मकां हज़ारों।
मैं खोज-खोज हारा,
घर एक नहीं मिलता..
एक त्रिपदी : जनक छंद।।