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गुरुवार, 18 जुलाई 2019

'शब्द' पर दोहे

'शब्द' पर दोहे
*
अक्षर मिलकर शब्द हों, शब्द-शब्द में अर्थ।
शब्द मिलें तो वाक्य हों, पढ़ समझें निहितार्थ।।
*
करें शब्द से मित्रता, तभी रच सकें काव्य।
शब्द असर कर कर सकें, असंभाव्य संभाव्य।।
*
भाषा-संस्कृति शब्द से, बनती अधिक समृद्ध।
सम्यक् शब्द-प्रयोग कर, मनुज बने मतिवृद्ध।।
*
सीमित शब्दों में भरें, आप असीमित भाव।
चोटिल करते शब्द ही, शब्द मिटाते घाव।।आद्या
*
दें शब्दों का तोहफा, दूरी कर दें दूर।
मिले शब्द-उपहार लें, बनकर मित्र हुजूर।।
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निराकार हैं शब्द पर, व्यक्त करें आकार।
खुद ईश्वर भी शब्द में, हो जाता साकार।।
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जो जड़ वे जानें नहीं, क्या होता है शब्द।
जीव-जंतु ध्वनि से करें, भाव व्यक्त बेशब्द।।
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बेहतर नागर सभ्यता, शब्द-शक्ति के साथ।
सुर नर वानर असुर के, शब्द बन गए हाथ।।
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पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ें, मिट-घट सकें न शब्द।
कहें, लिखें, पढ़िए सतत, कभी न रहें निशब्द।।
*
शब्द भाव-भंडार हैं, सरस शब्द रस-धार।
शब्द नए नित सीखिए, सबसे सब साभार।।
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शब्द विरासत; प्रथा भी, परंपरा लें जान।
रीति-नीति; व्यवहार है, करें शब्द का मान।।
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शब्द न अपना-गैर हो, बोलें बिन संकोच।
लें-दें कर लगता नहीं, घूस न यह उत्कोच।।
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शब्द सभ्यता-दूत हैं, शब्द संस्कृति पूत।
शब्द-शक्ति सामर्थ्य है, मानें सत्य अकूत।।
*
शब्द न देशी-विदेशी, शब्द न अपने-गैर।
व्यक्त करें अनुभूति हर, भाव-रसों के पैर।।
*
शब्द-शब्द में प्राण है, मत मानें निर्जीव।
सही प्रयोग करें सभी, शब्द बने संजीव।।
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शब्द-सिद्धि कर सृजन के, पथ पर चलें सुजान।
शब्द-वृद्धि कर ही बने, रचनाकार महान।।
*
शब्द न नाहक बोलिए, हो जाएंगे शोर।
मत अनचाहे शब्द कह, काटें स्नेहिल डोर।।
*
समझ शऊर तमीज सच, सिखा बनाते बुद्ध।
युद्घ कराते-रोकते, करते शब्द प्रबुद्ध।।
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शब्द जुबां को जुबां दें, दिल को दिल से जोड़।
व्यर्थ होड़ मत कीजिए, शब्द न दें दिल तोड़।।
*
बातचीत संवाद गप, गोष्ठी वार्ता शब्द।
बतरस गपशप चुगलियाँ, होती नहीं निशब्द।।
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दोधारी तलवार सम, करें शब्द भी वार।
सिलें-तुरप; करते रफू, शब्द न रखें उधार।।
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शब्दों से व्यापार है, शब्दों से बाजार।
भाव-रस रहित मत करें, व्यर्थ शब्द-व्यापार।।
*
शब्द आरती भजन जस, प्रेयर हम्द अजान।
लोरी गारी बंदिशें, हुक्म कभी फरमान।।
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विनय प्रार्थना वंदना, झिड़क डाँट-फटकार।
ऑर्डर विधि आदेश हैं, शब्द दंड की मार।।
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शब्द-साधना दूत बन, करें शब्द से प्यार।
शब्द जिव्हा-शोभा बढ़ा, हो जाए गलहार।।
***
salil.sanjiv@gmail.com
18.7.2018, 7999559618

शनिवार, 4 नवंबर 2017

doha

शब्द 
शब्द करें नि:शब्द यदि, रहें समाहित भाव।
शब्द करें स्तब्ध यदि, निहित न उनमें चाव।।
*
शब्द बनें मरहम कभी, कभी लगाते घाव।
शब्द चुनौती दे रहे, शब्द लगाते दाँव
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शब्द मरे को जिलाते, शब्द दिलाते जीत
शब्द जिए को मारते, शब्द बढ़ाते प्रीत
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शब्द नमन-वंदन बनें, शब्द बने भुजहार
शब्द नदी जलधार हैं, शब्द नाव-पतवार
*
शब्द अक्षरों से बनें, शब्द बनाते वाक्य
शब्द राम-रावण-सिया, शब्द सुजाता-शाक्य
***
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९५५५९६१८
www.divyanarmada.in , #hindi_blogger

शनिवार, 8 नवंबर 2014

charcha: shabd aur arth

चर्चा :

शब्द और अर्थ 

शब्द के साथ अर्थ जुड़ा होता है। यदि अन्य भाषा के शब्द का ऐसा अनुवाद हो जिससे अभीष्ट अर्थ ध्वनित न हो तो उसे छोड़ना चाहिए जबकि अभीष्ट अर्थ प्रगट होता है तो ग्रहण करना चाहिए ताकि उस शब्द का अपना स्वतंत्र अस्तित्व हो सके। 

'चलभाष' या 'चलित भाष' से गतिशीलता तथा भाषिक संपर्क अनुमानित होता है। इसका विकल्प 'चलवार्ता' भी हो सकता है। कोई व्यक्ति 'मोबाइल' शब्द न जानता हो तो भी उक्त शब्दों को सार्थक पायेगा। अतः, ये हिंदी के लिये उपयुक्त हैं। 

साइकिल का वास्तविक अर्थ चक्र होता है। चक्र का अर्थ भौतिकी, रसायन, युद्ध विज्ञान, यातायात यांत्रिकी में भिन्न होते हैं।  

अंग्रेजी में 'बाइसिकिल' शब्द है जिसे हम विरूपित कर हिंदी में 'साइकिल' वाहन के लिये प्रयोग करते हैं. यह प्रयोग वैसा ही है जैसे मास्टर साहब को' मास्साब' कहना। अंग्रेजी में भी बाइ = दो, साइकिल = चक्र भावार्थ दो चक्र का (वाहन), हिंदी में द्विचक्रवाहन। जो भाव व्यक्त करता शब्द अंग्रेजी में सही, वही भाव व्यक्त करता शब्द हिंदी में गलत कैसे हो सकता है? 

संकेतों के व्यापक ताने-बाने को नेट तथा इसके विविध देशों में व्याप्त होने के आधार पर 'इंटर' को जोड़कर 'इंटरनेट' शब्द बना। इंटरनेशनल = अंतर राष्ट्रीय सर्व स्वीकृत शब्द है। 'इंटर' के लिये 'अंतर' की स्वीकार्यता है (अंतर के अन्य अर्थ 'दूरी', फर्क, तथा 'मन' होने बाद भी)। ताने-बाने के लिये 'जाल' को जोड़कर अंतरजाल शब्द केवल अनुवाद नहीं है, वह वास्तविक अर्थ में भी उपयुक्त है।   

टेलीविज़न = दूरदर्शन, टेलीग्राम =दूरलेख, टेलीफोन = दूरभाष जैसे अनुवाद सही है पर इसी आधार पर टेलिपैथी में 'टेली' का भाषांतरण 'दूर'  नहीं किया जा सकता। 'पैथी' के लिये हिंदी में उपयुक्त शब्द न होने से एलोपैथी, होमियोपैथी जैसे शब्द यथावत प्रयोग होते हैं।  

दरअसल अंग्रेजी शब्द मस्तिष्क में बचपन से पैठ गया हो तो समानार्थी हिंदी शब्द उपयुक्त नहीं लगता। भाषा विज्ञान के जानकार शब्दों का निर्माण गहन चिंतन के बाद करते हैं।

बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

vimarsh: shabd-arth

विमर्श: शब्द और अर्थ  

मनुष्य अपने मनोभाव अन्य तक पहुँचाने के लिए भाषा का प्रयोग करता है. भाषा सार्थक शब्दों का समुच्चय होती है. 

शब्दों के समुचित प्रयोग हेतु बनाये गए नियमों का संकलन व्याकरण कहा जाता है. भाषा जड़ नहीं चेतन होती है. यह देश-काल-परिस्थिति जनित उपादेयता के निकष पर खरी होने पर ही संजीवित होती है. इसलिए देश-काल-परिस्थिति के अनुसार शब्दों के अर्थ बदलते भी हैं. 

एक शब्द है 'जात' या उससे व्युत्पन्न 'जाति'। बुंदेलखंड में कोई भला दिखने वाला निम्न हरकत करे तो कहा जाता है 'जात दिखा गया' जात = असलियत, सच्चाई।  'जात  न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान' अर्थात साधु से उसकी असलियत क्या पूछना? उसका ज्ञान ही उसकी सच्चाई है. जात से ही जा कर्म = जन्म देना = गर्भ में गुप्त सचाई को सामने लाना, जातक-कथा = विविध जीवों के रूप में जन्में बोधिसत्व का सच उद्घाटित करती कथाएं आदि शब्द-प्रयोग अस्तित्व में आये। जाति शब्द को जातिवाद तक सीमित करने से वह सामाजिक बुराई का प्रतीक हो गया. हम चर्चाकारों की भी एक जाति है.  

आचार और विचार दोनों सत्य हैं. विचार मन का सत्य है आचार तन का सत्य है. एक रोचक प्रसंग याद आ रहा है. मेरी माता जी मैनपुरी उत्तर प्रदेश से विवाह पश्चात जबलपुर आईं. पिताजी उस समय नागपुर में जेलर पदस्थ थे. माँ ने एक सिपाही की शिकायत पिताजी से की कि उसने गलत बात कही. पूछने पर बहुत संकोच से बताया की उसने 'बाई जी' कहा. पिताजी ने विस्मित होकर पूछा कि गलत क्या कहा? अब माँ चकराईं कि नव विवाहित पत्नी के अपमान में पति को गलत क्यों नहीं लग रहा? बार-बार पूछने पर बता सकीं कि 'बाई जी' तो 'कोठेवालियाँ' होती हैं 'ग्रहस्थिनें' नहीं। सुनकर पिता जी हँस पड़े और समझाया कि महाराष्ट्र  में 'बाई जी'' का अर्थ सम्मानित महिला है. यह नवाबी संस्कृति और लोकसंस्कृति में 'बाई' शब्द के भिन्नार्थों के कारण हुआ. मैंने बाई का  प्रयोग माँ, बड़ी बहन के लिये भी होते देखा है.

आचार्य रजनीश की किताब 'सम्भोग से समाधि' के शीर्षक को पढ़कर ही लोगों ने नाक-भौं सिकोड़कर उन पर अश्लीलता का आरोप लगा दिया जबकि उस पुस्तक में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था. 'सम्भोग'  सृष्टि का मूलतत्व  है. 

सम = समान, बराबरी से (टके सेर भाजी, टके सेर खाजा वाली समानता नहीं), भोग = आनंद प्राप्त करना। जब किन्हीं लोगों द्वारा सामूहिक रूप से मिल-जुलकर आनंद प्राप्त किया जाए तो वह सम्भोग होगा। दावत, पर्व, कविसम्मेलन, बारात, मेले, कक्षा, कथा, वार्ता, फेसबुक चर्चा आदि  में  सम भोग  ही  होता है किन्तु इस शब्द को देह तक सीमित कर दिये जाने ने समस्या  खड़ी कर दी. हम-आप इस विमर्श में सैम भोगी हैं तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? गृहस्थ जीवन में हर सुख-दुःख को सामान भाव से झेलते पति-पत्नी सम्भोग कर रहे होते हैं. इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है. संतानोत्पत्ति अथवा आनंदानुभूति हेतु की गयी यौन क्रीड़ा में भी दोनों समभागी होने के कारन सम्भोग करते कहे जाते हैं किन्तु इससे शब्द केवल अर्थ तक सीमिता मान लिया जाना गलत है.  

तात्पर्य यह कि शब्दों का प्रयोग किये जाते समय सिर्फ किताबी- वैचारिक पक्ष नहीं सामाजिक-व्यवहारिक पक्ष भी देखना होता है. रचनाकार को तो अपने पाठक वर्ग का भी ध्यान रखना होता है ताकि उसके शब्दों से वही अर्थ पाठक तक पहुँचे जो वह पहुँचाना चाहता है. 

इस सन्दर्भ में आप भी अपनी बात कहें 

रविवार, 22 जून 2014

hindi ke shabd salila: sanjiv

सामयिकी:
हिंदी की शब्द सलिला
संजीव 
*
आजकल हिंदी विरोध और हिनदी समर्थन की राजनैतिक नूराकुश्ती जमकर हो  रही है। दोनों पक्षों का वास्तविक उद्देश्य अपना राजनैतिक स्वार्थ  साधना है। दोनों पक्षों को हिंदी या अन्य किसी भाषा से कुछ लेना-देना नहीं है। सत्तर के दशक में प्रश्न को उछालकर राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जा चुकी हैं। अब फिर तैयारी है किंतु तब  आदमी तबाह हुआ और अब भी होगा। भाषाएँ और बोलियाँ एक दूसरे की पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं। खुसरो से लेकर हजारीप्रसाद द्विवेदी और कबीर से लेकर तुलसी तक हिंदी ने कितने शब्द संस्कृत. पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, बुंदेली, भोजपुरी, बृज, अवधी, अंगिका, बज्जिका, मालवी निमाड़ी, सधुक्कड़ी, लश्करी, मराठी, गुजराती, बांग्ला और अन्य देशज भाषाओँ-बोलियों से लिये-दिये और कितने अंग्रेजी, तुर्की, अरबी, फ़ारसी, पुर्तगाली आदि से इसका कोई लेख-जोखा संभव नहीं है. 

इसके बाद भी हिंदी पर संकीर्णता, अल्प शब्द सामर्थ्य, अभिव्यक्ति में अक्षम और अनुपयुक्त होने का आरोप लगाया जाना कितना सही है? गांधी जी ने सभी भारतीय भाषाओँ को देवनागरी लिपि में लिखने का सुझाव दिया था ताकि सभी के शब्द आपस में घुलमिल सकें और कालांतर में एक भाषा का विकास हो किन्तु  प्रश्न पर स्वार्थ की रोटी सेंकनेवाले अंग्रेजीपरस्त गांधीवादियों और नौकरशाहों ने यह न होने दिया और ७० के दशक में हिन्दीविरोध दक्षिण की राजनीति में खूब पनपा  

संस्कृत से हिंदी, फ़ारसी होकर अंग्रेजी में जानेवाले अनगिनत शब्दों में से कुछ हैं: मातृ - मातर - मादर - मदर, पितृ - पितर - फिदर - फादर, भ्रातृ - बिरादर - ब्रदर, दीवाल - द वाल, आत्मा - ऐटम, चर्चा - चर्च (जहाँ चर्चा की जाए), मुनिस्थारि = मठ, -मोनस्ट्री = पादरियों आवास, पुरोहित - प्रीहट - प्रीस्ट, श्रमण - सरमन = अनुयायियों के श्रवण हेतु प्रवचन, देव-निति (देवों की दिनचर्या) - देवनइति (देव इस प्रकार हैं) - divnity = ईश्वरीय, देव - deity - devotee, भगवद - पगवद - pagoda फ्रेंच मंदिर, वाटिका - वेटिकन, विपश्य - बिपश्य - बिशप, काष्ठ-द्रुम-दल(लकड़ी से बना प्रार्थनाघर) - cathedral, साम (सामवेद) - p-salm (प्रार्थना), प्रवर - frair, मौसल - मुसल(मान), कान्हा - कान्ह - कान  - खान, मख (अग्निपूजन का स्थान) - मक्का, गाभा (गर्भगृह) - काबा, शिवलिंग - संगे-अस्वद (काली मूर्ति, काला शिवलिंग), मखेश्वर - मक्केश्वर, यदु - jude, ईश्वर आलय - isreal (जहाँ वास्तव  इश्वर है), हरिभ - हिब्रू, आप-स्थल - apostle, अभय - abbey, बास्पित-स्म (हम अभिषिक्त हो चुके) - baptism (बपतिस्मा = ईसाई धर्म में दीक्षित), शिव - तीन नेत्रोंवाला - त्र्यम्बकेश - बकश - बकस - अक्खोस - bachenelion (नशे में मस्त रहनेवाले), शिव-शिव-हरे - सिप-सिप-हरी - हिप-हिप-हुर्राह, शंकर - कंकर - concordium - concor, शिवस्थान - sistine chapel (धर्मचिन्हों का पूजास्थल), अंतर - अंदर - अंडर, अम्बा- अम्मा - माँ मेरी - मरियम आदि           

हिंदी में प्रयुक्त अरबी भाषा के शब्द : दुनिया, ग़रीब, जवाब, अमीर, मशहूर, किताब, तरक्की, अजीब, नतीज़ा, मदद, ईमानदार, इलाज़, क़िस्सा, मालूम, आदमी, इज्जत, ख़त, नशा, बहस आदि ।

हिंदी में प्रयुक्त फ़ारसी भाषा के शब्द : रास्ता, आराम, ज़िंदगी, दुकान, बीमार, सिपाही, ख़ून, बाम, क़लम, सितार, ज़मीन, कुश्ती, चेहरा, गुलाब, पुल, मुफ़्त, खरगोश, रूमाल, गिरफ़्तार आदि ।

हिंदी में प्रयुक्त तुर्की भाषा के शब्द : कैंची, कुली, लाश, दारोगा, तोप, तलाश, बेगम, बहादुर आदि ।

हिंदी में प्रयुक्त पुर्तगाली भाषा के शब्द : अलमारी, साबुन, तौलिया, बाल्टी, कमरा, गमला, चाबी, मेज, संतरा आदि ।

हिंदी में प्रयुक्त अन्य भाषाओ से: उजबक (उज्बेकिस्तानी, रंग-बिरंगे कपड़े पहननेवाले) = अजीब तरह से रहनेवाला, 

हिंदी में प्रयुक्त बांग्ला शब्द: मोशाय - महोदय, माछी - मछली, भालो - भला, 

हिंदी में प्रयुक्त मराठी शब्द: आई - माँ, माछी - मछली,  

अपनी आवश्यकता  हर भाषा-बोली से शब्द ग्रहण करनेवाली  व्यापक  में से उदारतापूर्वक शब्द देनेवाली हिंदी ही भविष्य की विश्व भाषा है इस सत्य को जितनी जल्दी स्वीकार किया जाएगा, भाषायी विवादों का समापन हो सकेगा।
******

रविवार, 4 अगस्त 2013

meri pasand SHABD vijay nikore

मेरी पसंद:
शब्द 
-- विजय निकोर
*
कहे और अनकहे के बीच बिछे
अवशेष कुछ शब्द हैं केवल,
शब्द भी जैसे हैं नहीं,
ओस से टपकते शब्द
दिन चढ़ते ही प्रतिदिन
वाष्प बन उढ़ जाते हैं
और मैं सोचता हूँ... मैं
आज क्या कहूँगा तुमसे ?
 
अनगिनत भाव-शून्य शब्द
इस अनमोल रिश्ते की धरोहर, 
व्याकुल प्रश्न,  अर्थ भी व्याकुल,
मिथ्या शब्दों की मिथ्या अभिव्यक्ति,
एक   ही   पुराने   रिश्ते से   रिसता
रोज़- रोज़ का एक और नया दर्द
बहता नहीं है, बर्फ़-सा
जमा रह जाता है।
 
फिर   भी   कुछ   और   मासूम शब्द
जाने किस तलाश में चले आते हैं
उन शब्दों में ढूँढता हूँ   मैं तुमको
और वर्तमान को भूल जाता हूँ।
तुम्हारी उपस्थिति में हर बार
यह शब्द नि:शब्द हो जाते हैं
और मैं कुछ भी कह नहीं पाता
शब्द उदास लौट आते हैं।
 
तुम्हारी आकृति यूँ ही ख़्यालों में
हर बार, ठहर कर, खो जाती है,
और मैं भावहीन मूक खड़ा 
अपने शब्दों की संज्ञा में उलझा
ठिठुरता रह जाता हूँ।
ऐसे में यह मौन शब्द 
 
असंख्य असंगतियों से घिरे 
मुझको संभ्रमित छोड़ जाते हैं।
 
इन उदासीन, असमर्थ, व्याकुल
शब्दों की व्यथा
भीतर उतर आती है,
सिमट रहा कुछ और अँधेरा
बाकी रात में घुल जाता है,
और उसमें तुम्हारी आकृति की
एक और असाध्य खोज में
यह शब्द छटपटाते हैं ...
तुमसे कुछ कहने को, वह 
जो मैं आज तक कह सका।
 
हाँ, तुमसे कुछ सुनने की
कुछ कहने की जिज्ञासा
अभी भी उसी पुल पर
हर रोज़ इंतजार करती है।
             -------
                                            

मंगलवार, 19 जून 2012

यह हिंदी है - ३ शब्द भंडार वर्धक उपसर्ग --संजीव 'सलिल', दीप्ति गुप्ता


यह हिंदी है -

शब्द भंडार वर्धक उपसर्ग संजीव 'सलिल', दीप्ति गुप्ता                                       
*
संवाद और साहित्य सृजन दोनों में शब्दों के बिना कम नहीं चलता. शब्द भंडार जितना अधिक होगा भावों की अभिव्यक्ति उतनी शुद्ध, सहज, सरल, सरस और सटीक होगी. कुछ शब्दों के साथ अन्य शब्द जोड़कर नये शब्द बनते हैं. नये शब्द के जुड़ने से कभी तो नये शब्द का अर्थ बदलता है, कभी नहीं बदलता.
उप' का अर्थ है समीप या निकट. सर्ग अर्थात सृष्टि करना या बनाना. उपसर्ग का अर्थ है वह शब्द जिसका स्वतंत्र रूप में कोई अर्थ न हो पर वह किसी शब्द के पहले जुड़ कर नया शब्द बना दे.

उदाहरण :
१. 'जय' के पहले 'परा' जुड़ जाए तो एक नया शब्द 'पराजय' बनता है जिसका अर्थ मूल शब्द 'जय' से विपरीत है.

२. 'भ्रमण' के पूर्व 'परि' जुड़ जाए तो नया शब्द 'परिभ्रमण' बना जिसका अर्थ मूल शब्द के समान 'घूमना' ही है.                                                                                                         

उपसर्ग की विशेषताएँ-
१. उपसर्ग स्वतंत्र शब्द नहीं शब्दांश है.
२. उपसर्ग का प्रयोग स्वतंत्र रूप से नहीं किया जा सकता.
३. उपसर्ग का कोई स्वतंत्र अर्थ नहीं होता.
४. उपसर्ग जोड़ने से बना शब्द कभी-कभी मूल शब्द के अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं करता, कभी-कभी अर्थ में नवीनता दिखती है, कभी-कभी अर्थ विपरीत हो जाता है.

कुछ प्रचलित उपसर्ग:                                                                                                 

-
अकल, अकाल, अकाम, अकिंचित, अकुलीन, अकुशल, अकूत, अकृपण, अक्रिय, अखिल, अगम, अगाध, अगोचर, अघोर, अचर, अचार, अछूत, अजर, अजरा, अजन्मा, अजित, अजीत, अजिर, अडिग, अतिथि, अदृष्ट, अधिक, अन्याय, अनृत, अनाज, अनाथ, अनाम, अनार, अनिंद्य, अनीत, अनंत, अपकार, अपरा, अपार, अपूर्ण, अबूझ, अमर, अमूल, अमृत, अलोप, अलौकिक, अलौना, अवमानना, अवतार, अवसर, अवाम, अविराम, अविश्वास, अविस्मरणीय, असत, असर, असार, असीम, असुर. 
अक -
अकसर, अकसीर।
अति = अधिक, ऊपर, उस पार
अत्यंत, अतिक्रमण, अतिकाल, अतिरिक्त, अतिरेक, अतिशय, अतिसार.
अधि = श्रेष्ठ, ऊपर, समीपता
अधिकार, अध्यात्म, अध्यक्ष, अधिपति, अधिरथ, अधिष्ठाता.
अनु - पश्चात्, समानता
अनुकरण, अनुक्रम, अनुनय, अनुचर, अनुभव, अनुमान, अनुरूप, अनुरोध, अनुपात, अनुलोम, अनुवाद, अनुशासन, अनुसार.
अप = लघुता, हीनता, अभाव
अपकार, अपमान, अपयश, अपरूपा, अपवाद, अपव्यय, अपशकुन, अपशब्द, अपहरण.
अभि - समीपता, और, इच्छा प्रगट करना
अभिचार, अभिजीत, अभिभावक, अभिमान, अभिलेश, अभिवादन, अभिशाप।
अव = हीनता, अनादर, पतन
अवगत, अवधारणा, अवनत, अवमानना, अवलोकन, अवतार, अवसान.
= सीमा, ओर ,समेत
आकाश, आचरण, आचार, आगमन, आजन्म, आजानु, आतप, आधार, आपात, आभार, आमरण, आमोद, आराम, आलोक, आवास.     
आविर + प्रगट, बाहर - आविर्भाव, आविष्कार                                                           
इति = ऐसा - इतिहास, इतिवृत्त, इतिपूर्व                                                          
उचट, उचाट, उछल, उतार, उधर, उधार, उमर, उलार.
उप = निकटता, सदृश, गौड़
उपकार, उपचार, उपदेश, उपनयन, उपवन,  उपवास,                                          उत / उद  = ऊपर, उत्कर्ष
उत्तम, उत्साह, उत्थान, उद्गम, उद्गार, उद्देश्य, उद्धार,  उद्बोध,         
चिर = बहुत - चिरकाल, चिरजीवी, चिरायु
दुर  / दुस = बुरा, कठिन, दुष्ट
दुराचार, दुर्गम, दुर्जन, दुर्दशा, दुर्निवार, दुर्योधन, दुर्लभ, दुर्व्यवस्था, दु :शासन, दु :सह.            
नि = भीतर, नीचे, अतिरिक्त - निवास, निदान, निरोग, निरोध, निमंत्रण, निषेध, निबन्ध, निवर्तमान, निरपेक्ष, नियोग, निषेध, निवारण, निवास, निकम्मा,
निर / निस =  बाहर, निषेध, रहित
निरपराध, निरंकुश, निर्जन, निर्धन, निर्बोध, निर्बंध, निर्भय, निर्मम, निर्माण, निर्मोही, निर्लेप, निर्लोभ, निर्वसन, निर्वाचन, निर्वासन, निर्विकार, निर्विरोध, निवृत्त.
नि: / निष्  = बिना, रहित
निष्कलंक, निष्काम, निष्प्राण, निष्पाप.   
नि = भीतर, नीचे, अतिरिक्त
निचाट, निदान, निबंध, निभाव, नियोग, निरोध, निवार, निवारण, निवास.
परा = उल्टा, अनादर, नाश
पराक्रम, परागण, पराजय, पराभव,
बहिर = बाहर - बहिर्द्वार, बहिष्कार, बहिर्मुख
परि = आसपास, चारों ओर, अतिशय
परिक्रमा, परिचय, परिजन, परितोष, परिभ्रमण, परिवाद, परिवर्तन, पर्याप्त.
प्र =  अधिक, आगे, ऊपर
प्रकाश, प्रखर, प्रचार, प्रताड़ना, प्रभार, प्रयास, प्रलय, प्रवर, प्रसन्न.
प्रति = विरोध, प्रत्येक, बराबरी
प्रत्यक्ष, प्रत्येक, प्रतिकूल, प्रतिक्षण, प्रतिनिधि, प्रतिरोध, प्रतिशोध.
बे = बेईमान, बेचारा, बेलगाम, बेदाम, बेलौस, बेबात, बेसहारा

प्र = प्रखर, प्रतुल, प्रस्तर, प्रपौत्र, प्रमाण,  प्रचार, प्रसार, प्रमोद, प्रधान, प्रलाप,      
प्रातस = सवेरे - प्रातःकाल, प्रातःस्मरण, प्रातःस्नान
अमा = पास - अमात्य, अमावस्या,
अलम = सुंदर - अलंकार, अलंकृत, अलंकरण
कु = बुरा -  कुकर्म, कुरूप, कुविचार, कुअवसर,
तिरस् = तुच्छ - तिरस्कार, तिरोभाव,
न = अभाव - नक्षत्र, नपुंसक, नकारना, नटेरना                                   
नाना = बहुत, विविध - नानारूप, नानाजाति, नाना प्रकार              
पर = दूसरा - परदेसी, पराधीन, परोपकार, परलोक, परजात,
पुरा = पहले - पुरातत्व, पुरातन, पुरावृत्त,
स = सहित - सगोत्र, सजातीय, सजीव, सरस, सकल, सजन, सरल, सहज
प्रादुर = प्रकट - प्रादुर्भाव
प्राक = पहले का - प्राक्कथन, प्रादुर्भाव, प्राक्कर्म
पूर्व = पहले का - पूर्वार्ध, पूर्वपक्ष,
पुनर =  पुनः, फिर, दोबारा - पुनर्जन्म, पुनरुक्त, पुनर्विवाह
स / सु / सं= सुखी, अच्छा, श्रेष्ठ                                                                                                            सकल, सगर, सचल, सजल, सप्रेम, समर, सरस, सहर, सुकर्म, सुगम, सुघड़, सुचारू, सुजय, सुडौल, सुदीप, सुधर, सुधार, सुधीर, सुनीति, सुप्रीत, सुफल, सुभीता, सुमन, सुयश, सुलभ, संकट, संकल्प, संकुल, संगम, संगति,  संग्रह, संग्राम, संचयन, संचार, सन्तान, संतोष, संभार, संयम, सन्यास, संलाप, संवाद, संरक्षण, संशय, सम्मान, सम्मुख, सम्मोहन.
स्वयं = अपने आप - स्वयंभू, स्वयंवर, स्वयंसिद्ध, स्वयंसेवक
सह = साथ - सहकारी, सहगमन, सहचर, सहज, सहोदर, सहानुभूति, सहभागी
स्व = अपना, निजी - स्वतंत्र, स्वदेश, स्वभाषा, स्वभाव, स्वराज्य, स्वलोक, स्वजाति, स्वधर्म, स्वकर्म    
सत = अच्छा - सदाचार, सज्जन, सत्कर्म, सत्पात्र, सद्गुरु, सत्परामर्श, सत्कार, सद्धर्म, सत्लोक
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
                                 


शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

: दोहा कथा पुनीत - १ : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

: दोहा कथा पुनीत - १ :

 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'  

दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.

                 हिन्दी ही नहीं सकल विश्व के इतिहास में केवल दोहा सबसे पुराना छंद है जिसने एक नहीं अनेक बार युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, हिम्मत हार चुके राजा को लड़ने और जीतने का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन कराने में भी सहायक हुआ है. आप इसे दोहे की अतिरेकी प्रशंसा मत मानिये. हम इस दोहा गोष्ठी में न केवल कालजयी दोहाकारों और उनके दोहों से मिलेंगे अपितु दोहे की युग परिवर्तनकारी भूमिका के साक्षी बनकर दोहा लिखना भी सीखेंगे.

अमरकंटकी नर्मदा, दोहा अविरल धार.
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार.

                  आप यह जानकर चकित होंगे कि जाने-अनजाने आप दैनिक जीवन में कई बार दोहे कहते-सुनते हैं. आप में से हर एक को कई दोहे याद हैं. हम दोहे के रचना-विधान पर बात करने के पहले दोहा-लेखन की कच्ची सामग्री अर्थात हिन्दी के स्वर-व्यंजन, मात्रा के प्रकार तथा मात्रा गिनने का तरीका, गण आदि की जानकारी को ताजा करेंगे. बीच-बीच में प्रसंगानुसार कुछ नए-पुराने दोहे पढ़कर आप ख़ुद दोहों से तादात्म्य अनुभव करेंगे.

कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.

(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र)

भाषा :
                 अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ.

चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
दोहा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप.

                भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है.

निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.

व्याकरण ( ग्रामर ) -

               व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भांति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है.

वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.

वर्ण / अक्षर :

                 वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.

अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.

स्वर ( वोवेल्स ) :

                स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.

अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.


व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

                व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.

भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.

शब्द :

अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.

                 अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. यह भाषा का मूल तत्व है. शब्द के १. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि), २. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि), ३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि), ४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं. इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं. यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं. इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए व्याकरण की किताब देखें. हमारा उद्देश्य केवल उतनी जानकारी को ताजा करना है जो दोहा लेखन के लिए जरूरी है.

नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल.
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल.

                   इस पाठ को समाप्त करने के पूर्व श्रीमद्भागवत की एक द्विपदी पढिये जिसे वर्तमान दोहा का पूर्वज कहा जा सकता है -

नाहं वसामि बैकुंठे, योगिनां हृदये न च .
मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद.

अर्थात-
बसूँ न मैं बैकुंठ में, योगी उर न निवास.
नारद गायें भक्त जंह, वहीं करुँ मैं वास.

                  इस पाठ के समापन के पूर्व कुछ पारंपरिक दोहे पढिये जो लोकोक्ति की तरह जन मन में इस तरह बस गए की उनके रचनाकार ही विस्मृत हो गए. पाठकों को जानकारी हो तो बताएं. आप अपने अंचल में प्रचलित दोहे उनके रचनाकारों की जानकारी सहित भेजें.

सरसुती के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात.

जो तो को काँटा बुवै, ताहि बॉय तू फूल.
बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरसूल.

होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयाँ, मर सके नहिं कोय.

समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरि का नाम.

जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय.
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहाँ ले जाय.

                पाठक इन दोहों में समय के साथ हिन्दी के बदलते रूप से भी परिचित हो सकेंगे. अगले पाठ में हम दोहों के उद्भव, वैशिष्ट्य तथा तत्वों की चर्चा करेंगे.
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शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

हिंदी शब्द सलिला : १ ---- अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: १ -------संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : १

संजीव 'सलिल'
*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, अंग.- अंग्रेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, रामा.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: १

- उप. (सं.) हिंदी वर्ण माला का प्रथम हृस्व स्वर, यह व्यंजन आदि संज्ञा और विशेषण शब्दों के पहले लगकर सादृश्य (अब्राम्हण), भेद (अपट), अल्पता (अकर्ण,अनुदार), अभाव (अरूप, अकास), विरोध (अनीति) और अप्राशस्तस्य (अकाल, अकार्य) के अर्थ प्रगट करता है. स्वर से आरम्भ होनेवाले शब्दों के पहले आने पर इसका रूप 'अन' हो जाता है (अनादर, अनिच्छा, अनुत्साह, अनेक), पु. ब्रम्हा, विष्णु, शिव, वायु, वैश्वानर, विश्व, अमृत.
अइल - दे., पु., मुँह, छेद.
अई -
अउ / अउर - दे., अ., और, एवं, तथा.   
अउठा - दे. पु. कपड़ा नापने के काम आनेवाली जुलाहों की लकड़ी.
अजब -दे. विचित्र, असामान्य, अनोखा, अद्वितीय.
अजहब - उ.अनोखा, अद्वितीय (वीसल.) -अजब दे. विचित्र, असामान्य.
अजीब -दे. विचित्र, असामान्य, अनोखा, अद्वितीय.
अऊत - दे. निपूता, निस्संतान.
अऊलना - अक्रि., तप्त होना, जलना, गर्मी पड़ना, चुभना, छिलना.
अऋण/अऋणी/अणिन - वि., सं, जो ऋणी/कर्ज़दार न हो, ऋण-मुक्त.
अएरना - दे., सं, क्रि., अंगीकार करना, गृहण करना, स्वीकार करना, 'दियो सो सीस चढ़ाई ले आछी भांति अएरि'- वि.
अक - पु., सं., कष्ट, दुःख, पाप.
अकच - वि., सं., केश रहित, गंजा, टकला दे. पु., केतु गृह.
अकचकाना - दे., अक्रि., चकित रह जाना, भौंचक हो जाना.
अकच्छ - वि., सं., नंगा, लंपट.
अकटु  - वि., सं., जो कटु (कड़वा) न हो.
अकटुक - वि., सं., जो कटु (कड़वा) न हो, अक्लांत.
अकठोर - वि., सं., जो कड़ा न हो, मृदु, नर्म.
अकड़ - स्त्री., अकड़ने का भाव, ढिठाई, कड़ापन, तनाव, ऐंठ, घमंड, हाथ, स्वाभिमान, अहम्. - तकड़ - स्त्री., ताव, ऐंठ, आन-बान, बाँकपन. -फों - स्त्री., गर्व सूचक चाल, चेष्टा. - वाई - स्त्री., रोग जिसमें नसें तन जाती हैं. -बाज़ - वि., अकड़कर चलनेवाला, घमंडी, गर्वीला. - बाज़ी - स्त्री., ऐंठ, घमंड, गर्व, अहम्.
अकड़ना - अक्रि., सूखकर कड़ा होना, ठिठुरना, तनना, ऐंठना, घमंड करना, स्तब्ध होना, तनकर चलना, जिद करना, धृष्टता करना, रुष्ट होना. मुहा. अकड़कर चलना - सीना उभारकर / छाती तानकर चलना.
अकड़म - अकथह, पु., सं., एक तांत्रिक चक्र.
अकड़ा - पु., चौपायों-जानवरों का एक रोग.
अकड़ाव - पु., अकड़ने की क्रिया, तनाव, ऐंठन.
अकड़ू - वि., दे., अकड़बाज.
अकडैल / अकडैत - वि., दे., अकड़बाज.
अकत - वि., कुल, संपूर्ण, अ. पूर्णतया, सरासर.
अकती - एक त्यौहार, अखती, वैशाख शुक्ल तृतीया, अक्षय तृतीया, बुन्देलखण्ड में सखियाँ नववधु को छेड़कर उसके पति का नाम बोलने या लिखने का आग्रह करती हैं., -''तुम नाम लिखावति हो हम पै, हम नाम कहा कहो लीजिये जू... कवि 'किंचित' औसर जो अकती, सकती नहीं हाँ पर कीजिए जू.'' -कविता कौमुदी, रामनरेश त्रिपाठी.
अकथह - अकड़म,पु., सं., एक तांत्रिक चक्र.
अकत्थ - वि., दे., अकथ्य, न कहनेयोग्य, न कहा गया.
अकत्थन - वि. सं., दर्फीन, जो घमंड न करे.
                                                                                ....... निरंतर 
संस्कारधानी जबलपुर ८.१०.२०१०

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

हिन्दी की पाठशाला : १

हिन्दी शब्द सलिला: १ 

औचित्य :

भारत-भाषा हिन्दी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है. हिन्दी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव प्रश्न चिन्ह लगाये जाते हैं किन्तु यह भी सत्य है कि भाषा सदानीरा सलिला की तरह सतत प्रवाहिनी होती है. उसमें से कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं. हिन्दी शब्द सलिला की योजना इसी विचार के आधार पर बनी कि व्यावसायिक प्रकाशकों के सतही और अपर्याप्त कोशों से संतुष्ट न होनेवाले हिन्दीप्रेमियों के लिये देश-विदेश की विविध भाषाओँ-बोलिओं के हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल ऐसे शब्द जिनके पर्याय हिन्दी में नहीं हैं, को भी कोष में सम्मिलित किया जाए. इसी तरह ज्ञान-विज्ञान, कला-संकृति, व्यापार-व्यवसाय आदि जीवन के विविध क्षेत्रों में सामान्यतः प्रचलित पारिभाषिक तथा प्रबंधन संबंधी शब्द भी समाहित किये जाएँ. यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहे. शब्दों का समावेश तीन तरह से हो सकता है.

१. आयातित शब्द का मूल भाषा में प्रयुक्त उच्चारण यथावत देवनागरी लिपि में लिखा जाए ताकि बोले जाते समय हिन्दी भाषी तथा अन्य भाषा भाषी  उस शब्द को समान अर्थ में समझ सकें. जैसे अंग्रेजी से स्टेशन, जापानी से हाइकु आदि.

२. मूल शब्द के उच्चारण में प्रयुक्त ध्वनि हिन्दी में न हो अथवा अत्यंत क्लिष्ट या सुविधाजनक हो तो उसे हिन्दी की प्रकृति के अनुसार परिवर्तित कर लिया जाए. जैसे हॉस्पिटल को अस्पताल.

३. जिन शब्दों के लिये हिन्दी में समुचित पर्याय हैं या बनाये जा सकते हैं उन्हें आत्मसात किया जाए. जैसे: बस स्टैंड के स्थान पर बस अड्डा, रोड के स्थान पर सड़क या मार्ग. यह भी कि जिन शब्दों को गलत अर्थों में प्रयोग किया जा रहा है उनके सही अर्थ स्पष्ट कर सम्मिलित किये जाएँ ताकि भ्रम का निवारण हो. जैसे: प्लान्टेशन के लिये वृक्षारोपण के स्थान पर पौधारोपण, ट्रेन के लिये रेलगाड़ी, रेल के लिये पटरी.

भाषा :


अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ.

चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
भाषा-सलिला निरंतर करे अनाहद जाप.

भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है.

निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.

व्याकरण ( ग्रामर ) -

व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है.

वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.

वर्ण / अक्षर :

वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.

अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.

स्वर ( वोवेल्स ) :

स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ऋ, .
स्वर के दो प्रकार १. हृस्व : लघु या छोटा ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा २. दीर्घ : गुरु या बड़ा ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.

अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.

व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. ऊष्म ( श, ष, स ह)  तथा ४. संयुक्त  ( क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.

भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.

शब्द :

अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.

अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. शब्द भाषा का मूल तत्व है.

शब्द के भेद :

१. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि),

२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि),

३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि),

४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं. इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं. यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं. इस संबंध में विस्तार से जानने के लिए व्याकरण की किताब देखें.

नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल.
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल.

नाना भाषा-बोलियाँ, नाना भूषा-रूप.
पंचतत्वमय व्याप्त है, अक्षर-शब्द अनूप.

"भाषा" मानव का अप्रतिम आविष्कार है। वैदिक काल से उद्गम होने वाली भाषा शिरोमणि संस्कृत, उत्तरीय कालों से गुज़रती हुई, सदियों पश्चात् आज तक पल्लवित-पुष्पित हो रही है। भाषा विचारों और भावनाओं को शब्दों में साकारित करती है। संस्कृति वह बल है जो हमें एकसूत्रता में पिरोती है। भारतीय संस्कृति की नींव "संस्कृत" और उसकी उत्तराधिकारी हिन्दी ही है। "एकता" कृति में चरितार्थ होती है। कृति की नींव विचारों में होती है। विचारों का आकलन भाषा के बिना संभव नहीं. भाषा इतनी समृद्ध होनी चाहिए कि गूढ, अमूर्त विचारों और संकल्पनाओं को सहजता से व्यक्त कर सकें. जितने स्पष्ट विचार, उतनी सम्यक् कृति; और समाज में आचार-विचार की एकरुपता याने "एकता"।
भाषा भाव-विचार को, करे शब्द से व्यक्त.
उर तक उर की चेतना, पहुँचे हो अभिव्यक्त.

शब्द संकलन क्रम:

शब्दों को हिन्दी की सामान्यतः प्रचलित वर्णमाला में प्रयुक्त अक्षरों के क्रम में ही रखा जाएगा. तदनुसार

अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं,.अ:.

क, का, कि, की,कु, कू, के, कै, को, कौ. कं, क:, ख, खा, खि, खी, खु, खू, खे, खै, खो, खौ, खं, ख:, ग, गा, गि, गी, गु, गू, गे, गै, गो, गौ, गं, ग:, घ, घ, घी, घी, घु, घू, घे, घी, घो, घौ, घन, घ:,  ङ् ,

च, चा, चि, ची, चु, चू, चे, चै, चो, चौ, चं, च:, छ, छा, छि, छी, छू, छू, छे, छै, छो, छौ, छन, छ:, ज, जा, जी, जी, जू, जू, जे, जेई, जो, जौ, जं, ज:, झ, झा, झी, झी, झु, झू, झे, झै, झो, झौ, झन, झ:, ञ् ,

ट, टा, टि, टी, टु , टू, टे, टै, टो, टौ, टं, ट:, ठ, ठा, ठि, ठी, ठु, ठू, ठे, ठै, ठो, ठौ, ठं, ठ:, ड, डा, डि, डी, डु, डू, डे, डै, डं, ड:, ढ, ढा, ढि, ढी, ढु, ढू, ढे, ढै, ढो, ढौ, ढं, ढ; ण,

त, ता, ति, ती, तु, तू, ते, तै, तो, तौ, तं, त:, थ, था, थि, थी, थु, थू, थे, थै, थो, थौ, थं, थः, द, दा, दि. दी, दु, दू, दे, दै, दो, दौ, दं, द:, ध, धा, धि, धी, धु, धू, धे, धै, धो, धौ, धं, ध:, न, ना, नि, नी, नु, नू, ने, नई, नो,नौ, नं, न:,

प, पा, पि, पी, पु, पू, पे, पै, पो, पौ, पं, प:, फ, फा, फी, फु, फू, फे, फै, फ़ो, फू, फन, फ:, ब, बा, बी, बी, बु, बू, बे, बै, बो, बौ, बं, ब:, भ, भा, भि, भी, भू, भू, भे, भै, भो. भौ, भं, भ:, म,माँ, मि, मी, मु, मू, मे, मै, मो, मौ, मन, म:,

य, या, यि, यी, यु, यू, ये, यै, यो, यू, यं, य:, र, रा, रि, री, रु, रू, रे,रै, रो, रं, र:, ल, ला, लि, ली, लू, लू, ले, लै, लो, लौ, लं:, व, वा, वि, वी, वू, वू, वे,वै, वो, वौ, वं, व:, श, शा, शि, शी, शु, शू, शे, शै, शो, शौ, शं, श:,

ष, षा, shi, षी, षु, षू, षे, shai, षो, shau, shn, ष:, स,सा, सि, सी, सु, सू, से, सै, सो, सौ, सं, स:, ह, हा, हि, ही, हु, हू, हे, है, हो, हौ, हं. ह:.  


उच्चार :

ध्वनि-तरंग आघात पर, आधारित उच्चार.
मन से मन तक पहुँचता, बनकर रस आगार.

ध्वनि विज्ञान सम्मत् शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र पर आधारित व्याकरण नियमों ने संस्कृत और हिन्दी को शब्द-उच्चार से उपजी ध्वनि-तरंगों के आघात से मानस पर व्यापक प्रभाव करने में सक्षम बनाया है। मानव चेतना को जागृत करने के लिए रचे गए काव्य में शब्दाक्षरों का सम्यक् विधान तथा शुद्ध उच्चारण अपरिहार्य है। सामूहिक संवाद का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सर्व सुलभ माध्यम भाषा में स्वर-व्यंजन के संयोग से अक्षर तथा अक्षरों के संयोजन से शब्द की रचना होती है। मुख में ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दंत तथा अधर) में से प्रत्येक से ५-५ व्यंजन उच्चारित किए जाते हैं।

सुप्त चेतना को करे, जागृत अक्षर नाद.
सही शब्द उच्चार से, वक्ता पाता दाद.


उच्चारण स्थान
वर्ग
कठोर(अघोष) व्यंजन
मृदु(घोष) व्यंजन




अनुनासिक
कंठ
क वर्ग
क्
ख्
ग्
घ्
ङ्
तालू
च वर्ग
च्
छ्
ज्
झ्
ञ्
मूर्धा
ट वर्ग
ट्
ठ्
ड्
ढ्
ण्
दंत
त वर्ग
त्
थ्
द्
ध्
न्
अधर
प वर्ग
प्
फ्
ब्
भ्
म्
विशिष्ट व्यंजन

ष्, श्, स्,
ह्, य्, र्, ल्, व्


कुल १४ स्वरों में से ५ शुद्ध स्वर अ, इ, उ, ऋ तथा ऌ हैं. शेष ९ स्वर हैं आ, ई, ऊ, ऋ, ॡ, ए, ऐ, ओ तथा औ। स्वर उसे कहते हैं जो एक ही आवाज में देर तक बोला जा सके। मुख के अन्दर ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दांत, होंठ) से जिन २५ वर्णों का उच्चारण किया जाता है उन्हें व्यंजन कहते हैं। किसी एक वर्ग में सीमित न रहने वाले ८ व्यंजन स्वरजन्य विशिष्ट व्यंजन हैं।

विशिष्ट (अन्तस्थ) स्वर व्यंजन :

य् तालव्य, र् मूर्धन्य, ल् दंतव्य तथा व् ओष्ठव्य हैं। ऊष्म व्यंजन- श् तालव्य, ष् मूर्धन्य, स् दंत्वय तथा ह् कंठव्य हैं।

स्वराश्रित व्यंजन: अनुस्वार ( ं ), अनुनासिक (चन्द्र बिंदी ँ) तथा विसर्ग (:) हैं।

संयुक्त वर्ण : विविध व्यंजनों के संयोग से बने संयुक्त वर्ण संयुक्ताक्षर: क्क, क्ख, क्र, कृ, क्त, क्ष, ख्य, ग्र, गृ, ग्न, ज्ञ, घृ, छ्र, ज्र, ज्ह, ट्र, त्र, द्द, द्ध, दृ, धृ, ध्र, नृ, प्र, पृ, भ्र, मृ, म्र, ऌ , व्र, वृ, श्र आदि का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं है।

मात्रा :
उच्चारण की न्यूनाधिकता अर्थात किस अक्षर पर कितना कम या अधिक भार ( जोर, वज्न) देना है अथवा किसका उच्चारण कितने कम या अधिक समय तक करना है ज्ञात हो तो लिखते समय सही शब्द का चयन कर दोहा या अन्य काव्य रचना के शिल्प को संवारा और भाव को निखारा जा सकता है। गीति रचना के वाचन या पठन के समय शब्द सही वजन का न हो तो वाचक या गायक को शब्द या तो जल्दी-जल्दी लपेटकर पढ़ना होता है या खींचकर लंबा करना होता है, किंतु जानकार के सामने रचनाकार की विपन्नता, उसके शब्द भंडार की कमी, शब्द ज्ञान की दीनता स्पष्ट हो जाती है. अतः, दोहा ही नहीं किसी भी गीति रचना के सृजन के पूर्व मात्राओं के प्रकार व गणना-विधि पर अधिकार कर लेना जरूरी है।

उच्चारण नियम :

उच्चारण हो शुद्ध तो, बढ़ता काव्य-प्रभाव.
अर्थ-अनर्थ न हो सके, सुनिए लेकर चाव.

शब्दाक्षर के बोलने, में लगता जो वक्त.
वह मात्रा जाने नहीं, रचनाकार अशक्त.

हृस्व, दीर्घ, प्लुत तीन हैं, मात्राएँ लो जान.
भार एक, दो, तीन लो, इनका क्रमशः मान.

१. हृस्व (लघु) स्वर : कम भार, मात्रा १ - अ, इ, उ, ऋ तथा चन्द्र बिन्दु वाले स्वर।

२. दीर्घ (गुरु) स्वर : अधिक भार, मात्रा २ - आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अं।

३. बिन्दुयुक्त स्वर तथा अनुस्वारयुक्त या विसर्ग युक्त वर्ण भी गुरु होता है। यथा - नंदन, दु:ख आदि.

४. संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण दीर्घ तथा संयुक्त वर्ण लघु होता है।

५. प्लुत वर्ण : अति दीर्घ उच्चार, मात्रा ३ - ॐ, ग्वं आदि। वर्तमान हिन्दी में अप्रचलित।

६. पद्य रचनाओं में छंदों के पाद का अन्तिम हृस्व स्वर आवश्यकतानुसार गुरु माना जा सकता है।

७. शब्द के अंत में हलंतयुक्त अक्षर की एक मात्रा होगी।

पूर्ववत् = पूर् २ + व् १ + व १ + त १ = ५

ग्रीष्मः = ग्रीष् 3 + म: २ +५

कृष्ण: = कृष् २ + ण: २ = ४

हृदय = १ + १ +२ = ४

अनुनासिक एवं अनुस्वार उच्चार :

उक्त प्रत्येक वर्ग के अन्तिम वर्ण (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) का उच्चारण नासिका से होने का कारण ये 'अनुनासिक' कहलाते हैं।

१. अनुस्वार का उच्चारण उसके पश्चातवर्ती वर्ण (बाद वाले वर्ण) पर आधारित होता है। अनुस्वार के बाद का वर्ण जिस वर्ग का हो, अनुस्वार का उच्चारण उस वर्ग का अनुनासिक होगा। यथा-

१. अनुस्वार के बाद क वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार ङ् होगा।

क + ङ् + कड़ = कंकड़,

श + ङ् + ख = शंख,

ग + ङ् + गा = गंगा,

ल + ङ् + घ् + य = लंघ्य

२. अनुस्वार के बाद च वर्ग का व्यंजन हो तो, अनुस्वार का उच्चार ञ् होगा.

प + ञ् + च = पञ्च = पंच

वा + ञ् + छ + नी + य = वांछनीय

म + ञ् + जु = मंजु

सा + ञ् + झ = सांझ

३. अनुस्वार के बाद ट वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण ण् होता है.

घ + ण् + टा = घंटा

क + ण् + ठ = कंठ

ड + ण् + डा = डंडा

४. अनुस्वार के बाद 'त' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण 'न्' होता है.

शा + न् + त = शांत

प + न् + थ = पंथ

न + न् + द = नंद

स्क + न् + द = स्कंद

५ अनुस्वार के बाद 'प' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार 'म्' होगा.

च + म्+ पा = चंपा

गु + म् + फि + त = गुंफित

ल + म् + बा = लंबा

कु + म् + भ = कुंभ