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सोमवार, 23 सितंबर 2019

सरस्वती वंदना

साधु शरण वर्मा 



जन्म - ७ दिसंबर १९३९, अयोध्या।
आत्मज - स्व. रुक्मिणी -   स्व. सूर्यपाल।
शिक्षा- बी.ए. ऑनर्स, एम.ए. स्वर्ण पदक।
प्रकाशन - २२ पुस्तकें विविध विधाओं में, अनेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में।
उपलब्धि - २८ अलंकरण।
संपर्क - कल्पतरु, ५२५ / २९३ पुराना महानगर, लखनऊ, उ. प्र.।   
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बैंसवाड़ी
कंठ मइहां आय कै बिराजो


कंठ मइहां आय कै बिराजो 
जगत केरि मइया शारदा!

सुख-दुःख कै गाथा लिखावो यही जन से
दूरि करौ मानस के रोग जन-मन से
जग मा आपन जस फैलावो
जगत केरी मइया शारदा

शब्दन कै ज्ञान नहीं, अरथ हू न जानी
जग के प्रपंच मइहाँ बुद्धि है हेरानी
जयोति भरौ लेखनि मा आपन
जगत केरी मइया शारदा

दुखियन कै दुःख मोरी लेखनी मा आवै
दूरी करौ दुःख जग जस तेरो गावै
शब्दन मा मोती झलकाओ
जगत केरी मइया शारदा

चाहउँ ना सूर अउर कबिरा कै बानी
दुखी केर दुःख गावै लेखनी सयानी
पार करउ 'सरन' केरी नइया
जगत केरी मइया शारदा
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सोमवार, 11 जुलाई 2016

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा-
गीत-नवगीत की भगीरथी 'काल है संक्रांति का'
समीक्षक साधुशरण वर्मा 'सरन', लखनऊ 
*
                   अंग्रेजी की निरन्तर बढ़ते वर्चस्व काल में सतत हिंदी साहित्य की अखण्ड साधना में निमग्न, आधुनिक हिंदी भाषा और छंद के विकास तथा लोकप्रियता हेतु समर्पित, कलम के देव, लोकतंत्र का मक़बरा औेर मीत मेरे जैसी चर्चित कृतियों के रचयिता, संपूर्ण भारत में हिंदी की ध्वजा फहराती देखने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील, अनेक पुस्तकों, पत्रिकाओं और स्मारिकाओं को अपनी संपादन कला से सँवारने-सुशोभित करनेवाले, हिंदी पिंगल विद्वानों की अग्र पंक्ति में स्थापित, गीत-नवगीत की अजस्र भगीरथी प्रवाहित करनेवाले, कलम के धनी भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' हिंदी साहित्य के कोहिनूर हैं। बहुधा जिन सम्मानों
तथा पुरस्कारों के पीछे अनेक साहित्यकार दौड़ते हैं, वे आपका पीछा  करते हैं। 

                   निस्पृह संत की तरह हिंदी साहित्य के प्रति समर्पित सलिल जी को कौन नहीं जानता?  वर्तमान हिंदी साहित्य में आपका योगदान सर्वदा सराहा जायेगा। ऐसे हिंदीसेवी की लेखनी ने गीत-नवगीत की नयी कृति 'काल है संक्रांति का' का रत्नोपहार देकर साहित्य की श्रीवृद्धि की है। इस कृति का वैशिष्ट्य यह है कि कृति में समर्पण, भूमिका आदि समूची सामग्री नव पद्य में निवेदित है। यह एक नयी परंपरा का सूत्रपात है। कृति का अनूठापन गीत-अगीत का नवगीत में ढल जाना है।  कृति की रचनाएँ  विविधताओं को समाविष्ट किये हैं, अनेक विषय इनमें निहित हैं।  दैनन्दिन जीवन की अनेक छोटी-छोटी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में रचे गए गीतों की मार्मिकता ह्रदय को छू जाती है। उद्धरण देने के सिलसिले में कहना होगा कि पूरी पुस्तक ही उद्धरणीय पंक्तियों से भरी हुई है। "जगो सूर्य आता है" महान आशावादी नवगीत है।  १२-१-१०१५ को छिंदवाड़ा में लिखा गया यह गीत दर्शाता है कि यत्र-तत्र  भ्रमण के बीच  इन नवगीतों की रचना की गयी है। "नए साल को आना है तो आएगा ही" मनमोहक प्रेरणाप्रद गीत है।  संकलन में ऐसे गीतों की झड़ी लगी है।

                   इस संग्रह के नवगीतों में एक तथ्य सर्वथा नवीन मिलता है कि इनमें लोक साहित्य और लोक गीतों का सा आनंद मिलता है। ऐसा कृति पूर्व में मेरे परहने में नहीं आई।  कटनी में लिखी गयी रचना ''राम बचाये'' पठनीय है।  इसी तरह "हाथों में मोबाइल", "खुशियों की मछली" आदि नवगीत आपकी प्रतिनिधि रचनाएँ  कही जा सकती हैं।  "तुम बंदूक चलाओ तो" रचना युग निर्माण हेतु आदर्श रचना है।  "मिल जाइए" जैसी शास्त्रीय रचना भी ध्यान आकर्षित करती है।  कृति में अनेक रचनाएँ शास्त्रीयता का निर्वाह कर रही हैं। "दर्पण का दिल" भी इसी कोटि की रचना है।

                   संग्रह में ''मैं लडूँगा'' जैसी कई असाधारण रचनाएँ हैं, जिनका कथ्य पाठक शायद पहली बार पढ़ेगा। इनमें यथार्थ के स्वर गूँजते हैं। ''श्वासों में श्वास", "उठो पाखी", "संक्रांति काल है", "आओ भी सूरज" आदि अनेक रचनाओं को उदाहरण के लिए उद्धृत किया जा सकता है।

                   सूरज को लक्ष्य बनाकर अनेक मनमोहक रचनाओं का सृजन किया गया है। सूरज को अनेक रूपों और विविध छटाओं में प्रस्तुत करने से कवि की कल्पनाशीलता, मौलिकता तथा काव्य प्रवीणता का परिचय होता है। उदाहरणार्थ "उठो सूरज", "जगो सूर्य आता है", "उगना नित", "आओ भी सूरज", "उग रहे या ढल रहे", "सूरज बबुआ", "छुएँ  सूरज" आदि में सूरज के बिम्ब को विविध रूपों में दर्शाया गया है।  "छोडो हाहाकार मियाँ" जैसी नवीन विधा की रचनाएँ पाठक को बाँधती हैं। संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है कि लोक जीवन से जुडी हुई अनेक रोचक रचनाओं में बुंदेलखण्डी  की स्पष्ट छाप होना है। ये रचनाएँ बुंदेलखंड के महान कवि ईसुरी की याद दिलाती और अपना स्वतंत्र प्रभाव छोड़ती हैं।

                   कृति के आरम्भ में "स्तवन" पढ़कर महाकवि निराला की लेखनी  को जीवंत किया गया है।  "स्मरण" रचना अपने ढंग की अलग छाप छोड़ती है। "समर्पण" जैसी रचना यदि संग्रह में नहीं होती तो 'नारी' विशेषकर 'बहिन' के महत्व को कैसे सँवारा जाता? "अर्पित शब्द-हार उनको / जिनसे मुस्काता रक्षाबंधन"।

                   संग्रह में संग्रहीत रचनाएँ आज के गीत-नवगीत की प्रतिनिधि-क्रन्तिकारी रचनाएँ हैं।  इन्हें एक नयी पीढ़ी और युग परिवर्तन के अनुरूप ढाला गया है। इसलिए संग्रह का नाम "काल है संक्रांति का" सर्वथा सार्थक है। वर्तमान जन मानस में पाश्चात्य शहरीकरण के बढ़ते दुष्प्रभाव को देखते हुए लोकजीवन से जुडी अनेक रचनाएँ कवि की भाषाई पैठ का अनुपम उदाहरण हैं।  "छोडो हाहाकार मियाँ" रचना की इस दृष्टि से जितनी तारीफ की जाए थोड़ी है।

                   "कब होंगे आज़ाद" आधुनिक शैली में लिखी गयी अनुपम राष्ट्रीय रचना है। नयी शैली की "खौं-खौं करते बादल बब्बा" जैसी रूपक प्रधान कविता असंग्रह की उपलब्धि है।  प्रत्येक रचना के साथ उनके कथ्य को समेटे चित्र महादेवी वर्मा की याद दिलाते हैं जिनकी अधिकांश रचनाएँ चित्रमाला से सज्जित होती थीं। संदेशवाही आवरण के लिए मयंक वर्मा तथा शीर्षक-चित्रों की प्रस्तुति के लिए अनुप्रिया साधुवाद के पात्र हैं।

                   "काल है संक्रांति का" कृति कई दृष्टियों से पठनीय, मननीय, प्रशंसनीय, संग्रहणीय और स्मरणीय है। यह गीत-नवगीत विधा में मील का पत्थर है। वर्तमान काल में गीत-नवगीत की ऐसी सरस, सारगर्भित अन्य कृति मैंने नहीं पढ़ी। समूची कृति  शब्दों को सलीके से उपयोग में लाया गया है। हर रचना की हर एक विशेषता का वर्णन संभव नहीं लगता।  कृति को कई भागों में बाँटकर ही उस पर लिखा जा सकता है।  कृति की साज-सज्जा मनमोहक, हजारों में एक है।  परम प्रिय भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की यह कृति आज के गीत-नवगीत रचना क्षेत्र में नवीन कीर्तिमान गढ़ेगी।  से प्रार्थना है कि सलिल जी को परिवर्तनशील युग के अनुरूप सृजन शक्ति देकर नए-नए कीर्तिमान रचवाती रहें।
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-कल्पतरु, ५२५/२९३ पुराना महानगर लखनऊ , चलभाष ९४५०४००७९२