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रविवार, 12 सितंबर 2010

संस्थान के सुचारु संचालन व प्रगति के लिये जबाबदार कौन... नेतृत्व ? या नीतियां

नवोन्मेषी वैचारिक  आलेख :

संस्थान के सुचारु संचालन व प्रगति के लिये जबाबदार कौन...  नेतृत्व ? या नीतियाँ?

                                            -- विवेक रंजन श्रीवास्तव

( लेखक को नवोन्मेषी वैचारिक लेखन के लिये राष्ट्रीय स्तर पर रेड एण्ड व्हाइट पुरुस्कार मिल चुका है- सं.)

                  कारपोरेट मैनेजर्स की पार्टीज में चलनेवाला जसपाल भट्टी का लोकप्रिय व्यंग है, जिसमें वे कहते हैं कि किसी कंपनी में सी. एम. डी. के पद पर भारी-भरकम पे पैकेट वाले व्यक्ति की जगह एक तोते को बैठा देना चाहिये , जो यह बोलता हो कि "मीटिंग कर लो", "कमेटी बना दो" या "जाँच करवा लो ". यह सही है कि सामूहिक जबाबदारी की मैनेजमेंट नीति के चलते शीर्ष स्तर पर इस तरह के निर्णय लिये जाते हैं  पर विचारणीय है कि क्या कंपनी नेतृत्व से कंपनी की कार्यप्रणाली में वास्तव में कोई प्रभाव नही पड़ता? भारतीय परिवेश में यदि शासकीय संस्थानों के शीर्ष नेतृत्व पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि नौकरी की उम्र के लगभग अंतिम पड़ाव पर, जब मुश्किल से एक या दो बरस की नौकरी ही शेष रहती है, तब व्यक्ति संस्थान के शीर्ष पद पर पहुँच पाता है.सेवा निवृत्ति के निकट इस उम्र के शीर्ष प्रबंधन की मनोदशा यह होती है कि किसी तरह उसका कार्यकाल अच्छी तरह निकल जाए. कुछ लोग अपने निहित हितों के लिये पद-दोहन की कार्य प्रणाली अपनाते हैं, कुछ शांति से जैसा चल रहा है वैसा चलने दिया जाए और अपनी पेंशन पक्की की जाए की नीति पर चलते हैं  वे नवाचार को अपनाकर विवादास्पद बनने से बचते हैं. कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो मनमानी करने पर उतर आते हैं . उनकी सोच होती है कि कोई उनका क्या कर लेगा? उच्च पदों पर आसीन ऐसे लोग अपनी सुरक्षा के लिये राजनैतिक संरक्षण ले लेते हैं, और यहीं से दबाव में गलत निर्णय लेने का सिलसिला चल पड़ता है. भ्रष्टाचार के किस्से उपजते हैं. जो भी हो हर हालत में नुकसान तो संस्थान का ही होता है .                                                                                          
                 इन स्थितियों से बचने के लिये सरकार की दवा स्वरूप सरकारी व अर्धसरकारी संस्थानो का नेतृत्व आई .ए .एस . अधिकारियों को सौंप दिया जाता है. संस्थान के वरिष्ठ अधिकारियों में यह भावना होती है कि ये नया लड़का हमें भला क्या सिखायेगा? युवा आई. ए. एस. अधिकारी को संस्थान से कोई भावनात्मक लगाव नहीं होता, वह अपने कार्यकाल में कुछ करिश्मा कर नाम कमाना चाहता है जिससे जल्दी ही बेहतर पदांकन मिल सके. जहाँ तक भ्रष्टाचार के नियंत्रण का प्रश्न है, आई. ए. एस. अधिकारियों का मूल राजस्व विभाग पटवारी से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा अड्डा है. फिर भला आई .ए. एस. अधिकारियों के नेतृत्व से किसी संस्थान में भ्रष्टाचार नियंत्रण कैसे संभव है ? 

                 आई. ए. एस. अधिकारियों को प्रदत्त असाधारण अधिकारों, उनकेलंबे विविध पदों पर संभावित सेवाकाल के कारण, संस्थान के आम कर्मचारियों में भय का वातावरण व्याप्त हो जाता है. मसूरी स्थित आई. ए .एस. अधिकारियों के ट्रेनिंग स्कूल का प्रशिक्षण यह है कि एक कौए को मारकर टाँग दो, बाकी स्वयं ही डर जायेंगे. मैने अनेक बेबस कर्मचारियों को इसी नीति के चलते बेवजह प्रताड़ित होते हुये देखा है, जिन्हें बाद में न्यायालयों से मिली विजय इस बात की सूचक है कि भावावेश में शीर्ष नेतृत्व ने गलत निर्णय लिया था. मजेदार बात है कि हमारी वर्तमान प्रणाली में शीर्ष नेतृत्व द्वारा लिये गये गलत निर्णयों हेतु उन्हें किसी तरह की कोई सजा का प्रवधान ही नहीं है..ज्यादा से ज्यादा उन्हें उस पद से हटा कर एक नया वैसा ही पद किसी और संस्थान में दे दिया जाता है. इसके चलते अधिकांश आई. ए. एस. अधिकारियों की अराजकता सर्वविदित है . सरकारी संस्थानो के सर्वोच्च पदो पर आसीन लोगों का कहना है कि उनके जिम्मे तो क्रियान्वयन मात्र का काम है नीतिगत फैसले तो मंत्री जी लेते हैं, इसलिये वे कोई रचनात्मक परिवर्तन नही ला सकते.
             
                 कार्पोरैट जगत के मध्यम श्रेणी के निजी संस्थानों में मालिक की मोनोपाली व वन मैन शो हावी है. पढ़े-लिखे शीर्ष प्रबंधक भी मालिक या उसके बेटे की चाटुकारिता में निरत देखे जाते हैं. बहू राष्ट्रीय कंपनियाँ अपने बड़े आकर के कारण कठिनाई में हैं. शीर्ष नेतृत्व अंतर्राष्ट्रीय बैठकों, आधुनिकीकरण, नवीनतम विज्ञापन, संस्थान को प्रायोजक बनाने, शासकीय नीतियों में सेध लगाकर लाभ उठाने में ही ज्यादा व्यस्त दिखता है. वर्तमान युग में किसी संस्थान की छबि बनाने, बिगाड़ने में मीडीया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. रेल मंत्रालय में लालू यादव ने अपने समय में खूब नाम कमाया. कम से कम मीडिया में उनकी छबि एक नवाचारी मंत्री की रही . आई. सी. आई. सी. आई. के शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन से उस संस्थान के दिन बदलते भी सबने देखा है. शीर्ष नेतृत्व हेतु आई. आई. एम. जैसे संस्थानो में जब कैम्पस सेलेक्शन होते हैं तो जिस भारी-भरकम पैकेज के चर्चे होते हैं वह इस बात का द्योतक है कि शीर्ष नेतृत्व कितना महत्वपूर्ण है . किसी संस्थान में काम करनेवाले लोग तथा संस्थान की परम्परागत कार्य प्रणाली भी उस संस्थान के सुचारु संचालन व प्रगति के लिये बराबरी से जबाबदार होते हैं . कर्मचारियों के लिये पुरस्कार, सम्मान की नीतियाँ उनका उत्साहवर्धन करती हैं. कर्मचारियों की आर्थिक व अहम् की तुष्टि औद्योगिक शांति के लिये बेहद जरूरी है, नेतृत्व इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है .

                 राजीव दीक्षित भारतीय सोच के एक सुप्रसिद्ध विचारक हैं, व्यवस्था सुधारने के प्रसंग में वे कहते हैं कि यदि कार खराब है तो उसमें किसी भी ड्राइवर को बैठा दिया जाये, कार तभी चलती है जब उसे धक्के लगाये जावें. प्रश्न उठता है कि किसी संस्थान की प्रगति के लिये, उसके सुचारु संचालन के लिये सिस्टम कितना जबाबदार है ? हमने देखा है कि विगत अनेक चुनावों में पक्ष-विपक्ष की अनेक सरकारें बनी पर आम जनता की जिंदगी में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नही आ सके. लोग कहने लगे कि साँपनाथ के भाई नागनाथ चुन लिये गये. कुछ विचारक भ्रष्टाचार जैसी समस्याओ को लोकतंत्र की विवशता बताने लगे हैं , कुछ इसे वैश्विक सामाजिक समस्या बताते हैं. अन्य इसे लोगो के नैतिक पतन से जोड़ते हैं. आम लोगो ने तो भ्रष्टाचार के सामने घुटने टेककर इसे स्वीकार ही कर लिया है, अब चर्चा इस बात पर नही होती कि किसने भ्रष्ट तरीको से गलत पैसा ले लिया,  चर्चा यह होती है कि चलो इस इंसेटिव के जरिये काम तो सुगमता से हो गया. निजी संस्थानों में तो भ्रष्टाचार की एकांउटिग के लिये अलग से सत्कार राशि, भोज राशि, उपहार व्यय आदि के नये-नये शीर्ष तय कर दिये गये हैं. सेना तक में भ्रष्टाचार के उदाहरण देखने को मिल रहे है . क्या इस तरह की नीति स्वयं संस्थान और सबसे बढ़कर देश की प्रगति हेतु समुचित है?
                      
                विकास में विचार एवं नीति का महत्व सर्वविदित है. इस सबसे महत्वपूर्ण हिस्से को हमने जनप्रतिनिधियों को सौंप रखा है. एक ज्वलंत समस्या बिजली की है.  आज सारा देश बिजली की कमी से जूझ रहा है. परोक्ष रूप से इससे देश की सर्वांगीण प्रगति बाधित हुई है. बिजली, रेल की ही तरह राष्ट्रव्यापी सेवा व आवश्यकता है बल्कि रेल से कहीं बढ़कर है फिर क्यों उसे टुकड़े-टुकड़े में अलग-अलग मंडलों, कंपनियों के मकड़जाल में उलझाकर रखा गया है? क्यों राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय विद्युत सेवा जैसी कोई व्यवस्था अब तक नहीं बनाई गई? समय से पूर्व भावी आवश्यकताओं का सही पूर्वानुमान लगाकर नये बिजली घर क्यों नहीं बनाये गये? इसका कारण बिजली व्यवस्था का खण्ड-खण्ड होना ही है, जल विद्युत निगम अलग है, ताप-बिजली निगम अलग, परमाणु बिजली अलग, तो वैकल्पिक उर्जा उत्पादन अलग हाथों में है, उच्चदाब वितरण , निम्नदाब वितरण अलग हाथों में है .एक ही देश में हर राज्य में बिजली दरों व बिजली प्रदाय की स्थितयों में व्यापक विषमता है. 

  केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सुरक्षा व आतंकी गतिविधियों के समन्वय में जिस तरह की कमियाँ उजागर हुई हैं ठीक उसी तरह बिजली के मामले में भी केंद्रीय समन्वय का सर्वथा अभाव है जिसका खामियाजा हम सब भोग रहे हैं. नियमों का परिपालन केवल अपने संस्थान के हित में किये जाने की परंपरा गलत है. यदि शरीर के सभी हिस्से परस्पर सही समन्वय से कार्य न करे तो हम चल नहीं सकते. विभिन्न विभागों की परस्पर राजस्व, भूमि या अन्य लड़ाई के कितने ही प्रकरण न्यायालयों में है, जबकि यह एक जेब से दूसरे में रुपया रखने जैसा ही है. इस जतन में कितनी सरकारी उर्जा नष्ट हो रही है,  यह तथ्य विचारणीय है. पर्यावरण विभाग के शीर्ष नेतृत्व के रूप में श्री टी. एन. शेषन जैसे अधिकारियों ने पर्यावरण की कथित रक्षा के लिये तत्कालीन पर्यावरणीय नीतियों की आड़ में बोधघाट परियोजना जैसी जल विद्युत उत्पादन परियोजनाओ को तब अनुमति नहीं दी. इससे उन्होंने स्वयं तो नाम कमा लिया पर बिजली की कमी का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह अब तक थमा नहीं है. बस्तर के जंगल सुदूर औद्योगिक महानगरों का प्रदूषण किस स्तर तक दूर कर सकते हैं यह अध्ययन का विषय हो सकता है, पर यह स्पष्ट दिख रहा है कि आज विकास की किरणें न पहुँच पाने के कारण जंगल नक्सली गतिविधियो का केंद्र हैं . आम आदमी भी सहज ही समझ सकता है कि प्रत्येक क्षेत्र का संतुलित विकास होना चाहिये पर हमारे नीति-निर्धारक यह नहीं समझ पाते. मुम्बई जैसे महानगरों में जमीन के भाव आसमान को बेध रहे हैं.प्रदूषण की समस्या, यातायात का दबाव बढ़ता ही जा रहा है. देश में जल स्रोतों के निकट नये औद्योगिक नगर बसाये जाने की जरूरत है पर अभी इस पर कोई काम नहीं हो रहा!   
   
                  आवश्यकता है कि कार्पोरेट जगत व सरकारी संस्थान अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझें व देश के सर्वांगीण हित में नीतियाँ बनाने व उनके क्रियान्वयन में शीर्ष नेतृत्व राजनेताओ के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपनी भूमिका निर्धारित करे, देश के विभिन्न संस्थानों की प्रगति देश की प्रगति की इकाई है.
                                                                                                                                                                             - vivek1959@yahoo.co.in
                                    
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स्मरण : नागार्जुन" उर्फ "यात्री - विवेक रंजन श्रीवास्तव

स्मरण : 

विविधता , नूतनता व परिवर्तनशीलता के धनी रचनाकार :  
                       ठक्कन मिसर ..... वैद्यनाथ मिश्र..... "नागार्जुन" उर्फ "यात्री".

- विवेक रंजन श्रीवास्तव                                                                            

                "जब भी बीमार पडूँ तो किसी नगर के लिए टिकिट लेकर ट्रेन में बैठा देना, स्वस्थ हो जाऊँगा। "... अपने बेटे शोभाकांत से हँसते हुये ऐसा कहनेवाले विचारक, घुमंतू जन कवि, उपन्यासकार, व्यंगकार, बौद्ध दर्शन से प्रभावित रचनाकार, "यात्री" नाम से लिखे यह   स्वाभाविक ही है .यह साल बाबा का जन्म शताब्दी वर्ष है . हिंदी के यशस्वी कवि बाबा नागार्जुन का जीवन सामान्य नहीं था। उसमें आदि से अंत तक कोई स्थाई संस्कार जम ही नहीं पाया। 
                                                                                                          
                अपने बचपन में वे ठक्कन मिसर थे पर जल्दी ही अपने उस चोले को ध्वस्त कर वे वैद्यनाथ मिश्र हुए, और फिर बाबा नागार्जुन...मातृविहीन तीन वर्षीय बालक पिता के साथ नाते-रिश्तेदारों के यहाँ जगह-जगह जाता-आता था, यही प्रवृति, यही यायावरी उनका स्वभाव बन गया जो जीवन पर्यंत जारी रहा .राहुल सांस्कृत्यायन उनके आदर्श थे। उनकी दृष्टि में जैसे इंफ्रारेड...अल्ट्रा वायलेट कैमरा छिपा था , जो न केवल जो कुछ आँखों से दिखता है उसे वरन् जो कुछ अप्रगट , अप्रत्यक्ष होता , उसे भी भाँपकर मन के पटल पर अंकित कर लेता .. उनके ये ही सारे अनुभव समय-समय पर उनकी रचनाओ में नये नये शब्द चित्र बनकर प्रगट होते रहे  जो आज साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं.
                                                                       
              "हम तो आज तक इन्हें समझ नहीं पाए!" उनकी पत्नी अपराजिता देवी की यह टिप्पणी बाबा के व्यक्तित्व की विविधता, नित नूतनता व परिवर्तनशीलता को इंगित करती है. उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी दिखाने के बाद समाप्त हो गये पर "नागार्जुन" की कविता इनमें से किसी फ्रेम में बंध कर नहीं रही, उनके काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने काव्य-सरोकार ‘जनसामान्य’ से ग्रहण करते रहे , और जनभावों को ही अपनी रचनाओ में व्यक्त करते रहे. उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया बल्कि अपने काव्य के लिये स्वयं की नयी लीक का निर्माण किया. तरौनी दरभंगा-मधुबनी जिले के गनौली-पटना-कलकत्ता-इलाहाबाद-बनारस-जयपुर-विदिशा-दिल्ली-जहरीखाल, दक्षिण भारत और श्रीलंका न जाने कहाँ-कहाँ की यात्राएँ करते रहे, जनांदोलनों में भाग लेते रहे और जेल भी गए. सच्चे अर्थो में उन्होने घाट-घाट का पानी पिया था. आर्य समाज, बौद्ध दर्शन  व मार्क्सवाद से वे प्रभावित थे. मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान उनके अध्ययन , व अभिव्यक्ति को इंद्रधनुषी रंग देता है  किंतु उनकी रचनाधर्मिता का मूल भाव सदैव स्थिर रहा , वे जन आकांक्षा को अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार थे .उन्होंने हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है.

                 उनकी वर्ष १९३९ में प्रकाशित आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष १९९८ में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से बुनियादी तौर पर समान है. उनकी विचारधारा नितांत रूप से भारतीय जनाकांक्षा से जुड़ी हुई रही. आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने पर, यदि उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके रचनाकाल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है. दोनों कविताओं के अंश इस तरह हैं

१९३९  में प्रकाशित‘उनको प्रणाम’......

...जो नहीं हो सके पूर्ण-काम                                                                                               

मैं उनको करता हूँ प्रणाम

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय 

पर विज्ञापन से रहे दूर,

प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके 

कर दिए मनोरथ चूर-चूर! 

- उनको प्रणाम...

*

१९९८  में ‘अपने खेत में’......

.....अपने खेत में हल चला रहा हूँ

इन दिनों बुआई चल रही है

इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही 

मेरे लिए बीज जुटाती हैं

हाँ, बीज में घुन लगा हो 

तो अंकुर कैसे निकलेंगे?

जाहिर है बाजारू बीजों की 

निर्मम छँटाई करूँगा

खाद और उर्वरक और 

सिंचाई के साधनों में भी

पहले से जियादा ही 

चौकसी बरतनी है

मकबूल फिदा हुसैन की 

चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक

हमारी खेती को 

चौपट कर देगी!

जी, आप अपने रूमाल में 

गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!

उनकी विख्यात कविता "प्रतिबद्ध" की पंक्तियाँ:

प्रतिबद्ध हूँ,

संबद्ध हूँ,

आबद्ध हूँ...

जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ.

तुमसे क्या झगड़ा है

हमने तो रगड़ा है

इनको भी, उनको भी, 

उनको भी, इनको भी!

उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति है .

                अपनी कई प्रसिद्ध कविताओं जैसे कि 'इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको','अब तो बंद करो हे देवी!,  यह चुनाव का प्रहसन' और 'तीन दिन, तीन रात'  आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओं पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है .

‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘ की ये पंक्तियाँ देखिए.............

यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो

एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो

बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो

जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!                                                                           
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,

                व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं….. कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ. नागार्जुन का काव्य व्यंग्य शब्द-चित्रों का विशाल अलबम है. देखिये झलकियाँ:

                  कभी किसी जीर्ण-शीर्ण स्कूल भवन को देखकर बाबा ने व्यंग्य किया था, "फटी भीत है छत चूती है…" उनका यह व्यंग क्या आज भी देश भर के ढेरों गाँवों का सच नहीं है ? अपने गद्य लेखन में भी उन्होंने समाज की सचाई को सरल शब्दों में सहजता से स्वीकारा, संजोया और आम आदमी के हित में समाज को आइना दिखाया है.                                  .....पारो से.

                 “क्यों अपने देश की क्वाँरी लड़कियाँ तेरहवाँ-चौदहवाँ चढ़ते-चढ़ते सूझ-बूझ में बुढ़ियों का कान काटने लगती हैं। बाप का लटका चेहरा, भाई की सुन्न आँखें उनके होश ठिकाने लगाये रखती है। अच्छा या बुरा, जिस किसी के पाले पड़ी कि निश्चिन्त हुईं। क्वारियों के लिए शादी एक तरह की वैतरणी है। डर केवल इसी किनारे है, प्राण की रक्षा उस पार जाने से ही सम्भव। वही तो, पारो अब भुतही नदी को पार चुकी है। ठीक ही तो कहा अपर्णा ने। मैं क्या औरत हूँ? समय पर शादी की चिन्ता तो औरतों के लिए न की जाए, पुरुष के लिए क्या? उसके लिए तो शादी न हुई होली और दीपावली हो गई। 
                                                                                                ..... दुख मोचन से.
                 पंचायत गाँव की गुटबंदी को तोड़ नही सकी थी,  अब तक. चौधरी टाइप के लोग स्वार्थसाधन की अपनी पुरानी लत छोड़ने को तैयार नही थे. जात-पांत, खानदानी घमंड, दौलत की धौंस, अशिक्षा का अंधकार, लाठी की अकड़, नफरत का नशा, रुढ़ि-परंपरा का बोझ, जनता की सामूहिक उन्नति के मार्ग में एक नही अनेक रुकावटें थीं. आज भी कमोबेश हमारे गाँवों की यही स्थिति नही है क्या ?

                  समग्र स्वरूप में ठक्कन मिसर ..... वैद्यनाथ मिश्र..... "नागार्जुन" उर्फ "यात्री" ....विविधता, नित नूतनता एवं परिवर्तनशीलता के धनी...पर जनभाव के सरल रचनाकार थे. उनकी जन्म शती पर उन्हें शतशः प्रणाम, श्रद्धांजली और यही कामना कि बाबा ने उनकी रचनाओ के माध्यम से हमें जो आइना दिखाया है, हमारा समाज, हमारी सरकारें उसे देखे और अपने चेहरे पर लगी कालिख को पोंछकर स्वच्छ छबि धारण करे , जिससे भले ही आनेवाले समय में नागार्जुन की रचनायें भले ही अप्रासंगिक हो जावें पर उनके लेखन का उद्देश्य तो पूरा हो सके . 
                                                                                               -- vivek1959@yahoo.co.इन, चलभाष:  ९४२५४८४४५२
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गुरुवार, 27 मई 2010

व्यंग: जाति पूछो साधु की ..... विवेक रंजन श्रीवास्तव

व्यंग

जाति पूछो साधु की .....

विवेक रंजन श्रीवास्तव




कबीर का दोहा जाति न पूछो साधु की , पूंच लीजिये ज्ञान अब पुराना हुआ . जमाना ज्ञान की पूंछ परख का नही है . जमाना नेता जी की पूंछ का है . नेताजी की पूंछ वोट की संख्या से होती है . वोट के बंडल बनते हैं जाति से . इसलिये साधु की जाति जानना बहुत जरूरी है . जब एक से चार चेहरो में से वोटर जी को कुछ भी अलग , कुछ भी बेहतर नही दिखता तो वह उम्मीदवार की जाति देखता है , और अपनी जाति के कैंडीडेत को यह सोचकर वोट दे देता है कि कम से कम एक कामन फैक्टर तो है उसके और उसके नेता जी के बीच , जो आड़े समय में उसके काम आ सकता है . और काम नही भी आया तो कम से कम जाति का ही भला होगा . तो इस सब के चलते ही हर राजनैतिक दल पहले हिसाब लजाता है कि किस क्षेत्र में किस जाति के कितने वोटर हैं , फिर उस गणित के ही आधार पर कैंडीडेट का चयन होता है . इसका कोई विरोध नही है , मीडिया भी मजे से इस सबकी खबरें छापता है , चुनाव आयोग भी कभी नही पूछता कि अमुक क्षेत्र से सारे उम्मीदवार यादव ही क्यों हैं ? या हाथी पर सवार पार्टी भी क्यो फलां क्षेत्र से लाला या पंडित उम्मीदवार ही खड़ा करती है .

कथित रूप से पिछड़ी जाति के होने का लेबल लगाकर , आरक्षण की सीढ़ीयां चढ़कर कुछ लोग एअरकंडीशन्ड चैम्बर्स में जा बैठे हैं . ये अपनी जाति की आरक्षित सुख सुविढ़ाओ की वृद्धि के लिये सतत सक्रिय रहते हैं . हर विभाग , हर पार्टी , में इन्होंने अपनी जाति के नाम पर प्रकोष्ठ बना रखे हैं , और स्वयं अपनी कार पर नम्बर प्लेट के उपर जातिगत लालपट्टी लगाकर कानूनी आतंक का सहारा लेकर अपनी नेतागिरी चमका रहे हैं . जिन जातियों को आरक्षण सुख नसीब नही है वे लामबंद होकर अपने वोटो की संख्या का हवाला देकर आंदोलन कर रहे हैं और जातिगत आरक्षण की मांग कर रहे है . इन सब पर कोई प्रतिबंध नही है . क्योंकि जाति मे वोटो की गड्डिया छिपी हुई हैं .

एक समय था जब कुछ लोगो ने देश प्रेम के बुखार में अपने जनेऊ उतार फेंके थे . कुछ ने अपने सरनेम हिंदुस्तानी , भारतीय , आदमी , मानव , देशप्रेमी वगैरह लिखने शुरू कर दिये थे . पर ऐसे लोगो से स्कूल में प्रवेश के समय , नौकरी के आवेदन में , पासपोर्ट बनवाते समय , पुलिस जाँच में , न्यायालयो में हर कही सरकारी नुमाइन्दगे उनकी जाति भरवाकर ही मानते हैं . ५स जाति की पूंछतांछ पर किसी को कोई आपत्ति नही है . आदमी है तो जाति है , जाति नही तो हाय तौबा है , पर जाति है तो मीडिया चुप , सरकार चुप , जाति संप्रदाय के लोग खुश . नाखुशी तो तब होती है जब फतवे की अवमानना की हिम्मत कोई करता है . मौत की धमकियां तक मिलती हैं ऐसे नामुरीद इंसान को . प्यार के चक्कर में जाति बिरादरी से बाहर शादी करने वालो को समाज दिल भरकर कोसता है . तनखैया घोषित कर देता है उसे जो जाति के नियमो की अवहेलना की चेष्टा भी करता है , फिर वह चाहे राष्ट्रपति भी क्यों न हो . जात मिलाई तभी होती है जब दारू वारू , भात वात से प्रायश्चित होता है .

मतलब जाति गोत्र संप्रदाय समाज का जरूरी हिस्सा है . फिर सरकारी जनगणना में भी यदि आंकड़ो की सक्ल में यह जाति दर्ज हो जाये तो इतनी हाय तौबा क्यो ? लोकतांत्रिक सिद्धांतो को लेकर मीडिया और कथित बुद्धिजीवी बेवजह परेशान हैं , बहस की कोई जरूरत नही है , ाब साधु की जाति जानना जरूरी है , क्योकि उसी में छिपा है मैनेजमेंट कि किस जगह किस साधु के प्रवचन से कितने वोट अपने हो सकते हैं ? किस साधु के प्रभाव में कतने वोट हैं ? जो भी हो मेरी जाति तो व्यंगकार की है , परसाई की है शरद जोशी की है .मैं तो लिखूंगा ही , पढ़ना हो तो पढ़ना , समझना .वरना हम भले हमारी कलम भली .
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