सामायिक लेख: हिन्दी : आज और कल संजीव 'सलिल'
सामायिक लेख:
भाषा के प्रश्न पर चर्चा करते समय लिपि की चर्चा भी आवश्यक है. रोमन लिपि और देवनागरी लिपि के गुण-दोषों की भी चर्चा हो. अन्य भारतीय लिपियों की सामर्थ्य और वैज्ञानिकता को भी कसौटी पर कसा जाये. क्या हर प्रादेशिक भाषा अलग लिपि लेकर जी सकेगी? यदि सबकी लिपि देवनागरी हो तो उन्हें पढना सबके लिये सहज हो जायेगा. पढ़ सकेंगे तो शब्दों के अर्थ समझ कर विविध भाषाएँ बोलना और लिखना आसान हो जायेगा. प्रादेशिक भाषाओँ और हिन्दी की शब्द सम्पदा साझी है. अंतर कर्ता, क्रिया और कारक से होता है किन्तु इतना नहीं कि एक रूप को समझनेवाला अन्य रूप को न समझ सके.
संस्कृत सबका मूल होने पर भी भी पूरे देश में सबके द्वारा नहीं बोली गयी.
संस्कृत संभ्रांत औत पंडित वर्ग की भाषा थी जबकि प्राकृत और अपभ्रंश आम
लोगों द्वारा बोली जाती थीं. अतीत में गड़े मुर्दे उखाड़कर किसी भी भाषा का
भला नहीं होना है. वर्तमान में हिन्दी अपने विविध रूपों (आंचलिक भाषाओँ /
बोलिओँ, उर्दू भी) के साथ सकल देश में बोली और समझी जाती है. राजस्थान
में भी हिन्दी साहित्य मंडल नाथद्वारा जैसी संस्थाएँ हिन्दी को नव शक्ति
प्रदान करने में जुटी हैं. राजस्थानी तो अपने आपमें कोई भाषा है ही नहीं.
राजस्थान में मेवाड़ी, मारवाड़ी, शेखावाटी, हाडौती आदि कई भाषाएँ प्रचलित
हैं. इनमें से एक भाषा के क्षेत्र में अन्य प्रादेशिक भाषा का विरोध अधिक
है हिन्दी का कम. क्या मैथिली भाषी भोजपुरी को, अवधी वाले मैथिली को,
मेवाड़ी हदौती को, बघेली बुन्देली को, मालवी निमाड़ी को स्वीकारेंगे? यह
कदापि संभव नहीं है जबकि हिन्दी की सर्व स्वीकार्यता है. विविध प्रदेशों
में प्रचलित रूपों को उनके राजकीय काम-काज की भाषा घोषित करने के पीछे
साहित्यिक-सांस्कृतिक चिंतन कम और स्थानीय राजनीति अधिक है.
हिन्दी के विकास के लिये सतत समर्पित रहनेवाले अनेक
साहित्यकार अहिंदीभाषी हैं. ऐसा नहीं है कि उन्हें अपनी आंचलिक भाषा से
प्यार नहीं है. वस्तुतः वे स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक परिस्थितियों के
परिप्रेक्ष्य में भाषिक प्रश्न को ठीक से देख और समझ पाते हैं. इसलिए वे
अपनी आंचलिक भाषा के साथ-साथ हिन्दी में भी सृजन करते हैं. अनेक ऐसे
हिन्दीभाषी रचनाकार हैं जो हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ में
निरंतर लिख रहे हैं. अन्य कई सृजनधर्मी विविध भाषाओँ के साहित्य को
अनुवादित कर रहे हैं. वास्तव में ये सभी सरस्वती पुत्र हिन्दी के ही
प्रचार-प्रसार में निमग्न हैं. उनका योगदान हिन्दी को समृद्ध कर रहा है.
अतः हिन्दी का भविष्य सुनिश्चित और सुरक्षित है. स्थानीय राजनीति,
प्रशासनिक अदूरदर्शिता, आंचलिक भाषा-मोह आदि व्यवधानों से चिंतित हुए बिना
हिन्दी को समृद्ध से समृद्धतर करने के अनथक प्रयास करते रहें. आइये भावी
विश्व-वाणी हिन्दी के व्याकरण, पिंगल को समझें, उसमें नित नया रचें और
आंचलिक भाषाओँ से टकराव की निरर्थक कोशिशों से बचें. वे सभी हिन्दी का
हिस्सा हैं. आंचलिक भाषाओँ के रचनाकार, उनका साहित्य अंततः हिन्दी का ही
है. हिन्दी के विशाल भाषिक प्रासाद के विविध कक्ष प्रांतीय / आंचलिक भाषाएँ
हैं. उन्हें सँवारने-बढ़ाने के प्रयासों से भी हिन्दी का भला ही होगा.
आइये, हम सब भारत माता के माथे की बिंदी हिन्दी को धरती माता के माथे की
बिंदी बनाने के लिये संकल्पित-समर्पित
हों.
-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम