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शनिवार, 3 मार्च 2018

samiksha


कृति चर्चा:

‘बाँसुरी विस्मित है’ हिंदी गज़ल की नई भंगिमा    
-    आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: बाँसुरी विस्मित है, हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका संग्रह, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, द्वितीय संस्करण, २०११, पृष्ठ ७०, मूल्य १००/-, आवरण एकरंगी, पेपरबैक, सहयोगी साहित्यकार प्रकाशन, निकट बावन चुंगी चौराहा हरदोई २४१००१, रचनाकार संपर्क: चलभाष ०५८५२ २३२३९२]
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‘बाँसुरी विस्मित है’ हिंदी ग़ज़ल या मुक्तिका विधा के शिखर हस्ताक्षर डॉ. रोहिताश्व अस्थाना रचित ५४ मुक्तिकाओं का पठनीय संकलन है. अस्थाना जी हिंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकार, हिंदी गजल के ७ सामूहिक संकलनों के संपादक तथा सुधी समीक्षक के रूप में बहुचर्चित तथा बहुप्रशंसित रहे हैं. साफ़-सुथरी, सहज-सरल भाषा शैली, मानवीय मनोभावनाओं का सटीक-सूक्ष्म विश्लेषण, लाक्षणिकता तथा व्यंजनात्मकता का सम्यक मिश्रण तथा आम आदमी के दर्द-हर्ष का संवेदनापूर्ण शब्दांकन inमुक्तिकाओं में है. ख्यात हिंदी गज़लकार डॉ. कुंवर बेचैन के शब्दों में- ‘साफ़-सथरी बहारों में कही/लिखी in ग़ज़लों ने भाषा का अपना एक अलग मुहावरा पकड़ा है. प्रतीक और बिम्बों की झलक में कवि का मंतव्य देखा जा सकता है. उनकी ग़ज़लों में अनुभवों का पक्कापन दिखाई देता है.
सनाकलं की पहली गजल हिंदी ग़ज़ल को परिभाषित करते हुए तमाम विवादों का पटाक्षेप कर स्वस्थ परिभाषा का संकेत करती है. १९ मात्रिक महापौराणिक जातीय छंद (बहर- ‘रमल मुसद्दस महफूज़’) में लिखी गई यह ग़ज़ल डॉ. अस्थाना के विश्वास की साक्षी है कि हिंदी ग़ज़ल का भविष्य उज्जवल है-
दर्द का इतिहास है हिंदी ग़ज़ल
एक शाश्वत प्यास ही हिंदी ग़ज़ल
प्रेम मदिरा रूप की बातों भरी
अब नहीं बकवास है हिंदी गजल
आदमी के साथ नंगे पाँव ही
ढो रही संत्रास है हिंदी ग़ज़ल
आदमी की जिंदगी का आइना
पेश करती ख़ास है हिंदी ग़ज़ल
२६ मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद (बह्र- रमल महजूफ़ मुसम्मन) में रची गयी ग़ज़ल ज़िंदगी के दिन-ब-दिन मुश्किल होते जाते हालात बयान करती है-
प्यास का पर्याय बनकर रह गयी है ज़िन्दगी
कस कदर असहाय बनकर रह गयी है जिंदगी
दे न पायेगी तुम्हें सुविधाओं का ये दूध अब
एक बूढ़ी गाय बनकर गयी है जिंदगी
सभ्यता के नाम पर क्या गाँव से आए शहर
एक प्याला चाय बनकर रह गयी है ज़िन्दगी
धूम्र का अजगर निगलता जा रहा है बस्तियां
धुंध सीलन हाय बनकर रह गयी है जिंदगी
दर्द उत्पीडन रुदन जैसे पड़ावों से गुजर
काफोला निरुपाय बनकर रह गयी है जिंदगी
१९९७ में लिखी गई यह ग़ज़ल जिन पर्यावरणीय समस्याओं को सामने लाती हैं वे तब उतनी भीषण नहीं थीं किंतु कवि भविष्यदर्शी होता है. आज से लगभग २० पूर्व लिखी गई रचना अधिक प्रासंगिक और समीचीन है.
शहर और गाँव के बीच बढ़ती खाई और आम आदमी की अधिक से अधिक दुश्वार होती ज़िन्दगी की नब्ज़ पर गजलकार की नजर है-
इस कदर फैला हवाओं में ज़हर है
धुंध में डूबा हुआ सारा शहर है
हैं पडीं चुपचाप सड़कें वैश्या सी
कुंओं पर ढा रहा हर पल कहर है
झोपडी-झुग्गी उजड़कर रह गयी
शहर में आई तरक्की की लहर है
(त्रैलोक जातीय छंद, बह्र रमल मुसद्दस सालिम)  
गज़ल-दर-ग़ज़ल उसकी बह्र का उल्लेख करनेवाले डॉ. अस्थाना ग़ज़लों के छंदों का भी उल्लेख कर देते तो सोने में सुहागा होगा किंतु उनहोंने यह कार्य शोधकारों पर छोड़ दिया है. बह्र के नाम देने से रचनाओं की ग़ज़लपरक शास्त्रीयता तो प्रमाणित होती है किंतु छंद का नाम छूट जाने से हिंदी छंद सम्मतता सिद्ध नहीं हो पाई है.
अस्थाना जी शिक्षा कर्म से जुड़े और सामाजिक जीवन की विसंगतियों से भली-भाँति परिचित हैं. सम्माज में व्याप्त दहेज़ की कुप्रथाजनित दुष्प्रभाव को वे बहुत कोमलता से सामने रखते हैं-
‘कम है दहेज’ सब की जुबान पर ये बात है
भोली बहू के हाथ का कंगन उदास है
शिक्षा के शेत्र में ज्ञान पर उपाधि को वरीयता देने के दुष्प्रभाव और दुरभिसंधि के वे आजीवन साक्षी रहे हैं और इसीलिए पूछते हैं-
ज्ञान का स्वागत करें ताम को मिटाएँ
इस जरूरी काम पर किसकी नजर है?
आम आदमी के मंगल को भूलकर मंगल की खोज करने के फलसफे से असहमत रोहिताश्व जी बहुत सादगी और संजीदगी से कहते हैं-
मरते हैं लोग भूख से, वो देखते नहीं
झन्डा विजय का चाँद पर जो गाड़ने लगे
‘दिल मिले या न मिले हाथ मिलाए रहिए’ की दिखावटी सामाजिकता अस्थाना जी को मंजूर नहीं है. वे ऐसी झूठी सदाशयता को आइना दिखाते हुए पूछते हैं-
दिल न मिल पाएँ तो हम सीना मिलाकर क्या करें?
अपने चहरे पर नया चेहरा लगाकर क्या करें??
क्या मिला था हमको पहले फूँक दी थी झोपड़ी
आज फिर महलों की खातिर, घर जलाकर क्या करें?
चाँद सुख-सुविधाओं के लिए अपने सिद्धांतों को तिलांजलि देनेवालों से मुक्तिकाकार पूछता है-
एक दिना जाना सभी को है सिकन्दर की तरह
क्यों भला फिर आदमी नाचे है बन्दर की तरह?
और फिर विसंगतियों का पटाक्षेप कर सर्व सहमति की दिशा इंगित करते हैं डॉ. अस्थाना
आपमें सबके विचारों की नदी मिल जाएँगी
दिल को अपने कीजिए पहले समंदर की तरह
जन सामान्य को सहज ग्राह्य शब्दावली में बड़ी से बड़ी बात रख पाना उन्हीं के वश की बात है-
कुछ खुदा से डरो तो अच्छा है
बोलना कम करो तो अच्छा है
धुन में अपनी लगे-लगे यूँ ही
पीर सबकी हरो तो अच्छा है
मौन से मूर्ख कालिदास हुआ
अनुकरण तुम करो तो अच्छा है
देश के बड़बोले नेताओं को इससे अधिक साफ़-साफ़ और कौन सलाह दे सकता है?
दुष्यंत कुमार ने लिखा था- ‘पीर पर्वत हो गयी है अब पिघलनी चाहिए’ और डॉ. अस्थाना लिखते हैं-
पीर का पर्वत खड़ा उर पर
मरसिए के गान के दिन हैं
हड्डियों तक भर गयी जड़ता
चेतना-प्रस्थान के दिन हैं.
मर्मबेधी व्यंजनात्मकता का कमाल देखें-
कारोबार बड़े लोगों का
है संसार बड़े लोगों का
चोर-उचक्का ही होता है
पहरेदार बड़े लोगों का
परिवर्तन क़ानून में कर दें
हर अधिकार बड़े लोगों का
शब्द-बिम्बों के माध्यम से समाज में व्याप्त विद्रूपताओं और विसंगतियों को सामने लाकर डॉ. अस्थाना हिंदी ग़ज़ल को समय-साक्षी दस्तावेज बना देते हैं-
रूपा का रूप ले गया ग्रसकर कोई ग्रहण
पर पेट के प्रसंग सवालात हैं वही
नाराज़ हो गए हैं सभी दोस्त ‘रोहिताश्व’
सच बोलने के अपने तो आदात हैं वही
‘प्रेम मदिरा रूप की बातें भरी / अब नहीं बकवास है हिंदी ग़ज़ल’ कहने के बाद भी रोहिताश्व जी सात्विक श्रृंगार से हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका को सज्जित कर आल्हादित होते हैं-
फूलों का उपहार तुम्हारा
सबसे सुन्दर प्यार तुम्हारा
मुझे बहुत अच्छा लगत अहै
यह सोलह श्रृंगार तुम्हारा
मेरी ग़ज़लों पर जाने-मन
पहला है अधिकार तुम्हारा
मेरे जीवन में आ जाओ
मानूँगा आभार तुम्हारा
एक और बानगी देखें –
बैठकर मुस्का रही हो तुम
सच बहुत ही भा रही हो तुम
बाँसुरी विस्मित समर्पित सी
गीत मेरा गा रही हो तुम
एक अभिनव प्रेम का दर्शन
आँख से समझा रही हो तुम
एक अनबुझ आग पानी में
प्रिय! लगाए जा रही हो तुम
चाहते हैं भूलना जितना
याद उतना आ रही हो तुम
डॉ, अस्थाना शब्दों की सांझा विरासत में यकीन करते हैं. वे हिंदी-उर्दू ग़ज़ल को भिन्न तो मानते हैं किंतु इसका आधार ‘शब्द’ नहीं शिल्प को स्वीकारते हैं. उर्दू तक्तीअ के अनुसार वज़न देखें को वे उर्दू ग़ज़ल के लिए जरूरी मानते हैं तो हिंदी मात्रा गणना को हिंदी ग़ज़ल का आधार मानते हैं. हिंदी छंदों का प्रयोगकर हिंदी ग़ज़ल को नव आयाम दिए जाने का समर्थन करते हैं डॉ. अस्थाना किंतु स्वयं हिंदी पिंगल पर अधिकार न होने का हवाला देकर हिंदी बह्र के साथ छंद का उल्ल्लेख न करने का बचाव करते हैं.
डॉ. अस्थाना की कहाँ अपने आपमें एक मिसाल है. वे बहुत सादगी और सरलता से बात इस तरह कहते हैं जिसे समझने की कोशिश न करनी पड़े, पढ़ते या सुनते ही अपने आप समझ आ जाए.
बाँट दिया नाकाम प्यार मासूम खिलौनों में
उन हंसमुख चेहरों का तुम्हें सलाम लिख रहा हूँ 
पीड़ा का इतिहास पढ़ा तो जान लिया मैंने
कोई मीरा पा न सकी घनश्याम लिख रहा हूँ.
*
चन्द्रमा की चांदनी हो तुम
पूर्णिमा की यामिनी हो तुम
पास मेरे इस तरह बैठो-
मेघ में ज्यों दामिनी हो तुम
*
दर्द का दरिया समन्दर हो गया
जब से कोइ दिल के अन्दर हो गया
गजल का वर्चस्व हिंदी में बढ़ा
क्योंकि उसका तल्ख़ तेवर हो गया
हिंदी ग़ज़ल के वर्चस्व का आधार ‘तल्ख़ तेवर’ को माननेवाल्व डॉ. रोहिताश्व अस्थाना उम्र के सात दशक पार करने, कई बीमारियों और पारिवारिक समस्याओं से दो-चार होने के बाद भी हिंदी ग़ज़ल, बाल साहित्य और समीक्षा के सरह नव रचनाकारों को संरक्षण देने के उपक्रम में जुटे हुए हैं. उनके पास महत्वपूर्ण पुस्तकों का संकलन है जिसे वे किसी शोधगार को सौपना कहते हैं ताकि उसका समुषित उपयोग और सुरक्षा हो सके. उनके महत्वपूर्ण कार्य का सम्यक मूल्यांकन अब तक नहीं हो सका है. जिस हिंदी ग़ज़ल की आधार शिला पर शोध की इमारत उन्होंने खादी की, उसी के नए दावेदार उनके अवदान का उल्लेख तक करने में संकुचाते हैं. शासन और समीक्षकों को अपनी वैचारिक संकीर्णता और बौनेपन से बाहर आकर उन्हें और उनके काम को सम्दृत कर अपने दायित्व का निर्वहन करना चाहिए, अन्यथा समय उन्हें कटघरे में खड़ा करेगा है. डॉ. अस्थाना रहिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका कहा जाना ‘गीतिका’ या अन्य नामों की तुलना में अधिक तार्किक मानते हैं.
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com , web www.divyanarmada.in

गुरुवार, 1 मार्च 2018

aalekh:

आलेख:
हिंदी को ग़ज़ल को डॉ. रोहिताश्व अस्थाना का अवदान
आचार्य संजीव  वर्मा 'सलिल'
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'हिंदी ग़ज़ल' अर्थात गंगा-यमुना, देशी भाषा और जमीन, विदेशी लय और धुन। फारसी लयखण्डों और छंदों (बहरों) की जुगलबंदी है हिंदी ग़ज़ल। डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़ल की उत्पत्ति, विकास, प्रकार और प्रभाव पर 'हिंदी ग़ज़ल: उद्भव और विकास' नामित शोध करनेवाले प्रथम अध्येता हैं। हिंदी ग़ज़लकरों को स्थापित-प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने हिन्दी ग़ज़ल पंचशती (५ भाग), हिंदी ग़ज़ल के कुशल चितेरे तथा चुनी हुई हिंदी गज़लें संकलनों के माध्यम से महती भूमिका का निर्वहन किया है। विस्मय यह कि शताधिक हस्ताक्षरों को उड़ान के लिए आकाश देनावाला यह वट-वृक्ष खुद को प्रकाश में लाने के प्रति उदासीन रहा। उनका एकमात्र गजल संग्रह 'बाँसुरी विस्मित है' वर्ष १९९९ में मायाश्री पुरस्कार (मथुरा) से पुरस्कृत तथा २०११ में दुबारा प्रकाशित हुआ। हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल से अलग स्वतंत्र अस्तित्व की प्रतीति कराकर उसे मान्यता दिलाने वाले शलाका पुरुष के विषय में डॉ. कुंवर बेचैन ने ठीक ही लिखा है: ''रोहिताश्व अस्थाना एक ऐसा नाम जिसने गज़ल को विषय बनाकर, उसे सम्मान देकर पहल शोध कार्य किया जिसके दो संस्करण सुनील साहित्य सदन दिल्ली से प्रकाशित हो चुके हैं। रोहिताश्व अस्थाना एक ऐसा नाम जिसने अनेक ग़ज़लकारों को सम्मिलित कर समवेत संकलनों के प्रकाशन की योजना को क्रियान्वित किया, एक ऐसा नाम जिसने गीत भी लिखे और गज़लें भी। .... साफ़-सुथरी बहारों में कही/लिखी इन ग़ज़लों ने भाषा का अपना एक अलग मुहावरा पकड़ा है। प्रतीक और बिम्बों की झलक में कवि का मंतव्य देखा जा है। उनकी ग़ज़लों में उनके अनुभवों का पक्कापन दिखाई देता है।''

डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण' के अनुसार ''हिंदी में ग़ज़ल लिखनेवालों में गिने-चुने रचनाकार ही ग़ज़ल के छंद-विधान की साधना करने के बाद ग़ज़ल लिखने का प्रयास करते हैं जिनमें मैं डॉ. रोहिताश्व को अग्रणी ग़ज़लकारों में रखता हूँ।'' स्पष्ट है कि  हिंदी ग़ज़ल को छंद-विधान के अनुसार लिखे जाने की दिशा में रोहिताश्व जी का काम ध्वजवाहक का रहा है । उनके कार्य के महत्व को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए उस समय की परिस्थितियों का आकलन करना होगा जब वे हिंदी ग़ज़ल को पहचान दिलाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। तब उर्दू ग़ज़ल का बोल बाला था, आज की तरह न तो अंतर्जाल था, न चलभाष आदि। अपनी अल्प आय, जटिल पारिवारिक परिस्थितियों और आजीविकीय दायित्वों के चक्रव्यूह में घिरा यह अभिमन्यु हिंदी ग़ज़ल के पौधे की जड़ों में प्राण-प्रण  से जल सिंचन कर रहा था जबकि आज हिंदी गज़ल के नाम उर्दू की चाशनी मिलाने वाले हस्ताक्षर जड़ों में मठा  डालने की कोशिश कर रहे थे। उस जटिल समय में अस्थाना जी ने अपराजेय जीवत का परिचय देते हुए साधनों के अभाव में और बाल साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होने के बाद भी हिंदी ग़ज़ल पर शोध करने का संकल्प किया और पूर्ण समर्पण के साथ उसे पूरा भी किया।

यही नहीं 'हिंदी ग़ज़ल: उद्भव और विकास' शीर्षक शोध कार्य के समांतर अस्थाना जी ने 'हिंदी ग़ज़ल पंचदशी' के ५ संकलन सम्पादित-प्रकाशित कर ७५ हिंदी ग़ज़लकारों को प्रतिष्ठित करने में महती भूमिका निभाई। उनके द्वारा जिन कलमों को प्रोत्साहित किया गया उनमें लब्ध प्रतिष्ठित डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', डॉ. योगेंद्र बख्शी, डॉ. रविन्द्र उपाध्याय, डॉ. राकेश सक्सेना, दिनेश शुक्ल, सागर मीरजापुरी, डॉ. ओमप्रकाश सिंह, डॉ. गणेशदत्त सारस्वत, रवीन्द्र प्रभात, अशोक गीते, आचार्य भगवत दुबे, पूर्णेंदु कुमार सिंह, राजा चौरसिया, डॉ, राजकुमारी शर्मा 'राज', डॉ. सूर्यप्रकाश अस्थाना सूरज भी सम्मिलित हैं। संकलन प्रशन के २० वर्षों बाद भी अधिकाँश गज़लकार ण केवल सकृत हैं उनहोंने हिंदी ग़ज़ल को उस मुकान पर पहुँचाया जहाँ वह आज है। अस्थाना जी के इस कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, पद्म श्री नीरज, पद्म श्री चिरंजीत, कमलेश्वर कुंवर बेचैन, कुंवर उर्मिलेश,  चंद्रसेन विराट, डॉ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी, ज़हीर कुरैशी, डॉ. महेंद्र कुमार अग्रवाल आदि ने की।

महाप्राण निराला के समीपस्थ रहे हिंदी साहित्य के पुरोधा आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने डॉ. अस्थाना के अवदान का मूल्यांकन करते हुए लिखा- "डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़लों में नए प्राण फून्कनेवाले हैं, स्वयं रचकर और सुयोग्यों को प्रकाश में लाकर। उनका प्रसाद मुझे मिल चुका है।" पद्मश्री नीरज ने डॉ. अष्ठाना को आशीषित करते हुए लिखा- "आपने ग़ज़ल के विकास और प्रसार में इतना काम किया है कि अब आप ग़ज़ल के पर्याय बन गए हैं। हिंदी ग़ज़ल के सही रूप की पहचान करवाने और उसे जन-जन तक पहुंचाने में आपकी भूमिका ऐतहासिक महत्त्व की है और इसके लिए हिंदी साहित्य आपका सदैव ही ऋणी रहेगा।" पद्म श्री चिरंजीत ने भी डॉ. अस्थाना के काम के महत्त्व को पहचाना- "ग़ज़ल विधा को लेकर आपने बड़े लगाव और रचनात्मक परिश्रम से 'हिंदी गजल पंचदशी' जैसा सारस्वत संयोजन संपन्न किया है। इस ऐतिहासिक कार्य के लिए आपको और पंचदशी के संकलनों को हमेशा याद किया जाएगा। ग़ज़ल  समन्वित संस्कृति की पैरोकार भी है और प्रमाण भी।"

समर्थ रचनाकार और समीक्षक डॉ. उर्मिलेश ने डॉ. अस्थाना को हिंदी ग़ज़ल को "पारिवेशिक यथार्थ और जीवन के सरोकारों से सम्बद्ध कर अपनी अनुभूतियों की बिम्बात्मक और पारदर्शी अभिव्यक्ति" करने का श्रेय देते हुए "हिंदी ग़ज़ल में हिंदी भाषा और साहित्य के संस्कारों को अतिरिक्त सुरक्षा देकर ग़ज़ल की जय यात्रा को  संभव बनाने के लिए उनकी प्रशस्ति की।

सारिका संपादक प्रसिद्ध उपन्यासकार कमलेश्वर ने अस्थाना जी के एकात्मिक लगाव और रचनात्मक परिश्रम का अभिनन्दन करते हुए हिन्दी ग़ज़ल के माध्यम से समन्वित संस्कृति की पैरोकारी करने के लिए उनके कार्य को चिरस्मरणीय बताया है।   ख्यात गीत-ग़ज़ल-मुक्तककार चन्द्रसेन विराट ने इन हिंदी ग़ज़लों में समय की हर धड़कन को सुनकर उसे सही परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करने की छटपटाहट पाने के साथ भाषिक छन्दों, रूपाकारों से परहेज न कर अपनी विशिष्ट हिंदी काव्य परंपरा से उद्भूत आधुनिक मानव जीवन की सभी संभाव्य एवं यथार्थ संवेदनाओं को समेटती हुई अपनी मूल हिंदी प्रकृति, स्वभाव, लाक्षणिकता, स्वाद एवं सांस्कृतिक पीठिका का रक्षण करने की प्रवृत्ति देखी है।

हिंदी ग़ज़ल के शिखर हस्ताक्षर कुंवर बेचैन के अनुसार अस्थाना जी की गज़लें एक ओर तथाकथित राजनीतिज्ञों पर प्रहार करती हैं तो दूसरी ओर धर्मान्धता के विकराल नाखूनों की खरोंचों से उत्पीडित मानव की चीख को स्वर देती दिखाई देती हैं। वे एक ओर सामाजिक विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं क्रूर रूढ़ियों से भी हाथापाई करती हैं तो दूसरी ओर आर्थिक परिवेश में होनेवाली विकृतियों और अन्यायों का पर्दाफाश करती हैं। कथ्य की दृष्टि से इन ग़ज़लों में ऐसी आँच है जो अन्याय सहन करनेवाले इनसान के ठन्डेपन को गर्म कर उसे प्रोत्साहित करती है।  उर्दू ग़ज़ल के ख्यात हस्ताक्षर ज़हीर कुरैशी यह मानते हैं कि डॉ. अस्थाना की कोशिशों से लगातार आगे बढ़ रहा हिंदी ग़ज़ल का कारवां मंजिल पर जाकर ही दम लेगा। डॉ. तारादत्त निर्विरोध ने हिंदी ग़ज़लों में अपने समय की अभिव्यक्ति अर्थात समसामयिकता पाई है। डॉ. राम प्रसाद मिश्र ने हिंदी ग़ज़ल के प्रबल पक्षधर और उसकी अस्मिता के प्रतिपादक के रूप में डॉ. अस्थाना का मूल्यांकन किया है। वे हिंदी ग़ज़ल को धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद के साथ खड़ा पाते हैं।

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने डॉ. रोहिताश्व अस्थाना के सकल कार्य का अध्ययन करने के बाद उनकी हिंदी ग़ज़लों में कथ्य की छंदानुशासित अभिव्यक्ति का वैशिष्ट्य पाया है। समय साक्षी ग़ज़लों में हिंदी भाषा के व्याकरण और पिंगल के प्रति डॉ. अस्थाना की सजगता को उल्लेखनीय बताते हुए सलिल जी ने हिंदी के वैश्विक विस्तार के परिप्रेक्ष्य में भाषिक संकीर्णता और पारंपरिक शैथिल्यता से मुक्ति को विशेष रूप से इंगित किया है।
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