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शनिवार, 31 दिसंबर 2022

सॉनेट, गीत, नया साल

आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": सॉनेट 
धूप
*
धूप है उपहार दिनकर का
धूप पाकर दमकता है रूप
धूप है श्रृंगार जीवन का।
धूप से ही सूर्य दिन का भूप।

धूप तम हरती, न लेती दाम
धूप को कोई न अपना गैर
धूप करती काम नित निष्काम
धूप सबकी चाहती है खैर।

धूप सचमुच है अनूप महान
धूप आती है सभी के काम
धूप जैसा बन जरा इंसान 
धूप चाहे यश न वंदन-नाम।

धूप बिन जीवन लगे निस्सार
धूप से लें सीख करना प्यार।
संजीव
२७-१२-२०२२,७•२९
जबलपुर 
●●●
[28/12, 07:54] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": सॉनेट 
प्रकाश 
जन्म तिमिर के गर्भ से मिला
देते देते उमर बिताई
फिर भी किया न तनिक गिला
सकल सृष्टि ने की पहुनाई 

आसमान से भू तक आया
हर ज़र्रे को किया प्रकाशित 
सारी दुनिया के मन भाया
नहीं किसी को किया विभाजित 

नहीं किसी ने मोल चुकाया
खाली हाथों मरे जोड़ जो
अंधकार ही उनने पाया
नाहक कर कर होड़ मरे वो

नन्हा जुगनू बाँट रौशनी
कहता मैं वारिस प्रकाश का
संजीव 
२८-१२-२०२२, ७•५४
जबलपुर 
●●●
[28/12, 14:16] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": एक दोहा
सलिल नीर बादलज जल, मेघज कमलद तोय।
अंबु आब पानी विमल, दे तृषारि हर मोय।।
●●●
[29/12, 07:13] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": सॉनेट 
जागेश्वर 
हे जागेश्वर नाथ! जगाओ
सोते-सोते उमर बिताई
अंत समय में मति पछताई
हे गुप्तेश्वर! दरश दिखाओ।।

हे महेश त्रिपुरारि महेश्वर
हे नटराज महाकालेश्वर
हे उमेश शिव, हे रामेश्वर
चरण शरण दो हे घुश्मेश्वर।।

काम क्रोध माया रिपोर्ट घेरे
व्याकुल आत्मा तुमको टेरे
दया दृष्टि कर केदारेश्वर।।

भोले भय हर निर्भय कर दो
सलिल करे अभिषेक हमेशा
कंकर शंकर हो नर्मदेश्वर।।
संजीव
२९-१२-२०२२,७•१३
जबलपुर 
●●●
[29/12, 08:42] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": सॉनेट
कुछ करिए 
कुछ करिए, मत डरिए जी।
मिलकर आगे बढ़िए जी।
गिर उठ सीढ़ी चढ़िए जी।।
मन में धीरज धरिए जी।।

मैं-तू से हम बनिए जी।
बात न कड़वी कहिए जी।
मीठी यादें तहिए जी।।
झुकें,  न नाहक तनिए जी।

कुछ औरों की सुनिए जी।
जगकर सपने बुनिए जी।
व्यर्थ नहीं सिर धुनिए जी।।

जोड़ न नाहक रखिए जी।
मीठा-कड़वा चखिए जी।
खुद को कभी परखिए जी।।
संजीव
२९-१२-२०२२,८•४२
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[29/12, 18:34] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": सॉनेट 
रश्मि
रश्मि को ले साथ बढ़िए
कीजिए जय हँस तिमिर को।
ज़िंदगी-सोपान चढ़िए।।
जीतिए जीवन समर को।।

रश्मि-रथ ले सूर्य वंदित।
करे श्रम नित बिना नागा।
रश्मि-पथ पर चंद्र अर्चित।।
कहें कब विश्राम माँगा?

रश्मि का मत हाथ छोड़ें।
अँधेरे से लड़ें पल-पल।
कोशिशों से राह मोड़ें।।
उजाले जाएँ नहीं ढल।।

रश्मि से कर मित्रता हँस। 
रश्मि के बन मीत रहिए।।
संजीव 
२९-१२-२०२२,१८•३४
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[30/12, 13:26] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": हाथ में हाथ लिए साथ-साथ चलना है।
ऊगना कल है अगर आज सूर्य ढलना है।।
अँधेरा चीरकर  हम फिर उजास लाएँगे-
नयन में मीत नए स्वप्न नित्य पाना है।।
[30/12, 13:33] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": भोजपुरी दोहे:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
नेह-छोह रखाब सदा
*
नेह-छोह राखब सदा, आपन मन के जोश.
सत्ता का बल पाइ त, 'सलिल; न छाँड़ब होश..
*
कइसे बिसरब नियति के, मन में लगल कचोट.
खरे-खरे पीछे रहल, आगे आइल खोट..
*
जीए के सहरा गइल, आरच्छन के हाथ.
अनदेखी काबलियत कs, लख-हरि पीटल माथ..
*
आस बन गइल सांस के, हाथ न पड़ल नकेल.
खाली बतिय जरत बा, बाकी बचल न तेल..
*
दामन दोस्तन से बचा, दुसमन से मत भाग.
नहीं पराया आपना, मुला लगावल आग..
*
प्रेम बाग़ लहलहा के, क्षेम सबहिं के माँग.
सुरज सबहिं बर धूप दे, मुर्गा सब के बाँग..
*
शीशा के जेकर मकां, ऊहै पाथर फेंक.
अपने घर खुद बार के, हाथ काय बर सेंक?
*
९४२५१८३२४४
[31/12, 06:54] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": अंक माहात्म्य  (०-९)
*
शून्य जन्म दे सृष्टि को, सकल सृष्टि है शून्य। 
जुड़-घट अंतर शून्य हो, गुणा-भाग फल शून्य।।
*
एक ईश रवि शशि गगन, भू मैं तू सिर एक।
गुणा-भाग धड़-नासिका, है अनेक में एक।।
*
दो जड़-चेतन नार-नर, कृष्ण-शुक्ल दो पक्ष।
आँख कान कर पैर दो, अधर-गाल समकक्ष।। 
*
तीन देव व्रत राम त्रय, लोक काल ऋण तीन।
अग्नि दोष-गुण ताप ऋतु, धारा मामा तीन।।
*
चार धाम युग वेद रिपु, पीठ दिशाएँ चार।
वर्ण आयु पुरुषार्थ चौ, चौका चौक अचार।। 
*
पाँच देव नद अंग तिथि, तत्व अमिय शर पाँच। 
शील सुगंधक इन्द्रियाँ, कन्या नाड़ी साँच।।
*
छह दर्शन वेदांग ऋतु, शास्त्र पर्व रस कर्म।  
षडाननी षड राग है, षड अरि-यंत्र न धर्म।।
*
सात चक्र ऋषि द्वीप स्वर, सागर पर्वत रंग।
लोक धातु उपधातु दिन, अश्व अग्नि शुभ अंग।। 
*
अष्ट लक्ष्मी सिद्धि वसु, योग कंठ के दोष।
योग-राग के अंग अठ,  आत्मोन्नति जयघोष।
*
नौ दुर्गा ग्रह भक्ति निधि, हवन कुंड नौ तंत्र।
साड़ी मोहे नौगजी, हार नौलखा मंत्र।। 
संजीव
[31/12, 16:42] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": गीत 
बिदा दो
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर 
*
भूमिका जो मिली थी मैंने निभाई 
करी तुमने अदेखी, नजरें चुराई
गिर रही है यवनिका अंतिम नमन लो
नहीं अपनी, श्वास भी होती पराई
छाँव थोड़ी धूप हमने साथ झेली
हर्ष गम से रह न पाया दूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर 
*
जब मिले थे किए थे संकल्प 
लक्ष्य पाएँ तज सभी विकल्प 
चल गिरे उठ बढ़े मिल साथ
साध्य ऊँचा भले साधन स्वल्प
धूल से ले फूल का नव नूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर 
*
तीन सौं पैंसठ दिवस थे साथ
हाथ में ले हाथ, उन्नत माथ
प्रयासों ने हुलासों के गीत 
गाए, शासन दास जनगण नाथ
लोक से हो तंत्र अब मत दूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर 
*
जा रहा बाईस का यह साल
आ रहा तेईस करे कमाल
जमीं पर पग जमा छू आकाश 
हिंद-हिंदी करे खूब धमाल 
बजाओ मिल नव प्रगति का तूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर 
*
अभियान आगे बढ़ाएँ हम-आप
छुएँ मंज़िल नित्य, हर पथ माप
सत्य-शिव-सुंदर बने पाथेय
नव सृजन का हो निरंतर जाप
शत्रु-बाधा को करो झट चूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर 
संजीव 
३१-१२-२०२२
१६•३६, जबलपुर 
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[31/12, 22:31] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": महाकाल ने
महाग्रंथ का 
पृष्ठ पूर्ण कर, 
नए पृष्ठ पर लिखना 
फिर आरंभ किया है।
रामभक्त ने 
राम-चरित की चर्चा करके
आत्मसात सत-शिव करना
प्रारंभ किया है।
चरण रामकिंकर के गहकर
बहे भक्ति मंदाकिनी कलकल।
हो आराम हराम हमें अब
छू ले लक्ष्य,
नया झट मधुकर।
कृष्ण-कांत की
वेणु मधुर सुन।
नर सुरेश हों,
सुर भू उतरें।
इला वरद,
संजीव जीव हो।
शंभुनाथ योगेंद्र जगद्गुरु 
चंद्रभूषण अमरेंद्र सत्य निधि।
अंजुरी मुकुल सरोज लिए हो
करे नमन कैलाश शिखर को।
सरला तरला, अमला विमला
नेह नर्मदा-पवन प्रवाहित।
अग्नि अनिल वसुधा सलिलांबर
राम नाम की छाया पाएँ।
नए साल में,
नए हाल में,
बढ़े राष्ट्र-अस्मिता विश्व में।
रानी हो सब जग की हिंदी 
हिंद रश्मि की विभा निरुपमा।
श्वास बसंती हो संगीता, 
आकांक्षा हर दिव्य पुनीता।
निशि आलोक अरुण हँस झूमे
श्रीधर दे संतोष-मंजरी।
श्यामल शोभित हरि सहाय हो,  
जय प्रकाश की 
हो जीवन में।
मानवता की 
जय जय गाएँ।
राम नाम हर पल गुंजाएँ।।
३१-१२-२०२२
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सोमवार, 26 दिसंबर 2022

सॉनेट सीतोपनिषद, कृष्ण कुमार 'बेदिल', जनगीत, कुण्डलिया, मुक्तक, दोहे, गीत, लघुकथा, सांताक्लाज

सॉनेट
सीतोपनिषद
*
हों समीप सीता माता के,
चर्चा आज मनोहर है।
हम भी पा सामीप्य सकेंगे
यह उद्देश्य मनोरम है।।

रानी अवधपुरी की मैया
है सरोज सा पावन रूप।
जीवन कौशल अद्वितीय है
हैं योगेंद्र राम जी भूप।।

सरला तरला दिव्य छटा है
आनंदित हों देख सुरेश।
कृष्ण कांत अवधेश विभा है
दर्शन पा नर बने नरेश।।

पढ़ सीता उपनिषद धन्य हों।
संतोष मिले, हर पल अनन्य हो।।
संजीव
२६-१२-२०२२,७•२७
जबलपुर
●●●
पुस्तक चर्चा-
'गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण' अपनी मिसाल आप
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पुस्तक विवरण- गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल', विधा- छंद शास्त्र, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २२ से.मी. X १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ९५, मूल्य १९५/-, निरुपमा प्रकाशन ५०६/१३ शास्त्री नगर, मेरठ, ०१२१ २७०९५११, ९८३७२९२१४८, रचनाकार संपर्क- डी ११५ सूर्या पैलेस, दिल्ली मार्ग, मेरठ, ९४१००९३९४३।
*
हिंदी-उर्दू जगत के सुपरिचित हस्ताक्षर डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल' हरदिल अज़ीज़ शायर हैं। वे उस्ताद शायर होने के साथ-साथ, अरूज़ के माहिर भी हैं। आज के वक्त में ज़िन्दगी जिस कशमकश में गुज़र रही है, वैसा पहले कभी नहीं था। कल से कल को जोड़े रखने कि जितनी जरूरत आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। लार्ड मैकाले द्वारा थोपी गयी और अब तक ढोई जा रही शिक्षा प्रणाली कि बदौलत ऐसी नस्ल तैयार हो गयी है जिसे अपनी सभ्यता और संस्कृति पिछड़ापन तथा विदेशी विचारधारा प्रगतिशीलता प्रतीत होती है। इस परिदृश्य को बदलने और अपनी जड़ों के प्रति आस्था और विश्वास पैदा करने में साहित्य की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। ऐसे रचनाकार जो सृजन को शौक नहीं धर्म मानकर सार्थक और स्वस्थ्य रचनाकर्म को पूजा की तरह निभाते हैं उनमें डॉ. बेदिल का भी शुमार है।
असरदार लेखन के लिए उत्तम विचारों के साथ-साथ कहने कि कला भी जरूरी है। साहित्य की विविध विधाओं के मानक नियमों की जानकारी हो तो तदनुसार कही गयी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है। गजल काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय वि धाओं में से एक है। बेदिल जी, ने यह सर्वोपयोगी किताब बरसों के अनुभव और महारत हासिल करने के बाद लिखी है। यह एक शोधग्रंथ से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। शोधग्रंथ विषय के जानकारों के लिए होता है जबकि यह किताब ग़ज़ल को जाननेवालों और न जाननेवालों दोनों के लिए सामान रूप से उपयोगी है। उर्दू की काव्य विधाएँ, ग़ज़ल का सफर, रदीफ़-काफ़िया और शायरी के दोष, अरूज़(बहरें), बहरों की किस्में, मुफरद बहरें, मुरक़्क़ब बहरें तथा ग़ज़ल में मात्रा गिराने के नियम शीर्षक अष्टाध्यायी कृति नवोदित ग़ज़लकारों को कदम-दर-कदम आगे बढ़ने में सहायक है।
एक बात साफ़ तौर पर समझी जानी चाहिए कि हिंदी और उर्दू हिंदुस्तानी जबान के दो रूप हैं जिनका व्याकरण और छंदशास्त्र कही-कही समान और कहीं-कहीं असमान है। कुछ काव्य विधाएँ दोनों भाषा रूपों में प्रचलित हैं जिनमें ग़ज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण है। उर्दू ग़ज़ल रुक्न और बहारों पर आधारित होती हैं जबकि हिंदी ग़ज़ल गणों के पदभार तथा वर्णों की संख्या पर। हिंदी के कुछ वर्ण उर्दू में नहीं हैं तो उर्दू के कुछ वर्ण हिंदी में नहीं है। हिंदी का 'ण' उर्दू में नहीं है तो उर्दू के 'हे' और 'हम्ज़ा' के स्थान पर हिंदी में केवल 'ह' है। इस कारण हिंदी में निर्दोष दिखने वाला तुकांत-पदांत उर्दूभाषी को गलत तथा उर्दू में मुकम्मल दिखनेवाला पदांत-तुकांत हिन्दीभाषी को दोषपूर्ण प्रतीत हो सकता है। यही स्थिति पदभार या वज़न के सिलसिले में भी हो सकती है। मेरा आशय यह नहीं है कि हमेशा ही ऐसा होता है किन्तु ऐसा हो सकता है इसलिए एक भाषारूप के नियमों का आधार लेकर अन्य भाषारूप में लिखी गयी रचना को खारिज करना ठीक नहीं है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि विधा के मूल नियमों की अनदेखी हो। यह कृति गज़ल के आधारभूत तत्वों की जानकारी देने के साथ-साथ बहरों कि किस्मों, उनके उदाहरणों और नामकरण के सम्बन्ध में सकल जानकारी देती है। हिंदी-उर्दू में मात्रा न गिराने और गिराने को लेकर भी भिन्न स्थिति है। इस किताब का वैशिष्ट्य मात्रा गिराने के नियमों की सटीक जानकारी देना है। हिंदी-उर्दू की साझा शब्दावली बहुत समृद्ध और संपन्न है।
उर्दू ग़ज़ल लिखनेवालों के लिए तो यह किताब जरूरी है ही, हिंदी ग़ज़ल के रचनाकारों को इसे अवश्य पढ़ना, समझना और बरतना चाहिए इससे वे ऐसी गज़लें लिख सकेंगे जो दोनों भाषाओँ के व्याकरण-पिंगाल की कसौटी पर खरी उतरें। लब्बोलुबाब यह कि बिदिक जी ने यह किताब पूरी फराखदिली से लिखी है जिसमें नौसिखियों के लिए ही नहीं उस्तादों के लिए भी बहुत कुछ है। इया किताब का अगला संस्करण अगर अंग्रेजी ग़ज़ल, बांला ग़ज़ल, जर्मन ग़ज़ल, जापानी ग़ज़ल आदि में अपने जाने वालों नियमों की भी जानकारी जोड़ ले तो इसकी उपादेयता और स्वीकृति तो बढ़ेगी ही, गजलकारों को उन भाषाओँ को सिखने और उनकी ग़ज़लों को समझने की प्रेरणा भी मिलेगी।
डॉ. बेदिल इस पाकीज़ा काम के लिए हिंदी-उर्दू प्रेमियों की ओर से बधाई और प्रशंसा के पात्र हैं। गुज़ारिश यह कि रुबाई के २४ औज़ानों को लेकर एक और किताब देकर कठिन कही जानेवाली इस विधा को सरल रूप से समझाकर रुबाई-लेखन को प्रोत्साहित करेंगे।
***
जनगीत :
हाँ बेटा
.
चंबल में
डाकू होते थे
हाँ बेटा!
.
लूट किसी को
मार किसी को
वे सोते थे?
हाँ बेटा!
.
लुटा किसी पर
बाँट किसी को
यश पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अख़बारों के
कागज़ उनसे
रंग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
पुलिस और
अफसर भी उनसे
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
केस चले तो
विटनेस डरकर
भग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
बिके वकील
झूठ को ही सच
बतलाते थे?
हाँ बेटा!
.
सब कानून
दस्युओं को ही
बचवाते थे?
हाँ बेटा!
.
चमचे 'डाकू की
जय' के नारे
गाते थे?
हाँ बेटा!
.
डाकू फिल्मों में
हीरो भी
बन जाते थे?
हाँ बेटा!
.
भूले-भटके
सजा मिले तो
घट जाती थी?
हाँ बेटा!
.
मरे-पिटे जो
कहीं नहीं
राहत पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अँधा न्याय
प्रशासन बहरा
मुस्काते थे?
हाँ बेटा!
.
मानवता के
निबल पक्षधर
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
तब से अब तक
वहीं खड़े हम
बढ़े न आगे?
हाँ बेटा!
***
दो कवि एक कुण्डलिया
नर-नारी
*
नारी-वसुधा का रहा, सदा एक व्यवहार
ऊपर परतें बर्फ कि, भीतर हैं अंगार -संध्या सिंह
भीतर हैं अंगार, सिंगार न केवल देखें
जीवन को उपहार, मूल्य समुचित अवलेखें
पूरक नर-नारी एक-दूजे के हों आभारी
नर सम, बेहतर नहीं, नहीं कमतर है नारी - संजीव
*
एक त्रिपदी
वायदे पर जो ऐतबार किया
कहा जुमला उन्होंने मुस्काकर
रह गए हैं ठगे से हम यारों
*
मुक्तक
आप अच्छी है तो कथा अच्छी
बात सच्ची है तो कथा सच्ची
कुछ तो बोलेगी दिल की बात कभी
कुछ न बोले तो है कथा बच्ची
*
खुश हुए वो, जहे-नसीब
चाँद को चाँदनी ने ज्यों घेरा
चाहकर भूल न पाए जिसको
हाय रे! आज उसने फिर टेरा
*
सदा कीचड़ में कमल खिलता है
नहीं कीचड़ में सन-फिसलता है
जिन्दगी कोठरी है काजल की
नहीं चेहरे पे कोई मलता है
***
छंद न रचता है मनुज, छंद उतरता आप
शब्द-ब्रम्ह खुद मनस में, पल में जाता व्याप
हो सचेत-संजीव मन, गह ले भाव तरंग
तत्क्षण वरना छंद भी नहीं छोड़ता छाप
*
दोहे
उसने कम्प्यूटर कहा, मुझे किया बेजान
यंत्र बताकर छीन ली मुझसे मेरी जान
*
गुमी चेतना, रह गया होकर तू निर्जीव
मिले प्रेरणा किस तरह?, अब तुझको संजीव?
२६-१२-२०१६

***
गीत :
*
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
*
लीक छोड़ तीनों चलें
शायर सिंह सपूत
लीक-लीक तीनों चलें
कायर स्यार कपूत
बहुत लड़े, आओ बने
आज शांति के दूत
दिल से लगाया
और
अंतर भुलाये रे
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
*
राह दोस्ती की चलें
चलो शत्रुता भूल
हाथ मिलायें आज फिर
दें न भेद को तूल
मिल बिखराएँ फूल कुछ
दूर करें कुछ शूल
जग चकराया
और
हम मुस्काये रे
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
*
जिन लोगों के वक्ष पर
सर्प रहे हैं लोट
उनकी नजरों में रही
सदा-सदा से खोट
अब मैं-तुम हम बन करें
आतंकों पर चोट
समय न बोले
मौके
हमने गँवाये रे!तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
२६-१२-२०१५

***
नवगीत:
.
सांस जब अविराम चलती जा रही हो
तब कलम किस तरह
चुप विश्राम कर ले?
.
शब्द-पायल की
सुनी झंकार जब-जब
अर्थ-धनु ने
की तभी टंकार तब-तब
मन गगन में विचारों का हंस कहिए
सो रहे किस तरह
सुबह-शाम कर ले?
.
घड़ी का क्या है
टँगी थिर, मगर चलती
नश्वरी दुनिया
सनातन लगे, छलती
टन सुमन में आत्मा की गंध कहिए
खो रहे किस तरह
नाम अनाम कर ले?
***
नवगीत:
.
सांताक्लाज!
बड़े दिन का उपहार
न छोटे दिलवालों को देना
.
गुल-काँटे दोनों उपवन में
मधुकर कलियाँ खोज
दिनभर चहके गुलशन में ज्यों
आयोजित वनभोज
सांताक्लाज!
कभी सुख का संसार
न खोटे मनवालों को देना
.
अपराधी संसद में बैठे
नेता बनकर आज
तोड़ रहे कानून बना खुद
आती तनिक न लाज
सांताक्लाज!
करो जान पर उपकार
न कुर्सी धनवालों को देना
.
पौंड रहे मानवता को जो
चला रहे हथियार
भू को नरक बनाने के जो
नरपशु जिम्मेदार
सांताक्लाज!
महाशक्ति का वार
व लानत गनवालों को देना
२६-१२-२०१४
***
लघुकथा
करवा का व्रत
यशपाल
*

सन्ध्या-समय कन्हैयालाल आया तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, 'लो, फेनी तो मैं ले आया हूँ, पर ब्रत-व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।' लाजो ने मुस्कुराकर रूमाल लेकर आलमारी में रख दिया।
अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ' आओ, खाना परस दिया है।' कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिये परोसा था- ' और तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।
'वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्कराकर प्यार से बताया।
'यह बात...! तो हमारा भी ब्रत रहा।' आसन से उठते हुये कन्हैयालाल ने कहा।
लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुये समझाया, ' क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवाचौथ का व्रत रखते हैं!...तुमने सरघी कहाँ खाई?'
'नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ।' कन्हैया नहीं माना,' तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!'
लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।
***
तुरई एक रामबाण दवा
तुरई या तोरी एक सब्जी है जिसे लगभग संपूर्ण भारत में उगाया जाता है। तुरई का वानस्पतिक नाम लुफ़्फ़ा एक्युटेंगुला है। तुरई को आदिवासी विभिन्न रोगोपचार के लिए उपयोग में लाते है। मध्यभारत के आदिवासी इसे सब्जी के तौर पर बड़े चाव से खाते हैं और हर्बल जानकार इसे कई नुस्खों में इस्तमाल भी करते हैं चलिए आज जानते हैं ऐसे ही कुछ रोचक हर्बल नुस्खों को..
तुरई के संदर्भ में रोचक जानकारियों और परंपरागत हर्बल ज्ञान का जिक्र कर रहें हैं डॉ दीपक आचार्य (डायरेक्टर-अभुमका हर्बल प्रा. लि. अहमदाबाद)। डॉ. आचार्य पिछले 15 सालों से अधिक समय से भारत के सुदूर आदिवासी अंचलों जैसे पातालकोट (मध्यप्रदेश), डाँग (गुजरात) और अरावली (राजस्थान) से आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान को एकत्रित कर उन्हें आधुनिक विज्ञान की मदद से प्रमाणित करने का कार्य कर रहें हैं।
आधा किलो तुरई को बारीक काटकर २ लीटर पानी में उबाल लिया जाए और छान लिया जाए और प्राप्त पानी में बैंगन को पका लें। बैंगन पक जाने के बाद इसे घी में भूनकर गुड़ के साथ खाने से बवासीर में बने दर्द तथा पीड़ा युक्त मस्से झड़ जाते हैं।
पीलिया होने पर तोरई के फल का रस यदि रोगी की नाक में दो से तीन बूंद डाला जाए तो नाक से पीले रंग का द्रव बाहर निकलता है और आदिवासी मानते है कि इससे अतिशीघ्र पीलिया रोग समाप्त हो जाता है।
आदिवासी जानकारी के अनुसार लगातार तुरई का सेवन करना सेहत के लिए बेहद हितकर होता है। तुरई रक्त शुद्धिकरण के लिए बहुत उपयोगी माना जाता है साथ ही यह लिवर के लिए भी गुणकारी होता है।
पातालकोट के आदिवासियों के अनुसार तुरई के छोटे छोटे टुकड़े काटकर छाँव में सुखा लिए जाए और सूखे टुकड़ों को नारियल के तेल में मिलाकर ५ दिन तक रखे और बाद में इसे गर्म कर लिया जाए। तेल छानकर प्रतिदिन बालों पर लगाए और मालिश भी करें तो बाल काले हो जाते हैं।
तुरई में इन्सुलिन की तरह पेप्टाईड्स पाए जाते हैं इसलिए इसे डायबिटीस नियंत्रण के लिए एक अच्छे उपाय के तौर पर देखा जाता है।
तुरई की बेल को दूध या पानी में घिसकर ५ दिनों तक सुबह शाम पिया जाए तो पथरी में आराम मिलता है।
तुरई के पत्तों और बीजों को पानी में पीसकर त्वचा पर लगाने से दाद-खाज और खुजली जैसे रोगों में आराम मिलता है, वैसे ये कुष्ठ रोगों में भी हितकारी होता है।
अपचन और पेट की समस्याओं के लिए तुरई की सब्जी बेहद कारगर इलाज है। डांगी आदिवासियों के अनुसार अधपकी सब्जी पेट दर्द दूर कर देती है।

***
मुक्तिका:
*
मगरमच्छ आँसू बहाने लगे हैं।
शिकंजे में मछली फँसाने लगे हैं।।
कोयल हुईं मौन अमराइयों में।
कौए गजल गुनगुनाने लगे हैं।।
न ताने, न बाने, न चरखा-कबीरा
तिलक- साखियाँ ही भुनाने लगे हैं।।
जहाँ से निकलना सम्हल के निकलना,
अपनों से अपने ठगाने लगे हैं।।
'सलिल' पत्थरों पर निशां बन गए जो
बनने में उनको ज़माने लगे हैं।।
२६-१२-२०१२
***
लघुकथा
एकलव्य
*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
२६-१२-२०१०
*****

रविवार, 25 दिसंबर 2022

बड़ा दिन, गीत, दोहा, नवगीत, जनक छंद


***
गीत: 'बड़ा दिन' * हम ऐसा कुछ काम कर सकें हर दिन रहे बड़ा दिन अपना. बनें सहायक नित्य किसी के- पूरा करदें उसका सपना..... * केवल खुद के लिए न जीकर कुछ पल औरों के हित जी लें. कुछ अमृत दे बाँट, और खुद कभी हलाहल थोडा पी लें. बिना हलाहल पान किये, क्या कोई शिवशंकर हो सकता? बिना बहाए स्वेद धरा पर क्या कोई फसलें बो सकता? दिनकर को सब पूज रहे पर किसने चाहा जलना-तपना? हम ऐसा कुछ काम कर सकें हर दिन रहे बड़ा दिन अपना..... * निज निष्ठा की सूली पर चढ़, जो कुरीत से लड़े निरंतर, तन पर कीलें ठुकवा ले पर- न हो असत के सम्मुख नत-शिर. करे क्षमा जो प्रतिघातों को रख सद्भाव सदा निज मन में. बिना स्वार्थ उपहार बाँटता- फिरे नगर में, डगर- विजन में. उस ईसा की, उस संता की- 'सलिल' सीख ले माला जपना. हम ऐसा कुछ काम कर सकें हर दिन रहे बड़ा दिन अपना..... * जब दाना चक्की में पिसता, आटा बनता, क्षुधा मिटाता. चक्की चले समय की प्रति पल नादां पिसने से घबराता. स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा- सूरज से कर जग उजियारा. देश, धर्म, या जाति भूलकर चमक गगन में बन ध्रुवतारा. रख ऐसा आचरण बने जो, सारी मानवता का नपना. हम ऐसा कुछ काम कर सकें हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
***
अभियान काव्य गोष्ठी २५-१२-२०२०
*
सहभागी
सर्व श्री-श्रीमती अनिल बाजपेयी, अमरेंद्र नारायण, अशोक शर्मा, जय प्रकाश श्रीवास्तव, निरुपमा वर्मा, बसंत शर्मा, भारती नरेश पाराशर, भावना दीक्षित, मिथलेश बड़गैया, विनीता श्रीवास्तव, विवेक रंजन श्रीवास्तव, संतोष शुक्ला, हरसहाय पांडेय और मैं।
*
मोक्षदा एकादशी; गीता दिवस पर, मदन मोहन को नमन शत,
अटल हों संकल्प अपने; दिन बड़ा है; भारती माँ को नमन शत।
निरुपमा कविता व्यथित है, देख कृषकों को सड़क पर यूँ उपेक्षित -
सलिल कर अभिषेक श्रम का, अन्नदाता देश के उनको नमन शत।
*
वंदन शारद भारती; हरि सहाय हों आज
नमन अनिल अमरेंद्र को; हो अशोक सब काज
जय प्रकाश की भावना; हो बसंत का राज
मन मिथलेश अवधपति; हो तन तब संतोष
कर विवेक रंजन सदा; सृजन विनीता कोष
*
आमंत्रित सबको करें जो वे अब रहें न दूर
काव्य पाठ मिथलेश जी करें बजे संतूर
*
भाभी जी का स्टेशन है भैया जी के मन में
सादर वंदन नमन समर्पित, हो हुलास जीवन में
*
नेह नर्मदा बहे निरंतर, महके आँगन देहरी
कविता-कविता मन को छूती बातें कह दे गहरी
२५-१२-२०२०
***
नवगीत:
.
कौन है जो
बिन कहे ही
शब्द में संगीत भरता है?
.
चाँद उपगृह निरा बंजर
सिर्फ पर्वत बिन समंदर
ज़िन्दगी भी नहीं संभव
उजाला भी नहीं अंदर
किन्तु फिर भी
रात में ले
चाँदनी का रूप झरता है
.
लता को देता सहारा
करें पंछी भी गुजारा
लकड़ियाँ फल फूल पत्ते
लूटता वहशी मनुज पर
दैव जैसा
सदय रहता
वृक्ष कल से नहीं डरता है
.
नदी कलकल बह रही है
क्या कभी कुछ गह रही है?
मिटाती है प्यास सबकी
पर न कुछ भी कह रही है
अचल सागर
से अँजुरिया
नीर पी क्या कोई तरता है?
***
दोहा सलिला :
भवन माहात्म्य
*
[इंस्टिट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, लोकल सेंटर जबलपुर द्वारा गगनचुम्बी भवन (हाई राइज बिल्डिंग) पर १०-११ अगस्त २०१३ को आयोजित अखिल भारतीय संगोष्ठी की स्मारिका में प्रकाशित कुछ दोहे।]
*
भवन मनुज की सभ्यता, ईश्वर का वरदान।
रहना चाहें भवन में, भू पर आ भगवान।१।
*
भवन बिना हो जिंदगी, आवारा-असहाय।
अपने सपने ज्यों 'सलिल', हों अनाथ-निरुपाय।२।
*
मन से मन जोड़े भवन, दो हों मिलकर एक।
सब सपने साकार हों, खुशियाँ मिलें अनेक।३।
*
भवन बचाते ज़िन्दगी, सड़क जोड़ती देश।
पुल बिछुडों को मिलाते, तरु दें वायु हमेश।४।
*
राष्ट्रीय संपत्ति पुल, सड़क इमारत वृक्ष।
बना करें रक्षा सदा, अभियंतागण दक्ष।५।
*
भवन सड़क पुल रच बना, आदम जब इंसान।
करें देव-दानव तभी, मानव का गुणगान।६।
*
कंकर को शंकर करें, अभियंता दिन-रात।
तभी तिमिर का अंत हो, उगे नवल प्रभात७।
*
भवन सड़क पुल से बने, देश सुखी संपन्न।
भवन सेतु पथ के बिना, होता देश विपन्न।८।
*
इमारतों की सुदृढ़ता, फूंके उनमें जान।
देश सुखी-संपन्न हो, बढ़े विश्व में शान।९।
*
भारत का नव तीर्थ है, हर सुदृढ़ निर्माण।
स्वेद परिश्रम फूँकता, निर्माणों में प्राण।१०।
*
अभियंता तकनीक से, करते नव निर्माण।
होता है जीवंत तब, बिना प्राण पाषाण।११।
*
भवन सड़क पुल ही रखें, राष्ट्र-प्रगति की नींव।
सेतु बना- तब पा सके, सीता करुणासींव।१२।
*
करे इमारत को सुदृढ़, शिल्प-ज्ञान-तकनीक।
लगन-परिश्रम से बने, बीहड़ में भी लीक।१३।
*
करें कल्पना शून्य में, पहले फिर साकार।
आंकें रूप अरूप में, यंत्री दे आकार।१४।
*
सिर्फ लक्ष्य पर ही रखें, हर पल अपनी दृष्टि।
अभियंता-मजदूर मिल, रचें नयी नित सृष्टि।१५।
*
सडक देश की धड़कनें, भवन ह्रदय पुल पैर।
वृक्ष श्वास-प्रश्वास दें, कर जीवन निर्वैर।१६।
*
भवन सेतु पथ से मिले, जीवन में सुख-चैन।
इनकी रक्षा कीजिए, सब मिलकर दिन-रैन।१७।
*
काँच न तोड़ें भवन के, मत खुरचें दीवार।
याद रखें हैं भवन ही, जीवन के आगार।१८।
*
भवन न गन्दा हो 'सलिल', सब मिल रखें खयाल।
कचरा तुरत हटाइए, गर दे कोई डाल।१९।
*
भवनों के चहुँ और हों, ऊँची वृक्ष-कतार।
शुद्ध वायु आरोग्य दे, पायें ख़ुशी अपार।२०।
*
कंकर से शंकर गढ़े, शिल्प ज्ञान तकनीक।
भवन गगनचुम्बी बनें, गढ़ सुखप्रद नव लीक।२१।
*
वहीं गढ़ें अट्टालिका जहाँ भूमि मजबूत।
जन-जीवन हो सुरक्षित, खुशियाँ मिलें अकूत।२२।
*
ऊँचे भवनों में रखें, ऊँचा 'सलिल' चरित्र।
रहें प्रकृति के मित्र बन, जीवन रहे पवित्र।२३।
*
रूपांकन हो भवन का, प्रकृति के अनुसार।
अनुकूलन हो ताप का, मौसम के अनुसार।२४।
*
वायु-प्रवाह बना रहे, ऊर्जा पायें प्राण।
भवन-वास्तु शुभ कर सके, मानव को सम्प्राण।२५।
***
सामयिकी:
हिंदी की शब्द सलिला
*
आजकल हिंदी विरोध और हिनदी समर्थन की राजनैतिक नूराकुश्ती जमकर हो रही है। दोनों पक्षों का वास्तविक उद्देश्य अपना राजनैतिक स्वार्थ साधना है। दोनों पक्षों को हिंदी या अन्य किसी भाषा से कुछ लेना-देना नहीं है। सत्तर के दशक में प्रश्न को उछालकर राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जा चुकी हैं। अब फिर तैयारी है किंतु तब आदमी तबाह हुआ और अब भी होगा। भाषाएँ और बोलियाँ एक दूसरे की पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं। खुसरो से लेकर हजारीप्रसाद द्विवेदी और कबीर से लेकर तुलसी तक हिंदी ने कितने शब्द संस्कृत. पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, बुंदेली, भोजपुरी, बृज, अवधी, अंगिका, बज्जिका, मालवी निमाड़ी, सधुक्कड़ी, लश्करी, मराठी, गुजराती, बांग्ला और अन्य देशज भाषाओँ-बोलियों से लिये-दिये और कितने अंग्रेजी, तुर्की, अरबी, फ़ारसी, पुर्तगाली आदि से इसका कोई लेख-जोखा संभव नहीं है.
इसके बाद भी हिंदी पर संकीर्णता, अल्प शब्द सामर्थ्य, अभिव्यक्ति में अक्षम और अनुपयुक्त होने का आरोप लगाया जाना कितना सही है? गांधी जी ने सभी भारतीय भाषाओँ को देवनागरी लिपि में लिखने का सुझाव दिया था ताकि सभी के शब्द आपस में घुलमिल सकें और कालांतर में एक भाषा का विकास हो किन्तु प्रश्न पर स्वार्थ की रोटी सेंकनेवाले अंग्रेजीपरस्त गांधीवादियों और नौकरशाहों ने यह न होने दिया और ७० के दशक में हिन्दीविरोध दक्षिण की राजनीति में खूब पनपा।
संस्कृत से हिंदी, फ़ारसी होकर अंग्रेजी में जानेवाले अनगिनत शब्दों में से कुछ हैं: मातृ - मातर - मादर - मदर, पितृ - पितर - फिदर - फादर, भ्रातृ - बिरादर - ब्रदर, दीवाल - द वाल, आत्मा - ऐटम, चर्चा - चर्च (जहाँ चर्चा की जाए), मुनिस्थारि = मठ, -मोनस्ट्री = पादरियों आवास, पुरोहित - प्रीहट - प्रीस्ट, श्रमण - सरमन = अनुयायियों के श्रवण हेतु प्रवचन, देव-निति (देवों की दिनचर्या) - देवनइति (देव इस प्रकार हैं) - divnity = ईश्वरीय, देव - deity - devotee, भगवद - पगवद - pagoda फ्रेंच मंदिर, वाटिका - वेटिकन, विपश्य - बिपश्य - बिशप, काष्ठ-द्रुम-दल(लकड़ी से बना प्रार्थनाघर) - cathedral, साम (सामवेद) - p-salm (प्रार्थना), प्रवर - frair, मौसल - मुसल(मान), कान्हा - कान्ह - कान - खान, मख (अग्निपूजन का स्थान) - मक्का, गाभा (गर्भगृह) - काबा, शिवलिंग - संगे-अस्वद (काली मूर्ति, काला शिवलिंग), मखेश्वर - मक्केश्वर, यदु - jude, ईश्वर आलय - isreal (जहाँ वास्तव इश्वर है), हरिभ - हिब्रू, आप-स्थल - apostle, अभय - abbey, बास्पित-स्म (हम अभिषिक्त हो चुके) - baptism (बपतिस्मा = ईसाई धर्म में दीक्षित), शिव - तीन नेत्रोंवाला - त्र्यम्बकेश - बकश - बकस - अक्खोस - bachenelion (नशे में मस्त रहनेवाले), शिव-शिव-हरे - सिप-सिप-हरी - हिप-हिप-हुर्राह, शंकर - कंकर - concordium - concor, शिवस्थान - sistine chapel (धर्मचिन्हों का पूजास्थल), अंतर - अंदर - अंडर, अम्बा- अम्मा - माँ मेरी - मरियम आदि।
हिंदी में प्रयुक्त अरबी भाषा के शब्द : दुनिया, ग़रीब, जवाब, अमीर, मशहूर, किताब, तरक्की, अजीब, नतीज़ा, मदद, ईमानदार, इलाज़, क़िस्सा, मालूम, आदमी, इज्जत, ख़त, नशा, बहस आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त फ़ारसी भाषा के शब्द : रास्ता, आराम, ज़िंदगी, दुकान, बीमार, सिपाही, ख़ून, बाम, क़लम, सितार, ज़मीन, कुश्ती, चेहरा, गुलाब, पुल, मुफ़्त, खरगोश, रूमाल, गिरफ़्तार आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त तुर्की भाषा के शब्द : कैंची, कुली, लाश, दारोगा, तोप, तलाश, बेगम, बहादुर आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त पुर्तगाली भाषा के शब्द : अलमारी, साबुन, तौलिया, बाल्टी, कमरा, गमला, चाबी, मेज, संतरा आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त अन्य भाषाओ से: उजबक (उज्बेकिस्तानी, रंग-बिरंगे कपड़े पहननेवाले) = अजीब तरह से रहनेवाला,
हिंदी में प्रयुक्त बांग्ला शब्द: मोशाय - महोदय, माछी - मछली, भालो - भला,
हिंदी में प्रयुक्त मराठी शब्द: आई - माँ, माछी - मछली,
अपनी आवश्यकता हर भाषा-बोली से शब्द ग्रहण करनेवाली व्यापक में से उदारतापूर्वक शब्द देनेवाली हिंदी ही भविष्य की विश्व भाषा है इस सत्य को जितनी जल्दी स्वीकार किया जाएगा, भाषायी विवादों का समापन हो सकेगा।
***
नवगीत:
*
साँप-सँपेरे
करें सियासत
.
हर चुनाव है नागपंचमी
बीन बज रही, बजे चंग भी
नागिन मोहे, कभी डराये
स्नेह लापता, छोड़ी जंग भी
कहीं हो रही
लूट-बगावत
.
नाचे बंदर, नचा मदारी
पण्डे-झंडे लाये भिखारी
कथनी-करनी में अंतर है
जनता, थोड़ा सबक सिखा री!
क्षणिक मित्रता
अधिक अदावत
.
खेलें दोनों ओर जुआरी
झूठे दावे, छद्म अदा री
जीतें तो बन जाए टपरिया
साथ मंज़िला भव्य अटारी
भृष्ट आचरण
कहें रवायत
.
***
नवगीत:
.
कुछ तो कीजिए
हुज़ूर!
कुछ तो कीजिए
माथे बिंदिया
द्वारे सतिया
हाथ हिना लख
खुश परबतिया
कर बौरा का जाप
भजिए रीझिए
.
भोर सुनहरी
गर्म दुपहरी
साँझ सजीली
निशा नशीली
होतीं अपने आप
नवता दीजिए
.
धूप तप रही
हवा बह रही
लहर मीन से
कथा कह रही
दूरी लेंगी नाप
पग धर दीजिए
.
हँसतीं कलियाँ
भ्रमर तितलियाँ
देखें संग-संग
दिल की गलियाँ
दिग्दिगंत तक व्याप
ढलिये-ऊगिये
.
महल टपरिया
गली बजरिया
मटके भटके
समय गुजरिया
नाच नचाएँ साँप
विष भी पीजिए
.
***
जनक छंदी सलिला:
*
शुभ क्रिसमस शुभ साल हो,
मानव इंसां बन सके.
सकल धरा खुश हाल हो..
*
दसों दिशा में हर्ष हो,
प्रभु से इतनी प्रार्थना-
सबका नव उत्कर्ष हो..
*
द्वार ह्रदय के खोल दें,
बोल क्षमा के बोल दें.
मधुर प्रेम-रस घोल दें..
*
तन से पहले मन मिले,
भुला सभी शिकवे-गिले.
जीवन में मधुवन खिले..
*
कौन किसी का हैं यहाँ?
सब मतलब के मीत हैं.
नाम इसी का है जहाँ..
*
लोकतंत्र नीलाम कर,
देश बेचकर खा गए.
थू नेता के नाम पर..
*
सबका सबसे हो भला,
सभी सदा निर्भय रहें.
हर मन हो शतदल खिला..
*
सत-शिव सुंदर है जगत,
सत-चित -आनंद ईश्वर.
हर आत्मा में है प्रगट..
*
सबको सबसे प्यार हो,
अहित किसी का मत करें.
स्नेह भरा संसार हो..
*
वही सिंधु है, बिंदु भी,
वह असीम-निस्सीम भी.
वही सूर्य है, इंदु भी..
*
जन प्रतिनिधि का आचरण,
जन की चिंता का विषय.
लोकतंत्र का है मरण..
*
शासन दुश्शासन हुआ,
जनमत अनदेखा करे.
कब सुधरेगा यह मुआ?
*
सांसद रिश्वत ले रहे,
क़ैद कैमरे में हुए.
ईमां बेचे दे रहे..
*
सबल निबल को काटता,
कुर्बानी कहता उसे.
शीश न निज क्यों काटता?
*
जीना भी मुश्किल किया,
गगन चूमते भाव ने.
काँप रहा है हर जिया..
*
***
गीत:
नया वर्ष है...
*
खड़ा मोड़ पर आकर फिर
एक नया वर्ष है...
*
कल से कल का सेतु आज है यह मत भूलो.
पाँव जमीं पर जमा, आसमां को भी छू लो..
मंगल पर जाने के पहले
भू का मंगल -
कर पाएँ कुछ तभी कहें
पग तले अर्श है.
खड़ा मोड़ पर आकर फिर
एक नया वर्ष है...
*
आँसू न बहा, दिल जलता है, चुप रह, जलने दे.
नयन उनींदे हैं तो क्या, सपने पलने दे..
संसद में नूराकुश्ती से
क्या पाओगे?
सार्थक तब जब आम आदमी
कहे हर्ष है.
खड़ा मोड़ पर आकर फिर
एक नया वर्ष है...
*
गगनविहारी माया की ममता पाले है.
अफसर, नेता, सेठ कर रहे घोटाले हैं.
दोष बताएँ औरों के
निज दोष छिपाकर-
शीर्षासन कर न्याय कहे
सिर धरा फर्श है.
खड़ा मोड़ पर आकर फिर
एक नया वर्ष है...
*
धनी और निर्धन दोनों अधनंगे फिरते.
मध्यमवर्गी वर्जनाएँ रच ढोते-फिरते..
मनमानी व्याख्या सत्यों
की करे पुरोहित-
फतवे जारी हुए न लेकिन
कुछ विमर्श है.
खड़ा मोड़ पर आकर फिर
एक नया वर्ष है...
*
चले अहर्निश ऊग-डूब कब सोचे सूरज?
कर कर कोशिश फल की चिंता काश सकें तज..
कंकर से शंकर गढ़ना हो
लक्ष्य हमारा-
विषपायी हो 'सलिल'
कहें: त्यागा अमर्श है.
खड़ा मोड़ पर आकर फिर
एक नया वर्ष है...

२५-१२-२०१२

*** 

मदनललिता, नील, मणिकल्पलता, अचलधृति, प्रवरललिता, चंचला, रतिलेखा

 १६ वर्णिक अथाष्टि जातीय छंद

१. मदनललिता
विधान - म भ न म न ग। यति - ४-६-६।
खेतों में जो; श्रम कर रहे; वे ही लड़ रहे।
बोते हैं जो; फसल अब तो; वे ही डर रहे।।
सारे वादे; बिसर मुकरे; नेता कह रहे-
जो बोले थे; महज जुमले; मैया! छल रहे।।
*
२. नील
विधान - ५ भ + ग।
मैं तुम; हों हम; तो फिर क्या गम; खूब मिले।
मीत बनें हम; प्रीत करें हम; भूल गिले।।
हार वरें जब; जीत मिले तब; हार गले-
दीप जले जब; द्वार सजे तब; प्यार खिले।।
*
३. मणिकल्पलता
विधान - न ज र म भ ग। यति - १०-६।
मिल-जल दीप दीपमाला; हो भू पे पुजते ।
मिल-जुल साथ-साथ सारे; अंधेरा हरते।।
जब तक तेल और बाती; हैं साथी उनके-
तब तक वे प्रकाश देते; मुस्काते मिलते ।।
*
४. अचलधृति
विधान - ५ न + ल।
अमल विमल सलिल लहर प्रवहित।
अगिन सुमन जलज कमल मुकुलित।।
रसिक भ्रमर सरसिज पर मर-मिट-
निरख-निरख शतदल-दल प्रमुदित।।
*
५. प्रवरललिता
विधान - य म न स र ग। यति - ६-१०।
तिरंगा ऊँचा है; हरदम रखें खूब ऊँचा।
न होने देना है; मिलकर इसे यार नीचा।।
यही काशी-काबा; ब्रज-रज यही है अयोध्या -
इन्हें सींचें खूं से; हम सब न सूखे बगीचा।।
*
६. चंचला
विधान -र ज र ज र ल।
है शिकार आज भी किसान जुल्म का हुजूर।
है मजूर भूख का शिकार आज भी हुजूर।।
दूरदर्शनी हुआ सियासती प्रचार आज-
दे रहा फिजूल में चुनौतियाँ इन्हें हुजूर।।
*
७. रतिलेखा
विधान -स न न न स ग। यति ११-५।
अब तो जग कर विजय; हँस वनिताएँ।
जय मंज़िल कर रुक न; बढ़ यश पाएँ।।
नर से बढ़कर सफल; अब यह होंगी-
गिरि-पर्वत कर फतह; ध्वज फहराएँ।।
***

छंद सारंगी, चित्रा, सीता, नलिनी, कुञ्ज, दीपक, मालिनी, उपमालिनी

 १५ वर्णिक अतिशर्करी जातीय छंद

*
१. सारंगी
विधान - ५ म। यति - ८-७।
माया जीवों को मोहेगी; प्राणों से ज्यादा प्यारी।
ज्यों ही पाई खोई त्यों ही; छाया कर्मों की क्यारी।।
जैसा बोया वैसा काटा; जो लाया वो ले जाए -
काया को काया ही भाती; माटी को माटी न्यारी।।
*
२. चित्रा
विधान - म म म य य। यति - ८-७।
क्या तेरा क्या मेरा साधो; बोल दे साँच भाई।
खाली हाथों आना-जाना; जोड़ता व्यर्थ भाई।।
झूठे सारे रिश्ते नाते; वायदे झूठ सारे-
क्या कोई भी साथी होता आखिरी वक़्त भाई।।
*
३. सीता
विधान - र त म य र। यति - ८-७।
झूठ बोलो यार तो भी; सत्य बोला बोलना।
सार बोला या न बोलै; किंतु बोलै तोलना।।
प्यार होता या न होता; किंतु दे-पाया कहो-
राह है संसार का जो; राज तू ना खोलना।।
*
४. नलिनी / भ्रमरावली / मनहरण
विधान - ५ स।
सब में रब है; सब से सच ही कहना।
तन में मन मंदिर है; रब तू रहना।।
जब जो घटता; तब वो सब है घटना-
सलिला सम जीवन में लहरा-बहना।।
*
५. कुञ्ज
विधान - त ज र स र। यति - ८-७।
होता रस-रास नित्य ; मौन सखा देख ले।
देती नव शक्ति भक्ति ; भाव भरी लेख ले।।
राधा-बस श्याम श्याम; के बस राधा हुई-
साक्षी यह कुञ्ज-तीर आकर तू देख ले।।
*
६. दीपक
विधान - भ त न त य। यति - १०-५।
हाय किसानों तुम पर है आपद आई।
शासन बातें सुन न रहा; शामत आई।।
साध्य न खेती श्रमिक नहीं; है अब प्यारा-
सेठ-परस्ती हर दल को, है अब भाई।।
*
७. मालिनी / मञ्जुमालिनी
विधान - न न म य य। यति - ८-७।
कदम-कदम शूलों; से घिरे फूल प्यारे।
पग-पग पर घाटों; से घिरे कूल न्यारे।।
कलकल जलधारों; को करें लोग गंदा-
अमल सलिल होने; दो निर्मल हों धारे ।।
*
८. उपमालिनी
विधान - न न त भ र। यति - ८-७।
कृषक-श्रमिक भूखे; रहें जिस राज में।
जनगण-मन आशा; तजे उस राज में।।
जन प्रतिनिधि भोगें; मजे जिस राज में-
नजमत अनदेखा; रहे उस राज में।।
*

शनिवार, 24 दिसंबर 2022

नवगीत, सॉनेट, दोहे, दधीचि रामायण, वाल्मीकि,

रामायण
रामायण का काल वैवस्वत, मन्वंतर के 28 वी चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार ये सृष्टि 14 मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर मे 71 चतुर्युगी होती है। 1 चतुर्युगी मे 4 युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। अब तक 6 मन्वंतर बीत चुके है 7 वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है। सतयुग 17,28,000 वर्षो का एक काल है, इसी प्रकार त्रेतायुग 12,96,000 वर्ष, द्वापरयुग 8,64,000 वर्ष एवं कलियुग 4,32,000 वर्ष का है। वर्तमान मे 28 वी चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है। अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच द्वापरयुग है। जो कि उपरोक्त 8,64,000 वर्ष का है। अब आगे आते है कलियुग के लगभग 5200 वर्ष बीत चुके है। महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी के अनुसार- 

असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:

जिस समय युधिष्ठिर राज्य करते थे उस समय सप्तऋषि मघा नक्षत्र मे थे। वैदिक गणित मे 27 नक्षत्र होते है और सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे 100 वर्ष तक रहते है।ये चक्र चलता रहता है। राषा युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियो ने 27 चक्र पूर्ण कर लिये थे उसके बाद आज तक 24 चक्र और हुए कुल मिलाकर 51 चक्र हो चुके है सप्तऋषि तारा मंडल के। अत: कुल वर्ष व्यतीत हुए 51×100= 5100 वर्ष। राजा युधिष्ठिर लगभग 38 वर्ष शासन किये थे। तथा उसके कुछ समय बाद कलियुग का आरम्भ हुआ अत: मानकर चलते है कि कलियुग के कुल 5155 वर्ष बीत चुके है।

इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक कुल 8,64,000+5155=8,69,155 वर्ष।

श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत मे। इस प्रकार कम से कम 9 लाख वर्ष के आस पास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग 5, श्लोक 12 मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते है-

वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||

अर्थात् जब हनुमान जी वन मे श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते है तब वो सफेद रंग 4 दांतो नाले हाथी को देखते है। ये हाथी के जीवाश्म सन 1870 मे मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग 10 लाख से 50 लाख के आसपास निकलती है।


वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इस से रामायण के लगभग 10 लाख साल के आस पास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण भी उपलब्ध होता है।

तुलसीदास लगभग 500 वर्ष पूर्व पैदा हुए थे। वे अवधी एवं ब्रज भाषा मे लिखते थे। जो गीता वेदव्यास द्वारा लिखित थी वो केवल 80 श्लोक की थी, आज 800 श्लोक तक पहुँच गयी है। आज से 1500 वर्ष पूर्व जन्मे राजाभोज अपनी पुस्तक भोजप्रबंध मे लिखते है कि म़ेरे से 500 वर्ष पूर्व जब राजा विक्रमादित्य शासन करते थे तब महाभारत मे 1000 श्लोक थे, मेरे दादा के समय मे 2500 श्लोक तथा मेरे समय मे 3000 श्लोक है। वर्तमान मे गीताप्रेस गोरखपुर 1 लाख 10,000 श्लोक की महाभारत छापता है। इसी प्रकार मूल रामायण के बहुत से संस्कृत श्लोकों को अवधी,ब्रज भाषा में बदलकर तुलसीदास ने काव्य रूप से रामायण की रचना की जिसे रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है।  रामचरितमानस मे जो तथ्य मूल रामायण(मुनि वाल्मीकि रचित) सम्मत है उन्हें ग्रहण करें और जो विरुद्ध हैं उन्हे त्याग दें।

श्रीराम की कथा सर्वप्रथम भगवान शंकर ने माता पार्वतीजी को सुनाई थी। उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया। उसी कौवे का पुनर्जन्म कागभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्व जन्म में भगवान शंकर के मुख से सुनी वह रामकथा पूरी की पूरी याद थी। उन्होंने यह कथा अपने शिष्यों को सुनाई। इस प्रकार रामकथा का प्रचार-प्रसार हुआ। भगवान शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा 'अध्यात्म रामायण' के नाम से विख्यात है। काकभुशुण्डि : लोमश ऋषि के शाप के चलते काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि ने शाप से मु‍क्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया। वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डि ने रामायण गिद्धराज गरूड़ को सुना दी थी।

जब रावण के पुत्र मेघनाथ ने श्रीराम से युद्ध करते हुए श्रीराम को नागपाश से बाँध दिया था, तब देवर्षि नारद के कहने पर गिद्धराज गरुड़ ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर श्रीराम को नागपाश के बंधन से मुक्त कर दिया था। भगवान राम के इस तरह नागपाश में बंध जाने पर श्रीराम के भगवान होने पर गरुड़ को संदेह हो गया। गरुड़ का संदेह दूर करने के लिए देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्माजी के पास भेज देते हैं। ब्रह्माजी उनको शंकरजी के पास भेज देते हैं। भगवान शंकर ने भी गरुड़ को उनका संदेह मिटाने के लिए काकभुशुण्डिजी के पास भेज दिया। अंत में काकभुशुण्डिजी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुनाकर गरुड़ के संदेह को दूर किया।

वैदिक साहित्य के बाद जो रामकथाएँ लिखी गईं, उनमें वाल्मीकि रामायण सर्वोपरि है। वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे और उन्होंने रामायण तब लिखी, जब रावण-वध के बाद राम का राज्याभिषेक हो चुका था। एक दिन वे वन में ऋषि भारद्वाज के साथ घूम रहे थे और उन्होंने एक व्याघ्र (बहेलिया) द्वारा क्रौंच पक्षी को मारे जाने की हृदयविदारक घटना देखी और तभी उनके मन से एक श्लोक फूट पड़ा। बस यहीं से इस कथा को लिखने की प्रेरणा मिली। यह इसी कल्प की कथा है और यही प्रामाणिक है। वाल्मीकिज‍ी ने राम से संबंधित घटनाचक्र  अपने जीवनकाल में स्वयं देखा-सुना था, उनकी रामायण सत्य के काफी निकट है, लेकिन उनकी रामायण के सिर्फ 6 ही कांड थे। उत्तरकांड को बौद्धकाल में जोड़ा गया।  

अद्भुत रामायण संस्कृत भाषा में रचित 27 सर्गों का काव्य-विशेष है। कहा जाता है कि इस ग्रंथ के प्रणेता भी वाल्मीकि थे। किंतु शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी भाषा और रचना से लगता है कि किसी बहुत परवर्ती कवि ने इसका प्रणयन किया है अर्थात अब यह वाल्मीकि कृत नहीं रही। तो क्या वाल्मीकि यह चाहते थे कि मेरी रामायण में विवादित विषय न हो, क्योंकि वे श्रीराम को एक मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में ही स्थापित करना चाहते थे?

क्यों हनुमानजी ने 'रामायण' समुद्र में फेंक दी थी?

हनुमद रामायण : शास्त्रों के अनुसार विद्वान लोग कहते हैं कि सर्वप्रथम रामकथा हनुमानजी ने लिखी थी और वह भी एक शिला (चट्टान) पर अपने नाखूनों से लिखी थी। यह रामकथा वाल्मीकिजी की रामायण से भी पहले लिखी गई थी और यह 'हनुमद रामायण' के नाम से प्रसिद्ध है।
यह घटना तब की है जबकि भगवान श्रीराम रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद अयोध्या में राज करने लगते हैं और श्री हनुमानजी हिमालय पर चले जाते हैं। वहाँ वे अपनी शिव तपस्या के दौरान की एक शिला पर प्रतिदिन अपने नाखून से रामायण की कथा लिखते थे। इस तरह उन्होंने प्रभु श्रीराम की महिमा का उल्लेख करते हुए 'हनुमद रामायण' की रचना की।

कुछ समय बाद महर्षि वाल्मीकि ने भी 'वाल्मीकि रामायण' लिखी और लिखने के बाद उनके मन में इसे भगवान शंकर को दिखाकर उनको समर्पित करने की इच्छा हुई। वे अपनी रामायण लेकर शिव के धाम कैलाश पर्वत पहुँचे। वहाँ उन्होंने हनुमानजी को और उनके द्वारा लिखी गई 'हनुमद रामायण' को देखा। हनुमद रामायण के दर्शन कर वाल्मीकिजी निराश हो गए। वाल्मीकिजी को निराश देखकर हनुमानजी ने उनसे उनकी निराशा का कारण पूछा तो महर्षि बोले कि उन्होंने बड़े ही कठिन परिश्रम के बाद रामायण लिखी थी लेकिन आपकी रामायण देखकर लगता है कि अब मेरी रामायण उपेक्षित हो जाएगी, क्योंकि आपने जो लिखा है उसके समक्ष मेरी रामायण तो कुछ भी नहीं है। तब वाल्मीकिजी की चिंता का शमन करते हुए श्री हनुमानजी ने हनुमद रामायण पर्वत शिला को एक कंधे पर उठाया और दूसरे कंधे पर महर्षि वाल्मीकि को बिठाकर समुद्र के पास गए और स्वयं द्वारा की गई रचना को श्रीराम को समर्पित करते हुए समुद्र में समा दिया। तभी से हनुमान द्वारा रची गई हनुमद रामायण उपलब्ध नहीं है। वह आज भी समुद्र में पड़ी है। हनुमानजी द्वारा लिखी रामायण को हनुमानजी द्वारा समुद्र में फेंक दिए जाने के बाद महर्षि वाल्मीकि बोले कि हे रामभक्त श्री हनुमान, आप धन्य हैं! आप जैसा कोई दूसरा ज्ञानी और दयावान नहीं है। हे हनुमान, आपकी महिमा का गुणगान करने के लिए मुझे एक जन्म और लेना होगा और मैं वचन देता हूँ कि कलयुग में मैं एक और रामायण लिखने के लिए जन्म लूंगा। तब मैं यह रामायण आम लोगों की भाषा में लिखूँगा। माना जाता है कि रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास कोई और नहीं बल्कि महर्षि वाल्मीकि का ही दूसरा जन्म था। तुलसीदासजी अपनी 'रामचरित मानस' लिखने के पूर्व हनुमान चालीसा लिखकर हनुमानजी का गुणगान करते हैं और हनुमानजी की प्रेरणा से ही वे फिर रामचरित मानस लिखते हैं।

कहते हैं कि कालिदास के काल में एक पट्टलिका को समुद्र के किनारे पाया गया था जिसे एक सार्वजनिक स्थान पर टाँग दिया गया था ताकि विद्यार्थी उस पर लिखी गूढ़ लिपि को समझ और पढ़कर उसका अर्थ निकाल सकें। कालिदास ने उसका अर्थ निकाल लिया था और वे जान गए थे कि यह हनुमानजी द्वारा रचित हनुमद रामायण का ही एक अंश है। महाकवि तुलसीदास के हाथ वही पट्टलिका लग गई थी। उसे पाकर तुलसीदास ने अपने आपको बहुत भाग्यशाली माना कि उन्हें हनुमद रामायण के श्लोक का एक पद्य प्राप्त हुआ है। हनुमन्नाटक रामायण के अंतिम खंड में लिखा है-

'रचितमनिलपुत्रेणाथ वाल्मीकिनाब्धौ

निहितममृतबुद्धया प्राड् महानाटकं यत्।।

सुमतिनृपतिभेजेनोद्धृतं तत्क्रमेण

ग्रथितमवतु विश्वं मिश्रदामोदरेण।।'

अर्थात : इसको पवनकुमार ने रचा और शिलाओं पर लिखा था, परंतु वाल्मीकि ने जब अपनी रामायण रची तो तब यह समझकर कि इस रामायण को कौन पढ़ेगा, श्री हनुमानजी से प्रार्थना करके उनकी आज्ञा से इस महानाटक को समुद्र में स्थापित करा दिया, परंतु विद्वानों से किंवदंती को सुनकर राजा भोज ने इसे समुद्र से निकलवाया और जो कुछ भी मिला उसको उनकी सभा के विद्वान दामोदर मिश्र ने संगतिपूर्वक संग्रहीत किया।

अब तक लिखी गई राम कथा की सूची :

१. अध्यात्म रामायण
२. वाल्मीकि की 'रामायण' (संस्कृत)
३. आनंद रामायण
४. 'अद्भुत रामायण' (संस्कृत)
५. रंगनाथ रामायण (तेलुगु)
६. कवयित्री मोल्डा रचित मोल्डा रामायण (तेलुगु)
७. रूइपादकातेणपदी रामायण (उड़िया)
८. रामकेर (कंबोडिया)
९. तुलसीदास की 'रामचरित मानस' (अव‍धी)
१०. कम्बन की 'इरामावतारम' (तमिल)
११.. कुमार दास की 'जानकी हरण' (संस्कृत)
१२. मलेराज कथाव (सिंहली)
१३. किंरस-पुंस-पा की 'काव्यदर्श' (तिब्बती)
१४. रामायण काकावीन (इंडोनेशियाई कावी)
१५. हिकायत सेरीराम (मलेशियाई भाषा)
१६. रामवत्थु (बर्मा)
१७. रामकेर्ति-रिआमकेर (कंपूचिया खमेर)
१८. तैरानो यसुयोरी की 'होबुत्सुशू' (जापानी)
१९. फ्रलक-फ्रलाम-रामजातक (लाओस)
२०. भानुभक्त कृत रामायण (नेपाल)
२१. अद्भुत रामायण
२२. रामकियेन (थाईलैंड)
२३. खोतानी रामायण (तुर्किस्तान)
२४ . जीवक जातक (मंगोलियाई भाषा)
२५. मसीही रामायण (फारसी)
२६. शेख सादी मसीह की 'दास्ताने राम व सीता'।
२७. महालादिया लाबन (मारनव भाषा, फिलीपींस)
२८. दशरथ कथानम (चीन)
२९. हनुमन्नाटक (हृदयराम-1623)
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क्या वाल्मिकि रामायण में "तथागत बुद्ध" है? यदि है तो इसका मतलब क्या है?

वाल्मीकी रामायण के सातों कांड में कहीं भी तथागत बुद्ध का उल्लेख नहीं  है। इस श्लोक के कारण भ्रांति फैली हुई है-

यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध |
स्तथागतं नास्तिकमत्र विध्हि |
तस्माद्धि यः शङ्क्यतमः प्रजानाम् |
न नास्ति केनाभिमुखो बुधः स्यात्

स्रोत - अयोध्याकाण्ड, सर्ग संख्या १०९, वाल्मीकी रामायण

इस श्लोक का अंग्रेज़ी अनुवाद कुछ इस प्रकार से है -


बुद्ध का अर्थ विद्वान व्यक्ति है, न कि तथागत बुद्ध।

यह प्रसंग श्री राम और जाबाली के बीच हुए संवाद का है। जाबाली ऋषि भरत के साथ श्री राम को अयोध्या ले जाने के उद्देश्य से वन पधारे हैं। श्री राम को अयोध्या ले जाने के लिए वह चारवाक दर्शन का सहारा लेते हुए उनसे पिता की आज्ञा का पालन न करने के लिए कहते हैं और नास्तिकता का गुणगान करते हैं।

श्री राम अपने प्रतिउत्तर में चारवाक दर्शन और नास्तिकता का पूर्ण रूप से खंडन करते हैं और नास्तिक व्यक्ति को दंडनीय भी बताते हैं। इस श्लोक में श्री राम द्वारा नास्तिकता का खंडन किया गया है।

 गीताप्रेस के अनुवादसे ऐसा प्रतीत होगा कि इस श्लोक में बुद्ध का उल्लेख है। लेकिन यदि तथ्यों पर गौर करें, तो रामायण का कालखंड बुद्ध से बहुत पहले का है। इसलिए गीताप्रेस द्वारा इस श्लोक का अनुवाद गलत है।
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कविता : कृष्ण
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कृष्ण!

मैं देख तुम्हारी जीवन‌ यात्रा चकित हुआ,

क्यों अपने संघर्षों से इतना मैं व्यथित हुआ !

जन्म से भी आदि, जीवन के अन्त तक

सरल न कोई तुम्हारा पथ रहा

एक नहीं अनेक बार जीवन विस्थापित हुआ !

झंझाओं को जूझ देते रहे

मोह को छोड़ नित्य आगे बढ़ते रहे

मानवता के रक्षक बने

तुम्हीं से धर्म धरा पर स्थापित हुआ !!

स्वलिखित © सविता पाटील
(क्वोरा से साभार )

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बिहारी के दोहे
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हिंदी साहित्य के चार भाग - आदिकाल (वीरगाथाकाल), भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल हैं। आदि काल वीरकाव्य प्रधान है, भक्तिकाल भक्ति भावप्रधान और रीतिकाल शृंगार प्रधान। आधुनिक साहित्य में विषय वैविध्य उल्लेखनीय है।

रीतिकालीन कवियों में केशवदास, पद्माकर, देव, बिहारी, घनानंद और भूषण आदि प्रमुख हैं। रीतिकाल के श्रेष्ठ कवि बिहारी एकमात्र कृति 'सतसई' सेहिंदी साहित्य में अमर हो गए। बिहारी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है - कल्पना की अद्भुत समाहार क्षमता और भाषा की बेजोड़ समास शक्ति। अपनी इसी विशेषता के कारण वह बहुत कम शब्दों में बहुत अधिक बातें कह देते हैं-

"कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत है, नैननु ही सों बात।।"

बिहारी के काव्य की विशेषता है उनका बिंब कौशल। वह अमूर्त से अमूर्त भाव को भी शब्द-चित्र की भाषा में जीवंत कर सके हैं।

"बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करें, भौंहनु हँसै, दैन कहै नटि जाय।।"

बिहारी की अलंकार योजना अपनी मिसाल आप है। वह श्लेष, यमक, अतिशयोक्ति, विरोधाभास आदि अलंकारों के रोचक प्रयोग से व पाठक को रस-लीन करा देते हैं।

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गम्भीर।
को घटि? ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥

बिहारी के काव्य का विषय-वैविध्य चमत्कारिक है। रीतिकाल के अन्य कवि सामान्यत: एक विषय पर केंद्रित रहे , किंतु बिहारी शृंगार को काव्य-केंद्र बिंदुखते हुए भी नीति, भक्ति, राजनीतिक चेतना और सामाजिक सजगता से भी साक्षात्कार करते-कराते रहे।

भक्ति भाव-

" मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय।।"

राजनीतिक चेतना -

"नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिंध्यों, आगे कौन हवाल।"

पाखंड पर प्रहार-

"जप माला छापा तिलक, सरै न एकौ काम।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचै राँचै राम।।"

बिहारी शिल्प के सजग कवि होने के साथ ही संवेदना के स्तर पर भी अपने काव्य चरम साध सके हैं। बिहारी की काव्य भाषा मुख्यतः ब्रज है। ब्रज भाषा में सूरदास ने जो संगीतात्मकता और तन्मयता पैदा की थी उसे पूर्णता तक बिहारी ने ही पहुँचाया है। बिहारी अपने भाषा की समाहार और समास क्षमता, अनुभावों की सघन योजना, बिंब और अलंकारों का चमत्कारी प्रयोग कर अमर हो गए हैं। जॉर्ज ग्रियर्सन ने तो यहाँ तक कहा है कि " पूरे यूरोप में एक भी कवि बिहारी की बराबरी नहीं कर सकता"।
(स्रोत- बिहारी रत्नाकर, सं. जगन्नाथदास रत्नाकर)
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महर्षि दधीचि

दधीचि ऋषि का हिंदू धर्म में केंद्रीय चरित्र रहा है। इन्हें दधिचंथा या दधिंगा के नाम से भी जाना जाता है। दधीचि मुख्य रूप से अपने जीवन का त्याग करने के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने देवताओं की सहायता के लिए अपनी हड्डियों से “वज्र” नामक हथियार बनाकर तत्क्षण उनको दान में दिया था। इस वज्र को बनाने के लिए उन्होंने अपने प्राणों का त्याग करने में तनिक भी देरी नहीं की थी। नागराज वृत्र द्वारा स्वर्ग से निष्कासित होने के बाद देवताओं को नागराज से युद्ध करने के लिए एक शक्तिशाली हथियार की आवश्यकता थी, यह हथियार ऋषि दधीचि की हड्डियों से बना वज्र था, जिसका उपयोग करके देवताओं ने असुर को हराकर पुनः स्वर्ग को प्राप्त किया।

संस्कृत में दध्यांच या दधिहंगा दो शब्दों दधि (दही) + एंक (भागों) का एक संयोजन है, जिसका अर्थ है “दही से शरीर के अंगों का बल लेना।” दधीचि नाम दधिंगा या दधिचांचा का अपभ्रंश रूप है, जैसा कि प्राचीन संस्कृत विद्वान पाणिनि ने अपने कार्य अष्टाध्यायी में बताया है।

वृत्र को पराजित करके देवताओं ने अकाल का उन्मूलन करने के लिए पानी का प्रवाह शुरू किया, जिससे कि जीवित प्राणियों को, जो असुरों के अन्याय का शिकार हुए थे, राहत मिल सके। ऋषि दधीचि ने अपने बलिदान के माध्यम द्वारा देवताओं को असुरों को हराने में मदद की। ऋषि दधीचि की इसी निस्वार्थता के कारण वह ऋषियों और हिंदू संतो के बीच अत्यंत श्रद्धा का पात्र बन गए। ऋषि दधीचि का यह बलिदान इस बात का प्रतीक है कि बुराई से रक्षा करने में यदि कोई त्याग करना पड़े तो, कभी पीछे नहीं हटना चाहिए। भारत का सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार “परमवीर चक्र” भी ऋषि दधीचि के इसी बलिदान और वीरता का प्रतीक है, जो युद्ध में असाधारण साहस दिखाने वाले सैनिकों को मरणोपरांत दिया जाता है।

ऋषि दधीचि के सम्मुख भगवन शिव का प्रकट होना

ऋषि दधीचि भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे। जब भगवान शिव अपनी पत्नी देवी शक्ति से अलग हो गए तो विरह की इस पीड़ा के दौरान वह एक ऋषि के रूप में एकांत में रहने के लिए जंगल चले गए। महाशिवरात्रि के वार्षिक उत्सव में भगवान शिव पहली बार ऋषि के रूप में अपने भक्तों के सामने प्रकट हुए, जिसमें ऋषि दधीचि और उनके शिष्य भी शामिल थे, जो उस समय भगवान शिव की प्रार्थना कर रहे थे।

ऋषि दधीचि का परिवार एवं मंदिर

भगवत पुराण में ऋषि दधीचि को अथर्वण का पुत्र कहा गया है, इनकी माता का नाम चिति था। अथर्वण, अथर्ववेद के लेखक कहे जाते हैं, जो चारों वेदों में से एक है। चिति ऋषि कर्दम की पुत्री थी। ऋषि दधीचि एक ब्राह्मण वंश के थे, जो मुख्यता राजस्थान में पाया जाता है। ऋषि दधीचि की पत्नी का नाम स्वार्चा और पुत्र का नाम पिप्पलदा था। पिप्पलदा ने प्रसन्न उपनिषद की रचना की। ऋषि दधीचि ने अपना आश्रम मिसरिख, नैमिषारण्य के पास (जो कि उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में स्थित है) में स्थापित किया था। नैमिषारण्य, सभी पुराणों में उनके आश्रम के स्थान के रूप में उद्धृत किया गया है और यह आज भी अस्तित्व में है। वर्तमान का साबरमती आश्रम (अहमदाबाद, गुजरात में स्थित है) प्राचीन काल में इनके आश्रमों में से एक था। प्राचीन भारत में ऋषि मुनि सामान्यतया लंबी दूरी की यात्रा तय किया करते थे। ऐसा माना जा सकता है कि उन्होंने कुछ समय तक साबरमती नदी के किनारे वास किया होगा और उसी दौरान उन्होंने यह आश्रम बनाया होगा।

दाहोद के विषय में भी एक प्रचलित किंवदन्ती यह है कि एक बार ऋषि दधीचि ने दाहोद में दूधमति नदी के तट पर ध्यान किया। दधिमती इनकी बहन का नाम था।जिनके नाम पर नागपुर के राजस्थान में “दधिमती माता मंदिर” के नाम से एक मंदिर स्थापित है, यह मंदिर चौथी शताब्दी से भी ज्यादा पुराना है। इसका नाम ऋग्वेद के पहले मंडल में मिलता है। साथ ही ऋग्वेद के विभिन्न सुक्तों में भी ऋषि दधीचि का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि ऋषि दधीचि ने दक्षिण भारत में प्रसिद्ध भजन “नारायण कवचम” की रचना की थी, जिसे शक्ति और शांति के लिए गाया जाता था।

दधीच ब्राह्मण, ऋषि दधीचि के वंशज माने जाते हैं। उनके देवता दधिमती हैं, जो महर्षि दधीचि की बहन थीं।

ऋषि दधीचि के विषय में कई हिंदू किंवदंतियों भी हैं, जैसे कि कभी-कभी उन्हें घोड़े के सिर के रूप में भी चित्रित किया जाता है।

ऋषि दधीचि का अश्वशिरा (घोड़े के सिर वाला) रूप

ऋषि दधीचि के बारे में कहा जाता है कि वे ब्रह्मविद्या (मधु विद्या) नामक वैदिक कला के महान ज्ञाता थे। यह ब्रह्मविद्या, एक ऐसी विद्या है, जो अमरत्व प्राप्त कराने में सक्षम बनाती हैं। इसके कारण देवराज इंद्र ने महसूस किया कि उनका पद संकट में है, उनके अनुसार ऐसी शक्तियों का किसी नश्वर मनुष्य के हाथों में होना असुरक्षित था, विशेष रूप से ऋषि दधीचि समान ऐसे मनुष्य के पास, जिनके पास अत्यंत शक्ति और गुणों का भंडार है। देवराज इंद्र, अश्विन जुड़वा (औषधियों के देवता) के पूरी तरह खिलाफ थे क्योंकि वह ब्रह्म विद्या सीखना चाहते थे। इसी कारण देवराज इंद्र ने यह शपथ ली कि जो भी उन्हें ब्रह्मविद्या सिखाएगा, वह उनका सिर धड़ से काट देंगे। हालांकि अश्विनी जुड़वाँ देवता यह विद्या सीखना चाहते थे परंतु वे, ऋषि दधीचि को इंद्र की शक्तियों से बचाना भी चाहते थे इसलिए उन्होंने एक योजना तैयार की। वह जानते थे कि यदि उन्होंने यह विद्या सीखी तो देवराज इंद्र ऋषि दधीचि का सिर धड़ से अलग कर देंगे इसलिए उन्होंने योजना बंद होकर कार्य किया। पहले उन्होंने यह विद्या ऋषि दधीचि से सीखी, जिसके बाद देवराज इंद्र ने ऋषि दधीचि का सिर काट दिया।

अश्विनी जुड़वा देवताओं ने उनके इस कटे सिर को सुरक्षित बचा कर रखा और एक अश्व के सिर को उनके सिर के स्थान पर लगा दिया। यह देखकर देवराज इंद्र अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने अश्व के सिर वाले ऋषि दधीचि का सिर पुनः काट दिया। इसके बाद अश्विन देवता ने ऋषि दधीचि का मूल सिर, जो उन्होंने बचा कर रखा था, इस घोड़े के सिर के स्थान पर स्थानांतरित कर दिया तथा मधु विद्या का प्रयोग करते हुए, जो उन्होंने ऋषि दधीचि से सीखी थी, ऋषि दधीचि को वापस जीवित कर दिया। यही कारण है कि ऋषि दधीचि को अश्वशिरा अर्थात घोड़े के सिर वाला भी कहा जाता है।

ऋषि दधीचि द्वारा कुशवा तथा इंद्रदेव को पराजित करना

एक बार ऋषि दधीचि और विष्णु भक्त राजा कुशवा के मध्य ब्राह्मणों में श्रेष्ठता को लेकर विवाद छिड़ गया। धीरे-धीरे इस विवाद ने झगड़े का रूप ले लिया और यह इतना बढ़ गया कि ऋषि दधीचि ने राजा कुशवा पर प्रहार कर दिया, जिसके उत्तर में राजा कुशवा ने भी ऋषि दधीचि पर वज्र से प्रहार किया। जिसके फलस्वरूप ऋषि दधीचि घायल हो गए। उस समय शुक्राचार्य ने ऋषि दधीचि का इलाज किया। इसके बाद ऋषि दधीचि ने जाकर भगवान शिव की भारी तपस्या की और उनसे तीन वरदान माँगे –वह कभी अपमानित नहीं होंगे, उनकी कभी हत्या नहीं की जा सकेगी तथा उनकी अस्थियाँ हीरे की तरह सख्त हो जाएँगी ।'

इसके बाद ऋषि दधीचि वापस लौट कर कुशवा से युद्ध किया और उन्हें पराजित कर दिया। राजा कुशवा, भगवान विष्णु के पास जाकर उनसे मदद माँगने लगे। तब भगवान विष्णु ने एक योजना के द्वारा इस समस्या का हल निकालने की कोशिश की। उन्होंने दधीचि के ऊपर एक त्रिशूल से हमला किया, जिसे देखकर भगवान विष्णु के अलावा अन्य सभी देवता भाग गए। इतना सब होने के बावजूद भी महर्षि दधीचि के मन में भगवान विष्णु के प्रति बहुत सम्मान की भावना थी इसी कारण जब देवताओं ने वृत्र के विरुद्ध युद्ध हेतु महर्षि दधीचि से मदद की गुहार लगाई और उनसे उनकी अस्थियों की माँग की, तो महर्षि दधीचि ने जैसे ही यह सुना, कि देवताओं को भगवान विष्णु ने भेजा है, वह तुरंत अपने अस्थियों का दान करने को तैयार हो गए।

इंद्र और वृत्र – ऋषि दधीचि द्वारा दिए गए वज्र से किये गए युद्ध की कथा

एक बार वृत्र नामक असुर के द्वारा देवराज इंद्र को देवलोक से बाहर निष्कासित कर दिया गया था। इस असुर को यह वरदान प्राप्त था कि इसकी हत्या किसी भी ज्ञात हथियार से नहीं की जा सकेगी, जिसके कारण यह अजेय बन गया था। इस असुर वृत्र ने संसार में उपस्थित समस्त जल को अपने और अपनी दानव सेना के उपयोग के लिए चुरा लिया। ऐसा करने के पीछे का कारण यह था, कि वह चाहता था कि संसार के अन्य सभी जीवित प्राणी भूख और प्यास से मरने लगें, जिससे कोई भी मानव या देवता उसे चुनौती देने के लिए जीवित ना रहे। इसी कारण देवराज इंद्र ने भी स्वर्ग लोक की पुनः प्राप्ति की सभी आशा खो दी थी, परंतु फिर भी वह भगवान विष्णु के पास पहुंचे ताकि उनसे कुछ सहायता ले सकें और स्वर्ग लोक पुनः प्राप्त कर सकें। भगवान विष्णु ने देवराज इंद्र से कहा कि केवल ऐसा हथियार जो हीरे के समान मजबूत और अस्थियों से बना हो, उसी से वृत्रासुर की मृत्यु संभव है। (उनका तात्पर्य ऋषि दधीचि की अस्थियों से बने वज्र से था।) इसके बाद इंद्रदेव और बाकी सभी देवता, ऋषि दधीचि, एक समय जिनके सिर को देवराज इंद्र ने धड़ से अलग कर दिया था, उन्हीं से वृत्रासुर को हराने के लिए मदद मांगने पहुंचे। ऋषि दधीचि ने देवताओं के अनुरोध को तुरंत मान लिया, परंतु उन्होंने कहा कि उनकी इच्छा है कि शरीर का त्याग करने से पहले वह पवित्र नदियों के तीर्थ स्थल पर जाना चाहते हैं। जिसके पश्चात देवराज इंद्र ने सभी पवित्र नदियों का जल को नैमिषारण्य में एकत्रित किया और इस प्रकार ऋषि की इच्छा को बिना समय नष्ट किए, पूरा कर दिया गया। तत्पश्चात ऋषि दधीचि घोर ध्यान की अवस्था में चले गए और अपने शरीर से उनके प्राणों को मुक्त कर दिया। उसके बाद कामधेनु के बछड़े ने महर्षि दधीचि के मृत शरीर को चाट कर अस्थियों में लगे मांस को हटाया और देवताओं ने उनकी रीढ़ की हड्डी से वज्र का निर्माण किया तथा बाकी अस्थियों से दूसरे अस्त्रों का निर्माण किया गया। उसके बाद इस वज्र का प्रयोग करते हुए देवराज इंद्र ने असुर वृत्रासुर का वध कर दिया और स्वर्ग लोक को पुनः प्राप्त किया। तत्पश्चात उन्होंने असुर द्वारा चुराए गए जल को पुनः संसार के सभी जीव जंतुओं के लिए मुक्त कर दिया।

ऋषि दधीचि द्वारा अस्त्रों को घोल कर पी जाना

इस कहानी का एक दूसरा संस्करण भी मिलता है, जहां देवताओं ने ऋषि दधीचि से उनके अस्त्रों की सुरक्षा करने के लिए कहा था, क्योंकि उनके अस्त्र, असुरों के अस्त्रों की पुरातन कला से बिल्कुल भी मेल नहीं खा रहे थे, जिसका देवता पता लगाना चाहते थे। ऋषि दधीचि ने बहुत समय लंबे समय तक अस्त्रों की सुरक्षा की, परंतु फिर वह थक गए और उन्होंने उन अस्त्रों को पानी में घोलकर पी लिया। जब देवता वापस आए और उन्होंने उनसे अस्त्र लौटाने के लिए कहा, जिससे कि वह असुरों की सेना को जो वृत्रासुर के नेतृत्व में उनसे युद्ध कर रही थी, हरा सकें। महर्षि दधीचि ने उन्हें बताया कि अब उनके अस्त्र उनकी अस्थियों का हिस्सा बन चुके हैं। इसके बाद महर्षि दधीचि ने महसूस किया कि उनकी अस्थियां ही एकमात्र तरीका है, असुरों को हराने का। तब उन्होंने स्वेच्छा से अपने प्राण त्यागने की बात कही। अपनी तपस्या के बल पर उन्होंने अग्नि प्रज्वलित करके प्राण त्याग दिए। भगवान ब्रह्मा के निर्देश में ऋषि दधीचि की हड्डियों से बड़ी संख्या में अस्त्र बनाए गए, जिसमें वज्रयुद्ध भी शामिल था, जिसका निर्माण उनकी रीढ़ की हड्डी से किया गया था। इसके बाद देवताओं ने इन अस्त्रों द्वारा वृत्रासुर का वध कर दिया।

ऋषि दधीचि द्वारा दक्ष का विरोध

ऋषि दधीचि के साथ कई अन्य किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं। ऋषि दधीचि के बारे में कहा जाता है कि जैसे ही उन्हें पता चला कि दक्ष ने उनके आराध्य भगवान शिव को यज्ञ पूजा में आमंत्रित नहीं किया है, तत्क्षण ही उन्होंने राजा दक्ष के यज्ञ का त्याग करके वहां से चले गए।

ऋषि दधीचि द्वारा परशुराम के प्रकोप से बालकों की रक्षा

देवी हिंगलाज का मंत्र भी ऋषि दधीचि द्वारा ही निर्मित किया गया है। परशुराम के प्रकोप से कुछ क्षत्रिय बालकों को बचाने के लिए ऋषि दधीचि ने उन्हें हिंगलाज माता के मंदिर के अंदर छुपा दिया और हिंगलाज की स्थापना की, जिसके कारण उन बच्चों की परशुराम के प्रकोप से रक्षा की जा सकी।
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वंदन
वाग्देवी! कृपा करिए
हाथ सिर पर विहँस धरिए

वास कर मस्तिष्क में माँ
नयन में जाएँ समा
हृदय में रहिए विराजित
कंठ में रह गुनगुना
श्वास बनकर साथ रहिए
वाग्देवी कृपा करिए

अधर यश गा पुण्य पाए
कीर्ति कानों में समाए
कर तुम्हारे उपकरण हों
कलम कवितांजलि चढ़ाए
दूर पल भर भी न करिए
वाग्देवी कृपा करिए

अक्षरों के सुमन लाया
शब्द का चंदन लगाया
छंद का गलहार सुरभित
पुस्तकी उपहार भाया
सलिल को संजीव करिए

वाग्देवी कृपा करिए
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पूनम की निशि योगिता, इंदु जगत उजियार।
शिक्षक सम पूजित सदा, है जीवन-आधार।।

शकुंतला हर श्वास हो, हो जितेंद्र हर देह।
आकांक्षा कर पूर्ण हो, हो हर आत्म विदेह।।

लखन-राम मोहन पूजित, हुए तभी सच मान।
जब शिक्षक से पा सके, कृपा और वरदान।।

शिखा-किरण की भावना, समझ पतंगा मौन।
कूद-जल गया आप ही, पीड़ा समझे कौन?

आकृति कोई भी नहीं, अर्जुन पाया देख।
आँख परिंदे की रही, नयन तीर की रेख।।

सिमरन शिक्षक का किया, जिसने वही प्रवीण।
हो दिनेश नित दमककर, करे तिमिर को क्षीण।।

अंजलि महके मालती, हेमा नेहा मुग्ध।
जहाँ चंद्र वर्धन वहाँ, 'मावस हो जल दग्ध।।

संजय हो संजीव हर, उमा-उमेश प्रसन्न।
रितिका शालू शालिनी, नव उमंग आसन्न।।
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सॉनेट
शिक्षक देते सीख नमन
सुख पाना तो कर संतोष
महकाता है अनिल चमन
पा आलोक न करना रोष

सरला बुद्धि हमेशा साथ
बचा अस्मिता करो प्रयास
गुरु छाया पा ऊँचा माथ
संगीता हो महके श्वास

देव कांत दें संरक्षण
मनोरमा मति अमल धवल
हो सुनीति को आरक्षण
विभा निरुपमा रहे नवल

शिक्षक से पा शाश्वत सीख
सत्-शिव-सुंदर जैसा दीख
*
सॉनेट
शिक्षक
शिक्षक सब कुछ रहे सिखाते
हम ही सीख नहीं कुछ पाए
खोटे सिक्के रहे भुनाते
धन दे निज वंदन करवाए

मितभाषी गुरु स्वेद बहाते
कंकर से शंकर गढ़ पाए
हम ढपोरशंखी पछताते
आपन मुख आपन जस गाए

गुरु नेकी कर रहे भुलाते
हमने कर अहसान जताए
गुरु बन दीपक तिमिर मिटाते
हमने नाते-नेह भुनाए

गुरु पग-रज यदि शीश चढ़ाते
आदम हैं इंसान कहाते
*
नवगीत:
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कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
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