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बुधवार, 11 अप्रैल 2018

nav geet

नवगीत
जोड़-तोड़ है
मुई सियासत
*
मेरा गलत
सही है मानो।
अपना सही
गलत अनुमानो।
सत्ता पाकर,
कर लफ्फाजी-
काम न हो तो
मत पहचानो।
मैं शत गुना
खर्च कर पाऊँ
इसीलिए तुम
करो किफायत
*
मैं दो दूनी
तीन कहूँ तो
तुम दो दूनी
पाँच बताना।
मैं तुमको
झूठा बोलूँगा
तुम मुझको
झूठा बतलाना।
लोकतंत्र में
लगा पलीता
संविधान से
करें बगावत
*
यह ले उछली
तेरी पगड़ी।
झट उछाल तू
मेरी पगड़ी।
भत्ता बढ़वा,
टैक्स बढ़ा दें
लड़ें जातियाँ
अगड़ी-पिछड़ी।
पा न सके सुख
आम आदमी,
लात लगाकर
कहें इनायत।
***
11.4.2018

रविवार, 15 जून 2014

geet: ambar ka chhor -sanjiv

गीत 
अपने अम्बर का छोर 
संजीव 
*
मैंने थाम रखी 
अपनी वसुधा की डोर 
तुम थामे रहना 
अपने अंबर का छोर.… 
*
हल धर कर 
हलधर से, हल ना हुए सवाल 
पनघट में 
पन घट कर, पैदा करे बवाल
कूद रहे 
बेताल, मना वैलेंटाइन 
जंगल कटे, 
खुदे पर्वत, सूखे हैं ताल     
पजर गयी 
अमराई, कोयल झुलस गयी- 
नैन पुतरिया 
टँगी डाल पर, रोये भोर.… 
*
लूट सिया-सत 
हाय! सियासत इठलायी 
रक्षक पुलिस
हुई भक्षक, शामत आयी
अँधा तौले  
न्याय, कोट काला ले-दे 
शगुन विचारे  
शकुनी, कृष्णा पछतायी 
युवा सनसनी 
मस्ती मौज मजा चाहें-
आँख लड़ायें 
फिरा, न पोछें भीगी कोर.... 
*
सुर करते हैं 
भोग प्रलोभन दे-देकर
असुर भोगते 
बल के दम पर दम देकर
संयम खो, 
छलकर नर-नारी पतित हुए 
पाप छिपायें 
दोष और को दे-देकर 
मना जान की
खैर, जानकी छली गयी-
चला न आरक्षित 
जनप्रतिनिधि पर कुछ जोर.... 
*
सरहद पर 
सर हद करने आतंक डटा
दल-दल का 
दलदल कुछ लेकिन नहीं घटा 
बढ़ी अमीरी 
अधिक, गरीबी अधिक बढ़ी 
अंतर में पलता  
अंतर, बढ़ नहीं पटा 
रमा रमा में 
मन, आराम-विराम चहे-
कहे नहीं 'आ 
राम' रहा नाहक शोर.... 
*    
मैंने थाम रखी 
अपनी वसुधा की डोर 
तुम थामे रहना 
अपने अंबर का छोर.… 
*
  
     
       

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मुक्तिका: दीवाना भी होता था. ----- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
दीवाना भी होता था.
संजीव 'सलिल'
*
हजारों आदमी में एक दीवाना भी होता था.
खुदाई रौशनी का एक परवाना भी होता था..

सियासत की वजह से हो गये हैं गैर अपने भी.
वगर्ना कहो तो क्या कोई बेगाना भी होता था??

लहू अपना लहू है, और का है खून भी पानी. 
गया वो वक्त जब बस एक पैमाना भी होता था..

निकाली भाई कहकर दुशमनी दिलवर के भाई ने.
कलेजे में छिपाए दर्द मुस्काना भी होता था..

मिली थी साफ़ चादर पर सहेजी थी नहीं हमने.
बिसारा था कि ज्यों की त्यों ही धर जाना भी होता था.. 

सिया जूता, बुना कपड़ा तो इसमें क्या बुराई है?
महल हो या कुटी मिट्टी में मिल जाना ही होता था..

सिया को भेज वन सीखा अवध ने पाठ यह सच्चा 
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था..

नहाकर स्नेह सलिला में, बहाकर प्रेम की गंगा.
'सलिल' मरघट में सबको एक हो जाना ही होता था
..
*********

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

मुक्तिका ......... बात करें संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

......... बात करें

संजीव 'सलिल'

*
conversation.jpg



*

बात न मरने की अब होगी, जीने की हम बात करें.
हम जी ही लेंगे जी भरकर, अरि मरने की बात करें.

जो कहने की हो वह करने की भी परंपरा डालें.
बात भले बेबात करें पर मौन न हों कुछ बात करें..

नहीं सियासत हमको करनी, हमें न कोई चिंता है.
फर्क न कुछ, सुनिए मत सुनिए, केवल सच्ची बात करें..

मन से मन पहुँच सके जो, बस ऐसा ही गीत रचें.
कहें मुक्तिका मुक्त हृदय से, कुछ करने की बात करें..

बात निकलती हैं बातों से, बात बात तक जाती है.
बात-बात में बात बनायें, बात न करके बात करें..

मात-घात की बात न हो अब, जात-पांत की बात न हो.
रात मौन की बीत गयी है, तात प्रात की बात करें..

पतियाते तो डर जाते हैं, बतियाते जी जाते हैं.
'सलिल' बात से बात निकालें, मत मतलब की बात करें..
***************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

गुरुवार, 24 जून 2010

मुक्तिका: ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो --संजीव 'सलिल'













आज की रचना : मुक्तिका:
:संजीव 'सलिल'


ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.

कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..


जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना

आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..


वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.

फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..


रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.

किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..


दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.

खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..


******************************

दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

Acharya Sanjiv Salil

शुक्रवार, 21 मई 2010

क्षणिकाएँ... संजीव 'सलिल'


क्षणिकाएँ...
संजीव 'सलिल'
*
कर पाता दिल
अगर वंदना
तो न टूटता
यह तय है.
*
निंदा करना
बहुत सरल है.
समाधान ही
मुश्किल है.
*
असंतोष-कुंठा
कब उपजे?
बूझे कारण कौन?
'सलिल' सियासत
स्वार्थ साधती
जनगण रहता मौन.
*
मैं हूँ अदना
शब्द-सिपाही.
अर्थ सहित दें
शब्द गवाही..
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

मुक्तिका: ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो --संजीव 'सलिल'

आज की रचना :                                                                                                                                                                   

संजीव 'सलिल'

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ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..

जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..

वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..

रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..

दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी.. 
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil