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रविवार, 21 सितंबर 2025

सितंबर १९, हम वही हैं, निशा तिवारी, मेघ

सलिल सृजन सितंबर १९
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : समन्वय प्रकाशन जबलपुर
बचपन के दिन : साझा संस्मरण संकलन
संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान द्वारा विश्व कीर्तिमान स्थापित कर रहे साझा संकलनों दोहा दोहा नर्मदा २५०/-, दोहा सलिला निर्मला २५०/-, दोहा दिव्य दिनेश ३००/-, हिंदी सॉनेट सलिला ५००/-, चंद्र विजय अभियान ११००/- तथा फुलबगिया ११००/- की श्रंखला में बाल संस्मरण संकलन 'बचपन के दिन' का प्रकाशन किया जाना है। रचनाकारों से १३-१४ वर्ष तक की आयु के रोचक-प्रामाणिक संस्मरण संबंधित चित्रों तथा संक्षिप्त परिचय सहित आमंत्रित हैं। हर सहभागी को २ प्रतियाँ दी जाएँगी। सहभागिता निधि ३५०/- प्रति पृष्ठ (एक पृष्ठ पर लगभग २५० शब्द) + २००/- अग्रिम वाट्स ऐप क्रमांक ४९२५१८३२४४ पर संस्मरण के साथ भेजें। परिचय बिंदु- नाम, जन्म तारीख माह वर्ष स्थान, माता-पिता-जीवनसाथी के नाम, शिक्षा, संप्रति, उपलब्धि, प्रकाशित स्वतंत्र कृति, डाक का पता, ईमेल, चलभाष/वाट्स ऐप क्रमांक।    

सहभागी - 
नीलिमा रंजन जी भोपाल, खंजन सिन्हा जी भोपाल, शिप्रा सेन जी जबलपुर, जहांआरा 'गुल' जी लखनऊ, अवधेश सक्सेना जी शिवपुरी, सरला वर्मा जी भोपाल, अंजली बजाज जी नैरोबी, प्रदीप सिंह जी मुंबई, अर्जुन चव्हाण जी, कोल्हापुर, पवन सेठी जी मुंबई, बसंत शर्मा जी प्रयागराज, मनीषा सहाय राँची, अरविंद श्रीवास्तव झाँसी, शीरीन कुरेशी सरदारपुर, संतोष शुक्ला जी नवसारी, अस्मिता शैली जी जबलपुर, संगीता भारद्वाज भोपाल, भागवत प्रसाद तिवारी जी जबलपुर, मुकुल तिवारी जी जबलपुर, छाया सक्सेना जी जबलपुर, शोभा सिंह जी जबलपुर, मृगेंद्र नारायण सिंह जी जबलपुर, अश्विनी पाठक जी जबलपुर, सुरेन्द्र पवार जी जबलपुर, दुर्गेश ब्योहार जी जबलपुर, अविनाश ब्योहार जी जबलपुर, उमेश साहू जी, नवनीता चौरसिया जी जावरा। 

विशेष आकर्षण- महापुरुषों का बचपन, बचपन पर डाक टिकिट, बाल साहित्य पत्रिकाएँ, बचपन संबंधी चित्रपटीय गीत सूची, बाल कल्याण हेतु सक्रिय संस्थाएँ आदि। सहभागी शीघ्रता करें। ३० सितंबर तक संस्मरण तथा संबंधित चित्र आदि सामग्री व सहभागिता निधि वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पर भेजिए।
०००
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
*क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
भू की बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
***
एक गीत -
हम वही हैं
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
*
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
*
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
*
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
*
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
*
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
*
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
*
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
जय हिंद
जय भारत
वन्दे मातरम्
भारत माता की जय
*
पुस्तक चर्चा -
वर्तमान युग का नया चेहरा: 'काल है संक्रांति का'
समीक्षक: डॉ. निशा तिवारी
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१२४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
*
'काल है संक्रांति का' संजीव वर्मा 'सलिल' का २०१६ में प्रकाशित नवीन काव्य संग्रह है। वे पेशे से अभियंता रहे हैं। किन्तु उनकी सर्जक प्रतिभा उर्वर रही है। सर्जना कभी किसी अनुशासन में आबद्ध नहीं रह सकती। सर्जक की अंत:प्रज्ञा (भारतीय काव्य शास्त्र में 'प्रतिभा' काव्य शास्त्र हेतु), संवेदनशीलता, भावाकुलता और कल्पना किसी विशिष्ट अनुशासन में बद्ध न होकर उन्मुक्त उड़ान भरती हुई कविता में निःसृत होती है। यही 'सलिल जी' की सर्जन-धर्मिता है। यद्यपि उनके मूल अनुशासन का प्रतिबिम्ब भी कहीं-कहीं झलककर कविता को एक नया ही रूप प्रदान करता है। भौतिकी की 'नैनो-पीको' सिद्धांतिकी जिस सूक्ष्मता से समूह-क्रिया को संपादित करती है, वह सलिल जी के गीतों में दिखाई देती है। उत्तर आधुनिक वैचारिकी के अन्तर्गत जिस झंडी-खण्ड चेतना का रूपायन सम-सामयिक साहित्य में हो रहा है वही चिन्तना सलिल जी के गीतों में सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, साहित्यिक विसंगतियों के रूप में ढलकर आई है- रचनाकार की दृष्टि में यही संक्रांति का काल है। संप्रति नवलेखन में 'काल' नहीं वरन 'स्पेस' को प्रमुखता मिली है।
शब्दों की परंपरा अथवा उसके इतिहास के बदले व्यंजकों के स्थगन की परिपाटी चल पड़ी है। सलिल जी भी कतिपय गीतों में पुराने व्यंजकों को विखण्डित कर नए व्यंजकों की तलाश करते हैं। उनका सबसे प्रिय 'व्यंजक' सूर्य है। उनहोंने सूर्य के 'आलोक' के परंपरागत अर्थ 'जागरण' को ग्रहण करते हुए भी उसे नए व्यंजक का रूप प्रदान किया है। 'उठो सूरज' गीत में उसे साँझ के लौटने के संदर्भ में 'झुको सूरज! विदा देकर / हम करें स्वागत तुम्हारा' तथा 'हँसों सूर्य भाता है / खेकर अच्छे दिन', 'आओ भी सूरज! / छँट गए हैं फुट के बदल / पतंगें एकता की मिल उड़ाओ। / गाओ भी सूरज!', 'सूरज बबुआ! / चल स्कूल। ', 'हनु हुआ घायल मगर / वरदान तुमने दिए सूरज!', 'खों-खों करते / बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी' इत्यादि व्यंजक सूरज को नव्यता प्रदान करते हैं, यद्यपि कवि का परंपरागत मन सूरज को 'तिमिर-विनाशक' के रूप में ही ग्रहण करता है।
कवि का परंपरागत मन अपने गीतों में शास्त्रीय लक्षण ग्रन्थों के मंगलाचरण के अभियोजन को भी विस्मृत नहीं कर पाता। मंगलाचरण के रूप में वह सर्वप्रथम हिंदी जाति की उपजाति 'कायसिहों' के आराध्य 'चित्रगुप्त जी' की वंदना करता है। यों भी चित्रगुप्त जी मनुष्य जाति के कर्मों का लेखा-जोखा रखनेवाले देवता हैं। ऐसा माना जाता है कि उत्तर आधुनिक युग में धर्मनिरपेक्षता का तत्व प्रबल है- कवि की इस वन्दना में चित्रगुप्त जी को शिव, ब्रम्हा, कृष्ण, पैग़ंबर, ईसा, गुरु नानक इत्यादि विभिन्न धर्मों के ईश्वर का रूप देकर सर्वधर्म समभाव का परिचय दिया गया है। चित्रगुप्त जी की वन्दना में भी कवि का प्रिय व्यंजक सूर्य उभरकर आया है - 'तिमिर मिटाने / अरुणागत हम / द्वार तिहरे आए।'
कला-साहित्य की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की अभ्यर्थना में कवि ने एक नवीन व्यंजना करते हुए ज्ञान-विज्ञान-संगीत के अतिरिक्त काव्यशास्त्र के समस्त उपादानों की याचना की है और सरस्वती माँ की कृपा प्राप्त प्राप्त करने हेतु एक नए और प्रासंगिक व्यंजक की कल्पना की है- 'हिंदी हो भावी जगवाणी / जय-जय वीणापाणी।' विश्वभाषा के रूप में हिंदी भाषा की यह कल्पना हिंदी भाषा के प्रति अपूर्व सम्मान की द्योतक है।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक मांगलिक कार्य के पूर्व अपने पुरखों का आशिर्वाद लिया जाता है। पितृ पक्ष में तो पितरों के तर्पण द्वारा उनके प्रति श्रद्धा प्रगट की जाती है। गीत-सृजन को अत्यंत शुभ एवं मांगलिक कर्म मानते हुए कवि ने पुरखों के प्रति यही श्रद्धा व्यक्त की है। इस श्रद्धा भाव में भी एक नवीन संयोजन है- 'गीत, अगीत, प्रगीत न जानें / अशुभ भुला, शुभ को पहचानें / मिटा दूरियाँ, गले लगाना / नव रचनाकारों को ठानें कलश नहीं, आधार बन सकें / भू हो हिंदी-धाम। / सुमिर लें पुरखों को हम / आओ! करें प्रणाम।' कवि अपनी सीमाओं को पहचानता है, सर्जना का दंभ उसमें नहीं है और न ही कोई दैन्य है। वह तो पुरखों का आशीर्वाद प्राप्त कर केवल हिंदी को विश्व भाषा बनाने का स्वप्न पूरा करना चाहता है। यदि चित्रगुप्त भगवान की, देवी सरस्वती की और पुरखों की कृपा रही तो हिंदी राष्ट्रभाषा तो क्या, विश्व भाषा बनकर रहेगी। सलिल जी के निज भाषा-प्रेम उनके मंगलाचरण अथवा अभ्यर्थना का चरम परिपाक है।
उनकी समर्पण कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि उनहोंने उसमें रक्षाबन्धन पर्व की एक सामान्यीकृत अभिव्यंजना की है। बहिनों के प्रत्येक नाम संज्ञा से विशेषण में परिवर्तित हो गए हैं और रक्षासूत्र बाँधने की प्रत्येक प्रक्रिया, आशाओं का मधुवन बन गयी है। मनुष्य और प्रकृति का यह एकीकरण पर्यावरणीय सौंदर्य को इंगित करता है। 'उठो पाखी' कविता में भी राखी बाँधने की प्रक्रिया प्रकृति से तदाकार हो गयी है।
कविता मात्र वैयक्तिक भावोद्गार नहीं है, उसका सामाजिक सरोकार भी होता है। कभी-कभी कवि की चेतना सामाजिक विसंगति से पीड़ित और क्षुब्ध होकर सामाजिक हस्तक्षेपभी करती है। श्री कान्त वर्मा ने आलोचना को 'सामाजिक हस्तक्षेप' कहा है। मेरी दृष्टि में कविता भी यदा-कदा सामाजिक हस्तक्षेप हुआ करती है। प्रतिबद्ध कवि में तो यह हस्तक्षेप निरन्तर बना रहता है। कवि सलिल ने राजनैतिक गुटबाजी, नेताओं अफसरों की अर्थ-लोलुपता, पेशावर के न्र पिशाचों की दहशतगर्दी, आतंकवाद का घिनौना कृत्य, पाक की नापाकी, लोकतंत्र का स्वार्थतंत्र में परिवर्तन, अत्याचार और अनाचार के प्रति जनता का मौन,नेताओं की गैर जिम्मेदारी, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी राजनीतिक कुतंत्र में वास्तविक आज़ादी प्राप्त न कर पाना इत्यादि कुचक्रों पर गीत लिखकर अपनी कृति को 'काल है संक्रांति का' नाम दिया है। वास्तव में देश की ये विसंगतियाँ संक्रमण को सार्थक बनाती हैं किन्तु उनके गीत 'संक्रांति काल है' -में संक्रांति का संकेत भर है तथा उससे निबटने के लिए कवी ने प्रेरित भी किया है। यों भी छोटे से गीत के लघु कलेवर में विसंगति के विस्तार को वाणी नहीं दी जा सकती। कवि तो विशालता में से एक चरम और मार्मिक क्षण को ही चुनता है। सलिल ने भी इस कविता में एक प्रभावी क्षण को चुना है। वह क्षण प्रभावोत्पादक है या नहीं, उसकी चिंता वे नहीं करते। वे प्रतिबद्ध कवु न होकर भी एक सजग औए सचेत कवि हैं।
सलिल जी ने काव्य की अपनी इस विधा को गीत-नवगीत कहा है। एक समय निराला ने छंदात्मक रचना के प्रति विद्रोह करते हुए मुक्त छंद की वकालत की थी लेकिन उनका मुक्त छंद लय और प्रवाह से एक मनोरम गीत-सृष्टि करता था। संप्रति कविताएँ मुक्त छंद में लिखी जा रही हैं किन्तु उनमें वह लयात्मकता नहीं है जो जो उसे संगीतात्मक बना सके। ऐसी कवितायेँ बमुश्किल कण्ठस्थ होती हैं। सलिल जी ने वर्तमान लीक से हटकर छंदात्मक गीत लिखे हैं तथा सुविधा के लिए टीप में उन छंदों के नाम भी बताए हैं। यह टीप रचनाकार की दृष्टि से भले ही औचित्यपूर्ण न हो किन्तु पाठक-समीक्षक के लिए सुगम अवश्य है। 'हरिगीतिका' उनका प्रिय छंद है।
सलिल जी ने कतिपय अभिनव प्रयोग भी किये हैं। कुछ गीत उनहोंने बुन्देली भाषा में लिखे हैं। जैसे- 'जब लौं आग' (ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज पर), मिलती कांय नें (ईसुरी की चौकड़िया फाग पर आधारित) इत्यादि तथा पंजाबी एवं सोहर लोकगीत की तर्ज पर गीत लिखकर नवीन प्रयोग किये हैं।
कवि संक्रांति-काल से भयभीत नहीं है। वह नया इतिहास लिखना चाहता है- 'कठिनाई में / संकल्पों का / नव है लिखें हम / आज नया इतिहास लिखें हम।'' साथ ही संघर्षों से घबराकर वह पलायन नहीं करता वरन संघर्ष के लिए प्रेरित करता है- 'पेशावर में जब एक विद्यालय के विद्यार्थियों को आतंकवादियों ने गोलियों से भून दिया था तो उसकी मर्मान्तक पीड़ा कवि को अंतस तक मठ गई थी किंतु इस पीड़ा से कवि जड़ीभूत नहीं हुआ। उसमें एक अद्भुत शक्ति जाग्रत हुई और कवि हुंकार उठा-
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उदा दूँगा।
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा।
मैं लिखूँगा।
मैं लड़ूँगा।।
*
१९.९.२०१६
संपर्क समीक्षा: डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टँकी के सामने, जबलपुर ४८२००१
चलभाष; ९४२५३८६२३४, दूरलेख: pawanknisha@gmail.com
---
नवगीत:
*
मेघ बजे
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे, बिजुरिया बिना लजे...
*
दादुर देते ताल, पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
*
पल्लव की करताल, बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये, मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए.
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
टप-टप टपके टीन, चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!, पढ़ाए को आखर?
डूबी गैल, बके गाली अभियंता को.
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
१९.९.२०१० 
***

गुरुवार, 19 सितंबर 2024

सितंबर १९, बधाई, गणेश, बघेली, मुक्तिका, अवधी, प्रभाती,

सलिल सृजन सितंबर १९
*
मुक्तिका
अंकों की थामकर अँगुली हम जी रहे
एक अहं पाल-पोस, माया घी पी रहे।

मैं-तू तूतू-मैंमैं, दो न एक हो सके
तीन-पाँच करते पर होंठ नहीं सी रहे।

चार धाम जाते, पुरुषार्थ चार भूलकर
पंच के प्रपंच को बोल जिंदगी रहे।

षड् रागी खटरागी होकर अंग्रेजी पढ़
हिंग्लिश में गिटपिट कर भूल भारती रहे।

सात स्वर न जानते, तानसेन नाम धर
आठ प्रहर चादर को करते मैली रहे।

नौ के निन्यान्नबे चाह रहे, रात-दिन
हाथ लगे शून्य हम ढपोरशंख ही रहे।
१९.९.२०२४
••••
बधावा-
भोले घर बाजे बधाई
स्व. शांति देवी वर्मा
*
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौरा मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
***
श्री गणेश - आमंत्रण
*
श्री गणेश! ऋद्धि-सिद्धिदाता!! घर आओ सुनाथ!
शीश झुका,माथ हूँ नवाता, मत छोड़ो अनाथ.
देव! घिरा देश संकटों से, रिपुओं का विनाश
नाथ! करो, प्रजा मुक्ति पाए, शुभ का हो प्रकाश.
(कामरूप छंद:)
***
प्रभाती
जागिए गणराज होती भोर
कर रहे पंछी निरंतर शोर
धोइए मुख, कीजिए झट स्नान
जोड़कर कर कर शिवा-शिव ध्यान
योग करिए दूर होंगे रोग
पाइए मोदक लगाएँ भोग
प्रभु! सिखाएँ कोई नूतन छंद
भर सके जग में नवल मकरंद
मातु शारद से कृपा-आशीष
पा सलिल सा मूर्ख बने मनीष
***
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शिव-नंदन वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) -संजीव 'सलिल'
II ॐ श्री गणधिपतये नमः II
*
प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
*
प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..
*
प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
*
ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..
*
प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
*
जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..
*
जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..
*
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..
*
नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..
***
छंद: महापौराणिक जातीय पीयूषवर्ष
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
बह्र: फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फायलुन्
***
卐 ॐ 卐
हे गणपति विघ्नेश्वर जय जय
मंगल काज करें हम निर्भय
अक्षय-सुरभि सुयश दस दिश में
गुंजित हो प्रभु! यही है विनय
हों अशोक हम करें वंदना
सफल साधना करें दें विजय
संगीता हो श्वास श्वास हर
सविता तम हर, दे सुख जय जय
श्याम रामरति कभी न बिसरे
संजीवित आशा सुषमामय
रांगोली-अल्पना द्वार पर
मंगल गीत बजे शिव शुभमय
१२-११-२०२१
***
बघेली मुक्तिका
गणपति बब्बा
*
रात-रात भर भजन सुनाएन गणपति बब्बा
मंदिर जाएन, दरसन पाएन गणपति बब्बा
कोरोना राच्छस के मारे, बंदी घर मा
खम्हा-दुअरा लड़ दुबराएन गणपति बब्बा
भूख-गरीबी बेकारी बरखा के मारे
देहरी-चौखट छत बिदराएन गणपति बब्बा
छुटकी पोथी अउर पहाड़ा घोट्टा मारिन
फीस बिना रो नाम कटाएन गणपति बब्बा
एक-दूसरे का मुँह देखि, चुरा रए अँखियाँ
कुठला-कुठली गाल फुलाएन गणपति बब्बा
माटी रांध बनाएन मूरत फूल न बाती
आँसू मोदक भोग लगाएन गणपति बब्बा
चुटकी भर परसाद मिलिस बबुआ मुसकाएन
केतना मीठ सपन दिखराएन गणपति बब्बा
*
लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश : संजीव 'सलिल'
लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :
संजीव 'सलिल'
*
पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित
पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
*
बुन्देली पारंपरिक तर्ज:
मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.
बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
*
अवधी मुक्तक:
गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
*
भजन:
सुन लो विनय गजानन
जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.
हर बाधा हर हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..
*
सुन लो विनय गजानन मोरी
सुन लो विनय गजानन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.
भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..
जनवाणी-हिंदी जगवाणी
हो, वर दो मनभावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.
सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी.
भारत माता का हर घर हो,
शिवसुत! तीरथ पावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.
पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.
रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर
श्री गणेश तव आसन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन...
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गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
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कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
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ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
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दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
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विमर्श - गणेश चतुर्थी और शिव परिवार
क्या एक पति विवाह पश्चात अपनी पत्नी के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगा?
क्या एक पत्नी अपने पति के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगी?
सामान्यत: उत्तर होगा नहीं।
अगर कर लें तो क्या चारों साथ-साथ सहज और प्रसन्न रह सकेंगे, एक दूसरे पर विश्वास कर सकेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर है शिव परिवार। शिव-पार्वती विवाह पश्चात उनके जीवन में आए कार्तिकेय शिवपुत्र हैं, पार्वती पुत्र नहीं हैं। गणेश पार्वती पुत्र हैं, शिव पुत्र नहीं। क्या इससे शिव-पार्वती का दांपत्य प्रभावित हुआ? नहीं।
वे एक दूसरे की संतानों को अपना मानकर जगत्कर्ता और जगज्जननी हो गए। अद्वैत में द्वैत के लिए स्थान नहीं होता। पति-पत्नी एक हो गए तो दूरी, निजता या गैरियत क्यों?
कौन किसका पोषण या शोषण कर सकता है?
किसका त्याग कम, किसका अधिक? ऐसे प्रश्न ही बेमानी हैं।
छोटी-छोटी बातों के अहं को चश्मे से बड़ा बनाकर विलग हो रहे दंपति देखें कि क्या उनके जीवन की समस्या शिव-पार्वती के जीवन की समस्याओं से अधिक बड़ी हैं?
विषमताओं का हलाहल कंठ में धारण करनेवाला ही, शंकाओं को जयकर शंकर बनता है।
पर्वत की तरह बड़ी समस्याओं से अहं की लड़ाई न लड़कर, पुत्री की तरह स्नेहभाव से सुलझानेवाली ही पार्वती हो सकती है।
प्रकृति प्रदत्त विषमता को समभाव से ग्रहण कर, एक दूसरे पर बदलने का दबाव बनाए बिना सहयोग करने पर अरिहंता कार्तिकेय ही नहीं, विघ्नहर्ता गणेश भी पुत्र बनकर पूर्णता तक ले जाते हैं, यही नहीं ऋद्धि-सिद्धि भी पुत्रवधुओं के रूप में सुख-समृद्धि की वर्षा करती हैं।
गणेश चतुर्थी का पर्व सहिष्णुता, समन्वय और सद्भाव का महापर्व है।
आइए! हम सब ऐक्य-सूत्र में बँधकर, जमीन में जड़ जमानेवाली दूर्वा से प्रेरणा ग्रहणकर गणपति गणनायक को प्रणाम करने की पात्रता अर्जित करें।
हम शिव परिवार की तरह भिन्न होकर अभिन्न हों, अनेकता को पचाकर एक हो सकें।
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विमर्श :
गणेशोत्सव, गणपति और गणतंत्र
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भाद्रपद मास पर्वों का मास है। आजकल जनगण गणपति, गणेश या गणनायक की पूजाराधना करने में निमग्न है।
शिव पुराण में वर्णित आख्यान के अनुसार गृहस्वामिनी पार्वती ने स्नान करने जाते समय, अपनी और गृह की सुरक्षा तथा किसी अवांछित का प्रवेश रोकने के लिए अपने उबटन (अंश) से पुतला बनाकर उसमें प्राण डाले और उसे रक्षक के रूप में नियुक्त किया। पार्वती स्नान कर पातीं इसके पूर्व ही गृहपति शिव वापिस लौटे। रक्षक ने उन्हें प्रवेश करने से रोका। शिव ने बलात प्रवेश का प्रयास किया, द्व्न्द हुआ, अंतत: क्रुद्ध शिव ने रक्षक का मस्तक काट कर गृह में प्रवेश किया। पार्वती स्नान कर बाहर आईं तो शिव के क्रोध कारण जानना चाहा और सकल वृत्तांत जानकार अपनी संरचना के अकाल काल के गाल में सामने पर शोक संतप्त हो गईं। शिव ने गणों (सेवकों) को आदेश दिया की जो माता अपनी नवजात शिशु से मुँह फेरकर शयन कर रही हो उसके शिशु का मस्तक काट कर ले आएँ। गण एक गजशिशु का मस्तक ले आए जिसे शिव ने पार्वती-पुत्र के धड़ से संयुक्त कर उसे पुनर्जीवित कर दिया। दोनों ने इसे अनेक शक्तियों से संपन्न होने का वर दिया।
शिव-पार्वती कौन हैं? वे पुतले और निर्जीव में प्राण कैसे डाल देते हैं? इन कथाओं का मर्म क्या है? क्या मात्र वही जो इस कथाओं को रूढ़ रूप में लेने पर ज्ञात होता है या इनमें कुछ और कथ्य प्रतीक रूप में कहा गया है, जिसे सामान्यत: हम ग्रहण नहीं कर पाते।
शिव-पार्वती जगतपिता और जगतजननी हैं। तुलसी अधिक स्पष्ट करते हैं- 'भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा-विश्वास रुपिणौ'। श्रद्धा और विश्वास साथ-साथ हों तो ही शुभ होता है। जब-जब विश्वास पर विश्वास न कर श्रद्धा भिन्न पथ अपनाती है तब अनिष्ट होता है। सती द्वारा राम की परीक्षा लेने और शिव-वर्जना की अनदेखी कर दक्ष यज्ञ में भाग लेने के दुष्परिणाम इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। जब विश्वास श्रद्धा को छोड़कर अलग जाता है तब भी अनिष्ट ही होता है, यह गजानन-कथा से विदित होता है। यह निर्विवाद है कि श्रद्धा और विश्वास अभिन्न हों तभी कल्याण है। पति-पत्नी दैनंदिन जीवन में श्रद्धा-विश्वास हों तो कुछ अशुभ घट ही नहीं सकता। नागरिक और सरकार (शासन-प्रशासन) के मध्य श्रद्धा-विश्वास का संबंध हो तो इससे अधिक मंगलमय कुछ और नहीं हो सकता। ऐसा क्यों नहीं होता?, कैसे हो सकता है?, यह चिंतन करने का अवसर ही गणेश जन्मोत्सव है।
यह प्रसंग जीवन के कई रहस्य उद्घाटित करता है। श्रद्धा की संतान पर विश्वास को विश्वास करना ही चाहिए अन्यथा विश्वास 'विष-वास' हो जाएगा, जीवन से सुख-समृद्धि दूर हो जाएगी। इसके विपरीत यदि विश्वास की आत्मा (आत्मज) पर श्रद्धा न कर, श्रद्धा स्वयं अश्रद्धा जाएगी। सांसारिक जीवन में श्रद्धा पर श्रद्धा होने और विश्वास विश्वास खोने के कारण कितनी ही गृहस्थियाँ नष्ट होने के समाचार छपते हैं। तिनका आँख के अति निकट हो तो उसके पीछे सूर्य भी छिप जाता है। शंका का डंका बजते ही श्रद्धा-विश्वास दोनों मौन हो जाते हैं, संवाद बंद हो जाता है और शेष रह जाता है केवल विवाद। संसद और विधान सभाओं में पक्ष-विपक्ष, श्रद्धा-विश्वास कर एक-दूसरे के पूरक हों तो ही सार्थक विमर्श सहमतिकारक नीतियाँ बनाकर जन-हित और देश हित साधा जा सकता है। श्रद्धा-विश्वास के अभाव में संसद, विधान सभा ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ भी परस्पर दाँव-पेंच का अखाड़ा मात्र होकर रह गया है।
एक अन्य आख्यान के अनुसार शिव-संतान कार्तिकेय और पार्वती-तनय तनय गजानन के मध्य श्रेष्ठता संबंधी विवाद होने पर सृष्टि परिक्रमा करने की कसौटी पर सकल ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने गए कार्तिकेय पराजित होते हैं जबकि अपने जनक-जननी शिव-पार्वती की परिक्रमा का गजानन विजयी होकर प्रथम पूज्य होने का वरदान पाकर गणेश, गजानन या गणनायक हो जाते हैं।
यहाँ भी बात श्रद्धा-विश्वास की ही है। गजानन के लिए जन्मदात्री और प्राणदाता समूचा संसार हैं, उनके बिना सकल सृष्टि का कुछ अर्थ नहीं है। इसीलिए वे श्रद्धा और विश्वास परिक्रमा कर समझते हैं कि सृष्टि परिक्रमा हो गई। उनका जन्म ही श्रद्धा है इसलिए श्रद्धा (पार्वती) पर श्रद्धा हो यह स्वाभाविक है किन्तु वे अपने प्राणहर्ता विश्वास (शिव) में विष का वास (नीलकंठ, सर्प) होने पर भी उन पर अखंड विश्वास कर पाते हैं, यही उनका वैशिष्ट्य है। दूसरी ओर कार्तिकेय मूलत: विश्वास (शिव) की संतान हैं वे विश्वास पर विश्वास न कर, श्रद्धा पर श्रद्धा खो देते हैं और अपना बल आजमाने निकल पड़ते हैं। यही नहीं वे जीवन की सबसे अधिक कठिन परीक्षा को सबसे अधिक सरल परीक्षा मानकर जाते समय श्रद्धा और विश्वास का शुभाशीष भी नहीं प्राप्त करते जबकि गजानन आरंभ और अंत दोनों समय यह करते हैं।
गजानन और कार्तिकेय की वृत्ति का यह अंतर उनके द्वारा वाहन चयन में भी दृष्टव्य है। गजानन मंदगामी मूषक को वाहन चुनते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का भोज्य है, उन्हें विश्वास है कि शिव सदय हैं तो कुछ अनिष्ट नहीं सकता। दूसरी ओर कार्तिकेय क्षिप्रगति मयूर का चयन करते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का शिकार करता है। कार्तिकेय शंका करते हैं, गजानन विश्वास। 'विश्वासं फलदायकं' इसलिए गजानन प्राप्ति होती है। 'श्रद्धावान लभते ज्ञानं' इसीलिए गजानन को ज्ञान और ज्ञान से रिद्धि-सिद्धि प्राप्त होती हैं। लोकोक्ति है 'जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवार'। कार्तिकेय बल (तरवार) पर भरोसा करते हैं, गजानन बुद्धि (सुई पर)। जीवन में बुद्धि और बल दोनों आवश्यक हैं। 'जो जस करहिं सो तस फल चाखा', बल के बल पर कार्तिकेय देवताओं के बलाध्यक्ष (सेनापति) बन पाते हैं जबकि बुद्धि पर श्रद्धा-विश्वास करनेवाले गजानन देवों में प्रथम पूज्य बन जाते हैं। बुद्धि की श्रेष्ठता बल से अधिक है यह जानने के बाद भी दैनिक लोक व्यवहार में सर्वत्र बल प्रयोग की चाह और राह ही सकल क्लेश का कारण है। प्रथम पूज्य होने पर गजानन गणेश, गणपति, गणनायक आदि विरुदों से विभूषित किए जाते हैं। रिद्धि-सिद्धि उन्हें विघ्नेश्वर बनाती हैं।
गण द्वारा संचालित गणतंत्र को गणनायक पूजक भारत अपनाए यह सहज-स्वाभाविक है। विसंगति यह हो गई है कि गण पर तंत्र हावी हो गया है। गण प्रतिनिधि ही गण से दूर हैं।चयन का कार्य गण नहीं दल कर रहे हैं। फलत:, मतभेदों के दलदल, दल बदल के कंटक और सदल बल जनआकांक्षों पर दलीय हितों को वरीयता देने के कारण प्रतिनिधि जनगण पर श्रद्धा और जनगण प्रतिनिधयों पर विश्वास खो चुके हैं। इस दुष्चक्र का लाभ उठाकर जनसेवक गणस्वामी बनकर पद के मद में मस्त है। गण स्वामी कहा जाता है पर वास्तव में सेवक मात्र है। तंत्र गण के काम न आकर गण से काम ले रहा है। विधि-विधान बनानेवाले ही विधि-विधान की हत्या कर रहे हैं। पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों के साथ बुद्धि-विवेक कर न्याय दिए जाने के स्थान पर, आँखों पर पट्टी बाँधकर न्याय को तौला जा रहा है। इस संक्रमणकाल लोक को आराध्य माननेवाले कृष्ण के जन्मोत्सव के तुरंत बाद गणदेवता जन्मोत्सव मनाया जाना पूरी तरह सामयिक और समीचीन है। जनगण परंपरा-पालन के साथ-साथ उनका वास्तविक मर्म भी ग्रहण कर सके तो लोक, जन, गण और प्रजा पर तंत्र हावी न होकर उसका सेवक होगा, तभी वास्तविक लोकतंत्र, जनतंत्र, गणतंत्र और प्रजातंत्र मूर्त हो सकेगा।
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श्री गणेश
श्री गणेश गिनती गणित, गणना में हैं लीन
जो समझे मतिमान वह, बिन समझे नर दीन. बिंदु शिव
___ रेखा पार्वती
o वृत्त गणेश, लड्डू
१. ॐ
२. मति, गति, यति, बल, सुख, जय, यश।
३. अमित, कपिल, गुणिन, भीम, कीर्ति, बुद्धि।
४. गणपति, गणेश, भूपति, कवीश, गजाक्ष, हरिद्र, दूर्जा, शिवसुत, हरसुत, हरात्मज।
५. गजवदन, गजवक्र, गजकर्ण, गजदंत, गजानन, प्रथमेश, भुवनपति, शिवतनय, उमासुत, निदीश्वर, हेरंब, शिवासुत, विनायक, अखूरथ, गणाधिप, विघ्नेश, रूद्रप्रिय।
६. गण-अधिपति, गणाध्यक्ष, एकदंत, उमातनय, विघ्नेश्वर, गजवक्त्र, गौरीसुत, लंबोदर, प्रथमेश्वर, शूपकर्ण, वक्रतुंड, गिरिजात्मज, शिवात्मज, सिद्धिसदन, गणाधिपति, स्कन्दपूर्व, विघ्नेंद्र, द्वैमातुर, धूम्रकेतु, शंकरप्रिय।
७. गिरिजासुवन, पार्वतीसुत, विघ्नहर्ता, मंगलमूर्ति, मूषकनाथ, गणदेवता, शंकर-सुवन, करिवर वदन, ज्ञान निधान, विघ्ननाशक, विघ्नहर्ता, गिरिजातनय।
८. गौरीनंदन, ऋद्धि-सिद्धिपति, विद्यावारिधि, विघ्नविनाशक, पार्वती तनय, बुद्धिविधाता, मूषक सवार, शुभ-लाभ जनक, मोदकदाता. मंगलदाता, मंगलकर्ता, सिद्धिविनायक, देवाधिदेव, कृष्णपिंगाक्ष।
९. ऋद्धि-सिद्धिनाथ, शुभ-लाभदाता, गजासुरहंता, पार्वतीनंदन, गजासुरदंडक।
१०. ऋद्धि-सिद्धि दाता, विघ्नहरणकर्ता।
११. गिरितनयातनय। ९३
*
गजवदन = गति, जय, वर, दम, नमी।
गजानन = गरिमामय, जानकार, नवीनता प्रेमी, निरंतरता।
विनायक = विवेक, नायकत्व, यमेश, कर्मप्रिय।
*
Ganesha = gentle, active, noble, energetic, systematic, highness, alert.
Gajanana = generous, advance, judge, accuracy, novelty, actuality, non ego, ambitious.
Vinayaka = victorious, ideal, neutrality, attentive, youthful, administrator, kind hearted, attentive.
*
Nuerological auspect
[a 1, b 2, c 3, d 4, e 5, f 6, g 7, h 8, i 9, j 10, k 11, l 12, m 13, n 14, o 15, p 16, q 17, r 18, s 19, t 20, u 21, v 22, w 23, x 24, y 25, z 16]
1. Ganesha = 7 +1 + 14 + 5 + 19 + 8 + 1 = 55 = 10 = 1.
Gati = 7 + 1 + 20 + 9 = 37 = 10 = 1.
Ganadhyaksha = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 25 + 1 + 11 + 19 + 8 + 1 = 100 = 1.
Jaya = 10 + 1 + 25 + 1 = 37 = 10 = 1.
2. Ekdanta = 5 + 11 + 4 + 1 + 14 + 20 + 1 = 56 = 11 = 2.
3. Vinayaka = 22 + 9 + 14 + 1 + 25 + 1 + 11 + 1 = 84 = 12 = 3.
Heramba = 8 + 5 + 18 + 1 + 13 + 2 + 1 = 48 = 12= 3.
Buddhi = 2 + 21 + 4 + 4 + 8 + 9 = 48 = 12 = 3.
4. Ganadevata = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 5 + 22 + 1 + 20 + 1 = 76 = 13 = 4.
Gajanana = 7 + 1 + 10 + 1 + 14 + 1 + 14 + 1 = 49 = 13 = 4.
5. Vakratunda = 22 + 1 + 11 + 18 + 1 + 20 + 21 + 14 + 4 + 1 = 113 = 5.
Bhoopati = 2 + 8 + 15 + 15 + 16 + 1 + 20 + 9 = 86 = 14 = 5.
Kapila = 11 + 1 + 16 + 9 + 12 + 1 = 50 = 5.
6. Ganapati = 7 + 1 + 14 + 1 + 16 + 1 + 20 + 9 = 69 = 15 = 6.
7. Mahakaya = 13 + 1 + 8 + 1 + 11 + 1 + 25 + 1 = 61 = 7.
8. Gajavadana = 7 + 1 + 10 + 1+ 22 + 1 + 4 + 1 + 14 + 1 = 62 = 8.
Vighneshvara = 22 + 9 + 7 + 8 + 14 + 5 + 19 + 8 + 22 + 1 + 18 + 1 = 134 = 8.
Amita = 1 + 13 + 9 + 20 + 1 = 44 = 8.
9. Ganadhipati = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 9 + 16 + 1 + 20 + 9 = 90 = 9.
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