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गुरुवार, 24 मई 2018

महाराणा प्रताप

“प्रताप! हमारे देश का प्रताप! हमारी जाति का प्रताप! दृढ़ता और उदारता का प्रताप! आज तू नहीं है लेकिन तेरा यश और कीर्ति है. जब तक यह देश है और जब तक संसार में दृढ़ता.उदारता, स्वतंत्रता और तपस्या का आदर है, तब तक हम ही नहीं, सारा संसार तुझे आदर की दृष्टि से देखेगा.” ---गणेश शंकर विद्यार्थी
प्रेरक प्रसंग, 
जिन्होंने कीका की प्रताप यात्रा को महाराणा तक पहुंचाया
- सुरेन्द्र सिंह पंवार
मेदपाट की गद्दी पर बैठने के पूर्व महाराणा प्रताप को ‘कीका’ नाम से संबोधित किया जाता था. मेवाड़ की पहाड़ी भीली-भाषा(बांगडी) में कीका, शब्द लाड़-प्यार में लड़के के लिए प्रयुक्त होता है.कीका से महाराणा प्रताप तक की यात्रा में बहुत-से प्रसंग है, जिन्हें प्रताप का पर्याय माना जाता है, कुछ हैं---
झुके न तुम प्रताप प्यारे---मेदपाट के सभी राजा “एकलिंग के दीवान” कहलाये.इसी क्रम में प्रताप ने भी एकलिंग शासन के प्रतिनिधि बनकर राज्य किया उनका सिर अपने राजा यानि एकलिंग को छोड़कर कभी किसी के सामने नहीं झुका. दिल्ली- दरबार में एक विरुदावली गायक भाट ने अपने सर पर बंधी पगड़ी हाथ में लेकर बादशाह अकबर को मुजरा(प्रणाम) किया. पगड़ी उतारने का कारण पूछे जाने पर उसने उत्तर दिया,-‘वह पगड़ी महाराणा प्रताप ने बाँधी थी, वह न झुके, महाराणा का मान बना रहे, इसलिए उतार ली.’ बादशाह, उत्तर सुनकर प्रसन्न हुआ परन्तु उसके दिल में एक कसक रह गई—
“सूर्य झुके, झुक गये कलाधर, झुके गगन के तारे.
अखिल विश्व के शीश झुके, पर झुके न तुम प्रताप प्यारे.
हल्दीघाटी रंगी खून ज्यों, नालो बहतो जाये-----हल्दीघाटी की पीली मिटटी चन्दन सदृश्य है, जहाँ मातृभूमि की रक्षा करते सुभक्तों ने अपना रक्त मिलाकर उसके रंग को और गहरा कर दिया है. महाराणा प्रताप की गौरव-गाथाओं से जुड़कर महातीर्थ बनी वह जड़-स्थली जन-जन में चेतना का संचार कर रही है. बकौल श्याम नारायण पांडे---
यह सम्मानित अधिराजों से,अर्चित है राज समाजों से.
इसके पदरज पौंछे जाते, भूपों के सर के ताजों से.
अकबरनामा में लिखा है कि, ‘हल्दीघाटी का मुख्य युध्द खामनौर में हुआ, उस रणक्षेत्र को रक्ततलाई के नाम से जाना जाता है. युध्द हुआ, 18 जून 1576 को वह भी मात्र 4 घंटे,’----किसी लोक कवि ने कहा है, “हल्दीघाटी रंगी खून ज्यों,नालो बहतो जावे.” बदायूँनी, जो उस युध्द क्षेत्र में मौजूद रहा के शब्दों में-‘यह सच है कि शाही पक्ष को बड़ी कठिनता से सफलता मिली थी जिसका श्रेय भी राजपूतों को जाता है.’इस घाटी के विषय में किंवदन्ती चली आ रही है कि मरे हुए सैनिक रात्रि की नीरवता में अब भी युध्द करते हैं और उनके मुँह से ‘मारो-काटो’ के भयद शब्द पहाड़ों के चक्कर खाते, टकराते, गूंजते हुये आकाश में विलीन हो जाते हैं. जौहर सूर पठानी का—हाकिम खां सूर,जो शेरशाह सूरी का वंशज था और महाराणा प्रताप की सेना का प्रधान सेनापति, ने युध्द के प्रारम्भ में महाराणा से प्रार्थना की कि,--“हे मेवाड़ी मालिक! मुझे और मेरे जान्वाज जवानों को को हरावल(अग्रिम पंक्ति) में लड़ने की इज्जत बक्शें. फिर देखें, यह मुसलमान पठान अपने कौल पर किस तरह मिटता है. जहाँ आपका पसीना गिरेगा, उस मिटटी को पठान अपने खून से लाल कर देगा.कसम उस खुदा की मरने पर ये पठान शमशीर नहीं छोड़ेगा.महाराणा जी, यह पठान जान हार सकता है परन्तु कौल नहीं.” महाराणा मुस्लिम विरोधी नहीं थे; उन्हें राष्ट्रीय एकात्मता और अखंडता में गहरा विश्वास रहा, उन्होंने हाकिम खां को युध्द की कमान सौंपी. उल्लेख्य है कि हल्दी घाटी के युध्द-यज्ञ में हाकिम खां पठान की पहली आहुति चढ़ी. मरने के बाद भी पठान सख्ती से तलवार की मूंठ थामे हुए था, जिसे छुड़ाने में असफल होने पर उसे तलवार सहित दफनाया गया.
नीला घोडा रा सवार—
घोड़े तो कई हैं, परन्तु चेतक सबसे भिन्न था. ‘वह कैसा था?’--- यह तो प्रताप के पर्यायवाची सम्बोधन “ओ नीला घोडा रा सवार” से ज्ञात हो जाता है, श्याम नारायण पांडे ने “हल्दीघाटी” महाकाव्य में चेतक का परिचय इस प्रकार दिया---
लड़ता था वह बाजि,लगाकर बाजी अपने प्राणों की.
करता था परवाह नहीं वह, भाला-बरछी-वाणों की.
लड़ते-लड़ते रख देता था,टाप कूद कर गैरों पर.
हो जाता था खड़ा कभी, अपने चंचल पैरों पर.
आगे-आगे बढ़ता था वह, भूल न पीछे मुड़ता था.
बाज नहीं,खगराज नहीं,पर आसमान में उड़ता था.
वाकयानवीस बदायूँनी लिखता है, “राणा एक नाले के निकट घाटी को पार कर पहुंच गया. लंगड़े घोड़े को नाला पार कराना कठिन था. उसका वहीं दम टूट गया और उसके प्राण-पखेरू उड़ गये.” हल्दी घाटी के युध्द में प्रताप के जीवन में दो अहम घटनाएँ घटीं- एक, बिछड़े भाई शक्ति सिंह का मिलन और दूसरी, स्वामी भक्त चेतक का निधन. विषम से विषमतर परिस्थितियों में भी न घबराने वाला महाराणा, चेतक के धराशाही होने पर फूट-फूट कर रोया था.
भुज उठाय प्रण कीन्ह—
महाराणा के चरित्र में जो बात सर्वाधिक आकर्षित करती है; वह है,स्वाधीनता-संघर्ष के लिए उनका भुजा उठाकर प्रण करना. चारण कहते हैं उदयपुर से 19 मील दूर गोंगुदा नामका स्थान पर सिंहासनारूढ होते समय महाराणा ने कसम खाई मैं तब तक संघर्ष करता रहूँगा जब तक सरे मेवाड़ को यवनों से मुक्त नहीं करा लूँगा.इस कृत्य में उन्होंने अपनी कुल रीति का अक्षरशः पालन किया जो कभी उनके पूर्वज भगवान श्रीराम ने इस धरा को “निश्चिर हीन” करने के लिए शपथ लेकर प्रारंभ किया था. प्रताप की इस सिंह-गर्जना का क्या असर हुआ? एक स्फुट रचना में देवी सिंह चौहान लिखते हैं-
प्रण किया जब तक मातृभूमि आजाद नहीं होगी.
उजड़े खण्डों की हर बस्ती,जब तक आजाद नहीं होगी.
तब तक जूझेंगे रण में बलिपथ पर बढ़ते जायेंगे.
दुश्मन की लाशों के टीलों पर निर्भय चढ़ते जायेंगे.
महलों का सुख,कोमल शैय्या. छोड़ भूमि पर सोयेंगे.
पत्तल पर सादा भोजन कर, दासत्व कालिमा धोंयेंगे.
राणा ने भुजा उठा ज्यों ही ऐसा ऐलान किया .
जनता के जय-जय कारों ने उसको वीरोचित मान दिया.
महाराणा ने अपने परिजनों सहित कठिन पर्वतीय जीवन जिया. काव्य में यमक का श्रेष्ठ उदाहरण-‘तीन बेर खाती थी सो तीन बेर खाती है’, उसी सिसोदिया कुल की रानियों की स्थिति पर केन्द्रित है. इतिहास गवाह है कि महाराणा ने एक-एक कर अपने हारे हुए सभी किले वापिस जीते, चित्तौडगढ और मान्दलगढ़ को छोड़कर. घास की रोटी का सच—राजस्थानी कवि कन्हैया लाल सेठिया की एक कविता का अंश है –
अरे घास की रोटी भी जद, बन बिलावडो ले भागो.
नानो सो अमरियो चीख पडियो,राणा रो सोयो दुःख जाग्यो. 
इस कल्पना की प्रधानता है. गोपाल सिंह राठौड़, ‘हमारे गौरव’ में लिखते हैं कि प्रताप का संघर्ष 1580 के आसपास चरम था.और कवि ने जिन परिस्थितियों का वर्णन किया है तब अमरसिंह 18-20 साल के युवा थे, और इतने बलिष्ट कि शेर को भी निहत्थे पछाड़ सकते थे. कवितांश केवल एक मिथक माना जाना चाहिए, जिसमें भावात्मक अतिरेक के सिवाय कुछ नहीं. ‘पीथल और पातल’ कविता के विस्तार में कवि सेठिया की कल्पना है कि तत्कालीन स्थितियों से घबरा कर महाराणा ने अकबर से समझौता का प्रस्ताव भेज दिया, परन्तु वह पत्र महराज
पृथ्वीराज(बीकानेर) के हाथ लग गया और उन्होंने समझौता-पत्र की पुष्टि के लिए दो सोरठ लिख भेजे—जिनका आशय रहा कि ‘हे वीर प्रताप! लिख भेजिए, यह सत्य नहीं है.अन्यथा की स्थिति में मैं अपनी मूंछों को ख़म कैसे दूंगा और तब यही होगा की मैं ग्रीवा पर खंग रखकर मौन सो जाऊँ.’ कहते है, महाराणा को अपनी गलती का अहसास हुआ और उत्तर में तीन दोहे लिखे जिनमें मेवाड़ का स्वभिमान यथावत रहने/रखने का बचन दिया.
धरम रहसी रहसी धरा---
शेरपुर में कुँवर अमरसिंह ने खानखाना के शिविर पर अप्रत्याशित हमला कर मुगल टुकड़ी को तितर-बितर कर दिया और लूट के माल के साथ खंखानके परिवार को भी बंदी बनाकर ले गया.जब प्रताप को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने मिर्जा की बेगमों और बच्चों को ससम्मान वापिस भिजवा दिया.खानखाना महाराणा की इस उदारता एवं म्हणता से बड़ा प्रभावित हुआ और उनकी शान में यह दोहा पढ़ा—
धरम रहसी,रहसी धरा,खप जनि खुरसाण.
अमर विशम्भर ऊपरे,रख निहच्चो राण.
दानी भामाशाह –एक जनश्रुति है कि जब प्रताप भीषण संकट और आर्थिक अभावों से घबरा गये तो उन्होंने मेवाड़ छोड़कर सिंध जाने का मन बना लिया तब भामाशाह एक बड़ी धनराशी और अशर्फियाँ लेकर उपस्थित हुए, यह उनके परिजनों की संग्रहित सम्पत्ति थी. इसमें कितनी सच्चाई है? नहीं कहा जा सकता. हाँ! हल्दी घाटी के युध्द में भामाशाह के मौजूद होने का स्पष्ट उल्लेख तवारीखों में मिलता है. हल्दी घाटी युध्द के बाद जब प्रताप ने मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए लम्बे समय तक कठिन छापामार लड़ाई लड़ने तथा मेवाड़ के सम्पूर्ण जन- जीवन,अर्थव्यवस्था तथा प्रशासनिक ढांचे को संचालित करने का निर्णय लिया उस समय भामाशाह को 1578 के लगभग पूर्व प्रधान राम महासाणी के स्थान पर दीवान का उत्तरदायित्व दिया.
भामो परधानो करे, रामो कीड़ो रद्द.
धरची बाहर करण नूं, मिलियो आय मरद्द.
महाराणा प्रताप व्दारा भामाशाह की नियुक्ति एक राजनैतिक सूझ-बूझ और कूटनीति थी. भामाशाह को दीवान बनाकर उनके माध्यम से देश के उस संपन्न धनिक वर्ग एवं पड़ोसी रियासतों से संपर्क साधा, जिसमें देशप्रेम का जज्बा था, जो
मेवाड़ के स्वतंत्रता अभियान में सहयोग करना चाहते थे परन्तु मुग़ल सल्तनत की सीधी नाराजी से डरते थे. जब महाराणा प्रताप छापामार कर मुग़ल ठिकानों को तबाह कर रहे थे तब भामाशाह, अमरसिंह को साथ लेकर सीमांत राज्यों और चौकियों पर प्रायोजित हमले कर यथेष्ट धन, सैन्य-बल और उनका भावनात्मक सहयोग बटोर रहे थे.
यायावर-लोहडिया—
महाराणा ने जब महलों का परित्याग किया तब लोहार जाति के हजारों लोगों ने भी उनका अनुगमन किया. वे प्रताप के साथ रहते हुए तलवार, भाले और तीर गढ़ते रहे ताकि मेवाड़ी सेना को हथियारों की कमी न पडे. और आवश्यकता होने पर छापामार युध्द का भी हिस्सा बने.चूंकि सुरक्षा की दृष्टि से महाराणा के ठिकाने बदलते रहे इसलिए लुहार/लोहाणा क्षत्रिय संवर्ग का भी स्थायी ठिकाना न रहा. वे आज भी यायावरी जीवन जीते हैं.
छापामार(गुरिल्ला)युध्द प्रणाली—
महाराणा प्रताप ने पर्वतीय जीवन में वहां की जन- जातियों को अपने विश्वास में लिया. उनकी युध्द प्रणाली सीखी,उन्हें अपनी सेना में महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे. प्रताप ने अपनी सेना को कई टुकड़ियों में विभाजित कर अलग-अलग स्थानों पर नियुक्त कर छापामार प्रणाली अपनाई.इसमें मुग़ल सेना से सीधा सामना नहीं किया जाता था.सैनिक टुकड़ी गुप्त स्थानों से निकलकर मुग़ल चौकियों पर यकायक हमला करती,सैनिकों को मरती,रसद ,शस्त्र आदि लूटकर तेजी से गायब हो जाती. प्रताप ने ‘जमीन-फूंको’ नीति( scorched earth policy) का अनुसरण किया.यानि जिस भूभाग पर मुग़ल आधिपत्य जमा लेते, वहां के लोग अपना मॉल-असबाब लेकर पर्वतों पर चले जाते, साथ ही कृषि आदि बर्वाद कर जाते,और कुछ भी उपयोगी सामग्री शत्रु के लिए नही छोड़ते. आज भारतीय सेना में छोड़ी हुई चौकियों के आस-पास आवागमन के साधन नष्ट करना और पानी के स्त्रोतों को विषेला कर देना उसी नीति का हिस्सा है.यही छापामार पध्दति
परवर्ती पीढ़ी के छत्रपति शिवाजी और बुंदेला छत्रसालने सीखी और सफलतापूर्वक प्रयोग की.------ महाराणा के आदर्शों पर चलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों ने देश को आजादी दिलाई. वे सच्चे अर्थों में एक संस्कारित क्षत्रिय
थे—शौर्य, तेज, वीरता, उदारता जैसे गुणों से अभिषिक्त कालजयी योध्दा.
और चलते-चलते दो अल्पख्यात प्रताप-पुजारियों का उल्लेख करना सामयिक होगा -
एक,अमेरिकी राष्टपति अब्राहिम लिंकन की माँ,जिन्होंने लिंकन के तत्कालीन भारत प्रवास से लौटते हुए हल्दीघाटी की माटी मंगवाई थी.वे प्रताप की प्रजा वत्सलता और स्वाधीनता के लिए सतत संघर्ष जैसे गुणों से प्रभवित रहीं और उस मिटटी को माथे से लगाना चाहतीं थीं.दुसरे.जलगाँव के विद्याधर पानत (दैनिक सकल के संपादक)जो प्रताप साहिर थे,यानि उन्हें भाव(भाल)में महाराणा प्रताप आते थे.उन्होंने महाराष्ट्र और गोवा में एक करोड़ स्कूली बच्चों को महाराणा प्रताप की कथा सुनाने का संकल्प पूरा किया.


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शनिवार, 12 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी ३. सुरेन्द्र सिंह पवार बुंदेली लोक गीतों में छंद-वैविध्य

आलेख:
३. बुंदेली लोक गीतों में छंद-वैविध्य
इंजी. सुरेंद्र सिंह पवार
[लेखक परिचय: सुरेंद्र जी पेशे से सिविल इंजीनियर, मन से साहित्य प्रेमी तथा अध्यवसाय से समीक्षक हैं। बहुधा नए विषयों पर कलम चलाने के साथ-साथ वे विश्ववाणी हिंदी में तकनीकी लेखन के प्रति समर्पित हैं। राम सेतु पर उनके लेख को इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स कोलकाता ने 'राष्ट्र में तृतीय श्रेष्ठ लेख" का सम्मान दिया है। संप्रति सेवानिवृत्त कार्यपालन यंत्री जलसंसाधन विभाग म.प्र.] 
*
“बुंदेली,पश्चिमी हिंदी की पाँच बोलियों में से एक है; इसका शुद्ध रूप उत्तरप्रदेश के झाँसी, जालौन, हमीरपुर व मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर, सागर आदि जिलों में देखने को मिलता है।  दतिया और पन्ना की बुंदेली विशुद्ध न होकर मिश्रित रूप में है। ”—डॉ. ग्रियर्सन
सामान्यत: लोकगीतों को किसी छंद के दायरे में कसना कठिन होता है।  लोकगीतोंमें ध्वनियों की प्रधानता होती है।  लोक ध्वनियों से ही लोक गीतों की पहचान की जाती है। ये लोकगीत पेटेंट नहीं हैं। इन्हें रचनेवाले को सामान्यत: कोई नहीं जानता। पीढ़ी-दर- पीढ़ी वाचिक परंपरा से चले आ रहे ये लोकगीत ऐसे आजाद परिंदे हैं, जिन्हें उड़ने के लिए आसमान भी छोटा पड़ जाता है। ढोलक के अलावा अन्य गैर-परंपरागत वाद्य यथा-- लोटा, थाली, चमीटा, घुँघरू, करतालें आदि इनकी संगत दे देते हैं।  हाँ! उठती मधुर स्वर-लहरियों में मौज-मस्ती होती है, हँसी-ठिठोली होती है, उत्साह होता है, उमंग होती है, जीवन होता है, जीवन जीने की प्रेरणा होती है।  जहाँ तक बुंदेली का प्रश्न है, वह मध्यदेशीय शौरसेनी अपभ्रंश से उत्पन्न हिंदी का रूप है, जो बुंदेलखंड में प्रयुक्त होने से ‘बुंदेली’ कहलाया। यहाँ प्रचलित लोककथाओं, लोकगीतों, मुहावरों, कहावतों आदि की मूल भाषा बुंदेली है और वे ही बुंदेली लोक-साहित्य के आधार स्तंभ हैं,   विशेषकर ‘लोकगीत’। यहाँ गाए जानेवाले लोकगीतों को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है,-
१. संस्कार गीत: बुंदेलखंडी जन-जीवन में षोडश-संस्कारों का पारंपरिक विधान प्रचलित है, परन्तु जन्म और विवाह ऐसे संस्कार हैं जिनमें उत्सव का विशेष माहौल रहता है। 
१.१ जन्म संस्कार: इनमें मुख्यत: चरुआ चढ़ाना, दष्टौन, बधावा, पालना और कुआँ-पूजन ऐसे अवसर हैं, जहाँ कोकिल-कंठियों के स्वर मन मोह लेते हैं। सोहर गीत, दादरा और बधाई जन्म-गीतों के प्रचलित रूप हैं। 
सोहर (चरुआ धराई): तुम तो अटरिया चढ़ जइयो, नेंग पिया हम दे दैंहें। 
                                 सासूजी आहें, चरुआ धराहें, चरुआ धराई नेंग माँगें, पिया हम दे दैंहें
                                 हम भी तुमरे, ललनवा तुमरे, लरका तुमाए घर नैयां, पिया हम दे दैंहें
                                 तिजोरी में तारो लगो.
इसी तरह ननद, जिठानी, देवरानी आदि को लेकर अपनी धुन में सोहरा आगे बढ़ता जाता है।  स्थायी टेक होती है, जिसे हर पंक्ति के बाद समवेत स्वर में दोहराया जाता है। सोहर गीत में अन्त्यानुप्रास आवश्यकहोता है। एक अन्य सोहर गीत का आनंद लें:  
                                 सोंठ गिरी के लड्डू, मेरी अम्मा ने भिजवाए री!
                                 उसमें से एक लड्डू, मेरी सासू ने चुराए री!!
                                 सासूजी का हाथ पकड़कर,कोठी अंदर कर दो जी!
                                 कोठी अंदर ना मानें तो, लोहिड़ी साँकल जड़ दो जी!!
                                 लोहिड़ी साँकल ना मानें तो, अलीगढ़ ताला जड़ दो जी!
                                 अलीगढ़ ताला ना माने तो, पुलिस हवाले कर दो जी!!
                                 पुलिस हवाले ना माने तो काला पानी भिजवा दो जी !... 
बधाई गीत:
किसी नये सदस्य का आगमन पूरे परिवार में उत्साह-उमंग भर देता है।  इस गीत में ननद अपनी भाभी से भतीजे के जन्म पर कंगन की माँग कर रही है, आपसी नोंक-झोंक में संबंधों की मधुरता, रिश्तों की मिठास ही ख़ास है।  
                                 कँगना माँगे ननदी!, लालन की बधाई। 
                                 जे कँगना मोरे मैके से ल्याई, रुपइया लै लो ननदी! लालन की बधाई.
                                 जे रुपइया मोरे ससुरा की कमाई, अठन्नी ले लो ननदी! लालन की बधाई.
१.२ विवाह गीत:
विवाह जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और आनंददायी संस्कार है।  विवाह संस्कार का उद्देश्य नए सृजन से सृष्टि के क्रम की निरंतरता है।  बुंदेलखंड की अपनी परंपरागत विवाह पद्धति है, जिसमें सगाई, फलदान, लगुन, मागर-माटी, सीधा छुआना, मंडपाच्छादन, मैहर का पानी, तेल चढ़ाना, हल्दी चढ़ाना, मातृका-पूजन, चीकट, कंकन पुराई, राछ फिराई, बारात निकासी, बाबा का स्वांग, द्वारचार, चढाव, कन्यादान, बेंई, भाँवरें, पाँव-पखराई, कुँवर कलेऊ, रहस बधाव, ज्योंनार, बिदाई, (बूड़े बब्बा की पूजा, बाती मिलाई, कंकन छुड़ाई- सं) मोंचायनों, दसमाननी इत्यादि रस्में हैं।  सामान्यत: विवाह-गीतों में बन्ना-बन्नी, गारी, बिदाई गीत प्रमुख हैं:
(अ) बनरा/ बन्ना गीत:  
                                 मोरे राम लखन से बनरा आली, कौने बिलमा लए री.
                                 उनके बाबुल ने बिलमा लये, माता कंठ लगा लए री.
संबंधों की लंबी फेहरिस्त में चाचा, मामा, मौसा, फूफा, बहनोई आदि दुल्हे को रोककर टीका करते हैं और चाची, मामी, फुआ, मौसी, बहिन गले से लगाती हैं। विवाह में भाँवर के पहले तक बनरा या बन्ना गाये जाते हैं।  बन्नी कन्या पक्ष में गाई जाती है और बनरा जैसी ही होती है—
                                 दूद पिलाये, बेटी पलना झुलाये, अब हमसे राखे ने जाय भले जू.
                                 जो कछु देने होय, सो देइये मोरे बाबुल, फिर तुमसे दव ने जाय भले जू.
दुल्हन का अपने माँ-बाप और अन्य रिश्तेदारों के साथ भावनात्मक वार्तालाप इन गीतों में होता है:—
-- बना की बनरी हेरें बाट,बना मोरे कब घर आबै जू 
--  बने दूला छबि देखौ भगवान की,दुल्हिन बनी सिया जानकी 
-- वारी सिया को चढत चढाव, हरे मंडप के नैचे जू 
(ब) गारी: 
यह शादी समारोह की बोझिलता को मृदुल हास्य में बदलने का गीत है। (इनमें नए जुड़े संबंधों को सहज-सरस बनाने तथा प्रारंभिक संकोच मिटाकर पारिवारिक आत्मीयता स्थापित करने के लिए छेड़-छाड़ और चुटकी काटने जैसी अभिव्यक्तियाँ की जाती हैं। महिलाओं का आशु कवित्व भी इनमें झलकता है जब वे दूल्हे के रिश्तेदारों के नाम ले-लेकर उनके स्थान, पेशे या व्यक्तित्व पर चुभती हुई फब्तियाँ कसती हैं। अशिक्षित जनों में अपमानजनक बातें कहीं जाने से ये गीत विवाद के कारण भी बनजाते हैं। आजकल संपन्न-शिक्षित समाज में इनका चलन घटता जा रहा है-सं):   
-- जा हरी रँगीली बाँसुरी, जा बाजत काए नईयां.
-- समदी के भाग में नईयां लुगाई, मैं कैसों करों भाई.
 -- मोरे नए जिजमान, कुत्ता पोसले, कुत्ता पोसले. जैसे कुत्ता की कुत्ता, वैसी समदी की मूंछ हत्ता फेर ले. कुत्ता पोस ले  
-- आसपास चोरैया बो दइ, बीच में दोना राई को, मरे जात बड़वारी खों.
-- सबके हो गये दो-दो ब्याव, समदी खों बांद दई बुकरिया, के बोल दारी बुकरी बोल- 
(स) बिदाई गीत:
विवाह के बाद बेटी को बिदा करते माँ–बाप और अन्य रिश्तेदार इन गीतों के माध्यम से वर-वधु को भविष्य के लिए सीख देते हैं। १६-१२ पर यति तथा अंत में ‘मोरे लाल’, ‘अहो बेटी’, ‘जू’ की आवृति गायन में मार्मिकता और करुणा का समावेश करती है:
जाओ लली! तुम फरियो-फूलियो, सदा सुहागन रहियो मोरे लाल.
सास-सुसर की सेवा करियो, पतिव्रत धर्म निभइयो मोरे लाल.
आगे उठियो, पीछे सोइयो, सबके पीछे जइयो मोरे लाल.
(द) दादरा:
-- छज्जे पे बेठी नार, उड़ा रई कनकैया.
    पेलों पेंच मोरे, सुसरा ने डारो,
    कर घूँघट की ओट, काट लई कनकैया.
-- लंबे ढकोरा करी ककरी, कबे आहो छैला हमारी बखरी.
-- राते कहरवा खूब सुनेरी मैंने.
-- धीरे चढ़ाओ मनिहार चूड़ियाँ
२. व्रत-त्यौहार गीत:
वैसे लोक अनंत भी है और आँगन भी।  वह अनंत को आँगन में उतार लेता है और घर के आँगन में अनंत की यात्रा करता है। लोक में ही वह शक्ति है कि वह आवाहन न जानते हुए भी सारे देवताओं को एक छोटा सा चौक पूरकर उसमें प्रतिष्ठित कर सकता है। लोक में ही वह साहस है कि वह देवता को स्थापित कर जब चाहे नदी में विसर्जित करते हुए आमंत्रण देता है कि अगले वर्ष फिर बुलाएँगे। बुंदेलखंड में हर दिन एक त्यौहार होता है और हर त्यौहार के अपने गीत हैं:
२.१ कार्तिक स्नान:
कार्तिक का महिना पवित्र माना गया है। महिलाएँ  एक माह तक भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए व्रत और उपवास रखतीं हैं, सुबह होने के साथ लोक संगीत फूट पड़ता है:
सखी री! मैं तो भई न बिरज की मोर.
बन में रहती, बन फल खाती, बन ई में करती किलोर.
उड़-उड़ पंख गिरैं धरती पे बीनै नंदकिशोर .
उन पंखन को मुकट बना के बाँधें जुगलकिशोर
चंद्र सखी भज बालकृष्ण छबि चरण कमल चितचोर. –(कतकारियों का गीत)
२.२ क्वांर/चैत्र नवरात्रि:
नौ दिनों तक भगतें, (जस, जवारे, अलाव गीत, भजन -सं.) और देवी गीत गाए जाते हैं। लोक कलाकार अपने लोक वाद्य ढोलक, नगड़िया, झेला, झाँझ, मजीरा,  लेकर झूम-झूम कर गाते हैं-
भगत:  कैसे के दरसन पाऊँ री!, माई तोरी सँकरी दुअरिया,
सँकरी दुअरिया, तोरी ऊँची अटरिया, कैसे के दरसन पाऊँ री!.
माई के दुआरे एक बाँझ पुकारे, देव लालन घर जाऊँ री!, कैसे के दरसन पाऊँ री!.
व्दारका गुप्त ’गुप्तेश्वर’ का एक देवी गीत “करत भगत हो आरती माई दोई बिरियाँ” गली-गली में सुना जाता है। 
२.३ जगदेव पंवारौ:
यह मात्रिक छंद है, ध्रुव पंक्ति में १८ मात्राएँ, अंत में ‘हो माँ’ की स्थायी टेक तथा अन्तरा में १२-९  पर यति और प्रथम अर्धाली के अंत में ‘रे’ का प्रभावशाली प्रयोग होता है :
राजा जगत के मामले हो मां!.
कौने रची पिरथवी (रे), दुनिया संसार. कौने रचे पंडवा, कौने कैलाश. राजा जगत--
२.४ होली/होरी:
होली या होरी में वर्ण्य विषय रंग-गुलाल खेलना है जिसमें राधा-कृष्ण की होली, देवर-भौजाई की होली, गोप-गोपियों की होली तथा राम-सीता की होली प्रमुख हैं. होली का गायन होलिकात्सव तक सीमित है.
अंगना में उड़त अबीर, बलम होली खों रिसाने.
कोरी चुनरिया कोरी है चोली, मैं कैसे खेलों उन संग होली.
तनकऊ धरे न धीर. बलम होली..... 
२.५ फाग:
फाग एक मात्रिक छंद है, जिसे वार्णिकता की कसौटी पर भी कसा जाता है।  गायकी में सुविधानुसार मात्राएँ गिराने या बढ़ाने ही नहीं अलग शब्द जोड़ने की भी स्वतंत्रता फाग-गायक ले लेता है जिससे उसकी गायकी औरों से भिन्न और विशिष्ट हो सके। सामान्यत: ‘अरे हाँ-- -- -,’ के दीर्घ आलाप के साथ फाग प्रारंभ होती है.फिर एक गायक मुखड़े (ध्रुव पंक्ति) को राग के साथ उठाता है, जिसे शेष गायक दो दलों में बँटकर गाते हैं। एक तरह के प्रतियोगी भाव से, दूसरे दल पर चढ़कर, उसे चारों खूँट चित्त करने की मुद्रा में गायकों का हाव-भाव, हाथ- पैरों की थिरकन और साजिंदों के साथ ताल-मेल, फाग-गायन की विशेषताएँ होती हैं। टिमकी, मृदंग और मजीरे के बिना फाग की कल्पना अधूरी है। फाग की प्रथम अर्धाली १९ मात्राओं की होती है, अर्धाली के अंत में दो गुरु (SS) या दो लघु एवं एक गुरु (IIS) या एक गुरु और दो
लघु (SII) होते हैं, मुखड़े की दूसरी अर्धाली १३ मात्रा की होती है तथा अंत में गुरु लघु(SI) होते हैं।  फाग के अंतरे २४-२४ मात्राओं के होते है, जिनके चार चरण होते है। पहले दो रोला छंद में ११-१३ मात्राओं और अंत में दो गुरु (SS) तथा अंतिम दो दोहे की २४ मात्राएँ होती है और अंत में गुरु लघु(SI)।  मुखड़े अथवा अंतरे की अंतिम अर्धाली से बाद वाला अंतरा प्रारंभ होता है। कहीं-कहीं  बालमा अथवा लाल शब्द जोड़कर विशेष लय-लोच के साथ फाग गाई जाती है। विषयानुसार रामावतारी, कृष्णावतारी, सुराजी, त्यौहारी, मतवारी, व्यवहारी, श्रृंगारी, हास्य-व्यंग अथवा किसानी फागें होती हैं।  ईसुरी की (१६-२२ मात्राओं की) चौकड़िया फागें प्रचलित हैं।  बलीराम तथा नीलकंठ फाग लेखन में ख्यात रहे। 
हम खों बिसरत नहीं बिसारी, हेरन हँसी तुम्हारी.
जुबान विशाल चाल मतवाली, पतरी कमर इकारी.
भौंह कमान बान सी ताने, नजर तिरीछी भारी.
'ईसुर' कात हमारे कोदें, तनक हेर लो प्यारी...   ( नायिका वर्णन, ईसुरी)
सेना सजी करन अलबेला की, दल पनिया पंथ दिखाय. (महाभारत, नीलकंठ)
दुल्हन बनी सियाजू बैठीं हैं, दूल्हा हैं राजाराम.  (मानस-फाग,  देवराज)
समर में जूझ गयीं दुर्गा रानी, जग जाहर कर लओ नाम. (वीर गाथा, आचार्य भगवत दुबे)
२.६ राई / राही :
राई की एक ही धुन है।  यह अलग बात है कि जिसके कंठ में ईश्वरीय प्रदत्त लोच, हरकतें व परिपक्वता होती है, उसके राई गायन में निखार आ जाता है। राई गायिका कभी ताल सहित गायन करती है, कभी ताल रहित। एक ही पंक्ति की पुनरावृत्ति होती है। इसमें ‘ए दैया’, ‘ऐ भईया’, ‘ऐ राजा’, ‘हाय’, ‘अरे’, ‘अरी’, ‘अर रा रा’ की टेक भावाभिव्यक्ति में सहायक होती है और कर्णप्रिय भी होती है।  ढोलक और मृदंग मुख्य वाद्य हैं। रमतूला, टिमकी, मँजीरा, घुँघरू और सारंगी का भी प्रयोग होता है।
 - टिमकी में गणेश, टिमकी मेंs गणेsश, ढोलक में बैठी मैया शारदा.
- ऊंसई लै ल्यो प्रान, ऊंsसई लै ल्यो प्राsन, हाय! तिरछी नजरिया नें घालियो.
- भोंरा बन गए नंदलाल, बेला कली बन गईं राधिका 
यह २९ मात्राओं का लोक-छंद है जिसमें सामान्यत: १०-१९ पर यति होती है. कई बार गायन की दृष्टि से मात्राएँ घट-बढ़ भी जाती हैं. प्रथम अर्धाली के अंत में गुरु-लघु(SI) तथा दूसरी के अंत में लघु –गुरु(IS) का उच्चारण रस उत्पन्न करता है।राई के साथ ख्याल, फाग, टोरा, फुंदरिया और स्वांग गाये जाते हैं-- -
२.७ टोरा:
जइयो ने गोरी कोउ मेला में, मेला में री, झमेला में. जइयो ने 
ओ मेला में सारी फटत है, जम्फर फटत पतेला में. जइयो ने 
ओ मेला में बड़ी बदनामी, पूछत ने कोई धेला में. जइयो ने-- -
२.८ स्वांग:
राई नृत्य की लम्बी और चरम उत्तेजना के शमन के लिए बीच-बीच में स्वांग किए जाते हैं। ये २ या ४ पंक्तियों के हल्के-फुल्के हास्य के साथ मार्मिक-व्यंग गीत होते हैं:
हातों में डरी हतकड़ी, पावन डरी जंजीर. जाय कहो उस छैल से, कोरट में करें अपील.
हमाये हिलमिल के छुड़ा लेहें बालमवा-- --
३. यात्रा गीत:
३.१ बंबुलिया:
संक्रांति, शिवरात्रि, बसंत पञ्चमी आदि पर्वों अथवा किसी भी दिन नर-नारी एक साथ बंबुलिया गाते हुए यात्रा करते जाते हैं। सामूहिक यात्राओं का उद्देश्य तीर्थ-स्नान, देव-दर्शन, पूजा-अर्चन, काँवर से जल लाकर इष्ट को अर्पण करना होता है। (व्यक्तिगत यात्राओं में मायके से ससुराल जाती लड़कियाँ नर्मदा को माँ मानते हुए इन्हें गाकर मनोभाव व्यक्त करती है। -सं.)  बंबुलिया का ताना-बाना मात्रिक है, परंतु वार्णिक अर्हताएँ भी हैं। इनमें चार पद होते हैं। प्रथम पद में १४ मात्राएँ  होती हैं जो पंक्ति के पहले 'अरे' जोड़ने से १७ हो जाती हैं। दूसरे पद में प्रथम पद की अंतिम ९ मात्राएँ लेकर ८ मात्राएँ नई जोड़ी जातीं हैं। तीसरे पद में १०  या १२ मात्राएँ होती हैं, चौथे पद में प्रथम पद की पुनरावृत्ति होती है। प्रथम पद नगण से प्रारंभ तथा दूसरी अर्धाली के अंत में गुरु (स) की उपस्थिति लालित्य प्रदान करती है। इसे बिना वाद्य के भी गाया जाता है। यात्रा में, खेत-खलिहान में तथा तीजा आदि उत्सवों पर गायक दो दलों में बँटकर बंबुलिया गाते हैं। बंबुलिया गीत यू ट्यूब पर भी उपलब्ध हैं। अधिक आनंद तब आता है जब महिलाओं व पुरुषों के प्रतिस्पर्धी दल हों:
- दरस की अरे, बेरा तो भई, बेरा तो भई, रेsss  पट खोलो, छबीले महराज हो, दरस की –
-  नरबदा मइया! ऐसी तो मिली रे, ऐसी तो मिली, जैसे मिले मतारी अरु बाप रेsss . नरबदा मैया हो
३.२ दिवारी:  बुंदेलखंड की गाथाओं को इसी श्रेणी में लिया जाता है. बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में चरवाही लोकगाथाएँ वाचिक परंपरा में आईं। वे प्राकृत की ‘गाहा’ यानि ‘गाथा’ पर आधारित हैं। संक्षिप्त आख्यान ‘गहनई’ कहा जाता है, जिसमें कन्हैया और गोपी की गाथा है। गहनई चौदहवीं सदी के आस-पास की मानी गयी हैं, कारसदेव और धर्मा साँवरी की गाथाएँ ‘गाहा’ के रूप में हैं जबकि उसके बाद की गहनई में दिवारी गीतों का लोक छंद अपनाया गया है। दिवारी-गीत नृत्य के साथ गाए जाते हैं जिनमें मोनिया नृत्य, जबाबी दिवारी और कछियानी दिवारी (गहनई का रूप) प्रमुख है।आमतौर पर इसमें दोहे होते है, कहीं-कहीं बीच में रसिया भी गाए जाते हैं:
- सदा भवानी दाहिने, सनमुख खड़े गणेश।
तीन देवता रक्षा करें, ब्रिम्हा बिस्नु महेस। (सुमरनी दिवारी)
-  ब्रिंदाबन की गैल में, इक पीपर इक आम।
जे तरे बैठे दो जने, इक राधा इक श्याम। ( मोनिया नृत्य, कन्हैया कैसेट टीकमगढ़ से)
- राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट।
अंत काल पछिताओगे, प्रान जाएँगे छूट। (अहीर नृत्य, सागर)
- राधा तू बड़भागिनी, कौन तपस्या कीन?
तीन लोक चौदह भुवन, सब तेरे आधीन। (कछियानी दिवारी, रसिया के बीच दोहा)
४. अन्य गीत:
इन गीतों में बुंदेलखंड की बहुविध झाँकिया दिखाई देती हैं। धर्म-आध्यात्म (भजन), घर-परिवार, आपसी नोंक-झोंक, बाल-गीत, लोरियाँ, खेल-गीत, नौरता, चक्की से नाज पीसती गातीं महिलाएँ (प्रभाती, हरबोले), खेतों में काम करते मेहनतकश लोग (बिलवारी), बदलते मौसम के गीत, कजली (कजरी), सैरा, ढिमरहाई (ढीमरों के लोकगीत), धुबियाई, (धोबियों के लोकगीत), मछरहाई (मछुआरों के लोकगीत) ,लुहरयाई (लुहारों के गीत), गाँव की चौपाल, गम्मत, आल्हा, अटका आदि अनेक प्रकार के लोकगीत वीर-प्रसू बुंदेली माटी और जन-मन को रस-सिक्त करते रहते हैं।
४.१ आल्हा:
वीरों का छंद आल्हा बुंदेलखंड की ही देन है। इसे वीर और लावणी (महाराष्ट्र में) भी कहा जाता है। आल्हा ‘सत’ और ‘पत’ पर मर मिटनेवाले बुंदेली वीरों का आख्यान है। आल्हा में १६-१५ मात्राओं पर यति होती है। पदांत में ताल (SI) आवश्यक है। जगनिक का ‘आल्ह-खंड’ एक प्रबंध काव्य है, जिसमें महोबा के कालजयी महावीर द्वय आल्हा-ऊदल के वीर चरित का विस्तृत वर्णन है। (आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया बिन सें हार गयी तलवार -सं.) आल्हा बहुत ओज-पूर्ण छंद है, मेघ-गर्जन के साथ अल्हैतों (आल्हा-गायकों) का अंग-अंग फड़कने लगता है और श्रोताओं की हृदय गति बढ़ती जाती है और सुनाई देती है वीर-हुंकार:
बारह बरिस लों कूकर जिए, औ' तेरह लों जिए सियार।
बरिस अठारह छत्री जिए, आगे जीवन को धिक्कार।।
अपनी दीर्घ कालयात्रा में इन लोकगीतों का बहुत कुछ कलेवर बदल गया है, भाषा भी, कथ्य भी, सुनने वाले भी, सुनाने वाले भी। साहित्यिक रूप में सुरक्षित-संरक्षित न रहने पर भी जन-जन के कंठ का हार बने इन लोकगीतों की ध्वनियाँ-प्रतिध्वनियाँ अनेक बल खातीं हुईं अब तक चलीं आ रहीं हैं। अंत में; लोकगीतों-विशेषत; संस्कार गीतों के संबंध  में दो बातें प्रस्तुत कर इस आलेख को समाप्त करना चाहता हूँ।
१. संस्कार गीतों का अपना पैमाना होता है, उन्हें मापने के लिए दिल चाहिए, दिमाग नहीं। अग्रज आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' छंदशास्त्र पर महत्वपूर्ण, बृहद, मौलिक कार्य कर और करा रहे हैं। इन संस्कार गीतों को छंद-शास्त्र की कसौटी पर कसने कर इनके रचना-मानक निर्धारण की दिशा में सचेष्ट हैं। ऐसा करने का उद्देश्य लोकगीतों में अन्तर्निहित छंदों को पिंगलीय छंदों  के साथ जोड़ना है। वे ऐसा कर सके तो इन्हें स्थायित्व तथा पिंगल को विपुल नव छंद मिल सकेंगे।
२. संस्कार-गीत घर-परिवार की महिलाओं की थाती हैं। अवसर विशेष पर स्व-स्फूर्त वे प्रमुदित होकर गाने लगती हैं और वातावरण को अनुकूल बनातीं हैं। शनै:-शनै: यह परंपरा विलुप्त होती जा रही है। कहीं ऐसा न हो कि, राजपूताने की
रुदालियों जैसी बुंदेलखंड में बधावा और ब्याब पर बाहर से गानेवाली लाना पड़ें।
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संपर्क: २०१ शास्त्री नगर,गढ़ा, जबलपुर. चलभाष: ९३००१०४२९६, ७०००३८८३३२, ईमेल: pawarss2506@gmail.com
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शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

bundeli laghu kathaen- surendra singh pawar


बुन्देली लघु कथाएँ 
सुरेन्द्र सिंह पवार 


१. जबाबी पोस्टकार्ड
सागर वारे भैय्या, व्हीकल फेक्ट्री, जबलपुर मा काम करत हते। बे हर महीना मनीआर्डर से रुपैए भेजत हते, संगे एक ठइयां जबाबी पोस्ट कार्ड सोई पठात हते, जौन में रुपैया कौन-कौन मद में कित्तो-कित्तो खरच करने है सोई लिख देत हते। खरच सेन बचे रुपैया गाँव में रहबे बारे छोटे भैया चन्द्र भान को देब खातिर लिखो रहत तो। भौजी खों करिया अक्छर भैंसिया बरोबर हतो सो वे कौनऊ सें चिठिया बचबाबे खें बाद जबाब लिखाउत हतीं ‘सुन करिया! (भौजी गोरी-चिट्टी थीं और भैया काले-कलूटे) तुमने भेजे दो सौ रुपैया। सो आधेलग गए पप्पू (उनका पुत्र) की दवा-दारु में। सुनो, बो ने खात है, ने पियत है। कनकने वैद कैत हते “सूखो रोग आय—होत-होत ठीक हुइये। ” अब बाकी बचे रुपइयों में नोन-तेल-लकडियें और दूधवारे की उधारी, हाथ में आहें बीस रुपइया, सो का ओढहें, का बिछाहें. रोज की साग-सब्जी और ऊपर के खर्चा , नास हो जाए जे चंद्रभान की, अब ओए रुपइया कहाँ से देहें?—चलो, एक काम करत हें। बाहर दरवाजे पे खुटिया ठुकी है, ओये हिलावें से रुपइया झरहें- सो बेई चंद्रभान खों दे देहें.’
भौजी चिट्ठी के अंत में कुछ भावुक हो जातीं और यह लिखना ण भूलतीं -‘जब टेम मिले सो आ जइयो, पप्पू बेजा याद करत है. और सुनो, “ लौटत बेर कटंगी कें रसगुल्ला सोई लेत अइयो अपने घाईं करिया-करिया’ 
***
२. माँ
हमाए घर के नजीके वृध्दाश्रम आय. उते की रहबेबारी एक डुकरो दाई मेहरारू कने आत-जात हती। बे गहूं बीनने, पापड़-बड़ी सुखाने जैसे छोटे-छोटे कामों में श्रीमती की मदद करत हतीं। एक दिना संझा बेर आईं और कैन लगीं “राम- राम भैय्या, बिटिया! हलकान ने हुइयो. हम चाय ने पीहें। ”
‘राम- राम अम्मा, काय! चाय काय ने पीहो?’हमने पूछी। 
डुकरो नें कई“आज हरछठ उपासे हैं, एक बेर महुआ डरी चाय पी लई है, अब ने पी हैं।”
मोसें रुको नई गाओ, तुरतई बोल परो ‘अम्मा! बेटा-बहू ताका खों नई पूछत आंय, बीमारी सोई नें देखी, परदेस में पटक गओ और तुमबाके काजे हरछठ का उपवास करहो, कौन माटी की बनी हो?’
डुकरो खों ऐसी उम्मीद ना हती, सो पल भर चुप रै गईं, फिर धीरे सें बोलीं 'बाकी करनी बाके साथ मनो हम तो माँ आंय। 
***
३. इंसानियत 
गरमी के दिन हते, भरी दुपरिया सड़क किनाए हाथ-ठेले पे ताजे फल दिखाने सो खरीदाबे खातिर लोग जुटन लगे। ओई टैम एक नओ दम्पति पौंचे। जननी केन माथे पर छलकता पसीना बता रओ हतो के बे पैर-पैदल चले आत आंय। जनानी नें आतई ठांडे होबे खातिर ठेले का सहारा लओ और ओ पे बंधे मैले-कुचैले छाजन में सर छिपाबे की कोसिस कारन लगी। बाकी कातर निगाहें कबऊ फलवाले पे टिकतीं कबऊ घरवाले पे। फलवाले ने बाकी परेसानी देखी तो ठंडा हो गाओ और अपनो स्टूल बाको बैठबे खातिर देन लगो, मनो लडखडान लगो तो ठेले का सहारा ले के सम्हर गओ। सब औरन ने देखो ओको एक पैरई ना हतो। 
अपनी मुस्किल भूल खें औरन की मदद करबे के लाने तैयार ठेलेबारे की इंसानियत देख सब प्रसंसा करन लगे। 
***
४. नर्मदा मैया की जय
बरगी बाँध और नहरें तैया भईं।नहरों से पहली-पहली बार सिंचाई का पानी छोड़ने हतो। नाहर के सिंचाई क्षेत्र में ज्वार, बाजार, मका की फसलें हतीं। छोटे किसानण खों खेतों में रबी फसल की लगाबे लाने हौसला दओ जा रओ हतो। जमुनियाखड़े के परधान कोंडीलाल राय से बात भई तो वे तो एकदम उबल पड़े, बोले,-“साब!आप भरम में भूले हो, तुम्हाही जे नहरें-वहरें कछु ने चल पें हें, समझ लो, मैया कुंवारी हें, उनखों अबे तक कोऊ नहीं रोक पाओ, ने सोनभदर, ने सहसबाहू, जो तुमाओ बाँध कैसे बच हे? भगवानई जानें। ”
-दद्दू! आप ठीक कैत हो, मनो नर्मदा मैया ने किरपा की और नहरों के रास्ते खेतान माँ पौंच गईं तो का करहो?'
_“देखहें!” बिनने टालबे काजे कै दई। नियत दिना जब जमुनिया की नहरों में जल बहन लगो तो बाजे–गाजे के साथ “नर्मदा मैया की जय” बोलत भए गाँववारन के संगे सबसें आगू खड़े हते परधान कोंडी लाल राय। 
***
सुरेन्द्र सिंह पंवार/ 201, शास्त्रीनगर, गढ़ा,जबलपुरम(म.प्र.)/9300104296/email- pawarss2506@gmail.com

बुधवार, 25 मई 2016

samiksha

पुस्तक समीक्षा-  
काल है संक्राति का
                                                                                                                                                                                    - सुरेन्द्र सिंह पॅवार
[कृति- काल है संक्राति का, ISBN 817761000-7, गीत-नवगीत संग्रह, कृतिकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल, प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन, 204 अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001, मूल्य - 200/-]
                                                                               *
                   ‘काल है संक्रांति का’  'सलिल' जी की दूसरी पारी का प्रथम गीत-नवगीत संग्रह है।  ‘सलिल’ जी की शब्द और छन्द के प्रति अटूट निष्ठा है। हिन्दी पञ्चांग और अंग्रेजी कलेण्डर में मकर संक्रांति एक ऐसा पर्व है जो प्रतिवर्ष चौदह जनवरी को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। इसी दिन से शिशिर ऋतु का एवं उत्तरायण का प्रारंभ माना गया है। इसी के आसपास, गुजरात में पतंगोत्सव, पंजाब में लोहड़ी, तामिलनाडु में पोंगल, केरल में अयप्पा दर्शन, पूर्वी भारत में बिहू आदि पर्वों की वृहद श्रृंखला है जो ऋतु परिवर्तन को लोक पर्व के रूप में मनाकर आनंदित होती है। भारत के क्षेत्र में पवित्र नदियों एवं सरोवरों के तट पर स्नान दान और मेलों की परम्परा है।

                   संग्रह के ज्यादातर नवगीत 29 दिसम्बर 2014 से 22 जनवरी 2015 के मध्य रचे गये हैं। यह वह संक्रांति काल है, जब दिल्ली में ‘आप’ को अल्पमत और केजरीवाल द्वारा सरकार न चलाने का जोखिम भरा निर्णय, मध्यप्रदेश सहित कुछ अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में भाजपा को प्रचंड बहुमत तथा केन्द्र में प्रधानमंत्री मोदी जी की धमाकेदार पेशवाई से तत्कालीन राजनैतिक परिदृश्य बदला-बदला सा था। ऐसे में कलम के सिपाही ‘सलिल’ कैसे शांत रहते? उन्हें विषयों का टोटा नहीं था, बस कवि-कल्पना दौड़ाई और मुखड़ों-अंतरों की तुकें मिलने लगी। सलिल जी ने गीत नर्मदा के अमृतस्य जल को प्रत्यावर्तित कर नवगीतरूपी क्षिप्रा में प्रवाहमान, किया, जिसमें अवगाहन कर हम जैसे रसिक श्रोता / पाठक देर तक और दूर तक गोते लगा सकते हैं । कहते है, नवगीत गीत का सहोदर है, जो अपनी शैली आप रचकर काव्य को उद्भाषित करता है । सलिल - संग्रह के सभी गीत नवगीत नहीं हैं परन्तु जो नवगीत हैं वे तो गीत हैं ही ।

                   डॉ. नामवरसिंह के अनुसार ‘‘नवगीत अपने नये रूप’ और ‘नयी वस्तु’ के कारण प्रासंगिक हो सका हैं ।’’ क्या है नवगीत का ‘नया रूप’’ एवं ‘नयी वस्तु’? बकौल सलिल - 
नव्यता संप्रेषणों में जान भरती, 
गेयता संवेदनों का गान करती।
कथ्य होता, तथ्य का आधार खाँटा,
सधी गति-यति अंतरों का मान करती।
अंतरों के बाद, मुखड़ा आ विहँसता,
मिलन की मधु बंसरी, है चाह संजनी।
सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती,
मर्म बेधकता न हो तो रार ठनती।
लाक्षणिता भाव, रस, रूपक सलोने,
बिम्ब टटकापन मिलें, बारात सजती।
नाचता नवगीत के संग, लोक का मन
ताल-लय बिन, बेतुकी क्यों रहे कथनी।।

                   वैसे गीत में आने वाले इस बदलाव की नव्यता की सूचना सर्वप्रथम महाकवि निराला ने ‘‘नवगति नवलय, ताल छन्द नव’’ कहकर बहुत पहले दे दी थी । वास्तव में, नवगीत आम-आदमी के जीवन में आये उतार-चढ़ाव, संघर्ष-उत्पीड़न, दुख-तकलीफ-घुटन, बेकारी, गरीबी और बेचारगी की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है ।

                सलिल जी के प्रतिनिधि नवगीतों के केन्द्र में वह आदमी है, जो श्रमजीवी है, जो खेतों से लेकर फैक्ट्रियों तक खून-सीना बहाता हुआ मेहनत करता है, फिर भी उसकी अंतहीन जिंदगी समस्याओं से घिरी हुई हैं, उसे प्रतिदिन दाने-दाने के लिए जूझना पड़ता है । ‘मिली दिहाड़ी’ नवगीत में कवि ने अपनी कलम से एक ऐसा ही दृश्य उकेरा है -

चाँवल-दाल किलो भर ले ले
दस रुपये की भाजी।
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया-मिर्ची ताजी।

तेल पाव भर फल्ली का
सिंदूर एक पुड़िया दे-
दे अमरुद पाँच का, बेटी की
न सहूँ नाराजी

खाली जेब पसीना चूता,
अब मत रुक रे मन बेजार ।
मिली दिहाड़ी, चल बाजार ।।

                   नवगीतों ने गीत को परम्परावादी रोमानी वातावरण से निकालकर समष्टिवादी यथार्थ और लोक चेतना का आधार प्रदान करके उसका संरक्षण किया है। सलिल जी के ताजे नवगीतों में प्रकृति अपने समग्र वैभव और सम्पन्न स्वरूप में मौजूद है। दक्षिणायन की हाड़ कँपाती हवाएँ हैं तो खग्रास का सूर्यग्रहण भी है । सूर्योदय पर चिड़िया का झूमकर गाया हुआ प्रभाती गान है तो राई-नोन से नजर उतारती कोयलिया है -

ऊषा किरण रतनार सोहती ।
वसुधा नभ का हृदय मोहती ।
कलरव करती मुनमुन चिड़िया
पुरवैया की बाट जोहती ।।

गुनो सूर्य लाता है
सेकर अच्छे दिन ।।

                   सलिल जी ने नवगीतों में सामाजिक-राजनैतिक विकृतियों एवं सांस्कृतिक पराभवों की काट में पैनी व्यंजक शैली अपनाते हुए अपनी लेखनी को थोड़ा टेढ़ा किया है । ‘शीर्षासन करती सियासत’, ‘नाग-साँप फिर साथ हुए’, ‘राजनीति तज दे तन्दूर’, ‘गरीबी हटाओ की जुमलेबाजी’, ‘अच्छे दिन जैसे लोक लुभावन नारे धारा तीन सौ सत्तर, काशी-मथुरा-अवध जैसे सभी विषय इन नवगीतो में रूपायित हुए हैं -

मंजिल पाने साथ चले थे
लिये हाथ में हाथ चले थे
दो मन थे, मत तीन हुए फिर
ऊग न पाये, सूर्य ढले थे

जनगण पूछे
कहेंः 'खैर है'

अथवा

हम में हर एक तीसमारखाँ 
कोई नहीं किसी से कम।
हम आपस में उलझ-उलझ कर
दिखा रहे हैं अपनी दम।
देख छिपकली डर जाते पर
कहते डरा न सकता यम।
आँख के अंधे, देख न देखें
दरक रही है दीवारें।

                   देखा जा रहा है कि नवगीत का जो साँचा आज ये 60-65 वर्ष पूर्व तैयार किया गया था, कुछ नवगीतकार उसी से चिपक कर रह गये हैं। आज भी वे सीमित शब्द, लय और बिम्बात्मक सम्पदा के आधार पर केवल पुनरावृत्ति कर रहे हैं। सलिल जी जैसे नवगीतकार ही हैं, जो लीक से हटने का साहस जुटा पा रहे हैं, जो छंद को भी साध रहे हैं और बोध को भी सलिल जी के इन नवगीतों में परम्परागत मात्रिक और वर्णिक छंदों का अभिनव प्रयोग देखा गया है विशेषकर दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्हा और सवैया का । इनमें लोक से जुड़ी भाषा है, धुन है, प्रतीक हैं। इनमें चूल्हा-सिगड़ी है, बाटी-भरता-चटनी है, लैया-गजक है, तिल-गुड़ वाले लडुआ हैं, सास-बहू, ननदी-भौनाई के नजदीकी रिश्ते हैं, चीटी-धप्प, लँगड़ी, कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम हैं, रमतूला , मेला, नौटंकी, कठपुतली हैं। ‘सुन्दरिये मुंदरिये, होय’, राय अब्दुला खान भट्टी उर्फ दुल्ला भट्टी की याद में गाये जाने वाला लोहड़ी गीत है, ईसुरी की चौकड़िया फाग पर आधारित -

‘मिलती काय ने ऊँचीवारी, कुर्सी हमखों गुंइया है’।

                   सलिल जी के इन गीतों / नवगीतों को लय-ताल में गाया जा सकता है, ज्यादातर तीन से चार बंद के नवगीत हैं। अतः, पढ़ने-सुनने में बोरियत या ऊब नहीं होती। इनमें फैलाव था विस्तार के स्थान पर कसावट है, संक्षिप्तता है। भाषा सहज है, सर्वग्राही है। कई बार सूत्रों जैसी भाषा आनंदित कर देती है। जैसे कि, भवानी प्रसाद तिवारी का एक सुप्रसिद्ध गीत है- ‘‘मनुष्य उठ! मनुष्य को भुजा पसार भेंट ले।’’ अथवा इसी भावभूमि कर चन्द्रसेन विराट का गीत है - ‘‘मिल तो मत मन मारे मिल, खुल कर बाँह पसारे मिल’’ सलिल जी ने भावों के प्रकटीकरण में ‘भुजा-भेंट’ का प्रशस्त - प्रयोग किया है। 

                   सलिल द्वारा सूरज के लिए ‘सूरज बबुआ’ का जो सद्य संबोधन दिया है वह आने वाले समय में ‘‘चन्दा मामा’’ जैसी राह पकडे़गा। मिथकों के सहारे जब सलिल के सधे हुए नवगीत आगे बढ़ते हैं तो उनकी बनक उनकी रंगत और उनकी चाल देखते ही बनती है -

अब नहीं है वह समय जब
मधुर फल तुममें दिखा था।
फाँद अम्बर पकड़ तुमको
लपककर मुँह में रखा था।
छा गया दस दिशा तिमिर तब
चक्र जीवन का रुका था।
देख आता वज्र, बालक
विहँसकर नीचे झुका था।

हनु हुआ घायल मगर
वरदान तुमने दिये सूरज।

                   और एक बात, सलिल जी नवगीत कवि के साथ-साथ प्रकाशक की भूमिका में भी जागरूक दिखाई दिये, बधाई। संग्रह का आवरण एवं आंतरिक सज्जा उत्कृष्ट है। यदि वे चाहते तो कृति में नवगीतों, पुनर्नवगीतों; जिनमें नवगीतों की परम्परा से इतर प्रयोग हैं और गीतों को पृथक-प्रखंडित करने एवं पाँच गीतों, नवगीतों, वंदन, स्तवन, स्मरण, समर्पण और कथन की सुदीर्घ काव्यमय आत्म कथ्य को सीमित करने का संपादकीय जोखिम अवश्य उठा सकते थे। सलिल जी ने अपने सामाजिक स्तर, आंचलिक भाषा, उपयुक्त मिथक, मुहावरों और अहानो (लोकोक्तियों) के माध्यम से व्यक्तिगत विशिष्टाओं का परिचय देते हुए हमें अपने परिवेश से सहज साक्षात्कार कराया है, इसके लिये वे साधुवाद के पात्र हैं।

                   ‘उम्मीदों की फसल उगाते’ और ‘उजियारे की पौ-बारा’ करते ये नवगीत नया इतिहास लिखने की कुब्बत रखते हैं। ये तो शुरूआत है, अभी उनके और-और स्तरीय नवगीत संग्रह आयेंगे, यही शुभेच्छा है।
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