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शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

सराइकी दोहा

सराइकी दोहा:
भाषा विविधा:
दोहा सलिला सिरायकी :
संजीव
[सिरायकी पाकिस्तान और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में बोले जानेवाली लोकभाषा है. सिरायकी का उद्गम पैशाची-प्राकृत-कैकई से हुआ है. इसे लहंदा, पश्चिमी पंजाबी, जटकी, हिन्दकी आदि भी कहा गया है. सिरायकी की मूल लिपि लिंडा है. मुल्तानी, बहावलपुरी तथा थली इससे मिलती-जुलती बोलियाँ हैं. सिरायकी में दोहा छंद अब तक मेरे देखने में नहीं आया है. मेरे इस प्रथम प्रयास में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है. जानकार पाठकों से त्रुटियाँ इंगित करने तथा सुधार हेतु सहायता का अनुरोध है.]
*
बुरी आदतां दुखों कूँ, नष्ट करेंदे ईश।
साडे स्वामी तुवाडे, बख्तें वे आशीष।।
*
रोज़ करन्दे हन दुआ, तेडा-मेडा भूल।
अज सुणीज गई हे दुआं,त्रया-पंज दा भूल।।
*
दुक्खां कूँ कर दूर प्रभु, जग दे रचनाकार।
डेवणवाले देवता, वरण जोग करतार।।
*
कोई करे तां क्या करे, हे बदलाव असूल।
कायम हे उम्मीद पे, दुनिया कर के भूल।।
*
शर्त मुहाणां जीत ग्या, नदी-किनारा हार।
लेणें कू धिक्कार हे, देणे कूँ जैकार।।
*
२९.५.२०१५

गीत मेरे भैया

भाई दूज पर विशेष रचना :
मेरे भैया
संजीव 'सलिल'
*
मेरे भैया!,
किशन कन्हैया...
*
साथ-साथ पल-पुसे, बढ़े हम
तुमको पाकर सौ सुख पाये.
दूर हुए एक-दूजे से हम
लेकिन भूल-भुला न पाये..
रूठ-मनाने के मधुरिम दिन
कहाँ गये?, यह कौन बताये?
टीप रेस, कन्ना गोटी है कहाँ?
कहाँ है 'ता-ता थैया'....
*
मैंने तुमको, तुमने मुझको
क्या-क्या दिया, कौन बतलाये?
विधना भी चाहे तो स्नेहिल
भेंट नहीं वैसी दे पाये.
बाकी क्या लेना-देना? जब
हम हैं एक-दूजे के साये.
भाई-बहिन का स्नेह गा सके
मिला न अब तक कोई गवैया....
*
देकर भी देने का मन हो
देने की सार्थकता तब ही.
तेरी बहिना हँसकर ले-ले
भैया का दुःख विपदा अब ही..
दूज-गीत, राखी-कविता संग
तूने भेजी खुशियाँ सब ही.
तेरी चाहत, मेरी ताकत
भौजी की सौ बार बलैंया...
*****
संजीव
९४२५१८३२४४

मुक्तक

मुक्तक 
संजीव 
*
वामन दर पर आ विराट खुशियाँ दे जाए
बलि के लुटने से पहले युग जय गुंजाए
रूप चतुर्दशी तन-मन निर्मल कर नव यश दे
पंच पर्व पर प्राण-वर्तिका तम पी पाए
*

छंद, सवैया

एक सवैया छंद
*
विदा दें, बाद में बात करेंगे, नेता सा वादा किया, आज जिसने
जुमला न हो यह, सोचूँ हो हैरां, ठेंगा दिखा ही दिया आज उसने
गोदी में खेला जो, बोले दलाल वो, चाचा-भतीजा निभाएं न कसमें
छाती कठोर है नाम मुलायम, लगें विरोधाभास ये रसमें
*

मुक्तक

मुक्तक
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
फूल अंग्रेजी का मैं,यह जानता
फूल हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
सांस ही मानो गले अटका रही
*

नवगीत: नेता

नवगीत: 
नेता 
संजीव 
*
ज़िम्मेदार
नहीं है नेता
छप्पर औरों पर
धर देता
वादे-भाषण
धुआंधार कर
करे सभी सौदे
उधार कर
येन-केन
वोट हर लेता
सत्ता पाते ही
रंग बदले
यकीं न करना
किंचित पगले
काम पड़े
पीठ कर लेता
रंग बदलता
है पल-पल में
पारंगत है
बेहद छल में
केवल अपनी
नैया खेता
***

नवगीत

नवगीत:
सुख-सुविधा में
मेरा-तेरा
दुःख सबका
साझा समान है
पद-अधिकार
करते झगड़े
अहंकार के
मिटें न लफ़ड़े
धन-संपदा
शत्रु हैं तगड़े
परेशान सब
अगड़े-पिछड़े
मान-मनौअल
समाधान है
मिल-जुलकर जो
मेहनत करते
गिरते-उठते
आगे बढ़ते
पग-पग चलते
सीढ़ी चढ़ते
तार और को
खुद भी तरते
पगतल भू
करतल वितान है
***
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर

नवगीत

नवगीत :
देव सोये तो
सोये रहें
हम मानव जागेंगे
राक्षस
अति संचय करते हैं
दानव
अमन-शांति हरते हैं
असुर
क्रूर कोलाहल करते
दनुज
निबल की जां हरते हैं
अनाचार का
शीश पकड़
हम मानव काटेंगे
भोग-विलास
देवता करते
बिन श्रम सुर
हर सुविधा वरते
ईश्वर पाप
गैर सर धरते
प्रभु अधिकार
और का हरते
हर अधिकार
विशेष चीन
हम मानव वारेंगे
मेहनत
अपना दीन-धर्म है
सच्चा साथी
सिर्फ कर्म है
धर्म-मर्म
संकोच-शर्म है
पीड़ित के
आँसू पोछेंगे
मिलकर तारेंगे
***
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

अभियान जबलपुर



अभियान जबलपुर : एक परिचय 

२० अगस्त १९७३ को समन्वय अभियान जबलपुर संस्था का गठन १६२० कोतवाली वार्ड, राजा सागर मार्ग, जबलपुर में किया गया। संथा का उद्देश्य साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ कर सदस्यों की प्रतिभा का विकास करने हेतु विधान सम्मत गतिविधियाँ संचालित करना निश्चित किया गया। संस्था के संरक्षक श्री राजबहादुर वर्मा (अब स्व.), सुश्री आशा वर्मा, इंजी. संजीव वर्मा 'सलिल', इंजी. अशोक नौगरइया, श्री राजेश वत्सल (अब स्व.) बने। संस्था ने मासिक गोष्ठियों के माध्यम से नगर के बुद्धिजीवियों का आशीष और युवाओं का अकल्पनीय सहयोग पाया। संस्था का पंजीयन क्रमांक जे जे ३८९० है। 
  
महाकवि रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', डॉ. जवाहल  लाल चौरसिया 'तरुण', डॉ. पूनमचंद्र तिवारी, डॉ. सत्यनारायण प्रसाद, राजेंद्र तिवारी, आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, सुधारानी श्रीवास्तव, डॉ. छाया राय, विश्वनाथ दुबे, डॉ. चित्रा चतुर्वेदी, के. बी. सक्सेना, डॉ. सुमित्र, मोहन शशि, आशा रिछारिया, आचार्य भगवत दुबे, मनमोहन दुबे, सुभाष पांडे, मनमोहन दुबे, इंजी. मुरलीधर दुबे,   रामेन्द्र तिवारी, डॉ. गार्गीशरण मिश्र, साधना उपाध्याय, डॉ. अनामिका तिवारी, छाया त्रिवेदी, जगदीश किंजल्क, श्यामा शांडिल्य, किरण दुबे, आशा जड़े, उषा नावलेकर, इंजी गोपाल कृष्ण चौरसिया मधुर, इंजी सुरेंद्र पवार, इंजी शिव कुमार चौबे, रत्न ओझा, नलिन सूर्यवंशी, दुर्गेश ब्योहार, संध्या श्रुति, विजय किसलय,  निर्मल अग्रवाल, हरी ठाकुर, गिरीश पंकज, चेतन भारती, डॉ, विनय पाठक  आदि ने संस्था को समय-समय पर महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया।   

25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 आपातकाल के दौरान डॉ. रामजी सिंह के मार्गदर्शन में संस्था ने जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति संबंधी अनेक आयोजन किये जिन्हें सर्व स्व. दादा धर्माधिकारी, द्वारकाप्रसाद मिश्र, सत्येंद्र मिश्रा,गणेश प्रसाद नायक, ब्योहार राजेंद्र सिंह, कालिकाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर', बाबूराव परांजपे, बद्रीनाथ गुप्ता, बल्लभदास जैन, निर्मल चंद्र जैन, भगवती धर बाजपेयी, प्रभाकर रुसिआ आदि का आशीष और सहयोग मिला। लोकनायक व्याख्यानमाला के अंतर्गत डॉ. रामजी सिंह, सुब्बाराव जी, यदुनाथ थत्ते, इंदुमती केलकर, मृणाल गोरे,  किशन पटनायक, के. पी. जाधव आदि विचारक व् चिंतकों ने प्रेरक सारगर्भित व्याख्यानों से राष्ट्रीय चेतना की अलख जलाने में महत्वपूर्ण मार्गदर्शन दिया।       

वर्ष १९९७ से अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण समारोह आरंभ किया गया जिसमें राष्ट्रीय भावधारा, पर्यावरण संरक्षण, दलितोद्धार, स्त्री विमर्श,  ग्राम्योत्थान आदि पर केंद्रित श्रेष्ठ साहित्य को पुरस्कृत किया गया। ये आयोजन जबलपुर, नैनपुर, मंडला, खंडवा, लखनऊ, नाथद्वारा, बेलगाम कर्णाटक आदि स्थानों पर आयोजित किये गए। इनमें पद्म भूषण आचार्य विष्णुकांत शास्त्री राजयपाल उत्तर प्रदेश, केदारनाथ सहन्नी राज्यपाल गोवा, पद्म श्री के.पी. सक्सेना व्यंग्य कर, पद्मश्री डॉ, एम्, सी राय महापौर लखनऊ, पद्म श्री नूर, नरेंद्र कोहली, नरेश सक्सेना, देवकीनंदन शांत, अमरनाथ, मनोज श्रीवास्तव, राजेश अरोरा शलभ, श्रीमती सीमा रिज़वी मंत्री उत्तर प्रदेश, श्री शिव कुमार श्रीवास्तव कुलपति सागर वि.वि., डॉ. जे पी शुक्ल कुलपति जबलपुर वि.वि., चद्रसेन विराट, भगवतीप्रसाद देवपुरा की उपस्थिति ने  गरिमा वृद्धि की। 

वर्ष २००० से २००९ तक दिव्य नर्मदा साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशनः किया गया।  इसके संपादन-संचालन में  डॉ. चित्रा चतुर्वेदी  जी, वीणा तिवारी जी, सुभाष पांडे जी, डॉ. गार्गीशरण मिश्र मराल जी, आशा वर्मा जी, डॉ. प्रभा ब्योहार जी, साधना वर्मा जी. मुरलीधर दुबे जी, लक्ष्मी शर्मा जी, विवेकरंजन जी, महेश किशोर शर्मा जी, निर्मल अग्रवाल जी का महत्वपूर्ण सहयोग रहा। अंतरजाल के आने पर इसे अंतर्जालीय पत्रिका का रूप दे दिया गया जिसे लगभग ३२ लाख  पाठक पढ़ चुके हैं। इसमें प्रतिदिन नई रचनाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। 

अभियान ने समय समय पर समन्वय प्रकाशन के माध्यम से अनेक पुस्तकें व् स्मारिकाएँ प्रकाशित की हैं। वर्ष २०१० में अंतर्जालीय गतिविधियों और अन्य देशों के हिंदी प्रेमियों को जोड़कर हिंदी व्याकरण-छंद शास्त्र का ज्ञान साझा करने के लिए विश्ववाणी हिंदी संस्थान को मूर्त रूप दिया गया। समय समय पर ब्लॉग, ऑरकुट, फेसबुक, वॉट्सऐप आदि पर तथा नगर में विश्ववाणी  अभियान द्वारा  साहित्यिक गोष्ठियाँ, परिचर्चाएँ, परिसंवाद आदि निरन्तर आयोजित किये जाते हैं जिनके माध्यम से सदस्यों की प्रतिभा संवर्धन, नयी-नयी विधाओं में सृजन, पुस्तक लेखन-प्रकाशन आदि में निरंतर मार्गदर्शन और सहयोग दिया जाता है। कोरोना काल में विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान ने सर्वप्रथम वाट्स ऐप पर दैनिक समय सारिणी निर्धारित कर  हिंदी साहित्य तथा कला की सभी विधाओं को समन्वित करते हुए सदस्यों को गतिशील बनाये रखा। राष्ट्रीय एकता और शक्ति कार्यक्रम के अंतर्गत विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान  कार्यक्रम समय-समय पर किये हैं। दिनांक  १७ मई २०२० को आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय एकता एवं शक्ति पर्व तथा डॉ. अनामिका तिवारी की अध्यक्षता में २० मई २०२० को राष्ट्र भक्ति पर्व के ओनलाइन आयोजन में ५ राज्यों से २८ साहित्यकारों ने सहभागिता की। 

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान की ६ राज्यों में सक्रिय इकाइयाँ तथा  सहयोगी संस्थाएँ स्वसेवा समिति सिहोरा, युवा उत्कर्ष समिति दिल्ली, अभियान लखनऊ आदि राष्ट्रीय एकता और शक्ति पर केंद्रित कई कार्यक्रम आगामी समय में करने  हैं जिनका उद्देश्य बाल, किशोर तथा युवा पीढ़ी में राष्ट्रीय एकता, सहिष्णुता,  समानता की  बीजारोपण कर उसे सशक्त बनाना है। 

आरती भारत माता की

भारत आरती
संजीव 
*
आरती भारत माता की
सनातन जग विख्याता की
*
सूर्य ऊषा वंदन करते
चाँदनी चाँद नमन करते
सितारे गगन कीर्ति गाते
पवन यश दस दिश गुंजाते
देवगण पुलक, कर रहे तिलक 
ब्रह्म हरि शिव उद्गाता की
आरती भारत माता की
*
हिमालय मुकुट शीश सोहे
चरण सागर पल पल धोए
नर्मदा कावेरी गंगा
ब्रह्मनद सिंधु करें चंगा
संत-ऋषि विहँस,  कहें यश सरस 
असुर सुर मानव त्राता की
आरती भारत माता की
*
करें श्रृंगार सकल मौसम
कहें मैं-तू मिलकर हों हम
ऋचाएँ कहें सनातन सच
सत्य-शिव-सुंदर कह-सुन रच
मातृवत परस, दिव्य है दरस  
अगिन जनगण सुखदाता की
आरती भारत माता की
*
द्वीप जंबू छवि मनहारी
छटा आर्यावर्ती न्यारी
गोंडवाना है हिंदुस्तान 
इंडिया भारत देश महान
दीप्त ज्यों अगन, शुद्ध ज्यों पवन 
जीव संजीव विधाता की
आरती भारत माता की
*
मिल अनल भू नभ पवन सलिल
रचें सब सृष्टि रहें अविचल
अगिन पंछी करते कलरव
कृषक श्रम कर वरते वैभव
अहर्निश मगन, परिश्रम लगन 
ज्ञान-सुख-शांति प्रदाता की
आरती भारत माता की
*
३०-१०-२०२०

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2020

सराइकी दोहा

सराइकी दोहा:
भाषा विविधा:
दोहा सलिला सिरायकी :
संजीव 
[सिरायकी पाकिस्तान और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में बोले जानेवाली लोकभाषा है. सिरायकी का उद्गम पैशाची-प्राकृत-कैकई से हुआ है. इसे लहंदा, पश्चिमी पंजाबी, जटकी, हिन्दकी आदि भी कहा गया है. सिरायकी की मूल लिपि लिंडा है. मुल्तानी, बहावलपुरी तथा थली इससे मिलती-जुलती बोलियाँ हैं. सिरायकी में दोहा छंद अब तक मेरे देखने में नहीं आया है. मेरे इस प्रथम प्रयास में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है. जानकार पाठकों से त्रुटियाँ इंगित करने तथा सुधार हेतु सहायता का अनुरोध है.]
*
बुरी आदतां दुखों कूँ, नष्ट करेंदे ईश। 
साडे स्वामी तुवाडे, बख्तें वे आशीष।।
*
रोज़ करन्दे हन दुआ, तेडा-मेडा भूल। 
अज सुणीज गई हे दुआं,त्रया-पंज दा भूल।।
*
दुक्खां कूँ कर दूर प्रभु, जग दे रचनाकार। 
डेवणवाले देवता, वरण जोग करतार।। 
*
कोई करे तां क्या करे, हे बदलाव असूल। 
कायम हे उम्मीद पे, दुनिया कर के भूल।।
*
शर्त मुहाणां जीत ग्या, नदी-किनारा हार। 
लेणें कू धिक्कार हे, देणे कूँ जैकार।।
*
२९.५.२०१५

नवगीत भाई दूज

भाई दूज पर विशेष रचना :
मेरे भैया
संजीव 'सलिल'
*
मेरे भैया!,
किशन कन्हैया...
*
साथ-साथ पल-पुसे, बढ़े हम
तुमको पाकर सौ सुख पाये.
दूर हुए एक-दूजे से हम
लेकिन भूल-भुला न पाये..
रूठ-मनाने के मधुरिम दिन
कहाँ गये?, यह कौन बताये?
टीप रेस, कन्ना गोटी है कहाँ?
कहाँ है 'ता-ता थैया'....
*
मैंने तुमको, तुमने मुझको
क्या-क्या दिया, कौन बतलाये?
विधना भी चाहे तो स्नेहिल
भेंट नहीं वैसी दे पाये.
बाकी क्या लेना-देना? जब
हम हैं एक-दूजे के साये.
भाई-बहिन का स्नेह गा सके
मिला न अब तक कोई गवैया....
*
देकर भी देने का मन हो
देने की सार्थकता तब ही.
तेरी बहिना हँसकर ले-ले
भैया का दुःख विपदा अब ही..
दूज-गीत, राखी-कविता संग
तूने भेजी खुशियाँ सब ही.
तेरी चाहत, मेरी ताकत
भौजी की सौ बार बलैंया...
*****
संजीव
९४२५१८३२४४
२९-१०-२०१९ 

मुक्तक

मुक्तक
विदा दें, बाद में बात करेंगे, नेता सा वादा किया, आज जिसने
जुमला न हो यह, सोचूँ हो हैरां, ठेंगा दिखा ही दिया आज उसने
गोदी में खेला जो, बोले दलाल वो, चाचा-भतीजा निभाएं न कसमें
छाती कठोर है नाम मुलायम, लगें विरोधाभास ये रसमें
*
२९-१०-२०१७

श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र

II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II
मूल पाठ-तद्रिन, हिंदी काव्यानुवाद-संजीव 'सलिल'
II ॐ II
II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II
नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते I
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II१II
सुरपूजित श्रीपीठ विराजित, नमन महामाया शत-शत.
शंख चक्र कर-गदा सुशोभित, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
नमस्ते गरुड़ारूढ़े कोलासुर भयंकरी I
सर्व पापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II२II
कोलाsसुरमर्दिनी भवानी, गरुड़ासीना नम्र नमन.
सरे पाप-ताप की हर्ता, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्ट भयंकरी I
सर्व दु:ख हरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II३II
सर्वज्ञा वरदायिनी मैया, अरि-दुष्टों को भयकारी.
सब दुःखहरनेवाली, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
सिद्धि-बुद्धिप्रदे देवी भुक्ति-मुक्ति प्रदायनी I
मन्त्रमूर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II४II
भुक्ति-मुक्तिदात्री माँ कमला, सिद्धि-बुद्धिदात्री मैया.
सदा मन्त्र में मूर्तित हो माँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
आद्यांतर हिते देवी आदिशक्ति महेश्वरी I
योगजे योगसंभूते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II५II
हे महेश्वरी! आदिशक्ति हे!, अंतर्मन में बसो सदा.
योग्जनित संभूत योग से, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
स्थूल-सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ति महोsदरे I
महापापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II६II
महाशक्ति हे! महोदरा हे!, महारुद्रा सूक्ष्म-स्थूल.
महापापहारी श्री देवी, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्ह स्वरूपिणी I
परमेशीजगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II७II
कमलासन पर सदा सुशोभित, परमब्रम्ह का रूप शुभे.
जगज्जननि परमेशी माता, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
श्वेताम्बरधरे देवी नानालंकारभूषिते I
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II८II
दिव्य विविध आभूषणभूषित, श्वेतवसनधारे मैया.
जग में स्थित हे जगमाता!, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
महा लक्ष्यमष्टकस्तोत्रं य: पठेद्भक्तिमान्नर: I
सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यंप्राप्नोति सर्वदा II९II
जो नर पढ़ते भक्ति-भाव से, महालक्ष्मी का स्तोत्र.
पाते सुख धन राज्य सिद्धियाँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
एककालं पठेन्नित्यं महापाप विनाशनं I
द्विकालं य: पठेन्नित्यं धन-धान्यसमन्वित: II१०II
एक समय जो पाठ करें नित, उनके मिटते पाप सकल.
पढ़ें दो समय मिले धान्य-धन, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
त्रिकालं य: पठेन्नित्यं महाशत्रु विनाशनं I
महालक्ष्मीर्भवैन्नित्यं प्रसन्नावरदाशुभा II११II
तीन समय नित अष्टक पढ़िये, महाशत्रुओं का हो नाश.
हो प्रसन्न वर देती मैया, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
II तद्रिन्कृत: श्री महालक्ष्यमष्टकस्तोत्रं संपूर्णं II
तद्रिंरचित, सलिल-अनुवादित, महालक्ष्मी अष्टक पूर्ण.
नित पढ़ श्री समृद्धि यश सुख लें, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
*******************************************
आरती क्यों और कैसे?
संजीव 'सलिल'
*
ईश्वर के आव्हान तथा पूजन के पश्चात् भगवान की आरती, नैवेद्य (भोग) समर्पण तथा अंत में विसर्जन किया जाता है। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। आरती करने ही नहीं, इसमें सम्मिलित होंने से भी पुण्य मिलता है। देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। आरती का गायन स्पष्ट, शुद्ध तथा उच्च स्वर से किया जाता है। इस मध्य शंख, मृदंग, ढोल, नगाड़े , घड़ियाल, मंजीरे, मटका आदि मंगल वाद्य बजाकर जयकारा लगाया जाना चाहिए।
आरती हेतु शुभ पात्र में विषम संख्या (1, 3, 5 या 7) में रुई या कपास से बनी बत्तियां रखकर गाय के दूध से निर्मित शुद्ध घी भरें। दीप-बाती जलाएं। एक थाली या तश्तरी में अक्षत (चांवल) के दाने रखकर उस पर आरती रखें। आरती का जल, चन्दन, रोली, हल्दी तथा पुष्प से पूजन करें। आरती को तीन या पाँच बार घड़ी के काँटों की दिशा में गोलाकार तथा अर्ध गोलाकार घुमाएँ। आरती गायन पूर्ण होने तक यह क्रम जरी रहे। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। आरती पूर्ण होने पर थाली में अक्षत पर कपूर रखकर जलाएं तथा कपूर से आरती करते हुए मन्त्र पढ़ें:
कर्पूर गौरं करुणावतारं, संसारसारं भुजगेन्द्रहारं।
सदावसन्तं हृदयारवंदे, भवं भवानी सहितं नमामि।।
पांच बत्तियों से आरती को पंच प्रदीप या पंचारती कहते हैं। यह शरीर के पंच-प्राणों या पञ्च तत्वों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव पंच-प्राणों (पूर्ण चेतना) से ईश्वर को पुकारने का हो। दीप-ज्योति जीवात्मा की प्रतीक है। आरती करते समय ज्योति का बुझना अशुभ, अमंगलसूचक होता है। आरती पूर्ण होने पर घड़ी के काँटों की दिशा में अपने स्थान पट तीन परिक्रमा करते हुए मन्त्र पढ़ें:
यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर कृतानि च।
तानि-तानि प्रदक्ष्यंती, प्रदक्षिणां पदे-पदे।।
अब आरती पर से तीन बार जल घुमाकर पृथ्वी पर छोड़ें। आरती प्रभु की प्रतिमा के समीप लेजाकर दाहिने हाथ से प्रभु को आरती दें। अंत में स्वयं आरती लें तथा सभी उपस्थितों को आरती दें। आरती देने-लेने के लिए दीप-ज्योति के निकट कुछ क्षण हथेली रखकर सिर तथा चेहरे पर फिराएं तथा दंडवत प्रणाम करें। सामान्यतः आरती लेते समय थाली में कुछ धन रखा जाता है जिसे पुरोहित या पुजारी ग्रहण करता है। भाव यह हो कि दीप की ऊर्जा हमारी अंतरात्मा को जागृत करे तथा ज्योति के प्रकाश से हमारा चेहरा दमकता रहे।
सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।
कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।
यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंति है कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
दीपमालिका का हर दीपक अमल-विमल यश-कीर्ति धवल दे......
शक्ति-शारदा-लक्ष्मी मैया, 'सलिल' सौख्य-संतोष नवल दें...
__________
नवगीत
*
मन-कुटिया में
दीप बालकर
कर ले उजियारा।
तनिक मुस्कुरा
मिट जाएगा
सारा तम कारा।।
*
ले कुम्हार के हाथों-निर्मित
चंद खिलौने आज।
निर्धन की भी धनतेरस हो
सध जाए सब काज।
माटी-मूरत,
खील-बतासे
है प्रसाद प्यारा।।
*
रूप चतुर्दशी उबटन मल, हो
जगमग-जगमग रूप।
प्रणय-भिखारी गृह-स्वामी हो
गृह-लछमी का भूप।
रमा रमा में
हो मन, गणपति
का कर जयकारा।।
*
स्वेद-बिंदु से अवगाहन कर
श्रम-सरसिज देकर।
राष्ट्र-लक्ष्मी का पूजन कर
कर में कर लेकर।
निर्माणों की
झालर देखे
विस्मित जग सारा।।
*
अन्नकूट, गोवर्धन पूजन
भाई दूज न भूल।
बैरी समझ कूट मूसल से
पैने-चुभते शूल।
आत्म दीप ले
बाल, तभी तो
होगी पौ बारा।।
***********
एक रचना
: पाँच पर्व :
*
पाँच तत्व की देह है,
ज्ञाननेद्रिय हैं पाँच।
कर्मेन्द्रिय भी पाँच हैं,
पाँच पर्व हैं साँच।।
*
माटी की यह देह है,
माटी का संसार।
माटी बनती दीप चुप,
देती जग उजियार।।
कच्ची माटी को पका
पक्का करती आँच।
अगन-लगन का मेल ही
पाँच मार्ग का साँच।।
*
हाथ न सूझे हाथ को
अँधियारी हो रात।
तप-पौरुष ही दे सके
हर विपदा को मात।।
नारी धीरज मीत की
आपद में हो जाँच।
धर्म कर्म का मर्म है
पाँच तत्व में जाँच।।
*
बिन रमेश भी रमा का
तनिक न घटता मान।
ऋद्धि-सिद्धि बिन गजानन
हैं शुभत्व की खान।।
रहें न संग लेकिन पूजें
कर्म-कुंडली बाँच।
अचल-अटल विश्वास ही
पाँच देव हैं साँच।।
*
धन्वन्तरि दें स्वास्थ्य-धनहरि दें रक्षा-रूप।
श्री-समृद्धि, गणपति-मति
देकर करें अनूप।।
गोवर्धन पय अमिय दे
अन्नकूट कर खाँच।
बहिनों का आशीष ले
पाँच शक्ति शुभ साँच।।
*
पवन, भूत, शर, अँगुलि मिल
हर मुश्किल लें जीत।
पाँच प्राण मिल जतन कर
करें ईश से प्रीत।।
परमेश्वर बस पंच में
करें न्याय ज्यों काँच।
बाल न बाँका हो सके
पाँच अमृत है साँच
*****
गीत:
दीप, ऐसे जलें...
संजीव 'सलिल'
दीप के पर्व पर जब जलें-
दीप, ऐसे जलें...
स्वेद माटी से हँसकर मिले,
पंक में बन कमल शत खिले।
अंत अंतर का अंतर करे-
शेष होंगे न शिकवे-गिले।।
नयन में स्वप्न नित नव खिलें-
दीप, ऐसे जलें...
श्रम का अभिषेक करिए सदा,
नींव मजबूत होगी तभी।
सिर्फ सिक्के नहीं लक्ष्य हों-
साध्य पावन वरेंगे सभी।।
इंद्र के भोग, निज कर मलें-
दीप, ऐसे जलें...
जानकी जान की खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।
दिल 'सलिल' से न बेदिल मिलें-
दीप, ऐसे जलें...
दीवाली के संग : दोहा का रंग
संजीव 'सलिल'
*
सरहद पर दे कटा सर, हद अरि करे न पार.
राष्ट्र-दीप पर हो 'सलिल', प्राण-दीप बलिहार..
*
आपद-विपदाग्रस्त को, 'सलिल' न जाना भूल.
दो दीपक रख आ वहाँ, ले अँजुरी भर फूल..
*
कुटिया में पाया जनम, राजमहल में मौत.
रपट न थाने में हुई, ज्योति हुई क्यों फौत??
*
तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..
*
दीप जला, जय बोलना, दुनिया का दस्तूर.
दीप बुझा, चुप फेंकना, कर्म क्रूर-अक्रूर..
*
चलते रहना ही सफर, रुकना काम-अकाम.
जलते रहना ज़िंदगी, बुझना पूर्ण विराम.
*
सूरज की किरणें करें नवजीवन संचार.
दीपक की किरणें करें, धरती का सिंगार..
*
मन देहरी ने वर लिये, जगमग दोहा-दीप.
तन ड्योढ़ी पर धर दिये, गुपचुप आँगन लीप..
*
करे प्रार्थना, वंदना, प्रेयर, सबद, अजान.
रसनिधि है रसलीन या, दीपक है रसखान..
*
मन्दिर-मस्जिद, राह-घर, या मचान-खलिहान.
दीपक फर्क न जानता, ज्योतित करे जहान..
*
मद्यप परवाना नहीं, समझ सका यह बात.
साक़ी लौ ले उजाला, लाई मरण-सौगात..
*
यह तन माटी का दिया, भर दे तेल-प्रयास।
'सलिल' प्राण-बाती जला, दस दिश धवल उजास ।।
***
२९-१०-२०१६

मुक्तक

मुक्तक 
वामन दर पर आ विराट खुशियाँ दे जाए
बलि के लुटने से पहले युग जय गुंजाए
रूप चतुर्दशी तन-मन निर्मल कर नव यश दे
पंच पर्व पर प्राण-वर्तिका तम पी पाए
*
२९-१०-२०१६ 

एक छंद

एक छंद
*
विदा दें, बाद में बात करेंगे, नेता सा वादा किया, आज जिसने
जुमला न हो यह, सोचूँ हो हैरां, ठेंगा दिखा ही दिया आज उसने
गोदी में खेला जो, बोले दलाल वो, चाचा-भतीजा निभाएं न कसमें
छाती कठोर है नाम मुलायम, लगें विरोधाभास ये रसमें
*

एक छंद

 एक छंद

राम के काम को, करे प्रणाम जो, उसी अनाम को, राम मिलेगा
नाम के दाम को, काम के काम को, ध्यायेगा जो, विधि वाम मिलेगा
देश ललाम को, भू अभिराम को, स्वच्छ करे इंसान तरेगा
रूप को चाम को, भोर को शाम को, पूजेगा जो, वो गुलाम मिलेगा
*
२९-१०-२०१६

मुक्तक

मुक्तक
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
फूल अंग्रेजी का मैं,यह जानता
फूल हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
सांस ही मानो गले अटका रही
*

नवगीत

नवगीत:

आओ रे!
मतदान करो
भारत भाग्य विधाता हो
तुम शासन-निर्माता हो
संसद-सांसद-त्राता हो
हमें चुनो
फिर जियो-मरो
कैसे भी
मतदान करो
तूफां-बाढ़-अकाल सहो
सीने पर गोलियाँ गहो
भूकंपों में घिरो-ढहो
मेलों में
दे जान तरो
लेकिन तुम
मतदान करो
लालटेन, हाथी, पंजा
साड़ी, दाढ़ी या गंजा
कान, भेंगा या कंजा
नेता करनी
आप भरो
लुटो-पिटो
मतदान करो
पाँच साल क्यों देखो राह
जब चाहो हो जाओ तबाह
बर्बादी को मिले पनाह
दल-दलदल में
फँसो-घिरो
रुपये लो
मतदान करो
नाग, साँप, बिच्छू कर जोड़
गुंडे-ठग आये घर छोड़
केर-बेर में है गठजोड़
मत सुधार की
आस धरो
टैक्स भरो
मतदान करो
***
(कश्मीर तथा अन्य राज्यों में चुनाव की खबर पर )
sanjivani hospital raipur
29-11-1014.

नवगीत

नवगीत: 
*
ज़िम्मेदार
नहीं है नेता
छप्पर औरों पर
धर देता
वादे-भाषण
धुआंधार कर
करे सभी सौदे
उधार कर
येन-केन
वोट हर लेता
सत्ता पाते ही
रंग बदले
यकीं न करना
किंचित पगले
काम पड़े
पीठ कर लेता
रंग बदलता
है पल-पल में
पारंगत है
बेहद छल में
केवल अपनी
नैया खेता
***
२९-१०-२०१४ 

नवगीत

नवगीत:
*
सुख-सुविधा में
मेरा-तेरा
दुःख सबका
साझा समान है
पद-अधिकार
करते झगड़े
अहंकार के
मिटें न लफ़ड़े
धन-संपदा
शत्रु हैं तगड़े
परेशान सब
अगड़े-पिछड़े
मान-मनौअल
समाधान है
मिल-जुलकर जो
मेहनत करते
गिरते-उठते
आगे बढ़ते
पग-पग चलते
सीढ़ी चढ़ते
तार और को
खुद भी तरते
पगतल भू
करतल वितान है
***
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर

नवगीत

नवगीत:
देव सोये तो
सोये रहें
हम मानव जागेंगे
राक्षस
अति संचय करते हैं
दानव
अमन-शांति हरते हैं
असुर
क्रूर कोलाहल करते
दनुज
निबल की जां हरते हैं
अनाचार का
शीश पकड़
हम मानव काटेंगे
भोग-विलास
देवता करते
बिन श्रम सुर
हर सुविधा वरते
ईश्वर पाप
गैर सर धरते
प्रभु अधिकार
और का हरते
हर अधिकार
विशेष चीन
हम मानव वारेंगे
मेहनत
अपना दीन-धर्म है
सच्चा साथी
सिर्फ कर्म है
धर्म-मर्म
संकोच-शर्म है
पीड़ित के
आँसू पोछेंगे
मिलकर तारेंगे
***
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर

बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

चिंतन

चिंतन 
सब प्रभु की संतान हैं, कोऊ ऊँच न नीच 
*
'ब्रह्मम् जानाति सः ब्राह्मण:' जो ब्रह्म जानता है वह ब्राह्मण है। ब्रह्म सृष्टि कर्ता हैं। कण-कण में उसका वास है। इस नाते जो कण-कण में ब्रह्म की प्रतीति कर सकता हो वह ब्राह्मण है। स्पष्ट है कि ब्राह्मण होना कर्म और योग्यता पर निर्भर है, जन्म पर नहीं। 'जन्मना जायते शूद्र:' के अनुसार जन्म से सभी शूद्र हैं। सकल सृष्टि ब्रह्ममय है, इस नाते सबको सहोदर माने, कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान को देखे, सबसे समानता का व्यवहार करे, वह ब्राह्मण है। जो इन मूल्यों की रक्षा करे, वह क्षत्रिय है, जो सृष्टि-रक्षार्थ आदान-प्रदान करे, वह वैश्य है और जो इस हेतु अपनी सेवा समर्पित कर उसका मोल ले-ले वह शूद्र है। जो प्राणी या जीव ब्रह्मा की सृष्टि निजी स्वार्थ / संचय के लिए नष्ट करे, औरों को अकारण कष्ट दे वह असुर या राक्षस है।
व्यावहारिक अर्थ में बुद्धिजीवी वैज्ञानिक, शिक्षक, अभियंता, चिकित्सक आदि ब्राह्मण, प्रशासक, सैन्य, अर्ध सैन्य बल आदि क्षत्रिय, उद्योगपति, व्यापारी आदि वैश्य तथा इनकी सेवा व सफाई कर रहे जन शूद्र हैं। सृष्टि को मानव शरीर के रूपक समझाते हुए इन्हें क्रमशः सिर, भुजा, उदर व् पैर कहा गया है। इससे इतर भी कुछ कहा गया है। राजा इन चारों में सम्मिलित नहीं है, वह ईश्वरीय प्रतिनिधि या ब्रह्मा है। राज्य-प्रशासन में सहायक वर्ग कार्यस्थ (कायस्थ नहीं) है। कायस्थ वह है जिसकी काया में ब्रम्हांश जो निराकार है, जिसका चित्र गुप्त है, आत्मा रूप स्थित है। 
'चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहिनाम्।', 'कायस्थित: स: कायस्थ:' से यही अभिप्रेत है। पौरोहित्य कर्म एक व्यवसाय है, जिसका ब्राह्मण होने न होने से कोई संबंध नहीं है। ब्रह्म के लिए चारों वर्ण समान हैं, कोई ऊँचा या नीचा नहीं है। जन्मना ब्राह्मण सर्वोच्च या श्रेष्ठ नहीं है। वह अत्याचारी हो तो असुर, राक्षस, दैत्य, दानव कहा गया है और उसका वध खुद विष्णु जी ने किया है। गीता रहस्य में लोकमान्य टिळक जो खुद ब्राह्मण थे, ने लिखा है - 
गुरुं वा बाल वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतं 
आततायी नमायान्तं हन्या देवाविचारयं 
ब्राह्मण द्वारा खुद को श्रेष्ठ बताना, अन्य वर्णों की कन्या हेतु खुद पात्र बताना और अन्य वर्गों को ब्राह्मण कन्या हेतु अपात्र मानना, हर पाप (अपराध) का दंड ब्राह्मण को दान बताने दुष्परिणाम सामाजिक कटुता और द्वेष के रूप में हुआ।

गीत पंचपर्व

 पंचपर्व

*
मन-कुटिया में
दीप बालकर
कर ले उजियारा।
तनिक मुस्कुरा
मिट जाएगा
सारा तम कारा।।
*
ले कुम्हार के हाथों-निर्मित
चंद खिलौने आज।
निर्धन की भी धनतेरस हो
सध जाए सब काज।
माटी-मूरत,
खील-बतासे
है प्रसाद प्यारा।।
*
रूप चतुर्दशी उबटन मल, हो
जगमग-जगमग रूप।
प्रणय-भिखारी गृह-स्वामी हो
गृह-लछमी का भूप।
रमा रमा में
हो मन, गणपति
का कर जयकारा।।
*
स्वेद-बिंदु से अवगाहन कर
श्रम-सरसिज देकर।
राष्ट्र-लक्ष्मी का पूजन कर
कर में कर लेकर।
निर्माणों की
झालर देखे
विस्मित जग सारा।।
*
अन्नकूट, गोवर्धन पूजन
भाई दूज न भूल।
बैरी समझ कूट मूसल से
पैने-चुभते शूल।
आत्म दीप ले
बाल, तभी तो
होगी पौ बारा।।
*
संजीव १२.१०.२०१६

समीक्षा - दोहा-दोहा नर्मदा सुरेन्द्र सिंह पंवार

साहित्य समीक्षा_
दोहा-दोहा नर्मदा
सुरेन्द्र सिंह पंवार
सम्पादक- “साहित्य-संस्कार”
[कृति- दोहा-दोहा नर्मदा/ संपादक-आचार्य संजीव ‘सलिल’- प्रो.(डा) साधना वर्मा/ प्रकाशक- विश्व वाणी हिंदी संस्थान,समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,जबलपुर ४८२००१, पृष्ठ १६०, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, मूल्य- २५०/-]
*
छोटे से आकार में, भरे गूढतम अर्थ। 
दोहा दुर्लभ छंद है, साधें इसे समर्थ।। 
तेरह-ग्यारह पर यति, गुरु-लघु सोहे अंत।
ओज,सोज,साखी सबद, दोहा गाये संत।।
कालजयी-छंद ‘दोहा’, अपभ्रंश काल से अब तक अपनी स्वाभाविक ठसक और बनक के साथ विद्यमान है. देखा जाए तो दोहा, “मत चूको....” से स्फूर्त लक्ष्यवेध और प्रेम-दिवाणी का “नगर ढिंढोरा” है। दोहा, ‘रामबोला’ को “तुलसीदास”बनाने तथा “झूठी पातर भकत है” सुनाकर सामंतों को झुकाने की सामर्थ्य रखता है। शक्ति, भक्ति, अनुरक्ति, प्रकृति...सभी कुछ, दोहे में समाया जा सकता है.
“अरथ अधिक अरु आखर थोरे” (संक्षिप्तता) और “घाव करें गंभीर” (मारकता) के कारण दोहा की लोकप्रियता सर्वकालिक है. एक बात और, दोहा पढ़ने-सुनने एवं सराहने वाले को ऐसा लगाना चाहिए कि कहने वाले ने उसके मन की बात कही है, बस!----दोहाकारकौन है? यह जानने की उत्सुकता उसे नहीं होती। 
अध्यवसायी आचार्य संजीव ‘सलिल’ और उनकी जीवन संगिनी प्रो.(डॉ) साधना वर्मा ने देश भर के ४५ दोहाकारों के सौ-सौ दोहे संग्रहित कर ३ दोहा-संकलन सम्पादित किये हैं. विश्ववाणी हिंदी संस्थान की "शान्तिराज पुस्तक माला" योजनान्तर्गत समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर से प्रकाशन अनुक्रम में ‘दोहा शतक मञ्जूषा-१’ का शीर्षक है, “दोहा-दोहा नर्मदा”.१७०० से अधिक दोहों के इस साझा-संकलन में देश भर के १५ दोहाकारों की साझा अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनमें ईश्वर, इंसान, जीवन-मृत्यु, अलस्सुबह की दिनचर्याएँ- चाँदनी रात में चाँद की तारों से छेड-छाड़, बचपन-यौवन-बुढापा, यथार्थ को देखने का जज्बा, भौतिक वस्तुओं की उपलब्धियों की मरीचिका, सर्वमांगल्य भाव-वसुधैव कुटुम्बकम की परिकल्पना, भाषायी विवाद-सामाजिक टकराव-आतंकवाद, राजनीति 
का लक्ष्य, स्वार्थ और दिशाभ्रम, धर्म-आस्तिकता-पाखण्ड, उद्यमेन हि सिध्यन्ति का जयघोष, अर्थाभावजनित लाचारी, युवा रोजगार की संभावनाएँ, तकनीकी और अंतरजाल, नौकरी की विवशताएँ, प्रतिभा-पलायन, सेवानिवृत-जीवन, स्त्री-विमर्श, प्रकृति, नेह-नर्मदा, बदलते मौसम, पर्यावरण-प्रदूषण इत्यादि बहुवर्णी विषय हैं। 
दोहाकारों ने महानगरों के आधुनिक जीवन की दुर्बलताओं और संकीर्णताओं को प्राथमिकता से उकेरा है-----
जब से मेरे गाँव में, पड़े शहर के पाँव।
भाई-चारा हारता, जीते नफरत दाँव।। -सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’/१२ 
तिनका-तिनका जोड़कर, किया भवन तैयार।
रहने की बारी हुई, मिला देहरी-द्वार।। -श्रीधर प्रसाद व्दिवेदी/३८ 
कोख किराया ले रही,ममता है लाचार।
चौपालें खामोश हैं, खून सने अख़बार।। -विनोद जैन ‘वाग्धर’/३१ 
चना चबैना बाजरा, मक्का रोटी साग।
सब गरीब से छिन गया,हुआ अमीरी राग।। -प्रेमबिहारी मिश्र/६ 
सच है, जब मानव-मूल्यों में गिरावट आती है, समाज की विषमतायें-
विद्रूपतायें गहराने लगतीं हैं, तो कवि-मन व्यथित हो जाता है, उसकी कलम भौथरीहो जाती है और ऐसी परिस्थितियों में उपजे दोहे, विष-बुझे तीरों जैसी व्यंजना देतेहैं—
चला मुखौटों का चलन, जब से सीना तान।
गिद्धों के तन भी सजे, हंसों के परिधान।। -विजय बागरी/१० 
मंदिर के ठेके बिकें, पूजा है व्यापार।
कैसे-कैसे ठग यहाँ, बन-बैठे अवतार।। -प्रेमबिहारी मिश्र/८५
न्यायालय में भी हुई, हाय! न्याय की हार।
सत्य खड़ा कटघरे में, झूठ जयी जयकार।। -विनोद जैन ‘वाग्धर’/१०० 
ऐसा अक्सर होता है, कि जिस विशेष-क्षेत्र से रचनाकार का संबंध होता है, वह संकोचरहित होकर उसके ज्ञान का उपयोग करता है। अपनी वर्गीय चेतना को दोहाबध्द करते समय दोहाकार आंचलिकता को महत्व देता है। ऐसे दोहों में यथास्थिति दर्शन तो है किन्तु दिशा-निर्देशन का अभाव है-
दिवस बिताते काम में, लौटे शाम जरूर।
रोज कमाकर खा रहे, हमसे भले मजूर।। -मिथलेश राज बड़गैया /८३ 
अवसर-सीमा असीमित, उठ छू लो आकाश।
अंतहीन अवसर सुलभ, चमके युवा प्रकाश।। -त्रिभुवन कौल/५४ 
धूप निगोड़ी सो रही, मूंड उघारे आज।
पीपर झौरे बैठकर, बिसरी परदा-लाज।। -आभा सक्सेना ‘दूनवी’/८१ 
पावस नाचे झूमकर, पुरवा गाए गीत।
हरियाली धरती हुई, पा अंबर की प्रीत।। -रामेश्वर प्रसाद सारस्वत/२६ 
वैसे संकलन के दोहों का सौन्दर्य-बोध आंतरिक, अन्त:गर्भित, सामाजिक
और संस्कारी है। वर्जित प्रदेशों में प्रवेश कर ये दोहे अनुर्वर भूमिकाओं को चेतनाके अमृत-जल से सिंचित कर नए युग के अनुरूप बहुरंगी गुलाबों की खेती उगा रहे हैं परन्तु कहीं-कहीं गुलाब के साथ कैक्टस से भी लगाव दिखाई देता है. तथापि दोहाकार भाषा और छंद के प्रति संवेदित हैं, जीवन के प्रति सदाशयी हैं, कुल मिलाकर वे अपने कुल-धर्म का पालन कर रहे हैं-
कथनी-करनी में नहीं, करना कोई भेद।
हो मतभेद भले मगर, तनिक न हो मनभेद।। -छाया सक्सेना ‘प्रभु’/97)
तुरपाई दुःख की करें, रफू शोक कर संग।
मन में पालें हौसला, तन हो सके विहंग। -श्यामल सिन्हा/८ 
माया नट के पाँव में, घुँघरू बँधे हजार।
छम-छम ध्वनि सब सुन रहे, कैसे उतरे पार।। -चंद्रकांता अग्निहोत्री/३१
जीवन ऊर्जा-शिखर है, परम तपस्या राम।
जाना जिसने प्रेम को, जान लिया यह धाम।। -छगन लाल गर्ग ‘विज्ञ’/१ 
बिन गुरुत्व धरती नहीं, धुर बिन चले न चाक।
गुरुजल बिन बिजली नहीं, गुरु के बिना न धाक।।-डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट ‘आकुल’/ ५१ 
वाकई, वर्मा-दम्पति बधाई के पात्र हैं। वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल युग के
सृदश ऐसे नये कवि(दोहाकार) तैयार कर रहे हैं, जो जीवन की विषमताओं की ओर देखते हैं, जो आज के व्यस्त, व्यापृत युग में दोहा की प्रासंगिकता को सिध्द करते हुए अलंकारिकता, भाव-गाम्भीर्य, सरसता, संदेशात्मकता, अर्थ-गौरवता आदि की कसौटी पर स्तरीय-दोहों का सृजन कर रहे हैं। जो यह जानते हैं कि बिहारी जैसी समाहारी शक्ति सम्पन्न भाषा, कबीर की सहजता-सरलता और रहीम जैसी नीतिपरकता दोहों को जीवंत बनाती है। वे यह भी जानते हैं कि उन्हें दोहों की परिमाणात्मकता की अपेक्षा उसकी गुणात्मक प्रभावोत्पादकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और इसी में दोहा, दोहाकार, दोहा-संकलन और संपादक-व्दय की सफलता सन्निहित है। “दोहा-दोहा नर्मदा” के इस सारस्वत-अनुष्ठान को अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तार-सप्तक’ के कवियों की रचना-श्रंखला से जोड़कर देखा जा सकता है. संकलित दोहों में विशेष की शक्ति तो है। वे, आम–आदमी की जुबान पर चढ़ेंगे, लोक- व्यवहृत भी होंगेऔर जिनके चलते ‘दोहा शतक मञ्जूषा’ में सम्मिलित होने वालेदोहाकार, ‘तार-सप्तकों’ के कवियों-सी प्रतिष्ठा पा सकेंगे, ऐसा विश्वास है। 
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२०१ शास्त्रीनगर,गढ़ा,जबलपुर, चलभाष- चलभाष- ९३००१०४२९६/ ७०००३८८३३२ email-pawarss2506@gmail.com

नीराजना छंद

हिंदी के नए छंद १८
नीराजना छंद
*
लक्षण:
१. प्रति पंक्ति २१ मात्रा।
२. पदादि गुरु।
३. पदांत गुरु गुरु लघु गुरु।
४. यति ११ - १०।
लक्षण छंद:
एक - एक मनुपुत्र, साथ जीतें सदा।
आदि रहें गुरुदेव, न तब हो आपदा।।
हो तगणी गुरु अंत, छंद नीरजना।
मुग्ध हुए रजनीश, चंद्रिका नाचना।।
टीप:
एक - एक = ११, मनु पुत्र = १० (इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट,
धृष्ट, करुषय, नरिष्यन्त, प्रवध्र, नाभाग, कवि भागवत)
उदाहरण:
कामदेव - रति साथ, लिए नीराजना।
संयम हो निर्मूल, न करता याचना।।
हो संतुलन विराग - राग में साध्य है।
तोड़े सीमा मनुज, नहीं आराध्य है।।
***
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८

धन-तेरस

 धन-तेरस कब, क्यों और कैसे?

कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को भगवान धनवंतरी अमृत कलश लेकर सागर मंथन से उत्पन्न हुए थे। इस तिथि को धनतेरस या धनत्रयोदशी के नाम से जाना जाता है। भारत सरकार ने धनतेरस को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस घोषित किया है। धनतेरस यानी अपने धन को १३ गुणा बनाने की लोक मान्यता का द‌िन है । धनतेरस पर बरतन वाहन, गहने, बहुमूल्य उपकरण आदि खरीदने की प्रथा है।
धन तेरस पर धन्वन्तरि,लक्ष्मी, गणेश और कुबेर की पूजा करने से स्वास्थ्य-समृद्धि बनी रहती है। ॐ धं धन्वन्तरये नमः मंत्र का १०८ बार उच्चारण करभगवान धनवंतरी से अच्छी सेहत की कामना करें। धनवन्तरी की पूजा के बाद गणेश जी के समक्ष दिया-धूपबत्ती जला, फूल अर्पण कर मिठाई का नैवैद्य अर्पित करें। इसी तरह लक्ष्मी पूजन करें। धनतेरस और कुबीर देवता की पूजा हेतु एक लकड़ी के तख्ते पर स्वास्तिक का निशान बना लें।इस पर एक तेल का दिया रख-जलाकर,ढक दें। दिये के सब ओर तीन बार गंगा जल छिड़क, दीपक पर रोली-चावल से तिलक कर मीठे का भोग लगा 1 सिक्का रख लक्ष्मी और गणेश जी को अर्पण करें। दीपक को प्रणाम कर बड़ों से आशीर्वाद लें।दिया अपने घर के मुख्य द्वार पर दक्षिण दिशा की ओर बाती कर रखें। तेरह दिए बालकर घर में हर ओर रख दें।

गीत - धनतेरस

धनतेरस पर विशेष गीत...
प्रभु धन दे...
संजीव 'सलिल'
*
प्रभु धन दे निर्धन मत करना.
माटी को कंचन मत करना.....
*
निर्बल के बल रहो राम जी,
निर्धन के धन रहो राम जी.
मात्र न तन, मन रहो राम जी-
धूल न, चंदन रहो राम जी..
भूमि-सुता तज राजसूय में-
प्रतिमा रख वंदन मत करना.....
*
मृदुल कीर्ति प्रतिभा सुनाम जी.
देना सम सुख-दुःख अनाम जी.
हो अकाम-निष्काम काम जी-
आरक्षण बिन भू सुधाम जी..
वन, गिरि, ताल, नदी, पशु-पक्षी-
सिसक रहे क्रंदन मत करना.....
*
बिन रमेश क्यों रमा राम जी,
चोरों के आ रहीं काम जी?
श्री गणेश को लिये वाम जी.
पाती हैं जग के प्रणाम जी..
माटी मस्तक तिलक बने पर-
आँखों का अंजन मत करना.....
*
साध्य न केवल रहे चाम जी,
अधिक न मोहे टीम-टाम जी.
जब देना हो दो विराम जी-
लेकिन लेना तनिक थाम जी..
कुछ रच पाए कलम सार्थक-
निरुद्देश्य मंचन मत करना..
*
अब न सुनामी हो सुनाम जी,
शांति-राज दे, लो प्रणाम जी.
'सलिल' सभी के सदा काम जी-
आये, चल दे कर सलाम जी..
निठुर-काल के व्याल-जाल का
मोह-पाश व्यंजन मत करना.....
*

लेख: डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य

विशेष आलेख:
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
जगवाणी हिंदी को माँ वीणापाणी के सितार के तारों से झंकृत विविध रागों से उद्भूत सांस्कृत छांदस विरासत से समृद्ध होने का अनूठा सौभाग्य मिला है. संस्कृत साहित्य की सरस विरासत को हिंदी ने न केवल आत्मसात किया अपितु पल्लवित-पुष्पित भी किया. हिंदी सहित्योद्यान के गीत-वृक्ष पर झूमते-झूलते सुन्दर-सुरभिमय अगणित पुष्पों में अपनी पृथक पहचान और ख्याति से संपन्न डॉ. महेंद्र भटनागर गत ७ दशकों से विविध विधाओं (गीत, कविता, क्षणिका, कहानी, नाटक, साक्षात्कार, रेखाचित्र, लघुकथा, एकांकी, वार्ता संस्मरण, गद्य काव्य, रेडियो फीचर, समालोचना, निबन्ध आदि में) समान दक्षता के साथ सतत सृजन कर बहु चर्चित हुए हैं. उनके गीतों में सर्वत्र व्याप्त आलंकारिक वैभव का पूर्ण निदर्शन एक लेख में संभव न होने पर भी हमारा प्रयास इसकी एक झलक से पाठकों को परिचित कराना है. नव रचनाकर्मी इस लेख में उद्धृत उदाहरणों के प्रकाश में आलंकारिक माधुर्य और उससे उपजी रमणीयता को आत्मसात कर अपने कविकर्म को सुरुचिसंपन्न तथा सशक्त बनाने की प्रेरणा ले सकें, तो यह प्रयास सफल होगा.
संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य समीक्षा के विभिन्न सम्प्रदायों (अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचत्य, अनुमिति, रस) में से अलंकार, ध्वनि तथा रस को ही हिंदी गीति-काव्य ने आत्मार्पित कर नवजीवन दिया. असंस्कृत साहित्य में अलंकार को 'सौन्दर्यमलंकारः' ( अलंकार को काव्य का कारक), 'अलंकरोतीति अलंकारः' (काव्य सौंदर्य का पूरक) तथा अलंकार का मूल वक्रोक्ति को माना गया.
'सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाच्याते.
यत्नोस्यां कविना कार्यः को लं कारो नया बिना..' २.८५ -भामह, काव्यालंकारः
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीत-संसार में वक्रोक्ति-वृक्ष के विविध रूप-वृन्तों पर प्रस्फुटित-पुष्पित विविध अलंकार शोभायमान हैं. डॉ. महेंद्र भटनागर गीतों में स्वाभाविक भावाभिव्यक्ति के पोषक हैं. उनके गीतों में प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक सनातन भारतीय परंपरा से उद्भूत हैं जिन्हें सामान्य पाठक/श्रोता सहज ही आत्मसात कर लेता है. ऐसे पद सर्वत्र व्याप्त हैं जिनका उदाहरण देना नासमझी ही कहा जायेगा. ऐसे पद 'स्वभावोक्ति अलंकार' के अंतर्गत गण्य हैं.
शब्दालंकारों की छटा:
डॉ. महेंद्र भटनागर सामान्य शब्दों का विशिष्ट प्रयोग कर शब्द-ध्वनियों द्वारा पाठकों/श्रोताओं को मुग्ध करने में सिद्धहस्त हैं. वे वस्तु या तत्त्व को रूपायित कर संवेद्य बनाते हैं. शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का यथास्थान प्रयोग गीतों के कथ्य को रमणीयता प्रदान करता है.
शब्दालंकारों के अंतर्गत आवृत्तिमूलक अलंकारों में अनुप्रास उन्हें सर्वाधिक प्रिय है.
'मैं तुम्हें अपना ह्रदय गा-गा बताऊँ, साथ छूटे यही कभी ना, हे नियति! करना दया, हे विधना! मोरे साजन का हियरा दूखे ना, आज आँखों में गया बस, प्रीत का सपना नया, निज बाहुओं में नेह से, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा, तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी आदि अगणित पंक्तियों में 'छेकानुप्रास' की छबीली छटा सहज दृष्टव्य है.
एक या अनेक वर्णों की अनेक आवृत्तियों से युक्त 'वृत्यानुप्रास' का सहज प्रयोग डॉ. महेंद्र जी के कवि-कर्म की कुशलता का साक्ष्य है. 'संसार सोने का सहज' (स की आवृत्ति), 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो' ( क तथा ह की आवृत्ति), 'महकी मेरे आँगन में महकी' (म की आवृत्ति), 'इसके कोमल-कोमल किसलय' (क की आवृत्ति), 'गह-गह गहनों-गहनों गहकी!' (ग की आवृत्ति), 'चारों ओर झूमते झर-झर' (झ की आवृत्ति), 'मिथ्या मर्यादा का मद गढ़' (म की आवृत्ति) आदि इसके जीवंत उदाहरण हैं.
अपेक्षाकृत कम प्रयुक्त हुए श्रुत्यानुप्रास के दो उदाहरण देखिये- 'सारी रात सुध-बुध भूल नहाओ' (ब, भ) , काली-काली अब रात न हो, घन घोर तिमिर बरसात न हो' (क, घ) .
गीतों की काया को गढ़ने में 'अन्त्यानुप्रास' का चमत्कारिक प्रयोग किया है महेंद्र जी ने. दो उदाहरण देखिये- 'और हम निर्धन बने / वेदना कारण बने तथा 'बेसहारे प्राण को निज बाँह दी / तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी / और जीने की नयी भर चाह दी' .
इन गीतों में 'भाव' को 'विचार' पर वरीयता प्राप्त है. अतः, 'लाटानुप्रास' कम ही मिलता है- 'उर में बरबस आसव री ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी हो ली.'
महेंद्र जी ने 'पुनरुक्तिप्रकाश' अलंकार के दोनों रूपों का अत्यंत कुशलता से प्रयोग किया है.
समानार्थी शब्दावृत्तिमय 'पुनरुक्तिप्रकाश' के उदाहरणों का रसास्वादन करें: 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, गह-गह गहनों-गहनों गहकी, इसके कोमल-कोमल किसलय, दलों डगमग-डगमग झूली, भोली-भोली गौरैया चहकी' आदि.
शब्द की भिन्नार्थक आवृत्तिमय पुनरुक्तिप्रकाश से उद्भूत 'यमक' अलंकार महेंद्र जी की रचनाओं को रम्य तथा बोधगम्य बनाता है: ' उर में बरबस आसव सी ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी होली' ( होली पर्व और हो चुकी), 'आँगन-आँगन दीप जलाओ (घर का आँगन, मन का आँगन).' आदि.
'श्लेष वक्रोक्ति' की छटा इन गीतों को अभिनव तथा अनुपम रूप-छटा से संपन्न कर मननीय बनाती है: 'चाँद मेरा खूब हँसता-मुस्कुराता है / खेलता है और फिर छिप दूर जाता है' ( चाँद = चन्द्रमा और प्रियतम), 'सितारों से सजी चादर बिछये चाँद सोता है'. काकु वक्रोक्ति के प्रयोग में सामान्यता तथा व्यंगार्थकता का समन्वय दृष्टव्य है: 'स्वर्ग से सुन्दर कहीं संसार है.'
चित्रमूलक अलंकार: हिंदी गीति काव्य के अतीत में २० वीं शताब्दी तक चित्र काव्यों तथा चित्रमूलक अलंकारों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ किन्तु अब यह समाप्त हो चुका है. असम सामयिक रचनाकारों में अहमदाबाद के डॉ. किशोर काबरा ने महाकाव्य 'उत्तर भागवत' में महाकाल के पूजन-प्रसंग में चित्रमय पताका छंद अंकित किया है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में लुप्तप्राय चित्रमूलक अलंकार यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं किन्तु कवि ने उन्हें जाने-अनजाने अनदेखा किया है. बानगी देखें:
डॉ. महेंद्र भटनागर जी ने शब्दालंकारों के साथ-साथ अर्थालंकारों का प्रयोग भी समान दक्षता तथा प्रचुरता से किया है. छंद मुक्ति के दुष्प्रयासों से सर्वथा अप्रभावित रहते हुए भी उनहोंने न केवल छंद की साधना की अपितु उसे नए शिखर तक पहुँचाने का भागीरथ प्रयास किया.
प्रस्तुत-अप्रस्तुत के मध्य गुण- सादृश्य प्रतिपादित करते 'उपमा अलंकार' को वे पूरी सहजता से अंगीकार कर सके हैं. 'दिग्वधू सा ही किया होगा, किसी ने कुंकुमी श्रृंगार / झलमलाया सोम सा होगा किसी का रे रुपहला प्यार, बिजुरी सी चमक गयीं तुम / श्रुति-स्वर सी गमक गयीं तुम / दामन सी झमक गयीं तुम / अलबेली छमक गयीं तुम / दीपक सी दमक गयीं तुम, कौन तुम अरुणिम उषा सी मन-गगन पर छ गयी हो? / कौन तुम मधुमास सी अमराइयाँ महका गयी हो? / कौन तुम नभ अप्सरा सी इस तरह बहका गयी हो? / कौन तुम अवदात री! इतनी अधिक जो भा गयी हो? आदि-आदि.
रूपक अलंकार उपमेय और उपमान को अभिन्न मानते हुए उपमेय में उपमान का आरोप कर अपनी दिव्या छटा से पाठक / श्रोता का मन मोहता है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में 'हो गया अनजान चंचल मन हिरन, झम-झमाकर नाच ले मन मोर, आस सूरज दूर बेहद दूर है, गाओ कि जीवन गीत बन जाये, गाओ पराजय जीत बन जाये, गाओ कि दुःख संगीत बन जाये, गाओ कि कण-कण मीत बन जाये, अंधियारे जीवन-नभ में बिजुरी सी चमक गयीं तुम, मुस्कुराये तुम ह्रदय-अरविन्द मेरा खिल गया है आदि में रूपक कि अद्भुत छटा दृष्टव्य है.'नभ-गंगा में दीप बहाओ, गहने रवि-शशि हों, गजरे फूल-सितारे, ऊसर-मन, रस-सागा, चन्द्र मुख, मन जल भरा मिलन पनघट, जीवन-जलधि, जीवन-पिपासा, जीवन बीन जैसे प्रयोग पाठक /श्रोता के मानस-चक्षुओं के समक्ष जिवंत बिम्ब उपस्थित करने में सक्षम है.
डॉ. महेंद्र भटनागर ने अतिशयोक्ति अलंकार का भी सरस प्रयोग सफलतापूर्वक किया है. एक उदाहरण देखें: 'प्रिय-रूप जल-हीन, अँखियाँ बनीं मीन, पर निमिष में लो अभी / अभिनव कला से फिर कभी दुल्हन सजाता हूँ, एक पल में लो अभी / जगमग नए अलोक के दीपक जलाता हूँ, कुछ क्षणों में लो अभी.'
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अन्योक्ति अलंकार भी बहुत सहजता से प्रयुक्त हुआ है. किसी एक वस्तु या व्यक्ति को लक्ष्य कर कही बात किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति पर घटित हो तो अन्योक्ति अलंकार होता है. इसमें प्रतीक रूप में बात कही जाती है जिसका भिन्नार्थ अभिप्रेत होता है. बानगी देखिये: 'सृष्टि सारी सो गयी है / भूमि लोरी गा रही है, तुम नहीं और अगहन की रात / आज मेरे मौन बुझते दीप में प्रिय / स्नेह भर दो / अब नहीं मेरे गगन पर चाँद निकलेगा.
कारण के बिना कार्य होने पर विशेषोक्ति अलंकार होता है. इन गीतों में इस अलंकार की व्याप्ति यत्र-तत्र दृष्टव्य है: 'जीवन की हर सुबह सुहानी हो, हर कदम पर आदमी मजबूर है आदि में कारन की अनुपस्थिति से विशेषोक्ति आभासित होता है.
'तुम्हारे पास मानो रूप का आगार है' में उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की गयी है. यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है जिसका अपेक्षाकृत कम प्रयोग इन गीतों में मिला.
डॉ. महेंद्र भटनागर रूपक तथा उपमा के धनी गीतकार हैं. सम्यक बिम्बविधान, तथा मौलिक प्रतीक-चयन में उनकी असाधारण दक्षता ने उन्हें अछूते उपमानों की कमी नहीं होने दी है. फलतः, वे उपमेय को उपमान प्रायः नहीं कहते. इस कारन उनके गीतों में व्याजस्तुति, व्याजनिंदा, विभावना, व्यतिरेक, भ्रांतिमान, संदेह, विरोधाभास, अपन्हुति, प्रतीप, अनन्वय आदि अलंकारों की उपस्थति नगण्य है.
'चाँद मेरे! क्यों उठाया / जीवन जलधि में ज्वार रे?, कौन तुम अरुणिम उषा सी, मन गगन पर छा गयी हो?, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा उषा रानी नहाती है, जूही मेरे आँगन में महकी आदि में मानवीकरण अलंकर की सहज व्याप्ति पाठक / श्रोता को प्रकृति से तादात्म्य बैठालने में सहायक होती है.
स्मरण अलंकार का प्रचुर प्रयोग डॉ. महेंद्र भटनागर ने अपने गीतों में पूर्ण कौशल के साथ किया है. चिर उदासी भग्न निर्धन, खो तरंगों को ह्रदय / अब नहीं जीवन जलधि में ज्वार मचलेगा, याद रह-रह आ रही है / रात बीती जा रही है, सों चंपा सी तुम्हारी याद साँसों में समाई है, सोने न देती छवि झलमलाती किसी की आदि अभिव्यक्तियों में स्मरण अलंकार की गरिमामयी उपस्थिति मन मोहती है.
तत्सम-तद्भव शब्द-भ्नादर के धनि डॉ. महेंद्र भटनागर एक वर्ण्य का अनेक विधि वर्णन करने में निपुण हैं. इस कारन गीतों में उल्लेख अलंकार की छटा निहित होना स्वाभाविक है. यथा: कौन तुम अरुणिम उषा सी?, मधु मॉस सी, नभ आभा सी, अवदात री?, बिजुरी सी, श्रुति-स्वर सी, दीपक सी / स्वागत पुत्री- जूही, गौरैया, स्वर्गिक धन आदि.
सच यह है कि डॉ. भटनागर के सृजन का फलक इतना व्यापक है कि उसके किसी एक पक्ष के अनुशीलन के लिए जिस गहन शोधवृत्ति की आवश्यकता है उसका शतांश भी मुझमें नहीं है. यह असंदिग्ध है की डॉ. महेंद्र भटनागर इस युग की कालजयी साहित्यिक विभूति हैं जिनका सम्यक और समुचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए और उनके सृजन पर अधिकतम शोध कार्य उनके रहते ही हों तो उनकी रचनाओं के विश्लेषण में वे स्वयं भी सहायक होंगे. डॉ. महेंद्र भटनागर की लेखनी और उन्हें दोनों को शतशः नमन.
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रैप कविता

रैप कविता:
*
सफाई
मैंने देखा सपना एक
उठा तुरत आलस को फेंक
बीजेपी ने कांग्रेस के
दरवाज़े पर करी सफाई
नीतीश ने भगवा कपड़ों का
गट्ठर ले करी धुलाई
माया झाड़ू लिए
मुलायम की राहों से बीनें काँटे
और मुलायम ममतामय हो
लगा रहे फतवों को चाँटे
जयललिता की देख दुर्दशा
करुणा-भर करूणानिधि रोयें
अब्दुल्ला श्रद्धा-सुमनों की
अवध पहुँच कर खेती बोयें
गज़ब! सोनिया ने
मनमोहन को
मन मंदिर में बैठाया
जन्म अष्टमी पर
गिरिधर का सोहर
सबको झूम सुनाया
स्वामी जी को गिरिजाघर में
प्रेयर करते हमने देखा
और शंकराचार्य मिले
मस्जिद में करते सबकी सेवा
मिले सिक्ख भाई कृपाण से
खापों के फैसले मिटाते
बम्बइया निर्देशक देखे
यौवन को कपडे पहनाते
डॉक्टर और वकील छोड़कर फीस
काम जल्दी निबटाते
न्यायाधीश एक पेशी में
केसों का फैसला सुनाते
थानेदार सड़क पर मंत्री जी का
था चालान कर रहा
बिना जेब के कपड़े पहने
टी. सी. बरतें बाँट हँस रहा
आर. टी. ओ. लाइसेंस दे रहा
बिना दलाल के सच्चे मानो
अगर देखना ऐसा सपना
चद्दर ओढ़ो लम्बी तानो
***

सिंहवालोकनी कुण्डलिया (मात्रिक)

नव प्रयोग सिंहावलोकनी कुण्डलिया (मात्रिक)
संजीव 
*
विधान -
१. ६ समभारीय पंक्तियाँ  (मात्रिक या वर्णिक) ।
२. सभी पंक्तियाँ संपदान्ती 
३. पूर्व पंक्ति का उत्तरार्ध अथवा उत्तरार्ध का अंश पश्चात्वर्ती पंक्ति का आदि हो।
४. प्रथम पद का उत्तरार्ध  अथवा उत्तरार्ध का अंश अंतिम पंक्ति का उत्तरार्ध हो। 

बचपन बोले: उठ मत सो ले
उठ मत सो ले, सपने बो ले
सपने बो ले, अरमां तोले
अरमां तोले, जगकर भोले
जगकर भोले, मत बन शोले
मत बन शोले, बचपन बोले 
*
अपनी भाषा मत बिसराओ, अपने स्वर में भी कुछ गाओ
अपने स्वर में भी कुछ गाओ, दिल की बातें तनिक बताओ
दिल की बातें तनिक बताओ, बाँहों में भर गले लगाओ
बाँहों में भर गले लगाओ, आपस की दूरियाँ मिटाओ
आपस की दूरियाँ मिटाओ, अँगुली बँध मुट्ठी हो जाओ
अँगुली बँध मुट्ठी हो जाओ, अपनी भाषा मत बिसराओ
*

लघुकथा का विकास

शोध ग्रंथ प्रस्तावना:
 हिंदी लघुकथा का विकास | 
डॉ. अंजलि शर्मा
*
लघुकथा हिंदी साहित्य की नवीनतम् विधा है । इसका श्रीगणेश छत्तीसगढ़ के प्रथम पत्रकार और कथाकार माधव राव सप्रे के 'एक टोकरी भर मिट्टी से होता है' । हिंदी के अन्य सभी विधाओं की तुलना में अधिक लघुआकार होने के कारण यह समकालीन पाठकों के ज्यादा करीब है और सिर्फ़ इतना ही नहीं यह अपनी विधागत सरोकार की दृष्टि से भी एक पूर्ण विधा के रूप में हिदीं जगत् में समादृत हो रही है । इसे स्थापित करने में जितना हाथ लघुकथाकारों का रहा है उतना ही कमलेश्वर , राजेन्द्र यादव, बलराम, आदि संपादकों का भी रहा है । खासकर लघुपत्रिकाओं के संपादकों का  ।हमने अपने प्रिय पाठकों के लिए पहली बार हिंदी लघुकथा के विकास पर किसी शोध ग्रंथ को धारावाहिक रूप से छापने का निर्णय लिया है ताकि इस लघु किंतु गुरुतर विधा से सारी दुनिया के रचनाकार और पाठक भी अवगत हो सकें ।

हमें खुशी है रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर, छत्तीसगढ़ के शोध छात्रा और हिदीं के प्राध्यापक डॉ. अंजलि शर्मा जी की सहमति से संपूर्ण शोध कृति अंतरजाल पर प्रकाशित हो रहा है, जिस पर उन्हें पी-एच.ड़ी की उपाधि मिल चुकी है । हिंदी अंतरजाल के इतिहास में शायद पहला अवसर है कि कोई शोध कृति धारावाहिक प्रकाशित हो रही है । - संपादक

प्रस्तावना

हिन्दी में जब कहानी एक स्वतंत्र विधा के रूप में अस्तित्व में आयी, तब वह अंग्रेजी के ‘शार्ट स्टोरी’ के समानान्तर उभरी और छोटी कहानी के नाम से प्रचलित हुई । आगे चलकर हिन्दी में कहानी शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में होने लगा और छोटी विशेषण लुप्त हो गई । इसके अनन्तर निर्धारित सांचे ढांचे से अलगाने के लिये हिन्दी कहानीकारों में एक अन्य प्रवृत्ति भी दिखाई दी, जिसे लंबी कहानी के नाम से अभिहित किया गया । एक बार पुनः कहानी का साँचा टूटा और हिंदी कहानी का नवीन रुप सामने आया जो कहानी और लंबी कहानी से अलग थी, उसे लघुकथा नाम से ख्याति मिली । जिस प्रकार लंबी कहानी को संक्षिप्त करके कहानी की रचना नहीं की जा सकती और न कहानी को बढ़ाकर लम्बी बनायी जा सकती है, उसी प्रकार छोटी कहानी का आकार कम करके लघुकथा और लघुकथा का आकार बढ़ाकर कहानी का सृजन नहीं किया जा सकता । यह स्पष्ट है कि कहानी, लंबी कहानी और लघुकथा नाम से कहानी के तीन प्रमुख मोड़ है, जिनका अलग-अलग अस्तित्व और सांचा-ढांचा है, जिनसे इस विधा का क्रमिक विकास स्पष्ट होता है ।यद्यपि विगत दो दशकों में लघुकथाओं के लेखन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, तथापि इसके बीज जहां वेद, उपनिषद से लेकर पुराण पर्यन्त तथा पंचतंत्र हितोपदेश आदि कथाओं में संस्थित है, वहीं पारंपरिक लोककथाओं में निहित प्रागैतिहासिक काल से लेकर महापर्यन्त जीवन के स्पंदनों से प्रमाणित है । इस दृष्टि से हिन्दी लघुकथा एवं विकास का अध्ययन मौलिक उद्भावना का प्रतीक है । यह परंपरा वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, बौद्ध एवं जातक कथाओं में प्राप्त होती है । कुछ विद्वानों का मत है लघुकथा बीसवीं शताब्दी की देन है । आकार की दृष्टि से लघुकथा प्राचीन हो सकती है, लेकिन वैचारिक धरातल पर आज की लघुकथाओं और प्राचीन लघुकथाओं में पर्याप्त अंतर है, इस विशाल ब्रह्माण्ड में लघु पृथ्वी की हैसियत नगण्य है, फिर भी उसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता । ठीक यही बात लघुकथा के लिए उचित प्रतीत होती है । लघुकथा विस्फोटक के साथ-साथ प्रस्फुटित हुई विधा है । यह किसी व्यक्ति की महानता में बोले जाने वाला लच्छेदार भाषण नहीं वरन शोषण और शोषक के खिलाफ एक क्रांति है । लघुकथाओं में जहां सूक्तियों का समीकरण जीवन की विद्रुपताओं और विषमताओं का समाहार है, वहीं व्यंग्य की पैनीधार, कथा का श्रृंगार और संवादों के माध्यम से नाटकीयता का स्वीकार है । यायावर मन के बीच घटने वाली क्षणिक घटनाओं में जीवन की विराट व्याख्या छिपी रहती है । इस विराट कथ्य का बिंबों में बांध लेना ही लघुकथा सर्जक का उपक्रम है । संक्षिप्तता इसकी पहचान है । मन को आंदोलित करने वाली अनुभूति को डाइल्यूट किये बिना कहना लघुकथा की विशेषता है । यही कारण है कि जिस तल्खी, तीखापन, सटीकता, संक्षिप्तता और चुभन की प्रखरता से आर्थिक विषमता, सामाजिक विसंगतियां, राजनैतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार, व्यक्ति और समाज की विडम्बना, मानवीय संबंधों का खोखलनापन, संघर्ष और शोषण को लघुकथा के माध्यम से उजागर किया जा सकता है, उतना साहित्य के किसी अन्य माध्यम से नहीं ।

लघुकथा एक साथ लघु भी है, और कथा भी । यह न लघुता को छोड़ सकता है, न कथा को ही । लघुकथा में कथानक की लघुता के माध्यम से कथ्य को धारदार रुप में पाठक तक पहुंचाना होता है । लघुकलेवर में प्रभाव पैदा करने के लिए लघुकथाकार को अपने कथानक और कथ्य के चयन में इससे साथ ही भाषिक स्तर पर शब्द योजना और वाक्य विन्यास के विषय में बहुत सतर्क रहना होता है । लघुकथाकार को भाषा की समाहार शक्ति से काम लेना होता है। लघुकथाकार को थोड़े में अधिक कहने की कलाकार क्षमता अर्जित करनी होती है, आकार की यह लघुता महत्तम कलात्मक अपेक्षा रखनी है । लघुकथा की आकारगत लघुता इस विधा की ऊपरी पहचान है, और भीतरी शक्ति भी है । इसमें एक ही केंद्रीय प्रसंग होता है, जो पांच सात पंक्तियां चलकर ही अपने उत्कर्ष की चरम पर पहुंच जाती है, यह उत्कर्ष लघुकथा का नाटकीय मोड़ होता है । इस मोड़ पर ही कथ्य संदर्भ के माध्यम से पूरी उर्जो के साथ व्यक्त होता है। इस प्रकार लघुकथा के लघुप्रसंग में एक नाटकीय भंगिमा अवश्य रहती है, जो स्थिति की विडम्बना का एक झटके के साथ पर्दाफाश करती है

लघुकथा के लघु कलेवर में एक-दो पात्र ही समा सकते हैं, वे भी व्यक्तित्व के वाहक न होकर किसी विशेष प्रवृत्ति के पर्याय होते हैं । लघुकथा के संक्षिप्त कथानक में पात्रों के व्यक्तित्व के विकास की गुंजाइश नहीं होती। व्यक्तित्व के आयामों के विकास के लिए सम-विषम प्रकृति के अनेक प्रसंगों की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा की लघुता एक से अधिक प्रसंग गवारा नहीं कर सकती । मानव जीवन की विकृतियों पर प्रहार करते हुए उसे संस्कृति की स्वस्थ दिशा में प्रेरित करना ही लघुकथा लेखक का मुख्य लक्ष्य होता है । कथ्य अपने आप में महत्वपूर्ण होते हुए भी जब तक संदर्भगत संवेदना और भाषा के सहारे सशक्त सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का रुप नहीं ले पाती, तब तक सपाट बयानी के स्तर से उपर नहीं उठ सकती । लघुकथा न बोधकथा है, न नीतिकथा, न ही विचारकथा वरन लघुकथा आज के व्यस्ततम युग की मांग के अनुरुप सृजनधर्मी मानस और विविध विसंगत संदर्भों की टकराहट के बीच से उपजी एक समर्थ विधा है, जो देखने में छोटी होते हुए भी अपनी प्रभाववत्ता में कहानी से कम नहीं है ।सामान्यतः आलोचक कहानी के अंतर्गत लंबी कहानी का विवेचन करते रहे, और लघुकथाओं को अश्पृश्य मानकर उसे पूर्णतः उपेक्षित करते रहे । पाठकों की स्थिति ठीक इसके विपरीत है । उनके लिये लघुकथा प्रिय विधा है और उसकी लोकप्रियता शनैः-शनैः बढ़ते ही जा रही है ।

किसी भी साहित्यिक विधा का अस्तित्व पाठकों पर सर्वाधिक निर्भर करता है, क्योंकि रचनाकार केवल सृजन करता है, जबकि पाठक रचना और रचनाकार का विस्तार ही नहीं करता, उसके लिए साहित्य में स्थान भी सुरक्षित करता है । उल्लेखनीय है कि लघुकथा को पाठकों का संबल मिल गया है । इस विधा की ओर युवा कथाकार अधिक आकृष्ट हुए हैं, वहीं वयोवृद्ध कथाकारों ने भी इसे अपनाया है । अखरने वाली बात यह है कि हिन्दी के आलोचक इस विधा की शक्ति और क्षमता से अपरिचित एवं उदासीन हैं । इसका प्रमाण है कि किसी भी आलोचक ने इस विधा पर लेखनी ही नहीं चलायी है ।मैं यह मानती हूँ कि लघुकथा एक साहित्यिक विधा है, जो कथा साहित्य के अंतर्गत एक प्रयोग के रुप में हमारे सामने आयी पर अब एक चुनौती बन गई है । यह चुनौती रचनाकार के लिए भी है और आलोचक के लिये भी । रचनाकार के लिये कथ्य के चयन से लेकर अभिव्यक्ति तक अनेक चुनौतीपूर्ण आह्वान है । आलोचकों के लिए विकट समस्या यह है कि जिन तत्वों पर कहानी की आलोचना होती है, वे क्या लघुकथा के लिए पर्याप्त हैं ? लघुकथा में रचनात्मक क्षमता है, पर आवश्यकता इस बात की है कि इस विधा को अपनाने वाले रचनाकारों में रचनात्मक क्षमता हो । इस विधा की रचनात्मक क्षमता की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता । पूर्वोक्त विवेचन के आधार पर यह प्रश्न बेमानी हो जाती है कि लघुकथा की विधा में सामयिक सार्थकता है, या नहीं ? अगर ऐसा न होता तो अपनी 50 वर्षों से अधिक लंबी यात्रा में कैसे टिक सकती थी ? अर्थात् यह समय की परीक्षा में खरी उतरी है, आठवें और नवे दशकों में पर्याप्त सफलता हासिल करके दसवें दशक में प्रवेश कर चुकी है । किसी भी रचना की सार्थकता के आधार इस प्रकार हो सकते हैं, उसमें रचनात्मक सौष्ठव हो, उसमें व्यापक जीवन समेटा गया हो, अभिव्यक्ति में नवीनता एवं मौलिक उद्भावनाएं हों, स्वस्थ जीवन दृष्टि के साथ-साथ वैचारिकता और समकालीनता की झलक हो तथा वह समाज को आगे ले जाये इस प्रकार कृतित्व और श्रेष्ठता एवं प्रासंगिकता मिलकर रचना की सार्थकता को प्रतिपादित करती हैं । कहा जा सकता है कि लघुकथा में सार्थकता के सभी आधार विद्यमान हो सकते हैं और सार्थक लघुकथाओं में विद्यमान रहते हैं ।

लघुकथा का रुप क्या है, और वह मुख्य रुप से कहानी से किस हद तक अलग है, जिसे प्रस्तुत करने के अनेक तरीके अपनाये जाते हैं। इसके लिये कथा का आधार आधुनिक या प्राचीन जीवन से लिया जाता है। उसमें पशु पक्षी आदि के संस्कार से विषय लेकर फेंटेसी के माध्यम से अभिव्यक्ति की जाती है। लघुकथाओं में नीति बोधकथा को नवीन संदर्भों में अभिव्यक्ति देकर जहां वह सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति करती है, वहीं तीखे व्यंग्य का बाहक बनती है। लघुकथा में किसी नियोजित कथावस्तु के निर्वाह की गुंजाइश नहीं होती और पात्रों का चरित्र चित्रण भी उसकी निर्धारित सीमा से बाहर होता है, फिर भी लघुकथा का सूत्र कितना भी सूक्ष्म क्यों न हो, उसमें पात्र की मानसिकता को उधेड़ती हुई कलाकार की दृष्टि उसके वास्तविक स्वरुप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है। अतः लघुकथा में व्यक्ति का बाहरी संसार ही उजागर नहीं होता, बल्कि भीतरी संसार भी प्रत्यक्ष हो जाता है। लघुकथाएं समय के सत्य का वाहक बनकर हमारे सामने आती हैं। हिंदी लघुकथा के संदर्भ में व्यप्त भ्रांतियों को दूर करके मैंने विविध विंदुओं पर दूसरे स्वरुप को सुस्पष्ट करने का प्रयास किया है। उपयुक्त तथ्य विविध लघुकथाकारों से चर्चा प्रश्नावली के माध्यम से निदान और लघुकथाकारों के अध्ययन अनुशीलन के अनंतर शोध की नूतन सृष्टि और मौलिकता की दृष्टि का प्रतीक है। हिंदी लघुकथाकारों के स्वरुप और विकास पर अनेक आलोचकों व लघुकथाकारों ने समय-समय पर विचार भी किये हैं तथा कुछ महत्वपूर्ण शोध भी समक्ष प्रस्तुत हुए हैं लेकिन प्रस्तुत शोध प्रबंध के विषय के अनुरुप इसका आंकलन वे व्यवस्थित विचार अभी तक उपलब्ध नहीं था। विचार विच्छिन्न थे और आलोचना को एकांगी और अपरिभाषित संसार ही हमारे समक्ष था।

लघुकथाओं के इस कुज्झटिकाच्छन स्थिति में सत्यान्वेषण के आलोक बतौर यह शोध प्रबंध यदि कुछ दे पाये, तो यह मेरे श्रम की सार्थकता होगी।प्रस्तुत विषय की पूर्णता हेतु जहां मुझे दूसरे विकास क्रम हेतु पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहों का संकलन करना पड़ा, वहीं समीक्षा को ढूंढना पड़ा। इसके साथ ही लघुकथाकारों से संपर्क, चर्चा व पत्रों के माध्यम से विचार बिन्दु प्राप्त कर इसके स्वरुप और विकास को व्यवस्थित रखने का विनम्र प्रयास करना पड़ा । समय-सीमा और एक नारी होने की सामाजिक मर्यादा बंधन को स्वीकारते हुए मैंने जो कुछ भी लिखा, यही शोध का गंतव्य और अध्ययन का महत्व है ।मैंने प्रस्तुत विषय को विविध दस अध्यायों में विभक्त कर हिन्दी लघुकथा उद्भव एवं विकास को विवेचित किया है।

प्रथम अध्याय में कथा की परिभाषा एवं कथा का विकासात्मक अध्ययन करते हुए कथा एवं लघुकथा के अंतरों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । कथा एवं लघुकथा में रचना प्रक्रिया के अंतर के साथ ही वैचारिक दृष्टिकोणों में मूलभूत अंतर है । साथ ही लघुकथा के संबंध में अनेक विद्वानों को रखते हुए मैंने लघुकथा की विशेषताओं को आंकने का प्रयास किया है ।

द्वितीय अध्याय- ‘लघुकथा का क्रमिक विकास’ शीर्षक में लघुकथा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करने के लिए अध्ययन की दृष्टि से दो स्थूल रूपों में काल विभाजन किया है प्राचीन युग एवं नवीन युग । प्राचीन काल की लघुकथाओं में वैदिक युगीन लघुकथाओं को प्रथम सूत्र में पिरोया है । इस युग की लघुकथाओं में आध्यात्मिक एवं अलौकिक रहस्यों की व्याख्या की गई है, जैसा कि ऋग्वेद और अर्थववेद में मिलता है । उदाहरणार्थ यम और यमी की कथा । रामायण और महाभारत में भी लंबी कथा से जुड़ी रहकर लघुकथा का स्वतंत्र रुप प्राप्त होता है । रामायण कालीन न्याय व्यवस्था का स्वरुप वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में गिद्धराज और उल्लू की लड़ाई झगड़े की कथा प्राप्त होती है । लघुकथा का नवीन रुप माखन लाल चतुर्वेदी की लघुकथा ‘बिल्ली और बुखार’ को हिन्दी साहित्य की सर्वप्रथम लघुकथा मानी जा सकती है । आठवाँ दशक लघुकथा के विकास का काल है । इस दशक में लघुकथा को स्वतंत्र मौलिक विधा के रुप में स्थापित करने का स्वर प्रबल रहा । सन् 1974 में मेरठ विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग ने इसे स्वतंत्र मौलिक विधा घोषित करके विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रमों में स्थान दिया । इसी अध्याय में लघुकथा के ऐतिहासिक सोपानों को स्पष्ट किया गया है ।

तृतीय अध्याय- में लघुकथा के स्वरुपगत और भाषागत वैशिष्टय को स्पष्ट किया है । लघुकथा के आकारगत वैशिष्ट्य, सुगठित शिल्प एवं सशक्त भाषा के कारण लघुकथा लोकप्रिय हुई । हिन्दी साहित्य की सश्क्त एवं लोकप्रिय विधा लघुकथा का अत्यंत अल्पकाल में इतना विकास हुआ कि अब तक इसकी सर्वमान्य परिभाषा नहीं है । अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि लघुकथा वास्तविक जीवन की क्षणिक घटना का रेखांकन है, जो छोटी होते हुए भी स्वतः पूर्ण और सुगठित होती है । प्रायः यही परिभाषा कहानी की भी दी जा सकती है, किन्तु लघुकथा और कहानी में बहुत अंतर है । साधारणतः लोग यही समझते हैं कि यदि घटना-क्रम को विस्तार से बड़े आकार में लिखा जाय, तो उसे कहानी कहेंगे और उसी आकार को लघु कर दिया जाये तो लघुकथा कहेंगे, किन्तु यह भ्रांति है । कहानी और रचना में मूलभूत अंतर है । यह अंतर केवल आकार प्रकार का नहीं, आत्मा का भी होता है ।लघुकथा के स्वरुप के संबंध में उसके आकार को लेकर भी विवाद है । वस्तुतः आकार की लघुता लघुकथा की अनिवार्य विशेषता है, जो उसके नाम में ही समाहित है । लघुकथा कितने शब्दों और पृष्ठों की होनी चाहिए । यह कोई व्यवहारिक मुद्दा नहीं है और नहीं कोई बंधन है। यह कहा जा सकता है कि लघुकथा में एक भी शब्द अनावश्यक न हो । दरअसल कम से कम शब्दों में अधिक कह देने के सामर्थ्य में ही लघुकथा का सारा कौशल निहित है ।अतः संक्षिप्तता और कसावट के निर्वाह के लिये लघुकथा की संवेदना के दायरे को समझ लेना चाहिए यदि लघुकथा की तुलना कहानी के साथ करें तो यह बेमानी है, कारण दोनों कही अपने-अपने ढंग से अपने समय के सच को पूरी प्रमाणिकता के साथ व्यक्त करती है । फर्क केवल इतना है कि लघुकथा उस तकतीर की तरह सीधे जाती है, जबकि कहानी विभिन्न स्थितियों का समाकलन करती हुई उस सच को पैदा करने वाली स्थितियों को भी उजागर करती है, तथा अंत में उन स्थितियों के खिलाफ पाठक को सोचने के लिये उत्तेजित करती है । लघुकथा और कहानी में एक बहुत बड़ा फर्क यही है । लघुकथा अपनी संपूर्णता में पाठकों उत्तेजित करने में उतनी सफल नहीं हुई, शायद इसके पीछे लघुकथा के साथ जाने अनजाने जुड़ा हुआ चुटकुला का स्वरुप भी है । अपनी संपूर्ण और ईमानदार कोशिशों के बावजूद लघुकथाकार इस भ्रम को दूर नहीं कर पाये हैं, और जब एक यह भ्रम दूर नहीं होगा उसका प्राप्य उपलब्ध नहीं होगा ।

चतुर्थ अध्याय - में हिन्दी लघुकथा साहित्य की विशेषताओं एवं न्यूनताओं को रेखांकित किया गया है ।

पंचम अध्याय में लघुकथा के शैलीगत वैशिष्टय के अंतर्गत लघुकथा में प्रयुक्त विभिन्न शैलियों का वर्णन किया गया है । लघुकथा की शैली के संबंध में यह प्रश्न उठता है कि क्या व्यंग्य लघुकथा के लिये अनिवार्य तत्व हैं ? यह सही भी है कि सस्ता हास्य लघुकथा के लिये सर्वथा वर्ज्य है किंतु व्यंग्य का अर्थ हास्य, कदापि नहीं है। व्यंग्य की एक शैली है, एक भंगिमा है, एक शक्ति है, जो हमारी चेतना को उद्वेलित करने में अमिधात्मक शैली से अधिक समर्थ होती है।

षष्ठ अध्याय में लघुकथाओं की वैचारिक पृष्ठ भूमि एवं संप्रेषणीयता के प्रश्नों की उद्घाटित करने की चेष्ठा की गई है। अपने लघुआकार में लघुकथा व्याप्क संप्रेषणीयता व प्रभावोत्पादकता के लिये अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। लघुकथा के आकारगत वैशिष्टय, सुगंठित शिल्प एवं सशक्त भाषा के कारण लघुकथा लोकप्रिय हुई ।

सप्तम् अध्याय- आठवें दशक की लघुकथाओं में समकालीनता के अंतर्गत आठवें दशक की लघुकथा की विशेषताओं को उजागर करने का प्रयास किया गया है। हिंदी लघुकथा के विकास के संदर्भ में आठवों दशक को नवोन्मेष काल कहा जा सकता है। स्पष्ट है कि पारंपरिक आदर्शों एवं उपदेशों में गुम्फित लघुकथा का यथार्थ के धरातल पर अवतरण हुआ।

अष्टम अध्याय- आठवें अध्याय में हिंदी के श्रेष्ठ लघुकथाकारों की प्रमुख लघुकथाओं की विशेषताओं को रेखांकित करने के साथ ही लघुकथाकारों का परिचय भी दिया गया है।

नवम अध्याय- ‘नवें दशक की लघुकथाओं में समकालीनता’ के अंतर्गत नवें दशक के लघुकथाकारों की लघुकथाओं पर दृष्टि डालने का प्रयास किया है। नवम अध्याय में हिंदी के श्रेष्ठ लघुकथाकारों का प्रदेय एवं मूल्यांकन की ईमानदार कोशिश की गई है।

दशम अध्याय- ‘उपसंहार के अंतर्गत समग्र लघुकथाओं तथा उसके भविष्य की संभावनाओं पर विचार करने के पश्चात निष्कर्षतः सार संक्षेप को प्रस्तुत किया गया है।लघुकथा अपने परिचय से लेकर संघर्ष करने तक की जोखिम भरी तमाम स्थितियों से गुजरकर आठवों दशक में स्वतंत्र विधा के रुप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हुई। लघुकथा के कथ्य शिल्प का निर्वाह ईमानदारी से किया जा रहा है। आज की लघुकथाओं में अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह शिल्प रचनाधर्मिता के संबंध में गुण तत्व के रुप में समाहित है। लघुकथाएं सम-सामियकता से जुड़ी हुई तथा प्रभाव संप्रेषण की दृष्टि से असीम क्षमता युक्त है। जहां इसकी महता लघुकथाकार के द्वारा नये मूल्यों की स्थापना है, वहीं अपने उत्तरदायित्व की पूरी तरह एहसास कराने में भी, निःसंकोच कहा जा सकता है कि आज की लघुकथाओं में यथार्थ के धरातल और समय की आवाज को मुखर करने को एक ईमानदार कोशिश के अमिट चिन्ह परिलक्षित होते हैं।
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डॉ. अंजलि शर्मा, सहायक प्राध्यापक, शासकीय स्नातकोत्तर कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय जरहाभाटा, बिलासपुर, छत्तीसगढ
साभार : लघुकथा दुनिया 

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

अवधी

अवधी 
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छूटत नहीं सुभाव, ननदी भउजी बन गइल 
दिखत नहीं बदलाव, दोस बिधाता के दइल 
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बिसरल लाज-शऊर, मैनर के चाहत बहुत 
आँखिन राखत सूर, मम्मी बेपल्ला भइल 
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फफकि परे मजदूर, आँसू बहाल किसान के
कोरोना के मार, सहि न सकित मरि-मरि जिअत
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सहज नहीं बदलाव, भितरेन भितरें भुकुरिगें 
अँगना पीपल छाँव, मलकिन सुमिरें सिसकि कें 
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फोनै अकलि बताय, मश्किल पाई आएँ नहीं 
किरिया करम भुलाय, मटकें लड़िका लाज तज 
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अवधी हिंदी क्षेत्र की एक उपभाषा है। यह उत्तर प्रदेश के "अवध क्षेत्र" (लखनऊ, रायबरेली, सुल्तानपुर, बाराबंकी, उन्नाव, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर, अयोध्या, जौनपुर, प्रतापगढ़, प्रयागराज, कौशाम्बी, अम्बेडकर नगर, गोंडा,बस्ती, बहराइच,बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, श्रावस्ती तथा फतेहपुर में बोली जाती है। इसके अतिरिक्त इसकी एक शाखा बघेलखंड में बघेली नाम से प्रचलित है। 'अवध' शब्द की व्युत्पत्ति "अयोध्या" से है। इस नाम का एक सूबा के राज्यकाल में था। तुलसीदास ने अपने "मानस" में अयोध्या को 'अवधपुरी' कहा है। इसी क्षेत्र का पुराना नाम 'कोसल' भी था जिसकी महत्ता प्राचीन काल से चली आ रही है।

भाषा शास्त्री डॉ॰ सर "जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन" के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार अवधी बोलने वालों की कुल आबादी 1615458 थी जो सन् 1971 की जनगणना में 28399552 हो गई। मौजूदा समय में शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 6 करोड़ से ज्यादा लोग अवधी बोलते हैं। भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त के 19 जिलों- सुल्तानपुर, अमेठी, बाराबंकी, प्रतापगढ़, प्रयागराज, कौशांबी, फतेहपुर, रायबरेली, उन्नाव, लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोंडा, अयोध्या व अंबेडकर नगर में पूरी तरह से यह बोली जाती है। जबकि 7 जिलों- जौनपुर, मिर्जापुर, कानपुर, शाहजहांपुर, आजमगढ़,सिद्धार्थनगर, बस्ती और बांदा के कुछ क्षेत्रों में इसका प्रयोग होता है। बिहार प्रांत के 2 जिलों के साथ पड़ोसी देश नेपाल के कई जिलों - बांके जिला, बर्दिया जिला, दांग जिला, कपिलवस्तु जिला, पश्चिमी नवलपरासी जिला, रुपन्देही जिला, कंचनपुर जिला आदि में यह काफी प्रचलित है। इसी प्रकार दुनिया के अन्य देशों- मॉरिशस, त्रिनिदाद एवं टुबैगो, फिजी, गयाना, सूरीनाम सहित आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व हॉलैंड (नीदरलैंड) में भी लाखों की संख्या में अवधी बोलने वाले लोग हैं। 

अवधी प्रमुख रूप से भारत, नेपाल और फिजी में बोली जाती है। भारत में अवधी मुख्यतः उत्तर प्रदेश राज्य में बोली जाती है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार के कुछ जिलों में बोली जाती है। उत्तर प्रदेश के अवधी भाषी जिले: अमेठी, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, रायबरेली, प्रयागराज, कौशांबी, अम्बेडकर नगर, सिद्धार्थ नगर, गोंडा, बलरामपुर, बाराबंकी, अयोध्या, लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, बहराइच, बस्ती एवं फतेहपुर।

नेपाल के अवधी भाषी जिले कपिलवस्तु, बर्दिया, डांग, रूपनदेही, नवलपरासी, कंचनपुर, बांके आदि तराई नेपाल के जिले।

इसी प्रकार दुनिया के अन्य देशों- मॉरिशस, त्रिनिदाद एवं टुबैगो, फिजी, गयाना, सूरीनाम सहित आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व हॉलैंड (नीदरलैंड) में भी लाखों की संख्या में अवधी बोलने वाले लोग हैं।

हिंदी खड़ीबोली से अवधी की विभिन्नता मुख्य रूप से व्याकरणात्मक है। इसमें कर्ता कारक के परसर्ग (विभक्ति) "ने" का नितांत अभाव है। अन्य परसर्गों के प्राय: दो रूप मिलते हैं- ह्रस्व और दीर्घ। (कर्म-संप्रदान-संबंध : क, का; करण-अपादान : स-त, से-ते; अधिकरण : म, मा)।

संज्ञाओं की खड़ीबोली की तरह दो विभक्तियाँ होती हैं- विकारी और अविकारी। अविकारी विभक्ति में संज्ञा का मूल रूप (राम, लरिका, बिटिया, मेहरारू) रहता है और विकारी में बहुवचन के लिए "न" प्रत्यय जोड़ दिया जाता है (यथा रामन, लरिकन, बिटियन, मेहरारुन)। कर्ता और कर्म के अविकारी रूप में व्यंजनान्त संज्ञाओं के अंत में कुछ बोलियों में एक ह्रस्व "उ" की श्रुति होती है (यथा रामु, पूतु, चोरु)। किंतु निश्चय ही यह पूर्ण स्वर नहीं है और भाषाविज्ञानी इसे फुसफुसाहट के स्वर-ह्रस्व "इ" और ह्रस्व "ए" (यथा सांझि, खानि, ठेलुआ, पेहंटा) मिलते हैं।

संज्ञाओं के बहुधा दो रूप, ह्रस्व और दीर्घ (यथा नद्दी नदिया, घोड़ा घोड़वा, नाऊ नउआ, कुत्ता कुतवा) मिलते हैं। इनके अतिरिक्त अवधी क्षेत्र के पूर्वी भाग में एक और रूप-दीर्घतर मिलता है (यथा कुतउना)। अवधी में कहीं-कहीं खड़ीबोली का ह्रस्व रूप बिलकुल लुप्त हो गया है; यथा बिल्ली, डिब्बी आदि रूप नहीं मिलते बेलइया, डेबिया आदि ही प्रचलित हैं।

सर्वनाम में खड़ीबोली और ब्रज के "मेरा तेरा" और "मेरो तेरो" रूप के लिए अवधी में "मोर तोर" रूप हैं। इनके अतिरिक्त पूर्वी अवधी में पश्चिमी अवधी के "सो" "जो" "को" के समानांतर "से" "जे" "के" रूप प्राप्त हैं।

क्रिया में भविष्यकाल रूपों की प्रक्रिया खड़ीबोली से बिलकुल भिन्न है। खड़ीबोली में प्राय: प्राचीन वर्तमान (लट्) के तद्भव रूपों में- गा-गी-गे जोड़कर (यथा होगा, होगी, होंगे आदि) रूप बनाए जाते हैं। ब्रज में भविष्यत् के रूप प्राचीन भविष्यत्काल (लट्) के रूपों पर आधारित हैं। (यथा होइहैंउ भविष्यति, होइहोंउ भविष्यामि)। अवधी में प्राय: भविष्यत् के रूप तव्यत् प्रत्ययांत प्राचीन रूपों पर आश्रित हैं (होइबाउ भवितव्यम्)। अवधी की पश्चिमी बोलियों में केवल उत्तमपुरुष बहुवचन के रूप तव्यतांत रूपों पर निर्भर हैं। शेष ब्रज की तरह प्राचीन भविष्यत् पर। किंतु मध्यवर्ती और पूर्वी बोलियों में क्रमश: तव्यतांत रूपों की प्रचुरता बढ़ती गई है। क्रियार्थक संज्ञा के लिए खड़ीबोली में "ना" प्रत्यय है (यथा होना, करना, चलना) और ब्रज में "नो" (यथा होनो, करनो, चलनो)। परंतु अवधी में इसके लिए "ब" प्रत्यय है (यथा होब, करब, चलब)। अवधी में निष्ठा एकवचन के रूप का "वा" में अंत होता है (यथा भवा, गवा, खावा)। भोजपुरी में इसके स्थान पर "ल" में अंत होनेवाले रूप मिलते हैं (यथा भइल, गइल)। अवधी का एक मुख्य भेदक लक्षण है अन्यपुरुष एकवचन की सकर्मक क्रिया के भूतकाल का रूप (यथा करिसि, खाइसि, मारिसि)। य-"सि" में अंत होनेवाले रूप अवधी को छोड़कर अन्यत्र नहीं मिलते। अवधी की सहायक क्रिया में रूप "ह" (यथा हइ, हइं), "अह" (अहइ, अइई) और "बाटइ" (यथा बाटइ, बाटइं) पर आधारित हैं।

ऊपर लिखे लक्षणों के अनुसार अवधी की बोलियों के तीन वर्ग माने गए हैं : पश्चिमी, मध्यवर्ती और पूर्वी। पश्चिमी बोली पर निकटता के कारण ब्रज का और पूर्वी पर भोजपुरी का प्रभाव है। इनके अतिरिक्त बघेली बोली का अपना अलग अस्तित्व है।

विकास की दृष्टि से अवधी का स्थान ब्रज, कन्नौजी और भोजपुरी के बीच में पड़ता है। ब्रज की व्युत्पत्ति निश्चय ही शौरसेनी से तथा भोजपुरी की मागधी प्राकृत से हुई है। अवधी की स्थिति इन दोनों के बीच में होने के कारण इसका अर्धमागधी से निकलना मानना उचित होगा। खेद है कि अर्धमागधी का हमें जो प्राचीनतम रूप मिलता है वह पाँचवीं शताब्दी ईसवी का है और उससे अवधी के रूप निकालने में कठिनाई होती है। पालि भाषा में बहुधा ऐसे रूप मिलते हैं जिनसे अवधी के रूपों का विकास सिद्ध किया जा सकता है। संभवत: ये रूप प्राचीन अर्धमागधी के रहे होंगे।

प्राचीन अवधी साहित्य की दो शाखाएँ हैं : एक भक्तिकाव्य और दूसरी प्रेमाख्यान काव्य। भक्तिकाव्य में गोस्वामी तुलसीदास का "रामचरितमानस" (सं. 1631) अवधी साहित्य की प्रमुख कृति है। इसकी भाषा संस्कृत शब्दावली से भरी है। "रामचरितमानस" के अतिरिक्त तुलसीदास ने अन्य कई ग्रंथ अवधी में लिखे हैं। इसी भक्ति साहित्य के अंतर्गत लालदास का "अवधबिलास" आता है। इसकी रचना संवत् 1700 में हुई। इनके अतिरिक्त कई और भक्त कवियों ने रामभक्ति विषयक ग्रंथ लिखे।

संत कवियों में बाबा मलूकदास भी अवधी क्षेत्र के थे। इनकी बानी का अधिकांश अवधी में है। इनके शिष्य बाबा मथुरादास की बानी भी अधिकतर अवधी में है। बाबा धरनीदास यद्यपि छपरा जिले के थे तथापि उनकी बानी अवधी में प्रकाशित हुई। कई अन्य संत कवियों ने भी अपने उपदेश के लिए अवधी को अपनाया है।

प्रेमाख्यान काव्य में सर्वप्रसिद्ध ग्रंथ मलिक मुहम्मद जायसी रचित "पद्मावत" है जिसकी रचना "रामचरितमानस" से 34 वर्ष पूर्व हुई। दोहे चौपाई का जो क्रम "पद्मावत" में है प्राय: वही "मानस" में मिलता है। प्रेमाख्यान काव्य में मुसलमान लेखकों ने सूफी मत का रहस्य प्रकट किया है। इस काव्य की परंपरा कई सौ वर्षों तक चलती रही। मंझन की "मधुमालती", उसमान की "चित्रावली", आलम की "माधवानल कामकंदला", नूरमुहम्मद की "इंद्रावती" और शेख निसार की "यूसुफ जुलेखा" इसी परंपरा की रचनाएँ हैं। शब्दावली की दृष्टि से ये रचनाएँ हिंदू कवियों के ग्रंथों से इस बात में भिन्न हैं कि इसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की उतनी प्रचुरता नहीं है।

प्राचीन अवधी साहित्य में अधिकतर रचनाएँ देशप्रेम, समाजसुधार आदि विषयों पर और मुख्य रूप से व्यंग्यात्मक हैं। कवियों में प्रतापनारायण मिश्र, बलभद्र दीक्षित "पढ़ीस", वंशीधर शुक्ल, चंद्रभूषण द्विवेदी "रमई काका", गुरु प्रसाद सिंह "मृगेश" और शारदाप्रसाद "भुशुंडि" विशेष उल्लेखनीय हैं।

प्रबंध की परंपरा में "रामचरितमानस" के ढंग का एक महत्वपूर्ण आधुनिक ग्रंथ द्वारिकाप्रसाद मिश्र का "कृष्णायन" है। इसकी भाषा और शैली "मानस" के ही समान है और ग्रंथकार ने कृष्णचरित प्राय: उसी तन्मयता और विस्तार से लिखा है जिस तन्मयता और विस्तार से तुलसीदास ने रामचरित अंकित किया है। मिश्र जी ने इस ग्रंथ की रचना द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि प्रबंध के लिए अवधी की प्रकृति आज भी वैसी ही उपादेय है जैसी तुलसीदास के समय में थी।

अवधी लोक साहित्य की एक समृद्ध परम्परा है। अवधी लोक साहित्य पर कई शोध हुए हैं। इनमें कुछ प्रमुख हैं- अवधी लोक साहित्य -डा॰ सरोजनी रोहतगी (१९७१)

प्राचीन काल में अवधी साहित्य केवल पद्द के रूप में फला फूला है। अतः अवधी लोक गायकी भी प्राचीन काल से ही चली आ रही है। अवधी कलाकारों को बिरहा, नौटंकी नाच, अहिरवा नृत्य, कंहरवा नृत्य, चमरवा नृत्य, कजरी आदि नाट्य विधाओं का आविष्कारक माना जाता है तथा इसमें इन्हे अभी भी महारत हासिल है। अवधी की गारी तो पूरे अवध मे प्रसिद्ध है, इसे शादी-ब्याह में महिलाओं द्वारा गाया जाता है।अवधी के सुप्रसिद्ध गायक दिवाकर द्विवेदी है।

विश्व भर में 6 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा अवधी को अभी तक भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिल सकी है। इसी प्रकार फिजी में अवधी भाषा को फिजी हिंदी के रूप में प्रस्तुत करके भारत सरकार ने फिजी में भी अवधी के अस्तित्व को मानने से इंकार कर दिया है। किन्तु इन्हीं सब के बीच नेपाल ने प्रांत संख्या ५ में अवधी को आधिकारिक भाषा का दर्जा प्रदान करके अवधी साहित्यकारों की कलम में जान फूंकने का कार्य किया है। इससे भारत के अवधी भाषी भी काफी उत्साहित हैं।

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राजस्थानी मुक्तिका

राजस्थानी मुक्तिका 
संजीव 
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बखत पड्यां पे अल्ला-राम
सुमिरै बेबस गंगाराम
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पढ़बो-लिखबो; घर सूँ खड़बो 
सीख खड़ा छै चंगाराम
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रंग बदल्या-ढंग बदलग्या 
नेता बण ग्या नंगाराम 
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अपनापन बातां-नातां को 
मोल भुला र् या दंगाराम 
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आगे-पाछे अगल्या-बगल्या
ढेर कांकरा पंगाराम 
*
अड़बो-लड़बो बिना बात के 
नसां नसां बेढंगा राम 
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भ्रष्टाचारी पोलां कर दी 
नीं कुतर ग्यो  तंगाराम 
*** 
   

मुक्तक

मुक्तक 
यहाँ-वहाँ भटके बहुत चलें नीड की ओर 
जुड़े रहें हम जड़ों से टूट न पाए डोर 
निशा-तिमिर से भय न कर, रहें सजग हम-आप 
कोरोना मिटा जाएगा, कल है उज्ज्वल भोर 
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एकता और शक्ति


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नवगीत

नवगीत 
*
लछमी मैया!
माटी का कछु कर्ज चुकाओ
*
देस बँट रहो,
नेह घट रहो,
लील रई दीपक खों झालर
नेह-गेह तज देह बजारू
भई; कैत है प्रगतिसील हम।
हैप्पी दीवाली
अनहैप्पी बैस्ट विशेज से पिंड छुड़ाओ
*
मूँड़ मुड़ाए
ओले पड़ रए
मूरत लगे अवध में भारी
कहूँ दूर बनवास बिता रई
अबला निबल सिया-सत मारी
हाय! सियासत
अंधभक्त हौ-हौ कर रए रे
तनिक चुपाओ
*
नकली टँसुए
रोज बहाउत
नेता गगनबिहारी बन खें
डूब बाढ़ में जनगण मर रओ
नित बिदेस में घूमें तन खें
दारू बेच;
पिला; मत पीना कैती जो
बो नीति मिटाओ
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एक रचना

एक रचना
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दिल जलता है तो जलने दे
दीवाली है
आँसू न बहा फरियाद न कर
दीवाली है
दीपक-बाती में नाता क्या लालू पूछे
चुप घरवाला है, चपल मुखर घरवाली है
फिर तेल धार क्या लगी तनिक यह बतलाओ
यह दाल-भात में मूसल रसमय साली है
जो बेच-खरीद रहे उनको समधी जानो
जो जला रही तीली सरहज मतवाली है
सासू याद करे अपने दिन मुस्काकर
साला बोला हाथ लगी हम्माली है
सखी-सहेली हवा छेड़ती जीजू को
भभक रही लौ लाल न जाए सँभाली है
दिल जलता है तो जलने दे दीवाली है
आँसू न बहा फरियाद न कर दीवाली है
***