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गुरुवार, 17 सितंबर 2020

समीक्षा : सत्य तथ्य कथ्य - डॉ. गिरजेश सक्सेना

समीक्षा
सत्य तथ्य कथ्य - जमीनी सचाई से साक्षात करती कृति 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[ कृति विवरण : सत्य कथ्य तथ्य, संस्मरणात्मक कथा संग्रह, कनल डॉ. गिरिजेश नारायण सक्सेना, प्रथम संस्करण, २०२०, २१ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण पेपरबैक  बहुरंगी, पृष्ठ १२०, मूल्य २०० रु., आईसेक्ट पब्लिकेशन भोपाल। ] 
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सत्य कहा जाए तो वह तथ्य विहीन नहीं हो सकता। इसी तरह तथ्य सामने रखे जाएँ तो उनमें सत्य ही होगा। कथ्य सत्यपरक और असत्यपरक दोनों हो सकता है। कथ्य तथ्यपरक और तथ्यहीन दोनों हो सकता है। कथ्य में सत्य और तथ्य दोनों का समावेश हो और तब भी वह गल्प (गप्प नहीं) याकिस्से की तरह दिलचस्प हो, ऐसा लेखन सबके बस की बात नहीं किंतु भोपालवासी कनल डॉ. गिरजेश सक्सेना बंदूक से गोली, इंजेक्शन की सिरिंज से दवाई और वकीली जुबान से निकलते तर्कों की तरह सहजता से ऐसा लेखन करने में माहिर हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं है इसकी साक्षी है उनकी सद्य प्रकाशित कृति 'सत्य तथ्य कथ्य'। भारत और हिंदी में किस्सागोई की परंपरा आदिकाल से है। दुर्भाग्य से अब गाँवों में चौपालें और पनघट नहीं रहे, न वैसी सरल-निश्छल मानसिकता जो सहज किस्सागोई के लिए आवश्यक है। किस्सगोई का अभाव खलता हो तो पढ़िए डॉ. सक्सेना की यह कृति। आपका मन ऐसा रमेगा कि आखिरी पृष्ठ पर पहुँच कर कहेंगे अरे! यह तो समाप्त हो गई। पूरी किताब पढ़ने के बाद भी पढ़ने की प्यास शेष रह जाए, यही रचनाकार की इससे सफलता है। इस कसौटी पर यह किताब जिसे लेखक ने कहानी संकलन कहा है,  पूरी तरह सफल है।  
"जीवन में जो भी होता है अपने पीछे कुछ सन्देश छोड़कर जाता है, कुछ सीख देकर जाता है, जो हमें आगे जीने की राह दिखाता है।  मैंने भी जो जीवन जिया उसमें हर व्यक्ति ने, हर घटना ने मुझे कुछ न कुछ सिखाया। कहानीकार जो कहानी रचता है, लिखता है उसके पात्र किसी दूसरी दुनिया से नहीं आते, सब उसके आस-पास ही होते हैं। आवश्यकता होती है उन्हें महसूस करने की, आत्मसात करने की" डॉ. सक्सेना का यह कथन "जो जिया वो ही कहा" पर पूर्ण होते तक यह बता देता है की वे विशिष्ट की विशिष्टता के नहीं सामान्य की सामान्यता के मुरीद हैं। उनकी लेखकीय ईमानदारी "वैसे मैं चाहता तो बड़ी आसानी से 'मैं' प्रथम पुरुष के स्थान पर कोई भी कल्पनिक नाम, तृतीय पुरुष को भी कथा नायक बन सकता था पर उससे कथा सार की सत्यता पर प्रभाव पड़ता।" से भी सामने आती है। स्वानुभूति को परानुभूति या सर्वानुभूति कहने का पाखंड भी क्यों? 
'स्व' तक सीमित रहते हुए भी लेखक स्वानुभूति को 'सर्वानुभूति' में परिवर्तित होते देख रहा है । मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जैसे-जैसे यह कृति पाठकों के हाथों में जाएगी वैसे-वैसे पाठकीय प्रतिक्रिया से लेखक को इस तथ्य और सत्य की प्रतीति होगी कि उसका कथ्य अब पाठकों का हो चुका है। संकलन की ३२ रचनाओं में 'मैं लाल घाटी हूँ', 'त्रितालनामा' और 'कहानी बस स्टैंड की' दमन भोपाल के तथाकथित विकास के लिए किये गए विनाश, बेतरतीब बदलाव से शहर के सौंदर्य में लगे बदनुमा दागों को इंगित करते हुए जो संदेश अन्तर्निहित है उसे प्रशासक और नेता समझ सकें तो भविष्य में पनरावृत्ति न हो। 'पापाजी', 'तुलसी हाय गरीब की', फन्ने खां तथा 'और ये विकास' भी भोपाल से जुड़ी कथाएँ हैं।  
'मास्साब' नयी के पीढ़ी के लिए अकल्पनीय सामाजिक संबंध और कर्तव्य निष्ठा तथा कृतज्ञता का जीवंत दस्तावेज है, ऐसे प्रसंगों का साक्षी मैं भी रहा हूँ। 'डॉक्टर साहब' के नायक डॉ. बद्रीप्रसाद से मुझे डॉ. उपेंद्र रिछारिया और उनका बैग, मोटर सायकिल, मधुर व्यवहार और ठहाका याद आ रहा है। कहाँ वे स्वल्प साधनों से कम से कम दवाइयों और खर्च में जीवन देते चिकित्सक , कहाँ आज के व्यवसायी कमीशनखोर व्यवसायी  जो अनावश्यक परीक्षण, मँहगी दवाई और गैर जरूरी शल्य क्रियाओं में मरीज को चूस रहे डॉक्टर। 'वो लम्हे' संवेदन शील चिकित्सकों की कथा कहता है, जिनके प्रति श्रद्धा उपजती है। 'संतोष' में डॉ. सक्सेना ने ठीक ही लिखा है 'कि मरीज के लिए दवा से ज्यादा तवज्जो, ध्यान, अटेंशन जरूरी है। जब तक मन को संतोष न हो शायद दवा भी अधूरा इलाज होती है। सूक्ति की तरह यह वाक्य हर डॉक्टर के कक्ष में लिखा जाया जाना चाहिए। 
'भारतीय हूँ भूमि पुत्र नहीं' एक मार्मिक रचना है जो क्षुद्र-संकुचित राजनीति द्वारा किये जा रहे अन्याय को इंगित करती है। राष्ट्रीयता पर हावी होती घातक स्थानीयता पर डॉ. सक्सेना ने सटीक प्रहार किया है इस रचना में। व्यंजनात्मकता ने इसे तल्ख होने से बचाया है। 'ब-वफ़ा जान पर खेल गयी' और 'उम्मीदों का व्यापारी में' डॉ.  सक्सेना ने पालतू श्वान द्वारा अपने पालक की 'अलप' (मौत) खुद पर लेने  प्रसंग इस अपनेपन से प्रस्तुत किया है कि आँखें नम हुए बिना नहीं रहतीं। 'बरसों बाद में' अवरुद्ध विद्युत् प्रवाह सुधारते लाइनमैन के दुर्घटनाग्रस्त होने पर मेजर द्वारा अपना स्टाफ बताकर समुचित इलाज कराकर प्राण रक्षा करने का प्रेरक प्रसंग है। 'साड्डा रब्बी ओखा' हर संभव प्रयास के पश्चात रोगी की मौत से शोकाकुल चिकित्सक के मानवीय पक्ष को उद्घाटित करता है। 'का डागदरी पढ़ी है तोने?' का शीर्षक ही संकेत कर देता है कि यह रोगी के गैरजिम्मेदार संबंधियों द्वारा चिकित्सक पर की गयी अभद्र टिप्पणी की कथा  है। 
'कर्तव्य' भारतीय सैन्य बल के सदस्यों की कर्तव्यनिष्ठा  को उद्घाटित करता है जब मेजर आसन्न प्रसव  छोड़कर आतंवादियों द्वारा रखे बम को खोजकर निष्प्रभावी करता है, बाद में सद्य जन्मी संतान को देखता है। 'कच्ची खिचड़ी और बर्फ में लाशें' हृदयद्रावक प्रसंग है जिसमें १९७४ में सिक्किम के निकट हिमस्खलन में  दब गए पलटन के रात्रि चौकसी दल को खोजने की लोमहर्षक घटना उद्घाटित की गई है। 'सदाचार सदा विजयते' ईमानदार अधिकारी को मिले सामाजिक सम्मान का प्रेरक प्रसंग है। भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना स्वर्णमंदिर अमृतसर से आतंकवादियों के उन्मूलन के लिए की गई सैन्य कार्यवाही का रोमांचक और सत्य वर्णन 'जाको राखे साइयाँ' में है। सचिवालय में व्याप्त लालफीताशाही और पद का मद की कहानी कही गई है  'वक़्त बादशाह है' में। 'चुलबुला बचपन' में चुलबुलापन कहीं नहीं है, बेबसी, जिम्मेदारी और नासमझी अवश्य है, समूचा प्रसंग मन में गहरी टीस छोड़ जाता है। 
कहते हैं गरीब की हाय निष्फल नहीं जाती। 'तुलसी हाय गरीब की' एक मार्मिक  अन्याय कथा है जिसमें उपपत्नी के साथ बरती गयी अमानुषिकता और, उसकी हाय और वीभत्स अंत का वर्णन है। 'फन्ने खां  का  दिन' रोचक हास्य कथा है। 'अंध विश्वास' देवी के नाम पर किये जाते पाखंड और ठगी की  घटना का वर्णन है। 'और ये विकास' भोपाल के विकास से  अछूते विपन्न श्रमिक परिवार की करुण कथा है। कथा में संकेतित विडंबना केवल भोपाल नहीं समूचे देश की है। 'दुविधा' रोचक पारिवारिक है, जिसमें सहज हास्य की छटा है। सिद्धार्थ और देवदत्त का हंस प्रसंग बताता है 'मारनेवाले से बचानेवाला बड़ा होता है। ऐसी ही एक घटना "आज का सिद्धार्थ' में है जो पक्षियों एक प्रति करुणा का संदेश देती है। भारत में चुनाव के नाम पर जैसा धूम-धड़ाका होता है, अन्यत्र नहीं होता, 'वहाँ के चुनाव' में इंग्लैण्ड के सादे चुनाव का वर्णन है। परंपराओं को तोड़कर सड़क दुर्घटना में दिवंगत पति की अंतिम यात्रा में श्मशान तक साथ जाने और नन्हीं बेटी के हाथ से दाह कराकी करुण कथा है 'शक्ति' जिसमें स्वस्थ स्त्री विमर्श का पहलू भी अन्तर्निहित है। सड़क यातायात की अराजकता, पुलिस द्वारा बड़े वाहन के चालक को दोषी मानकर परेशान कर धनार्जन की कुप्रवृत्ति उद्घाटित हुई है 'बड़ा जुर्म' में। उच्च शिक्षा के मोह में विदेश गए पुत्र द्वारा छल से पिता के व्यवसाय को हथिया कर उन्हें वृद्धाश्रम में डालने की कुत्सित मानसिकता, पिता द्वारा असाधारण पुरुषार्थ कर आश्रम से व्यवसाय को फिर खड़ा कर पुत्र की फर्म से व्यवसाय करने की कथा है 'सन्नाटे के बाद'। शिक्षित, समृद्ध किन्तु उच्छृंखल युवती के कदाचरण की घटना है 'तिरिया चरित्तर' में। 
'सत्य तथ्य कथ्य' की ये कथाएँ समाज के विविध चहरे सामने लाती हैं। इनमें सामाजिक समरसता है, उत्सवधर्मिता है, उत्सर्ग है, लगन-परिश्रम है, आस्था है, कर्तव्यपरायणता है, सदाचार  है,  पाखंड है, द्वेष है, धन-संपत्ति लोलुपता है, राजनीतिक दिशाहीनता है, संपन्नता केंद्रित विकास है, विकास से अछूता आम आदमी है, सद्भावना है, सहानुभूति है, संवेदना है। डॉ. सक्सेना अतिरेकी लेखन से दूर संतुलित-समन्वित अभिव्यक्ति की रह पर चले हैं। वे स्वीकार्यता के पक्षधर हैं, नकारात्मकता है भी तो दीपक के नीचे छिपे तिमिर की तरह। अधिकांश रचनाओं में दीपपशिखा के उजाले की तरह आदर्श और अच्छाई, तेल की तरह मौन भाव से लक्ष्य साधन हेतु समर्पण,  तरह मर-मिटने का संकल्प पत्रों में है। इन मनोभावों की अनुभूति गहराई में पैठ कर की जा सकती है। लेखक इनका जयघोष करता। रचनाओं के पात्र कहीं भी मुखर (लाउड) नहीं हैं। आम आदमी की तरह सहिष्णुता और समन्वय रचनाओं में अन्तर्निहित है। कथ्य और तथ्य के  रचनाओं का कथ्य  खरा है। 
शिल्प के निकष पर डॉ. सक्सेना ने  वैचारिक प्रतिबद्धता के हामी तथाकथिक समीक्षकों को मुश्किल में डाल दिया है। साम्यवाद प्रणीत प्रगतिवादी समीक्षक हों या धुर दक्षिणपंथी समीक्षक दोनों इन रचनाओं को अपने चितन के अनुरूप न पाकर निराश और रुष्ट हों तो कोई  आश्चर्य नहीं। वास्तव में डॉ. सक्सेना ने किसी विधा की किताब नहीं लिखी है, ही किसी वाद विशेष का समर्थन विरोध है। वे लेखन का उद्देश्य आत्म संतुष्टि, सत-शिव-सुन्दर  प्रकाशन मानते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्हें असत, अशिव, असुंदर से परहेज नहीं है पर उतना ही स्वीकार्य है जितना भोजन में नमक। साहित्य सृजन को विसंगति, विखण्डन, बिखराव, टकराव तक सीमित रखनेवाले हों या धर्मान्धता, रूढ़िवादिता, पाखंड को शिरोधार्य करनेवाले दोनों के लिए जन हितकारी पचाना कठिन  होता है। डॉ. सक्सेना ने इनकी  'स्वांत: सुखाय' नर नारायण गाथा कही है। स्वनिर्मित मान्यताओं  कैदी समीक्षक रचनाओं में 'नास्ति' अर्थात कहानी नहीं,  संस्मरण नहीं, आत्मकथा नहीं, निबंध नहीं, लेख नहीं, रिपोर्ताज नहीं, लघुकथा नहीं कहकर अपनी खीझ निकालेंगे  और उन्हें लेखन की शैली बदलने  परामर्श देंगे। मेरी दृष्टि में 'नास्ति'  क़ेवल  'अस्ति' की ओर से मूँदना है। मैं इन रचनाओं में किस्सा, कहानी, गल्प, लघुकथा, निबंध, संस्मरण, आत्मकथा, पर्यटन वृत्तांत, लेख और रिपोर्ताज आदि की उपस्थिति देखता हूँ। छप्पन प्रकार के व्यंजनों की तरह बहुविधायी रचनाओं  का  यह नैवेद्य डॉ. सक्सेना  ने माँ सरस्वती और लिपि-लेखनी अधिष्ठाता देव चित्रगुप्त को समर्पित कर  स्वतन्त्रचेता  होने का पथ अपनाया है। 'चाणक्य के दाँत' लघुकथा संग्रह  में भी तथाकथित मानकों से भिन्न स्वनिर्मित पथ पर पग रखने की प्रवृत्ति  में  हुई है। इसलिए डॉ. सक्सेना साधुवाद के पात्र हैं। नव मानक गढ़ने के अगले पड़ाव की प्रतीक्षा पाठक के मन उत्पन्न करने में  कृति। 
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सम्पर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१६३२४४ 

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