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सोमवार, 3 जुलाई 2017

kavita

एक रचना
*
प्रयासों की अस्थियों पर
सुसाधन के मांस बिन.
सफलता चमड़ी
शिथिल हो झूलती.
*
साँस का व्यापार अब
थम सा रहा है.
आस को मँहगाई विषधर
डँस रहा है.
अंकुरों को पतझड़ों का
पान-गुटखा सुहाया पर-
कालिया बन कैंसर
निज पाश में
नित कस रहा है.
तरलता संकल्प की
पथ भूलती.
*
ब्रांडेड मँहगी दवाई
लिख रही सरकार निर्दय.
नाम जी.एस.टी. रहे या
अन्य कोई.
चिढ़ाती मुख
आम जन को
शान-शौकत
ख़ास जन की.
आस्था जो न्याय पर थी
जा कचहरी कोटे काले
देख फंदा झूलती.
*



रविवार, 29 मई 2011

मुक्तिका: आँख -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
आँख
संजीव 'सलिल'
*
आँख में पानी न आना चाहिए.
आँख का पानी न जाना चाहिए..

आँख मिलने का बहाना चाहिए.
आँख-आँखों में समाना चाहिए..

आँख लड़ती आँख से मिल दिल खिले.
आँख को नज़रें चुराना चाहिए..

आँख घूरे, झुक चलाये तीर तो.
आँख आँखों से लड़ाना चाहिए..

आँख का अंधा अदेखा देखता.
आँख ना आना न जाना चाहिए..

आँख आँखों से मिले हँसकर गले.
आँख में सपना सुहाना चहिये..

आँख झाँके आँख में सच ना छिपे.
आँख को बिजली गिराना चाहिए..

आँख करती आँख से बातें 'सलिल'
आँख आँख को करना बहाना चाहिए..

आँख का इंगित 'सलिल' कुछ तो समझ.
आँख रूठी मिल मनाना चाहिए..
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com