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रविवार, 31 मार्च 2019

गीत भक्तों से सावधान

एक रचना
भक्तों से सावधान
*
जो दुश्मन देश के, निश्चय ही हारेंगे
दिख रहे विरोधी जो वे भी ना मारेंगे
जो तटस्थ-गुरुजन हैं, वे ही तो तारेंगे
मुट्ठी में कब किसके, बँधता है आसमान
भक्तों से सावधान
*
देशभक्ति नारा है, आडंबर प्यारा है
सेना का शौर्य भी स्वार्थों पर वारा है
मनमानी व्याख्या कर सत्य को बुहारा है
जो सहमत केवल वे, हैं इनको मानदान
भक्तों से सावधान
*
अनुशासन तुम चाहो, ये पल-पल तोड़ेंगे
शासन की वल्गाएँ स्वार्थ हेतु मोड़ेंगे
गाली गुस्सा नफरत, हिंसा नहिं छोड़ेंगे
कंधे पर विक्रम के लदे लगें भासमान
भक्तों से सावधान
*
संवस, ७९९९५५९६१८
३१.३.२०१९

शनिवार, 30 मार्च 2019

एक दोहा

एक दोहा
*
सुन पढ़ सीख सका जिसे, लिखा साल-दर साल।
एक निमिष में पढ़ समझ, सचमुच किया कमाल।।
***
संवस
७९९९५५९६१८

पैरोडी- हवाई दोस्ती है ये / अजीब दास्तां है ये

ई मित्रता पर पैरोडी:
संजीव 'सलिल'
*
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
संवस
७९९९५५९६१८

चिंतन

चिंतन और चर्चा:

विश्वास या विष-वास?
*
= 'विश्वासं फलदायकम्' भारतीय चिंतन धारा का मूलमंत्र है।

= 'श्रद्धावान लभते ग्यानम्' व्यवहार जगत में विश्वास की महत्ता प्रतिपादित करता है।
बिना विश्वास के श्रद्धा हो ही नहीं सकती। शंकाओं का कसौटियों पर अनगिनत बार लगातार विश्वास खरा उतरे, तब श्रद्धा उपजती है।

= श्रद्धा अंध-श्रद्धा बनकर त्याज्य हो जाती है।

= स्वार्थ पर आधारित श्रद्धा, श्रद्धा नहीं दिखावा मात्र होती है।

= तुलसी 'भवानी शंकर वंदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' कहकर श्रद्धा और विश्वास के अंतर्संबंध को स्पष्ट कर देते हैं।

शिशु के लिए जन्मदात्री माँ से अधिक विश्वसनीय और कौन है सकता है? भवानी को श्रद्धा कहकर तुलसी ा कहे ही कह देते हैं कि वे सकल सृष्टिकर्त्री आदि प्रकृति महामाया हैं।
तुलसी शंकर को विश्वास बताते हैं। शंकर हैं शंकारि, शंकाओं के शत्रु। शंका का उन्मूलन करनेवाला ही तो विश्वास का भाजन होगा।

= यहाँ एक और महत्वपूर्ण सूत्र है जिसे जानना जरूरी है। अरि अर्थात शत्रु, शत्रुता नकारात्मक ऊर्जा है। संदेह हो सकता है कि क्या नकारात्मकता भी साध्य, वरेण्य हो सकती है? उत्तर हाँ है। यदि नकारात्मकता न हो तो सकारात्मकता को पहचानोगे कैसे? खट्टा, नमकीन, चरपरा, तीखा न हो मीठा भी आनंदहीन हो जाएगा।

सृष्टि की सृष्टि ही अँधेरे के गर्भ से होती है। निशा का निबिड़ अंधकार ही उषा के उजास को जन्म देता है। अमावस का घनेरा अँधेरा न हो तो दिये जलाकर उजाला का पर्व मनाने का आनंद ही न रहेगा।

= शत्रुता या नकारात्मकता आवश्यक तो है पर वह विनाशकारी है, विध्वंसक है, उसे सुप्त रहना चाहिए। वह तभी जागृत हो, तभी सक्रिय हो जब विश्वास और श्रद्धा की स्थापना अपरिहार्य हो। जीर्णोध्दार करने के लिए जीर्ण को मिटाना जरूरी है।

= भव अर्थात संसार, भव को अस्तित्व में लाने वाली भवानी, शून्य से- सर्वस्व का सृजन करनेवाली भवानी सकारात्मक ऊर्जा हैं। वे श्रद्धा हैं।

= विश्वास के बिना श्रद्धा अजन्मा और श्रद्धा के बिना विश्वास निष्क्रिय है। इसीलिए शिव तपस्यारत हैं। शत्रुता विस्मृति के गर्त में रहे तभी कल्याण है किंतु भवानी सक्रिय हैं, सचेष्ट हैं। यही नहीं वे शिव को निष्क्रिय कुलीन भी नहीं रहने देती, तपस्या को भंग करा देती हैं भले ही शिव की रौद्रता काम का विनाश कर दे।

= काम क्या है? काम रति का स्वामी है। रति कौन है? रति है ऊर्जा। काम और रति का दिशा-हीन मिलन वासना, मोह और भोग को प्रधानता देता है। यही काम निष्काम हो तो कल्याणकारी हो जाता है। रति यदि विरति हो तो सृजन ही न होगा, कुरति हो विनाश कर देगी, सुरति है तो सुगतिदात्री होगी।

= काम को मार कर फिर जिलाना शंका उपजाता है। मारा तो जिलाया क्यों? जिलाना था तो मारा क्यों? शंका का समाधान न हो तो विश्वास बिना मारे मर जाएगा।

किसी वास्तुकार से पूछो- जीर्णोध्दार के लिए बनाने से पहले गिराना होता है या नहीं? ऊगनेवाला सूर्य न डूबे तो देगा कैसे? तुम कहो कि ऊगना ही है तो डूबना क्यों या डूबना ही है तो ऊगना क्यों? तो इसका उत्तर यही है कि ऊगना इसलिए कि डूबना है, डूबना इसलिए कि भगवा है। जन्मना इसलिए कि मरना है, मरना इसलिए कि जन्मना है।

= शिव की सुप्त शक्ति पर विश्वास कर उसको जागृत करने-रखने वाली ही शिवा है। शिवारहित शिव शव सदृश्य हैं, मृत नहीं निरानंदी हैं। शिवा रे काम को शांत कर ममता में बदलनेवाले ही शिव हैं। शिवारहित शिवा तामसी नहीं तामसी हैं, उपवासी हैं, अपर्णा हैं। पतझर के बाद अपर्णा प्रकृति सपर्णा न हो तो सृष्टि न होगी इसलिए अपर्णा का लक्ष्य सपर्णा और सपर्णा का लक्ष्य अपर्णा है ।

= विश्वास और श्रद्धा भी शिव और शिवा का तरह अन्योन्याश्रित हैं। शंकाओं के गिरि से- उत्पन्न गिरिजा विश्वास के शंकर का वरण कर गर्भ से जन्मती हैं वरद, दयालु, नन्हें को गणनायक गणेश को जिनसे आ मिलते हैं षडानन और तुलसी करते हैं जय जय-

जय जय गिरिवर राज किसोरी, जय महेश मुख चंद्र चकोरी।
जय गजल-नजम षडानन माता, जगत जननि दामिनी द्युति दाता।।
नहिं तव आदि मध्य अलसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना।।

= विश्वास और श्रद्धा के बिना गण और गणतंत्र के गणपति बनने के अभिलाषी तब जान लें कि काम-सिद्धि को साध्य मानने की परिणाम क्षार होने में होता है। पक्ष-विपक्ष शत्रु नहीं पूरक हैं। एक दूसरे के प्रति विश्वास और गण के प्रति श्रद्धा ही उन्हें गणनायक बना सकती है अन्यथा जनशक्ति का शिव उन्हें सत्ता सौंप सकता है तो जनाक्रोश का रुद्र उन्हें मिट्टी में भी मिला सकता है।

= विश्वास और श्रद्धा का वरण कर जनता जनार्दन नोटा के तीसरे नेत्र का उपयोग कर सत्ता प्राप्ति के काम के प्रति रति रखनेवाले आपराधिक प्रवृत्तिवाले प्रत्याशियों और उन्हें मैदान में उतारनेवाले दलों को क्षार कर, जनसेवा के प्रति समर्पित जनप्रतिनिधियों को नवजीवन देने से पीछे नहीं हटेगी।
***
संवस
७९९९५५९६१८

चिंतन : संतान बनो


चिंतन :
संतान बनो
*
इसरो के वैग्यानिकों ने देश के बाहरी शत्रुओं की मिसाइलों, प्रक्षेपास्त्रों व अंतरिक्षीय अड्डों को नष्ट करने की क्षमता का सफल क्रियान्वयन कर हम सबको 'शक्ति की भक्ति' का पाठ पढ़ाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश बाहरी शत्रुओं से बहादुर सेना और सुयोग्य वैग्यानिकों की दम पर निपट सकता है। मेरा कवि यह मानते हुए भी 'जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि' तथा 'सम्हल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से' की घुटी में मिली सीख भूल नहीं पाता। 
लोकतंत्र के भीतरी दुश्मन कौन और कहाँ हैं, कब-कैसे हमला करेंगे, उनसे बचाव कौन-कैसे करेगा जैसे प्रश्नों के उत्तर चाहिए?
सचमुच चाहिए या नेताओं के दिखावटी देशप्रेम की तरह चुनावी वातावरण में उत्तर चाहने का दिखावा कर रहे हो? 
सचमुच चाहिए 
तुम कहते हो तो मान लेता हूँ कि लोकतंत्र के भीतरी शत्रुओं को जानना और उनसे लोकतंत्र को बचाना चाहते हो। इसके लिए थोड़ा कष्ट करना होगा।
घबड़ाओ मत, न तो अपनी या औलाद की जान संकट में डालना है, न धन-संपत्ति में से कुछ खर्च करना है। 
फिर? 
फिर... करना यह है कि आइने के सामने खड़ा होना है।
खड़े हो गए? अब ध्यान से देखो। कुछ दिखा? 
नहीं? 
ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम आइने के सामने हो और कुछ न दिखे। झिझको मत, जो दिख रहा है बताओ।
तुम खुद... ठीक है, आइना तो अपनी ओर से कुछ जोड़ता-घटाता नहीं है, सामने तुम खड़े हो तो तुम ही दिखोगे।
तुम्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिला? 
नहीं?, यह तो हो ही नहीं सकता, आईना तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर ही दिखा रहा है।
चौंक क्यों रहे हो? हमारे लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा और उस खतरे से बचाव का एकमात्र उपाय दोनों तुम ही हो।
कैसे? 
बताता हूँ। तुम कौन हो? 
आदमी
वह तो जानता हूँ पर इसके अलावा...
बेटा, भाई, मित्र, पति, दामाद, जीजा, कर्मचारी, व्यापारी, इस या उस धर्म-पंथ-गुरु या राजनैतिक दल या नेता के अनुयायी...
हाँ यह सब भी हो लेकिन इसके अलावा?
याद नहीं आ रहा तो मैं ही याद दिला देता हूँ। याद दिलाना बहुत जरूरी है क्योंकि वहीं समस्या और समाधान है। 
जो सबसे पहले याद आना चाहिए और अंत तक याद नहीं आया वह यह कि तुम, मैं, हम सब और हममें से हर एक 'संतान' है। 'संतान होना' और 'पुत्र होना' शब्द कोश में एक होते हुए भी, एक नहीं है। 
'पुत्र' होना तुम्हें पिता-माता पर आश्रित बनाता है, वंश परंपरा के खूँटे से बाँधता है, परिवार पोषण के ताँगे में जोतता है, कभी शोषक, कभी शोषित और अंत में भार बनाकर निस्सार कर देता है, फिर भी तुम पिंजरे में बंद तोते की तरह मन हो न हो चुग्गा चुगते रहते हो और अर्थ समझो न समझो राम नाम बोलते रहते हो। 
संतान बनकर तुम अंधकार से प्रकाश पाने में रत भारत माता (देश नहीं, पिता भी नहीं, पाश्चात्य चिंतन देश को पिता कहता है, पौर्वात्य चिंतन माता, दुनिया में केवल एक देश है जिसको माता कहा जाता है, वह है भारत) का संतान होना तुम्हें विशिष्ट बनाता है। 
कैसे?
क्या तुम जानते हो कि देश को विदेशी ताकतों से मुक्त कराने वाले असंख्य आम जन, सर्वस्व त्यागने वाले साधु-सन्यासी और जान हथेली पर लेकर विदेशी शासकों से जूझनेवाले पंथ, दल, भाषा, भूषा, व्यवसाय, धन-संपत्ति, शिक्षा, वाद, विचार आदि का त्याग कर भारत माता की संतान मात्र होकर स्वतंत्रता का बलिवेदी पर हँसते-हँसते शीश समर्पित करते रहे थे?
भारत माँ की संतान ही बहरों को सुनाने के लिए असेंबली में बम फोड़ रही थी, आजाद हिंद फौज बनाकर रणभूमि में जूझ रही थी। 
लोकतंत्र को भीतरी खतरा उन्हीं से है जो संतान नहीं है और खतरा तभी मिलेगा जब हम सब संतान बन जाएँगे। घबरा मत, अब संतान बनने के लिए सिर नहीं कटाना है, जान की बाजी नहीं लगाना है। वह दायित्व तो सेना, वैग्यानिक और अभियंता निभा ही रहे हैं।
अब लोकतंत्र को बचाने के लिए मैं, तुम, हम सब संतान बनकर पंथ, संप्रदाय, दल, विचार, भाषा, भूषा, शिक्षा, क्षेत्र, इष्ट, गुरु, संस्था, आहार, संपत्ति, व्यवसाय आदि विभाजक तत्वों को भूलकर केवल और केवल संतान को नाते लोकहित को देश-हित मानकर साधें-आराधें।
लोकतंत्र की शक्ति लोकमत है जो लोक के चुने हुए नुमाइंदों द्वारा व्यक्त किया जाता है।
यह चुना गया जनप्रतिनिधि संतान है अथवा किसी वाद, विचार, दल, मठ, नेता, पंथ, व्यवसायी का प्रतिनिधि? वह जनसेवा करेगा या सत्ता पाकर जनता को लूटेरा? उसका चरित्र निर्मल है या पंकिल? हर संतान, संतान को ही चुने। संतान उम्मीदवार न हो तो निराश मत हो, 'नोटा' अर्थात इनमें से कोई नहीं तो मत दो। तुम ऐसा कर सके तो राजनैतिक सट्टेबाजों, दलों, चंदा देकर सरकार बनवाने और देश लूटनेवालों का बाजी गड़बडा़कर पलट जाएगी।
यदि नोटा का प्रतिशत ५००० प्रतिशत या अधिक हुआ तो दुबारा चुनाव हो और इस चुनाव में खड़े उम्मीदवारों को आजीवन अयोग्य घोषित किया जाए। 
पिछले प्रादेशिक चुनाव में सब चुनावी पंडितों को मुँह की खानी पड़ी क्योंकि 'नोटा' का अस्त्र आजमाया गया। आयाराम-गयाराम का खेल खेल रहे किसी दलबदलू को कहीं मत न दे, वह किसी भी दल या नेता को नाम पर मत माँगे, उसे हरा दो। अपराधियों, सेठों, अफसरों, पूँजीपतियों को ठुकराओ। उन्हें चुने जो आम मतदाता की औसत आय के बराबर भत्ता लेकर आम मतदाता को बीच उन्हीं की तरह रहने और काम करने को तैयार हो। 
लोकतंत्र को बेमानी कर रहा दलतंत्र ही लोकतंत्र का भीतरी दुश्मन है। नेटा के ब्रम्हास्त्र से- दलतंत्र पर प्रहार करो। दलाधारित चुनाव संवैधानिक बाध्यता नहीं है। संतान बनकर मतदाता दलीय उम्मीदवारों के नकारना लगे और खुद जनसेवी उम्मीदवार खड़े करे जो देश की प्रति व्यक्ति औसत आय से अधिक भत्ता न लेने और सब सुविधाएँ छोड़ने का लिखित वायदा करे, उसे ही अवसर दिया जाए।
संतान को परिणाम की चिंता किए बिना नोटा का ब्रम्हास्त्र चलाना है। सत्तर साल का कुहासा दो-तीन चुनावों में छूटने लगेगा।
आओ! संतान बनो।
*

नवगीत - परिवर्तन

नवगीत - 
परिवर्तन
*
करें भिखारी भीड़ बढ़ाकर 
आरक्षण की माँग 
अगर न दे सरकार तोड़ दें
कानूनों की टाँग
*
पढ़े-लिखे हम, सुख समृद्धि भी
पाई है भरपूर
अकल-अजीर्ण हो गया, सारी
समझ गयी है दूर
स्वार्थ-साधने खापों में
फैसले किये अंधे
रहें न रहने देंगे सुख से
कर गोरखधंधे
अगड़े होकर भी करते हैं
पिछड़ों का सा स्वाँग
*
भूमि, भवन, उद्योग हमारे
किन्तु नहीं है चैन
लूटेंगे बाज़ार, निबल को
मारेंगे दिन-रैन
वाहन जला, उखाड़ पटरियाँ
लज्जा लूटेंगे
आर्तनाद का भोग लगाकर
आहें घूंटेंगे
बात होश की हमें न करना
घुली कुएँ में भाँग
*
मार रहे मरतों को मिलकर
बहुत वीर हैं हम
मातृभूमि की पीड़ा से भी
आँख न होती नम
कोस रहे जन-सरकारों को
पी-पीकर पानी
लाल करेंगे माँ की चूनर
चीर यही ठानी
सोने का अभिनय करते हम
जगा न सकती बाँग
*
नहीं शत्रु की तनिक जरूरत
काफी हैं हम ही
जीवनदात्री राष्ट्र एकता
खातिर हम यम ही
धृतराष्ट्री हम राष्ट्रप्रमुख को
देंगे केवल दोष
किन्तु न अपने कर्तव्यों का
हमें तनिक है होश
हँसें ठठा हम रावण, बहिना
की सुनी कर माँग
***

कृति चर्चा: मुक्त उड़ान: कुमार गौरव अजितेंदु

कृति चर्चा:
मुक्त उड़ान: कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु और सम्भावनाओं की आहट  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण: मुक्त उड़ान, हाइकु संग्रह, कुमार गौरव अजितेंदु, आईएसबीएन ९७८-८१-९२५९४६-८-२ प्रथम संस्करण २०१४, पृष्ठ १०८, मूल्य १००रु., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, शुक्तिका प्रकाशन ५०८ मार्किट कॉम्प्लेक्स, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३, हाइकुकार संपर्क शाहपुर, ठाकुरबाड़ी मोड़, दाउदपुर, दानापुर कैंट, पटना ८०१५०२ चलभाष ९६३१६५५१२९]
*
विश्ववाणी हिंदी का छंदकोष इतना समृद्ध और विविधतापूर्ण है कि अन्य कोई भी भाषा उससे होड़ नहीं ले सकती। देवभाषा संस्कृत से प्राप्त छांदस विरासत को हिंदी ने न केवल बचाया-बढ़ाया अपितु अन्य भाषाओँ को छंदों का उपहार (उर्दू को बहरें/रुक्न) दिया और अन्य भाषाओं से छंद ग्रहण कर (पंजाबी से माहिया, अवधी से कजरी, बुंदेली से राई-बम्बुलिया, मराठी से लावणी, अंग्रेजी से आद्याक्षरी छंद, सोनेट, कपलेट, जापानी से हाइकु, बांका, तांका, स्नैर्यू आदि) उन्हें भारतीयता के ढाँचे और हिंदी के साँचे ढालकर अपना लिया।

द्विपदिक (द्विपदी, दोहा, रोला, सोरठा, दोसुखने आदि) तथा त्रिपदिक छंदों (कुकुभ, गायत्री, सलासी, माहिया, टप्पा, बंबुलियाँ आदि) की परंपरा संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाओं में चिरकाल से रही है।  एकाधिक भाषाओँ के जानकार कवियों ने संस्कृत के साथ पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोकभाषाओं में भी इन छंदों का प्रयोग किया। विदेशों से लघ्वाकारी काव्य विधाओं में ३ पंक्ति के छंद (हाइकु, वाका, तांका, स्नैर्यू आदि) भारतीय भाषाओँ में विकसित हुए।
हिंदी में हाइकु का विकास स्वतंत्र वर्णिक छंद के साथ हाइकु-गीत, हाइकु-मुक्तिका, हाइकु खंड काव्य के रूप में भी हुआ है। वस्तुतः हाइकु ५-७-५ वर्णों नहीं, ध्वनि-घटकों (सिलेबल) से निर्मित है जिसे हिंदी भाषा में 'वर्ण' कहा जाता है।
कैनेथ यशुदा के अनुसार हाइकु का विकासक्रम 'रेंगा' से 'हाइकाइ' फिर 'होक्कु' और अंत में 'हाइकु' है। भारत में कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी जापान यात्रा के पश्चात् 'जापान यात्री' में चोका, सदोका आदि शीर्षकों से जापानी छंदों के अनुवाद देकर वर्तमान 'हाइकु' के लिये द्वार खोला। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् लौटे अमरीकियों-अंग्रेजों के साथ हाइकु का अंग्रेजीकरण हुआ। छंद-शिल्प की दृष्टि से हाइकु त्रिपदिक, ५-७-५ में १७ अक्षरीय वर्णिक छंद है। उसे जापानी छंद तांका / वाका की प्रथम ३ पंक्तियाँ भी कहा गया है। जापानी समीक्षक कोजी कावामोटो के अनुसार कथ्य की दृष्टि से तांका, वाका या रेंगा से उत्पन्न हाइकु 'वाका' (दरबारी काव्य) के रूढ़, कड़े तथा आम जन-भावनाओं से दूर विषय-चयन (ऋतु परिवर्तन, प्रेम, शोक, यात्रा आदि से उपजा एकाकीपन), शब्द-साम्य को महत्व दिये जाने तथा स्थानीय-देशज शब्दों का करने की प्रवृत्ति के विरोध में 'हाइकाइ' (हास्यपरक पद्य) के रूप में आरंभ हुआ जिसे बाशो ने गहनता, विस्तार व ऊँचाइयाँ हास्य कविता को 'सैंर्यु' नाम से पृथक पहचान दी। बाशो के अनुसार संसार का कोई भी विषय हाइकु का विषय हो सकता है।
शुद्ध हाइकु रच पाना हर कवि के वश की बात नहीं है। यह सूत्र काव्य की तरह कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्त करने की काव्य-साधना है। ३ अन्य जापानी छंदों तांका (५-७-५-७-७), सेदोका (५-७-७-५-७-७) तथा चोका (५-७, ५-७ पंक्तिसंख्या अनिश्चित) में भी ५-७-५ ध्वनिघटकों का संयोजन है किन्तु उनके आकारों में अंतर है।
छंद संवेदनाओं की प्रस्तुति का वाहक / माध्यम होता है। कवि को अपने वस्त्रों की तरह रचना के छंद-चयन की स्वतंत्रता होती है। हिंदी की छांदस विरासत को न केवल ग्रहण अपितु अधिक समृद्ध कर रहे हस्ताक्षरों में से एक कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु इस त्रिपदिक छंद के ५-७-५ वर्णिक रूप की रुक्ष प्रस्तुति मात्र नहीं हैं, वे मूल जापानी छंद का हिंदीकरण भी नहीं हैं, वे अपने परिवेश के प्रति सजग तरुण-कवि मन में उत्पन्न विचार तरंगों के आरोह-अवरोह की छंदानुशासन में बँधी-कसी प्रस्तुति हैं।
अजीतेंदु के हाइकु व्यक्ति, देश, समाज, काल के मध्य विचार-सेतु बनाते हैं। छंद की सीमा और कवि की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का ताल-मेल भावों और कथ्य के प्रस्तुतीकरण को सहज-सरस बनाता है। शिल्प की दृष्टि से अजीतेंदु ने ५-७-५ वर्णों का ढाँचा अपनाया है। जापानी में यह ढाँचा (फ्रेम) सामने तो है किन्तु अनिवार्य नहीं। बाशो ने १९ व २२ तथा उनके शिष्यों किकाकु ने २१, बुशोन ने २४ ध्वनि घटकों के हाइकु रचे हैं। जापानी भाषा पॉलीसिलेबिक है। इसकी दो ध्वनिमूलक लिपियाँ 'हीरागाना' तथा 'काताकाना' हैं। जापानी भाषा में चीनी भावाक्षरों का विशिष्ट अर्थ व महत्व है। हिंदी में हाइकु रचते समय हिंदी की भाषिक प्रकृति तथा शब्दों के भारतीय परिवेश में विशिष्ट अर्थ प्रयुक्त किये जाना सर्वथा उपयुक्त है। सामान्यतः ५-७-५ वर्ण-बंधन को मानने
अजितेन्दु के हाइकु प्राकृतिक सुषमा और मानवीय ममता के मनोरम चित्र प्रस्तुत करते हैं। इनमें सामयिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति है। ये पाठक को तृप्त न कर आगे पढ़ने की प्यास जगाते हैं। आप पायेंगे कि इन हाइकुओं में बहुत कुछ अनकहा है किन्तु जो-जितना कहा गया है वह अनकहे की ओर आपके चिंतन को ले जाता है। इनमें प्राकृतिक सौंदर्य- रात झरोखा / चंद्र खड़ा निहारे / तारों के दीप, पारिस्थितिक वैषम्य- जिम्मेदारियाँ / अपनी आकांक्षाएँ / कशमकश, तरुणोचित आक्रोश- बन चुके हैं / दिल में जमे आँसू / खौलता लावा, कैशोर्य की जिज्ञासा- जीवन-अर्थ / साँस-साँस का प्रश्न / क्या दूँ जवाब, युवकोचित परिवर्तन की आकांक्षा- लगे जो प्यास / माँगो न कहीं पानी / खोद लो कुँआ, गौरैया जैसे निरीह प्राणी के प्रति संवेदना- विषैली हवा / मोबाइल टावर / गौरैया लुप्त, राष्ट्रीय एकता- गाँव अग्रज / शहर छोटे भाई / बेटे देश के, राजनीति के प्रति क्षोभ- गिद्धों ने माँगी / चूहों की स्वतंत्रता / खुद के लिए, आस्था के स्वर- धुंध छँटेगी / मौसम बदलेगा / भरोसा रखो, आत्म-निरीक्षण, आव्हान- उठा लो शस्त्र / धर्मयुद्ध प्रारंभ / है निर्णायक, पर्यावरण प्रदूषण- रोक लेता है / कारखाने का धुँआ / साँसों का रास्ता, विदेशी हस्तक्षेप - देसी चोले में / विदेशी षडयंत्र / घुसे निर्भीक, निर्दोष बचपन- सहेजे हुए / मेरे बचपन को / मेरा ये गाँव, विडम्बना- सूखा जो पेड़ /जड़ों की थी साजिश / पत्तों का दोष, मानवीय निष्ठुरता- कौओं से बचा / इंसानों ने उजाड़ा / मैना का नीड़ अर्थात जीवन के अधिकांश क्षेत्रों से जुड़ी अभिव्यक्तियाँ हैं।
अजितेन्दु के हाइकु भारतीय परिवेश और समाज की समस्याओं, भावनाओं व चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनमें प्रयुक्त बिंब, प्रतीक और शब्द सामान्य जन के लिये सहज ग्रहणीय हैं। इन हाइकुओं के भाषा सटीक-शुद्ध है। अजितेन्दु का यह प्रथम हाइकु संकलन उनके आगामी रचनाकर्म के प्रति आश्वस्त करता है।
३०.३.२०१४ 
____________________
लेखक: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८   

मुक्तिका

मुक्तिका
संजीव 'सलिल'
*
कद छोटा परछाईं बड़ी है.
कैसी मुश्किल आई घड़ी है.
चोर कर रहे चौकीदारी
सचमच ही रुसवाई बड़ी है..
बीबी बैठी कोष सम्हाले
खाली हाथों माई खड़ी है..
खुद पर खर्च रहे हैं लाखों
भिक्षुक हेतु न पाई पड़ी है..
'सलिल' सांस-सरहद पर चुप्पी
मौत शीश पर आई-अड़ी है.. 
३०.३.२०१०
*************************

नोटा

मतदाता विवेकाधिकार मंच 
*

सामयिक दोहे 
अपराधी हो यदि खड़ा, मत करिए स्वीकार।
नोटा बटन दबाइए, खुद करिए उपचार।।
*
जन भूखा प्रतिनिधि करे, जन के धन पर मौज।
मतदाता की शक्ति है, नोटा मत की फौज।।
*
नेता बात न सुन रहा, शासन देता कष्ट।
नोटा ले संघर्ष कर, बाधा करिए नष्ट।
*

त्रिपदिक छंद हाइकु
विषय: पलाश
विधा: गीत
*
लोकतंत्र का / निकट महापर्व / हावी है तंत्र
*
मूक है लोक / मुखर राजनीति / यही है शोक
पूछे पलाश / जनता क्यों हताश / कहाँ आलोक?
सत्ता की चाह / पाले हरेक नेता / दलों का यंत्र
*
योगी बेहाल / साइकिल है पंचर / हाथी बेकार
होता बबाल / बुझी है लालटेन / हँसिया फरार
रहता साथ / गरीबों के न हाथ / कैसा षड़्यंत्र?
*
दलों को भूलो / अपराधी हराओ / न हो निराश
जनसेवी ही / जनप्रतिनिधि हो / छुए आकाश
ईमानदारी/ श्रम सफलता का / असली मंत्र
***
संवस
७९९९५५९६१८

शुक्रवार, 29 मार्च 2019

चित्र पर लेखन

समस्यापूर्ति
चित्र पर लेखन















हाइकु

हँसिया लिए
बुराई से जूझती
भलाई जीती
*
निर्भय नारी
नहीं रही कोमल
तीक्ष्ण कटारी
*
माहिया

गोदी में सोई है
नन्हीं सी आशा
सपनों में खोई है
*
तुम दया न दिखलाना
दुष्टों पर मैया!
पानी को तरसाना
*
पताका

पा
मैया
से रक्षा,
सुता हुई
नींद में लीन।
सपने देखती
आने वाले कल के
गढ़ेगी नया भारत
सब होंगे सुखी संपन्न।
*

सोरठा

कर बुराई से बैर, अबला सबला हो गई,
अब न रहेगी खैर, कहाँ छिपा है दुशासन
*
ममतामय कर एक, दूजे में हथियार ले
पूर्ण करेगी टेक, अपराधी को मार कर
*
हो भविष्य निश्चिन्त, वर्तमान की गोद में
नींद ले सके कंत!, रखना इसका ख़याल तुम
*
अनाचार को देख, दुर्गा से काली हुई
शक्ति समय कर लेख, दुष्ट न अब बाकि बचें
*
संवस
७९९९५५९६१८
२९-३-२०१९