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मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

मुक्तक दोहा गीत

मुक्तक:
पाँव रख बढ़ते चलो तो रास्ता मिल जाएगा 
कूक कोयल की सुनो नवगीत खुद बन जाएगा 
सलिल लहरों में बसा है बिम्ब देखो हो मुदित 
ख़ुशी होगी विपुल पल में, जन्म दिन मन जाएगा
*

दोहा 
मिल बैठा गपशप हुई, खिंचे अनेकों चित्र
चर्चा कर मन खुश हुआ, विहँसे भाई सुमित्र

*
गीत:
समय की करवटों के साथ
संजीव
*
गले सच को लगा लूँ मैँ समय की करवटों के साथ
झुकाया, ना झुकाऊँगा असत के सामने मैं माथ...
*
करूँ मतदान तज मत-दान बदलूँगा समय-धारा
व्यवस्था से असहमत है, न जनगण किंतु है हारा
न मत दूँगा किसी को यदि नहीं है योग्य कोई भी-
न दलदल दलोँ की है साध्य, हमकों देश है प्यारा
गिरहकट, चोर, डाकू, मवाली दल बनाकर आये
मिया मिट्ठू न जनगण को तनिक भी क़भी भी भाये
चुनें सज्जन चरित्री व्यक्ति जो घपला प्रथा छोड़ें
प्रशासन को कसे, उद्यम-दिशा को जमीं से जोड़े
विदेशी ताकतों से ले न कर्जे, पसारे मत हाथ.…
*
लगा चौपाल में संसद, बनाओ नीति जनहित क़ी
तजो सुविधाएँ-भत्ते, सादगी से रहो, चाहत की
धनी का धन घटे, निर्धन न भूखा कोई सोयेगा-
पुलिस सेवक बने जन की, न अफसर अनय बोयेगा
सुनें जज पंच बन फ़रियाद, दें निर्णय न देरी हो
वकीली फ़ीस में घर बेच ना दुनिया अँधेरी हो
मिले श्रम को प्रतिष्ठा, योग्यता ही पा सके अवसर
न मँहगाई गगनचुंबी, न जनता मात्र चेरी हो
न अबसे तंत्र होगा लोक का स्वामी, न जन का नाथ…
*


सोमवार, 8 जनवरी 2018

doha

दोहा दुनिया
लज्जा या निर्लज्जता, है मानव का बोध
समय तटस्थ सदा रहे, जैसे बाल अबोध

मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

muktika

मुक्तिका 
*
मैं समय हूँ, सत्य बोलूँगा. 
जो छिपा है राज खोलूँगा.
*
अनतुले अब तक रहे हैं जो
बिना हिचके उन्हें तोलूँगा.
*
कालिया है नाग काला धन
नाच फन पर नहीं डोलूँगा.
*
रूपए नकली हैं गरल उसको
मिटा, अमृत आज घोलूँगा
*
कमीशनखोरी न बच पाए
मिटाकर मैं हाथ धो लूँगा
*
क्यों अकेली रहे सच्चाई?
सत्य के मैं साथ हो लूँगा
*
ध्वजा भारत की उठाये मैं
हिन्द की जय 'सलिल' बोलूँगा
***

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#हिंदी_ब्लॉगर 

शनिवार, 5 अगस्त 2017

muktak

मुक्तक सलिला-
*
कौन पराया?, अपना कौन?
टूट न जाए सपना कौन??
कहें आँख से आँख चुरा
बदल न जाए नपना कौन??
*
राह न कोई चाह बिना है।
चाह अधूरी राह बिना है।।
राह-चाह में रहे समन्वय-
पल न सार्थक थाह बिना है।।
*
हुआ सवेरा जतन नया कर।
हरा-भरा कुछ वतन नया कर।।
साफ़-सफाई रहे चतुर्दिक-
स्नेह-प्रेम, सद्भाव नया कर।।
*
श्वास नदी की कलकल धड़कन।
आस किनारे सुन्दर मधुवन।।
नाव कल्पना बैठ शालिनी-
प्रतिभा-सलिल निहारे उन्मन।।
*
मन सावन, तन फागुन प्यारा।
किसने किसको किसपर वारा?
जीत-हार को भुला प्यार कर
कम से जग-जीवन उजियारा।।
*
मन चंचल में ईश अचंचल।
बैठा लीला करे, नहीं कल।।
कल से कल को जोड़े नटखट-
कर प्रमोद छिप जाए पल-पल।।
*
आपको आपसे सुख नित्य मिले।
आपमें आपके ही स्वप्न पले।।
आपने आपकी ही चाह करी-
आप में व्याप गए आप, पुलक वाह करी।।
*
समय से आगे चलो तो जीत है।
उगकर हँस ढल सको तो जीत है।।
कौन रह पाया यहाँ बोलो सदा?
स्वप्न बनकर पल सको तो जीत है।।
*
शालिनी मन-वृत्ति हो, अनुगामिनी हो दृष्टि।
तभी अपनी सी लगेगी तुझे सारी सृष्टि।।
कल्पना की अल्पना दे, काव्य-देहरी डाल-
भाव-बिम्बों-रसों की प्रतिभा करे तब वृष्टि।।
*
स्वाति में जल-बिंदु जाकर सीप में मोती बने।
स्वप्न मधुरिम सृजन के ज्यों आप मृतिका में सने।।
जो झुके वह ही समय के संग चल पाता 'सलिल'-
वाही मिटता जो अकारण हमेशा रहता तने।।
*
सीने ऊपर कंठ, कंठ पर सिर, ऊपरवाला रखता है।
चले मनचला. मिले सफलता या सफलता नित बढ़ता है।।
ख़ामोशी में शोर सुहाता और शोर में ख़ामोशी ही-
माटी की मूरत है लेकिन माटी से मूरत गढ़ता है।।
*
तक रहा तकनीक को यदि आम जन कुछ सोचिए।
ताज रहा निज लीक को यदि ख़ास जन कुछ सोचिए।।
हो रहे संपन्न कुछ तो यह नहीं उन्नति हुई-
आखिरी जन को मिला क्या?, निकष है यह सोचिए।।
*
चेन ने डोमेन की, अब मैन को बंदी किया।
पीया को ऐसा नशा ज्यों जाम साकी से पीया।।
कल बना, कल गँवा, कलकल में घिरा खुद आदमी-
किया जाए किस तरह?, यह ही न जाने है जिया।।
*
किस तरह स्मार्ट हो सिटी?, आर्ट है विज्ञान भी।
यांत्रिकी तकनीक है यह, गणित है, अनुमान भी।।
कल्पना की अल्पना सज्जित प्रगति का द्वार हो-
वास्तविकता बने ऐपन तभी जन-उद्धार हो।।
***





बुधवार, 28 सितंबर 2016

navgeet

नवगीत:
संजीव 
*
समय-समय की बलिहारी है 
*
सौरभ की सीमा बाँधी
पर दुर्गंधों को
छूट मिली है.
भोर उगी है बाजों के घर
गिद्धों के घर
साँझ ढली है.
दिन दोपहरी गर्दभ श्रम कर
भूखा रोता,
प्यासा सोता.
निशा-निशाचर भोग भोगकर
भत्ता पाता
नफरत बोता.
तुलसी बिरवा त्याज्य हुआ है
कैक्टस-नागफनी प्यारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
शूर्पणखायें सज्जित होकर
जनप्रतिनिधि बन
गर्रायी हैं.
किरण पूर्णिमा की तम में घिर
कुररी माफिक
थर्रायी हैं.
दरबारी के अच्छे दिन है
मन का चैन
आम जन खोता.
कुटी जलाता है प्रदीप ही
ठगे चाँदनी
चंदा रोता.
शरद पूर्णिमा अँधियारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
ओम-व्योम अभिमंत्रित होकर
देख रहे
संतों की लीला.
भस्मासुर भी चंद्र-भाल पर
कर धर-भगा
सकल यश लीला.
हरि दौड़ें हिरना के पीछे
होश हिरन,
सत-सिया गँवाकर.
भाषा से साहित्य जुदाकर
सत्ता बेचे
माल बना कर.
रथ्या से निष्ठा हारी है
समय-समय की बलिहारी है
*

मंगलवार, 6 अक्टूबर 2015

navgeet

नवगीत :

समय के संतूर पर 
सरगम सुहानी 
बज रही.
आँख उठ-मिल-झुक अजाने
आँख से मिल
लज रही.
*

सुधि समंदर में समाई लहर सी
शांत हो, उत्ताल-घूर्मित गव्हर सी
गिरि शिखर चढ़ सर्पिणी फुंकारती-
शांत स्नेहिल सुधा पहले प्रहर सी
मगन मन मंदाकिनी
कैलाश प्रवहित
सज रही.
मुदित नभ निरखे न कह
पाये कि कैसी
धज रही?
*

विधि-प्रकृति के अनाहद चिर रास सी
हरि-रमा के पुरातन परिहास सी
दिग्दिन्तित रवि-उषा की लालिमा
शिव-शिवा के सनातन विश्वास सी
लरजती रतनार प्रकृति
चुप कहो क्या
भज रही.
साध कोई अजानी
जिसको न श्वासा
तज रही.
*

पवन छेड़े, सिहर कलियाँ संकुचित
मेघ सीचें नेह, बेलें पल्ल्वित
उमड़ नदियाँ लड़ रहीं निज कूल से-
दमक दामिनी गरजकर होती ज्वलित
द्रोह टेरे पर न निष्ठा-
राधिका तज
ब्रज रही.
मोह-मर्यादा दुकूलों
बीच फहरित
ध्वज रही. 

बुधवार, 30 सितंबर 2015

navgeet

नवगीत:
संजीव 
*
समय-समय की बलिहारी है 
*
सौरभ की सीमा बाँधी
पर दुर्गंधों को
छूट मिली है.
भोर उगी है बाजों के घर
गिद्धों के घर
साँझ ढली है.
दिन दोपहरी गर्दभ श्रम कर
भूखा रोता,
प्यासा सोता.
निशा-निशाचर भोग भोगकर
भत्ता पाता
नफरत बोता.
तुलसी बिरवा त्याज्य हुआ है
कैक्टस-नागफनी प्यारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
शूर्पणखायें सज्जित होकर
जनप्रतिनिधि बन
गर्रायी हैं.
किरण पूर्णिमा की तम में घिर
कुररी माफिक
थर्रायी हैं.
दरबारी के अच्छे दिन है
मन का चैन
आम जन खोता.
कुटी जलाता है प्रदीप ही
ठगे चाँदनी
चंदा रोता.
शरद पूर्णिमा अँधियारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
ओम-व्योम अभिमंत्रित होकर
देख रहे
संतों की लीला.
भस्मासुर भी चंद्र-भाल पर
कर धर-भगा
सकल यश लीला.
हरि दौड़ें हिरना के पीछे
होश हिरन,
सत-सिया गँवाकर.
भाषा से साहित्य जुदाकर
सत्ता बेचे
माल बना कर.
रथ्या से निष्ठा हारी है
समय-समय की बलिहारी है
*

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

नवगीत: समय पर अहसान अपना... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

समय पर अहसान अपना...

संजीव 'सलिल'
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल- पीकर
जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*

रविवार, 21 अगस्त 2011

एक रचना: काल --संजीव 'सलिल'

एक रचना:                                                                                
काल
--संजीव 'सलिल'

*
काल की यों करते परवाह...
*
काल ना सदय ना निर्दय है.
काल ना भीत ना निर्भय है.
काल ना अमर ना क्षणभंगुर-
काल ना अजर ना अक्षय है.
काल पल-पल का साथी है
काल का सहा न जाए दाह...
*
काल ना शत्रु नहीं है मीत.
काल ना घृणा नहीं है प्रीत.
काल ना संग नहीं निस्संग-
काल की हार न होती जीत.
काल है आह कभी है वाह...
*
काल माने ना राजा-रंक.
एक हैं सूरज गगन मयंक.
काल है दीपक तिमिर उजास-
काल है शंका, काल निश्शंक.
काल अनचाही पलती चाह...
*
काल को नयन मूँदकर देख.
काल है फलक खींच दे रेख.
भाल को छूकर ले तू जान-
काल का अमित लिखा है लेख.
काल ही पग, बाधा है राह...
*
काल का कोई न पारावार.
काल बिन कोई न हो व्यापार.
काल इकरार, काल इसरार-
काल इंकार, काल स्वीकार.
काल की कोई न पाये थाह...
***********

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 29 जून 2011

सामयिक मुक्तिका: क्यों???... संजीव 'सलिल'

सामयिक मुक्तिका:
क्यों???...
संजीव 'सलिल'
*
छुरा पीठ में भोंक रहा जो उसको गले लगाते क्यों?
कर खातिर अफज़ल-कसाब की, संतों को लठियाते क्यों??

पगडंडी-झोपड़ियाँ तोड़ीं, राजमार्ग बनवाते हो.
जंगल, पर्वत, नदी, सरोवर, निष्ठुर रोज मिटाते क्यों??

राम-नाम की राजनीति कर, रामालय को भूल गये.
नीति त्याग मजबूरी को गाँधी का नाम बताते क्यों??

लूट देश को, जमा कर रहे- हो विदेश में जाकर धन.
सच्चे हैं तो लोकपाल बिल, से नेता घबराते क्यों??

बाँध आँख पर पट्टी, तौला न्याय बहुत अन्याय किया.
असंतोष की भट्टी को, अनजाने ही सुलगाते क्यों??

घोटालों के कीर्तिमान अद्भुत, सारा जग है विस्मित.
शर्माना तो दूर रहा, तुम गर्वित हो इतराते क्यों??

लगा जान की बाजी, खून बहाया वीर शहीदों ने.
मण्डी बना देश को तुम, निष्ठा का दाम लगाते क्यों??

दीपों का त्यौहार मनाते रहे, जलाकर दीप अनेक.
हर दीपक के नीचे तम को, जान-बूझ बिसराते क्यों??

समय किसी का सगा न होता, नीर-क्षीर कर देता है.
'सलिल' समय को असमय ही तुम, नाहक आँख दिखाते क्यों??
*********

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

गुरुवार, 19 मई 2011

एक कविता- मैं समय हूँ --संजीव 'सलिल'

एक कविता-
मैं समय हूँ
संजीव 'सलिल'
*
मैं समय हूँ, साथ उनके
जो सुनें आवाज़ मेरी.
नष्ट कर देता उन्हें जो
सुन न सुनते करें देरी.
चंद दशकों बाद का
संवाद यह सुन लो जरा तुम.
शिष्य-गुरु की बात का
क्या मर्म है गुन लो जरा तुम.
*
''सर! बताएँ-
घास कैसी और कैसी दूब होती?
किस तरह के पेड़ थे
जिनके न नीचे धूप होती??''
*
कहें शिक्षक- ''थे धरा पर
कभी पर्वत और टीले.
झूमते थे अनगिनत तरु
पर्ण गिरते हरे-पीले.
डालियों की वृक्ष पर
लंगूर करते खेल-क्रीडा.
बना कोटर परिंदे भी
रहे करते प्रणय-लीला.
मेघ गर्जन कर बरसते.
ऊगती थी घास कोमल.
दूब पतली जड़ें गहरी
नदी कलकल, नीर निर्मल.
धवल पक्षी क्रौंच था जो
युग्म में जल में विचरता.
व्याध के शर से मरा नर
किया क्रंदन संगिनी ने.
संत उर था विकल, कविता
प्रवाहित नव रागिनी ले.
नाचते थे मोर फैला पंख
दिखते अति मनोहर.
करें कलरव सारिका-शुक,
है न बाकी अब धरोहर.
*
करी किसने मूढ़ता यह?
किया भावी का अमंगल??
*
क्या बताऊँ?, हमारे ही
पूर्वजों ने किया दंगल.
स्वार्थवश सब पेड़ काटे.
खोद पर्वत, ताल पूरे.
नगर, पुल, सडकें अनेकों
बनाये हो गये घूरे.
नीलकंठी मोर बेबस
क्रौच खो संगी हुई चुप.
शाप नर को दे रहे थे-
मनुज का भावी हुआ घुप.
विजन वन, गिरि, नदी, सरवर
घास-दूबा कुछ न बाकी.
शहर हर मलबा हुआ-
पद-मद हुआ जब सुरा-साक़ी.
*
समय का पहिया घुमाकर
दृश्य तुमको दिखाता हूँ.
स्वर्ग सी सुषमा मनोरम
दिखा सब गम भुलाता हूँ.''
*
देख मनहर हरीतिमा
रीझे, हुई फिर रुष्ट बच्चे.
''हाय! पूर्वज थे हमारे
अकल के बिलकुल ही कच्चे.
हरीतिमा भू की मिटाकर
नर्क हमको दे गये हैं.
क्षुद्र स्वार्थों हित लड़े-मर,
पाप अनगिन ले गये हैं.
हम तिलांजलि दें उन्हें क्यों?
प्रेत बन वे रहें शापित.''
खुली तत्क्षण आँख कवि की
हुई होनी तभी ज्ञापित..
*
दैव! हमको चेतना दो
बन सकें भू-मित्र हम सब.
मोर बगुले सारिका शुक
घास पौधे हँस सकें तब.
जन्म, शादी अवसरों पर
पौध रोपें, तरु बनायें.
धरा मैया को हरीतिमा
की नयी चादर उढ़ायें.
****

सोमवार, 15 नवंबर 2010

गीत: मैं नहीं.... --- संजीव 'सलिल'

गीत:

मैं नहीं....

संजीव 'सलिल'
*
मैं नहीं पीछे हटूँगा,
ना चुनौती से डरूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
जूझना ही ज़िंदगी है,
बूझना ही बंदगी है.
समस्याएँ जटिल हैं,
हल सूझना पाबंदगी है.
तुम सहायक हो न हो
खातिर तुम्हारी मैं लडूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
राह के रोड़े हटाना,
मुझे लगता है सुहाना.
कोशिशोंका धनी हूँ मैं, 
शूल वरकर, फूल तुमपर
वार निष्कंटक करूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
जो चला है, वह गिरा है,
जो गिरा है, वह उठा है.
जो उठा, आगे बढ़ा है-
उसी ने कल को गढ़ा है.
विगत से आगत तलक
अनथक तुम्हारे सँग चलूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*