दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 19 दिसंबर 2010
कविता चिर पिपासु -- श्यामलाल उपाध्याय
कविता
चिर पिपासु
श्यामलाल उपाध्याय
*
चिरंतन सत्य के बीच
श्रांति के अवगुंठन के पीछे
चिर प्रतीक्षपन्न निस्तब्ध
निरखता उस मुकुलित पुष्प को
और परखता उस पत्र का
निष्करुण निपात
जिसमें नव किसलय के
स्मिति-हास की परिणति
तथा रोदन के आवृत्त प्रलाप.
निदर्शन-दर्शन के आलोक
विकचित-संकुचित
अन्वेषण-निमग्न
निरवधि विस्तीर्ण बाहुल्य में
उस सत्य के परिशीलन को.
निर्विवाद नियति-नटी का
रक्षण प्रयत्न महार्णव मध्य
उत्ताल तरंग आलोड़ित
उस पत्रस्थ पिपीलक का.
मैं एकाकी
विपन्न, विक्षिप्त, स्थिर
अन्वेक्षणरत
भयंकर जलप्रपात के समक्ष
चिर पिपासु मौन-मूक
ऊर्ध्व दृष्ट निहारता
अगणित असंख्य
तारक लोक, तारावलि
जिनके रहस्य
अधुनातन विज्ञानं के परे
सर्वथा अज्ञात
अस्थापित-अनन्वेषित.
*******************
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रविवार, 28 मार्च 2010
आज की कविता: संस्था ---आचार्य श्यामलाल उपाध्याय
समूह की इकाई
पंजीकृत, अपंजीकृत
राजनैतिक, सामाजिक,
धार्मिक, सांस्कृतिक,
साहित्यिक, मानवतावादी
नीतिगत, समाजगत,
धर्म-संस्कृतिगत,
नैतिक वा मूल्यगत.
बन क्या सकेगी
आदर्श जन-जीवन की
संस्था वह जिसके
सुचिन्तक बने हैं आप
मंत्री-अध्यक्ष बन
चलते अपनी नाव
बजाते अपनी डफली
अलापते अपना राग
गाते अपने गीत
मात्र अपनी संस्था के.
कैसे करेगी वह
श्रृंगार मानव का
जो रहा सदस्यता
और उसकी छायासे
अति दूर वंचित
देवी तो भूरि-भूरि
आशिष को प्रस्तुत
पर मात्र उसके प्रति
जो रहा निष्ठावान?
इसके क्रिया-कलाप
भले ही हों मर्यादित
अंशतः मानवतावादी
करते दुराग्रह और
हनन मर्यादा का
सार्वभौम सत्ता का
सार्वजनीनता का
बहुजन हिताय और
बहुजन सुखाय का.
जब तक कि उसके भाव
वर्ग सत्ता मोह छोड़
समाज की परिधि लाँघ चले नहीं
तब तक व्यक्ति या समाज
अथवा कोई भी संस्था अन्य
करती रहेगी अपकार
जन-जीवन का
इसका वरदान मात्र
अभिशाप-अनुक्षण
करता रहेगा मनुहार
अपनी संस्था का..
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पंजीकृत, अपंजीकृत
राजनैतिक, सामाजिक,
धार्मिक, सांस्कृतिक,
साहित्यिक, मानवतावादी
नीतिगत, समाजगत,
धर्म-संस्कृतिगत,
नैतिक वा मूल्यगत.
बन क्या सकेगी
आदर्श जन-जीवन की
संस्था वह जिसके
सुचिन्तक बने हैं आप
मंत्री-अध्यक्ष बन
चलते अपनी नाव
बजाते अपनी डफली
अलापते अपना राग
गाते अपने गीत
मात्र अपनी संस्था के.
कैसे करेगी वह
श्रृंगार मानव का
जो रहा सदस्यता
और उसकी छायासे
अति दूर वंचित
देवी तो भूरि-भूरि
आशिष को प्रस्तुत
पर मात्र उसके प्रति
जो रहा निष्ठावान?
इसके क्रिया-कलाप
भले ही हों मर्यादित
अंशतः मानवतावादी
करते दुराग्रह और
हनन मर्यादा का
सार्वभौम सत्ता का
सार्वजनीनता का
बहुजन हिताय और
बहुजन सुखाय का.
जब तक कि उसके भाव
वर्ग सत्ता मोह छोड़
समाज की परिधि लाँघ चले नहीं
तब तक व्यक्ति या समाज
अथवा कोई भी संस्था अन्य
करती रहेगी अपकार
जन-जीवन का
इसका वरदान मात्र
अभिशाप-अनुक्षण
करता रहेगा मनुहार
अपनी संस्था का..
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acharya shyamlal upadhyay,
bhakti geet. samyik hindi kavita,
sanstha
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
शनिवार, 20 मार्च 2010
कविता: विवेक -आचार्य श्यामलाल उपाध्याय
मेरा परिचय-
मैं विवेक
पर अब मैं कहाँ?
चल में, न अचल में,
न तल में, न अतल में,
या रसातल-पटल में.
मेरा आवास रहा
मानव के मन की
मात्र एक कोर में.
मन, चित्त-अहंकार की
साधना बन
सबको सचेतन की
अग्नि में तपाकर
स्फूर्त होता मुखर बन
वाणी के जोर से.
मानव से उपेक्षित
परित्यक्त मैं रहता.
कहाँ सूक्ष्म अभिजात्य
मेरा प्रवेश फिर कैसे
मनुज को मानव बनाये?
जब किरीट का अकली
परीक्षित से
मुक्तिबोध की
याचना करे;
पर मनुज का परीक्षित
कुत्सित हो दंभ साढ़े
मौन व्रत का
आव्हान करता मानव से.
फिर मेरा आवास
क्या पूछ रहे?
मानव की कुंठा से
मैं चिर प्रवासी विवेक
गृह-स्कन्ध स्वर्ण के
पैरों तले कभी का
कुचला, अंतिम साँसें
लेने को मात्र
जीता रहा.
मानव की जिजीविषा से
केवल सूक्ष्मता को
धारण किये वरन
में नहीं, कहीं भी नहीं
सब कुछ है पर
मेरा सर्वस्व पारदर्शी
कहीं कुछ में नहीं
न होने को जिसे
तुम देख रहे हो-
वह है विज्ञानं.
अब कोइ राम आये
विरति की सीता
और विवेक के जटायु को
दशमुख के
दमन-चक्र से बच्ये
जो दशरथ की
शुचिता की
पाखंड-सृष्टि करता.
सीता तो भूमिगत
श्रृद्धा-विश्वास जड़,
पर सहृदयता की
गरिमा का जटायु
चिन्न-पक्ष आज्हत
पड़ा मुक्ति के सुयोग की
प्रतीक्षा में, हे राम!
अमिन तुम्हारा कृपा-भाजन
विवेक.
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मैं विवेक
पर अब मैं कहाँ?
चल में, न अचल में,
न तल में, न अतल में,
या रसातल-पटल में.
मेरा आवास रहा
मानव के मन की
मात्र एक कोर में.
मन, चित्त-अहंकार की
साधना बन
सबको सचेतन की
अग्नि में तपाकर
स्फूर्त होता मुखर बन
वाणी के जोर से.
मानव से उपेक्षित
परित्यक्त मैं रहता.
कहाँ सूक्ष्म अभिजात्य
मेरा प्रवेश फिर कैसे
मनुज को मानव बनाये?
जब किरीट का अकली
परीक्षित से
मुक्तिबोध की
याचना करे;
पर मनुज का परीक्षित
कुत्सित हो दंभ साढ़े
मौन व्रत का
आव्हान करता मानव से.
फिर मेरा आवास
क्या पूछ रहे?
मानव की कुंठा से
मैं चिर प्रवासी विवेक
गृह-स्कन्ध स्वर्ण के
पैरों तले कभी का
कुचला, अंतिम साँसें
लेने को मात्र
जीता रहा.
मानव की जिजीविषा से
केवल सूक्ष्मता को
धारण किये वरन
में नहीं, कहीं भी नहीं
सब कुछ है पर
मेरा सर्वस्व पारदर्शी
कहीं कुछ में नहीं
न होने को जिसे
तुम देख रहे हो-
वह है विज्ञानं.
अब कोइ राम आये
विरति की सीता
और विवेक के जटायु को
दशमुख के
दमन-चक्र से बच्ये
जो दशरथ की
शुचिता की
पाखंड-सृष्टि करता.
सीता तो भूमिगत
श्रृद्धा-विश्वास जड़,
पर सहृदयता की
गरिमा का जटायु
चिन्न-पक्ष आज्हत
पड़ा मुक्ति के सुयोग की
प्रतीक्षा में, हे राम!
अमिन तुम्हारा कृपा-भाजन
विवेक.
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vivek
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
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