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गुरुवार, 30 जून 2022

सॉनेट,भोजपुरी हाइकु,बुंदेली नवगीत,दोहा सलिला,

सॉनेट
सरकार 
• 
जाको ईंटा, बाको रोड़ो 
आई बहुरिया, मैया बिसरी 
भओ पराओ अपनो मोड़ो 
जा पसरी, बा एड़ी घिस रई 

पल मा पाला बदल ऐंठ रए 
खाल ओढ़ लई रे गर्दभ की 
धोबी के हो सेर रेंक रए 
बारी बंदर के करतब की 

मूँड़ मुड़ाओ, सीस झुकाओ 
बदलो पाला, लै लो माला 
राजा जी की जै-जै गाओ 
करो रात-दिन गड़बड़झाला 

मनमानी कर लो हर बार 
जोड़-तोड़ कर, बन सरकार 
३०-६-२०२२ 
•••
भोजपुरी हाइकु:
*
आपन बोली
आ ओकर सुभाव
मैया क लोरी.
*
खूबी-खामी के
कवनो लोकभासा
पहचानल.
*
तिरिया जन्म
दमन आ शोषण
चक्की पिसात.
*
बामनवाद
कुक्कुरन के राज
खोखलापन.
*
छटपटात
अउरत-दलित
सदियन से.
*
राग अलापे
हरियल दूब प
मन-माफिक.
*
गहरी जड़
देहात के जीवन
मोह-ममता.

***
नवगीत
*
काए टेरो?, मैया काए टेरो?
सो रओ थो, कओ मैया काए टेरो?
*
दोरा की कुंडी बज रई खटखट
कौना पाहुना हेरो झटपट?
कौना लगा रओ पगफेरो?
काय टेरो?, मैया काए टेरो?...
*
हांत पाँव मों तुरतई धुलाओ
भुज नें भेंटियो, दूरई बिठाओ
मों पै लेओ गमछा घेरो
काय टेरो?, मैया काए टेरो?
*
बिन धोए सामान नें लइयो
बिन कारज बाहर नें जइयो
घरई डार रइओ डेरो
काए टेरो?, मैया काए टेरो
३०-६-२०२०
***
दोहा सलिला
*
नहीं कार्य का अंत है, नहीं कार्य में तंत।
माया है सारा जगत, कहते ज्ञानी संत।।
*
आता-जाता कब समय, आते-जाते लोग।
जो चाहें वह कार्य कर, नहीं मनाएँ सोग।।
*
अपनी-पानी चाह है, अपनी-पानी राह।
करें वही जो मन रुचे, पाएँ उसकी थाह।।
*
एक वही है चौधरी, जग जिसकी चौपाल।
विनय उसी से सब करें, सुन कर करे निहाल।।
*
जीव न जग में उलझकर, देखे उसकी ओर।
हो संजीव न चाहता, हटे कृपा की कोर।।
*
मंजुल मूरत श्याम की, कण-कण में अभिराम।
देख सके तो देख ले, करले विनत प्रणाम।।
*
कृष्णा से कब रह सके, कृष्ण कभी भी दूर।
उनके कर में बाँसुरी, इनका मन संतूर।।
*
अपनी करनी कर सदा, कथनी कर ले मौन।
किस पल उससे भेंट हो, कह पाया कब-कौन??
*
करता वह, कर्ता वही, मानव मात्र निमित्त।
निर्णायक खुद को समझ, भरमाता है चित्त।।
*
चित्रकार वह; दृश्य वह, वही चित्र है मित्र।
जीव समझता स्वयं को, माया यही विचित्र।।
*
बिंब प्रदीपा ज्योति का, सलिल-धार में देख।
निज प्रकाश मत समझ रे!, चित्त तनिक सच लेख।।
***

३०.६.२०१८, ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४

बुधवार, 29 जून 2022

गीत,दोहा,पद,छंद चौपाई, सुरेश वर्मा, गुरु गोबिंद सिंह


 कृति चर्चा :

नीले घोड़े का शहसवार :  महामानवावतार साकार  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
[कृति विवरण : नीले घोड़े का शहसवार, उपन्यास, ISBN ९७८-९३-९१३७८-७६-९, प्रथम संस्करण २०२१, उपन्यासकार - डॉ. सुरेश कुमार  वर्मा, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार २२.५ से.मी. X १४ से.मी., पृष्ठ ३६७, मूल्य ९००/-, अयन प्रकाशन नई दिल्ली।   ]
*


                  वर्तमान संक्रमण काल में  लघुकथा, क्षणिका, दोहा, माहिया, हाइकु जैसी लघ्वाकारी सृजन विधाओं का बोलबाला है, महाकाव्य और उपन्यास जैसी विधाओं में सृजन, पठन और पाठन दिन-ब-दिन कम से कम होता जा रहा है। इसके दो कारण हैं - पहला यह कि ये दोनों विधाएँ अपेक्षाकृत अधिक शोध, मनन, मौलिकता, सकारात्मकता तथा श्रम की माँग करती हैं, दूसरा तथाकथित समयाभाव। इन दोनों विधाओं में नायक के चयन हेतु जिन मानकों का उल्लेख साहित्य शास्त्र में हैं, वैसे व्यक्तित्व अब किसी और लोक के वासी जान पड़ते हैं। अपने चारों और देखने पर इन महापुरुषों के  पैर की धूल की कण कहलाने योग्य व्यक्तित्व भी नहीं दिखते। महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने गाँधी जी के बारे में लिखा था कि “भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।” यही बात विवेच्य उपन्यास 'नीले घोड़े का शहसवार' के नायक के बारे में भी सत्य है। सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन चरित्र पर आधारित यह उपन्यास सत्य के तानों-बानों पर कल्पना के बेल-बूटे टाँक कर लिखा गया है। उपन्यास में वर्णित घटनाओं और व्यक्तियों की पुष्टि इतिहास से की जा सकती है। यह औपन्यासिक कृति प्रामाणिकता की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी है तथापि यह केवल तथ्य संकलन या इतिहास का पुनर्प्रस्तुतिकरण नहीं है। उपन्यास के कथा-क्रम में कथ्य के विश्लेषण, मूल्याङ्कन और विवेचन में उपन्यासकार की स्वतंत्र चिंतन दृष्टि का परिचय यत्र-तत्र मिलता है। 

                  ऐतिहासिक चरित्रों को उपन्यास में ढालते समय कई चुनौतियों का सामना करना होता है। सबसे पहली चुनौती नायक के चयन की है। भारतीय इतिहास में वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक, पुरातत्विक, प्राचीन, अर्वाचीन और सामयिक काल-खंडों में अनेक महानायक हुए हैं। उनमें से किसी एक महानायक को चुनना सागर में से मोती निकलने की तरह दुष्कर है। अनेक धर्मों में से एक और अपेक्षाकृत कम अनुयायियों वाला सिख धर्म जिसे सनातन धर्म की एक शाखा भी कह दिया जाता है, के दस गुरुओं में से एक, जिसका पूरा जीवन छोटे-छोटे युद्धों में बीत गया, जिसने न कोई साम्राज्य खड़ा किया, न कोई नई खोज की, न कोई महान युद्ध जीता, न कोई महान निर्माण किया, उसे उपन्यास का नायक बनाने का सामान्य दृष्टि से औचित्य नहीं है किन्तु इस उपन्यासकार की दृष्टि सामान्येतर और असाधारण है। वह अपने चरित नायक में ऐसे दुर्लभ गुण देख पाता है जिन्हें तत्कालीन लोग देख सके होते तो इतिहास और समाज दोनों का भला हुआ होता और समय के महाग्रंथ में कुछ कालिख लगे पृष्ठ न होते। 

                  उपन्यास अपने चरित नायक के धरावतरण से आरंभ होकर उसके लीला संवरण पर समाप्त होता है। ३६७ पृष्ठीय यह उपन्यास न तो अति विशाल है, न  अति संक्षिप्त। हिंदी साहित्य में तपस्विनी और कृष्णावतार  (क.मा. मुंशी), खरीदी कौड़ियों के मोल (बिमल मित्र), अनुत्तर योगी (वीरेंद्र कुमार जैन) जैसे दीर्घाकारी और कई भागों में लिखे उपन्यासों की समृद्ध विरासत को देखते हुए यह उपन्यास अति विस्तृत नहीं है तथापि लघुता की ओर बढ़ते आकर्षण को देखते हुए गंभीर लेखन, पठनीयता की दृष्टि से जोखिम उठाने की तरह है, वह भी उस समय में जबकि उपन्यास लेखन व्यक्तिगत न होकर चित्रपटीय पटकथाओं की तरह समूह द्वारा किया जा रहा हो। इस उपन्यास के उपन्यासकार डॉ. सुरेश कुमार वर्मा मूलत: भाषा वैज्ञानिक हैं जिनकी बहुमूल्य कृति 'हिंदी अर्थान्तर' बहुचर्चित तथा मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा पुरस्कृत है। वे इसके पूर्व उपन्यास 'मुमताज़महल', 'रेसमान', 'सबका मालिक एक' तथा  'महाराजा छत्रसाल', नाटक 'दिशाहीन' तथा निम्नमार्गी', कहानी संग्रह 'बारजे पर' तथा 'मंदिर एवं अन्य कहानियाँ', आलोचना ग्रंथ 'डॉ. रामकुमार वर्मा की नाट्यकला', निबंध संग्रह 'करमन की गति न्यारी' तथा 'मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ' जैसी महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रस्तुत कर चर्चित तथा प्रशंसित हो चुके हैं। 'नीले घोड़े का शहसवार' इस समृद्ध-सामर्थ्यवान रचनाकार की सृजन यात्रा में प्रकाश-स्तंभ की तरह है। 

                  उपन्यास दो शब्दों के योग से बना है उप + न्यास = उपन्यास अर्थात समीप घटित घटनाओं का वर्णन जिसे पढ़कर ऐसा प्रतीत हो कि यह हमारी ही कहानी, हमारे ही शब्दों में लिखी गई है। 'नीले घोड़े का शहसवार' में सदियों पूर्व घटित घटनाओं को इस तरह शब्दित किया गया है मानो रचनाकार स्वयं साक्षी हो। उपन्यास विधा आधुनिक युग की देन है।  हमारी अन्तः व बाह्य जगत की जितनी यथार्थ एवं सुन्दर अभिव्यक्ति उपन्यास में दिखाई पड़ती है उतनी किसी अन्य विधा में नहीं। 'नीले घोड़े का शहसवार' में  युग विशेष के सामाजिक जीवन और जगत कीजीवन झाँकियाँ संजोई गयी हैं। विविध प्रसंगों की मार्मिक अभिव्यक्ति इतनी रसपूर्ण है कि पाठक पात्रों के साथ-साथ हर्ष या शोक की अनुभूति करता है। प्रेमचंद ने उपन्यास को 'मानव चरित्र का चित्र' ठीक ही कहा है। उपन्यास 'नीले घोड़े का शहसवार' में तत्कालीन मानव समाज के संघर्षों का वृहद् शब्द-चित्र  चरित्र–चित्रण के माध्यम से किया गया है।

कथावस्तु

                  कथा वस्तु उपन्यास की जीवन शक्ति होती है।  'नीले घोड़े का शहसवार' की कथावस्तु एक ऐतिहासिक चरित्र के जीवन से सम्बन्धित होते हुए भी मौलिक कल्पना से व्युत्पन्न वर्णनों से सुसज्जित है। काल्पनिक प्रसंग इतने स्वाभाविक एवं यथार्थ हैं कि पाठक को उनके साथ तादात्म्य स्थापित करने में किंचितमात्र भी कठिनाई नहीं होती। उपन्यासकार  ने वास्तव में घटित विश्वसनीय घटनाओं को ही स्थान दिया है। युद्ध में हताहत सैनिकों की चिकित्सा अथवा अंतिम संस्कार हेतु धन की व्यवस्था करने की दृष्टि से गुरु गोबिंद जी द्वारा तीरों के अग्र भाग को स्वर्ण मंडित करने का आदेश दिया जाना, ऐसा ही प्रसंग है जिसकी लेखक ने वर्तमान 'रेडक्रॉस' से तुलना की है।  'नीले घोड़े का शहसवार' में मुख्य कथा गुरु गोबिंद सिंह का व्यक्तित्व-कृतित्व है जिसके साथ अन्य गौण कथाएँ (गुरु तेगबहादुर द्वारा आत्माहुति, मुग़ल बादशाओं  की क्रूरता, हिन्दू राजाओं का पारस्परिक द्वेष आदि) हैं जो मुख्य कथा को यथास्थान यथावश्यक गति देती हैं। ये गौण कथाएँ मुख्य कथा को दिशा, गति तथा विकास देने में सहायक हैं। इन उपकथाओं को मुख्या कथा के साथ इस तरह संगुफित किया गया है कि वे नीर-क्षीर की तरह एक हो सकीहैं। उपन्यासकार मुख्य और प्रासंगिक उपकथाओं को गूँथते समय कौतूहल और रोचकता बनाए रख सका है। 

पात्र व चरित्र चित्रण

                  इस उपन्यास का मुख्य विषय गुरु गोबिन्द सिंह जी के अनुपम चरित्र, अद्वितीय पराक्रम, असाधारण आदर्शप्रियता तथा लोकोत्तर आचरण का चित्रण कर समाज को सदाचरण की प्रेरणा देना है। उपन्यासकार इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल है। उपन्यास में प्रधान पात्र गुरु गोबिंद सिंह जी ही हैं जिनके जन्म से अवसान तक किये गए राष्ट्र भक्ति तथा शौर्यपरक कार्यों का पूरी प्रमाणिकता के साथ वर्णन कर उपन्यासकार न केवल अतीत में घटे प्रेरक प्रसंगों को पुनर्जीवित करता है अपितु उन्हें सम-सामयिक परिदृश्य में प्रासंगिक निरूपित करते हुए, उनका अनुकरण किये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित करता है। नायक के जीवन में निरंतर कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, लगातार जान हथेली पर लेकर जूझना पड़ता है, कड़े संघर्ष के बाद मिली सफलता क्षणिक सिद्ध होती है और बार-बार वह छल का शिकार होता है तथापि एक बार भी हताश नहीं होता, नियति को दोष नहीं देता, ईश्वर या बादशाह के सामने गिड़गिड़ाता नहीं ,खुद कष्ट सहकर भी अपने आश्रितों और प्रजा के हित पल-पल प्राण समर्पित को तैयार रहता है। इससे वर्तमान नेताओं को सीख लेकर अपने आचरण का नियमन करना चाहिए। उपन्यास में माता जी, गुरु-पत्नियाँ, गुरु पुत्र, पंच प्यारे, पहाड़ी राजा, मुग़ल बादशाह और सिपहसालार आदि अनेक गौड़ पात्र हैं जो नायक के चतुर्दिक घटती घटनाओं के पूर्ण होने में सहायक होते हैं तथा नायक के दिव्यत्व को स्थापित करने में सहायक हैं।  वे कथानक को गति देकर, वातावरण की गंभीरता कम कर, उपयुक्त वातावरण की सृष्टि करने के साथ-साथ अन्य पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालते हैं।

संवाद :

                  संवादों का प्रयोग कथानक को गति देने, नाटकीयता लाने, पात्रों के चरित्र का उद्घाटन करने, वातावरण की सृष्टि करने आदि उद्देश्यों की पुयर्ती हेतु किया गया है। संवाद पत्रों के विचारों, मनोभावों तथा चिंतन की अभिव्यक्ति कर अन्य पात्रों तथा पाठकों को  घटनाक्रम से जोड़ते हैं। कथोपकथन पात्रों के अनुकूल हैं। संवादों के माध्यम से उपन्यासकार अनुपस्थित होते हुए भी अपने चिन्तन को पाठकों के मानस में आरोपित कर सका है। पंज प्यारों की परीक्षा के समय, सेठ-पुत्र के हाथ से जल न पीने के प्रसंग में, माता, पत्नियों, पुत्रों साथियों तथा सेवकों की शंकाओं का समाधान करते समय गुरु जी द्वारा कहे गए संवाद पाठकों को दिशा दिखाते हैं। ये संवाद न तो नाटकीय हैं, न उनमें अतिशयोक्ति है, गुरु गंभीर चिंतन को सरस, सहज, सरल शब्दों और लोक में परिचित भाषा शैली में व्यक्त किया गया है। इससे पाठक के मस्तिष्क में बोझ नहीं होता और वह कथ्य को ह्रदयंगम कर लेता है।   

वातावरण 

                  वर्तमान संक्रमण काल में भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में मूल्यहीनता, स्वार्थलिप्सा, संकीर्णता तथा भोग-विलास का वातावरण है। इस काल में ऐसे महान व्यक्तित्वों की गाथाएँ सर्वाधिक प्रासंगिक हैं जिन्होंने 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देकर आत्म-त्याग और आत्म-बलिदान के उदाहरण बनकर मानवीय मूल्यों की दिव्य ज्योति को जलाए रख हो ताकि पाठक वर्ग प्रेरित होकर आदर्श पथ पर चल सके। गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे ही हुतात्मा हैं जो बचपन में अपने पिता को आत्माहुति की प्रेरणा देते हैं तथा तत्पश्चात मिले गुरुतर उत्तरदायित्व को ग्रहण कर न केवल स्वयं को उसके उपयुक्त प्रमाणित करते हैं बल्कि शिव की तरह पहाड़ी राजाओं के विश्वासघात का गरल पीकर नीलकंठ की भाँति मुगलों से उन्हीं की रक्षा भी करते हैं। उपन्यासकार ने तत्कालिक परिस्थितियों का वर्णन पूरी प्रामाणिकता के साथ किया है। ऐतिहासिक जीवनचरित परक उपन्यास लिखते समय लेखक की कलम को दुधारी की धार पर चलन होता है। एक ओर महानायकत्व की स्थापना, दूसरी र तथ्यों और प्रमाणिकता की रक्षा, तीसरी ओर पठनीयता बनाए रखना और चौथी और सम-सामयिक परिस्थितियों और परिवेश के साथ घटनाक्रम और नायक की सुसंगति स्थापित करते हुए उन्हें प्रासंगिक सिद्ध करना। डॉ. सुरेश कुमार वर्मा इस सभी उद्देश्यों को साधने में सफल सिद्ध हुए हैं।

भाषा शैली :

                  भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है और शैली भावों की का अभिव्यक्ति का ढंग। भाषा के द्वारा उपन्यासकार अपनी मन की बात पाठक तक संप्रेषित करता है। अतः, भाषा का सरल-सहज-सुबोधहोना, शब्दों का सटीक होना तथा शैली का सरस होना आवश्यक है।  डॉ. वर्मा स्वयं हिंदी के प्राध्यापक तथा भाषा वैज्ञानिक हैं। ऐसी स्थिति में बहुधा लेखक पांडित्य प्रदर्शन करने के फेर में पाठकों और कथा के पात्रों के साथ न्याय नहीं कर पाते किन्तु डॉ. वर्मा ने कथावस्तु के अनुरूप पंजाबी मिश्रित हिंदी और पंजाबी काव्यांशों का यथास्थान प्रयोग कर भाषा को पात्रों, घटनाओं तथा परिवेश के अनुरूप बनाने के साथ सहज बोधगम्य भी रखा है। पात्रों के संवाद उनकी शिक्षा तथा वातावरण के साथ सुसंगत हैं। प्रसंगानुकूल भाषा का उदाहरण गुरु द्वारा औरंगजेब को लिखा गया पत्र है जिसमें अरबी-फ़ारसी शब्दों का प्रचुर प्रयोग है। 

जीवन दर्शन व उद्देश्य :

                  किसी भी रचना को रचते समय रचनाकार के मन में कोई न कोई मान्यता, विचार या उद्देश्य होता है। उपन्यास जैसी गुरु गंभीर रचना निरुद्देश्य नहीं की जा सकती। ;नीले घोड़े का शहसवार' की रचना के मूल में निहित उद्देश्य का उल्लेख करते हुए डॉ. वर्मा 'अपनी बात' में गुरु नानक द्वारा समाज सुधर की चर्चा करते समय लिखते हैं '...पहले मनुष्य को ठीक किया जाए ,यदि मनुष्य विकृत रहा तो वह सबको विकृत कर देगा...मनुष्य को सत्य, न्याय, प्रेम करुणा, अहिंसा, समता, क्षमा, पवित्रता, निस्स्वार्थता, परोपकारिता, विनम्रता, जैसे गुणों को अपने व्यक्तित्व में अंगभूत करना चाहिए। फिर समाज से अन्धविश्वास, कुरीति, वर्णभेद, जातिभेद, असमानता आदि का उन्मूलन किया जाए। धर्म के क्षेत्र में सहिष्णुता, स्वतंत्रता, सरलता और मृदुलता के भावों को विकसित करने की जरूरत थी। (आज पहले की अपेक्षा और अधिक है-सं.) 

                  गुरु गोबिंद सिंह जी के अवदान का संकेत करते हुए डॉ. वर्मा लिखते हैं - 'पिता को आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा देनेवाले बालक ने मात्र ९ वर्ष की आयु में गुरुगद्दी सम्हालने के तुरंत बाद ही अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया और वह लक्ष्य था धर्म की रक्षा। 'धर्मो रक्षति रक्षित:' के सूत्र को उन्होंने कसकर पकड़ा और संकल्प किया कि हर पुरुष को लौह पुरुष के रूप में ढाला जाए जो अपनी रक्षा भी कर सके और अपने धर्म की भी... शायद ही किसी कौन या मजहब के इतिहास में ऐसा कोइ महानायक पैदा हुआ हो जिसने हर शख्स को तराशने और संवारने में इतनी मेहनत की हो।'.... आदि गुरु नानकदेव जी ने जिस धर्म की नींव राखी, उस पर कलश चढ़ाने का काम दशमेश गुरु गोबिंदसिंह ने किया। वे बड़े विलक्षण मानव थे। वे कर्मवीर थे,धर्मवीर थे, परमवीर थे। उन्होंने जीवन के विविध आयामों को बहुत ऊँचाई पर ले जाकर स्थिर किया। एक हाथ में शास्त्र था तो उस शास्त्र की रक्षा के लिए दूसरे हाथ में शस्त्र था.... पहल संस्कार कराकर और अमृत चखाकर सिखों में यह विश्वास पैदा कर दिया कि वे अमृत की संतान हैं और मृत्यु उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। इससे मूलमंत्र की 'निरभउ' भावना बलवती हुई। इसका यह परिणाम हुआ की सिखों ने मृत्यु का भी तिरस्कार किया और बलिदान का वैभव दिखाने के लिए आगे आए.... गुरु गोबिंद सिंह ने उनमें यह विश्वास भर दिया कि जंग संख्याबल से नहीं, मनोबल से जीती जाती है और यह विश्वास भी कि हर सिख एक लाख शत्रुओं से लड़ने की ताकत रखता है.... तीन बार ऐसे अवसर आए जब मुग़ल सिपहसालार उनकी तेजस्विता देखकर हतप्रभ हो गए, घोड़े से उत्तर पड़े, अपनी तलवार जमीन पर रख दी और रणक्षेत्र को छोड़कर निकल गए.... विश्व के धर्मशास्त्रों में शायद ही इस प्रकार की कोई घटना दर्ज हो कि कोई गुरु अपने ही चेलों को गुरु मानकर उनकी आज्ञा का पालन करे...' उपन्यास नायक के रूप में गुरु गोबिंद सिंह जी के चयन की उपयुक्तता असंदिग्ध है।    

प्रासंगिकता 

                'नीले घोड़े का शहसवार' उपन्यास की प्रासंगिकता विविध प्रसंगों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहज ही देखी जा सकती है। भारत का जन मानस संविधान द्वारा समानता की गारंटी दिए जाने के बाद भी,जाति, धर्म पंथ, संप्रदाय, भाषा, भूषा, लिंग आदि के भेद-भाव से  आज भी ग्रस्त है। गुरु गोबिंद सिंह द्वारा खालसा धर्म की स्थापना कर मानव मात्र को समान मानने का आदर्श युग की आवश्यकता है। पक्षपात की भावना, निष्पक्ष और सर्वोत्तम के चयन में बाधक होती है, आरक्षण व्यवस्था, अयोग्य को अवसर बन गयी है। गुरु गोबिंद सिंह ने पंज प्यारे चुनने और अमृत छकने में श्रेष्ठता को ही चयन का मानक रखा। यहाँ तक कि गुरु गद्दी भी गुरु ने पुत्रों को नहीं, सर्वोत्तम पात्र को दी। आज देश नेताओं, नौकरशाहों, धनपतियों ही नहीं आम आदमी के भी भ्रष्टाचार से संत्रस्त है। गुरु गोबिंद सिंह ने मसन्दों के भ्रष्टाचार का उन्मूलन करने में देर न की, साथ ही 'निरमला' के माध्यम से चारित्रिक शुचिता को प्रतिष्ठा दी। अपने और शत्रु दोनों के सैनिकों को पानी पिलाने के प्रसंग में गुरु नई मानव मात्र पीड़ा को समान मानकर राहत देने का सर्वोच्च मूल्य स्थापित किया। कश्मीर के आतंकवादियों द्वारा एक विमान में कुछ भारतीयों का अपहरण कर ले जाने के बदले में सरकार ने कठिनाई से पकड़े दुर्दांत आतंकवादियों को उनके ठिकाने पर पहुँचाया, उन्हें अब तक मारा नहीं जा सका और वे शत्रुदेश में  षड्यंत्र करते हैं। यदि लोगों और नेताओं के मन में गुरु गोबिंद सिंह की तरह आत्मोत्सर्ग की भावना होती तो यह न होता। गुरु ने अपने चार पुत्रों को देश पर बलिदान होने पर भी उफ़ तक न की।

                 'नीले घोड़े का शहसवार' उपन्यास देश के हर नागरिक को न केवल पढ़ना अपितु आत्मसात करना चाहिए। गुरु गोबिंद सिंह के चिंतन, आचरण और आदर्शों को किंचित मात्र भी अपनाया जा सके तो पठान न केवल बेहतर मनुष्य अपितु बेहतर समाज बनाने में भी सहायक होगा।  सर्वोपयोगी कृति के प्रणयन हेतु डॉ. सुरेश कुमार वर्मा साधुवाद के पात्र हैं। 

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छंद सलिला
छंदराज चौपाई
*
जन-मन को भाई चौपाई/चौपायी :
भारत में शायद ही कोई हिन्दीभाषी होगा जिसे चौपाई छंद की जानकारी न हो। रामचरित मानस की रचना चौपाई छंद में ही हुई है।
चौपाई छंद पर चर्चा करने के पूर्व मात्राओं की जानकारी होना अनिवार्य है
मात्राएँ दो हैं १. लघु या छोटी (पदभार एक) तथा दीर्घ या बड़ी (पदभार २)।
स्वरों-व्यंजनों में हृस्व, लघु या छोटे स्वर ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा सभी मात्राहीन व्यंजनों की मात्रा लघु या छोटी (१) तथा दीर्घ, गुरु या बड़े स्वरों (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:) तथा इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: मात्रा युक्त व्यंजनों की मात्रा दीर्घ या बड़ी (२) गिनी जाती हैं.
चौपाई छंद : रचना विधान-
चारपाई से हम सब परिचित हैं। चौपाई के चार चरण होने के कारण इसे चौपाई नाम मिला है। यह एक मात्रिक सम छंद है चूँकि इसकी चार चरणों में मात्राओं की संख्या निश्चित तथा समान रहती है। चौपाई द्विपदिक छंद है जिसमें दो पद या पंक्तियाँ होती हैं। प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी अंतिम मात्राएँ समान (दोनों में लघु लघु या दोनों में गुरु) होती हैं। चौपायी के प्रत्येक चरण में १६ तथा प्रत्येक पद में ३२ मात्राएँ होती हैं। चारों चरण मिलाकर चौपाई ६४ मात्राओं का छंद है। चौपाई के चारों चरणों के समान मात्राएँ हों तो नाद सौंदर्य में वृद्धि होती है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। चौपाई के पद के दो चरण विषय की दृष्टि से आपस में जुड़े होते हैं किन्तु हर चरण अपने में स्वतंत्र होता है। चौपाई के पठन या गायन के समय हर चरण के बाद अल्प विराम लिया जाता है जिसे यति कहते हैं। अत: किसी चरण का अंतिम शब्द अगले चरण में नहीं जाना चाहिए। चौपाई के चरणान्त में गुरु-लघु मात्राएँ वर्जित हैं।
उदाहरण:
१. शिव चालीसा की प्रारंभिक पंक्तियाँ देखें.
जय गिरिजापति दीनदयाला । -प्रथम चरण
१ १ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
सदा करत संतत प्रतिपाला ।। -द्वितीय चरण
१ २ १ १ १ २ १ १ १ १ २ २ = १६१६ मात्राएँ
भाल चंद्रमा सोहत नीके। - तृतीय चरण
२ १ २ १ २ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
कानन कुंडल नाक फनीके।।
-चतुर्थ चरण
२ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
रामचरित मानस के अतिरिक्त शिव चालीसा, हनुमान चालीसा आदि धार्मिक रचनाओं में चौपाई का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है किन्तु इनमें प्रयुक्त भाषा उस समय की बोलियों (अवधी, बुन्देली, बृज, भोजपुरी आदि ) है।
निम्न उदाहरण वर्त्तमान काल में प्रचलित खड़ी हिंदी के तथा समकालिक कवियों द्वारा रचे गये हैं।
२. श्री रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भुवन भास्कर बहुत दुलारा।
मुख मंडल है प्यारा-प्यारा।।
सुबह-सुबह जब जगते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
३. श्री छोटू भाई चतुर्वेदी
हर युग के इतिहास ने कहा।
भारत का ध्वज उच्च ही रहा।।
सोने की चिड़िया कहलाया।
सदा लुटेरों के मन भाया।।
४. शेखर चतुर्वेदी
मुझको जग में लानेवाले।
दुनिया अजब दिखनेवाले।।
उँगली थाम चलानेवाले।
अच्छा बुरा बतानेवाले।।
५. श्री मृत्युंजय
श्याम वर्ण, माथे पर टोपी।
नाचत रुन-झुन रुन-झुन गोपी।।
हरित वस्त्र आभूषण पूरा।
ज्यों लड्डू पर छिटका बूरा।।
६. श्री मयंक अवस्थी
निर्निमेष तुमको निहारती।
विरह –निशा तुमको पुकारती।।
मेरी प्रणय –कथा है कोरी।
तुम चन्दा, मैं एक चकोरी।।
७.श्री रविकांत पाण्डे
मौसम के हाथों दुत्कारे।
पतझड़ के कष्टों के मारे।।
सुमन हृदय के जब मुरझाये।
तुम वसंत बनकर प्रिय आये।।
८. श्री राणा प्रताप सिंह
जितना मुझको तरसाओगे।
उतना निकट मुझे पाओगे।।
तुम में 'मैं', मुझमें 'तुम', जानो।
मुझसे 'तुम', तुमसे 'मैं', मानो।।
९. श्री शेषधर तिवारी
एक दिवस आँगन में मेरे।
उतरे दो कलहंस सबेरे।।
कितने सुन्दर कितने भोले।
सारे आँगन में वो डोले।।
१०. श्री धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'
नन्हें मुन्हें हाथों से जब।
छूते हो मेरा तन मन तब॥
मुझको बेसुध करते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
११. श्री संजीव 'सलिल'
कितने अच्छे लगते हो तुम ।
बिना जगाये जगते हो तुम ।।
नहीं किसी को ठगते हो तुम।
सदा प्रेम में पगते हो तुम ।।
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम।
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम।।
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम।
बिल्ली से डर बचते हो तुम।।
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम।
चूजे भाई! रुचते हो तुम।।
अंतिम उदाहरण में चौपाई छन्द का प्रयोग कर 'चूजे' विषय पर मुक्तिका (हिंदी गजल) लिखी गयी है। यह एक अभिनव साहित्यिक प्रयोग है।
***
संजीव भैया के प्रति
डॉ. नीलम खरे
*
सदा लेखनी के धनी,श्रीमान संजीव
करते सिरजन नित्य ही,हैं सारस्वत जीव
हैं सारस्वत जीव,करें साहित्य-वंदना
हैं ज्ञानी,उत्कृष्ट,जानते लक्ष्य-साधना
कहती 'नीलम' आज,कभी ना कहें अलविदा
चोखे श्री संजीव,रहें गतिमान वे सदा।
--डॉ नीलम खरे
आज़ाद वार्ड
मंडला(मप्र)-481661
(9425484382)
***
छंदों का सम्पूर्ण विद्यालय : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
मंजूषा मन
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' से मेरा परिचय पिछले चार वर्षों से है। लगभग चार वर्ष पहले की बात है, मैं एक छंद के विषय मे जानकारी चाहती थी पर यह जानकारी कहाँ से मिल सकती है यह मुझे पता नहीं था, सो जो हम आमतौर पर करते हैं मैंने भी वही किया... मैंने गूगल की मदद ली और गूगल पर छंद का नाम लिखा तो सबसे पहले मुझे "दिव्य नर्मदा" वेब पत्रिका से छंद की जानकारी प्राप्त हुई। मैंने दिव्य नर्मदा पर बहुत सारी रचनाएँ पढ़ीं।
चूँकि मैं भी जबलपुर की हूँ और जबलपुर मेरा नियमित आनाजाना होता है तो मेरे मन में आचार्य जी से मिलने की तीव्र इच्छा जागृत हुई। दिव्य नर्मदा पर मुझे आदरणीय संजीव वर्मा 'सलिल' जी का पता और फोन नम्बर भी मिला। मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और मैंने आचार्य सलिल जी को व्हाट्सएप पर सन्देश लिखा कि मैं भी जबलपुर से हूँ... और जबलपुर आने पर आपसे भेंट करना चाहती हूँ। उन्होंने कहा कि मैं जब भी आऊँ तो उनके निवास स्थान पर उनसे मिल सकती हूँ।
उसके बाद जब में जबलपुर गई तो मैं सलिल जी से मिलने उनके के घर गई। आप बहुत ही सरल हृदय हैं बहुत ही सहजता से मिले और हमने बहुत देर तक साहित्यिक चर्चा की। हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए आप बहुत चिंतित एवं प्रयासरत लगे। चर्चा के दौरान हमने हिन्दी छंद, गीत-नवगीत, माहिया एवं हाइकु आदि पर विस्तार से बात की। लेखन की लगभग सभी विधाओं पर आपका ज्ञान अद्भुत है।
ततपश्चात मैं जब भी जबलपुर जाती हूँ तो आचार्य सलिल जी से अवश्य मिलती हूँ। उनके अथाह साहित्य ज्ञान के सागर से हर बार कुछ मोती चुनने का प्रयास करती हूँ।
ऐसी ही एक मुलाकात के दौरान उन्होंने सनातन छंदो पर अपने शोध पर विस्तार से बताया। सनातन छंदों पर किया गया यह शोध नवोदित रचनाकारों के लिए गीता साबित होगा।
आचार्य सलिल जी के विषय में चर्चा हो और उनके द्वारा संपादित "दोहा शतक मंजूषा" की चर्चा हो यह सम्भव नहीं। विश्व वाणी साहित्य संस्थान नामक संस्था के माध्यम से आप साहित्य सेवारत हैं। इसी प्रकाशन से प्रकाशित ये दोहा संग्रह पठनीय होने के साथ साथ संकलित करके रखने के योग्य हैं इनमें केवल दोहे संकलित नहीं हैं बल्कि दोहों के विषय मे विस्तार से समझाया गया है जिससे पाठक दोहों के शिल्प को समझ सके और दोहे रचने में सक्षम हो सके।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के लिए कुछ कहते हुए शब्द कम पड़ जाते हैं किंतु साहित्य के लिए आपके योगदान की गाथा पूर्ण नहीं होती। आपकी साहित्य सेवा सराहनीय है।
मैं अपने हृदयतल से आपको शुभकामनाएं देती हूँ कि आप आपकी साहित्य सेवा की चर्चा दूर दूर तक पहुंचे। आप सफलता के नए नए कीर्तिमान स्थापित करें अवने विश्व वाणी संस्थान के माध्यम से हिंदी का प्रचार प्रसार करते रहें।
मंजूषा मन
कार्यकारी अधिकारी
अम्बुजा सीमेंट फाउंडेशन
ग्राम - रवान
जिला - बलौदा बाजार
पिन - 493331
छत्तीसगढ़
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हमारे बहुत करीब सलिल जी
डॉ. बाबू जोसफ
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी के साथ मेरा संबंध वर्षों पुराना है। उनके साथ मेरी पहली मुलाकात सन् 2003 में कर्णाटक के बेलगाम में हुई थी। सलिल जी द्वारा संपादित पत्रिका नर्मदा के तत्वावधान में आयोजित दिव्य अलंकरण समारोह में मुझे हिंदी भूषण पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उस सम्मान समारोह में उन्होंने मुझे कुछ किताबें उपहार के रूप में दी थीं, जिनमें एक किताब मध्य प्रदेश के दमोह के अंग्रेजी प्रोफसर अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल संकलन Off and On भी थी। उस पुस्तक में संकलित अंग्रेजी ग़ज़लों से हम इतने प्रभावित हुए कि हमने उन ग़ज़लों का हिंदी में अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की। सलिल जी के प्रयास से हमें इसके लिए प्रोफसर अनिल जैन की अनुमति मिली और Off and On का हिंदी अनुवाद यदा-कदा शीर्षक पर जबलपुर से प्रकाशित भी हुआ। सलिल जी हमेशा उत्तर भारत के हिंदी प्रांत को हिंदीतर भाषी क्षेत्रों से जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं। उनके इस श्रम के कारण BSF के DIG मनोहर बाथम की हिंदी कविताओं का संकलन सरहद से हमारे हाथ में आ गया। हिंदी साहित्य में फौजी संवेदना की सुंदर अभिव्यक्ति के कारण इस संकलन की कविताएं बेजोड़ हैं। हमने इस काव्य संग्रह का मलयालम में अनुवाद किया, जिसका शीर्षक है 'अतिर्ति'। इस पुस्तक के लिए बढ़िया भूमिका लिखकर सलिल जी ने हमारा उत्साह बढ़ाया। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय बात है कि सलिल जी के कारण हिंदी के अनेक विद्वान, कवि,लेखक आदि हमारे मित्र बन गए हैं। हिंदी साहित्य में कवि, आलोचक एवं संपादक के रूप में विख्यात सलिल जी की बहुमुखी प्रतिभा से हिन्दी भाषा का गौरव बढ़ा है। उन्होंने हिंदी को बहुत कुछ दिया है। इस लिए हिंदी साहित्य में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा। हमने सलिल जी को बहुत दूर से देखा है, मगर वे हमारे बहुत करीब हैं। हमने उन्हें किताबें और तस्वीरों में देखा है, मगर वे हमें अपने मन की दूरबीन से देखते हैं। उनकी लेखनी के अद्भुत चमत्कार से हमारे दिल का अंधकार दूर हो गया है। सलिल जी को केरल से ढ़ेर सारी शुभकामनाएँ।
डॉ. बाबू जोसफ,
विभागाध्यक्ष हिंदी,
वडक्कन हाऊस, कुरविलंगाडु पोस्ट, कोट्टायम जिला, केरल-686633, मोबाइल.09447868474
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शब्द ब्रम्ह के पुजारी गुरुवर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'*
छाया सक्सेना
श्रुति-स्मृति की सनातन परंपरा के देश भारत में शब्द को ब्रम्ह और शब्द साधना को ब्रह्मानंद माना गया है। पाश्चात्य जीवन मूल्यों और अंग्रेजी भाषा के प्रति अंधमोह के काल में, अभियंता होते हुए भी कोई हिंदी भाषा, व्याकरण और साहित्य के प्रति समर्पित हो सकता है, यह आचार्य सलिल जी से मिलकर ही जाना।
भावपरक अलंकृत रचनाओं को कैसे लिखें यह ज्ञान आचार्य संजीव 'सलिल' जी अपने सम्पर्क में आनेवाले इच्छुक रचनाकारों को स्वतः दे देते हैं। लेखन कैसे सुधरे, कैसे आकर्षक हो, कैसे प्रभावी हो ऐसे बहुत से तथ्य आचार्य जी बताते हैं। वे केवल मौखिक जानकारी ही नहीं देते वरन पढ़ने के लिए साहित्य भी उपलब्ध करवाते हैं । उनकी विशाल लाइब्रेरी में हर विषयों पर आधारित पुस्तकें सुसज्जित हैं । विश्ववाणी संस्थान अभियान के कार्यालय में कोई भी साहित्य प्रेमी आचार्य जी से फोन पर सम्पर्क कर मिलने हेतु समय ले सकता है । एक ही मुलाकात में आप अवश्य ही अपने लेखन में आश्चर्य जनक बदलाव पायेंगे ।
साहित्य की किसी भी विधा में आप से मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है । चाहें वो पुरातन छंद हो , नव छंद हो, गीत हो, नवगीत हो या गद्य में आलेख, संस्मरण, उपन्यास, कहानी या लघुकथा इन सभी में आप सिद्धस्थ हैं।
आचार्य सलिल जी संपादन कला में भी माहिर हैं। उन्होंने सामाजिक पत्रिका चित्राशीष, अभियंताओं की पत्रिकाओं इंजीनियर्स टाइम्स, अभियंता बंधु, साहित्यिक पत्रिका नर्मदा, अनेक स्मारिकाओं व पुस्तकों का संपादन किया है। अभियंता कवियों के संकलन निर्माण के नूपुर व नींव के पत्थर तथा समयजयी साहित्यकार भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' के लिए आपको
नाथद्वारा में 'संपादक रत्न' अलंकरण से अलंकृत किया गया है।
आचार्य सलिल जी ने संस्कृत से ५ नर्मदाष्टक, महालक्ष्यमष्टक स्त्रोत, शिव तांडव स्त्रोत, शिव महिम्न स्त्रोत, रामरक्षा स्त्रोत आदि का हिंदी काव्यानुवाद किया है। इस हेतु हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग को रजत जयंती वर्ष में आपको 'वाग्विदांबर' सम्मान प्राप्त हुआ। आचार्य जी ने हिंदी के अतिरिक्त बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, राजस्थानी, अवधी, हरयाणवी, सरायकी आदि में भी सृजन किया है।
बहुआयामी सृजनधर्मिता के धनी सलिल जी अभियांत्रिकी और तकनीकी विषयों को हिंदी में लिखने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। आपको 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय अभियांत्रिकी संरचनाएँ' पर अभियंताओं की सर्वोच्च संस्था इंस्टीटयूशन अॉफ इंजीनियर्स कोलकाता का अखिल भारतीय स्तर पर द्वितीय श्रेष्ठ पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा प्रदान किया गया।
जबलपुर (म.प्र.)में १७ फरवरी को आयोजित सृजन पर्व के दौरान एक साथ कई पुस्तकों का विमोचन, समीक्षा व सम्मान समारोह को आचार्य जी ने बहुत ही कलात्मक तरीके से सम्पन्न किया । दोहा संकलन के तीन भाग सफलता पूर्वक न केवल सम्पादित किया वरन दोहाकारों को आपने दोहा सतसई लिखने हेतु प्रेरित भी किया । आपके निर्देशन में समन्वय प्रकाशन भी सफलता पूर्वक पुस्तकों का प्रकाशन कर नए कीर्तिमान गढ़ रहा है ।
छाया सक्सेना प्रभु

जबलपुर ( म. प्र. )
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बहुमुखी व्यक्तित्व के साहित्य पुरोधा - 'संजीव वर्मा सलिल'
क्रांति कनाटे
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श्री संजीव वर्मा 'सलिल" बहुमुखी प्रतिभा के धनी है । अभियांत्रिकी, विधि, दर्शा शास्त्र और अर्थशास्त्र विषयों में शिक्षा प्राप्त श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी देश के लब्ध-प्रतिष्ठित साहित्यकार है जिनकी कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीट मेरे, काल है संक्रांति का, सड़क पर और कुरुक्षेत्र गाथा सहित अनेक पुस्तके चर्चित रही है ।
दोहा, कुण्डलिया, रोला, छप्पय और कई छन्द और छंदाधारित गीत रचनाओ के सशक्त हस्ताक्षर सही सलिल जी का पुस्तक प्रेम अनूठा है। इसका प्रमाण इनकी 10 हजार से अधिक श्रेष्ठ पुस्तको का संग्रह से शोभायमान जबलपुर में इनके घर पर इनका पुस्तकालय है ।
इनकी लेखक, कवि, कथाकार, कहानीकार और समालोचक के रूप में अद्वित्तीय पहचान है । मेरे प्रथम काव्य संग्रह 'करते शब्द प्रहार' पर इनका शुभांशा मेरे लिए अविस्मरणीय हो गई । इन्होंने ने कई नव प्रयोग भी किये है । दोहो और कुंडलियों पर इनकी शिल्प विधा पर इनके आलेख को कई विद्वजन उल्लेख करते है ।
जहाँ तक मुझे जानकारी है ये महादेवी वर्मा के नजदीकी रिश्तेदार है । इनकी कई वेसाइट है । ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ आस्था के कारण इन्होंने के भजन सृजित किये है और कई संस्कृत की पुस्तकों का हिंदी काव्य रूप में अनुवाद किया है ।
सलिल जी से जब भी कोई जिज्ञासा वश पूछता है तो सहभाव से प्रत्युत्तर दे समाधान करते है । ये इनकी सदाशयता की पहचान है । एक बार इनके अलंकारित दोहो के प्रत्युत्तर में मैंने दोहा क्या लिखा, दोहो में ही आधे घण्टे तक एक दूसरे को जवाब देते रहे, जिन्हें कई कवियों ने सराहा । ऐसे साहित्य पुरोधा श्री 'सलिल' जी साहित्य मर्मज्ञ के साथ ही ऐसे नेक दिल इंसान है जिन्होंने सैकड़ों नवयुवकों को का हौंसला बढ़ाया है । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं है ।
मेरी भावभव्यक्ति -
प्रतिभा के धनी : संजीव वर्मा सलिल
विभा तिवारी
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प्रतिभा के लगते धनी, जन्म जात कवि वृन्द ।
हुए पुरोधा कवि 'सलिल',प्यारे जिनको छन्द ।।
प्यारे जिनको छंद, पुस्तके जिनकी चर्चित ।
छन्दों में रच काव्य, करी अति ख्याति अर्जित ।।
कह लक्ष्मण कविराय, साहित्य में लाय विभा*।
साहित्यिक मर्मज्ञ, मानते वर्मा में प्रतिभा ।।
***
पद
छंद: दोहा.
*
मन मंदिर में बैठे श्याम।।
नटखट-चंचल सुकोमल, भावन छवि अभिराम।
देख लाज से गड़ रहे, नभ सज्जित घनश्याम।।
मेघ मृदंग बजा रहे, पवन जप रहा नाम।
मंजु राधिका मुग्ध मन, छेड़ रहीं अविराम।।
छीन बंसरी अधर धर, कहें न करती काम।
कहें श्याम दो फूँक तब, जब मन हो निष्काम।।
चाह न तजना है मुझे, रहें विधाता वाम।
ये लो अपनी बंसरी, दे दो अपना नाम।।
तुम हो जाओ राधिका, मुझे बना दो श्याम।
श्याम थाम कर हँस रहे, मैं गुलाम बेदाम।।
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२९.६.२०१२, ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४
***
गीत:
कहे कहानी....
*
कहे कहानी, आँख का पानी.
की सो की, मत कर नादानी...
*
बरखा आई, रिमझिम लाई.
नदी नवोढ़ा सी इठलाई..
ताल भरे दादुर टर्राये.
शतदल कमल खिले मन भाये..
वसुधा ओढ़े हरी चुनरिया.
बीरबहूटी बनी गुजरिया..
मेघ-दामिनी आँख मिचोली.
खेलें देखे ऊषा भोली..
संध्या-रजनी सखी सुहानी.
कहे कहानी, आँख का पानी...
*
पाला-कोहरा साथी-संगी.
आये साथ, करें हुडदंगी..
दूल्हा जाड़ा सजा अनूठा.
ठिठुरे रवि सहबाला रूठा..
कुसुम-कली पर झूमे भँवरा.
टेर चिरैया चिड़वा सँवरा..
चूड़ी पायल कंगन खनके.
सुन-गुन पनघट के पग बहके.
जो जी चाहे करे जवानी.
कहे कहानी, आँख का पानी....
*
अमन-चैन सब हुई उड़न छू.
सन-सन, सांय-सांय चलती लू..
लंगड़ा चौसा आम दशहरी
खाएँ ख़ास न करते देरी..
कूलर, ए.सी., परदे खस के.
दिल में बसी याद चुप कसके..
बन्ना-बन्नी, चैती-सोहर.
सोंठ-हरीरा, खा-पी जीभर..
कागा सुन कोयल की बानी.
कहे कहानी, आँख का पानी..
२९-६-२०१०
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मंगलवार, 28 जून 2022

तुलसी : रामबाण औषधि

तुलसी : रामबाण औषधि 

तुलसी एक औषधीय पौधा है जिसमें विटामिन (Vitamin) और खनिज प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। सभी रोगों को दूर करने और शारीरिक शक्ति बढ़ाने वाले गुणों से भरपूर इस औषधीय पौधे को प्रत्यक्ष देवी कहा गया है क्योंकि इससे ज्यादा उपयोगी औषधि मनुष्य जाति के लिए दूसरी कोई नहीं है। तुलसी के धार्मिक-महत्व के कारण हर-घर आगंन में इसके पौधे लगाए जाते हैं। तुलसी की कई प्रजातियां मिलती हैं। जिनमें श्वेत व कृष्ण प्रमुख हैं। इन्हें राम तुलसी और कृष्ण तुलसी भी कहा जाता है।

चरक संहिता और सुश्रुत-संहिता में भी तुलसी के गुणों के बारे में विस्तार से वर्णन है। तुलसी का पौधा आमतौर पर ३० से ६० सेमी तक ऊँचा होता है और इसके फूल छोटे-छोटे सफेद और बैगनी रंग के होते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जुलाई से अक्टूबर तक होता है।

तुलसी का वानस्पतिक नाम Ocimum sanctum Linn. (ओसीमम् सेंक्टम्) और कुल का नाम Lamiaceae (लैमिएसी) है। अन्य भाषाओं में इसे निम्न नामों से पुकारा जाता है -
Tamil – तुलशी (Tulashi)
Telugu – गग्गेर चेट्टु (Gagger chettu)
Sanskrit : तुलसी, सुरसा, देवदुन्दुभि, अपेतराक्षसी, सुलभा, बहुमञ्जरी, गौरी, भूतघ्नी
Hindi : तुलसी, वृन्दा
Odia : तुलसी (Tulasi)
Kannad : एरेड तुलसी (Ared tulsi)
Gujrati : तुलसी (Tulasi)
Bengali : तुलसी (Tulasi)
Nepali : तुलसी (Tulasi)
Marathi : तुलस (Tulas)
Malyalam : कृष्णतुलसी (Krishantulasi)
Arabi : दोहश (Dohsh)
तुलसी के फायदे एवं उपयोग 
औषधीय उपयोग की दृष्टि से तुलसी की पत्तियां ज्यादा गुणकारी मानी जाती हैं। इनको आप सीधे पौधे से लेकर खा सकते हैं। तुलसी के पत्तों की तरह तुलसी के बीज के फायदे भी अनगिनत होते हैं। आप तुलसी के बीज के और पत्तियों का चूर्ण भी प्रयोग कर सकते हैं। इन पत्तियों में कफ वात दोष को कम करने, पाचन शक्ति एवं भूख बढ़ाने और रक्त को शुद्ध करने वाले गुण होते हैं। इसके अलावा तुलसी के पत्ते के फायदे बुखार, दिल से जुड़ी बीमारियां, पेट दर्द, मलेरिया और बैक्टीरियल संक्रमण आदि में बहुत फायदेमंद हैं। तुलसी के औषधीय गुणों (Medicinal Properties of Tulsi) में राम तुलसी की तुलना में श्याम तुलसी को प्रमुख माना गया है।
स्मृति वर्धक -
दिमाग के लिए भी तुलसी के फायदे लाजवाब तरीके से काम करते हैं। इसके रोजाना सेवन से मस्तिष्क की कार्यक्षमता बढ़ती है और याददाश्त तेज होती है। इसके लिए रोजाना तुलसी की  ४-५ पत्तियों को पानी के साथ निगलकर खाएं।
सिरदर्द -
ज्यादा काम करने या अधिक तनाव में होने पर सिरदर्द होना एक आम बात है। अगर आप भी अक्सर सिर दर्द की समस्या से परेशान रहते हैं तो तुलसी के तेल की एक दो बूंदें नाक में डालें। इस तेल को नाक में डालने से पुराने सिर दर्द और सिर से जुड़े अन्य रोगों में आराम मिलता है।
सिर में जुएं -
आपके सिर में जुएं पड़ गये हैं और कई दिनों से यह समस्या ठीक नहीं हो रही है तो बालों में तुलसी का तेल लगाएं। तुलसी के पौधे से तुलसी की पत्तियां लेकर उससे तेल बनाकर बालों में लगाने से उनमें मौजूद जूं और लीखें मर जाती हैं। तुलसी के पत्ते के फायदे, तुलसी का तेल बनाने में प्रयोग किया जाता है।
रतौंधी -
कई लोगों को रात के समय ठीक से दिखाई नहीं पड़ता है, इस समस्या को रतौंधी कहा जाता है। अगर आप रतौंधी से पीड़ित हैं तो तुलसी की पत्तियां (Basil leaves in hindi) आपके लिए काफी फायदेमंद है। इसके लिए दो से तीन बूँद तुलसी-पत्र-स्वरस को दिन में २-३ बार आंखों में डालें
साइनसाइटिस -
आप साइनसाइटिस के मरीज हैं तो तुलसी की पत्तियां या मंजरी को मसलकर सूघें। इन पत्तियों को मसलकर सूंघने से साइनसाइटिस रोग से जल्दी आराम मिलता है।
कान-दर्द -
तुलसी की पत्तियां कान के दर्द और सूजन से आराम दिलाने में भी असरदार है। अगर कान में दर्द है तो तुलसी-पत्र-स्वरस को गर्म करके २-२  बूँद कान में डालें। इससे कान दर्द से जल्दी आराम मिलता है। इसी तरह अगर कान के पीछे वाले हिस्से में सूजन (कर्णमूलशोथ) है तो इससे आराम पाने के लिए तुलसी के पत्ते तथा एरंड की कोंपलों को पीसकर उसमें थोड़ा नमक मिलाकर गुनगुना करके लेप लगाएं। कान दर्द से राहत दिलाने में भी तुलसी के पत्ते खाने से फायदा मिलता है।
दांत दर्द -
तुलसी की पत्तियां दांत दर्द से आराम दिलाने में भी कारगर हैं। दांत दर्द से आराम पाने के लिए काली मिर्च और तुलसी के पत्तों की गोली बनाकर दांत के नीचे रखने से दांत के दर्द से आराम मिलता है।
गले में खराश -
सर्दी-जुकाम होने पर या मौसम में बदलाव होने पर अक्सर गले में खराश या गला बैठ जाने जैसी समस्याएं होने लगती हैं। तुलसी (Tulsi plant) की पत्तियां गले से जुड़े विकारों को दूर करने में बहुत ही लाभप्रद हैं। गले की समस्याओं से आराम पाने के लिए तुलसी के रस (Tulsi juice) को हल्के गुनगुने पानी में मिलाकर उससे कुल्ला करें। इसके अलावा तुलसी रस-युक्त जल में हल्दी और सेंधानमक मिलाकर कुल्ला करने से भी मुख, दांत तथा गले के सब विकार दूर होते हैं।
खांसी -
तुलसी की पत्तियों (Basil leaves in hindi) से बने शर्बत को आधी से डेढ़ चम्मच की मात्रा में बच्चों को तथा दो से चार चम्मच तक बड़ों को सेवन कराने से, खांसी, श्वास, कुक्कुर खांसी और गले की खराश में लाभ होता है। इस शर्बत में गर्म पानी मिलाकर लेने से जुकाम तथा दमा में बहुत लाभ होता है। इस शरबत को बनाने के लिए कास-श्वास-तुलसी-पत्र (मंजरी सहित) ५० ग्राम, अदरक २५ ग्राम तथा कालीमिर्च १५ ग्राम को ५०० मिली जल में मिलाकर काढ़ा बनाएं, चौथाई शेष रहने पर छानकर तथा १० ग्राम छोटी इलायची बीजों के महीन चूर्ण मिलाकर २०० ग्राम चीनी डालकर पकाएं, एक तार की चाशनी हो जाने पर छानकर रख लें और इसका सेवन करें।
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दोहा, मुक्तिका, गीत, श्रृंगार गीत, कमल, अमलतास, लघुकथा, नेपाली, सुरेश वर्मा, गोबिंद सिंह

कालजयी गीतकार गोपाल सिंह नेपाली  

चीनी आक्रमण के समय अपने ओजपूर्ण गीत एवं कविताओं द्वारा जनांदोलन का शंख फूँकनेवाले तथा ''चौवालिस करोड़ को हिमालय ने पुकारा'' के रचयिता आधुनिक काल के जनप्रिय हिंदी कवि और गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली का जन्म ११ अगस्त, १९११ ई. को बिहार राज्य के पश्चिम चम्पारण जिले के कारी दरबार में हुआ था। एक फौजी पिता की संतान के रूप में जगह-जगह भटकते रहने के कारण आपकी स्कूली शिक्षा बहुत कम हो पायी थी। आप मात्र प्रवेशिका तक ही पढ़ पाए थे, परन्तु आपने आम लोगों की भावनाओं को खूब पढ़ा और उनकी अपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं को आवाज दी।

साधारण वेश-भूषा, पतला चश्मा, थोड़े घुँघराले बाल, रंग साँवला और कोई गंभीर्य नहीं। विनोदपूर्ण और सरल व्यक्तित्व के स्वामी गोपाल सिंह नेपाली लहरों के विपरीत चलकर सफलता के झण्डे गाड़ने वाले अपराजेय योद्धा थे। आप साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में पारंगत थे। आपकी रचना पाठ का एक अलग ही अनूठा अंदाज होता था। यही वजह थी कि आप जिस भी आयोजन में जाते, उसके प्राण हो जाते थे। आपके द्वारा गाये गीत तुरंत लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाते थे और लोग उन्हें बरबस गुनगुनाने लगते थे-

'जिस पथ से शहीद जाते है, वही डगरिया रंग दे रे/ अजर अमर प्राचीन देश की, नई उमरिया रंग दे रे। / मौसम है रंगरेज गुलाबी, गांव-नगरिया रंग दे रे। / तीस करोड़ बसे धरती की, हरी चदरिया रंग दे रे॥'

१९६५ ई. में पाकिस्तानी फौज की अचानक गोली-बारी में हमारे देश के शांतिप्रिय मेजर बुधवार और उनके साथी शहीद हो गए तो केंद्र में बैठे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को संबोधित कर कविवर नेपाली ने लिखा था- 'ओ राही! दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से, चरखा चलता हाथों से, शासन चलता तलवार से।' कविवर नेपाली का नाम सिर्फ हिन्दी साहित्य में ही नहीं बल्कि सिने जगत के इतिहास में भी अविस्मरणीय है। आप १९४४ई. में बम्बई की फिल्म कम्पनी फिल्मिस्तान में गीतकार के रूप में पहुँचे और सर्वप्रथम 'मजदूर' जैसी ऐतिहासिक फिल्म के गीत लिखे, जिसके कथाकार स्वयं कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द थे और संवाद लेखन किया था उपेन्द्र नाथ 'अश्क' ने। गीत इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन की ओर से नेपाली जी को सन् १९४५ का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार मिला। भारत पर चीनी हमले से पूर्व तक आप बम्बई में रहे और करीब चार दर्जन से भी अधिक फिल्मों में एक से एक लोकप्रिय गीत लिखे, फिल्म तुलसीदास का वह गीत आज भी हमारे लिए उस महाकवि का एक उद्बोधन-सा ही लगता है- 'सच मानो तुलसी न होते, तो हिन्दी कहीं पड़ी होती, उसके माथे पर रामायण की बिन्दी नहीं जड़ी होती।'

आपने खुद की एक फिल्म-कम्पनी 'हिमालय-फिल्मस' के नाम से बनाई थी, जिसके तहत 'नजराना' और 'खुशबू' जैसी फिल्में बनी थीं। फिल्म में लिखे इनके गीत, चली आना हमारे अँगना, तुम न कभी आओगे पिया, दिल लेके तुम्हीं जीते दिल देके हमी हारे, दूर पपीहा बोल, ओ नाग कहीं जा बसियो रे मेरे पिया को न डसियो रे, इक रात को पकड़े गये दोनों जंजीर में जकड़े गये दोनों, रोटी न किसी को मोतियों का ढेर भगवान तेरे राज में अंधेर है अंधेर तथा प्यासी ही रह गई पिया मिलन को अँखियाँ राम जी कैसे अनेक गीत इतने लोकप्रिय हुए कि आज भी 'रीमिक्स' के जमाने में कभी-कभार सुनने को मिल जाते है तो बरबस नेपाली जी की याद दिलो दिमाग को कचोट जाती है। फिल्म नागपंचमी का वह गीत जो आज भी लोगों के ओठों पर बसा है- 'आरती करो हरिहर की, करो नटवर की, भोले शंकर की, आरती करो नटवर की..'

देश पर चीनी आक्रमण के दिनों में नेपाली जी लगातार समूचे देश का साहित्यिक दौरा करते हुए, आमजन को चीनी हमले के विरुद्ध जगा रहे थे- 'युद्ध में पछाड़ दो दुष्ट लाल चीन को, मारकर खदेड़ दो तोप से कमीन को, मुक्त करो साथियों हिन्द की जमीन को, देश के शरीर में नवीन खून डाल दो।'और इसी प्रकार लोगों को जगाते-जगाते अचानक १७ अप्रैल, १९६३ को दिन के करीब ११ बजे जीवन के अंतिम कवि सम्मेलन से कविता पाठ कर लौटते समय भागलपुर रेलवे जंक्शन के प्लेटफार्म नं. २ पर सदा के लिए सो गये। उनके पार्थिव शरीर को लोगों के दर्शनार्थ स्थानीय मारवाड़ी पाठशाला में करीब बीस घंटे तक रखा गया, वहीं से इनकी ऐतिहासिक शवयात्रा निकली, जिसमें जनसैलाब उमड़ पड़ा था। भागलपुर के ही बरारी घाट पर उन्हें पाँच साहित्यकारों ने संयुक्त रूप से मुखाग्नि दी और तब उनकी चिता जलाई गई। नेपाली के गीतों के साथ जनता की आकांक्षाएँ और कल्पनाएँ गुथीं हुई थीं। तभी तो नेपाली जी ने साहित्य में उभरती हुई राजनीति और चापलूसी को देखकर बहुत दु:ख प्रकट करते हुए लिखा था- 'तुझ सा लहरों में बह लेता तो मैं भी सत्ता गह लेता। ईमान बेचता चलता तो मैं भी महलों में रह लेता। तू दलबंदी पर मरे, यहाँ लिखने में है तल्लीन कलम, मेरा धन है स्वाधीन कलम।'

हिन्दी साहित्य जगत में गोपाल सिंह नेपाली के योगदान का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि इनकी मौत के बाद उस समय की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने इनके जीवन और कृतित्व पर विशेषांकों की झड़ी-सी लगा दी थी। नेपाली जी के ऐसे अनेक साहित्यिक गीत है जो आज भी सुनने वालों के मन प्राण को अभिभूत कर देते है, खासकर- नौ लाख सितारों ने लूटा, दो तुम्हारे नयन दो हमारे नयन, तथा तन का दिया रूप की बाती, दीपक जलता रहा रातभर आदि गीत काफी अनूठे है।

आज हम उस महान जनप्रिय कवि गीतकार को याद करे न करे पर उनकी कृतियाँ- उमंग, पंछी, रागिनी, पंचमी, नवीन, हिमालय ने पुकारा, पीपल का पेड़, कल्पना, नीलिमा और तूफानों को आवाज दो जैसी कालजयी रचनाओं के माध्यम से साहित्य इतिहास में सदा-सदा अमर रहेगे। अंत में उन्हीं की पंक्तियों के साथ- 'बाबुल तुम बगिया के तरुवर, हम तरुवर की चिड़ियाँ, दाना चुगते उड़ जाएँ हम, पिया मिलन की घड़ियाँ।'

***
दोहा दोहा चिकित्सा
गर्म दूध-गुड़ नित पिएँ, त्वचा नर्म हो आप
हर विकार मिट वजन घट, रोग न पाए व्याप
नित गुड़ अदरक चबाएँ, जोड़ दर्द हो दूर
मासिक समय न दर्द हो, केश बढ़ें भरपूर
श्वास फूलती है अगर, दवा श्रेष्ठ अंजीर
कफ-बलगम कर दूर यह, शीघ्र मिटाए पीर
रात फुला अंजीर त्रय, पानी में खा भोर
पानी पी लें माह भर, करें न नाहक शोर
काढ़ा तुलसी सौंठ का, श्वसन तंत्र का मीत
श्वास फूलने दमा में, सेवन उत्तम रीत
सोंठ चूर्ण चुटकी, नमक काला, काली मिर्च
सेवन से खांसी मिटे, व्यर्थ न करिए खर्च 
तुलसी पत्ते पाँच सँग, काला नमक उबाल
काली मिर्ची सौंठ सँग, सेवन करे कमाल
अजवाइन को पीसकर, पानी संग उबाल
पिएँ भाप लें यदि दमा, मिटे न करे निढाल
तिल का तेल गरम मलें, छाती पर लें सेक
दमा श्वास पीड़ा मिटे, है सलाह यह नेक
श्वास दमा पीड़ा घटे, खाएँ फल अंगूर
अंगूरी से दूर हों, लाभ मिले भरपूर
चौलाई रस-शहद पी, नित्य खाइए साग
कष्ट न दे हो दूर झट, श्वास रोग खटराग
तीन कली लहसुन डला, दूध उबालें मीत
शयन पूर्व पी लीजिए, श्वास रोग लें जीत
काढ़ा सेवन सौंफ का, बलगम करता दूर
श्वसन रोग से मुक्ति पा, बजे श्वास संतूर
लौंग-शहद काढ़ा बना, पीते रहें हुजूर
श्वसन तंत्र मजबूत हो, श्वास मिले भरपूर
शहद-दालचीनी मिला, पिएँ गुनगुना नीर
या पी लें गोमूत्र तो, घटे श्वास की पीर
हींग-शहद चुप चाटिए, चार बार रह शांत
साँस फूलने से मिले, मुक्ति न रहें अशांत
नीबू रस पानी गरम, पिएँ मिले आराम
केला सेवन मत करें, लेती श्वास विराम
गुड़-सरसों के तेल में, डाल मिला लें मौन
नित करिए सेवन मलें, रोग न जाने कौन
ताजे फल सब्जी हरी, चने अंकुरित श्रेष्ठ
चिकनाई एसिड तजें, कार्बोहाइड्रेट नेष्ठ
***
दोहा मुक्तिका:
काम न आता प्यार
काम न आता प्यार यदि, क्यों करता करतार।।
जो दिल बस; ले दिल बसा, वह सच्चा दिलदार।।
*
जां की बाजी लगे तो, काम न आता प्यार।
सरहद पर अरि शीश ले, पहले 'सलिल' उतार।।
*
तूफानों में थाम लो, दृढ़ता से पतवार।
काम न आता प्यार गर, घिरे हुए मझधार।।
*
गैरों को अपना बना, दूर करें तकरार।
कभी न घर में रह कहें, काम न आता प्यार।।
*
बिना बोले ही बोलना, अगर हुआ स्वीकार।
'सलिल' नहीं कह सकोगे, काम न आता प्यार।।
*
मिले नहीं बाज़ार में, दो कौड़ी भी दाम।
काम न आता प्यार जब, रहे विधाता वाम।।
*
राजनीति में कभी भी, काम न आता प्यार।
दाँव-पेंच; छल-कपट से, जीवन हो निस्सार।।
*
काम न आता प्यार कह, करें नहीं तकरार।
कहीं काम मनुहार दे, कहीं काम इसरार।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
***
दोहा संवाद:
बिना कहे कहना 'सलिल', सिखला देता वक्त।
सुन औरों की बात पर, कर मन की कमबख्त।।
*
आवन जावन जगत में,सब कुछ स्वप्न समान।
मैं गिरधर के रंग रंगी, मान सके तो मान।। - लता यादव
*
लता न गिरि को धर सके, गिरि पर लता अनेक।
दोहा पढ़कर हँस रहे, गिरिधर गिरि वर एक।। -संजीव
*
मैं मोहन की राधिका, नित उठ करूँ गुहार।
चरण शरण रख लो मुझे, सुनकर नाथ पुकार।। - लता यादव
*
मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।
कहे राधिका साधिका, कर मत मुझे वियुक्त।। -संजीव
*
ना मैं जानूँ साधना, ना जानूँ कुछ रीत।
मन ही मन मनका फिरे,कैसी है ये प्रीत।। - लता यादव
*
करे साधना साधना, मिट जाती हर व्याध।
करे काम ना कामना, स्वार्थ रही आराध।। -संजीव
*
सोच सोच हारी सखी, सूझे तनिक न युक्ति ।
जन्म-मरण के फेर से, दिलवा दे जो मुक्ति।। -लता यादव
*
नित्य भोर हो जन फिर, नित्य रात हो मौत।
तन सो-जगता मन मगर, मौन हो रहा फौत।। -संजीव
*
वाणी पर संयम रखूँ, मुझको दो आशीष।
दोहे उत्तम रच सकूँ, कृपा करो जगदीश।। -लता यादव
*
हरि न मौन होते कभी, शब्द-शब्द में व्याप्त।
गीता-वचन उचारते, विश्व सुने चुप आप्त।। -संजीव
*
२८-६-२०१८, ७९९९५५९६१८
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दोहा सलिला:
*
हर्ष; खुशी; उल्लास; सुख, या आनंद-प्रमोद।
हैं आकाश-कुसुम 'सलिल', अब आल्हाद विनोद।।
*
कहीं न हैपीनेस है, हुआ लापता जॉय।
हाथों में हालात के, ह्युमन बीइंग टॉय।।
*
एक दूसरे से मिलें, जब मन जाए झूम।
तब जीवन का अर्थ हो, सही हमें मालूम।।
*
मेरे अधरों पर खिले, तुझे देख मुस्कान।
तेरे लब यदि हँस पड़ें, पड़े जान में जान।।
*
तू-तू मैं-मैं भुलकर, मैं तू हम हों मीत।
तो हर मुश्किल जीत लें, यह जीवन की रीत।।
*
श्वास-आस संबंध बो, हरिया जीवन-खेत।
राग-द्वेष कंटक हटा, मतभेदों की रेत।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
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दोहा दुनिया
चंपा तुझ में तीन गुण ,रूप ,रंग और बास
अवगुण केवल एक है ,भ्रमर ना आवै पास
चंपा बदनी राधिका भ्रमर कृष्ण का दास
निज जननी अनुहार के भ्रमर न जाये पास
इन दोनों दोहों के दोहाकारों के नाम भूल गया हूँ. बताइये
***
लघु कथा:
बाँस
.
गेंड़ी पर नाचते नर्तक की गति और कौशल से मुग्ध जनसमूह ने करतल ध्वनि की. नर्तक ने मस्तक झुकाया और तेजी से एक गली में खो गया। 
आश्चर्य हुआ प्रशंसा पाने के लिये लोग क्या-क्या नहीं करते? चंद करतल ध्वनियों के लिये रैली, भाषण, सभा, समारोह, यहाँ ताक की खुद प्रायोजित भी कराते हैं। यह अनाम नर्तक इसकी उपेक्षा कर चला गया जबकि विरागी-संत भी तालियों के मोह से मुक्त नहीं हो पाते। मंदिर से संसद तक और कोठों से अमरोहों तक तालियों और गालियों का ही राज्य है। 
संयोगवश अगले ही दिन वह नर्तक फिर मिला गया। आज वह पीठ पर एक शिशु को बाँधे हाथ में लंबा बाँस लिये रस्से पर चल रहा था और बज रही थीं तालियाँ लेकिन वह फिर गायब हो गया। 
कुछ दिन बाद नुक्कड़ पर फिर दिख गया वह... इस बार कंधे पर रखे बाँस के दोनों ओर जलावन के गट्ठर टँगे थे जिन्हें वह बेचने जा रहा था। 
मैंने पुकारा तो वह रुक गया। मैंने उसके नृत्य और रस्से पर चलने की कला की प्रशंसा कर पूछा कि इतना अच्छा कलाकार होने के बाद भी वह अपनी प्रशंसा से दूर क्यों चला जाता है? कला साधना के स्थान पर अन्य कार्यों को समय क्यों देता है?
कुछ पल वह मुझे देखता रहा फिर लम्बी साँस भरकर बोला : 'क्या कहूँ? कला साधना और प्रशंसा तो मुझे भी मन भाती है पर पेट की आग न तो कला से, न प्रशंसा से बुझती है।  तालियों की आवाज़ में रमा रहूँ तो बच्चे भूखे रह जायेंगे.' मैंने जरूरत न होते हुए भी जलावन ले ली... उसे परछी में बैठाकर पानी पिलाया और रुपये दिए तो वह बोल पड़ा: 'सब किस्मत का खेल है।अच्छा-खासा व्यापार करता था। पिता को किसी से टक्कर मार दी। उनके इलाज में हुए खर्च में लिये कर्ज को चुकाने में पूँजी ख़त्म हो गयी। बचपन का साथी बाँस और उस पर सीखे खेल ही पेट पालने का जरिया बन गये।' इससे पहले कि मैं उसे हिम्मत देता वह फिर बोला: 'फ़िक्र न करें, वे दिन न रहे तो ये भी न रहेंगे। अभी तो मुझे कहीं झुककर, कहीं तनकर बाँस की तरह परिस्थितियों से जूझना ही नहीं उन्हें जीतना भी है।' और वह तेजी से आगे बढ़ गया।  मैं देखता रह गया उसके हाथ में झूलता बाँस। 
***
* ब्रम्ह कमल
* कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकार के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुद को कहीं कमल, कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शशिमुखी, चन्द्रकान्ति, रजनीकांत, कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की श्री तथा हरि के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि से जन्म के आधार पर बने पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल-माल अर्पित कर आभारी हूँ. सभी पर्यायों को गूंथने पर रचना लंबी होगी. पाठकों की प्रतिक्रिया ही बताएगी कि गीतकार निकष पर खरा उतर सका या नहीं?
गीत
शतदल पंकज कमल
*
शतदल, पंकज, कमल, सूर्यमुख
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.
शूल चुभा सुरभित गुलाब का फूल-
कली-मन म्लान कर रहा...
*
जंगल काट, पहाड़ खोदकर
ताल पाटता महल न जाने.
भू करवट बदले तो पल में-
मिट जायेंगे सब अफसाने..
सरवर सलिल समुद्र नदी में
खिल इन्दीवर कुई बताता
हरिपद-श्रीकर, श्रीपद-हरिकर
कृपा करें पर भेद न माने..
कुंद कुमुद क्षीरज नीरज नित
सौगन्धिक का गान कर रहा.
सरसिज, अलिप्रिय, अब्ज, रोचना
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.....
*
पुण्डरीक सिंधुज वारिज
तोयज उदधिज नव आस जगाता.
कुमुदिनि, कमलिनि, अरविन्दिनी के
अधरों पर शशिहास सजाता..
पनघट चौपालों अमराई
खलिहानों से अपनापन रख-
नीला लाल सफ़ेद जलज हँस
सुख-दुःख एक सदृश बतलाता.
उत्पल पुंग पद्म राजिव
कब निर्मलता का भान कर रहा.
जलरुह अम्बुज अम्भज कैरव
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.....
*
बिसिनी नलिन सरोज कोकनद
जाति-धर्म के भेद न मानें.
मन मिल जाए ब्याह रचायें-
एक गोत्र का खेद न जानें..
दलदल में पल दल न बनाते,
ना पंचायत, ना चुनाव ही.
शशिमुख-रविमुख रह अमिताम्बुज
बैर नहीं आपस ठानें..
अमलतास हो या पलाश
पुहकर पुष्कर का गान कर रहा.
सौगन्धिक पुन्नाग अलोही
श्रम-सीकर से
स्नान कर
*
१०-७-२०१०
-----------------
अभिनव प्रयोग-
१९. कमल-कमलिनी विवाह
*
* रक्त कमल
अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
**
हिमकमल
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर भी दंग.
कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनहर
यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
*
* नील कमल
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती कैरविणी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.
बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिया.
रविप्रिय श्रीकर कैरव को बेचैन किया
अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!...
**
श्वेत कमल
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक श्रीपद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.
असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे
श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
*
२०-७-२०१२
* कमल हर कीचड़ में नहीं खिलता. गंदे नालों में कमल नहीं दिखेगा भले ही कीचड़ हो. कमल का उद्गम जल से है इसलिए वह नीरज, जलज, सलिलज, वारिज, अम्बुज, तोयज, पानिज, आबज, अब्ज है. जल का आगर नदी, समुद्र, तालाब हैं... अतः कमल सिंधुज, उदधिज, पयोधिज, नदिज, सागरज, निर्झरज, सरोवरज, तालज भी है. जल के तल में मिट्टी है, वहीं जल और मिट्टी में मेल से कीचड़ या पंक में कमल का बीज जड़ जमता है इसलिए कमल को पंकज कहा जाता है. पंक की मूल वृत्ति मलिनता है किन्तु कमल के सत्संग में वह विमलता का कारक हो जाता है. क्षीरसागर में उत्पन्न होने से वह क्षीरज है. इसका क्षीर (मिष्ठान्न खीर) से कोई लेना-देना नहीं है. श्री (लक्ष्मी) तथा विष्णु की हथेली तथा तलवों की लालिमा से रंग मिलने के कारण रक्त कमल हरि कर, हरि पद, श्री कर, श्री पद भी कहा जाता किन्तु अन्य कमलों को यह विशेषण नहीं दिया जा सकता. पद्मजा लक्ष्मी के हाथ, पैर, आँखें तथा सकल काया कमल सदृश कही गयी है. पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना के नेत्र गुलाबी भी हो सकते हैं, नीले भी. सीता तथा द्रौपदी के नेत्र क्रमशः गुलाबी व् नीले कहे गए हैं और दोनों को पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना विशेषण दिए गये हैं. करकमल और चरणकमल विशेषण करपल्लव तथा पदपल्लव की लालिमा व् कोमलता को लक्ष्य कर कहा जाना चाहिए किन्तु आजकल चाटुकार कठोर-काले हाथोंवाले लोगों के लिये प्रयोग कर इन विशेषणों की हत्या कर देते हैं. श्री राम, श्री कृष्ण के श्यामल होने पर भी उनके नेत्र नीलकमल तथा कर-पद रक्तता के कारण करकमल-पदकमल कहे गये. रीतिकालिक कवियों को नायिका के अन्गोंपांगों के सौष्ठव के प्रतीक रूप में कमल से अधिक उपयुक्त अन्य प्रतीक नहीं लगा. श्वेत कमल से समता रखते चरित्रों को भी कमल से जुड़े विशेषण मिले हैं. मेरे पढ़ने में ब्रम्हकमल, हिमकमल से जुड़े विशेषण नहीं आये... शायद इसका कारण इनका दुर्लभ होना है. इंद्र कमल (चंपा) के रंग चम्पई (श्वेत-पीत का मिश्रण) से जुड़े विशेषण नायिकाओं के लिये गर्व के प्रतीक हैं किन्तु पुरुष को मिलें तो निर्बलता, अक्षमता, नपुंसकता या पाण्डुरोग (पीलिया ) इंगित करते हैं. कुंती तथा कर्ण के पैर कोमलता तथा गुलाबीपन में साम्यता रखते थे तथा इस आधार पर ही परित्यक्त पुत्र कर्ण को रणांगन में अर्जुन के सामने देख-पहचानकर वे बेसुध हो गयी थीं.
*
हिम कमल
विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से
चीन के सिन्चांग वेवूर स्वायत्त प्रदेश में खड़ी थ्येनशान पर्वत माले में समुद्र सतह से तीन हजार मीटर ऊंची सीधी खड़ी चट्टानों पर एक विशेष किस्म की वनस्पति उगती है, जो हिम कमल के नाम से चीन भर में मशहूर है। हिम कमल का फूल एक प्रकार की दुर्लभ मूल्यवान जड़ी बूटी है, जिस का चीनी परम्परागत औषधि में खूब प्रयोग किया जाता है। विशेष रूप से ट्यूमर के उपचार में, लेकिन इधर के सालों में हिम कमल की चोरी की घटनाएं बहुत हुआ करती है, इस से थ्येन शान पहाड़ी क्षेत्र में उस की मात्रा में तेजी से गिरावट आयी। वर्ष 2004 से हिम कमल संरक्षण के लिए व्यापक जनता की चेतना उन्नत करने के लिए प्रयत्न शुरू किए गए जिसके फलस्वरूप पहले हिम कमल को चोरी से खोदने वाले पहाड़ी किसान और चरवाहे भी अब हिम कमल के संरक्षक बन गए हैं।


***
प्रस्तुत है एक रचना - प्रतिरचना आप इस क्रम में अपनी रचना टिप्पणी में प्रस्तुत कर सकते हैं.
रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'
*
रचना:
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*
वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
गुरुवार, २३ अगस्त २०१२
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
प्रतिरचना:
अमलतास का पेड़
संजीव 'सलिल'
**
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो
पेड़ पुराना अमलतास का।
*
जाकर लकड़ी-घर में देखो
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते
चीत्कार पर कोई न सुनता।
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में?
घर-आंगन में??
*
हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे।
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन।
तभी हुई थी घर में अनबन।
*
मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है।
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर
ऊषा संध्या निशा साथ हँस
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो
बैठ छाँव में अमलतास की.
*
salil.sanjiv@gmail.com
***
श्रृंगार-गीत :
तुम
*
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सूरज करता ताका-झाँकी
मन में आँकें सूरत बाँकी
नाच रहे बरगद बब्बा भी
झूम दे रहे ताल।
तुम इठलाईं
तो पनघट पे
कूकी मौन रसाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सद्यस्नाता बूँदें बरसें
देख बदरिया हरषे-तरसे
पवन छेड़ता श्यामल कुंतल
उलझें-सुलझे बाल।
तुम खिसियाईं
पल्लू थामे
झिझक न करो मलाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
बजी घंटियाँ मन मंदिर में
करी अर्चना कोकिल स्वर में
रीझ रहे नटराज उमा पर
पहना, पहनी माल।
तुम भरमाईं
तो राधा लख
नटवर हुए निहाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
करछुल-चम्मच बाजी छुनछन
बटलोई करती है भुनभुन
लौकी हाथ लगाए हल्दी
मुकुट टमाटर लाल।
तुम पछताईं
नमक अधिक चख
स्वेद सुशोभित भाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
पूर्वा सँकुची कली नवेली
हुई दुपहरी प्रखर हठीली
संध्या सुंदर, कलरव सस्वर
निशा नशीली चाल।
तुम हुलसाईं
अपने सपने
पूरे किये कमाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
२८-६-२०१७
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गीत-
*
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
राकेशी ज्योत्सना न शीतल, लिये क्रांति की नव मशाल है
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
*
कल तक रही विदेशी सत्ता, क्षति पहुँचाना लगा सार्थक
आज स्वदेशी चुने हुए से टकराने का दृश्य मार्मिक
कुरुक्षेत्र की सीख यही है, दु:शासन से लड़ना होगा
धृतराष्ट्री है न्याय व्यवस्था मिलकर इसे बदलना होगा
वादों के अम्बार लगे हैं, गांधारी है न्यायपीठ पर
दुर्योधन देते दलील, चुक गये भीष्म, पर चलना होगा
आप बढ़ा जी टकराने अब उसका तिलकित नहीं भाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
हाथ हथौड़ा तिनका हाथी लालटेन साइकिल पथ भूले
कमल मध्य को कुचल, उच्च का हाथ थाम सपनों में झूले
निम्न कटोरा लिये हाथ में, अनुचित-उचित न देख पा रहा
मूल्य समर्थन में, फंदा बन कसा गले में कहर ढा रहा
दाल टमाटर प्याज रुलाये, खाकर हवा न जी सकता जन
पानी-पानी स्वाभिमान है, चारण सत्ता-गान गा रहा
छाते राहत-मेघ न बरसें, टैक्स-सूर्य का व्याल-जाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
महाकाल जा कुंभ करायें, क्षिप्रा में नर्मदा बहायें
उमा बिना शिव-राज अधूरा, नंदी चैन किस तरह पायें
सिर्फ कुबेरों की चाँदी है, श्रम का कोई मोल नहीं है
टके-तीन अभियंता बिकते, कहे व्यवस्था झोल नहीं है
छले जा रहे अपनों से ही, सपनों- नपनों से दुःख पाया
शानदार हैं मकां, न रिश्ते जानदार कुछ तोल नहीं है
जल पलाश सम 'सलिल', बदल दे अब न सहन के योग्य हाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
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१८-६-२०१६
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नवगीत
खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
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२८-६-२०१६
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मुक्तिका:
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पढ़ेंगे खुदका लिखा खुद निहाल होना है
पढ़े जो और तो उसको निढाल होना है
*
हुई है बात सलीके की कुछ सियासत में
तभी से तय है कि जमकर बबाल होना है
*
कहा जो हमने वही सबको मानना होगा
यही जम्हूरियत की अब मिसाल होना है
*
दियों से दुश्मनी, बाती से अदावत जिनको
उन्हीं के हाथों में जलती मशाल होना है
*
कहाँ से आये मियाँ और कहाँ जाते हो?
न इससे ज्यादा कठिन कुछ सवाल होना है
*
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दोहा मुक्तिका:
*
उगते सूरज की करे, जगत वंदना जाग
जाग न सकता जो रहा, उसका सोया भाग
*
दिन कर दिनकर ने कहा, वरो कर्म-अनुराग
संध्या हो निर्लिप्त सच, बोला: 'माया त्याग'
*
तपे दुपहरी में सतत, नित्य उगलता आग
कहे: 'न श्रम से भागकर, बाँधो सर पर पाग
*
उषा दुपहरी साँझ के, संग खेलता फाग
दामन पर लेकिन लगा, कभी न किंचित दाग
*
निशा-गोद में सर छिपा, करता अचल सुहाग
चंद्र-चंद्रिका को मिला, हँसे- पूर्ण शुभ याग
*
भू भगिनी को भेंट दे, मार तिमिर का नाग
बैठ मुँड़ेरे भोर में, बोले आकर काग
*
'सलिल'-धार में नहाये, बहा थकन की झाग
जग-बगिया महका रहा, जैसे माली बाग़
२८-६-२०१५
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विमर्श -
जन का पैगाम - जन नायक के नाम
प्रिय नरेंद्र जी, उमा जी
सादर वन्दे मातरम
मुझे आपका ध्यान नदी घाटियों के दोषपूर्ण विकास की ओर आकृष्ट करना है।
मूलतः नदियाँ गहरी तथा किनारे ऊँचे पहाड़ियों की तरह और वनों से आच्छादित थे। कालिदास का नर्मदा तट वर्णन देखें। मानव ने जंगल काटकर किनारों की चट्टानें, पत्थर और रेत खोद लिये तो नदी का तक और किनारों का अंतर बहुत कम बचा। इससे भरनेवाले पानी की मात्रा और बहाव घाट गया, नदी में कचरा बहाने की क्षमता न रही, प्रदूषण फैलने लगा, जरा से बरसात में बाढ़ आने लगी, उपजाऊ मिट्टी बाह जाने से खेत में फसल घट गई, गाँव तबाह हुए।
इस विभीषिका से निबटने हेतु कृपया, निम्न सुझावों पर विचार कर विकास कार्यक्रम में यथोचित परिवर्तन करने हेतु विचार करें:
१. नदी के तल को लगभग १० - १२ मीटर गहरा, बहाव की दिशा में ढाल देते हुए, ऊपर अधिक चौड़ा तथा नीचे तल में कम चौड़ा खोदा जाए।
२. खुदाई में निकली सामग्री से नदी तट से १-२ किलोमीटर दूर संपर्क मार्ग तथा किनारों को पक्का बनाया जाए ताकि वर्षा और बाढ़ में किनारे न बहें।
३. घाट तक आने के लिये सड़क की चौड़ाई छोड़कर शेष किनारों पर घने जंगल लगाए जाएँ जिन्हें घेरकर प्राकृतिक वातावरण में पशु-पक्षी रहें मनुष्य दूर से देख आनंदित हो सके।
४. गहरी हुई बड़ी नदियों में बड़ी नावों और छोटे जलयानों से यात्री और छोटी नदियों में नावों से यातायात और परिवहन बहुत सस्ता और सुलभ हो सकेगा। बहाव की दिशा में तो नदी ही अल्प ईंधन में पहुंचा देगी। सौर ऊर्जा चलित नावों से वर्ष में ८-९ माह पेट्रोल -डीज़ल की तुलना में लगभग एक बटे दस धुलाई व्यय होगा। प्राचीन भारत में जल संसाधन का प्रचुर प्रयोग होता था।
५. घाटों पर नदी धार से ३००-५०० मीटर दूर स्नानागार-स्नान कुण्ड तथा पूजनस्थल हों जहाँ जलपात्र या नल से नदी उपलब्ध हो। नदी के दर्शन करते हुए पूजन-तर्पण हो। प्रयुक्त दूषित जल व् अन्य सामग्री घाट पर बने लघु शोधन संयंत्र में उपचारित का शुद्ध जल में परिवर्तित की जाने के बाद नदी के तल में छोड़ा जाए। तथा नदी का प्रदुषण समाप्त होगा तथा जान सामान्य की आस्था भी बनी सकेगी। इस परिवर्तन के लिये संतों-पंडों तथा स्थानी जनों को पूर्व सहमत करने से जन विरोध नहीं होगा।
६. नदी के समीप हर शहर, गाँव, कस्बे, कारखाने, शिक्षा संस्थान, अस्पताल आदि में लघु जल-मल निस्तारण केंद्र हो। पूरे शहर के लिए एक वृहद जल-नल केंद्र मँहगा, जटिल तथा अव्यवहार्य है जबकि लघु ईकाइयां कम देखरेख में सुविधा से संचालित होने के साथ स्थानीय रोजगार भी सृजित करेंगी। इनके द्वारा उपचारित जल नदियों में छोड़ना सुरक्षित होगा।
७. एक राज्यों में बहने वाली नदियों पर विकास योजना केंद्र सरकार की देख-रेख और बजट से हो जबकि एक राज्य की सीमा में बह रही नदियों की योजनों की देखरेख और बजट राज्य सरकारें देखें।जिन स्थानों पर निवासी २५ प्रतिशत जन सहयोग दान करें उन्हें प्राथमिकता दी जाए। हिस्सों में स्थानीय जनों ने बाँध बनाकर या पहाड़ खोदकर बिना सरकारी सहायता के अपनी समस्या का निदान खोज लिया है और इनसे लगाव के कारण वे इनकी रक्षा व मरम्मत भी खुद करते है जबकि सरकारी मदद से बनी योजनाओं को आम जन ही लगाव न होने से हानि पहुंचाते हैं। इसलिए श्रमदान अवश्य हो। ७० के दशक में सरकारी विकास योजनाओं पर ५० प्रतिशत श्रमदान की शर्त थी, जो क्रमशः काम कर शून्य कर दी गयी तो आमजन लगाव ख़त्म हो जाने के कारण सामग्री की चोरी करने लगे और कमीशन माँगा जाने लगा।श्रमदान करनेवालों को रोजगार मिलेगा।
८. नर्मदा में गुजरात से जबलपुर तक, गंगा में बंगाल से हरिद्वार तक तथा राजस्थान, महाकौशल, बुंदेलखंड और बघेलखण्ड में छोटी नदियों से जल यातायात होने पर इन पिछड़े क्षेत्रों का कायाकल्प हो जाएगा।
९. इससे भूजल स्तर बढ़ेगा और सदियों के लिए पेय जल की समस्या हल हो जाएगी।भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी।
कृपया, इन बिन्दुओं पर गंभीरतापूर्वक विचारण कर, क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाये जाने हेतु निवेदन है।
संजीव वर्मा
एक नागरिक
२८-६-२०१४