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सोमवार, 20 मार्च 2023

जनक छंद,रमण महर्षि,नवगीत,चिरैया,शारद! अमृत रस बरसा दे।,बाल कविता,मोदी

सॉनेट 
स्वस्ति
स्वस्ति होना अस्ति का परिणाम।
नास्ति हो तो मत करें स्वीकार।
स्वस्ति नहिं हो तो विधाता वाम।।
नास्ति सत् से भी करे इंकार।।
अस्ति से आस्तिक बने संसार।
दे सके, पा भी सके मन प्यार। 
नास्तिक हो तो न बेड़ा पार।।
ऊर्जा हो व्यर्थ सत्य नकार।।
अस्ति खुश अस्तित्व की जय बोल।
नास्ति नाखुश बाल अपने नोच।
स्वस्ति नीरस में सके रस घोल।।
स्वस्ति सबका शुभ सके सच सोच।।
स्वार्थ का सर्वार्थ में बदलाव।
तभी जब हो स्वस्ति सबका चाव।।
२०-३-२०२३
जनक छंद
*
रमण आप में आप कर।
मौन; आप का जाप कर।
आप आप में व्याप कर।।

मौन बोलता है, सुनो।
कहने के पहले गुनो।
व्यर्थ न अपना सर धुनो।।

अति सीमित आहार कर।
विषयों का परिहार कर।
मन मत अधिक विचार कर।।

नाहक सपने मत बुनो।
तन बनकर क्यों तुम घुनो।
दो न, एक को चुप चुनो।।

मन-विचार दो नहीं हैं।
दूर नहीं प्रभु यहीं हैं।
गए नहीं वे कहीं हैं।।

बनो यंत्र भगवान का।
यही लक्ष्य इंसान का।
पुण्य अमित है दान का।।

जीवन पंकिल नहीं है।
जो कुछ उज्ज्वल; यहीं है।
हमने कमियाँ गहीं हैं।।

है महत्त्व अति ध्यान का।
परमपिता के भान का।
उस सत्ता के गान का।।

कर नियमन आहार का।
नित अपने आचार का।
मन में उठे विचार का।।

राही मंज़िल राह भी।
हैं मानव तू आप ही।
आह न केवल वाह भी।।

कोष न नफरत-प्यार का।
बोझ न भव-व्यापार का।
माध्यम पर उपकार का।।

जन्म लिया; भर आह भी।
प्रभु की कर परवाह भी।
है फ़क़ीर तू शाह भी।।

भीतर-बाहर है वही।
कथा न निज जिसने कही। 
जिसकी महिमा सब कहीं।।
*
***
रमण महर्षि
भारत के तामिलनाडू प्रान्त में मदुरै से ३० मील दक्षिण तिरुचुली नामक एक गाँव है जहाँ एक प्राचीन शिव मंदिर है जिसकी अभ्यर्थना, महान तमिल संत एंव कवि सुन्दरमूर्ति एवं माणिक्क वाचकर ने अपने गीतों में की | उन्नीसवीं सदी के अन्त मे इस पवित्र गांव में सुन्दर अय्यर नामक वकील एवं उनकी पत्नी अलगम्माल रहते थे| ये आदर्श दम्पति भक्ति, उदारशीलता एवं दानशीलता से युक्त थे| सुन्दर अय्यर बहुत ही उदार थे जबकि अलगम्माल एक आदर्श हिन्दू पत्नी थीं| वेंकटरामन, उनसे द्वितीय पुत्र के रूप में पैदा हुए जो बाद में समस्त विश्व में भगवान श्री रमण महर्षि के रूप में जाने गये| हिन्दुओं के पावन दिन आरुद्रा-दर्शन, ३० दिसम्बर १८७९ को उनका जन्म हुआ| प्रत्येक वर्ष इस पावन दिन को नटराज शिव की मूर्ति को जनसामान्य के दर्शन हेतु एक समारोह के रूप में निकाला जाता है ताकि लोग शिव के अनुग्रह को अनुभव एवं प्राप्त कर सकें| आरुद्रा (१८७९) के दिन नटराज की मूर्ति तिरुचुली के मंदिर से विभिन्न समारोह के साथ नगर में निकली थी तथा पुनः मंदिर में प्रवेश करने वालि थी, उसी क्षण वेंकटरामन का जन्म हुआ|
जीवन के आरम्भिक वर्षो में वेंकटरामन में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था| वे एक सामान्य बालक के रुप में विकसित हुए| उन्हें तिरुचुली के एक प्राइमरी स्कूल में तथा बाद में दिण्डुक्कल के एक स्कूल में भेजा गया| जब वे बारह वर्ष के थे तो उनके पिता का देहावसान हो गया| ऐसी स्थिति में उन्हें परिवार के साथ, अपने चाचा सुब्ब अय्यर के साथ मदुरै में रहने की आवश्यकता पड़ी| मदुरै में उन्हें पहले स्काट मीडिल स्कूल तथा बाद में अमेरिकन मिशन हाईस्कूल में भेजा गया| यद्यपि वह तीव्र बुद्धि एवं तीव्र स्मरण शक्ति सम्पन्न थे किन्तु अपनी पढ़ाई के प्रति गंभीर नहीं थे। वह स्वस्थ एवं शक्तिशाली शरीर युक्त थे तथा उनके साथी उनकी ताकत से डरते थे| उनसे से यदि कभी किसी को नाराजगी रहती तो वे उनकी गहरी निद्रावस्था में बदला लेते थे| उन्हें सोया जानकर कहीं दूर जाकर पीटते थे तो भी उनकी नींद नहीं रवुलती थी| रमण महर्षि (1879-1950) अद्यतन काल के महान ऋषि और संत थे। उन्होंने आत्म विचार पर बहुत बल दिया। उनका आधुनिक काल में भारत और विदेश में बहुत प्रभाव रहा है।
मुदुरै में भी ऐसी घटनाएं अक्सर ही घटती थी, वहां रमण स्कूल में पढ़ते थे जब किसी लड़के से उनकी खटपट हो जाती, तब दिन में जागते हुए तो वह उनसे कुछ कह न पाता, क्योंकि रमण का स्वास्थ्य अच्छा था, पर उनके सो जाने पर वह अपने मन की मुराद पूरी कर लेता। वह अपने साथियों की मदद से सोए हुए रमण को उठाकर कहीं ले जाता और मन भर पीटने के बाद फिर वहीं सुला जाता। बालक रमण में इस तरह की गहरी नींद के साथ-साथ अर्द्ध निद्रा में रहने की भी आदत थी। ये दोनों ही बातें उनकी धार्मिक वृत्तियों की परिचायक है। गहरी नींद एक ओर तो अच्छे स्वास्थ्य की निशानी है और दूसरी ओर इस बात का संदेश देती है कि यदि कोई व्यक्ति ध्यान में लीन हो जाए, तो पूरी तरह निमग्न रह सकता है - अर्द्धनिद्रावस्था यह दर्शाती है कि व्यक्ति आंखें खुली रहने पर भी, संसार के काम करते हुए भी, आत्मा अथवा परमात्मा में लीन हो सकता है।
रमण महर्षि ने अद्वैतवाद पर जोर दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि परमानंद की प्राप्ति 'अहम्‌' को मिटाने तथा अंत:साधना से होती है। रमण ने संस्कृत, मलयालम, एवं तेलुगु भाषाओं में लिखा। बाद में आश्रम ने उनकी रचनाओं का अनुवाद पाश्चात्य भाषाओं में किया।
वकील सुंदरम्‌ अय्यर और अलगम्मल को 30 दिसम्बर 1879 को तिरुचुली, मद्रास में जब द्वितीय पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई तो उसका नाम वेंकटरमन रखा गया। रमण की प्रारंभिक शिक्षा तिरुचुली और दिंदिगुल में हुई। उनकी रुचि शिक्षा की अपेक्षा मुष्टियुद्ध व मल्लयुद्ध जैसे खेलों में अधिक थी तथापि धर्म की ओर भी उनका विशेष झुकाव था।
दक्षिण के शैव लोग “अरुदर्शन” (अर्थात् जब शिव ने अपने भक्तों को नटराज के रूप में दर्शन दिए) का त्यौहार बड़े जोर-शोर और श्रद्धा-भक्ति से मनाते हैं। ३० दिसंबर १८७९ को इसी पवित्र त्यौहार के दिन तमिलनाडु के तिरुचुली नामक छोटे से कस्बे में श्री सुंदरम् अय्यर के घर एक बालक का जन्म हुआ, जो आगे चलकर महर्षि रमण के रूप में विख्यात हुआ। कुछ लोग महर्षि रमण को भगवान शिव का अवतार मानते हैं। बचपन से ही वह संन्यासियों जैसा आचरण करते थे। समाधिस्थ होना उनका सहज स्वभाव था। बचपन में वे अपने चाचा के घर किण्डीगुल में थे। घर में कोई समारोह था, सब लोग समारोह के बाद मंदिर चले गए। रमण उनके साथ नहीं गये। वह चुपचाप बैठे पढ़ते रहे। फिर जब नींद आने लगी तो कुंडे-दरवाजे बंद कर सो गए। घर के लोग जब वापस लोटे, तो उन्होंने बहुतेरा खटखटाया और शोर मचाया, पर रमण की नींद न टुटी| आखिर वे लोग किसी दूसरे के घर से होकर अपने घर में आए और रमण को जगाने के लिए पीटने लगे| घर के सब बच्चों ने उन्हें पीटा, चाचा ने भी पीटा, पर उनकी आंखे न खुली| वह पूर्ववत सोए रहे। रमण को उस मार-पीट का कुछ भी पता नहीं लगा। वह तो सुबह घर के लोगो ने उन्हे बतलाया, तो उन्हें पता चला कि रात को उनकी पिटाई भी हुई था।
तपस्या
लगभग 1895 ई. में अरुचल (तिरुवन्नमलै) की प्रशंसा सुनकर रामन अरुंचल के प्रति बहुत ही आकृष्ट हुए। वे मानवसमुदाय से कतराकर एकांत में प्रार्थना किया करते। जब उनकी इच्छा अति तीव्र हो गई तो वे तिरुवन्नमलै के लिए रवाना हो गए ओर वहाँ पहुँचने पर शिखासूत्र त्याग कौपीन धारण कर सहस्रस्तंभ कक्ष में तपनिरत हुए। उसी दौरान वे तप करने पठाल लिंग गुफा गए जो चींटियों, छिपकलियों तथा अन्य कीटों से भरी हुई थी। 25 वर्षों तक उन्होंने तप किया। इस बीच दूर और पास के कई भक्त उन्हें घेरे रहते थे। उनकी माता और भाई उनके साथ रहने को आए और पलनीस्वामी, शिवप्रकाश पिल्लै तथा वेंकटरमीर जैसे मित्रों ने उनसे आध्यात्मिक विषयों पर वार्ता की। संस्कृत के महान्‌ विद्वान्‌ गणपति शास्त्री ने उन्हें 'रामनन्‌' और 'महर्षि' की उपाधियों से विभूषित किया।
महर्षि रमण का बचपन का नाम वेंकटरमण था, पर साधारणतः लोग उन्हें रमण के नाम से ही पुकारते थे | अपने नाम के अनुरूप ही वह अध्यात्म की दुनिया में रमण भी करते थे | उस समय उनकी उम्र १७ वर्ष की रही होगी। वह अपने चाचा के घर आए हुए थे। वहां एक विचित्र घटना घटी। वह घटना स्वयं उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है :
“मैं कभी बीमार नहीं हुआ था। स्वास्थ्य ठीक था। पर एक दिन एकाएक मैंने महसूस किया कि मैं मर रहा हूं। मौत के भय ने मुझे बुरी तरह जकड़ लिया। पर उस समय यह नहीं सूझा कि किसी डाक्टर के पास जाऊं, अथवा किसी मित्र को बुलाऊं। मैं अपने आप में ही उलझ गया, मौत के भय ने एकाएक मुझे सोचने पर मजबूर किया कि मैं मर रहा हूँ। पर तभी दिमाग में एक बिजली कौंधी - मैं कहां मर रहा हूं, मर तो शरीर रहा है। और मैं मौत का नाटक करने लगा। मैं लेट गया - सांस रोक ली और सब हरकतें भी बंद कर दी। तब मैंने अपने से कहा - यह शरीर तो मर गया। इसके मरने में और कसर ही क्या है? इसे जला दिया जाएगा, पर इस शरीर के मरने से मैं मर गया क्या? यदि मैं मर गया, तो शक्ति कैसे अनुभव करता हूं? मेरा व्यक्तित्व तो इससे अलग है। मैं इस शरीर की आत्मा हूं। शरीर मर जाएगा - पर मेरी आत्मा नहीं मरेगी। मैं तो कभी मरूंगा ही नहीं। और, इसके साथ ही, मौत का भय एकदम चला गया | मैं पुनःसशक्त हो गया। तब से मैंने शरीर में विशेष दिलचस्पी लेनी छोड़ दी।“
1922 में जब रमण की माता का देहांत हो गया तब आश्रम उनकी समाधि के पास ले जाया गया। 1946 में रमण महर्षि की स्वर्ण जयंती मनाई गई। यहाँ महान्‌ विभूतियों का जमघट लगा रहता था। असीसी के संत फ्रांसिस की भाँति रामन सभी प्राणियों से - गाय, कुत्ता, हिरन, गिलहरी, आदि - से प्रेम करते थे।
14 अप्रैल 1950 की रात्रि को आठ बजकर सैंतालिस मिनट पर जब महर्षि रमण महाप्रयाण को प्राप्त हुए, उस समय आकाश में एक तीव्र ज्योति का तारा उदय हुआ एवं अरुणाचल की दिशा में अदृश्य हो गया।
शास्त्र हमें बताते हैं कि एक ऋषि द्वारा अपनाये गये पथ को मालूम करना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार से अपने पंखों से उड़‌कर आकाश में पहुँची एक चिड़िया का पथ रेखांकित करना । अधिकांश व्यक्तियों को लक्ष्य की ओर धीमी एवं श्रमसाध्य यात्रा करनी पड़‌ती है किन्तु कुछ व्यक्ति, समस्त अस्तित्वों के स्रोत – सर्वोच्च आत्मा में निर्विघ्न उड़ने के लिए जन्मजात प्रतिभा लिए पैदा होते हैं । जब कभी ऎसा कोई ऋषि प्रकट होता है तो सामान्यतया मानवजाति उसे अपने हृदय में स्थान देती है। यद्यपि उनके साथ गति रखना संभव नहीं होता किन्तु उनकी उपस्थिति एवं सान्निध्य में उस आन्नद की अनुभूति होती है जिसके समक्ष सांसारिक सुख नहीं के बराबर होते हैं । महर्षि श्री रमण के जीवनकाल में तिरुवण्णामलै पहुँचने वाले असंख्य व्यक्तियों का यह अनुभव है। उन्होंने उनमें, संसार से पूर्ण विरक्त ऋषि, अतुल्य पावन संत तथा वेदान्त के शाश्वत सत का एक साक्षी देखा। किन्तु जब कभी ऐसी घटना घटित होती है तो उससे समस्त मानव जाति लाभान्वित होती तथा उसके समक्ष आशा का एक नया आयाम खुल जाता है ।
वेंकटरामन ने वचपन से ही अपनी अन्त: स्फुर्णा से अनुभव किया कि अरुणाचल कुछ महान, रहस्यमय एवं पहुँच से बाहर है | उनकी आयु के सोलहवें वर्ष में एक वृद्ध रिश्तेदार उनके घर मदुरै पहुँचे| लड़के ने उनसे पूछा कि वे कहाँ से आये हैं । ‘अरुणाचल से’, रिश्तेदार का उत्तर था| अरुणाचल के नाम मात्र से वेंकटरामन रोमांचित हो गये तथा अपनी उत्तेजना में उन्होंने कहा “क्या? अरुणाचल से! यह कहाँ हैं?” उनको उत्तर मिला कि तिरुवण्णामलै ही अरुणाचल है | उस घटना को संबोधित करते हुए बाद में ऋषि अपनी रचना अरुणाचल स्तुति में कहते है ।
‘ओ महान आश्चर्य! एक अचल पर्वत के रुप में यह खड़ा है किन्तु इसके क्रियाकलाप को समझना हर किसी के लिए कठिन है| बचपन से ही मेरी स्मृति में था की अरुणाचल कोई बहुत महान सत्ता है किन्तु जब मैने किसी से जाना कि यह तिरुवण्णामलै मे है तो इसका अर्थ नहीं समझ सका । मेरे मन को स्थिर कर जब इसने मुझे अपनी ओर आकार्षित किया और मैं निकट आया तो पाया कि यह अचल था’|
वेंकटरामन के ध्यान को अरुणाचल पर आकर्षित करने की इस घटना के शीघ्र वाद एक दूसरी घटना घटी जिसने उनकी आध्यात्मिक उत्कंठा को तीव्र किया| उन्हें पेरिय पुराण की तमिल पुस्तक देखने को मिली जो प्रसिद्ध ६३ शैव संतों के जीवन का वर्णन करती है| पुस्तक पढ़‌ते ही वह रोमांचित हो उठे | धार्मिक साहित्य की यह प्रथम पुस्तक थी जो उन्होंने पढ़ी | संतो के उदाहरण ने उन्हें रोमांचित किया तथा उनके हृदय को स्पर्श किया | संतों के भगवान के प्रति प्रेम एवं वैराग्ययुक्त जीवन अपनाने की इच्छा उनके भीतर प्रबल हुई:
उन्होंने साधारण जनों को रास्ता बताया कि मानव को उसके दैनिक कार्यों को करते हुए किस प्रकार उस परम तत्त्व की वंदना करनी है, कैसे आत्मा की शुद्धि करके जन्म-मरण के चक्करों से पार पाना है। यदि हम अपने दायित्वों का निर्वाह ही नहीं कर सकते तो हमें इस पृथ्वी पर मानव बनकर रहने का क्या अधिकार है! इस जगत् में ज्ञान की वास्तविक परिभाषा, जीवन की गहराइयाँ महर्षि रमण जैसे ज्ञानी पुरुषों ने ही हमें समझाई है।
ध्यान विधि
उसके बाद यदि कोई उनसे कुछ कहता-झगड़ता, तो वह जवाब नहीं देते। जो कुछ भी खाने को मिलता, खा लेते। धीरे-धीरे स्कूल में भी उनकी दिलचस्पी समाप्त हो गई। खेल-कुद से तो मन हट ही गया। एक संन्यासी सा जीवन बन गया | फिर एक दिन चरम स्थिति भी आ पहुंची। स्कूल में काम नहीं किया था - इसलिए अंग्रेजी व्याकरण के एक अभ्यास को तीन बार नकल करने की सजा मिली। दो बार तो उन्होंने नकल कर ली, पर उसके बाद न जाने मन में क्या उमंग उठी कि सभी किताबें एक ओर फेंक दीं और समाधि लगाकर ध्यान करने बैठ गए। फिर, कुछ देर बाद, उन्होंने स्कूल जाने का बहाना किया, कहा कि वहां स्पेशल क्लास लगेगी। चलने लगे, तो बड़े भाई ने पांच रुपये दिए, कालेज में अपनी फीस जमा करवाने को।
रमण ने सोचा कि अरुणाचलम् पहुंचने में तीन रुपये लगेंगे। सो, उन्होंने तीन रुपये तो अपने पास रखे और एक चिट लिख दी – “मैं अपने परम पिता की तलाश में, उसी की आज्ञा से, जा रहा हूँ। यह एक महान कार्य है - इसके लिए दुख करने और खोज में रुपया खर्च करने की आवश्यकता नहीं। तुम्हारी कालेज की फीस जमा नहीं करवा रहा। दो रुपये इसके साथ नत्थी हैं।“ इसके बाद वह घर से निकले, स्टेशन पर आए, टिकट लिया और गाड़ी में बैठ गए। राह में दो दिन भटके भी, परंतु आखिर में अपने आराध्य भगवान शिव के स्थान अरुणाचलम् पहुंच ही गए। जब वह अपने घर से चले थे, तो कानों में सोने की बालियां थी। राह में भटक जाने पर उन्होंने वे बालियां एक गृहस्थ को चार रुपये में दे दी। अरुणाचलम् पहुंचने पर एक आदमी ने उनसे पूछा - "चुटिया मुंड़वाओगे?"
उन्होंने कहा-"हां।"
फलतः वह उन्हें एक जगह ले गया, जहां अनेक नाई बैठे यही काम कर रहे थे। चोटी मुड़वाकर उन्होंने अपनी जनेऊ भी अपने आप उतार दी। धोती फाड़कर फेंक दी और उसमें से कोपीन या लंगोटी के लायक कपड़ा रख लिया। बाल कटवाने के बाद हिंदू रीति के अनुसार स्नान करना चाहिए, पर रमण तो शरीर की सेवा के पक्ष में थे ही नहीं, सो मंदिर की ओर चल पड़े। परंतु मंदिर के द्वार में घुसने से पहले ही जोरों की बूंदें पड़ी और उनका स्नान हो गया।
इस प्रकार, दुनिया से मुंह मोड़कर, और सारी इच्छाओं को त्यागकर, महर्षि रमण भगवान शिव के चरणों में साधनालीन हो गए। मंदिर के बड़े दालान में एक ओर उन्होंने आसन जमा दिया। कई सप्ताह तक वह बिना हिले-डुले, बोले-चाले, वहीं बैठे रहे। संसार से उनका नाता टूट चुका था। वह आत्मा की खोज में लीन थे। शीघ्र ही, लोग उन्हें “ब्राह्मणस्वामी” कहने लगे और शेषाद्रिस्वामी नाम के एक सज्जन ने, जो कुछ साल से वहां आए हुए थे, उनकी देखभाल का काम अपने जिम्मे ले लिया। लोग रमण महर्षि को “छोटा शेषाद्वि” भी कहने लगे। उनके घर से गायब होने के बाद स्वभावतः ही लोग उनकी खोज में लग गए और एक दिन उनकी माता उनके पास आ पहुंची। पर वह चुप रहे, कुछ नहीं बोले। अंततः एक व्यक्ति के कहने पर उन्होंने लिखा – “नियंता की आज्ञा और प्रारब्ध कर्मों के अनुसार जो कुछ नहीं होगा, वह कभी नहीं होगा इसलिए अच्छा है कि जो होता है, उसे होने दो।“
लगभग तीन वर्ष तक रमण ने कठोर तपस्या की। इन दिनों कोई व्यक्ति जो कुछ मुंह में डाल देता, वही खा लेते, पर दिन में केवल एक बार, और वह भी उतना ही, जिससे शरीर का आधार बना रहे। कुछ दिनों तक तो जिस पानी मिले दूध से मंदिर का फर्श धुलता था, वही उन्हें पिलाया गया। अरुणाचलम् की पहाड़ी के चारों ओर बहुत रूखा-सा वातावरण है। इस चोटी के दक्षिण में, नीचे की ओर, महर्षि रमण का आश्रम है। इस आश्रम की भी एक कथा है| महर्षि रमण की माता ने जब और कोई चारा न देखा, तो वह उन्हीं के पास रहने लगी और उनके भक्तों-शिष्यों की सेवा करने लगी। धीरे-धीरे उन्हें भान होता गया कि रमण अद्भुत शक्ति संपन्न दैवी पुरुष हैं। एक बार तो रमण के रूप में साक्षात भगवान ने उन्हें दर्शन दिए और वह चिल्ला पड़ी -"बेटा, इन सांपों को दूर करो। ये तुम्हें काट खाएंगे।"
जब माता की मृत्यु हुई, तो उनकी समाधि आज के आश्रम के स्थान पर बना दी गई। उन दिनों महर्षि रमण अरुणाचलम् की एक गुफा में रहते थे और माता की समाधि पर प्रतिदिन घूमने जाते थे। एक दिन वहां गए, तो वहीं ठहर गए। उनके शिष्यों को चिंता हुई कि वह कही चले गए। सो, वे उन्हें खोजने लगे। अंत में, उन्होंने उन्हें अपनी माता की समाधि पर बैठे पाया। पूछने पर वह बोले, "भगवान् का यही आदेश है।" फलतः वहां आश्रम बना दिया गया। अब तो आश्रम एक पूरी बस्ती ही बन गया है, पर पहले-पहल महर्षि के रहने के लिए वहां केवल घांस-फूंस की एक झोपड़ी डाली गई थी।
चिंतन
महर्षि रमण की आध्यात्मिक उन्नति की बात शीघ्र ही सारे संसार में फेल गई । विभिन्न देशों के लोग उनके दर्शन के लिए आने लगे | अच्छे प्रतिष्ठित और विचारवान व्यक्ति उनके पास आते और उनके सत्संग का लाभ उठाकर अपना जीवन सफल मानते। उनका कहना था कि सारे प्राणी, सारी आत्माएं, एक हैं। सभी आत्माओं को सुखी बनाने के लिए प्रयत्नशील होना ही ईश-भक्ति है। इसीलिए वह दुखियों, रोगियों, आदि की भरपूर सेवा करते थे कहते हैं कि कुछ ईसाई पादरी एक बार उनकी परीक्षा के लिए आए। वे महर्षि को पाखंडी मानते थे। पर जब उन्होंने उन्हें एक कोढ़ी दंपति की सेवा में लीन देखा, तो उनकी आंखें खुल गई और उन्होंने कहा, "आज हमने साक्षात् यीशू मसीह के दर्शन किए हैं।"
आज हमारे बीच महर्षि रमण तो नहीं हैं, पर उनकी शिक्षाएं उनके उपदेश और उनके सिद्धांत आज भी हमें प्रेरणा दे रहे हैं। वह कहते थे – “भगवान, गुरु और आत्मा एक समान हैं।“
गुरु की परिभाषा वह इस तरह करते थे – “गुरु वह है जो हर समय आत्मा की गहराई में निवास करता है। उसे गलतफहमियों और भेद-भावों से दूर रहना चाहिए। वह स्वतंत्र और बंधनमुक्त होना चाहिए। उसे कभी चिंतित नहीं होना चाहिए।“
वह यह भी कहते थे कि – “जो व्यक्ति अपने को नहीं जानता, वह दूसरे को क्या ज्ञान दे सकता है? वह अद्वैत सिद्धांत को मानने वाले थे। वह अधिक बोलते नहीं थे, परंतु लोगों को उनके दर्शन मात्र से शांति प्राप्त होती थी | बात यह थी कि वह स्वयं ज्ञानपूर्ण थे और सदा दूसरों के कष्ट दूर करने अथवा अपने ऊपर रखने की भावना रखते थे।
महर्षि रमण अपने शरीर की बिल्कुल परवाह नहीं करते थे। इसी वजह से वह असमय में ही बुढ़े हो गए |१९४७ के बाद तो वह बहुत ही कमजोर हो थे। फिर,१९५० में उनकी आंख में एक भयंकर फोड़ा निकला। इस फोड़े का कई बार आपरेशन हुआ, परंतु वह ठीक न हुआ और अंत में उसी की वजह से वह महासमाधि में लीन हो गए।
इस तरह, यद्यपि महर्षि रमण हमारे बीच से चले गए हैं, पर उनका संदेश आज भी हमें बार-बार सावधान करता है – “सभी प्राणी एक हैं। सबके कल्याण में ही तुम्हारा कल्याण है ।
सभी जीव सदैव आनन्द (ख़ुशी) की इच्छा रखते हैं, ऐसा आनन्द जिसमें दु:ख का कोई स्थान न हो,।
"जबकि हर व्यक्ति अपने आप से सब से अधिक प्रेम करता है. इस प्रेम का केवल एक कारण आनन्द है, इसलिए आनन्द अपने स्वयं के भीतर हमेशा होना चहिए.."
2 :: मन क्या हैं? मन अंतरआत्मा की एक आश्चर्यजनक शक्ति है. जो शरीर के भीतर मैं के रुप “में” उदित होता है,
" वह मन है. जब सूक्ष्म मन, मस्तिष्क एवं इन्द्रियों के द्वारा बहिर्मुखी होता है, तो स्थूल नाम, रुप की पहचान होती है"
3 :: जब वह हृदय में रहता है तो नाम, रुप विलुप्त हो जाते है. यदि मन हृदय में रहता है तो "मै" या अहंकार जो समस्त विचारों का स्रोत है, चला जाता हैं और केवल आत्मा या वास्तविक शाश्वत "मैं" प्रकाशित होगा. जहाँ अहंकार लेशमात्र नहीं होता, वहाँ आत्मा है।
4 :: केवल शांति अस्तित्वमान है. हमें केवल शांत रहन है. शांति ही हमारी वास्तविक प्रकृति है. हम इसे नष्ट करते हैं. इसे नष्ट करने की आदत को बंद करने की जरुरत है।
5 :: जब तक इंसान अज्ञानी रहता है, तभी तक पुनर्जन्म का अस्तित्व बना रहता है. वास्तव में पुनर्जन्म है ही नहीं ना वह पहले था, न अभी है, न आगे होगा. यही एक सत्य है।
6 :: मृत्यु शरीर को मार सकती है, "अहं-मैं-आत्मा" अनिश्वर है, अमर है, मृत्यु की हर एक सीमा से बाहर है।
7 :: मन दो नहीं हैं अच्छा और बुरा. वासना के अनुरूप अच्छे और बुरे मन का स्वरूप हमारे सामने आ जाता है।
8 :: सबसे उत्कृष्ट दान ज्ञान-दान है।
9 :: परमात्मा और आत्मा एक ही वस्तु तत्व के दो नाम हैं।
10 :: अहंकार मूल पाप है. लोभ, क्रोध व मोह ऐसी की छायाएं हैं।
11 :: हृदय गुहा के मध्य में केवल ब्रह्म आत्मा के रूप में अहम् -अहम् की स्फुरणा के साथ चमकता है. श्वाँस-नियमन या एकाग्रचित्त आत्म-विचार द्वारा अपने भीतर गोता लगाकर हृदय में पहुँचो. इस प्रकार से आप आत्मा में स्थिर हो जायेंगे।
12 :: अपने आपको जानो आत्मज्ञान परमोच्च ज्ञान है, सत्य का ज्ञान है।
13 :: दुःख का कारण बाहर नहीं है. यह तो अपने भीतर है. दुःख की उत्पत्ति अहंकार से होती है।
14 :: मौन की भाषा शांतिमयी वाणी में जो सक्रियता और शक्ति है, वह भाषण प्रवचन कदापि नहीं है।
15 :: व्यक्ति समाज से तिरस्कृत होने पर दार्शनिक, शासन से प्रताड़ित होने पर विद्रोही, परिवार से उपेक्षित होने पर महात्मा और नारी से अनादृत होने पर देवता बनता है।
16 :: स्वप्न एवं जाग्रत अवस्था में कोई अन्तर नहीं है, सिवाय इसके कि स्वप्न छोटा तथा जाग्रत अवस्था लम्बी होती है. दोनो ही मन के परिणाम है. वास्तविक अवस्था जिसे तुरिया (चतुर्थ) कहा जाता है, जाग्रत, स्वप्न एवं नींद के पार है।
17 :: इस बात का विचार मत करो कि तुम मरने के बाद क्या होंगे, समझना तो यह है कि तुम इस समय क्या हो।
18 :: ईश्वर को जानने के पहले अपने आपको जानना चाहिए आत्मा से भिन्न ईश्वर की स्थिति नहीं है. संसार आत्मा को न जानने के कारण ही दुखी हैं।
19 :: तुम भविष्य की क्यों चिंता करते हो. तुम तो अपना वर्तमान ही नहीं जानते हो, वर्तमान को संभालो, भविष्य स्वयं अपने आप ठीक हो जाएगा।
20 :: विधाता प्राणियों के भाग्य का उनके कर्म के अनुसार निपटारा करते हैं. जो नहीं होना है, वह नहीं होगा।
21 :: सर्वोत्तम और परम शक्तिमयी भाषा मौन है, मौन शांति का भूषण है. उपदेश तो नितान्त मौन रहकर दिया जा सकता है।
“ हालांकि दुष्ट-बुद्धि (या मक्कार) लोगों से भी तुम्हारा सामना हो सकता है, किन्तु उनसे नफरत या घृणा करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। पसंद और नापसंद, प्यार और नफरत भी समान रूप से त्याज्य हैं। मन के लिये यह उचित नहीं है, कि उसको हमेशा भौतिक पदार्थों या सांसारिक विषयों के चिन्तन में लगाये रखा जाये। जहां तक ​​संभव हो, दूसरों के मामलों में हमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।"
“ यह प्रतीयमान जगत,विचार के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है। जब मन सभी प्रकार के विचारों से मुक्त हो जाता है, उस समय व्यक्ति की दृष्टि से यह जगत-प्रपंच भी ओझल हो जाता है, और मन - निजानन्द या स्वयं के आनंद का भोग करता है। इसके विपरीत, जब जगत दिखाई देता है, अर्थात जब विचार प्रकट होने लगते हैं, उस समय मन दर्द और पीड़ा का अनुभव करता है। “
“ जिस प्रकार मकड़ी अपने ही भीतर से जाला के धागे को बाहर निकालती है, और फिर अपने भीतर खींच लेती है, ठीक उसी तरह से मन अपने भीतर के जगत को बाहर प्रक्षिप्त करता है, और स्वयं ही उसको अपने भीतर समाहित कर लेता है।”
“ किसी मनुष्य को अपने उन व्यक्तिगत स्वार्थों (कामिनी-कांचन में आसक्ति ) को त्याग देना चाहिये जो उसे इस नश्वर जगत से बाँध देता है। मिथ्या अहंकार (मैं -पन ) को त्याग देना ही सच्चा त्याग है। “
“ प्रत्येक मनुष्य स्वभावतः दिव्य और ओजस्वी है। जो कुछ दुर्बल और अशुभ दिख रहे हैं, वे उसकी आदतें, वासनायें और विचार हैं, किन्तु वह स्वयं वैसा नहीं है।”
“ वे जो अपना जन्मदिन मनाना चाहते हों,-सुने ! तुम पहले यह खोजो कि तुम्हारा जन्म कब हुआ था ? किसी व्यक्ति का वास्तविक जन्मदिन वह है, जिस दिन (१४-४-१९९२) वह अपने को एक अजन्मा, अविनाशी, अमृत-सन्तान के रूप में पहचान लेता है !
" किसी व्यक्ति को कम से कम, अपने जन्मदिन के अवसर पर, इस संसार (जन्म-मृत्यु के चक्र) में प्रविष्ट होने की मूर्खता के लिये अफ़सोस प्रकट करना चाहिये। क्योंकि शरीर-यौवन पर गौरवान्वित होना और जश्न मनाना तो किसी लाश को अलंकृत करने, या शव का श्रृंगार करने जैसा है। अपनी आत्मा की खोज करना, और स्वयं में विलीन हो जाना -- इसीको ज्ञान या अपने सत्य-स्वरुप की पहचान कहते हैं।”
“ एकाकी आत्मा या ‘स्व’ ही जगत् है, 'मैं' और भगवान (ब्रह्म) है! यह सारी कायनात, या जिस वस्तु का भी अस्तित्व है, वह सब किन्तु, उसी ब्रह्म (Supreme-परम) की अभिव्यक्ति है ! "“The Self alone is the world, the ‘I’ and God. All that exists is but the manifestation of the Supreme.”
“ (3H-) वह चेतना…. जो इस भौतिक शरीर में ‘मैं' के रूप में पैदा होती है, ‘मन’ (mind या Head) है। यदि कोई व्यक्ति यह पता लगाने की चेष्टा करे, कि शरीर (body या Hand) के किस स्थान से ‘मैं’-पन का विचार उठता है--तो उसे पहला दृष्टान्त यही मिलेगा कि वह विचार सर्वप्रथम ‘हृदयम्’ या ‘Heart’ से उतपन्न होता है।” 3H - That which arises in the physical body as ’I′ is the mind..(Head) If one enquires whence the ’I′ thought in the body (Hand) arises in the first instance, it will be found that it is from ‘hrdayam’ or the (Heart).”
" जो कुछ भी हम दूसरों को अर्पित करते हैं, वह सब कुछ वास्तव में अपने आप को ही अर्पित करना है; और जिसे केवल इसी सच्चाई का एहसास हो गया हो, वह भला दूसरों को कुछ भी देने से कैसे मना कर सकता है?”
"कर्म-मय जीवन का परित्याग करने की आवश्यकता नही है। यदि आप हर दिन एक या दो घंटे के लिए ध्यान करें तो आप अपने जीवन के कर्तव्यों को आसानी से जारी रख सकते हैं।” “The life of action need not be renounced. If you meditate for an hour or two every day, you can then carry on with your duties.”
“ कोई एक सत्ता अवश्य है, जो इस जगत् को नियंत्रित (governs) करती है, और यह उसकी चौकसी या निगेहबानी है कि वह दुनिया की रखवाली कैसे करती है, या इसे कैसे सँभालती है ? वही सत्ता (माँ जगद्धात्री) इस दुनिया का बोझ उठाती है, न कि तुम उठाते हो ! "
" मन के सात्विक गुणों को विकसित करने का सबसे अनुकूल तरीका, सर्वोत्कृष्ट आचार-नीति है - आहार का नियमन; अर्थात केवल सात्विक आहार- ग्रहण करना, वह भी परिमित मात्रा में।“
“ प्रश्न : मैं जगत् की सहायता करना चाहता हूँ, क्या मैं संसार का मददगार या उपकारी नहीं बन सकता? उत्तर : हाँ ! स्वयं की सहायता करके, आप जगत् की सहायता करते हैं। आपकी स्थिति जगत में इस प्रकार है ---कि आप ही जगत हैं। आप जगत से भिन्न नहीं हैं, और न यह जगत ही आपसे अलग है। “
“ जब आप लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं, अर्थात आप ज्ञाता को भी जान लेते हैं, उसके बाद यदि आप लंदन में एक घर में रहते हैं, या आप किसी जंगल के एकांत में रहते हैं, --दोनों के बीच आपको कोई अंतर महसूस नहीं होता। " “When the goal is reached, when you know the knower, there is no difference between living in a house in London and living in the solitude of a jungle.”
“ मानव-जाति का मार्ग-दर्शक नेता, वह है जिसने पूरी तरह से केवल भगवान पर ध्यान किया, और अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ब्रह्म-समुद्र में डूबो दिया, तथा उसे तब तक भुलाये रखा है जब तक वह केवल भगवान का एक यंत्र नहीं बन जाता। और अब जब उसका मुंह खुलता है, तो वह बिना अग्रचिंता किये ही भगवान के शब्द बोलता है, और जब वह अपना हाथ उठाता है, तब पुनः भगवान की कृपा ही कोई चमत्कार करने के लिए, उस के माध्यम से बहती है। "
"महर्षि रमण की एक और विशेषता यह है, कि वे जब खाने के लिए बैठते हैं, तो अपना भोजन ग्रहण करने के पूर्व वे दूसरों के बारे में पूछते हैं, और यह देखते हैं, कि वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति की सेवा निष्पक्ष होकर की जा रही है, या नहीं ? यदि कोई चावल नहीं लेता हो, तो उसके लिये फल या जो कुछ भी वह पसन्द करता हो, उसे परोसने की व्यवस्था रहती है।”
" आत्मा में एक अद्वितीय शक्ति है - मन, जिसके द्वारा किसी व्यक्ति में विचार प्रकट होते हैं। यदि इस बात का सूक्ष्म परिक्षण किया जाय, कि सभी विचारों के समाप्त हो जाने के बाद क्या बच जाता है ? तो यही पाया जायेगा कि विचार से अलग मन नामक कोई वस्तु है ही नहीं। तोफिर, इससे यही सिद्ध होता है कि विचार खुद ही के मन का निर्माण करता है।"
" मन के स्वभाव के बारे में एक नियमित और निरन्तर अन्वेषण करने से, मन उस वस्तु में रूपान्तरित हो जाता है, जिसे हमलोग ‘मैं’ कहकर उद्धृत करते है, और जो वास्तव में आत्मा ही है।”
" हमारा मन में असंख्य विषय-वासनायें ( इन्द्रिय-भोगों की परितुष्टि देने वाली वस्तुओं के संबंध में मन की सूक्ष्म प्रवृत्तियों), सागर की लहरों की तरह एक के बाद एक करके उठती-गिरती रहती हैं, जिसके कारण मन हमेशा चंचल बना रहता है। तथापि अपने आत्मस्वरूप पर ध्यान करने से या आत्मा पर ध्यान करने से, वे विचार कम होते जाते हैं, और प्रगतिशील अभ्यास के साथ अंत में बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं. "
२०-३-२०२३
***
नवगीत
चिरैया!
*
चिरैया!
आ, चहचहा
*
द्वार सूना
टेरता है।
राह तोता
हेरता है।
बाज कपटी
ताक नभ से-
डाल फंदा
घेरता है।
सँभलकर चल
लगा पाए,
ना जमाना
कहकहा।
चिरैया!
आ, चहचहा
*
चिरैया
माँ की निशानी
चिरैया
माँ की कहानी
कह रही
बदले समय में
चिरैया
कर निगहबानी
मनो रमा है
मन हमेशा
याद सिरहाने
तहा
चिरैया!
आ चहचहा
*
तौल री पर
हारना मत।
हौसलों को
मारना मत।
मत ठिठकना,
मत बहकना-
ख्वाब अपने
गाड़ना मत।
ज्योत्सना
सँग महमहा
चिरैया!
आ, चहचहा
***
शारद! अमृत रस बरसा दे।
हैं स्वतंत्र अनुभूति करा दे।।
*
मैं-तू में बँट हम करें, तू तू मैं मैं रोज।
सद्भावों की लाश पर, फूट गिद्ध का भोज।।
है पर-तंत्र स्व-तंत्र बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
अमर शहीदों को भूले हम, कर आपस में जंग।
बिस्मिल-भगत-दत्त आहत हैं, दुर्गा भाभी दंग।।
हैं आजाद प्रतीति करा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
प्रजातंत्र में प्रजा पर, हावी होकर तंत्र।
छीन रहा अधिकार नित, भुला फर्ज का मंत्र।।
दीन-हीन को सुखी बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
ज॔गल-पर्वत-सरोवर, पल पल करते नष्ट।
कहते हुआ विकास है, जन प्रतिनिधि हो भ्रष्ट।।
जन गण मन को इष्ट बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
शोक लोक का बढ़ रहा, लोकतंत्र है मूक।
सारमेय दलतंत्र के, रहे लोक पर भूँक।।
दलदल दल का मातु मिटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
'गण' पर 'गन' का निशाना, साधे सत्ता हाय।
जन भाषा है उपेक्षित, पर-भाषा मन भाय।।
मैया! हिंदी हृदय बसा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जन की रोटी छिन रही, तन से घटते वस्त्र।
मन आहत है राम का, सीता है संत्रस्त।।
अस्त नवाशा सूर्य उगा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
रोजी-रोटी छीनकर, कोठी तानें सेठ।
अफसर-नेता घूस लें, नित न भर रहा पेट।।
माँ! मँहगाई-टैक्स घटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जिए आखिरी आदमी, श्रम का पाए दाम।
ऊषा गाए प्रभाती, संध्या लगे ललाम।।
रात दिखाकर स्वप्न सुला दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
२०-३-२०२१

***
साथ मोदी के
*
कर्ता करता है सही, मानव जाने सत्य
कोरोना का काय को रोना कर निज कृत्य

कोरो ना मोशाय जी, गुपचुप अपना काम
जो डरता मरता वही, काम छोड़ नाकाम

भीत न किंचित् हों रहें, घर के अंदर शांत
मदद करें सरकार की, तनिक नहीं हों भ्रांत

बिना जरूरत क्रय करें, नहीं अधिक सामान
पढ़ें न भेजें सँदेशे, निराधार नादान

सोमवार को किया था, हम सबने उपवास
शास्त्री जी को मिली थी, उससे ताकत खास

जनता कर्फ्यू लगेगा, शत प्रतिशत इस बार
कोरोना को पराजित, कर देगा यह वार

नमन चिकित्सा जगत को, करें झुकाकर शीश
जान हथेली पर लिए, बचा रहे बन ईश

देश पूरा साथ मिलकर, लड़ रहा है जंग
साथ मोदी के खड़ा है, देश जय बजरंग
१९-३-२०२०
***

बाल कविता:
जल्दी आना ...
*
मैं घर में सब बाहर जाते,
लेकिन जल्दी आना…
*
भैया! शाला में पढ़-लिखना
करना नहीं बहाना.
सीखो नई कहानी जब भी
आकर मुझे सुनाना.
*
दीदी! दे दे पेन-पेन्सिल,
कॉपी वचन निभाना.
सिखला नच्चू , सीखूँगी मैं-
तुझ जैसा है ठाना.
*
पापा! अपनी बाँहों में ले,
झूला तनिक झुलाना.
चुम्मी लूँगी खुश हो, हँसकर-
कंधे बिठा घुमाना.
*
माँ! तेरी गोदी आये बिन,
मुझे न पीना-खाना.
कैयां में ले गा दे लोरी-
निन्नी आज कराना.
*
दादी-दादा हम-तुम साथी,
खेल करेंगे नाना.
नटखट हूँ मैं, देख शरारत-
मंद-मंद मुस्काना.
२०-३-२०१३
***

अस्तिबोध और संक्रांतिकाल,पुरोवाक,सुनीता सिंह

पुरोवाक् 

                                                         'अस्तिबोध और संक्रांतिकाल" 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

                                                                                *

                                   वर्तमान संक्रांति काल मनुष्य और मनुष्यता दोनों के सम्मुख नित नई चुनौतियाँ उपस्थित कर रहा है। ये चुनौतियाँ दैहिक-दैविक और भौतिक ही नहीं आध्यात्मिक-आत्मिक-तात्विक और नैष्ठिक भी हैं। पञ्च तत्व की देह सप्त स्वरों के संसर्ग से सतरंगे संसार को इतना रमणीय बना लेती है कि स्वयं परमेश्वर को भी अवतार लेकर सर से सराबोर होने में सार्थकता प्रतीत होती है और वह बार-बार धराधाम पर आकर अपने अस्तित्व का बोध अर्थात अस्तिबोध करने के लिए आत्मप्रेरित होता है।  

                                   एक दृष्टि से काल का हर चरण संक्रांति काल होता है क्योंकि वह अतीत की पूर्वपीठिका पर भविष्य के भवन का निर्माण करता है। वर्तमान संक्रांति काल 'न भूतो न भविष्यति' अर्थात अभूतपूर्व इसलिए है कि यह समस्त पूर्व कालों की तिलाना में अधिक जटिल, अधिक मलिन, अधिक त्वरित मानवीत वृत्तियों से ग्रस्त है। पूर्व में दनुजों, दानवों, असुरों, निशाचरों आदि ने सत-शिव-सुंदर को मिटाने के प्रयास किए किंतु दैवीय और मानवीय शक्तियों ने का सम्मिलन शुभ के विनाश हेतु संकल्पित अशुभ को मिटाने हेतु समर्थ हो सका। जलंधर, भस्मासुर, त्रिपुरासुर आदि को परात्पर शिव इसलिए नष्ट कर सके कि वे लोक और सती की अगाध निष्ठा के केंद्र तथा आत्मलीन थे। जलंधर, भस्मासुर, त्रिपुरासुर आदि को परात्पर शिव इसलिए नष्ट कर सके कि वे लोक और सती की अगाध निष्ठा के केंद्र तथा आत्मलीन थे। कनककशिपु के अहंकार के सम्मुख प्रह्लाद की विनयशीलता पराजित नहीं हुई तो केवल इसलिए कि उसकी निष्ठा ध्रुव के संकल्प के तरह अविचलित रही और भक्त के बस में रहनेवाले भगवान को स्तंभ से प्रगट होना पड़ा। शुंभ-निशुंभ के पराक्रमियों सेनापतियों और उनके अपार बल-विक्रम को आदि शक्ति धुलधूल में इसलिए मिटा सकीं कि सकल देवताओं में अपरिमित ऐक्य भाव और देवी के प्रति अटूट निष्ठा थी।   
  
                                   वर्तमान संक्रमण काल विशिष्ट इसलिए है कि शुभत्व उपासक मानव मानवीयता से विमुख होकर दानवीयता की ओर  उन्मुख होता जा रहा है। 'स्व' में लीन होकर सर्व का शुभ करने की नीति को विस्मृत कर वह लोक मांगल्य के आदि देवता शिव और उनकी आदिशक्ति शिवा के शिवत्व से दूर हो गया है। 'कंकर से शंकर' गढ़ सकने की सर्व व्यापकता से सर्वथा दूर होकर संकुचन और विलोपन की कगार पर पहुँचकर असुर विनाशी, विष्णु विनाशक विष्णु की भक्तवत्सलता और शरणागतवत्सलता की रीति को हृदयंगम न कर विष्णुत्व के लिए अस्पर्श्य हो गया है। अमृतत्व की रक्षा करने में असमर्थ होकर मनु-पुत्र सारस्वत साधना में अंतर्निहित अमलता, विमलता और धवलता की त्रिवेणी ही नहीं, शुचिता-साधना और निस्वार्थता की नेह-नर्मदा को प्रदूषित और नष्ट कर प्रजापिता ब्रह्मा के ब्रह्मत्व से हीं हो गया है। फलत:, जन-जीवन के हर अंश और सकल में नकारात्मक ऊर्जाओं (शक्तियों) का प्रभाव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। 

                                   स्वातंत्र्योत्तर काल में धीरे-धीरे 'मानवीय प्रवृत्तियों और आचरण को प्रेरित और नियंत्रित करनेवाले सर्वजन हिताय ,सर्वजन सुखाय' रचे जाने वाले साहित्य की विधाओं से भी ''सत-शिव-सुंदर'' घटते-घटते लगभग ओझल हो गया है। पारंपरिक रचना विधाओं में हास्य-लास्य, लालित्य-चारुत्व, बोध-संदेश, सकारात्मक दृष्टिकोण को केंद्र में रखकर रचना कर्म किया गया किन्तु इस काल में नवगीत, लघुकथा और व्यंग्य लेख आदि विधाएँ केवल और केवल विसंगतियों, विडंबनाओं और टकरावों को उभाड़कर द्वेष भाव का प्रसार कर रही हैं। फलत:, आत्मानुशासन, बंधुत्व, संयम, सद्भाव, सहकार, सदाचार, आस्था, विश्वास, निष्ठा आदि के लोप होने का खतरा मुँह बाए खड़ा है। विडंबना यह है कि नकारात्मक ऊर्जा प्रधान सृजन ने किशोर युवा ही नहीं बाल मानस तक को प्रदूषित कर दिया है। परिणाम स्वरूप समाज में समाज के सभी वर्गों में हो रहे अपराधों की संख्या और विकरालता में कल्पनातीत वृद्धि हुई है। मनुष्य अपने घर में, अपने निकट संबंधियों में भी खुद को सुरक्षित नहीं पा रहा है। 'विवाह' और 'परिवार' जैसी कालजयी समाजि कसंस्थाएँ खतरे में हैं। मनुष्य- जीवन में लोभ, वासना और असंतोष ने मनुष्य से सुख-चैन छीन लिया है। ऐसे समय में सकारात्मक मूल्यपरक चिंतन अपरिहार्य हो गया है। 

                                  समय की माँग पर युवा साहित्यकार (उच्च प्रशासनिक अधिकारी भी) श्री सुनीता सिंह ने नकारात्मकता के घटाटोप तिमिर को चीरकर उषा की उजास बिखेरने का संकल्प कर ''अस्तिबोध : भक्तिकाव्य की क्रांतिधर्मिता'' ' शीर्षक कृति की रचना की है। इस अपरिहार्य और मांगलिक कार्य के लिए सुनीता जी साधुवाद की पात्र हैं। तीन भागों (अस्तिबोध : अर्थ और आयाम, भक्ति काव्य में अस्ति  बोध तथा आधुनिक साहित्य में अस्तिबोध) में विभक्त यह कृति त्रिकालिक (विगत, वर्तमान और भावी) साहित्य के मध्य सकारात्मक चिन्तन का सेतु स्थापित करता है। तीन का मनुष्य जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। त्रिदेव (विधि-हरि-हर), त्रिकाल (कल-आज-कल), त्रिऋण (देव-पितृ-ऋषि), त्रिअग्नि (पापाग्नि-जठराग्नि-कालाग्नि), त्रिदोष (वात-पित्त-कफ), त्रिलोक (स्वर्ग-धरती-पाताल), त्रिवेणी (गंगा-यमुना-सरस्वती), त्रिताप (दैहिक-दैविक-भौतिक), त्रिऋतु (पावस-शीत-ग्रीष्म), त्रिराम (परशुराम-श्रीराम-बलराम) तथा त्रिमातुल (कंस-शकुनि-माहुल) ही नहीं त्रिपुर, त्रिनेत्र, त्रिशूल, त्रिदल, तीज, तिराहा और त्रिभुज भी तीन का महत्व प्रतिपादित करते हैं।  

                                कृति में चौदह अध्याय हैं। इनमें अस्तिबोध की अवधारण, महत्त्व, प्रकृति, विज्ञान, अस्तबोध के साथ संबंध, काव्य में स्थान, भक्ति काल में स्थान, सगुण-निर्गुण भक्ति धरा में स्थान, सामाजिकता, प्रासंगिकता, समाधान, रचनाकार तथा क्रांतिधर्मिता जैसे आवश्यक बिंदुओं की सम्यक विवेचना की गई है। चौदह इंद्र, चौदह मनु, चौदह विद्या और चौदह रत्नों की तरह ये चौदह अध्याय पाठक के ज्ञान चक्षुओं को खोलकर उसे नव चिंतन हेतु प्रवृत्त करते हैं। 

                                अस्ति-बोध अस्तित्व के लिए अपरिहार्य है। 'अस्ति' का बोध तभी हो सकता है जब 'नास्ति' का बोध हो। 'अस्ति' की अनुभूति ही 'आस्तिकता' की प्रतीति कराती है। जिसे 'अस्ति' का अहसास हो जाता है उसकी हस्ती आम से खास हो जाती है। अस्ति का बोध न हो तो सुर ही असुर हो जाता है, असुर का सुर में रूपांतरण हो सकता है। 'अस्ति बोध' के अभाव में  'उदय' ही 'अस्त' की पटकथा लिख देता है। धर्म और कर्म दोनों का पालन करने में अस्ति-बोध सहायक होता है। राग-विराग, योग-भोग आदि में समन्वय और संतुलन अस्तिबोध से ही संभव है। अस्तिबोध का अभाव 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्' के दर पर खड़ा कर देता है। ग़ालिब के अनुसार 'क़र्ज़ की पीते मय अउ' ये समझते की हाँ / रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन'। फाकामस्ती रंग न लेकर बदरंग कर देती है। अस्ति-बोध के आभाव में ज़फ़र लिखता है 'लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में'। अस्तिबोध होने पर शिव हों या मीरा उनके लिए  गरल भी अमृत बन जाता है।  

                                अस्ति ही 'भक्ति' और 'अनुरक्ति' बनकर आस को विश्वास में रूपांतरित कर देती है, विश्वास ही नीरसता को सरसता में बदल देता है। रस-लीन होकर रस-निधि को पाकर  रस-खान हुआ जा सकता है। अस्ति 'स्व' को 'सर्व' में रूपांतरित कर कंकर में शंकर की प्रतीति कर-करा सकती है। 'अस्ति' ही अहं के वहम से मुक्त  कर भक्ति की और उन्मुख कर देती है। 'भगत के बस में हैं भगवान्' की प्रतीति अस्ति बिना संभव नहीं हो सकती। अस्ति रैदास, कबीर आदि को उच्च वर्णीय जनों का गुरु बना देती है। अस्ति की राह में सगुण-निर्गुण, द्वैत-अद्वैत, ऊँच-नीच आदि भेद-भाव स्वत्: ही शून्य हो जाते हैं। 

                                नर के नारायण में रूपांतरण ही नहीं, अस्ति बोध नारायण के नर में अवतरण को भी संभव कर देता है। जड़-चेतन की हर समस्या का समाधान अस्तिबोध से संभव है। अस्ति ही प्रकृति को विकृति होने से बचाकर सुकृति बनने की ओर प्रेरित करती है।  

'अस्ति' राह पर चलते रहिए
तभी रहे अस्तित्व आपका
नहीं 'नास्ति' पथ पर पग रखिए
यह भटकाव कुपंथ शाप का
है विराग शिव समाधिस्थ सम
राग सती हो भस्म यज्ञ में
पहलू सिक्के के उजास तम
पाया-खोया विज्ञ-अज्ञ ने
अस्त उदित हो, उदित अस्त हो
कर्म-अकर्म-विकर्म सनातन
त्रस्त मत करे, नहीं पस्त हो
भिन्न-अभिन्न मरुस्थल-मधुवन

                                अस्ति ही पंच तत्वों की काया को, मोह-माया की छाया से मुक्त कर, माटी को माटी से जुड़े रहने की राह दिखाती है। जड़ से जुड़े बिना जीव संजीव नहीं हो सकता। अस्ति की प्रतीति नीति बनकर रीति का आधार और प्रीति का श्रृंगार हो जाती है। प्रकाश स्तंभ जिस तरह अन्धकार से पथिक को ठोकर खाने से बचाता है, उसे तरह 'अस्तिबोध' जीव के जीवन को सोद्देश्यता प्रदान कर निरर्थक होने से बचाता है। सूर्य, चंद्र हो या जुगनू अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार तम हरकर उजास देने का कार्य यथाशक्ति करते हैं।अस्तिबोध हो तो वे या उनको उच्च-हीन नहीं  कहा जा सकता। अस्तिबोध न तो शोषण करता है, न शोषण होने देता है। इसीलिए अस्तिबोध को आरक्षण भी नहीं चाहिए। अस्तिबोध से कंकर भी शंकर हो है और अस्तिबोध  शंकर को कंकर होने में देर नहीं लगाती। अस्ति का नाद अनहद होकर हर हद को तोड़कर दिग्दिगंत तक है। 

स्वस्ति होना अस्ति का परिणाम।
नास्ति हो तो मत करें स्वीकार।
स्वस्ति नहिं हो तो विधाता वाम।।
नास्ति सत् से भी करे इंकार।।
अस्ति से आस्तिक बने संसार।
दे सके, पा भी सके मन प्यार। 
नास्तिक हो तो न बेड़ा पार।।
ऊर्जा हो व्यर्थ सत्य नकार।।
अस्ति खुश अस्तित्व की जय बोल।
नास्ति नाखुश बाल अपने नोच।
स्वस्ति नीरस में सके रस घोल।।
स्वस्ति सबका शुभ सके सच सोच।।
स्वार्थ का सर्वार्थ में बदलाव।
तभी जब हो स्वस्ति सबका चाव।।
                                ऐसा कोई समय न था, न है और न होगा जब 'अस्ति-दूत' न हों और जब 'अस्ति-शत्रु' न हों। इन दोनों का साथ आत्मा और देह की तरह अविच्छिन्न था, है रहेगा। किसी को पहचानना हो तो मन-प्रतिष्ठा, धन-दौलत, दान-दक्षिणा आदि से नहीं उसको हुआ अस्ति-बोध के आधार पर पहचानिए और उसका मूल्याङ्कन करिए। यह कृति पाठकों को उनका अपना अस्तित्व-बोध करने के पथ पर सहायक होगी। सलिल से अभिषेक करें, पद प्रक्षालन करें अथवा उसका पान करें, लाभ ही होता है किन्तु सलिल धार में अपने कद से अधिक गहराई तक चले जाएँ तो पैर उखड़ने में देर नहीं लगती। इसी तरह अस्ति-बोध को शीश पर, ह्रदय  में,हाथ में अथवा पैरों में हो क्यों न रखें, कलयाण होगा किन्तु उसे अन्य के अस्ति-बोध को नगण्य मानने की भूल न करने दें। 'एस्टी' और 'अस्तित्व' 'अहं' या 'अहंकार' बनने पाए।
                               'अस्तिबोध : भक्ति काव्य की क्रांतिधर्मिता' शीर्षक यह कृति केवल वर्तमान की नहीं अपितु हर देश-काल में मानवीय जिजीविषा और अस्मिता की पहचान और कल्याण के लिए आवश्यक कृति है। वेद, पुराण, उपनिषद आदि तभी रचे जा सकते हैं जब 'अस्तिबोध' हो चुका हो। गीता, बाइबिल, ग्रंथ साहब, सत्यार्थ प्रकाश या कुरआन तभी प्रकाशित हो सकती है जब निमित्त या माध्यम अस्तिबोध संपन्न हो। प्रिय सुनीता जी ने इस सरल-जटिल विषय पर अध्ययन-विमर्श, पठन-पाठन, मनन-चिंतन कर, नीर- परिचय देते हुए, यह कृति प्रस्तुत की है। सुनीता जी के व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य संकेतों और सुझावों को सकारात्मक ऊर्जा के साथ ग्रहण करना, एकाग्रचित्त होकर खोज व अध्ययान करना, स्वतंत्र मौलिक चिंतन-मनन कर, विचारों को व्यवस्थित रूप से सम्यक शब्द चयन कर सहज भाषा में प्रस्तुत कर पाठकीय प्रतिक्रिया को समुचित विनम्रता सहित ग्रहण करना है। सुनीता जी अपनी अध्ययन -क्षमता, कार्य-गरिमा और सृजन-श्रेष्ठता की ऐसी त्रिवेणी है जो निकट आनेवाले को मंदिर से उठती मंत्रोच्चार की ध्वनि की लय की तरह अस्तिमयता की प्रतीति करती हैं।

                               वर्तमान संक्रमण काल में अस्ति परक भावधारा की सर्वाधिक आवश्यकता है। महाभारत पश्चात् मूल्यों के संक्रमण काल में 'आस्तीक' ने अशुभ की भावधारा को अवरुद्ध कर शुभत्व की स्थापना की थी। भारत की मूल नाग संस्कृति के प्रदूषित होने पर उसे श्री राम, श्रीकृष्णादि द्वारा दंडित किया गया। खांडव वन में अर्जुन ने आग्नेयास्त्र का प्रयोग कर नागों को निकला भागने का अवसर दिए बिना उनका सर्वनाश कर दिया। तक्षक उस समय खांडव वन से बाहर गया था, सो बच गया। कृष्णार्जुन से बदला लेने के लिए उसने कुरुक्षेत्र में कर्ण की अमोघ शक्ति घटोत्कच पर चल जाने के बाद, कर्ण से अनुरोध किया कि उसे बाण के फल पर स्थान देकर कर्ण शर चलाए तो वह अर्जुन का नाश कर देगा। कर्ण न माना और कृष्णार्जुन द्वारा मारा गया। बाद में एक वनवासी ने शर प्रहार कर कृष्ण का देहांत किया। कृष्ण के निर्देशानुसार यादव कुल की स्त्रियों को गोकुल ले जाते समय वनवासियों ने आक्रमण कर अर्जुन को बंदी बनाकर यादव कुल की समस्त स्त्रियों को छीन के अपनी पत्नियाँ बना लिया। तक्षक ने पांडवों के वंशज परीक्षित को डँसकर अपना बदला पूरा किया तो परीक्षित-पुत्र जन्मेजय ने सर्प यज्ञ कर नागों का विनाश करना आरंभ कर दिया। 'नास्ति' की नकारात्मकता से सर्वनाश की आशंका हुई तो शंकारि  शंकर के नाती (जरत्कारु-मनसा के पुत्र ) आस्तीक 'अस्ति' की धर्म ध्वजा थामे  उपस्थित हो गए और नास्ति को नकारते हुए 'स्वस्ति' मय वातावरण की सृष्टि की। श्रावण शुक्ल पंचमी को आस्तीक ने नाग यज्ञ से उपजे कलुष की कालिमा को श्वेत गोरस से शांत किया था। इसलिए तब से श्रावण शुक्ल पंचमी को नागपंचमी का पर्व मनाया जाकर विषधर के जहरीलापन का दूध अर्पित कर शमन किया जाता है। 'नास्ति' (निगेटिव एनर्जी) पर 'स्वस्ति' (पॉजिटिव एनर्जी) की विजय का ऐसा पर्व अन्यत्र कहीं, किसी सभ्यता में किसी समय नहीं मनाया गया।                                

सॉनेट
स्वस्ति होना अस्ति का परिणाम।
नास्ति हो तो मत करें स्वीकार।
स्वस्ति नहिं हो तो विधाता वाम।।
नास्ति सत् से भी करे इंकार।।
अस्ति से आस्तिक बने संसार।
दे सके, पा भी सके मन प्यार। 
नास्तिक हो तो न बेड़ा पार।।
ऊर्जा हो व्यर्थ सत्य नकार।।
अस्ति खुश अस्तित्व की जय बोल।
नास्ति नाखुश बाल अपने नोच।
स्वस्ति नीरस में सके रस घोल।।
स्वस्ति सबका शुभ सके सच सोच।।
स्वार्थ का सर्वार्थ में बदलाव।
तभी जब हो स्वस्ति सबका चाव।।
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स्वस्ति होना अस्ति का परिणाम।
नास्ति हो तो मत करें स्वीकार।
स्वस्ति नहिं हो तो विधाता वाम।।
नास्ति सत् से भी करे इंकार।।
अस्ति से आस्तिक बने संसार।
दे सके, पा भी सके मन प्यार। 
नास्तिक हो तो न बेड़ा पार।।
ऊर्जा हो व्यर्थ सत्य नकार।।
अस्ति खुश अस्तित्व की जय बोल।
नास्ति नाखुश बाल अपने नोच।
स्वस्ति नीरस में सके रस घोल।।
स्वस्ति सबका शुभ सके सच सोच।।
स्वार्थ का सर्वार्थ में बदलाव।
तभी जब हो स्वस्ति सबका चाव।।

                               'अस्तिबोध - भक्तिकाव्य की क्रांतिधर्मिता' इस घोर कलिकाल में आस्तीक द्वारा लाई गयी स्वस्ति भावना की पुनरावृत्ति का अनूठा प्रयास है। जीव को संजीव बनाने का यह सात्विक सारस्वत अनुष्ठान और उसकी 'होता' सुनीता जी तो साधुवाद की पात्र हैं ही, वे पाठकगण जो इस 'अस्तियज्ञ' में समिधा अर्पित करेंगे, वे भी 'स्वस्ति' के सारस्वत वाहक बनेंगे। नागों के नाती कायस्थों का वंशज मैं इस 'अस्तियज्ञ' और 'स्वस्ति स्थापन' का पौरोहित्य कर धन्य हूँ। 
***
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com

रविवार, 19 मार्च 2023

सत्य साई बाबा

साई सत्य अवतार हैं, करें भक्त में वास। 
साई करें जिस पर कृपा, पल में हर लें त्रास।।
*
स्वर मधुमय अस्मिता का, भाव भक्ति से पूर्ण। 
स्नेह साई का मिल सके, कष्ट सभी हों चूर्ण।।
*
शारद कर सब पर कृपा, हर ले माँ अज्ञान। 
विघ्न हरें विघ्नेश सब, रहे कृपा का भान।। 
*
माँ मति क्षिप्रा दे हमें, सत पाएँ हम साध। 
सेवा जीवों की सकें, माँ आजीवन साध।।
*
सेवा सच्चा धर्म है, विनयधर्म का मर्म। 
नवाचार पालन करें, प्रभु अर्पित कर कर्म।।
*
खुद ही खुद की जाँच कर, करो निरंतर जाप। 
प्रभु सुमिरन कर ह्रदय से, मिला जाएँ झट आप।.
*
वार्ता करिए ईश से, जाप माध्यम सिद्ध। 
हैं अभिन्न परमेश्वर, रहो अर्गला बिद्ध।।
*
नाम निरंतर नियम से, करें यही बलिदान। 
वहम अहं का जब मिटे, तब हो सच्चा ज्ञान।।
*
करें प्रार्थना विनत हो, सदा सोचिए आप। 
क्या यह प्रभु को रुचेगा, रुचे वही निष्पाप।।
*
'सा' ही है सबका पिता, 'ई' जग-मैया जान। 
जय साई जब जब कहें, हो प्रभु का गुणगान।। 
करें प्रार्थना साथ मिल, जब भी हो अवकाश। 
धरती पर मिल साथ सब, सुमिरें प्रभु आकाश।।
*
सुमिरन करिए इष्ट का, प्रवहें शुभद तरंग। 
रंग भक्ति का तब चढ़े, हो न रंग में भंग।। 
मूल्याधारित पाठ पढ़, बच्चे जानें सत्य। 
उसे आचरण में बदल, कर पाते सत्कृत्य।।
भजें भजन में ईश को, जाग्रत होते चक्र।
हो जाता जीवन सरल, मिटता संकट वक्र।।
*
रोग त्रास दे तभी जब, साथ न पाते आप। 
संकीर्तन में अहं तज, होता मन निष्पाप।।
करें साथ मिल जब भजन, हों अनेक स्वर एक। 
ऊर्जा चक्र अमल विमल, जाग्रत करे विवेक।।
*
फेरी करें प्रभात में, तम तज वरें प्रकाश। 
सेवा पर की जो करे, काटे भव का पाश।।
*
चिंता तज मुस्कान दें, खर्चा नहीं छदाम। 
जब पाएँ मुस्कान तब, समझें पूरा काम।।
जब मन में संतोष हो, संगीता हो श्वास। 
क्षिप्रा होकर चेतना, तब फैले सायास।।
*
कृपा साई की है अमित, धरती उतर सुरेश। 
नर के करते बात आ, सुमिरन करें हमेश।।
*
नौ सिक्के नौ भक्त हैं, या है नवधा भक्ति। 
अवतारों की आसनी, मात्र ह्रदय अनुरक्ति।।
*
बाबा का सुमिरन करे, भक्त बने भगवान्। 
आत्म मिले परमात्म से, पाकर सच्चा ज्ञान।।
*
चरण पड़ें कर आचरण, वरण करें सत्मार्ग। 
मरण न हो तब शोचमय, हरण 
*
इक्कीसों तत्वों सहित, चक्र जागें सुन नाम। 
इच्छाओं को नियंत्रित, करें सधे सब काम।।
*
संचित वंचित के लिए, करिए स्वयं न भोग। 
खुद भोजन तो रोग हो, छोड़ें मिटते रोग।।
*
सबका हित साहित्य से, सधता- पढ़ लें जान। 
आत्म मिले परमात्म से, क्षार-अक्षर गुणगान।।
*
सत संगत ही अर्चना, पूजन वंदन मान। 
करें निरंतर छोड़ मत, साई सँग अनुमान।।
*
नर सेवा कर लीजिए, नारायण को पूज। 
भक्त और भगवन का, संगम कहीं न दूज।।
*
साधन तब स्वीकारिए, जब न अहं हो साथ। 
स्वार्थ न किंचित हो जहाँ, वहीं उठेगा माथ।।
*
भाव-भावना का नहीं, किंचित होता मोल। 
क्रय-विक्रय होता नहीं, जिसका वन अनमोल।।
*
आत्म कीर्ति मत चाहिए, याद रहे बस लक्ष्य। 
यश की चाह न चाहिए, बनें आप खुद भक्ष्य।।
*
ममता अपनापन जहाँ, वहीं बनेगी बात। 
जहाँ गैरियत वहाँ से, पाएँगे आघात।।
*
रसना रस की आसनी, सरस्वती हो सिद्ध। 
केवल तब जब सरस हों, वचन स्नेह से बिद्ध।।
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जहाँ पराजय का हुआ, बिन प्रयास ही अंत। 
वही जाइए बन सकें, तब ही आप जयंत।।
*
पालन-परायण करें, सकल नियम का आप। 
कौन न करता देख मत, मन को रख निष्पाप।।
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करिए मत आलोचना, उसकी जो नहिं साथ। 
जो अनुपस्थित सराहें, उसे उच्च हो माथ।।
*
कहे न करता काम सब, गण साई का मौन। 
जो न करे कहता रहे, उसे सराहे कौन।।
*
हो-मत हो वह साथ जो, बदल न सकता आप। 
जो बदले बेहतर बने, उसे न सकते माप।।
*
जब जागे तब सवेरा, आँख मुँदी तब रात। 
साई सुमिरें जब तभी, जाने हुआ प्रभात।।
*
भजन करें तो साथ हो, बात करें भगवान। 
जपें नाम नित निरंतर, प्रभु को भीतर जान।।
*
वश में हों भगवान भी, अगर आप हों भक्त। 
जो प्रभु में अनुरक्त हो, उसमें प्रभु अनुरक्त।।
संत आप भगवंत है, अन्य नहीं गुणवंत। 
संत तार दे उसे भी, जिसके पाप अनंत।।
*
साई राम जब जब कहें, रेखा खींचें आप।  
लेखा रखें न जाप का, मिट जाए सब शाप।।
*
सेवा हित है संगठन, विघटित हो कुछ पाप। 
रहें संगठित हम सभी, हो पाएँ निष्पाप।।
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गुप्त चित्र का लेख कर, रहिए आप प्रसन्न। 
चित्रगुप्त मत पूजिए, नाश न हो आसन्न।।
कर्म श्रेष्ठ वह जो किए, कभी कहीं निष्काम। 
कर्म अधम वह जो किया, पाने कीर्ति ललाम।।
*
सेवा आध्यात्मिक भजन, हों अनेक मिल एक। 
साई अनहद नाद से, जाग्रत करें विवेक।।
*
मानव मूल्य रहित अगर, शिक्षा है बेकाम। 
बाल विकास वहीं जहाँ, नर-नारायण साम।।
*
भूखे को भोजन करा, साईं को दें भोग। 
वंचित की सेवा करें, मिटे आतम के रोग।।
*
अन्न कलश भर बाँट दें, दीनों को हँस आप। 
साई तभी प्रसन्न हों, जीवन हों निष्पाप।।
*


सत्य साईं बाबा (तेलुगु: సత్య ) (जन्म: 23 नवम्बर 1926 ; मृत्यु: 24 अप्रैल 2011), पिछले लगभग 60 वर्षों से भारत के कुछ अत्याधिक प्रभावशाली अध्यात्मिक गुरुओं में से एक थे। सत्य साईं बाबा का बचपन का नाम सत्यनारायण राजू था। सत्य साईं का जन्म आन्ध्र प्रदेश के पुट्टपर्थी गांव में 23 नवम्बर 1926 को हुआ था। सिर्फ भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व में उनके असंख्य अनुयायी हैं। 24 अप्रैल 2011 को एक लंबी बीमारी के बाद बाबा ने चिरसमाधि ले ली। बाबा को प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु शिरडी के साईं बाबा का अवतार माना जाता है।

आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में पुट्टपर्थी गांव में एक सामान्य परिवार में 23 नवम्बर 1926 को जन्मे सत्यनारायण राजू ने 20 अक्टूबर 1940 को 14 साल की उम्र में खुद को शिरडी वाले साईं बाबा का अवतार कहा। जब भी वह शिरडी साईं बाबा की बात करते थे तो उन्हें ‘अपना पूर्व शरीर’ कहते थे।

सत्य साईं बाबा की पैदाइश 23 नवंबर, 1926 को पुट्टपर्ति नाम के एक गांव में हुई थी, जो तब मद्रास प्रेसिडेंसी के अंदर आता था. सत्यनारायण राजू, सत्य साईं बाबा कैसे बने, इसको लेकर उनके भक्त एक कहानी बताते हैं. 8 मार्च, 1940 की तारीख थी जब सत्यनारायण राजू को अपने अवतार होने का अहसास हुआ. हुआ यूं कि जब उनकी उम्र 14 साल थी, उन्हें एक बिच्छू ने डंक मार लिया था, जिसके बाद वो कई घंटों बेहोश रहे. जब होश में आए, तो उनके व्यक्तित्व में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका था. दावा किया जाता है कि इसके बाद उन्होंने अचानक संस्कृत में बोलना शुरू कर दिया था, जो कि इससे पहले न उन्होंने सुनी थी, न पढ़ी. इसके बाद उन्हें घर ले जाया गया, जहां 23 मई 1940 को उन्होंने अपने परिवार वालों को अपने सामने बुलाया और हवा में से मिठाई और फूल निकाल कर दिखाए. ये देखकर उनके पिता को काफी गुस्सा आया. ये सोचकर कि उन पर किसी भूतप्रेत का साया है, उन्होंने एक छड़ी दिखाई और सत्य साईं से असलियत बताने को कहा. तब सत्य साईं ने घोषणा की कि वो शिरडी के साईं बाबा (Sai Baba) का दूसरा अवतार हैं. तब से उन्हें सत्य साईं बाबा के नाम से जाना जाने लगा.

धीरे-धीरे उनके भक्तों की तादाद बढ़ने लगी. हर गुरूवार उनके घर में भजन की शुरुआत हुई, जो बाद में रोजाना होने लगा. 
साल 1944 में सत्य साईं के एक भक्त ने उनके गांव के नजदीक ही उनके लिए एक मंदिर बनाया, जिसे अब पुराने मंदिर के नाम से जाना जाता है. 1948 में पुट्टपर्ति में एक और आश्रम का निर्माण हुआ, जिसे प्रशाति निलयम का नाम दिया गया. और तब से यही बाबा का मुख्य आवास बन गया. इसके बाद बाबा ने पूरे भारत की यात्राएं शुरू की, जिससे उनके भक्तों की संख्या में और इजाफा हुआ. कई नामी गिरामी लोग भी इनमें शामिल थे. भक्त बताते हैं कि बाबा की प्रसिद्धि की एक वजह ये थी कि उन्होंने कभी किसी को अपना धर्म छोड़ने के लिए नहीं कहा. इसलिए उनके भक्तों में सभी धर्मों के लोग थे. हालांकि सच ये भी है कि साईं बाबा के पास आने वाले लोगों में से अधिकतर उनके दिखाए चमत्कारों से प्रभावित होकर आते थे. सत्य साईं अपने प्रवचनों के दौरान हवा में हाथ घुमाकर भभूत निकाल देते थे. और कई बार महंगी घड़ियां भीं. इन चमत्कारों के चलते बाबा का नाम खूब फेमस हुआ. लेकिन उनके साथ कई कंट्रोवर्सी भी जुड़ी.
चमत्कार या हाथ की सफाई

साल 2000 में इंडिया टुडे ने सत्य साईं पर एक कवर स्टोरी की. इस स्टोरी में जादूगर पीसी सरकार ने दिखाया कि सत्य साईं के चमत्कार बस मामूली जादूगिरी हैं. उन्होंने दिखाया कि हवा से भभूत निकलने जैसा कुछ नहीं होता था. असल में बाबा के हाथ में एक छोटी नर्म चौक का टुकड़ा होता था. जिसे मसलकर भभूत बना दी जाती थी. इसके अलावा हवा से घड़ियां निकालना भी बस हाथ की सफाई का खेल था. इंटरनेट का युग आने के बाद कई लोगों ने बाबा के वीडियोज़ की पड़ताल कर दिखाया कि तमाम चमत्कार कोई आम जादूगर भी कर सकता है. ऐसा ही एक वीडियो दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ था. वीडियों में सत्य साईं एक आदमी को एक अवार्ड दे रहे थे. इसके बाद उन्होंने हवा में से माला निकाली और अवार्ड जीतने वाले के गले में पहना थी. लेकिन जब इस क्लिप को गौर से देखा गया तो पता चला कि एक आदमी, जिसने बाबा के हाथ में अवार्ड देने के लिए थमाया था, उसी ने उन्हें चुपके से माला भी थमा दी थी.

सत्य साईं के चमत्कारों से पर्दा उठाने वाले पहले कुछ लोगों में एक का नाम था, बासव प्रेमानंद(Basava Premanand). प्रेमानंद ने 1975 में पहली बार बाबा को चुनौती देना शुरू किया. उन्होंने 'फ़ेडरेशन ऑफ़ रैशनलिस्ट एसोसिएशन' का गठन किया और इसके माध्यम से अन्धविश्वास के खिलाफ मुहीम शुरू की. उन्होंने दावा किया कि कथित आध्यात्मिक गुरु सत्य साईंबाबा दरअसल एक 'धूर्त' हैं और उनका भंडाफोड़ होना चाहिए. साल 1993 में प्रेमानंद ने एक किताब लिखी, मर्डर इन साई बाबा’s बेडरूम. किताब में एक घटना का जिक्र था, जो जून 1993 में घटी थी. उस रोज़ बाबा के चार भक्त उनके कमरे में देर रात चाकू लेकर घुस आए थे. बाबा के निजी सहायकों ने उन्हें रोकने की कोशिश की. इस लड़ाई में बाबा के दो सहायक मारे गए. और दो को गहरी चोट आई. सत्य साईं बच निकलने में कामयाब रहे. हमलावरों से निपटने के लिए पुलिस बुलाई गई, जिसके बाद पुलिसिया कार्रवाई में चारों हमलावर मारे गए. और मामला वहीं निपटा दिया गया.

बासव प्रेमानंद इस मामले को अदालत में ले गए. और दावा किया कि सरकार के दबाव में इस मामले की तहकीकात रोक दी गई. वरना बाबा के कई गंभीर रहस्य दुनिया के सामने आ जाते. सत्य साईं हवा से सोने की अंगूठी और चेन निकाला करते थे. इस मामले पर प्रेमानंद ने उन पर अदालत में गोल्ड कंट्रोल एक्ट के तहत मुकदमा किया. और अदालत में दलील दी कि साईं बाबा द्वारा पैदा किया सोना अवैध की श्रेणी में आता है. हालांकि इन दोनों मामलों को अदालत के द्वारा निरस्त कर दिया गया. प्रेमानंद के अलावा ऐसे और भी कई लोग हैं जिन्होंने सत्य साईं पर गंभीर आरोप लगाए हैं.
यौन उत्पीड़न के लगे आरोप

साल 1976 में एक अमेरिकी नागरिक ट्रॉल बुक ने एक किताब में दावा किया कि बाबा ने उनका यौन शोषण किया था. हालांकि सत्यसाई बाबा के संगठन ने इसका खंडन किया. साल 2000 में एक ऑस्ट्रियाई बैंकर डि क्रेकर ने ‘द सन्डे एज’ नामक अखबार को बताया,


"मैंने भारतीय परम्पराओं के हिसाब से ही उनके पैर छुए. उन्होंने मेरा सिर पकड़ लिया और अपनी जांघों के बीच ले गए. उन्होंने कराहने की आवाज निकाली. वही आवाज़ जिसने मेरे शक को यकीन में बदल दिया. उनकी पकड़ जैसे ही ढीली हुई, मैंने अपना सिर उठाया. बाबा ने अपने कपड़े उठाकर मुझे अपना प्राइवेट पार्ट दिखाया. और कहा कि मेरी क़िस्मत अच्छी है. उन्होंने अपना कूल्हा मेरे मुंह से सटा दिया. तब मैंने तय किया कि मुझे इनके खिलाफ़ बोलना है.”

स्वीडन में रहने वाले कोनी लारसन ने टेलिग्राफ से बात करते हुए बताया कि एक निजी मुलाक़ात के दौरान बाबा ने उनका यौन उत्पीड़न किया था. ऐसी कहानियां सिर्फ एक-दो तक सीमित नहीं हैं.

सत्यनारायण राजू ने शिरडी के साईं बाबा के पुनर्जन्म की धारणा के साथ ही सत्य साईं बाबा के रूप में पूरी दुनिया में ख्याति अर्जित की। सत्य साईं बाबा अपने चमत्कारों के लिए भी प्रसिद्ध रहे और वे हवा में से अनेक चीजें प्रकट कर देते थे और इसके चलते उनके आलोचक उनके खिलाफ प्रचार करते रहे।

प्रारंभिक जीवन में सत्यनारायण राजू को ‘असामान्य प्रतिभा’ वाले परोपकारी बालक की संज्ञा दी गयी। नाटक, संगीत, नृत्य और लेखन प्रतिभा वाले इस बालक ने अनेक कविताएं और नाटक लिखे। गायक के रूप में भी उनकी पहचान बनी और उनके भजनों की अनेक सीडी आईं। सत्य साईं बाबा के अनुयायियों ने 1944 में पुट्टपर्थी में एक छोटा मंदिर बनवाया और 1950 में एक विशाल आश्रम बनाया गया जो ‘प्रशांति निलयम’ के तौर पर उनका स्थाई केंद्र बन गया।

आंध्र प्रदेश में 20 वी सदी के वक्त बहोत बुरा अकाल पड़ा था तब भगवान श्री सत्यसाई बाबाजी ने लगभग 750 गांवो के लिए पानी की व्यवस्था की थी।

आम आदमी से लेकर राष्ट्रपति तक उनके भक्तों में शामिल रहे हैं, लेकिन पुट्टपर्थी के सत्य साईं बाबा के आध्यात्मिक प्रभाव के साथ ही उनसे विवाद भी जुड़े रहे हैं। भारत में अनेक आध्यात्मिक संत हुए और हैं, लेकिन माना जाता है कि सत्य साईं बाबा के नाम और प्रसिद्धि की बराबरी शायद ही कोई कर सके।

सत्य साईं बाबा का असर पूरी दुनिया में फैला हुआ है और भारत के अलावा विदेशों में भी उनके लाखों भक्त हैं। बाबा के नामचीन भक्तों में प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री समेत आला दर्जे के नेता, फिल्मी सितारे, उद्योगपति और खिलाड़ी शामिल रहे हैं। आंध्र प्रदेश का छोटा-सा गाँव पुट्टपर्थी अंतरराष्ट्रीय नक्शे पर छा गया और इसकी वजह है कि बाबा के आध्यात्मिक स्थल प्रशांति निलयम में दिन-रात विदेशी भक्त आते जाते रहे हैं। इस कस्बे में एक विशेष हवाई अड्डे पर दुनिया के अनेक हिस्सों से बाबा के भक्तों के चार्टर्ड विमान उतरते रहे हैं।

सत्य साईं बाबा के आश्रम में कथित स्कैंडलों की भी खबरें सामने आईं। उनके खिलाफ यौन व्यवहार संबंधी सवाल भी खड़े होते रहे, लेकिन उन्होंने व उनके भक्तों ने इसे उनके विरोधियों की साजिश कहकर खारिज किया।

बाबा ने आध्यात्मिक उपदेशों के साथ ही सामाजिक क्षेत्र में भी अनेक सेवा कार्य किये। जिनकी शुरुआत पुट्टपर्थी में एक छोटे से अस्पताल के निर्माण के साथ हुई, जो अब 220 बिस्तर वाले सुपर स्पेशलिटी सत्य साई इंस्टीट्यूट ऑफ हायर मेडिकल साइंसेस का रूप ले चुका है।

इसके अलावा बंगलूरु के बाहरी इलाके में 333 बिस्तर वाला एक और सुपर स्पेशलिटी अस्पताल एस.एस.आई.एच.एम.एस. खोला गया। यहाँ बाबा का ग्रीष्मकालीन केंद्र वृंदावन है। सत्य साई सेंट्रल ट्रस्ट इन सभी सामाजिक सेवा गतिविधियों को देखता है और पुट्टपर्थी में सत्य साई विश्वविद्यालय भी संचालित करता है। इसके अलावा यह ट्रस्ट अलग अलग प्रदेशों में अनेक स्कूलों और डिस्पेंसरियों का भी संचालन करता है। सत्य साई सेंट्रल ट्रस्ट ने आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में बड़ी जल आपूर्ति परियोजनाओं पर भी काम किया है। सत्य साईं सेवा संगठन के स्वयंसेवक आंध्र प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के अन्य हिस्सों में प्राकृतिक आपदाओं के वक्त राहत व पुनर्वास कार्यों में भी आगे से आगे सेवाकार्य करते देखे जा सकते हैं।

सत्य साईं बाबा ने भारत में तीन मंदिर भी स्थापित किये, जिनमें मुंबई में धर्मक्षेत्र, हैदराबाद में शिवम और चेन्नई में सुंदरम है। इनके अलावा दुनियाभर के 114 देशों में सत्य साई केंद्र स्थित हैं।

सत्य साईं बाबा ने 1957 में उत्तर भारत के मंदिरों का भ्रमण किया और अपनी एक मात्र विदेश यात्रा पर 1968 में युगांडा गये। सत्य साईं बाबा ने 1963 में चार बार गंभीर हृदयाघात का सामना किया था। वर्ष 2005 से ही बाबा व्हीलचेयर पर थे और खराब स्वास्थ्य के कारण बहुत कम ही सार्वजनिक कार्यक्रमों में आते थे। वर्ष 2006 में बाबा को कूल्हे में फ्रेक्चर हो गया जब लोहे के स्टूल पर खड़े एक विद्यार्थी के फिसलने से वह और स्टूल दोनों ही बाबा पर गिर गये। वह अपने भक्तों को कार से या पोर्ट चेयर से दर्शन देते थे।

सत्‍य साईं बाबा का निधन24 अप्रैल 2011, रविवार सुबह 7 बजकर 40 मिनट पर हुआ। पिछले एक माह से अस्‍पताल में भर्ती थे। सुबह के वक्‍त ही उनके परिजन उनके दर्शन के लिए अस्‍पताल पहुँचे। पहले स्‍थानीय टीवी चैनलों ने खबर दी कि सत्‍य साईं का निधन हो चुका है। इसके थोड़ी देर बाद उनके निधन की आधिकारिक पुष्टि कर दी गई।

साल 2004 में बीबीसी ने 'सीक्रेट स्वामी' के नाम से एक डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म रिलीज़ की. इस फिल्म में अलाया राम और मार्क रोश नाम के दो व्यक्तियों ने सत्य साईं पर यौन शोषण का इल्जाम लगाया था. फिल्म में दोनों बताते हैं कि सत्यसाईं बाबा ने अपने हाथों से उनके प्राइवेट पार्ट्स पर तेल लगाया. सत्य साईं के भक्त कहते हैं कि बाबा के ऊपर इल्जाम लगाने वाले विदेशी लोग थे. और ऐसा साजिशन बाबा को बदनाम करने के लिए किया गया था. खुद सत्य साईं ने भी इन इल्जामों पर कहा था कि जीजस को भी उनके एक शिष्य ने धोखा दे दिया था. इस पर सत्य साईं के खिलाफ लम्बी मुहीम चलाने वाले बासव प्रेमानंद का कहना था कि बाबा के शोषण का शिकार होने वाले भारतीय भी थे लेकिन वो सामने आने से डरते थे.

कई जानी-मानी हस्तियां थी भक्तों में शामिल

सत्य साईं बाबा पर इन तमाम इल्जामों के बावजूद उनकी प्रसिद्धि में कोई कमी नहीं आई. जीते जी, कई पूर्व प्रधानमंत्री, जज, सेना के जनरल, दक्षिण भारत के पुत्तपार्थी स्थित आश्रम में सत्य साईं से 'आशीर्वाद' लेने जाते रहे. ऐश्वर्या राय. सचिन तेंदुलकर. सुनील गावस्कर, अर्जुन रणतुंगा, सनथ जयसूर्या, निर्मल चन्द्र सूरी, गुंडप्पा विश्वनाथ जैसी हस्तियां भी इन लोगों में शामिल थीं. इतना ही नहीं पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने तो एक बार लेटरहैड पर लिखकर दे दिया था कि साईबाबा पर लगाए जा रहे आरोप "ग़ैर ज़िम्मेदाराना और मनगढ़ंत" थे. श्री सत्य साईं बाबा की जिंदगी का एक दूसरा पक्ष भी था, जिसके चलते तमाम लोग उनकी सरहाना भी करते हैं. साल 1971 में सत्य साईं ने एक ट्रस्ट की स्थापना की. और ट्रस्ट के माध्यम से गरीबों के लिए मुफ्त के चिकित्सालय और शिक्षा केंद्र बनाए. 1995 में उन्होंने पीने के पानी की आपूर्ति के लिए एक परियोजना शुरू की. और पूर्वी और पश्चिमी गोदावरी जिलों में पानी पहुंचाया. इसके अलावा उन्होंने पुट्टापर्ति और बंगलौर में बड़े अस्पताल भी बनाए. साल 1991 में पुट्टापर्ति में 150 एकड़ भूमि पर सत्य साईं ट्रस्ट ने एक हवाई अड्डे का निर्माण किया था.

“मैं कोई चमत्कार करने वाला नहीं हूँ. कुछ घटनाएं हमारी इंद्रियों को चकरा देती हैं लेकिन वे भी प्राकृतिक नियमों के अनुसार घटित होती हैं. लेकिन मन वशीभूत होकर उन्हें सच मान बैठता है. इसका धर्म से कुछ लेना देना नहीं है. भारत में की जाने वाली अजीब चीजें, जिन्हें फॉरेन मीडिया रिपोर्ट करता है. महज हाथ की सफाई और सम्मोहन है. बुद्धिमान पुरुष कभी भी इस तरह की मूर्खता में शामिल नहीं होते”.

स्वामी जी तो कह गए, लेकिन चमत्कार फिर चमत्कार है. प्रकृति के नियमों खिलाफ कोई कुछ करके दिखा दे तो वो भगवान हो जाता है. हालांकि कोई पूछता नहीं कि अगर नियम बनाए हैं, तो कोई ईश्वर उन्हें खुद क्यों तोड़ेगा. बहरहाल इसका भी जवाब मौजूद है. ईश्वर है, वो कुछ भी कर सकता है. तमाम धर्मों, संप्रदायों और देशों में ऐसे तमाम लोग हुए हैं, जिन्होंने दावा किया कि वो चमत्कार कर सकते हैं. आज से 70 -80 साल पहले ऐसे दावों को ठुकराना मुश्किल था. लेकिन 21 वीं सदी इंटरनेट की सदी है. हर चीज को जांचा परखा जाता है. इसलिए अब चमत्कार के वीडियोज़ मुश्किल से दिखाई देते हैं.

दोहा, उल्लाला, मुक्तिका, गीत,नदी, लघुकथा,सॉनेट स्वागत,

सत्य साई दोहावली 
*
साई सत्य अवतार हैं, करें भक्त में वास। 
साई करें जिस पर कृपा, पल में हर लें त्रास।।
*
स्वर मधुमय अस्मिता का, भाव भक्ति से पूर्ण। 
स्नेह साई का मिल सके, कष्ट सभी हों चूर्ण।।
*
शारद कर सब पर कृपा, हर ले माँ अज्ञान। 
विघ्न हरें विघ्नेश सब, रहे कृपा का भान।। 
*
माँ मति क्षिप्रा दे हमें, सत पाएँ हम साध। 
सेवा जीवों की सकें, माँ आजीवन साध।।
*
सेवा सच्चा धर्म है, विनयधर्म का मर्म। 
नवाचार पालन करें, प्रभु अर्पित कर कर्म।।
*
खुद ही खुद की जाँच कर, करो निरंतर जाप। 
प्रभु सुमिरन कर ह्रदय से, मिला जाएँ झट आप।.
*
वार्ता करिए ईश से, जाप माध्यम सिद्ध। 
हैं अभिन्न परमेश्वर, रहो अर्गला बिद्ध।।
*
नाम निरंतर नियम से, करें यही बलिदान। 
वहम अहं का जब मिटे, तब हो सच्चा ज्ञान।।
*
करें प्रार्थना विनत हो, सदा सोचिए आप। 
क्या यह प्रभु को रुचेगा, रुचे वही निष्पाप।।
*
'सा' ही है सबका पिता, 'ई' जग-मैया जान। 
जय साई जब जब कहें, हो प्रभु का गुणगान।। 
करें प्रार्थना साथ मिल, जब भी हो अवकाश। 
धरती पर मिल साथ सब, सुमिरें प्रभु आकाश।।
*
सुमिरन करिए इष्ट का, प्रवहें शुभद तरंग। 
रंग भक्ति का तब चढ़े, हो न रंग में भंग।। 
मूल्याधारित पाठ पढ़, बच्चे जानें सत्य। 
उसे आचरण में बदल, कर पाते सत्कृत्य।।
भजें भजन में ईश को, जाग्रत होते चक्र।
हो जाता जीवन सरल, मिटता संकट वक्र।।
*
रोग त्रास दे तभी जब, साथ न पाते आप। 
संकीर्तन में अहं तज, होता मन निष्पाप।।
करें साथ मिल जब भजन, हों अनेक स्वर एक। 
ऊर्जा चक्र अमल विमल, जाग्रत करे विवेक।।
*
फेरी करें प्रभात में, तम तज वरें प्रकाश। 
सेवा पर की जो करे, काटे भव का पाश।।
*
चिंता तज मुस्कान दें, खर्चा नहीं छदाम। 
जब पाएँ मुस्कान तब, समझें पूरा काम।।
जब मन में संतोष हो, संगीता हो श्वास। 
क्षिप्रा होकर चेतना, तब फैले सायास।।
*
कृपा साई की है अमित, धरती उतर सुरेश। 
नर के करते बात आ, सुमिरन करें हमेश।।
*
नौ सिक्के नौ भक्त हैं, या है नवधा भक्ति। 
अवतारों की आसनी, मात्र ह्रदय अनुरक्ति।।
*
बाबा का सुमिरन करे, भक्त बने भगवान्। 
आत्म मिले परमात्म से, पाकर सच्चा ज्ञान।।
*
चरण पड़ें कर आचरण, वरण करें सत्मार्ग। 
मरण न हो तब शोचमय, हरण 
*
इक्कीसों तत्वों सहित, चक्र जागें सुन नाम। 
इच्छाओं को नियंत्रित, करें सधे सब काम।।
*
संचित वंचित के लिए, करिए स्वयं न भोग। 
खुद भोजन तो रोग हो, छोड़ें मिटते रोग।।
*
सबका हित साहित्य से, सधता- पढ़ लें जान। 
आत्म मिले परमात्म से, क्षार-अक्षर गुणगान।।
*
सत संगत ही अर्चना, पूजन वंदन मान। 
करें निरंतर छोड़ मत, साई सँग अनुमान।।
*
नर सेवा कर लीजिए, नारायण को पूज। 
भक्त और भगवन का, संगम कहीं न दूज।।
*
साधन तब स्वीकारिए, जब न अहं हो साथ। 
स्वार्थ न किंचित हो जहाँ, वहीं उठेगा माथ।।
*
भाव-भावना का नहीं, किंचित होता मोल। 
क्रय-विक्रय होता नहीं, जिसका वन अनमोल।।
*
आत्म कीर्ति मत चाहिए, याद रहे बस लक्ष्य। 
यश की चाह न चाहिए, बनें आप खुद भक्ष्य।।
*
ममता अपनापन जहाँ, वहीं बनेगी बात। 
जहाँ गैरियत वहाँ से, पाएँगे आघात।।
*
रसना रस की आसनी, सरस्वती हो सिद्ध। 
केवल तब जब सरस हों, वचन स्नेह से बिद्ध।।
*
जहाँ पराजय का हुआ, बिन प्रयास ही अंत। 
वही जाइए बन सकें, तब ही आप जयंत।।
*
पालन-परायण करें, सकल नियम का आप। 
कौन न करता देख मत, मन को रख निष्पाप।।
*
करिए मत आलोचना, उसकी जो नहिं साथ। 
जो अनुपस्थित सराहें, उसे उच्च हो माथ।।
*
कहे न करता काम सब, गण साई का मौन। 
जो न करे कहता रहे, उसे सराहे कौन।।
*
हो-मत हो वह साथ जो, बदल न सकता आप। 
जो बदले बेहतर बने, उसे न सकते माप।।
*
जब जागे तब सवेरा, आँख मुँदी तब रात। 
साई सुमिरें जब तभी, जाने हुआ प्रभात।।
*
भजन करें तो साथ हो, बात करें भगवान। 
जपें नाम नित निरंतर, प्रभु को भीतर जान।।
*
वश में हों भगवान भी, अगर आप हों भक्त। 
जो प्रभु में अनुरक्त हो, उसमें प्रभु अनुरक्त।।
संत आप भगवंत है, अन्य नहीं गुणवंत। 
संत तार दे उसे भी, जिसके पाप अनंत।।
*
साई राम जब जब कहें, रेखा खींचें आप।  
लेखा रखें न जाप का, मिट जाए सब शाप।।
*
सेवा हित है संगठन, विघटित हो कुछ पाप। 
रहें संगठित हम सभी, हो पाएँ निष्पाप।।
*
गुप्त चित्र का लेख कर, रहिए आप प्रसन्न। 
चित्रगुप्त मत पूजिए, नाश न हो आसन्न।।
कर्म श्रेष्ठ वह जो किए, कभी कहीं निष्काम। 
कर्म अधम वह जो किया, पाने कीर्ति ललाम।।
*
सेवा आध्यात्मिक भजन, हों अनेक मिल एक। 
साई अनहद नाद से, जाग्रत करें विवेक।।
*
मानव मूल्य रहित अगर, शिक्षा है बेकाम। 
बाल विकास वहीं जहाँ, नर-नारायण साम।।
*
भूखे को भोजन करा, साईं को दें भोग। 
वंचित की सेवा करें, मिटे आतम के रोग।।
*
अन्न कलश भर बाँट दें, दीनों को हँस आप। 
साई तभी प्रसन्न हों, जीवन हों निष्पाप।।
१९-३-२०२३ 
***
सॉनेट
स्वागत
लाल गुलाल भाल पर शोभित।
तरुणी सरसों पियराई रे।
महुआ लख पलाश सम्मोहित।।
मादकता तन-मन छाई रे।।
छेड़ें पनघट खलिहानों को।
गेहूँ की बाली निहाल है।
फिक्र न कुछ भी दीवानों को।।
चना-मटर की एक चाल है।।
मग्न कपोत-कपोती खुद में।
आग लगाता आया फागुन।
खोज रहे रे! एक-दूजे के
स्वर में खुद को बंसी-मादल।।
रति-रतिपति हैं दर पर आगत।
आम्र मंजरी करती स्वागत।।
१९-३-२०२२
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प्रार्थना
कब लौं बड़ाई करौं सारदा तिहारी
मति बौराई, जस गा जुबान हारी।
बीना के तारन मा संतन सम संयम
चोट खांय गुनगुनांय धुन सुनांय प्यारी।
सरस छंद छांव देओ, मैया दो अक्कल
फागुन घर आओ रचा फागें माँ न्यारी।
तैं तो सयानी मातु, मूरख अजानो मैं
मातु मति दै दुलार, 'सलिल' काब्य क्यारी।
१९-३-२०२१
***
लघुकथा : एक दृष्टि
*
लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३.तीक्ष्ण प्रभाव हैं।
इनमें से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है।
घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुड़ी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी।
इन ३ तत्वों का प्रयोगकर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है।
कुछ रचनाकार इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं।
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग घटते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघुकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो।
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं, इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों का चरित्र-चित्रण, कथोपकथन आदि नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है।
शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं।
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है।
एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है।
कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है।
सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है।
व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा?
व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है।
१७-३-२०२०
***
गीत 
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
१२.३.२०१८
***
छंद शाला
उल्लाला सलिला:
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
*
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...
*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरि का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..
प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..
कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..
आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..
सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..
कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..
स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
***
उल्लाला मुक्तक:
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
****
२०-२-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, घनाक्षरी, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
सुधियों के दोहे:'
*
वसुधा माँ की गोद है, कहो शहर या गाँव.
सभी जगह पर धूप है, सभी जगह पर छाँव..
*
निकट-दूर हों जहाँ भी, अपने हों सानंद.
यही मनाएँ दैव से, झूमें गायें छंद..
*
जीवन का संबल बने, सुधियों का पाथेय.
जैसे राधा-नेह था, कान्हा भाग्य-विधेय..
*
तन हों दूर भले प्रभो!, मन हों कभी न दूर.
याद-गीत नित गा सके, साँसों का सन्तूर..
*
निकट रहे बेचैन थे, दूर हुए बेचैन.
तरस रहे तरसा रहे, 'बोल अबोले नैन..
*
'सलिल' स्नेह को स्नेह का, मात्र स्नेह उपहार.
स्नेह करे संसार में, सदा स्नेह-व्यापार..
*
स्नेह तजा सिक्के चुने, बने स्वयं टकसाल.
खनक न हँसती-बोलती, अब क्यों करें मलाल?.
*
जहाँ राम तहँ अवध है, जहाँ आप तहँ ग्राम.
गैर न मानें किसी को, रिश्ते पाल अनाम..
*
अपने बनते गैर हैं, अगर न पायें ठौर.
आम न टिकते पेड़ पर, पेड़ न तजती बौर..
*
तनखा तन को खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', औषध यह बेदाम.
१९-३-२०१०
***