कुल पेज दृश्य

सोमवार, 30 नवंबर 2015

parinam alankar

अलंकार सलिला ३६  
परिणाम अलंकार
*






*
हो अभिन्न उपमेय से, जहाँ 'सलिल' उपमान.

अलंकार परिणाम ही, कार्य सके संधान..

जहाँ असमर्थ उपमान उपमेय से अभिन्न रहकर किसी कार्य के साधन में समर्थ होता है, वहाँ  परिणाम अलंकार होता है

उदाहरण:

१. मेरा शिशु संसार वह दूध पिये परिपुष्ट हो

    पानी के ही पात्र तुम, प्रभो! रुष्ट व तुष्ट हो

यहाँ संसार उपमान शिशु उपमेय का रूप धारण करने पर ही दूध पीने में समर्थ होता है, इसलिए परिणाम अलंकार है

२. कर कमलनि धनु शायक फेरत

    जिय की जरनि हरषि हँसि हेरत

यहाँ पर कमल का बाण फेरना तभी संभव है, जब उसे कर उपमेय से अभिन्नता प्राप्त हो

३. मुख चन्द्र को / मनुहारते हम / पियें चाँदनी। 

इस हाइकु में उपमान चंद्र की मनुहार तभी होगी जब वह उपमान मुख से अभिन्न हो

४. जनप्रतिनिधि तस्कर हुए, जनगण के आराध्य
    जनजीवन में किस तरह, शुचिता हो फिर साध्य?

इस दोहे में तस्कर तभी आराध्य हो सकते हैं जब वे जनप्रतिनिधि से अभिन्न हों  

५. दावानल जठराग्नि का / सँग साँसों की लग्निका / लगन बन सके भग्निका

इस जनक छंद में दावानल तथा जठराग्नि के अभिन्न होने पर ही लगन-शर्म इसे भग्न कर सकती है। अत:, परिणाम अलंकार है 
    


*****

रविवार, 29 नवंबर 2015

vinokti alankar

अलंकार सलिला ३५
 विनोक्ति अलंकार
*


















*
बिना वस्तु उपमेय को, जहाँ दिखाएँ हीन.

है 'विनोक्ति' मानें 'सलिल', सारे काव्य प्रवीण..

जहाँ उपमेय या प्रस्तुत को किसी वस्तु के बिना हीन या रम्य वर्णित किया जाता है वहाँ विनोक्ति अलंकार होता है.

१. देखि जिन्हें हँसि धावत हैं लरिकापन धूर के बीच बकैयां.
    लै जिन्हें संग चरावत हैं रघुनाथ सयाने भए चहुँ बैयां.
    कीन्हें बली बहुभाँतिन ते जिनको नित दूध पियाय कै मैया.
    पैयाँ परों इतनी कहियो ते दुखी हैं गोपाल तुम्हें बिन गैयां.

२. है कै महाराज हय हाथी पै चढे तो कहा जो पै बाहुबल निज प्रजनि रखायो ना.
    पढि-पढि पंडित प्रवीणहु भयो तो कहा विनय-विवेक युक्त जो पै ज्ञान गायो ना.
    अम्बुज कहत धन धनिक भये तो कहा दान करि हाथ निज जाको यश छायो ना.
    गरजि-गरजि घन घोरनि कियो तो कहा चातक के चोंच में जो रंच नीर नायो ना.

३. घन आये घनघोर पर, 'सलिल' न लाये नीर.
    जनप्रतिनिधि हरते नहीं, ज्यों जनगण की पीर..

४. चंद्रमुखी है / किन्तु चाँदनी शुभ्र / नदारद है.

५. लछमीपति हैं नाम के / दान-धर्म जानें नहीं / नहीं किसी के काम के  

६. समुद भरा जल से मगर, बुझा न सकता प्यास
    मीठापन जल में नहीं, 'सलिल' न करना आस

७. जनसेवा की भावना, बिना सियासत कर रहे
    मिटी न मन से वासना, जनप्रतिनिधि कैसे कहें?

***

prativatupama alankar

अलंकार सलिला: ३४   
प्रतिवस्तूपमा अलंकार
*

*
एक धर्म का शब्द दो, करते अगर बखान.

'प्रतिवस्तुपमा' हो 'सलिल', अलंकार रस-खान..
'प्रतिवस्तुपमा' में कहें, एक धर्म दो शब्द.
चमत्कार लख काव्य का, होते रसिक निशब्द..
जहाँ उपमेय और उपमान वाक्यों का विभिन्न शब्दों द्वारा एक ही धर्म कहा जाता है, वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है.
जब उपमेय और उपमान वाक्यों का एक ही साधारण धर्म भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा जाए अथवा जब दो वाक्यों में वस्तु-प्रति वस्तु भाव हो तो वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होताहै.
प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्य होते हैं- १) उपमेय वाक्य, २) उपमान वाक्य. इन दोनों वाक्यों का एक ही साधारण धर्म होता है. यह साधारण धर्म दोनों वाक्यों में कहा जाता है पर अलग- अलग शब्दों से अर्थात उपमेय वाक्य में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उपमान वाक्य में उस शब्द का प्रयोग न कर किसी समानार्थी शब्द द्वारा समान साधारण धर्म की अभिव्यक्ति की जाती है.
प्रतिवस्तूपमा अलंकार का प्रयोग करने के लिए प्रबल कल्पना शक्ति, सटीक बिम्ब-विधान चयन-क्षमता तथा प्रचुर शब्द-ज्ञान की पूँजी कवि के पास होना अनिवार्य है किन्तु प्रयोग में यह अलंकार कठिन नहीं है.
उदाहरण:
१. पिसुन बचन सज्जन चितै, सकै न फेरि न फारि.
    कहा करै लगि तोय मैं, तुपक तीर तरवारि..
२. मानस में ही हंस किशोरी सुख पाती है.
    चारु चाँदनी सदा चकोरी को भाती है.
    सिंह-सुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी?
    क्या पर नर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी?
यहाँ प्रथम व चतुर्थ पंक्ति में उपमेय वाक्य और द्वितीय-तृतीय पंक्ति में उपमान वाक्य है.
३. मुख सोहत मुस्कान सों, लसत जुन्हैया चंद.
यहाँ 'मुख मुस्कान से सोहता है' यह उपमेय वाक्य है और 'चन्द्र जुन्हाई(चाँदनी) से लसता (अच्छा लगता) है' यह उपमान वाक्य है. दोनों का साधारण धर्म है 'शोभा देता है'. यह साधारण धर्म प्रथम वाक्य में 'सोहत' शब्द से तथा द्वितीय वाक्य में 'लसत' शब्द से कहा गया है.
४. सोहत भानु-प्रताप सों, लसत सूर धनु-बान.
यहाँ प्रथम वाक्य उपमान वाक्य है जबकि द्वितीय वाक्य उपमेय वाक्य है.
५. तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा, चोरहिं चाँदनि रात न भावा.
यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न ' शब्दों से और उपमान वाक्य
में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है.
पाठकगण कारण सहित बताएँ कि निम्न में प्रतिवस्तूपमा अलंकार है या नहीं?
६. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.
७. हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.
८. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना ताजे कलंक.
९. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.
    त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..
१०. तेज चाल थी चोर की, गति न पुलिस की तेज


*********

pustak charcha

पुस्तक चर्चा:
भ्रामक पुस्तक: नवगीत के नये प्रतिमान
डॉ. राजेंद्र गौतम
*
नवगीत की आलोचना की दयनीय स्थिति जग जाहिर है। उसका परिणाम यह हुआ है कि कभी अप्रामाणिक सम्पादित नवगीत-संग्रह प्रकाशित होते हैं और कभी उसकी हास्यास्पद आलोचना सामने आती है। हाल ही में ‘नवगीत के नये प्रतिमान’ शीर्षक से श्री राधेश्याम बंधु के सम्पादन में एक अत्यंत भ्रामक पुस्तक प्रकाशित हुई है। विशेष यह है कि भ्रांति के इस प्रसार में संग्रहीत रचनाकारों का कोई योगदान नहीं है। इसका दायित्व केवल सम्पादक पर है। 

इसमें पहला भ्रम तो एक सम्पादित पुस्तक को स्वलिखित पुस्तक दिखलाने का खड़ा किया गया है। कभी प्रो. नामवर सिंह ने कविता के नए प्रतिमान निर्धारित किए थे। उससे पहले श्री लक्ष्मीकांत वर्मा ने नयी कविता के प्रतिमान प्रस्तुत किए थे। पर इन दिग्गजों के मन में यह तथ्य स्पष्ट था कि प्रतिमान निर्धारित करने के लिए विधा विशेष का तथ्यात्मक ज्ञान और इतिहास-बोध का ज्ञान होना बहुत जरूरी है। 

बंधु जी ने नवगीत के तथ्यात्मक ज्ञान और इतिहास-बोध के ज्ञान के बिना ही प्रतिमान निर्धारित करने का खोखला दावा किया है। तथ्यों का मनमाने ढंग से किया गया मूर्तिभंजन नवगीत का मामूली सा ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को भी हैरान और अवसन्न कर देने वाला है। बहुत कम ऐसी पुस्तकें देखने में आएंगी जिनमें तथ्य सम्बन्धी इतनी भूलें हों। कोढ़ में खाज की स्थिति यह कि अज्ञानतावश हुई भूलों के साथ-साथ आत्मप्रतिष्ठा के लिए संग्रहीत आलोचनात्मक लेखों और गीतों में किए गए अनधिकार प्रक्षेपणों नें पुस्तक को पूरी तरह अविश्वसनीय बना दिया है। यद्यपि सम्पादक को पूरे नवगीत समाज का खुला सहयोग मिला है, लेकिन अंततः सभी का विश्वास आहत हुआ है। 

इसमें डेढ सौ से अधिक आलोचक और कवि जुटाए गए हैं। दो सौ आठ गीत संकलित किए गए हैं। ठीक एक दर्जन आलोचनात्मक लेख भी हैं। इसमें आलोचक-अष्टक से परिचर्चा की गई है और इन सब के अतिरिक्त बंधु जी के अपने प्रतिमान-निर्धारक वे लेख हैं जिनके बूते पर वे सम्पादक के रूप में नहीं बल्कि पुस्तक-लेखक के रूप में स्वयं को दिखाना चाहते हैं। 

पहले हम गीत अनुभाग पर चर्चा करते हैं। पुस्तक में गीतों को तीन खंडों में संकलित किया गया हैं। पहला खंड स्वर्गीय गीतकारों का है, दूसरा प्रमुख समकालीन गीतकारों का और तीसरा गौण समकालीन गीतकारों का। क्या इस अशोभनीय स्थिति का कोई उत्तर सम्पादक के पास है कि स्वर्गीय गीतकारों वाले खंड में केदारनाथ सिंह क्यों डाल दिए गए हैं? क्या यह शर्मसार कर देने वाला कृत्य नहीं है? बंधु जी ने इस पुस्तक में सम्पादित समकालीन गीतकारों के सभी गीतों के साथ रचना-तिथि दी है और इन सब गीतों को सन् 2000 के बाद का और ज्यादातर को उनकी पिछली सम्पादित पुस्तक के बाद का बताया है जबकि एक नज़र डालते ही उनके इस दावे की कलई खुल जाती है। इस पहेली में भी एक रहस्य छिपा है। रोचक यह है कि गीतकारों ने बंधु जी को स्वयं अपने गीतों की रचनातिथि लिख कर भेजी ही नहीं थी। गीतों की रचनातिथि पर संदेह होने के कारण जब मैंने गीतकारों से बात की, तब इस तथ्य का पता चला।

स्पष्ट है कि सारा ‘डेटांकन’ कार्य बंधु जी ने नवगीत के अपने ज्ञान के आधार पर किया है। उनके 2007 में लोकार्पित संग्रह का एक गीत ‘कोलाहल और कविता’ वर्षों पहले का है। क्या वे अपने गीत का ही रचनाकाल भूल गए, जो इस पुस्तक में उसे 2010 का बताते हैं? सौभाग्य से या दुर्भाग्य से मैंने अधिकांश नवगीत संकलनों को पढ़ा है। मैंने पाया कि इस पुस्तक के पचासों गीत ऐसे हैं जो बहुत पुराने हैं। उदाहरण के लिये विनोद श्रीवास्तव का गीत ‘आज नदी में पाँव डुबोते’ उनके 1987 में प्रकाशित संकलन भीड़ में बाँसुरी से लिया गया हैं। उसे यहाँ 2008 में रचित बताया गया है। बुद्धिनाथ मिश्र ने अपने संकलन ‘शिखरिणी’ की पांडुलिपि प्रकाशन से पूर्व 2000 में मुझे भिजवाई थी। उसका प्रकाशन 2001 में हुआ था. इस पुस्तक के दोनों गीत इसी संकलन के हैं और उन्हें 2010 और 2011 का बताया गया है। 

ब्रजेश भट्ट का एक बहुत पुराना गीत उनके 2001 में प्रकाशित संकलन ‘नाव में नदी’ में है। प्रतिमान निर्धारित करते हुए उसका भी अद्यतनीकरण हो गया है। कहने की जरूरत नहीं हैं कि पिछली सदी में लिखे मेरे अपने गीतों का रचनाकाल भी मेरे द्वारा नहीं बंधु जी द्वारा निर्धारित किया गया है। सवाल यह है कि ऐसा क्यों हुआ है? कारण बारीकी से खोजा जा सकता है। इस पूरी पुस्तक में एक ध्वनि पैदा करने का प्रयास है कि बंधु जी द्वारा 2004 में सम्पादित पुस्तक ने नवगीत में एक क्रांति पैदा कर दी थी और उसके प्रकाशन से नवगीत में सब कुछ बदल गया था। इसलिए किसी भी गीत को उस पुस्तक से पहले का तो बताना ही नहीं था।

जबकि 2004 में सम्पादित उस पुस्तक की निस्सारता से गीत के आलोचक अवगत हैं। इस संकलन के अनेक गीत पूर्वप्रकाशित हैं और नवगीत के सजग पाठक पहचान सकते हैं कि सम्पादक ने कितने खराब तरीके से उनमें परिवर्तन किए हैं। गीत चाहे नचिकेता का हो या अवधबिहारी मिश्र का सब की देह पर छुरी चलाई गई है। किसी गीत का सिर गायब कर दिया है तो किसी का धड़! मनमाने परिवर्तन से कहीं छंद टूटा है तो कहीं अर्थ विसंगत हुआ है। जारी...हास्यास्पद से अधिक यह दुखद है कि नवगीत के नये प्रतिमान निर्धारित करने का दावा करने वाली पुस्तक में कम से कम 20 संकलनों के और इतने ही कवियों के नाम ग़लत दिए गए हैं. 

यहां गीतों को कवियों के आयुक्रम से रखा गया है। विडम्बना यह है कि अनेक कवियों की जन्म तिथियाँ ही ग़लत दी गई है तो कई कवियों के नाम ग़लत हैं। माहेश्वर तिवारी (सम्पादक के अनुसार माहेश्वरी) कोई ऐसे-वैसे गीतकार तो हैं नहीं कि आप को उनकी आयु का अंदाजा न हो। आप उन्हें 1949 में पैदा हुआ बताते हैं। इसे प्रैस की भूल इस लिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि क्रम में भी आपने उनकों वहीं रखा है। इस तरह अनेक कवि भ्रमित इतिहास-बोध के शिकार हुए हैं। 

सबसे अधिक आश्चर्य तो यह देख कर हुआ कि बंधु जी चले तो हैं नवगीत के नये प्रतिमान निर्धारित करने पर उनको यह तक नहीं पता है कि कौन-सी पुस्तक गीत संग्रह है और कौन-सी नहीं। वे मेरी 1984 में प्रकाशित आलोचना-पुस्तक ‘हिंदी नवगीत: उद्भव और विकास’ को गीत-संग्रह बताते हैं, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र का दोहा-संग्रह भी उनके लिए गीत-स्रग्रह है और रामबाबू रस्तोगी का खंडकाव्य भी गीत संग्रह है। सम्पादक ने यह विधान्तरण और संग्रहॉं का भी किया है। 

स्थापित और विस्थापित नवगीतकारों के मनमाने वर्ग विभाजन के तार्किक आधार की चर्चा का तो यहाँ कोई अर्थ ही नहीं है। ‘नवगीत दशक’ जैसे ऐतिहासिक संकलन के कुछ गीतकारों को गौण गीतकारों वाले खंड में डाला है जबकि मुख्य खंड में कई ऐसे गीतकार डाल दिए गए हैं, जिनका नगण्य योगदान है।पुस्तक का आलोचना-खंड बेहतर हो सकता था क्योंकि कई लेखकों ने बंधु जी पर विश्वास कर अपने अच्छे लेख दिए थे लेकिन अधिकांश में सम्पादक ने अनधिकृत हस्तक्षेप कर उन्हें विकृत कर दिया है। कुछ में अज्ञानता ने धावा बोला और कुछ में आत्मप्रतिष्ठा के मोह में इतिहास को विकृत कर दिया गया। 

नवगीत के प्रतिमान-निर्धारक से यह तो अपेक्षा की ही जाती है कि उसे वीरेन्द्र मिश्र और महेश अनघ के गीत का अंतर मालूम हो तथा उसे सुधांशु उपाध्याय और रामकिशोर दहिया के गीतों की अलग पहचान हो। यदि सम्पादक को यह ज्ञान होता तो मेरे लेख के साथ यह भयंकर खिलवाड़ न होती कि मूल लेख से हट कर किसी का गीत किसी के नाम और किसी का किसी के नाम डाल दिया जाता और मेरी ऐसी अल्पज्ञता न विज्ञापित की जाती कि मैं वीरेन्द्र मिश्र के नाम से महेश अनघ का गीत उद्धृत करूं और उसी गीत में दो पंक्तियां वीरेन्द्र मिश्र की जोड़ दूं। मैंने अपने लेख को एक ऐतिहासिक बिंदु से जोड़ा है और उसमें केवल 1990 या उसके बाद के संकलनों का उल्लेख किया है। आपने अनधिकृत हस्तक्षेप करते हुए अपनी 1990 से पहले की पुस्तकों को उसमें घुसा दिया है। इससे पाठक के सामने निबंध-लेखक का इतिहास-बोध ही प्रश्नों से घिर जाता है।

बिल्कुल यही स्थिति डा. सुरेश उजाला तथा अन्य लेखकों के लेखों के साथ हुई है। यहाँ तक कि परिचर्चा परिभाग भी इसी हस्तक्षेप का संदेह पैदा करता है। इसमें डा. नामवर सिंह, डा. विश्वनाथ त्रिपाठी, डा. नित्यानंद तिवारी आदि से बातचीत का दावा किया गया है पर परिचर्चा में मूल मुद्दों का जिक्र तक न होना उन्हें संदेहास्पद बनाता है। डा. मैनेजर पाण्डेय, डा. मुरली मनोहर प्रसाद और श्री राम कुमार कृषक को छोड़ कर सारी परिचर्चाएँ नवगीत की अपेक्षा बंधु जी की युगबोध वाली
पुस्तक पर केन्द्रित हो जाती हैं। तब एक रोचक स्थिति सामने आती है। यदि इतने दिग्गज आलोचक नवगीत को उसी पुस्तक तक रिड्यूस करके देख रहे हैं और उन्होंने इसके अतिरिक्त नवगीत में कुछ पढ़ा ही नहीं है तो उनकी विश्वसनीयता क्या है? तब उनके द्वारा नवगीत के मूल्यांकन की संभावना भी खत्म जाती है और यदि ऐसा उनका कहना नहीं है और उनके नाम से लिख दिया गया है तो वर्तमान पुस्तक की विश्वसनीयता क्या है?

एक रोचक तथ्य यह है कि डा. विश्वनाथ त्रिपाठी से की गई परिचर्चा में भी और डा. मैनेजर पाण्डेय से की गई परिचर्चा में भी निराला के उत्तरवर्ती यथार्थवादी गीतों का जिक्र आया है। दोनों ही आलोचकों द्वारा इन गीतों को सन् साठ के बाद का बताया गया है। इन दोनों विद्वानों के ज्ञान को प्रश्नांकित नहीं किया जा सकता। वे तो जानते हैं कि निराला ने ऐसे गीत 1949-50-51-52 में लिखे थे, जो अर्चना, आराधना और सांध्यकाकली में आए हैं। निराला के साठ के बाद के गीतों की संख्या तो गिनी-चुनी है। निश्चय ही यहां सम्पादकीय अज्ञान के हस्तक्षेप ने दोनो विद्वानों से गलतबयानी करवाई है।

अब रही बात सौ पृष्ठीय उस सम्पादकीय की जिसमें बंधु जी ने नवगीत के नये प्रतिमान निर्धारित करने का प्रयास किया है। नये प्रतिमान तो पूर्व प्रतिमानों की अभिज्ञता से ही निर्धारित किए जा सकते हैं जबकि इस पुस्तक में नवगीत आलोचना की पूर्व परम्परा का कोई उल्लेख नहीं है। प्रतिनिधि संकलनों में भी ‘नवगीत दशक’जैसी ऐतिहासिक पहल का कोई मूल्यांकन नहीं है। दिनेश सिंह के सम्पादन में ‘नए पुराने’के जो महत्त्वपूर्ण गीत अंक निकले थे उनका कोई जिक्र नहीं है। सौ पृष्ठों में अपनी सम्पादित पुस्तक का जिक्र जरूर दौ सौ बार किया गया है अर्थात् नवगीत के पूरे इतिहास-क्रम की अवहेलना और उपेक्षा इसमें देखी जा सकती है। 

सम्पादकीय लेखों से नवगीत के नए प्रतिमान तो नहीं निर्धारित हो पाए हैं, हां उनके द्वारा वर्णित छंद-प्रसंग आदि में बंधु जी का शास्त्र और इतिहास का अज्ञान जरूर निर्धारित हुआ है।

अंततः बंधु जी से यही प्रार्थना की जा सकती है कि यदि वे नवगीत के हितैषी हैं और उनका दावा है कि वे हैं, तो पुस्तक के इस संस्करण को तुरंत रोक कर उसे संशोधित कर प्रकाशित करें।

***

sahokti alanakar

अलंकार सलिला: ३३ 
सहोक्ति अलंकार
*


कई क्रिया-व्यापार में, धर्म जहाँ हो एक।
मिले सहोक्ति वहीं 'सलिल', समझें सहित विवेक।। 
एक धर्म, बहु क्रिया ही, है सहोक्ति- यह मान। 
ले सहवाची शब्द से, अलंकार पहचान।।

     सहोक्ति अपेक्षाकृत अल्प चर्चित अलंकार है। जब कार्य-कारण रहित सहवाची शब्दों द्वारा अनेक व्यापारों अथवा स्थानों में एक धर्म का वर्णन किया जाता है तो वहाँ सहोक्ति अलंकार होता है।       

     जब दो विजातीय बातों को एक साथ या उसके किसी पर्याय शब्द द्वारा एक ही क्रिया या धर्म से अन्वित किया जाए तो वहाँ सहोक्ति अलंकर होता है। इसके वाचक शब्द साथ अथवा पर्यायवाची संग, सहित, समेत, सह, संलग्न आदि होते हैं।

१. नाक पिनाकहिं संग सिधायी।                                                                     

     धनुष के साथ नाक (प्रतिष्ठा) भी चली गयी। यहाँ नाक तथा धनुष दो विजातीय वस्तुओं को एक ही शब्द 'साथ' से अन्वित कर उनका एक साथ जाना कहा गया है।


२. भृगुनाथ के गर्व के साथ अहो!, रघुनाथ ने संभु-सरासन तोरयो।

     यहाँ परशुरराम का गर्व और शिव का धनुष दो विजातीय वस्तुओं को एक ही क्रिया 'तोरयो' से अन्वित किया गया है।


३. दक्खिन को सूबा पाइ, दिल्ली के आमिर तजैं, उत्तर की आस, जीव-आस एक संग ही।।

     यहाँ उत्तर दिशा में लौट आने की आशा तथा जीवन के आशा इन दो विजातीय बैटन को एक ही शब्द 'तजना' से अन्वित किया गया है।


४. राजाओं का गर्व राम ने तोड़ दिया हर-धनु के साथ।

५. शिखा-सूत्र के साथ हाय! उन बोली पंजाबी छोड़ी।

६. देह और जीवन की आशा साथ-साथ होती है क्षीण।

७. तिमिर के संग शोक-समूह । प्रबल था पल-ही-पल हो रहा।

८. ब्रज धरा जान की निशि साथ ही। विकलता परिवर्धित हो चली।

९. संका मिथिलेस की, सिया के उर हूल सबै, तोरि डारे रामचंद्र, साथ हर-धनु के।

१०. गहि करतल मुनि पुलक सहित कौतुकहिं उठाय लियौ।
     नृप गन मुखन समेत नमित करि सजि सुख सबहिं दियौ।।
     आकर्ष्यो सियमन समेत, अति हर्ष्यो जनक हियौ।
     भंज्यो भृगुपति गरब सहित, तिहुँलोक बिसोक कियौ।।


११. छुटत मुठिन सँग ही छुटी, लोक-लाज कुल-चाल।
     लगे दुहन एक बेर ही, चल चित नैन गुलाल।।


१२. निज पलक मेरी विकलता साथ ही, अवनि से उर से, मृगेक्षिणी ने उठा।

१३. एक पल निज शस्य श्यामल दृष्टि से, स्निग्ध कर दी दृष्टि मेरी दीप से।।

१४. तेरा-मेरा साथ रहे, हाथ में साथ रहे।

१५. ईद-दिवाली / नीरस-बतरस / साथ न होती।

१६. एक साथ कैसे निभे, केर-बेर का संग? 
     भारत कहता शांति हो, पाक कहे हो जंग।।


     उक्त सभी उदाहरणों में अन्तर्निहित क्रिया से सम्बंधित कार्य या कारण के वर्णन बिना ही एक धर्म (साधारण धर्म) का वर्णन सहवाची शब्दों के माध्यम से किया गया है.
**********'

शनिवार, 28 नवंबर 2015

navgeet

एक रचना 
मेरी अपनी! 
*
मेरी अपनी! 
साथ रहो तो 
समय नहीं बतियाने का.
माँ-पापा-बच्चे, घर-कोलेज
सबके बाद थकान शेष जब
करतीं याद मुझे ही तुम तब
यही ख़ुशी संतोष है.
मेरी अपनी!
याद नहीं है
दिवस कभी बिसराने का.
*
मेरी अपनी!
तनिक बताओ
कब-क्या-किसको लाने का?
दूध, सब्जियाँ, राशन, औषध
शेष रहा कुछ या यह ही सब?
नयन बसा हूँ, नयन बसा अब
प्यास-आस ही कोष है.
मेरी अपनी!
स्वाद नहीं है
तुम बिन भोजन पाने का.
*

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

rasanand de chhand narmada

रसानंद दे छंद नर्मदा ८ 

दोहा का रचना विधान, २३ प्रकार तथा विविध रसों के दोहों का आन्नद लेने के बाद अब देखिये विविध भाषा रूपों के दोहे। 
  

बुन्देली दोहा-




मन्दिर-मन्दिर कूल्ह रै, चिल्ला रै सब गाँव.




फिर से जंगल खों उठे, रामचंद के पाँव..- प्रो. शरद मिश्र. 




छत्तीसगढी दोहा-




चिखला मती सीट अऊ, घाम जौन डर्राय.




ऐसे कायर पूत पे, लछमी कभू न आय.. - स्व. हरि ठाकुर 




बृज दोहा-




कदम कुञ्ज व्है हौं कबै, श्री वृन्दावन मांह.




'ललितकिसोरी' लाडलै, बिहरेंगे तिहि छाँह.. -ललितकिसोरी




उर्दू दोहा-




सबकी पूजा एक सी, अलग-अलग हर रीत.




मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाये गीत.. - निदा फाज़ली 




मराठी द्विपदी- (अभंग)




या भजनात या गाऊ, ज्ञानाचा अभंग.




गाव-गाव साक्षरतेत, नांदण्डयाचा चंग.. -- भारत सातपुते




हाड़ौती दोहा-




शादी-ब्याऊँ बारांता , तम्बू-कनाता देख.




'रामू' ब्याऊ के पाछै, करज चुकाता देख.. -रामेश्वर शर्मा 'रामू भैय्या' 




भोजपुरी दोहा-




दम नइखे दम के भरम, बिटवा भयल जवान.




एक कमा दू खर्च के, ऊँची भरत उदान.. -- सलिल 




निमाड़ी दोहा-




जिनी वाट मं$ झाड़ नी, उनी वाट की छाँव.




नेह, मोह, ममता, लगन, को नारी छे छाँव.. -- सलिल 




हरयाणवी दोहा-




सच्चाई कड़वी घणी, मिट्ठा लागे झूठ.




सच्चाई कै कारणे, रिश्ते जावें टूट.. --रामकुमार आत्रेय. 




राजस्थानी दोहा-




करी तपस्या आकरी, सरगां मिस सगरोत. 




भागीरथ भागीरथी, ल्याया धरा बहोत.. - भूपतिराम जी.



गोष्ठी के अंत में कहा जाने वाला -



कथा विसर्जन होत है, सुनहुं वीर हनुमान. 


जो जन जहाँ से आयें हैं, सो तहँ करहु पयान..



दोहा और सोरठा:


दोहा की तरह सोरठा भी अर्ध सम मात्रिक छंद है. इसमें भी चार चरण होते हैं. प्रथम व तृतीय चरण विषम 


तथा द्वितीय व  चतुर्थ चरण सम कहे जाते हैं. सोरठा में दोहा की तरह दो पद (पंक्तियाँ) होती हैं. प्रत्येक पद 

में २४ मात्राएँ होती हैं. 



दोहा और सोरठा में मुख्य अंतर गति तथा यति में है. दोहा में १३-११ पर यति होती है जबकि सोरठा में ११ - 



१३ पर यति होती है. यति में अंतर के कारण गति में भिन्नता होगी ही.


दोहा के सम चरणों में गुरु-लघु पदांत होता है, सोरठा में यह पदांत बंधन विषम चरण में होता है. दोहा में 



विषम चरण के आरम्भ में 'जगण' वर्जित होता है जबकि सोरठा में सम चरणों में. इसलिए कहा जाता है-


दोहा उल्टे सोरठा, बन जाता - रच मीत.


दोनों मिलकर बनाते, काव्य-सृजन की रीत.


कहे सोरठा दुःख कथा:


सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) का कालजयी आख्यान को पूरी मार्मिकता के साथ गाकर 


दोहा लोक मानस में अम्र हो गया। कथा यह कि कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल 

अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में 

उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर 

उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया. मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किए पर उसे हरा नहीं सका। 

अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारन वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को 

मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के 

किनारे सती हो गयी। अनेक लोक गायक विगत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठों (दोहा का जुड़वाँ 

छंद) में गाते आ रहे हैं-


वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं.


सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या. 


दोहा की दुनिया से जुड़ने के लिए उत्सुक रचनाकारों को दोहा की विकास यात्रा की झलक दिखने का उद्देश्य 


यह है कि वे इस सच को जान और मान लें कि हर काल की अपनी भाषा होती है और आज के दोहाकार को 

आज की भाषा और शब्द उपयोग में लाना चाहिए। अब निम्न दोहों को पढ़कर आनंद लें- 


कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.

पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.


असन-बसन सुत नारि सुख, पापिह के घर होय.

संत समागम राम धन, तुलसी दुर्लभ होय. 


बांह छुड़ाकर जात हो, निबल जान के मोहि.

हिरदै से जब जाइगो, मर्द बदौंगो तोहि. - सूरदास 


पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार.

सब सिंगार रतनावली, इक पियु बिन निस्सार.


अब रहीम मुस्किल पडी, गाढे दोऊ काम.


सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम.


रोला और सोरठा 



सोरठा में दो पद, चार चरण, प्रत्येक पद-भार २४ मात्रा तथा ११ - १३ पर यति रोला की ही तरह होती है 


किन्तु रोला में विषम चरणों में गुरु-लघु चरणान्त बंधन नहीं होता जबकि सोरठा में होता है.


सोरठा तथा रोला में दूसरा अंतर पदान्त का है. रोला के पदांत या सम चरणान्त में दो गुरु होते हैं जबकि 

सोरठा में ऐसा होना अनिवार्य नहीं है.


सोरठा विषमान्त्य छंद है, रोला नहीं अर्थात सोरठा में पहले - तीसरे चरण के अंत में तुक साम्य अनिवार्य है, 

रोला में नहीं.


इन तीनों छंदों के साथ गीति काव्य सलिला में अवगाहन का सुख अपूर्व है.



दोहा के पहले-दूसरे और तीसरे-चौथे चरणों का स्थान परस्पर बदल दें अर्थात दूसरे को पहले की जगह तथा 


पहले को दूसरे की जगह रखें. इसी तरह चौथे को तीसरे की जाह तथा तीसरे को चौथे की जगह रखें तो 

रोला बन जायेगा. सोरठा में इसके विपरीत करें तो दोहा बन जायेगा. दोहा और सोरठा के रूप परिवर्तन से 

अर्थ बाधित न हो यह अवश्य ध्यान रखें 


दोहा: काल ग्रन्थ का पृष्ठ नव, दे सुख-यश-उत्कर्ष.

करनी के हस्ताक्षर, अंकित करें सहर्ष.


सोरठा- दे सुख-यश-उत्कर्ष, काल-ग्रन्थ का पृष्ठ नव.


अंकित करे सहर्ष, करनी के हस्ताक्षर.


सोरठा- जो काबिल फनकार, जो अच्छे इन्सान.


है उनकी दरकार, ऊपरवाले तुझे क्यों?


दोहा- जो अच्छे इन्सान है, जो काबिल फनकार.

ऊपरवाले तुझे क्यों, है उनकी दरकार?


दोहा तथा रोला के योग से कुण्डलिनी या कुण्डली छंद बनता है.


****************