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रविवार, 5 अक्टूबर 2025

अक्टूबर ५, पज्झटिका, सिंह, छंद, सूरज, लघुकथा, दुर्गा, नवगीत,

सलिल सृजन अक्टूबर ५
*
छंदशाला ३५
पज्झटिका छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल व डिल्ला छंद)
विधान
प्रति पद १६ मात्रा, पदांत बंधन नहीं, ८+गुरु+४+गुरु, चौकल वर्जित।
लक्षण छंद-
पज्झटिका मात्रा सोलह है।
अठ पे फिर चौ पे गुरु शुभ है।।
जगण न चौकल में आ पाए।
काव्य कसौटी जीत दिलाए।।
उदाहरण-
जन गण का मन हो न अब दुखी।
काम करे सरकार बहुमुखी।।
भ्रष्टाचार न हो अब हावी।
वैमनस्य हो भाग्य न भावी।।
सद्भावों को मौका देंगे।
किस्मत अपनी आप लिखेंगे।।
नहीं सियासत के गुलाम हो।
नव आशा के बीज नए बो।।
स्वेद-परिश्रम की जय बोलें।
उन्नति का ताला झट खोलें।।
४-१०-२०२२
•••
छंदशाला ३६
सिंह छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला व पज्झटिका छंद)
विधान
प्रति पद १६ मात्रा, आदि II अंत IIS ।
लक्षण छंद-
लघु पदादि दो, अंत सगण हो।
समधुर छंद सरस शुभ प्रण हो।।
सिंह शुभ नाम छंद का रखिए।
रचिए कहिए सुनिए गुनिए।।
उदाहरण
हिलमिलकर रह साथ विहँसिए।
सुमन सदृश खिल, खूब महकिए।।
तितली निर्भय उड़कर रस ले।
जग-जीवन का मौन निरखिए।।
शंकर रहता है कंकर में
ठुकरा कभी न नाहक तजिए।।
विजयादशमी जीतें खुद को
बिन कुछ माँगे प्रभु को भजिए।।
जिसके मन में चाहें रखना
उसके मन में खुद भी बसिए।।
वह न कहाँ है? सभी जगह है।
नयन मूँद मन मंदिर लखिए।।
अपना कौन?, कौन नहिं अपना?
सबमें वह, सबके बन रहिए।।
विजयादशमी
५-१०-२०२२
•••
विमर्श : छंद - संकुचन और विस्तार १
*
- छंद क्या?
= जो छा जाए वह छंद।
- क्या सर्वत्र छा सकता है
= प्रकाश?
- प्रकाश सर्वत्र छा सकता तो छाया तथा ग्रहण न होते। सर्वत्र छा सकती है ध्वनि या नाद।
= क्या ध्वनि या नाद छंद है?
- नहीं, ध्वनि छंद का मूल है। जब नाद की बार-बार आवृत्ति हो तो निनाद जन्मता है।
निनाद में लयखंड समाहित होता है।
लयखंड की आवृत्ति कर छंद रचना की जाती है।
निनाद के उच्चार को उच्चार काल की दृष्टि से लघु उच्चार तथा गुरु उच्चार में वर्गीकृत किया गया है।
सर्वमान्य है कि वाक् का व्यवस्थित रूप भाषा है।
प्रकृति में सन् सन्, कलकल, गर्जन आदि ध्वनियाँ अंतर्निहित हैं।
सृष्टि का जन्म ही नाद से हुआ है।
जीव जन्मते ही ध्वनि का उच्चार कर अपने पदार्पण का जयघोष करता है।
कलरव, कूक, दहाड़ आदि में रस, लय तथा भाव की अनुभूति की जा सकती है।
क्रौंच-क्रंदन की पीर ही प्रथम काव्य रचना का मूल है।
वाक् के उच्चार काल के आवृत्तिजनित समुच्चय विविध लयखंडों को जन्म देते हैं।
सार्थक लयखंड एक की अनुभूति को अन्यों तक संप्रेषित करते हैं।
लोक इन लय खंडों को प्रकृति तथा परिवेश (जीव-जंतु) से ग्रहण कर उनका दोहराव कर बेतार के तार की तरह स्वानुभूति को अभिव्यक्त और प्रेषित करता है।
क्रमशः
विमर्श : रेफ युक्त शब्द
राकेश खंडेलवाल
रेफ़ वाले शब्दों के उपयोग में अक्सर गलती हो जाती हैं। हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है। '
१. कर्म, धर्म, सूर्य, कार्य
२. प्रवाह, भ्रष्ट, ब्रज, स्रष्टा
३. राष्ट्र, ड्रा
जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है, जिसके ऊपर यह लगता है। रेफ़ के उपयोग में ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वर के ऊपर नहीं लगाया जाता। यदि अर्ध 'र' के बाद का वर्ण आधा हो, तब यह बाद वाले पूर्ण वर्ण के ऊपर लगेगा, क्योंकि आधा वर्ण में स्वर नहीं होता। उदाहरण के लिए कार्ड्‍‍स लिखना गलत है। कार्ड्स में ड् स्वर विहीन है, जिस कारण यह रेफ़ का भार वहन करने में असमर्थ है। इ और ई जैसे स्वरों में रेफ़ लगाने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए स्पष्ट है कि किसी भी स्वर के ऊपर रेफ़ नहीं लगता।
ब्रज या क्रम लिखने या बोलने में ऐसा लगता है कि यह 'र' की अर्ध ध्वनि है, जबकि यह पूर्ण ध्वनि है। इस तरह के शब्दों में 'र' का उच्चारण उस वर्ण के बाद होता है, जिसमें यह लगा होता है ,
जब भी 'र' के साथ नीचे से गोल भाग वाले वर्ण मिलते हैं, तब इसके /\ रूप क उपयोग होता है, जैसे-ड्रेस, ट्रेड, लेकिन द और ह व्यंजन के साथ 'र' के / रूप का उपयोग होता है, जैसे- द्रवित, द्रष्टा, ह्रास।
संस्कृत में रेफ़ युक्त व्यंजनों में विकल्प के रूप में द्वित्व क उपयोग करने की परंपरा है। जैसे- कर्म्म, धर्म्म, अर्द्ध। हिंदी में रेफ़ वाले व्यंजन को द्वित्व (संयुक्त) करने का प्रचलन नहीं है। इसलिए रेफ़ वाले शब्द गोवर्धन, स्पर्धा, संवर्धन शुद्ध हैं।
''जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है। '' के संबंध में नम्र निवेदन है कि रेफ कभी भी 'शब्द' पर नहीं लगाया जाता. शब्द के जिस 'अक्षर' या वर्ण पर रेफ लगाया जाता है, उसके पूर्व बोला या उच्चारित किया जाता है।
- संजीव सलिल:
''हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है.'' के संदंर्भ में निवेदन है कि हिन्दी में 'र' का संयुक्त रूप से प्रयोग चार तरीकों से होता है। उक्त अतिरिक्त ४. कृष्ण, गृह, घृणा, तृप्त, दृष्टि, धृष्ट, नृप, पृष्ठ, मृदु, वृहद्, सृष्टि, हृदय आदि। यहाँ उच्चारण में छोटी 'इ' की ध्वनि समाविष्ट होती है जबकि शेष में 'अ' की।
यथा: कृष्ण = krishn, क्रम = kram, गृह = ग्रिह grih, ग्रह = grah, श्रृंगार = shringar, श्रम = shram आदि।
राकेश खंडेलवाल :
एक प्रयोग और: अब सन्दर्भ आप ही तलाशें:
दोहा:-
सोऽहं का आधार है, ओंकार का प्राण।
रेफ़ बिन्दु वाको कहत, सब में व्यापक जान।१।
बिन्दु मातु श्री जानकी, रेफ़ पिता रघुनाथ।
बीज इसी को कहत हैं, जपते भोलानाथ।२।
हरि ओ३म तत सत् तत्व मसि, जानि लेय जपि नाम।
ध्यान प्रकाश समाधि धुनि, दर्शन हों बसु जाम।३।
बांके कह बांका वही, नाम में टांकै चित्त।
हर दम सन्मुख हरि लखै, या सम और न बित्त।४।
रेफ का अर्थ:
-- वि० [सं०√रिफ्+घञवार+इफन्] १. शब्द के बीच में पड़नेवाले र का वह रूप जो ठीक बाद वाले स्वरांत व्यंजन के ऊपर लगाया जाता है। जैसे—कर्म, धर्म, विकर्ण। २. र अक्षर। रकार। ३. राग। ४. रव। शब्द। वि० १. अधम। नीच। २. कुत्सित। निन्दनीय। -भारतीय साहित्य संग्रह.
-- पुं० [ब० स०] १. भागवत के अनुसार शाकद्वीप के राजा प्रियव्रत् के पुत्र मेधातिथि के सात पुत्रों में से एक। २. उक्त के नाम पर प्रसिद्ध एक वर्ष अर्थात् भूखंड।
रेफ लगाने की विधि : डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक', शब्दों का दंगल में
हिन्दी में रेफ अक्षर के नीचे “र” लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है?
यदि ‘र’ का उच्चारण अक्षर के बाद हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के नीचे लगेगी जिस के बाद ‘र’ का उच्चारण हो रहा है। यथा - प्रकाश, संप्रदाय, नम्रता, अभ्रक, चंद्र।
हिन्दी में रेफ या अक्षर के ऊपर "र्" लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र्’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ? “र्" का उच्चारण जिस अक्षर के पूर्व हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के ऊपर लगेगी जिस के पूर्व ‘र्’ का उच्चारण हो रहा है । उदाहरण के लिए - आशीर्वाद, पूर्व, पूर्ण, वर्ग, कार्यालय आदि ।
रेफ लगाने के लिए जहाँ पूर्ण "र" का उच्चारण हो रहा है वहाँ उस अक्षर के नीचे रेफ लगाना है जिसके पश्चात "र" का उच्चारण हो रहा है। जैसे - प्रकाश, संप्रदाय , नम्रता, अभ्रक, आदि में "र" का पूर्ण उच्चारण हो रहा है ।
*
६३ ॥ श्री अष्टा वक्र जी ॥
दोहा:-
रेफ रेफ तू रेफ है रेफ रेफ तू रेफ ।
रेफ रेफ सब रेफ है रेफ रेफ सब रेफ ॥१॥
*
१५२ ॥ श्री पुष्कर जी ॥
दोहा:-
रेफ बीज है चन्द्र का रेफ सूर्य का बीज ।
रेफ अग्नि का बीज है सब का रेफैं बीज ॥१॥
रेफ गुरु से मिलत है जो गुरु होवै शूर ।
तो तनकौ मुश्किल नहीं राम कृपा भरपूर ॥२॥
*
चलते-चलते : अंग्रेजी में रेफ का प्रयोग सन्दर्भ reference और खेल निर्णायक refree के लिये होता है.
***
बाल गीत
सूरज
*
पर्वत-पीछे झाँके ऊषा
हाथ पकड़कर आया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
धूप संग इठलाया सूरज।
*
योग कर रहा संग पवन के
करे प्रार्थना भँवरे के सँग।
पैर पटकता मचल-मचलकर
धरती मैडम हुईं बहुत तँग।
तितली देखी आँखमिचौली
खेल-जीत इतराया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
नाक बहाता आया सूरज।
*
भाता है 'जन गण मन' गाना
चाहे दोहा-गीत सुनाना।
झूला झूले किरणों के सँग
सुने न, कोयल मारे ताना।
मेघा देख, मोर सँग नाचे
वर्षा-भीग नहाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
झूला पा मुस्काया सूरज।
*
खाँसा-छींका, आई रुलाई
मैया दिशा झींक-खिसियाई।
बापू गगन डॉक्टर लाया
डरा सूर्य जब सुई लगाई।
कड़वी गोली खा, संध्या का
सपना देख न पाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
कॉमिक पढ़ हर्षाया सूरज।
५.१०.२०२१
***
कार्य शाला: दोहा / रोला / कुण्डलिया
*
तुहिन कणों से सज गए,किसलय कोमल फूल।
"दीपा" कैसे दिख रहे, धूल सने सब शूल।। - माँ प्रदीपा
धूल सने सब शूल, त्रास दे त्रास पा रहे।
दे परिमल सब सुमन, जगत का प्यार पा रहे।।
सुलझे कोई प्रश्न, कभी कब कहाँ रणों से।
किसलय कोमल फूल सज गए तुहिन कणों से।। - संजीव
*
मन का डूबा डूबता , बोझ अचिन्त्य विचार ।
चिन्तन का श्रृंगार ही , देता इसे उबार ॥ -शंकर ठाकुर चन्द्रविन्दु देता इसे उबार, राग-वैराग साथ मिल। तन सलिला में कमल, मनस का जब जाता खिल।। चंद्रबिंदु शिव भाल, सोहता सलिल-धार बन। उन्मन भी हो शांत, लगे जब शिव-पग में मन।। -संजीव
*
शब्द-शब्द प्रांजल हुए, अनगिन सरस श्रृंगार।
सलिल सौम्य छवि से द्रवित, अंतर की रसधार।।-अरुण शर्मा
अंतर की रसधार, न सूखे स्नेह बढ़ाओ।
मिले शत्रु यदि द्वार, न छोड़ो मजा चखाओ।।
याद करे सौ बरस, रहकर वह बे-शब्द।
टेर न पाए खुदा को, बिसरे सारे शब्द।। - संजीव
५.१०.२०१८
***
लघुकथाएँ
सियाह लहरें
*
दस नौ आठ सात
उलटी गिनती आरम्भ होते ही सबके हृदयों की धड़कनें तेज हो गयीं। अनेक आँखें स्क्रीन पर गड गयीं। कुछ परदे पर दुःख रही नयी रेखा को देख रहे थे तो कुछ हाथों में कागज़ पकड़े परदे पर बदलते आंकड़ों के साथ मिलान कर रहे थे। कुछ अन्य कक्ष में बैठे अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों को कुछ बता रहे थे।
दूरदर्शन के परदे पर अग्निपुंज के बीच से निकलता रॉकेट। नील गगन के चीरता बढ़ता गया और पृथ्वी के परिपथ के समीप दूसरा इंजिन आरम्भ होते ही परिपथ में प्रविष्ट हो गया। आनंद से उछल पड़े वे सब।
प्रधान मंत्री, रक्षा मंत्री आदि ने प्रमुख वैज्ञानिक, उनके पूरे दल और सभी कर्मचारियों को बधाई देते हुए अल्प साधनों, निर्धारित से कम समय तथा पहले प्रयास में यह उपलन्धि पाने को देश का गौरव बताया। आसमान पर इस उपलब्धि का डंका पीट रही थीं रहीं थीं रॉकेट के जले ईंधन से बनी फैलती जा रही सियाह लहरें।
*
टुकड़े स्पात के
*
धाँय धाँय धाँय
भारी गोलाबारी ने काली रात को और अधिक भयावह बना दिया था किन्तु वे रेगिस्तान की रेत के बगुलों से भरी अंधी में भी अविचलित दुश्मन की गोलियों का जवाब दे रहे थे। अन्तिम पहर में दहशत फैलाती भरी आवाज़ सुनकर एक ने झरोखे से झाँका और घुटी आवाज़ में चीखा 'उठो, टैंक दस्ता'। पल भर में वे सब अपनी मशीन गनें और स्टेन गनें थामे हमले के लिये तैयार थे। चौकी प्रभारी ने कमांडर से सम्पर्क कर स्थिति की जानकारी दी, सवेरे के पहले मदद मिलना असम्भव था।
कमांडर ने चौकी खाली करने को कहा लेकिन चौकी पर तैनात टुकड़ी के हर सदस्य ने मना करते हुए आखिरी सांस और खून की आखिरी बूँद तक संघर्ष का निश्चय किया। प्रभारी ने दोपहर तह मुट्ठी भर जवानों के साथ दुश्मन की टैंक रेजमेंट का सामना करने की रणनीति के तहत सबको खाई और बंकरों में छिपने और टैंकों के सुरक्षित दूरी तक आने के पहले के आदेश दिए।
पैदल सैनिकों को संरक्षण (कवर) देते टैंक सीमा के समीप तक आ गये। एक भी गोली न चलने से दुश्मन चकित और हर्षित था कि बिना कोई संघर्ष किये फतह मिल गयी। अचानक 'जो बोले सो निहाल' की सिंह गर्जना के साथ टुकड़ी के आधे सैनिक शत्रु के जवानों पर टूट पड़े, टैंक इतने समीप आ चुके थे कि उनके गोले टुकड़ी के बहुत पीछे गिर रहे थे। दुश्मन सच जान पाता इसके पहले ही टुकड़ी के बाकी जवान हथगोले लिए टैंकों के बिलकुल निकट पहुँच गए और जान की बाजी लगाकर टैंक चालकों पर दे मारे। धू-धू कर जलते टैंकों ने शत्रु के फौजियों का हौसला तोड़ दिया। प्राची में उषा की पहली किरण के साथ वायुयानों ने उड़ान भरी और उनकी सटीक निशानेबाजी से एक भी टैंक न बच सका। आसमान में सूर्य चमका तो उसे भी मुट्ठी भर जवानों को सलाम करना पड़ा जिनके अद्भुत पराक्रम की साक्षी दे रहे थे मरे हुए शत्रु जवान और जलते टैंकों के इर्द-गिर्द फैले स्पात के टुकड़े।
५.९.२०१६
***
दोहा:
(मात्रिक छंद, १३-११)
*
दर्शन कर कैलाश के, पढ़ गीता को नित्य
मात-पिता जब हों सदय, शिशु को मिलें अनित्य
५.९.२०१५
***
गीत:
आराम चाहिए...
*
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
प्रजातंत्र के बादशाह हम,
शाहों में भी शहंशाह हम.
दुष्कर्मों से काले चेहरे
करते खुद पर वाह-वाह हम.
सेवा तज मेवा के पीछे-
दौड़ें, ऊँचा दाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
पुरखे श्रमिक-किसान रहे हैं,
मेहनतकश इन्सान रहे हैं.
हम तिकड़मी,घोर छल-छंदी-
धन-दौलत अरमान रहे हैं.
देश भाड़ में जाए हमें क्या?
सुविधाओं संग काम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
स्वार्थ साधते सदा प्रशासक.
शांति-व्यवस्था के खुद नाशक.
अधिनायक हैं लोकतंत्र के-
हम-वे दुश्मन से भी घातक.
अवसरवादी हैं हम पक्के
लेन-देन बेनाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
सौदे करते बेच देश-हित,
घपले-घोटाले करते नित.
जो चाहो वह काम कराओ-
पट भी अपनी, अपनी ही चित.
गिरगिट जैसे रंग बदलते-
हमको ऐश तमाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
वादे करते, तुरत भुलाते.
हर अवसर को लपक भुनाते.
हो चुनाव तो जनता ईश्वर-
जीत उन्हें ठेंगा दिखलाते.
जन्म-सिद्ध अधिकार लूटना
'सलिल' स्वर्ग सुख-धाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
५.९.२०१४
***
प्रतिपदा पर शुभकामना सहित
दोहा सलिला
दुर्गा दुर्गतिनाशिनी
*
दुर्गा! दुर्गतिनाशिनी, दक्षा दयानिधान
दुष्ट-दंडिनी, दध्यानी, दयावती द्युतिवान
*
दीपक दीपित दयामयि!, दिव्याभित दिनकांत
दर्प-दर्द-दुःख दमित कर, दर्शन दे दिवसांत
*
देह दुर्ग दुर्गम दिपे, दिनकरवत दिन-रात
दुश्मन&दल दहले दिखे, दलित&दमित जग&मात
*
दमन] दैत्य दुरित दनुज, दुर्नामी दुर्दांत
दयित दितिज दुर्दम दहक, दम तोड़ें दिग्भ्रांत
*
दंग दंगई दबदबा,देख देवि-दक्षारि
दंभी-दर्पी दग्धकर, हँसे शिव-दनुजारि
*
दर्शन दे दो दक्षजा, दयासिन्धु दातार
दीप्तिचक्र दीननाथ दे, दिप-दिप दीपाधार
*
दीर्घनाद-दुन्दुभ दिवा, दिग्दिगंत दिग्व्याप्त
दिग्विजयी दिव्यांगना, दीक्षा दे दो आप्त
*
दिलावरी दिल हारना, दिलाराम से प्रीत
दिवारात्रि -दीप्तान्गिनी, दिल हारे दिल जीत
*
दया&दृष्टि कर दो दुआ, दिल से सहित दुलार
देइ! देशना दिव्या दो, देश-धर्म उपहार
=========================
दध्यानी = सुदर्शन, दमनक = दमनकर्ता, त्य = दनुज= राक्षस, दुरित = पापी, दुर्दम =अदम्य, दातार = ईश्वर, दीर्घनाद = शंख, दुन्दुभ = नगाड़ा, दियना = दीपक, दिलावरी = वीरता, दिलाराम व प्रेमपात्र, दिवारात्रि = दिन-रात, देइ = देवी, देशना = उपदेश
***
नव गीत
*
हम सब
माटी के पुतले है...
*
कुछ पाया
सोचा पौ बारा.
फूल हर्ष से
हुए गुबारा.
चार कदम चल
देख चतुर्दिक-
कुप्पा थे ज्यों
मैदां मारा.
फिसल पड़े तो
सच जाना यह-
बुद्धिमान बनते,
पगले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
भू पर खड़े,
गगन को छूते.
कुछ न कर सके
अपने बूते.
बने मिया मिट्ठू
अपने मुँह-
खुद को नाहक
ऊँचा कूते.
खाई ठोकर
आँख खुली तो
देखा जिधर
उधर घपले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
नीचे से
नीचे को जाते.
फिर भी
खुद को उठता पाते.
आँख खोलकर
स्वप्न देखते-
फिरते मस्ती
में मदमाते.
मिले सफलता
मिट्टी लगती.
अँधियारे
लगते उजले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
१-१०-२००९

*** 

शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

जुलाई २, दोहा, ग्रंथि छंद, समान छंद, चित्रगुप्त, कायस्थ, पोयम, फ्रेंड, सूरज, गीत, मुक्तिका

छंद चर्चा:
दोहा गोष्ठी:
*
सूर्य-कांता कह रही, जग!; उठ कर कुछ काम।
चंद्र-कांता हँस कहे, चल कर लें विश्राम।।
*
सूर्य-कांता भोर आ, करती ध्यान अडोल।
चंद्र-कांता साँझ सँग, हँस देती रस घोल।।
*
सूर्य-कांता गा रही, गौरैया सँग गीत।
चंद्र-कांता के हुए, जगमग तारे मीत।।
*
सूर्य-कांता खिलखिला, हँसी सूर्य-मुख लाल।
पवनपुत्र लग रहे हो, किसने मला गुलाल।।
*
चंद्र-कांता मुस्कुरा, रही चाँद पर रीझ।
पिता गगन को देखकर, चाँद सँकुचता खीझ।।
*
सूर्य-कांता मुग्ध हो, देखे अपना रूप।
सलिल-धार दर्पण हुई, सलिल हो गया भूप।।
*
चंद्र-कांता खेलती, सलिल-लहरियों संग।
मन मसोसता चाँद है, देख कुशलता दंग।।
*
सूर्य-कांता ने दिया, जग को कर्म सँदेश।
चंद्र-कांता से मिला, 'शांत रहो' निर्देश।।
२-७-२०१८
टीप: उक्त द्विपदियाँ दोहा हैं या नहीं?, अगर दोहा नहीं क्या यह नया छंद है?
मात्रा गणना के अनुसार प्रथम चरण में १२ मात्राएँ है किन्तु पढ़ने पर लय-भंग नहीं है। वाचिक छंद परंपरा में ऐसे छंद दोषयुक्त नहीं कहे जाते, चूँकि वाचन करते हुए समय-साम्य स्थापित कर लिया जाता है।
कथ्य के पश्चात ध्वनिखंड, लय, मात्रा व वर्ण में से किसे कितना महत्व मिले? आपके मत की प्रतीक्षा है।
***
मुक्तिका
*
उन्नीस मात्रिक महापौराणिक जातीय ग्रंथि छंद
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
*
खौलती खामोशियों कुछ तो कहो
होश खोते होश सी चुप क्यों रहो?
*
स्वप्न देखो तो करो साकार भी
राह की बढ़ा नहीं चुप हो सहो
*
हौसलों के सौं नहीं मन मारना
हौसले सौ-सौ जियो, मत खो-ढहो
*
बैठ आधी रात संसद जागती
चैन की लो नींद, कल कहना अहो!
*
आ गया जी एस टी, अब देश में
साथ दो या दोष दो, चुप तो न हो
***
चिंतन और चर्चा-
चित्रगुप्त और कायस्थ
*
चित्रगुप्त अर्थात वह शक्ति जिसका चित्र गुप्त (अनुपलब्ध) है अर्थात नहीं है। चित्र बनाया जाता है आकार से, आकार काया (बॉडी) का होता है। काया बनती और नष्ट होती है। काया बनानेवाला, उसका उपयोग करनेवाला और उसे नष्ट करनेवाला कोई अन्य होता है। काया नश्वर होती है। काया का आकार (शेप) होता है जिसे मापा, नापा या तौला जा सकता है। काया का चित्र गुप्त नहीं प्रगट या दृश्य होता है। चित्रगुप्त का आकार तथा परिमाप नहीं है। स्पष्ट है कि चित्रगुप्त वह आदिशक्ति है जिसका आकार (शेप) नहीं है अर्थात जो निराकार है. आकार न होने से परिमाप (साइज़) भी नहीं हो सकता, जो किसी सीमा में नहीं बँधता वही असीम होता है और मापा नहीं जा सकता।आकार के बनने और मिटने की तिथि और स्थान, निर्माता तथा नाशक होते हैं। चित्रगुप्त निराकार अर्थात अनादि, अनंत, अक्षर, अजर, अमर, असीम, अजन्मा, अमरणा हैं। ये लक्षण परब्रम्ह के कहे गए हैं। चित्रगुप्त ही परब्रम्ह हैं।
.
"चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनां" उन चित्रगुप्त को सबसे पहले प्रणाम जो सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं। 'आत्मा सो परमात्मा' अत: चित्रगुप्त ही परमात्मा हैं। इसलिए चित्रगुप्त की कोई मूर्ति, कथा, कहानी, व्रत, उपवास, मंदिर आदि आदिकाल से ३०० वर्ष पूर्व तक नहीं बनाये गए जबकि उनके उपासक समर्थ शासक-प्रशासक थे। जब-जिस रूप में किसी दैवीय शक्ति की पूजा, उपासना, व्रत, कथा आदि हुई वह परोक्षत: चित्रगुप्त जी की ही हुई क्योंकि उनमें चित्रगुप्त जी की ही शक्ति अन्तर्निहित थी। विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा भारतीय शिक्षा संस्थानों को नष्ट करने और विद्वानों की हत्या के फलस्वरूप यह अद्वैत चिन्तन नष्ट होने लगा और अवतारवाद की संकल्पना हुई। इससे तात्कालिक रूप से भक्ति के आवरण में पीड़ित जन को सान्तवना मिली किन्तु पुष्ट वैचारिक आधार विस्मृत हुआ।अन्य मतावलंबियों का अनुकरण कर निराकार चित्रगुप्त की भी साकार कल्पना कर मूर्तियाँ और मंदिर बांये गए। वर्तमान में उपलब्ध सभी मूर्तियाँ और मंदिर मुग़ल काल और उसके बाद के हैं जबकि कायस्थों का उल्लेख वैदिक काल से है।
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"कायास्थित: स: कायस्थ:' अर्थात जब वह (परब्रम्ह) किसी काया में स्थित होता है तो उसे कायस्थ कहते हैं" तदनुसार सकल सृष्टि और उसका कण-कण कायस्थ है। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, वनस्पतियाँ और अदृश्य जीव-जंतु भी कायस्थ है। व्यावहारिक दृष्टि से इस अवधारणा को स्वीकारकर जीनेवाला ही 'कायस्थ' है। तदनुसार कायस्थवाद मानवतावाद और वैशिवाकता से बहुत आगे सृष्टिवाद है। 'वसुधैव कुटुम्बकम', 'विश्वेनीडम', 'ग्लोबलाइजेशन', वैश्वीकरण आदि अवधारणायें कायस्थवाद का अंशमात्र है। अपने उदात्त रूप में 'कायस्थ' विश्व मानव है।
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देवता: वेदों में ३३ प्रकार के देवता (१२ आदित्य, १८ रूद्र, ८ वसु, १ इंद्र, और प्रजापति) ही नहीं श्री देवी, उषा, गायत्री आदि अन्य अनेक और भी अन्य पूज्य शक्तियाँ वर्णित हैं। मूलत: प्राकृतिक शक्तियों को दैवीय (मनुष्य के वश में न होने के कारण) देवता माना गया। इनके अमूर्त होने के कारण इनकी शक्तियों के स्वामी की कल्पना कर वरुण आदि देवों और देवों के राजा की कल्पना हुई। अमूर्त को मूर्त रूप देने के साथ मनुष्य आकृति और मनुष्य के गुणावगुण उनमें आरोपित कर अनेक कल्पित कथाएँ प्रचलित हुईं।प्रवचनकर्ताओं की इं कल्पित कथाओं ने यजमानों को संतोष और कथा वाचक को उदार पोषण का साधन तो दिया किन्तु धर्म की वैज्ञानिकता और प्रमाणिकता को नष्ट भी किया।
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आत्मा सो परमात्मा, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर सो शंकर, कंकर-कंकर में शंकर, शिवोहं, अहम ब्रम्हास्मि जैसी उक्तियाँ तो हर कण को ईश्वर कहती हैं। आचार्य रजनीश ने खुद को 'ओशो' कहा और आपत्तिकर्ताओं को उत्तर दिया कि तुम भी 'ओशो' हो अंतर यह है कि मैं जानता हूँ कि मैं 'ओशो' हूँ, तुम नहीं जानते। हर व्यक्ति अपने वास्वतिक दिव्य रूप को जानकार 'ओशो' हो सकता है।
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रामायण महाभारत ही नहीं अन्य वेद, पुराण, उपनिषद, आगम, निगम, ब्राम्हण ग्रन्थ आदि भी न केवल इतिहास हैं, न आख्यान या गल्प। भारत में सृजन दार्शनिक चिंतन पर आधारित रहा है। ग्रंथों में पश्चिम की तरह व्यक्तिपरकता नहीं है, यहाँ मूल्यात्मक चिंतन प्रमुख है। दृष्टान्तों या कथाओं का प्रयोग किसी चिंतनधारा को आम लोगों तक प्रत्यक्ष या परोक्षतः पहुँचाने के लिए किया गया है। अतः, सभी ग्रंथों में इतिहास, आख्यान, दर्शन और अन्य शाखाओं का मिश्रण है।
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देवताओं को विविध आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। यथा: जन्मा - अजन्मा, आर्य - अनार्य, वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक, सतयुगीन - त्रेतायुगीन - द्वापरयुगीन कलियुगीन, पुरुष देवता- स्त्री देवता, सामान्य मनुष्य की तरह - मानवेतर, पशुरूपी-मनुष्यरूपी आदि।यह भी सत्य है की देवता और दानव, सुर और असुर कहीं सहोदर और कहीं सहोदर न होने पर भी बंधु-बांधव हैं। सर्व सामान्य के लिए शुभकारक हुए तो देव, अशुभकारक हुए तो दानव। शुभ और अशुभ दोनों ही कर्म हैं। कर्म है तो उसका फल और फलदाता भी होगा ही। सकल प्राकृतिक शक्तियों, उनके स्वामियों और स्वामियों के विरोधियों के साथ-साथ जनसामान्य और प्राणिमात्र के कर्मों के फल का निर्धारण वही कर सकता है जिसने उन्हें उत्पन्न किया हो। इसलिए चित्रगुप्त ही कर्मफल दाता या पाप-पुण्य नियामक है।
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फल देनेवाले या सर्वोच्च निर्णायक को निष्पक्ष भी होना होगा। वह अपने आराधकों के दुर्गुण क्षमा करे और अन्यों के सद्गुणों को भुला दे, यह न तो उचित है, न संभव। इसलिए उसे सकल पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार, कथा-वार्ता, यज्ञ-हवन आदि मानवीय उपासनापद्धतियों से ऊपर और अलग रखना ही उचित है। ये सब मनुष्य के करती हैं जिन्हें मनुष्येतर जीव नहीं कर सकते। मनुष्य और मनुष्येतर जीवों के कर्म के प्रति निष्पक्ष रहकर फल निर्धारण तभी संभव है जब निर्णायक इन सबसे दूर हो। चित्र गुप्त को इसीलिए कर्म काण्ड से नहीं जोड़ा गया। कालांतर में अन्यों की नकल कर और अपने वास्विक रूप को भूलकर भले ही कायस्थ इस ओर प्रवृत्त हुए।
२-७-२०१७
***
एक रचना
*
येन-केन जीते चुनाव हम
बनी हमारी अब सरकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
*
हम भाषा के मालिक, कर सम्मेलन ताली बजवाएँ
टाँगें चित्र मगर रचनाकारों को बाहर करवाएँ
है साहित्य न हमको प्यारा, भाषा के हम ठेकेदार
भाषा करे विरोध न किंचित, छीने अंक बिना आधार
अंग्रेजी के अंक थोपकर, हिंदी पर हम करें प्रहार
भेज भाड़ में उन्हें, आज जो हैं हिंदी के रचनाकार
लिखो प्रशंसा मात्र हमारी
जो, हम उसके पैरोकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
*
जो आलोचक उनकी कलमें तोड़, नष्ट कर रचनाएँ
हम प्रशासनिक अफसर से, साहित्य नया ही लिखवाएँ
अब तक तुमने की मनमानी, आई हमारी बारी है
तुमसे ज्यादा बदतर हों हम, की पूरी तैयारी है
सचिवालय में भाषा गढ़ने, बैठा हर अधिकारी है
छुटभैया नेता बन बैठा, भाषा का व्यापारी है
हमें नहीं साहित्य चाहिए,
नहीं असहमति है स्वीकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
२-७-२०१६
***
नवगीत:
*
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
चैन तुम बिन?
नहीं गवारा है.
दर्द जो भी मिले
मुझे सहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
रात-दिन बिन
रुके पुकारा है
याद की चादरें
रुचा तहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
मुस्कुरा दो कि
कल हमारा है
आसुँओं का न
पहनना गहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
हर कहीं तुझे
ही निहारा है
ढाई आखर ही
तुझसे है कहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
दिल ने दिल को
सतत गुहारा है
बूँद बन 'सलिल'
संग ही बहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
***
मुक्तिका:
*
हाथ माटी में सनाया मैंने
ये दिया तब ही बनाया मैंने
खुद से खुद को न मिलाया मैंने
या खुदा तुझको भुलाया मैंने
बिदा बहनों को कर दिया लेकिन
किया उनको ना पराया मैंने
वक़्त ने लाखों दिये ज़ख्म मगर
नहीं बेकस को सताया मैंने
छू सकूँ आसमां को इस खातिर
मन को फौलाद बनाया मैंने
***
कविता-प्रतिकविता
* रामराज फ़ौज़दार 'फौजी'
जाने नहिं पीर न अधीरता को मान करे
अइसी बे-पीर से लगन लगि अपनी
अपने ही चाव में, मगन मन निशि-दिनि
तनिक न सुध करे दूसरे की कामिनी
कठिन मिताई के सताये गये 'फौजी' भाई
समय न जाने, गाँठे रोब बड़े मानिनी
जीत बने न बने मरत कहैं भी कहा
जाने कौन जन्मों की भाँज रही दुश्मनी
*
संजीव
राम राज सा, न फौजदार वन भेज सके
काम-काज छोड़ के नचाये नाच भामिनि
कामिनी न कोई आँखों में समा सके कभी
इसीलिये घूम-घूम घेरे गजगामिनी
माननी हो कामिनी तो फ़ौजी कर जोड़े रहें
रूठ जाए 'मावस हो, पूनम की यामिनी
जामिनि न कोई मिले कैद सात जनमों की
दे के, धमका रही है बेलन से नामनी
(जामनी = जमानत लेनेवाला, नामनी = नामवाला, कीर्तिवान)
२-७-२०१५
***
छंद सलिला:
​सवाई /समान छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १६-१६, पदांत गुरु लघु लघु ।
लक्षण छंद:
हर चरण समान रख सवाई / झूम झूमकर रहा मोह मन
गुरु लघु लघु ले पदांत, यति / सोलह सोलह रख, मस्त मगन
उदाहरण:
१. राय प्रवीण सुनारी विदुषी / चंपकवर्णी तन-मन भावन
वाक् कूक सी, केश मेघवत / नैना मानसरोवर पावन
सुता शारदा की अनुपम वह / नृत्य-गान, शत छंद विशारद
सदाचार की प्रतिमा नर्तन / करे लगे हर्षाया सावन
२. केशवदास काव्य गुरु पूजित,/ नीति धर्म व्यवहार कलानिधि
रामलला-नटराज पुजारी / लोकपूज्य नृप-मान्य सभी विधि
भाषा-पिंगल शास्त्र निपुण वे / इंद्रजीत नृप के उद्धारक
दिल्लीपति के कपटजाल के / भंजक- त्वरित बुद्धि के साधक
३. दिल्लीपति आदेश: 'प्रवीणा भेजो' नृप करते मन मंथन
प्रेयसि भेजें तो दिल टूटे / अगर न भेजें_ रण, सुख भंजन
देश बचाने गये प्रवीणा /-केशव संग करो प्रभु रक्षण
'बारी कुत्ता काग मात्र ही / करें और का जूठा भक्षण
कहा प्रवीणा ने लज्जा से / शीश झुका खिसयाया था नृप
छिपा रहे मुख हँस दरबारी / दे उपहार पठाया वापि
२-७-२०१३
***
दोस्त / FRIEND
दोस्त
POEM : FRIEND
You came into my life as an unwelcome face,
Not ever knowing our friendship, I would one day embrace.
As I wonder through my thoughts and memories of you,
It brings many big smiles and laughter so true.
I love the special bond that we beautifully share,
I love the way you show you really care,
Our friendship means the absolute world to me,
I only hope this is something I can make you see.
Thankyou for opening your mind and your souls,
I wiee do all I can to help heal your hearts little holes.
Remember, your secrects are forever safe within me,
I will keep them under the tightest lock and key.
Thankyou for trusting me right from the start.
You truely have got a wonderful heart.
I am now so happy I felt that embrace.
For now I see the beauty of my best friend's face...
*********************
***
SMILE ALWAYS
Inside the strength is the laughter.
Inside the strength is the game.
Inside the strength is the freedom.
The one who knows his strength knows the paradise.
All which appears over your strengths is not necessarily Impossible,
but all which is possible for the human cannot be over your strengths.
Know how to smile :
What a strength of reassurance,
Strength of sweetness, peace,
Strength of brilliance !
May the wings of the butterfly kiss the sun
and find your shoulder to light on...
to bring you luck
happiness and cheers
smile always
२-७-२०१२
***
-: मुक्तिका :-
सूरज - १
*
उषा को नित्य पछियाता है सूरज.
न आती हाथ गरमाता है सूरज..
धरा समझा रही- 'मन शांत करले'
सखी संध्या से बतियाता है सूरज..
पवन उपहास करता, दिखा ठेंगा.
न चिढ़ता, मौन बढ़ जाता है सूरज..
अरूपा का लुभाता रूप- छलना.
सखी संध्या पे मर जाता है सूरज..
भटककर सच समझ आता है आखिर.
निशा को चाह घर लाता है सूरज..
नहीं है 'सूर', नाता नहीं 'रज' से
कभी क्या मन भी बहलाता है सूरज?.
करे निष्काम निश-दिन काम अपना.
'सलिल' तब मान-यश पाता है सूरज..
*
सूरज - २
चमकता है या चमकाता है सूरज?
बहुत पूछा न बतलाता है सूरज..
तिमिर छिप रो रहा दीपक के नीचे.
कहे- 'तन्नक नहीं भाता है सूरज'..
सप्त अश्वों की वल्गाएँ सम्हाले
कभी क्या क्लांत हो जाता है सूरज?
समय-कुसमय सभी को भोगना है.
गहन में श्याम पड़ जाता है सूरज..
न थक-चुक, रुक रहा, ना हार माने,
डूब फिर-फिर निकल आता है सूरज..
लुटाता तेज ले चंदा चमकता.
नया जीवन 'सलिल' पाता है सूरज..
'सलिल'-भुजपाश में विश्राम पाता.
बिम्ब-प्रतिबिम्ब मुस्काता है सूरज..
*
सूरज - ३
शांत शिशु सा नजर आता है सूरज.
सुबह सचमुच बहुत भाता है सूरज..
भरे किलकारियाँ बचपन में जी भर.
मचलता, मान भी जाता है सूरज..
किशोरों सा लजाता-झेंपता है.
गुनगुना गीत शरमाता है सूरज..
युवा सपने न कह, खुद से छिपाता.
कुलाचें भरता, मस्ताता है सूरज..
प्रौढ़ बोझा उठाये गृहस्थी का.
देख मँहगाई डर जाता है सूरज..
चांदनी जवां बेटी के लिये वर
खोजता है, बुढ़ा जाता है सूरज..
न पलभर चैन पाता ज़िंदगी में.
'सलिल' गुमसुम ही मर जाता है सूरज..
२-७-२०११
***
गीत:
प्रेम कविता...
*
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम कविता को लिखा जाता नहीं है.
प्रेम होता है किया जाता नहीं है..
जन्मते ही सुत जननि से प्रेम करता-
कहो क्या यह प्रेम का नाता नहीं है?.
कृष्ण ने जो यशोदा के साथ पाला
प्रेम की पोथी का उद्गाता वही है.
सिर्फ दैहिक मिलन को जो प्रेम कहते
प्रेममय गोपाल भी
क्या दिख सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम से हो क्षेम?, आवश्यक नहीं है.
प्रेम में हो त्याग, अंतिम सच यही है..
भगत ने, आजाद ने जो प्रेम पाला.
ज़िंदगी कुर्बान की, देकर उजाला.
कहो मीरां की करोगे याद क्या तुम
प्रेम में हो मस्त पीती गरल-प्याला.
और वह राधा सुमिरती श्याम को जो
प्रेम क्या उसका कभी
कुछ चुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
अपर्णा के प्रेम को तुम जान पाये?
सिया के प्रिय-क्षेम को अनुमान पाये?
नर्मदा ने प्रेम-वश मेकल तजा था-
प्रेम कैकेयी का कुछ पहचान पाये?.
पद्मिनी ने प्रेम-हित जौहर वरा था.
शत्रुओं ने भी वहाँ थे सिर झुकाए.
प्रेम टूटी कलम का मोहताज क्यों हो?
प्रेम कब रोके किसी के
रुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
२-७-२०१०

* 

शनिवार, 14 जून 2025

जून १४, सदोका, दोहा मुक्तिका, भारत, हास्य, बाल गीत, सूरज, आम, गीत, लघुकथा

सलिल सृजन जून १४
*
दोहा सलिला . एक प्रगट हो शून्य से, चित्र गुप्त पहचान। लीन शून्य में सृष्टि हो, एक वही गुणवान।। . दो होकर भी एक हों, अगर नहीं तो सूर। तन-मन नर-नारी सतत, रहें द्वैत से दूर।। . तीन काल संघर्ष कर, जयी करें सुविचार। गत-आगत की फ़िक्र तज, अब सबका आधार।। . चार आश्रम वेद युग, वर्ण धर्म का मर्म। सहज सधे सो साध ले, हो न सख्त रह नर्म।। . पंच तत्व मय देह से, करें काम निष्काम। मन में नित विश्वास रख, भला करेंगे राम।। . षड् रागों को सीखना, खटरागी का ध्येय। ज्ञेय नहीं दिखता कभी, सहज दिखे अज्ञेय।। . सप्त स्वरों से सृजित हों, सरगम-स्वर रस-खान। नीरस वंचित सुखों से, सरस्वती रसवान।। . अआठ भुजा सामर्थ्य की, परिचायक बलवान। अष्ट प्रहर दिन-रात हो, कहें समय गतिवान।। . नौ दु्र्गा नौ शक्तियाँ, सकें सफलता चूम। जोड़-घटा, गुणा-भाग कर, नौ रस की ही धूम।। . दश रथ हैं दस इंद्रियाँ, दस दिश जाएँ व्याप। एक-शून्य चुप कह रहे,निज-पर सब वह आप।। १४.६.२०२५

सदोका सलिला
*
ई​ कविता में
करते काव्य स्नान ​
कवि​-कवयित्रियाँ।
सार्थक​ होता
जन्म निरख कर
दिव्य भाव छवियाँ।१।
*
ममता मिले
मन-कुसुम खिले,
सदोका-बगिया में।
क्षण में दिखी
छवि सस्मित मिले
कवि की डलिया में।२।
*
​न​ नौ नगद ​
न​ तेरह उधार,
लोन ले, हो फरार।
मस्तियाँ कर
किसी से मत डर
जिंदगी है बहार।३।
*
धूप बिखरी
कनकाभित छवि
वसुंधरा निखरी।
पंछी चहके
हुलस, न बहके
सुनयना सँवरी।४।
* ​
श्लोक गुंजित
मन भाव विभोर,
पूज्य माखनचोर।
उठा हर्षित
सक्रिय नीरव भी
क्यों हो रहा शोर?५।
*
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।६।
*
गुलाबी हाथ
मृणाल अंगुलियाँ
कमल सा चेहरा।
गुलाब थामे
चम्पा सा बदन
सुंदरी या बगिया?७।
१४-६-२०२२
***
सामयिक दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..
योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..
आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..
बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार
राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..
अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..
जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?
सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..
सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..
लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..
'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..
***
मैं भारत हूँ
सुमन पुष्पा भी न था, तूफान आया
विनत था हो प्रबल सँग सैलाब लाया
बिजलियाँ दिल पर गिरीं, संसार उजड़े
बेरहम कह सफलता फिर मुस्कुराया
सोचता है जीत मुझको वह लिखेगा
फिर नया इतिहास देवों सम दिखेगा
सदा दानव चाहते हैं अमर होना
मिले सत्ता तो उसे चाहें न खोना
सोच यह लिखती पतन की पटकथा है
चतुर्दिक जातीं बिखर बेबस व्यथा है
मैं भारत हूँ, देखता जन जागता है
देश को ही इष्ट अपना मानता है
आह हो एकत्र, बनती आग सूरज
शिखर होते धूसरित, झट रौंदती रज
मैं भारत हूँ, भाग्य अपना आप लिखता
मैं भारत हूँ, जगत् गुरु फिर श्रेष्ठ दिखता
काल जन को टेरता है जाग जाओ
करो फिर बदलाव भारत को बचाओ
१४-६-२०२१
***
हास्य रचना:
मेरी श्वास-श्वास में कविता
*
मेरी श्वास-श्वास में कविता
छींक-खाँस दूँ तो हो गीत।
युग क्या जाने खर्राटों में
मेरे व्याप्त मधुर संगीत।
पल-पल में कविता कर देता
पहर-पहर में लिखूँ निबंध।
मुक्तक-क्षणिका क्षण-क्षण होते
चुटकी बजती काव्य प्रबंध।
रस-लय-छंद-अलंकारों से
लेना-देना मुझे नहीं।
बिंब-प्रतीक बिना शब्दों की
नौका खेना मुझे यहीं।
धुंआधार को नाम मिला है
कविता-लेखन की गति से।
शारद भी चकराया करतीं
हैं; मेरी अद्भुत मति से।
खुद गणपति भी हार गए हैं
कविता सुन लिख सके नहीं।
खोजे-खोजे अर्थ न पाया
पंक्ति एक बढ़ सके नहीं।
एक साल में इतनी कविता
जितने सर पर बाल नहीं।
लिखने को कागज़ इतना हो
जितनी भू पर खाल नहीं।
वाट्स एप को पूरा भर दूँ
अगर जागकर लिख दूँ रात।
गूगल का स्पेस कम पड़े,
मुखपोथी की क्या औकात?
ट्विटर, वाट्स एप, मेसेंजर
मुझे देख डर जाते हैं।
वेदव्यास भी मेरे सम्मुख
फीके से पड़ जाते हैं।
वाल्मीकि भी पानी भरते
मेरी प्रतिभा के आगे।
जगनिक और ईसुरी सम्मुख
जाऊँ तो पानी माँगे।
तुलसी सूर निराला बच्चन
से मेरी कैसी समता?
अब का कवि खद्योत सरीखा
हर मेरे सम्मुख नमता।
किसमें क्षमता है जो मेरी
प्रतिभा का गुणगान करे?
इसीलिये मैं खुद करता हूँ,
धन्य वही जो मान करे.
विन्ध्याचल से ज्यादा भारी
अभिनंदन
के पत्र हुए।
स्मृति-चिन्ह अमरकंटक सम
जी से प्यारे लगें मुए।
करो न चिता जो व्यय; देकर
मान पत्र ले, करूँ कृतार्थ।
लक्ष्य एक अभिनंदित होना,
इस युग का मैं ही हूँ पार्थ।
१४.६.२०१८
***
बाल गीत
सूरज
*
पर्वत-पीछे झाँके ऊषा
हाथ पकड़कर आया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
धूप संग इठलाया सूरज।
*
योग कर रहा संग पवन के
करे प्रार्थना भँवरे के सँग।
पैर पटकता मचल-मचलकर
धरती मैडम हुईं बहुत तँग।
तितली देखी आँखमिचौली
खेल-जीत इतराया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
नाक बहाता आया सूरज।
*
भाता है 'जन गण मन' गाना
चाहे दोहा-गीत सुनाना।
झूला झूले किरणों के सँग
सुने न, कोयल मारे ताना।
मेघा देख, मोर सँग नाचे
वर्षा-भीग नहाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
झूला पा मुस्काया सूरज।
*
खाँसा-छींका, आई रुलाई
मैया दिशा झींक-खिसियाई।
बापू गगन डॉक्टर लाया
डरा सूर्य जब सुई लगाई।
कड़वी गोली खा, संध्या का
सपना देख न पाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
कॉमिक पढ़ हर्षाया सूरज।
***
लघुकथा:
एकलव्य
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
***
दोहा सलिला
आम खास का खास है......
*
आम खास का खास है, खास आम का आम.
'सलिल' दाम दे आम ले, गुठली ले बेदाम..
आम न जो वह खास है, खास न जो वह आम.
आम खास है, खास है आम, नहीं बेनाम..
पन्हा अमावट आमरस, अमकलियाँ अमचूर.
चटखारे ले चाटिये, मजा मिले भरपूर..
दर्प न सहता है तनिक, बहुत विनत है आम.
अच्छे-अच्छों के करे. खट्टे दाँत- सलाम..
छककर खाएं अचार, या मधुर मुरब्बा आम .
पेड़ा बरफी कलौंजी, स्वाद अमोल-अदाम..
लंगड़ा, हापुस, दशहरी, कलमी चिनाबदाम.
सिंदूरी, नीलमपरी, चुसना आम ललाम..
चौसा बैगनपरी खा, चाहे हो जो दाम.
'सलिल' आम अनमोल है, सोच न- खर्च छदाम..
तोताचश्म न आम है, तोतापरी सुनाम.
चंचु सदृश दो नोक औ', तोते जैसा चाम..
हुआ मलीहाबाद का, सारे जग में नाम.
अमराई में विचरिये, खाकर मीठे आम..
लाल बसंती हरा या, पीत रंग निष्काम.
बढ़ता फलता मौन हो, सहे ग्रीष्म की घाम..
आम्र रसाल अमिय फल, अमिया जिसके नाम.
चढ़े देवफल भोग में, हो न विधाता वाम..
'सलिल' आम के आम ले, गुठली के भी दाम.
उदर रोग की दवा है, कोठा रहे न जाम..
चाटी अमिया बहू ने, भला करो हे राम!.
सासू जी नत सर खड़ीं, गृह मंदिर सुर-धाम..
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मुक्तक
पलकें भिगाते तुम अगर बरसात हो जाती
रोते अगर तो ज़िंदगी की मात हो जाती
ख्वाबों में अगर देखते मंज़िल को नहीं तुम
सच कहता हूँ मैं हौसलों की मात हो जाती
१४-६-२०१४
एक गीत
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छंद बहुत भरमाएँ
राम जी जान बचाएँ
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वरण-मातरा-गिनती बिसरी
गण का? समझ न आएँ
राम जी जान बचाएँ
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दोहा, मुकतक, आल्हा, कजरी,
बम्बुलिया चकराएँ
राम जी जान बचाएँ
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कुंडलिया, नवगीत, कुंडली,
जी भर मोए छकाएँ
राम जी जान बचाएँ
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मूँड़ पिरा रओ, नींद घेर रई
रहम न तनक दिखाएँ
राम जी जान बचाएँ
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कर कागज़ कारे हम हारे
नैना नीर बहाएँ
राम जी जान बचाएँ
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ग़ज़ल, हाइकू, शे'र डराएँ
गीदड़-गधा बनाएँ
राम जी जान बचाएँ
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ऊषा, संध्या, निशा न जानी
सूरज-चाँद चिढ़ाएँ
राम जी जान बचाएँ
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नवगीत :
माँ जी हैं बीमार...
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माँ जी हैं बीमार...
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प्रभु! तुमने संसार बनाया.
संबंधों की है यह माया..
आज हुआ है वह हमको प्रिय
जो था कल तक दूर-पराया..
पायी उससे ममता हमने-
प्रति पल नेह दुलार..
बोलो कैसे हमें चैन हो?
माँ जी हैं बीमार...
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लायीं बहू पर बेटी माना.
दिल में, घर में दिया ठिकाना..
सौंप दिया अपना सुत हमको-
छिपा न रक्खा कोई खज़ाना.
अब तो उनमें हमें हो रहे-
निज माँ के दीदार..
करूँ मनौती, कृपा करो प्रभु!
माँ जी हैं बीमार...
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हाथ जोड़ कर करूँ वन्दना.
अब तक मुझको दिया रंज ना.
अब क्यों सुनते बात न मेरी?
पूछ रही है विकल रंजना..
चैन न लेने दूँगी, तुमको
जग के तारणहार.
स्वास्थ्य लाभ दो मैया को हरि!
हों न कभी बीमार..
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मुक्तक सलिला
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कलम तलवार से ज्यादा, कहा सच वार करती है.
जुबां नारी की लेकिन सबसे ज्यादा धार धरती है.
महाभारत कराया द्रौपदी के व्यंग बाणों ने-
नयन के तीर छेदें तो न दिल की हार खलती है..
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कलम नीलाम होती रोज ही अखबार में देखो.
खबर बेची-खरीदी जा रही बाज़ार में लेखो.
न माखनलाल जी ही हैं, नहीं विद्यार्थी जी हैं-
रखे अख़बार सब गिरवी स्वयं सरकार ने देखो.
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बहाते हैं वो आँसू छद्म, छलते जो रहे अब तक.
हजारों मर गए पर शर्म इनको आई ना अब तक.
करो जूतों से पूजा देश के नेताओं की मिलकर-
करें गद्दारियाँ जो 'सलिल' पाएँ एक भी ना मत..
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वसन हैं श्वेत-भगवा किन्तु मन काले लिए नेता.
सभी को सत्य मालुम, पर अधर अब तक सिए नेता.
सभी दोषी हैं इनको दंड दो, मत माफ़ तुम करना-
'सलिल' पी स्वार्थ की मदिरा सतत, अब तक जिए नेता..
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जो सत्ता पा गए हैं बस चला तो देश बेचेंगे.
ये अपनी माँ के फाड़ें वस्त्र, तन का चीर खीचेंगे.
यही तो हैं असुर जो देश से गद्दारियाँ करते-
कहो कब हम जागेंगे और इनको दूर फेंकेंगे?
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तराजू न्याय की थामे हुए हो जब कोई अंधा.
तो काले कोट क्यों करने से चूकें सत्य का धंधा.
खरीदी और बेची जा रही है न्याय की मूरत-
'सलिल' कोई न सूरत है न हो वातावरण गन्दा.
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१४-६-२०१०