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सोमवार, 3 अप्रैल 2017

dohe paryavaran ke

दोहे पर्यावरण के  
भारत की जय बोल
-- संजीव 'सलिल'
*
वृक्ष देव देते सदा, प्राणवायु अनमोल.
पौधारोपण कीजिए, भारत की जय बोल..
*
पौधारोपण से मिले, पुत्र-यज्ञ का पुण्य.
पेड़ काटने से अधिक, पाप नहीं है अन्य..
*
माँ धरती के लिये हैं, पत्ते वस्त्र समान.
आभूषण फल-फूल हैं, सर पर छत्र वितान..
*
तरु-हत्या दुष्कर्म है, रह नर इससे दूर.
पौधारोपण कर मिले, तुझे पुण्य भरपूर..

पेड़ कटे, वर्षा घटे, जल का रहे अभाव.
पशु-पक्षी हों नष्ट तो, धरती तप्त अलाव..
*
जीवनदाता जल सदा, उपजाता है पौध.
कलकल कलरव से लगे, सारी दुनिया सौध..
*
पौधे बढ़कर पेड़ हों, मिलें फूल,फल, नीड़.
फुदक-फुदक शुक-सारिका, नाचें देखें भीड़..
*
पेड़ों पर झूले लगें, नभ छू लो तुम झूल.
बसें देवता-देवियाँ. काटो मत तुम भूल..
*
पीपल में हरि, नीम में, माता करें निवास.
शिव बसते हैं बेल में, पूजो रख विश्वास..
*
दुर्गा को जासौन प्रिय, हरि को हरसिंगार.
गणपति चाहें दूब को, करिए सबसे प्यार..
*
शारद-लक्ष्मी कमल पर, 'सलिल' रहें आसीन.
पाट रहा तालाब नर, तभी हो रहा दीन..
*************

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

lekh

आलेख-
मत करें उपयोग इनका 
हम जाने-अनजाने ऐसी सामग्री का उपयोग करते रहते हैं जो हमारे स्वस्थ्य, पर्यावरण और परिवेश के लिए घातक होती है. निम्न वस्तुएँ ऐसी ही हैं, इनका प्रयोग बंद कर हम आप तथा समाज और पर्यावरण को बेहतर बना सकते हैं.

१. प्लास्टिक निर्मित सामान- मनुष्य द्वारा किसी सामान का उपयोग किये जाने के बाद बचा निरुपयोगी कचरा कूड़े के ढेर, नाली, नाला, नदी से होते हुए अंतत: समुद्र में पहुँचकर 'रत्नाकर' को 'कचराघर' बना देता है.  समुद्र को प्रदूषित करते कचरे में ८०% प्लास्टिक होता है. प्लास्टिक सड़ता, गलता नहीं, इसलिए वह मिट्टी में नहीं बदलता. भूमि में दबाये जाने पर बरसों बाद भी ज्यों का त्यों रहता है. प्लास्टिक जलने पर ओषजन वजू नष्ट होती है और प्रदूषण फैलानेवाली हानिप्रद वायु निकलती है. प्लास्टिक की डब्बियाँ, चम्मचें, प्लेटें, बर्तन, थैलियाँ, कुर्सियाँ आदि का कम से कम प्रयोग कर हम प्रदूषण कम कर सकते हैं.

प्लास्टिक के सामान मरम्मत योग्य नहीं होते. इनके स्थान पर धातु या लकड़ी का सामान प्रयोग किया जाए तो उसमें टूट-फूट होने पर मरम्मत तथा रंग-रोगन करना संभव होता है. इससे स्थानीय बेरोजगारों को आजीविका मिलती है जबकि प्लास्टिक सामग्री पूंजीपतियों का धन बढ़ाती है.

२. दन्तमंजन- हमने बचपन में कंडों या लकड़ी की राख में नमक-हल्दी मिले मंजन या दातौन का प्रयोग वर्षों तक किया है जिससे दांत मुक्त रहे. आजकल रसायनों से बने टूथपेस्ट का प्रयोग कर शैशव और बचपन दंत-रोगों से ग्रस्त हो रहा है. टूथपेस्ट कंपनियाँ ऐसे तत्वों (माइक्रोबीड्स) का प्रयोग करती हैं जिन्हें सड़ाया नहीं जा सकता. कोयले को घिसकर अथवा कोयले की राख से दन्तमंजन का काम लिया का सकता है. वनस्पतियों से बनाये गए दंत मंजन का प्रयोग बेहतर विकल्प है. 



स्टीरोफोम
३.  स्टिरोफोम से बने समान- आजकल तश्तरी, कटोरी, गिलास और चम्मच न सड़नेवाले (नॉन बायोडिग्रेडेबल) तत्वों से बनाये जाते हैं. हल्का और सस्ता होने पर भी यह गंभीर रोगों को जन्म दे सकता है. इसके स्थान पर बाँस, पेड़ के पत्तों, लकड़ी या छाल से बने समान का प्रयोग करें तो वह सड़कर मिटटी बन जाता है तह स्थानीय रोजगार का सर्जन करता है. इनकी उपलब्धता के लिए पौधारोपण बड़ी संख्या में करना होगा जिससे वन बढ़ेंगे और वायु प्रदूषण घटेगा.
***

मंगलवार, 22 नवंबर 2016

geet

एक गीत:                                                                                                        
मत ठुकराओ 

संजीव 'सलिल' 
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को 
कूड़ा खाद बना करता है..... 

मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.

ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेंहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.

स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.

दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-पुंज वह जो झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
**************************

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

नवगीत

दोहा - सोरठा गीत
पानी की प्राचीर
*
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।
पीर, बाढ़ - सूखा जनित 
हर, कर दे बे-पीर।।
*
रखें बावड़ी साफ़,
गहरा कर हर कूप को।
उन्हें न करिये माफ़,
जो जल-स्रोत मिटा रहे।।

चेतें, प्रकृति का कहीं,
कहर न हो, चुक धीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
सकें मछलियाँ नाच,
पोखर - ताल भरे रहें।
प्रणय पत्रिका बाँच,
दादुर कजरी गा सकें।। 

मेघदूत हर गाँव को,
दे बारिश का नीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
पर्वत - खेत  - पठार पर
हरियाली हो खूब।
पवन बजाए ढोलकें,
हँसी - ख़ुशी में डूब।।

चीर अशिक्षा - वक्ष दे ,
जन शिक्षा का तीर।
आओ मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
***
२०-७-२०१६
-----------------

navgeet

सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।

नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।

घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।

गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।  
 ***
२०-७-२०१६
---------------

सोमवार, 27 अक्टूबर 2014

navgeet

नवगीत:

ऐसा कैसा
पर्व मनाया ?

मनुज सभ्य है
करते दावा
बोल रहे
कुदरत पर धावा
कोई काम
न करते सादा
करते कभी
न पूरा वादा

अवसर पाकर
स्वार्थ भुनाया

धुआँ, धूल
कचरा फैलाते
हल्ला-गुल्ला
शोर मचाते
आज पूज
कल फेकें प्रतिमा
समझें नहीं
ईश की गरिमा

अपनों को ही
किया पराया

धनवानों ने
किया प्रदर्शन
लंघन करता
भूखा-निर्धन
फूट रहे हैं
सरहद पर बम
नहीं किसी को
थोड़ा भी गम

तजी सफाई
किया सफाया

***



बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

doha:

दोहा सलिला:
(दो दुम के दोहे)

प्रकृति की करुणा अमित, क्षमा करे अपराध
नष्ट कर रहा क्यों मनुज, बनकर निर्मम व्याध
वृक्ष को लिपट बचाएं
सहोदर इसे बनायें
*
नदियाँ माँ ममतामयी, हरतीं जग की प्यास
मानव उनको मलिन कर, दे-पाता संत्रास
किनारे हरे कीजिए
विमल जल विहँस पीजिए
*
पर्वत ऊँचा पिता सा, रखता सर पर छाँह
हर मुश्किल से ले बचा, थाम तुम्हारी बाँह
न इसकी छाती खोदो
स्नेह के पौधे बो दो
*
बब्बा-नाना सा गगन, करता सदा दुलार
धूप चाँदनी वृष्टि दे, जीवन रखें सँवार
धूम्र से मलिन न करिये
कुपित हो जाए न डरिए
*
दादी-नानी सी हवा, दे आशीष दुलार
रुके प्राण निकले- लगे, बहती रहे बयार
धरा माँ को हरिया दें
नेह-नर्मदा बहा दें
*


सोमवार, 1 सितंबर 2014

nvgeet: chah kiski sanjiv

नवगीत:
चाह किसकी.... 
संजीव
*
चाह किसकी है
कि वह निर्वंश हो?....
*
ईश्वर अवतार लेता
क्रम न होता भंग
त्यगियों में मोह बसता
देख दुनिया दंग
संग-संगति हेतु करते
जानवर बन जंग
पंथ-भाषा कोई भी हो
एक ही है ढंग
चाहता कण-कण
कि बाकी अंश हो....
*
अंकुरित पल्लवित पुष्पित
फलित बीजित झाड़ हो
हरितिमा बिन सृष्टि सारी
खुद-ब-खुद निष्प्राण हो  
जानता नर काटता क्यों?
जाग-रोपे पौध अब
रह सके सानंद प्रकृति
हो ख़ुशी की सौध अब
पौध रोपें, वृक्ष होकर
'सलिल' कुल अवतंश हो....


रविवार, 26 मई 2013

paryavaran geet: kis tarah aye basant sanjiv

पर्यावरण गीत:
किस तरह आये बसंत
संजीव
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लील कर हँसे नगरिया,
राजमार्ग बन गयी डगरिया
राधा को छल रहा सँवरिया
सुत भूला माँ हुई बँवरिया

अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
बोल जानवर कहाँ चरायें?
पनघट सूने अश्रु बहायें,
राई-आल्हा कौन सुनायें?
नुक्कड़ पर नित गुटका खायें.
खलिहानों से आँख चुरायें.

जड़विहीन सूखा पलाश लाख
किस तरह भाये बसंत?...
*
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ गायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
यांत्रिकता की दाढ़ें खूनी.
वैश्विकता ने खुशिया छीनी.
नेह नरमदा सूखी-सूनी.

शांति-व्यवस्था मिटी गाँव की
किस तरह लाये बसंत?...
*
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
दिव्यनार्मादा.ब्लागस्पाट.कॉम

मंगलवार, 12 मार्च 2013

poetry: yamuna pollution

कविता - प्रति कविता 
संतोष कुमार सिंह - संजीव 'सलिल'
*
मित्रो, "यमुना बचाओ, ब्रज बचाओ" पद यात्रा दिल्ली में घुसने नहीं दी जा रही है।
दिल्ली बार्डर पर रोक दी गई है। यानि कि यमुना प्रदूषण के प्रति केन्द्रीय
सरकार भी सजग नहीं दिखती। जब कि यमुना की दु्र्दशा अत्यन्त भयावह है।
एक दिन मैं यमुना किनारे बैठा हुआ था। उस समय का एक चित्रण देखें -
                   यमुना जी की पीर
                                  संतोष कुमार सिंह 
जल की दुर्गति देख-देख कर भाव दुःखों का झलक उठा।
यमुना जी की पीर सुनी तो, नीर नयन से छलक उठा।।
 
मैया बोली निर्मलता तो, सबने देखी भाली है।
शहर-शहर के पतनालों ने, अब दुर्गति कर डाली है।।
जल से अति दुर्गन्ध उठी जब, मेरा माथा ठनक उठा।
यमुना जी की पीर सुनी तो, नीर नयन से छलक उठा।।
 
भक्त न कोई करे आचमन, जीव नीर में तैर रहे।
मेरी तो अभिलाषा प्रभु से, सब भक्तों की खैर रहे।।
तभी तैरती लाशें आयीं, रहा नयन का पलक उठा।
यमुना जी की पीर सुनी तो, नीर नयन से छलक उठा।।
 
यूँ तो मेरा पूजन अब भी, नित्य यहाँ होता रहता।
लेकिन घोर प्रदूषण में रह, दिल अपना रोता रहता।।
कूड़ा-कर्कट, झाग दिखे तो, दिल अचरज से धड़क उठा।
यमुना जी की पीर सुनी तो, नीर नयन से छलक उठा।।
 
ऐसा लगता भारतवासी, सब स्वारथ में चूर हुए।
मेरी पावनता लौटाने, शासन कब मजबूर हुए।।
मरी मछलियाँ तीर दिखीं तो, धीर हृदय का धमक उठा।
यमुना जी की पीर सुनी तो, नीर नयन से छलक उठा।।
॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
santosh kumar <ksantosh_45@yahoo.co.in>
 
गीत नदी के मिल गायें
          संजीव 'सलिल'
           *
यमुना बृज की प्राण शक्ति है, दिल्ली का परनाला है.
          राह देखते दिल्ली की क्यों?, दिमागी दीवाला है?
         
          यमुना तट पर पौध लगाकर पेड़ सहस्त्रों खड़े करें.

अगर नहीं तो सब तटवासी, पेड़ मिटाकर स्वयं मरें.

कचरा-शव-पूजन सामग्री, कोई न यमुना में फेके.

कचरा उठा दूर ले जाये, संत भक्त को खुद रोके.

लोक तंत्र में सरकारें ही नहीं समस्या कहीं मूल.

लोक तन्त्र पर डाल रहा क्यों, अपने दुष्कर्मों की धूल.

घर का कचरा कचराघर में, फेंक- न डालें यहाँ-वहाँ.

कहिये फिर कैसे देखेंगे, आप गन्दगी जहाँ-तहाँ?

खुद को बदल, प्रथाओं को भी, मिलकर हम थोडा बदलें.

शक्ति लोक की जाग सके तो, तन्त्र झुकेगा पग छू ले.

नारे, भाषण, धरना तज, पौधारोपण को अपनायें.

हर सलिला को निर्मल कर, हम गीत नदी के मिल गायें.
                                                ***

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

दोहे पर्यावरण के: भारत की जय बोल --- संजीव 'सलिल'

दोहे पर्यावरण के :                                                               
भारत की जय बोल
-- संजीव 'सलिल'
*
वृक्ष देव देते सदा, प्राणवायु अनमोल.
पौधारोपण कीजिए, भारत की जय बोल..
*
पौधारोपण से मिले, पुत्र-यज्ञ का पुण्य.
पेड़ काटने से अधिक, पाप नहीं है अन्य..
*
माँ धरती के लिये हैं, पत्ते वस्त्र समान.
आभूषण फल-फूल हैं, सर पर छत्र वितान..
*
तरु-हत्या दुष्कर्म है, रह नर इससे दूर.
पौधारोपण कर मिले, तुझे पुण्य भरपूर..
*
पेड़ कटे, वर्षा घटे, जल का रहे अभाव.
पशु-पक्षी हों नष्ट तो, धरती तप्त अलाव..
*
जीवनदाता जल सदा, उपजाता है पौध.
कलकल कलरव से लगे, सारी दुनिया सौध..
*
पौधे बढ़कर पेड़ हों, मिलें फूल,फल, नीड़.
फुदक-फुदक शुक-सारिका, नाचें देखें भीड़..
*
पेड़ों पर झूले लगें, नभ छू लो तुम झूल.
बसें देवता-देवियाँ. काटो मत तुम भूल..
*
पीपल में हरि, नीम में, माता करें निवास.
शिव बसते हैं बेल में, पूजो रख विश्वास..
*
दुर्गा को जासौन प्रिय, हरि को हरसिंगार.
गणपति चाहें दूब को, करी सबसे प्यार..
*
शारद-लक्ष्मी कमल पर, 'सलिल' रहें आसीन.
पाट रहा तालाब नर, तभी हो रहा दीन..
*************


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मंगलवार, 28 जून 2011

एक कुण्डली: पानी बिन यमुना दुखी -- संजीव 'सलिल'

एक कुण्डली:                                                                                             
पानी बिन यमुना दुखी
संजीव 'सलिल'
*
पानी बिन यमुना दुखी, लज्जित देखे ताज.
सत को तजकर झूठ को, पूजे सकल समाज..
पूजे सकल समाज, गंदगी मन में ज्यादा.
समय-शाह को, शह देता है मानव प्यादा..
कहे 'सलिल' कविराय, न मानव कर नादानी.
सारा जीवन व्यर्थ, न हो यदि बाकी पानी..
--------------------------------------------------

गुरुवार, 19 मई 2011

एक कविता- मैं समय हूँ --संजीव 'सलिल'

एक कविता-
मैं समय हूँ
संजीव 'सलिल'
*
मैं समय हूँ, साथ उनके
जो सुनें आवाज़ मेरी.
नष्ट कर देता उन्हें जो
सुन न सुनते करें देरी.
चंद दशकों बाद का
संवाद यह सुन लो जरा तुम.
शिष्य-गुरु की बात का
क्या मर्म है गुन लो जरा तुम.
*
''सर! बताएँ-
घास कैसी और कैसी दूब होती?
किस तरह के पेड़ थे
जिनके न नीचे धूप होती??''
*
कहें शिक्षक- ''थे धरा पर
कभी पर्वत और टीले.
झूमते थे अनगिनत तरु
पर्ण गिरते हरे-पीले.
डालियों की वृक्ष पर
लंगूर करते खेल-क्रीडा.
बना कोटर परिंदे भी
रहे करते प्रणय-लीला.
मेघ गर्जन कर बरसते.
ऊगती थी घास कोमल.
दूब पतली जड़ें गहरी
नदी कलकल, नीर निर्मल.
धवल पक्षी क्रौंच था जो
युग्म में जल में विचरता.
व्याध के शर से मरा नर
किया क्रंदन संगिनी ने.
संत उर था विकल, कविता
प्रवाहित नव रागिनी ले.
नाचते थे मोर फैला पंख
दिखते अति मनोहर.
करें कलरव सारिका-शुक,
है न बाकी अब धरोहर.
*
करी किसने मूढ़ता यह?
किया भावी का अमंगल??
*
क्या बताऊँ?, हमारे ही
पूर्वजों ने किया दंगल.
स्वार्थवश सब पेड़ काटे.
खोद पर्वत, ताल पूरे.
नगर, पुल, सडकें अनेकों
बनाये हो गये घूरे.
नीलकंठी मोर बेबस
क्रौच खो संगी हुई चुप.
शाप नर को दे रहे थे-
मनुज का भावी हुआ घुप.
विजन वन, गिरि, नदी, सरवर
घास-दूबा कुछ न बाकी.
शहर हर मलबा हुआ-
पद-मद हुआ जब सुरा-साक़ी.
*
समय का पहिया घुमाकर
दृश्य तुमको दिखाता हूँ.
स्वर्ग सी सुषमा मनोरम
दिखा सब गम भुलाता हूँ.''
*
देख मनहर हरीतिमा
रीझे, हुई फिर रुष्ट बच्चे.
''हाय! पूर्वज थे हमारे
अकल के बिलकुल ही कच्चे.
हरीतिमा भू की मिटाकर
नर्क हमको दे गये हैं.
क्षुद्र स्वार्थों हित लड़े-मर,
पाप अनगिन ले गये हैं.
हम तिलांजलि दें उन्हें क्यों?
प्रेत बन वे रहें शापित.''
खुली तत्क्षण आँख कवि की
हुई होनी तभी ज्ञापित..
*
दैव! हमको चेतना दो
बन सकें भू-मित्र हम सब.
मोर बगुले सारिका शुक
घास पौधे हँस सकें तब.
जन्म, शादी अवसरों पर
पौध रोपें, तरु बनायें.
धरा मैया को हरीतिमा
की नयी चादर उढ़ायें.
****

रविवार, 16 मई 2010

पद्य: प्रकृति की गोद में ही है सब सुख भरा ----प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव "विदग्ध"

गहरे सागर वन उपवन धरा औ' गगन

प्रकृति नियमों का सब कर रहे हैं अनुसरण

आदमी को भी जीना है जो संसार में

पर्यावरण से करना ही होगा संतुलन 


                                                            विश्व विकसा ये, पा माँ प्रकृति की कृपा

गहन दोहन उसी का पर कर रहा

भूल अपनी मनुज न सुधारेगा तो

सुख के युग का असंभव फिर आगमन


हो रहा मृदा जल वन पवन का क्षरण

है प्रदूषित हुआ सारा वातावरण

साँस लेना भी मुश्किल सा अब हो चला

जो न संभले तो दिखता निकट है मरण


                                                            प्रकृति माँ है जो देती है सब कुछ हमें

हमें चाहिये कि हम लालचों से थमें

विश्व हित में प्रकृति साथ व्यवहार में

उसकी गति और मति का करें अनुसरण


मिलें उपहार हैं भूमि जल वन पवन

सूर्य की ऊर्जा , स्वस्थ जीवन गगन

इनका लें लाभ पर बिना आहत किये

वन औ' वनप्राणियों का विवर्धीकरण


                                                              अपनी पर्यावरण से ही पहचान है

इससे गहरा जुडा हरेक उत्थान है

हो गया है जरूरी बहुत आज अब

कल के जीवन के बारे में चिंतन मनन


                                                              आओ! संकल्प लें कोई काटे न वन

मिटाने गलतियाँ वन बढ़ायें सगन

प्रदूषण हटें जल स्त्रोत के , वायु के

प्रकृति पूजा की हर मन में उपजे लगन


                                                          प्रकृति की गोद में ही है सब सुख भरा

प्रकृति के ही प्यार से ही है हरी यह धरा

अगर पर्यावरण नष्ट हमने किया

हमको भगवान भी कल न देंगे शरण .


                                                      *****************************