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गुरुवार, 4 जुलाई 2013

kahani: ek aur mauka -santosh bhauwala

कहानी:

एक और मौका

संतोष भाऊवाला
*
सुशीला अपने बेटे के साथ कलक्टर शोभा से मिलने आई। सुबह के आठ बज गए थे, पर शोभा की नींद ही नहीं खुल रही थी। ऐसा लग रहा था, बरसों बाद इतनी गहरी नींद सोयी थी वह, काका ने कई बार आवाज देकर उठाया, तब जाकर नींद खुली। बाहर आई तो देखा, सुशीला अपने बेटे के साथ उसका इन्तजार कर रही है। आशंकित हुई, कहीं कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई? पूछा उसने, तो सुशीला ने ख़ुशी से कहा, आपका धन्यवाद करने आई हूँ।  डॉ ने कहा है जल्दी ही मेरा बेटा  ठीक हो जाएगा ,कल से इलाज शुरू हो जाएगा आपकी कृपा से, बाद में नहीं मिल सकूंगी, इसीलिए सोचा आपका धन्यवाद कर दूं ।  शोभा एक ठंडी सांस लेकर बोली, नहीं नहीं इसकी कोई जरूरत नहीं, कह कर शरीर को ढीला छोड़ दिया और आराम कुर्सी पर सर टिका कर आँखे बंद कर ली। अतीत में गोते खाने लगी .. अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात थी जब ....

  उस दिन सुबह से ही आने जाने वालों की भीड़ लगी थी। शोभा सुबह से सभी को निपटाते निपटाते थक कर चूर हो गई, फिर भी कुछ लोग बाकी थे।  तब शंकर को बुला कर पूछा, बाहर और कितने लोग है ,काका ?, शंकर ने कहा, अभी चार पांच और है।  शोभा ने कहा ...  अब आज और नहीं काका,उन्हें कल आने को कह दीजिये । 
 शंकर ने कहा, एक बहुत ही दुखियारी है।  जंजीर से बेटे को बाँध रखा है। सिर्फ उससे मिल लीजिये। कलक्टर शोभा बहुत सहृदया थी। उसने कहा ठीक है भेज दीजिये, पर बाकी लोगो को वापस भेज दीजिये काका।
शंकर ने यह कह कर,  जैसी आपकी मर्जी, उस दुखियारी को अंदर भेज दिया।   
 शोभा ने देखा, माँ के हाथों में जंजीर है और उसके दूसरे शिरे से बेटे  का हाथ बंधा है। कलक्टर शोभा को बडा अजीब लगा। पूछा उससे , ऐसा क्यों ...
तब दुखियारी माँ कहने लगी ......
 इसे कुछ भी पता नहीं चलता है।  जमीन पर मिटटी हो या पत्थर या फिर अन्य कोई सामान, सब खा जाता है। थोड़ी देर भी हाथ खोलती हूँ तो कहीं चला जाता है।  ऐसे में इसे बांधे रखना ही मजबूरी है।  इसके बाल काटने से लेकर तैयार करने तक का सारा काम मै ही करती हूँ। बचपन से लेकर अब तक कभी चारपाई तो कभी पेड़ के सहारे जंजीर से बंधी रही जिंदगी और यूँ ही निकल गए इसके जीवन के अठारह वसंत। इलाज करवा रहे हैं, पर पैसे की कमी के कारण उचित इलाज नहीं मिल पा रहा। अब तक पच्चास हज्जार रुपये से ज्यादा खर्च हो चुके है। हम गरीब कहाँ से लायें इतना पैसा ? 
कलक्टर ने पूछा, सामाजिक न्याय व् अधिकारिता विभाग की और से पिछले दिनों आसपुर में जो विशेष सहायता शिविर का आयोजन हुआ था, आपने वहां इलाज करवाने की कोशिश नहीं की ?
माँ ने बताया ...हम गए थे शिविर में, पर मनोरोग चिकित्सक न होने की वजह से अधिकारियों ने अगले हफ्ते डूंगरपुर आने का निर्देश दिया था।  
फिर वहां गए नहीं आप लोग?  ..
 हम गए थे पर हमें बेरंग लौटा दिया गया। हम गरीब कमीशन का पैसा कहाँ से लायें।   कहते कहते माँ का गला भर आया।  दिल का दर्द आँखों के रस्ते बाहर आने लगा।  
कलक्टर शोभा को बहुत दुःख हुआ जान कर, उसने विकास अधिकारी से तुरंत बात की और बेटे को चिकित्सालय भेजने और पी ऍम ओ को उदयपुर रेफर करने के निर्देश दिए।  
कलक्टर के आदेश से अफरा तफरी मच गई।  हर तरफ अधिकारी दौड़ लगाते दिखे।  इतने वर्षों से झुझती माँ की आँखों में चमक, आशा की किरण नजर आने लगी थी। मन ही मन शोभा को ढेरों आशीर्वाद दे रही थी और सोच रही थी पता नहीं भगवान् कब किस रूप में सामने आ जाए।  उसके लिए तो शोभा भगवान् का दूत बन कर आई थी।    
दूसरी और कलक्टर शोभा की भी आँखे नम थी, यह सोच कर कि किसी का दुःख कम करने का विधाता ने उसे एक और मौका दिया।
 एक और मौका ....हाँ , याद है एक ऐसी ही घटना जब वह नई नई कलक्टर बन कर आई थी।  जमीन पर पैर नहीं पड़ रहे थे, बस बड़े बड़े लोगो से ही रिश्ते बनाने में लगी थी।  गरीबों से मिलने का समय न था।  उच्च पदस्थ लोगों से मिलना, अपनी तारीफ़ सुनना, पार्टी करना, जैसे यही जीवन है।  उन्ही दिनों एक दुखियार माँ आई थी, उसकी बेटी की तबियत खराब थी, पर वह अहंकार के नशे में चूर उससे नहीं मिली। सुबह काका ने बताया कि कल जो दुखियारी माँ आई थी , उसकी बेटी अब इस दुनिया में नहीं रही।  सुनते ही आँखे चौड़ी हो गई , सोचने लगी क्या वह दोषी है उसकी मौत की .....
फिर दिमाग को झटक कर रोजमर्रा के काम में लग गई।  पुरे दिन फिर वही लोगो से मिलना जुलना ...
शाम को जब अकेली, खुद के साथ थी तो दुखियारी माँ की तस्वीर आँखों के आगे घुमने लगी। मन विचलित सा होने लगा । सोचने लगी ऐसा क्या हुआ है जो मन उदिग्न हो गया है पहले भी वह कई लोगो से नहीं मिली थी पर इस बार ... काका को बुला कर पूछा, काका क्या मेरी गलती है?
 काका बिचारा क्या कहता ....उसे भी तो अपनी नौकरी प्यारी थी।  गाँव में परिवार जो पालना था।  चुप चाप सर झुक कर खड़ा हो गया, क्यों कि ना  कह कर वह अपने जमीर को मारना नहीं चाहता था।  शायद इतनी इंसानियत तो बाकी थी उसमे । 
काका की चुप्पी ने शोभा को अंदर तक हिला कर रख दिया था, तभी उसने मन में सोच लिया था जितना हो सकेगा, लोगो की सहायत करेगी,ऐसी गलती फिर न दोहराएगी ।  जितना हो सकता था शोभा ने किया भी बहुत काम, पर मन के भीतर कहीं कोई खालीपन रहता था, अतृप्त सा, लगता था कहीं कुछ रह गया, कुछ ऐसा जो पीछे छुट गया, जिसे वह चाह कर भी वापस नहीं ला सकती।  

बिटिया घर नहीं जाना? सुन कर वह अतीत की दुनिया से बाहर आई और बोली ... 
हाँ काका चलिए , आज बड़ी जोरो की नींद आ रही है। 
काका ने उसकी आंखों में तृप्ति का भाव देखा, अनुभवी आँखे समझ गई , आज उसके दिल का खालीपन भर गया है । 
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Santosh Bhauwala <santosh.bhauwala@gmail.com>

संतोष भाऊवाला

मंगलवार, 4 जून 2013

gazal santosh bhauwala

ग़ज़ल:
चले आइए 
 संतोष भाऊवाला
 *


बज़्म-ए-उल्फ़त सजी है चले आइए
कैसी नाराज़गी है चले आइए
 
ख्वाब में ढूंढ़ती मैं रही आप को
ऐसी क्या बे रूखी है चले आइए
 
याद आकर सताती रही रात भर
आँसु ओं की झड़ी है चले आइए
 
ईद का चाँद भी मुन्तज़िर आपका
कैसी पर्दादरी है चले आइए
 
चाँदनी चाँद से होने को है जुदा
रात भी ढल चली है चले आइए

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

मन्त्र विज्ञान: संतोष भाऊवाला

मन्त्र विज्ञान



संतोष भाऊवाला
*
शब्दों की ध्वनि का अलग-अलग अंगों पर एवं वातावरण पर असर होता है। कई शब्दों का उच्चारण कुदरती रूप से होता है। आलस्य के समय कुदरती आ... आ... होता है। रोग की पीड़ा के समय ॐ.... ॐ.... का उच्चारण कुदरती ऊँह.... ऊँह.... के रूप में होता है। यदि कुछ अक्षरों का महत्त्व समझकर उच्चारण किया जाय तो बहुत सारे रोगों से छुट...कारा मिल सकता है। वैज्ञानिक भी भारतीय मंत्र विज्ञान की महिमा जानकर दंग रह गये हैं।


'अ' उच्चारण से जननेन्द्रिय पर अच्छा असर पड़ता है।

  'आ' उच्चारण से जीवनशक्ति आदि पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। दमा और खाँसी के रोग में आराम मिलता है, आलस्य दूर होता है।

  'इ' उच्चारण से कफ, आँतों का विष और मल दूर होता है। कब्ज, पेड़ू के दर्द, सिरदर्द और हृदयरोग में भी बड़ा लाभ होता है। उदासीनता और क्रोध मिटाने में भी यह अक्षर बड़ा फायदा करता है।

'ओ' उच्चारण से ऊर्जाशक्ति का विकास होता है।

'म' उच्चारण से मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं। शायद इसीलिए भारत के ऋषियों ने जन्मदात्री के लिए 'माता' शब्द पसंद किया होगा।

'ॐ' का उच्चारण करने से ऊर्जा प्राप्त होती है और मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं। मस्तिष्क, पेट और सूक्ष्म इन्द्रियों पर सात्त्विक असर होता है।

ह्रीं 'ह्रीं' उच्चारण करने से पाचन-तंत्र, गले और हृदय पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

ह्रं 'ह्रं' उच्चारण करने से पेट, जिगर, तिल्ली, आँतों और गर्भाशय पर अच्छा असर पड़ता है।
 
***

सोमवार, 24 सितंबर 2012

कविता: प्रेम का अंकुर --संतोष भाऊवाला

कविता:
 
 
प्रेम का अंकुर
 
 
संतोष भाऊवाला 
 *
जिंदगी गर जाफरानी लगे
पूस की धूप सी सुहानी लगे  
 लगे अमन चैन लूटा है
तो समझो ह्रदय में
प्रेम का अंकुर फूटा है
भावों का सलिल बहने लगे
शब्दों का अभाव रहने लगे
सब्र का बाँध टूटा है
तो समझो ह्रदय में
प्रेम का अंकुर फूटा है
कुछ करने का न मन करे
तन्हाई में खुद से बाते करें
जग से नाता छूटा है
तो समझो ह्रदय में
प्रेम का अंकुर फूटा है

बढ़ने घटने लगे जब साँसों का स्पंदन
लगे प्यारा बस प्यार का ही बन्धन
रोम रोम में घुलता अहसास अनूठा है
तो समझो ह्रदय में
प्रेम का अंकुर फूटा है
मन जब ईश्वर में रम जाये
उसके प्रेम में बंध जाये
माया मोह झूठा है
तो समझो ह्रदय में
प्रेम का अंकुर फूटा है
 

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

लघु कथा: ऐसा क्यों? -संतोष भाऊवाला

लघु कथा:
ऐसा क्यों?
 

 
संतोष भाऊवाला 
*
कुमारी का अपने पति से झगडा हो गया था I

उसका घर छोड़ कर वह अपनी माँ के घर रहने लग गई थी I  सुबह शाम मंदिर जाती और दिन में दूसरों के घर का काम कर अपना पेट पाल रही थी I

माँ बाप ने वापस जाने के लिये बहुत समझाया पर नहीं मानी I अब तो अजीबो गरीब हरकते करने लगी थी I कहती थी... उसमे माता का वास है जब जोर जोर से सिर हिलाती तो सभी उसके पैर छूने लगते ...जब वो ये बाते मुझे बताती तो मेरा मन नहीं मानता था .... कैसे किसी  लड़की में माता का वास हो सकता है , वह  माता स्वरुप हो सकती  है?

मैंने उससे पूछा: 'तुम दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेती?'

कहती थी: 'ऐसी बात करना भी मेरे लिये पाप है अब मै देवी हूँ  I' मै चुप हो जाती क्या कहती?...

कल कोई बता रहा था कि कुमारी किसी के साथ भाग गई, वह भी दो बच्चों के पिता के साथ .....
 *


रविवार, 26 अगस्त 2012

कविता : मैं संतोष भाऊवाला

कविता :
मैं
 संतोष भाऊवाला 
*
मैं ..... अदना सा कण
या फिर एक बिंदु
या छोटा सा बीज
मैं  .... एक शब्द  भर
कर देता नि:शब्द पर
इसके अनेक विकार
स्वार्थ,इर्ष्या,अहंकार
कण से विराट
बिंदु से सिन्धु  
बीज से  वृक्ष
तक के  सफ़र में
मैं के अनेक रूप
बदलते स्वरुप
इसी मैं  के कारण
हुए घमासान युद्ध
इसे छोड़ा जब तो
हुए महात्मा बुद्ध
पर कोई अछूता रह न पाये
लक्ष्मीपति हो या लंकापति
इस मै से छुट ना पाये
जीवन भर पछताये
यह मै छोड़े से भी छुटता नहीं
पर जिस दिन छुट गया
मनुज महात्मा बन जाये
समझो तर जाये
बिना मांगे ,मोक्ष पाये  
 
*******