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रविवार, 5 मई 2019

स्त्री

मुखपुस्तकी गपशप
- पायल शर्मा
women are like vehicles, everyone appreciate the outside beauty, but the inner beauty is embraced by her owner
*
संजीव
'स्त्री वाहन नहीं, संस्कृति की वाहक है.
मानव मूल्यों की स्त्री ही तो चालक है..
वाहन की चाबी कोई भी ले सकता है.
चाबी लगा घुमा कर उसको खे सकता है.
स्त्री चाबी बना पुरुष को सदा घुमाती है.
जब जी चाहे रोके, उठा उसे दौडाती है.
विधि-हरि-हर पर शारद-रमा-उमा हावी हैं.
नव दुर्गा बन पुजती स्त्री ही भावी है'
*
नवीन चतुर्वेदी, मुम्बई
आपकी भाषा जानी पहचानी सी लगती है |
**
स्त्री सदा 'नवीन' है, पुरुष सदा प्राचीन.
'राज' करे नाराज हो, यह उँगली वह बीन..

कौन 'चतुर्वेदी' जिसे, यह चतुरा न नचाय.
भाट बने जो 'भाटिया', का ख़िताब वह पाय..

नाच इशारों पर 'सलिल', तभी रहेगी खैर.
देव न दानव बच सके, स्त्री से कर बैर..
*
नवीन चतुर्वेदी
बात करें यूँ सार की, लगती मगर अजीब |
उनका ही तो नाम है, वर्मा सलिल संजीव ||
*
बात सार की चाहता, करता जगत असार.
मतभेदों को पोसते, 'सलिल' न पालें प्यार..

है 'नवीन' जो आज वह, कल होता प्राचीन.
'राज' स्वराज विराजता, पर जनगण है दीन..
*
५.५.२०१०

मंगलवार, 9 मई 2017

apni apni baat: stree

    अपनी-अपनी बात: स्त्री  
    women are like vehicles, everyone appreciate the outside beauty, but the inner beauty is embraced by her owner- पायल शर्मा
    'स्त्री वाहन नहीं, संस्कृति की वाहक है.
    मानव मूल्यों की स्त्री ही तो चालक है..
    वाहन की चाबी कोई भी ले सकता है.
    चाबी लगा घुमा कर उसको खे सकता है.
    स्त्री चाबी बना पुरुष को सदा घुमाती.
    जब जी चाहे रोके, उठा उसे दौडाती.
    विधि-हरि-हर पर शारद-रमा-उमा हावी हैं.
    नव दुर्गा बन पुजती स्त्री ही भावी है' 
      ५-५-२०१०

रविवार, 17 जुलाई 2016

व्यंग्य लेख

व्यंग्य लेख-
अभियांत्रिकी शिक्षा और जुमलालॉजी 
*
                 आजकल अभियांत्रिकी शिक्षा पर गर्दिश के बादल छाये हैं। अच्छी-खासी अभियांत्रिकी शिक्षा को गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई समझ कर प्रशासनिक और राजनैतिक देवरों ने दिनदहाड़े रेपते हुए उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की अंक सूची के आधार पर हो रहे चयन रूपी पति से तीन तलाक दिलाये बिना पहले पूर्व अभियांत्रिकी परीक्षा (पी. ई. टी.) नाम के गाहक और बाद में व्यापम नामक दलाल के हवाले कर दिया। फलतः, सती सावित्री की बोली लगनी आरम्भ हो गयी। कुएँ में भाग घुली हो तो गाँव में होश किसे और कैसे हो सकता है? गैर तो गैर अपने भी तकनीकी शिक्षा संस्थानों का चकलाघर खोलकर लीलावती रूपी छात्रवृत्ति और कलावती रूपी उपाधि खरीदने-बेचने में संलग्न होते भए।

                 हम तो परंपरा प्रेमी हैं। द्रौपदी का चीर-हरण होता हो तो नेत्रहीन धृतराष्ट्र में भी कुछ न कुछ देख लेने की चाह पैदा हो जाती है। ब्रह्चारी भीष्म भी निगाहें झुकी होने का प्रदर्शन कर, दर्शन करने से नहीं चूकते। द्रोणाचार्य और कृपाचार्य जैसे ब्रम्हविद असार संसार में सार खोजते हुए, कण-कण में भगवान् की उपस्थिति का साक्ष्य चीरधारिणी में पाने का प्रयास करें तो उनकी तापस प्रवृत्ति पर तामस होने का संदेह करना सरासर गलत है। और तो और विरागी विदुर और सुरागी शकुनि भी बहती गंगा में हाथ धोनेवालों में सम्मिलित रहे आते हैं किसी प्रकार का प्रतिकार नहीं करते।
                 आज के अखबार में खबर है कि राजस्थान के एक विद्यालय की तीन छात्राओं ने अपनी ही कक्षा की चौथी छात्रा को रैगिंग का विरोध करने पर मार-पीटकर चीयर हरण कांड को सफलतापूर्वक संपन्न किया।यह ट्रीट तो है नहीं की कोई कृष्ण बिना आधार कार्ड देखे चीर वृद्धि कर पीड़िता की रक्षा करे। संभवत: ये होनहार छात्राएँ परंपरा प्रेमी हैं। दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण रूपी तीनों छात्राएँ भली-भाँति जानती हैं कि अभिभावक रूपी धृतराष्ट्र, प्रबंधन रूपी भीष्म और और विदुर रूपी प्रशासन चिल्ल पों के अलावा कुछ नहीं कर सकते। यह भी की नेत्रहीन पति की आँखें बनने के स्थान पर अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर महासती होने का पाखण्ड रच, पद्म सम्मान पा चुकी गांधारी चीर हरण की साक्षी हो सकती थीं तो आज की पढ़ी-लिखी, सभ्य- सुसंस्कृत (?), सबला (स-बला) किशोरी क्यों पीछे रहे?
                 इसी समाचार पत्र में अन्यत्र कुछ किशोरियों द्वारा अन्यत्र एक किशोर को निर्वस्त्र करने के दुष्प्रयास (?) का भी समाचार है। ऐसी साहसी बच्चियों से देश गौरवान्वित होता है। सत्य को ब्रम्ह माननेवाले देश का भविष्य गढ़नेवाले बच्चे कपड़ों के भीतर का सच जानने का प्रयास कर अपनी सत्यनिष्ठा ही तो दर्शा रहे हैं। हमारे बच्चों में मानव के मूल स्वरूप को देखने और जानने की इस उत्कंठा का स्वागत हो या न हो, उन्हें जो करना है, कर रहे हैं। 'तन से तन का मिलन हो न पाया तो क्या, मन से मन का मिलन कोई कम तो नहीं' की दकियानूसी सोच को तिलांजलि देकर नयी पीढ़ी 'मन से मन मिलन हो न पाया क्या, तन से तन का मिलन कोई कम तो नहीं' के प्रगतिवादी सोच को मूर्त रूप दे कर क्रांति कर रही है।
                 स्त्री विमर्श की आड़ में पुरुष को देहधर्मी आरोपित कर, अपनी देह दर्शाते फिर रही आधुनिकाओं को अपनी (अपने पति की नहीं) बच्चियों के इन वीरोचित कार्यों पर भीषण गर्व अनुभव हो रहा होगा कि उनकी पीढ़ी को तो निर्वसन दौड़ने के लिए भी शिक्षा पूर्ण कर अभिनेत्री बनने तक का समय लगा पर भावी पीढ़ी यह दिशा विद्यालयों की कच्ची उम्र से ही ग्रहण कर रही है। इनका बस चले तो ये 'बाँह में हो और कोई, चाह में हो और कोई' ध्येय वाक्य हर विद्यालय के हर कक्ष में लिखवा दें ताकि पुरातनपंथी छात्र-छात्राएँ प्रेरित हो सकें।
                 भारत प्रगतिशील राष्ट्रों की क़तार में सम्मिलित हो सके इसलिए राष्ट्रवादी नेतागण अपने गृहस्थ जीवन का पथ छोड़कर, विवाहित होकर भी अविवाहित की तरह रहते हुए प्राण-प्राण से सकल विश्व की परिक्रमा कर रहे हैं। ये किशोर उनका जयकार करते हुए सेल्फी तो लेना चाहते हैं पर उनका अनुकरण नहीं करना चाहते। एक चित्रपटीय गीत में सनातन सत्य की उद्घोषणा की गयी है "इंसान था पहले बन्दर" । हमारे किशोर बंदर को निर्वसन देखकर, खुद साहस न कर सकें तो किसी अन्य को बंदर की तरह देखने का लोभ क्यों और कैसे संवरण करें? यह समझने में हमारे अभिभावक, परिवार, विद्यालय, गुरुजन, शिक्षा प्रणाली, धर्म, गुरु, न्याय व्यवस्था सभी अक्षम सिद्ध हो रहे हैं। इसका कारण केवल एक ही हो सकता है कि सामाजिक और सामूहिक स्तर पर स्वयं को उदासीन और संयमित प्रदर्शित करने के बाद भी हम, स्त्री-पुरुष दोनों कहीं न कहीं उर्वशियों, मेनकाओं औे रम्भाओं के प्रति आकर्षित हो उन्हें पाना या उन जैसा बनना चाहते रहे हैं। तभी तो अंतरजाल पर वयस्क तरंग-स्थल (एडल्ट वेब साइट) देखनेवालों की संख्या अन्य से बहुत अधिक है।मानव मन के चिंतन और मानव तन के आचरण के मध्य सेतु निर्मित करनेवाली अभियांत्रिकी का विकास अभी नहीं हो सका है किन्तु भविष्य में भी नहीं होगा यह तो कोई नहीं कह सकता। बंद होने का खतरा झेल रहे अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में नग्नता यांत्रिकी का पाठ्यक्रम आरम्भ करते ही छात्र-छात्राओं की ऐसी भीड़ उमड़ेगी की चप्पे-चप्पे में अभियांत्रिकी महाविद्यालय खोलने पड़ेंगे।
                 आप सहमत नहीं तो चलिए नयी दिशा तलाश करें। आज के ही समाचार पत्र में समाचार है कि न्यायालयों ने दो राज्यों में राज्यपालों की अनुशंसाओं पर केंद्र सरकार द्वारा अपदस्थ की गयी सरकारों को न केवल पुनः पदस्थ कर दिया अपितु पूर्ववर्ती वैकल्पिक सरकारों द्वारा लिए गए निर्णयों और घोषित की गयी नीतियों को भी निरस्त कर दिया। स्पष्ट है कि प्रधान मंत्री की अपार जनप्रियता को भुनाने की बचकानी शीघ्रता कर रहे दलाध्यक्ष मित-सत्ता (किसी राज्य में है, किसी में नहीं है) से संतुष्ट न होकर अमित सत्ता पाने की फिराक में हैं। वे तो अमित भी हैं और शाह भी, फिर किसी और को कहीं भी सत्तासीन कैसे देख सकते हैं? उन्होंने श्री गणेश एक दल मुक्त भारत की घोषणा कर और अपने दल के संसदीय दल-नेता से कराकर भले ही किया है किन्तु उनकी मंशा तो विपक्ष मुक्त भारत की थी, है और रहेगी। भारत का संविधान उनकी इस मंशा को मौलिक अधिकार मानकर मौन भले रहे, जनता और न्याय व्यवस्था पचा नहीं पा रही।
                 दलीय दलदल की राजनीति में कमल खिलाने, तिनके (तृण मूल) उगाने, पंजा दिखाने, लालटेन जलाने, पहिया घुमाने, हाथी चलाने, साइकिल दौड़ाने और हँसिया-हथौड़ा उठाने के इच्छुकों के सामने एक ही राह शेष है। बंद होते अभियांत्रिकी महाविद्यालयों का अधिग्रहण कर उनमें अपने-अपने दल के अनुरूप सामाजिक यांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग) का पाठ्यक्रम चला दें। यह घोषणा भी कर दें कि इन पाठ्यक्रमों में विशेष योग्यता प्राप्त जन ही उम्मीदवार और चुनाव प्रबंधक होंगे। आप देखेंगे की गंजों के सर पर बाल लहलहाने की तरह, सियासत की शूर्पणखा को वरने के लिये तमाम राम, लक्ष्मण, रावण और विभीषण भी क़तार में लगे मिलेंगे।
                 'राजनीति विज्ञान है या कला?' इस यक्ष प्रश्न को सुलझाने में असफल रही सभ्यता की दुहाई देनेवाले क्या जानें कि राजनीति आगामी अनेक पीढ़ियों के लिए ही नहीं अगले जन्म के लिये भी धन-संपदा जोड़-जोड़कर विदेशों में रख जाने का पेशा है। दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होने को अजूबा माननेवाले कैसे समझेंगे कि राजनीति में स्वार्थनीति, सत्तानीति, दलनीति के अनुसार एक ही नेता के अनेक मत होते हैं। 'सत्य एक होता है जिसे विद्द्वज्जन कई प्रकार से कहते हैं' माननेवाले कैसे स्वीकारेंगे कि हर नेता के कई सत्य होते हैं जो संसद से सड़क तक, टी.व्ही. से बीबी तक बदलते रहते हैं।
                 कोई सत्यर्षि या ब्रम्हर्षि अपनी चादर को राज्यर्षि से अधिक सफ़ेद कैसे कह सकता है? आप ही बतायें कि एक चादर दाग न लकने पर सफेद दिखे और दूसरी का कण-कण दागों से काल होने पर भी सफ़ेद दिखाई जाए दमदार कौन सी हुई? राज्यर्षि जानता है कि 'आया सो जाएगा' इसलिए मोह-माया से पर रहता है। वह एक पत्नी की रुग्ण देह को बिस्तर पर छोड़कर, बेटी से कम उम्र की प्रेमिका की बाँह में बाँह डालकर 'चलो दिलदार चलो', ' ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ' से 'हम-तुम एक कमरे में बंद हों' गाते हुए गम गलत करता है। आम आदमी इस 'प्रेमिकालॉजी' रहस्य कैसे समझ सकते हैं? इसकी यांत्रिकी भी बंद हो रहे महाविद्यालयों को नवजीवन दे सकती है।
                 अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को नवजीवन देने वाली एक विधा और है जिसे 'जुमलालॉजी' कहते हैं। यह नवीनतम आविष्कृत विधा है। इसमें प्रवीणता, दक्षता और कुशलता न हो तो गंजा पंजा को पराभूत कर देता है और यदि आप इस विधा के विशेषज्ञ हैं तो चाय बेचने से आरम्भ कर प्रधानमंत्री बनने तक की यात्रा कर सकते हैं। इन तमाम विधाओं की यांत्रिकी शिक्षा जो महाविद्यालय देगा उसमें प्रवेश पाने के इच्छुकों की संख्या भारत की जनसंख्या, राजनेता के झूठ, प्रगतिवादियों के पाखण्ड, आतंवादियों के दुराचार, भारतीय संसद के विवादों, खबरिया चैनलों के संवादों, आरक्षणजनित परिवादों, अभिनेत्रियों के नातों, पत्रकारों की बातों और पाकिस्तान को पड़ रही लातों की तरह 'है अनंत हरि कथा अनंता' होगी ही। नाम मात्र की नकली उपाधि लेकर शालेय शिक्षा प्राप्त करने, चिकित्सक या मानव संसाधन मंत्री बनने के इच्छुक छात्रों से प्रथम वरीयता पाकर ऐसे महाविद्यालय हेमामालिनी के गालों की तरह चिकनी सड़कें बनाने, कलम तराजू और तलवार को जूते मारने, अगणित कपडे और पादुकाएँ जुटाने, अपनी प्रतिमा आप लगवाने, दामाद को रोडपति से करोड़पति बनाने के विशेष पाठ्य चलाकर देवानंद की तरह सदाबहार हो ही जायेंगे, इसमें संदेह नहीं। 
***

सोमवार, 19 मई 2014

chintan: are women slave & anti islamic?



सोचिए, क्या औरतें गैर इस्लामिक और मर्दों की गुलाम मात्र हैं?

इस्लामाबाद। द कौंसिल ऑफ़ इस्लामिक आइडिओलॉजी The Council of Islamic Ideology (CII) की १९२ वीं बैठक के निर्णय अनुसार ' औरतों का अस्तित्व शरीया तथा अल्लाह की इच्छा के विपरीत है. कौंसिल के चेयरमैन मौलाना मुहम्मद खान शीरानी ने कहा कि औरतों का होना प्रकृति के नियमों का उल्लंघन है तथा औरतों से इस्लाम और शरीया की रक्षा लिए औरतों को निजी अस्तित्व न रखने के लिए बाध्य किया जाए. मुस्लिम औरतों की शादी के लिए न्यूनतम आयु निर्धारण को इस्लामविरोधी घोषित के २ दिन बाद यह घोषणा की गयी. शीरानी ने औरतों को इस्लाम विरोधी घाषित करते हुए  कहा कि औरतें दो प्रकार की हराम  (निषिद्ध) तथा मकरूह (नापसंद) होती हैं. कोई भी औरत जो अपनी इच्छा अनुसार कार्य करती है हराम तथा इस्लाम के विरुद्ध षड्यंत्रकर्त्री है.  केवल पूरी तरह आज्ञापालक औरत खुद को मकरूह के स्तर तक उठा सकती है, यही इस्लाम की उदारता तथा मुस्लिम पुरुष की कोशिश है. कौंसिल सदस्यों ने औरतों से जुड़े कर ऐतिहासिक सन्दर्भों विचार के बाद पाया की हर औरत फ़ित्ना का  इस्लाम की दुश्मन है. उन्होंने यह निर्णय भी लिया कि मोमिन तथा मुजाहिदीन औरतों को दास होने तक रोककर  की इस्लाम शांति, समृद्धि तथा लैंगिक समानता का धर्म बना रहे. एक प्रतिनिधि ने कहा की औरतों  सम्बन्धी अंतर्राष्ट्रीय मानक इस्लाम या पाकिस्तान के संविधान जिसमें अल्लाह को सर्वोच्चता दे गयी है के विरोधी हों तो उन्हें नहीं माना जाना चाहिए। कौंसिल ने सरकार को सलाह दी की औरतों से श्वास लेने का अधिकार छीनकर उसके पति या पालक को दिया जाना चाहिए। औरत को किसी भी हालत में श्वास लेने या न लेने का निर्णय करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।

Islamabad - Sharia Correspondent: The Council of Islamic Ideology (CII) concluded their 192nd meeting on Thursday with the ruling that women are un-Islamic and that their mere existence contradicted Sharia and the will of Allah. As the meeting concluded CII Chairman Maulana Muhammad Khan Shirani noted that women by existing defied the laws of nature, and to protect Islam and the Sharia women should be forced to stop existing as soon as possible. The announcement comes a couple of days after CII’s 191st meeting where they dubbed laws related to minimum marriage age to be un-Islamic.

After declaring women to be un-Islamic, Shirani explained that there were actually two kinds of women – haraam and makrooh. “We can divide all women in the world into two distinct categories: those who are haraam and those who are makrooh. Now the difference between haraam and makrooh is that the former is categorically forbidden while the latter is really really disliked,” Shirani said.

He further went on to explain how the women around the world can ensure that they get promoted to being makrooh, from just being downright haraam. “Any woman that exercises her will is haraam, absolutely haraam, and is conspiring against Islam and the Ummah, whereas those women who are totally subservient can reach the status of being makrooh. Such is the generosity of our ideology and such is the endeavour of Muslim men like us who are the true torchbearers of gender equality,” the CII chairman added.

Officials told Khabaristan Today that the council members deliberated over various historic references related to women and concluded that each woman is a source of fitna and a perpetual enemy of Islam. They also decided that by restricting them to their subordinate, bordering on slave status, the momineen and the mujahideen can ensure that Islam continues to be the religion of peace, prosperity and gender equality.

Responding to a question one of the officials said that international standards of gender equality should not be used if they contradict Islam or the constitution of Pakistan that had incorporated Islam and had given sovereignty to Allah. “We don’t believe in western ideals, and nothing that contradicts Islam should ever be paid heed. In any case by giving women the higher status of being makrooh, it’s us Muslims who have paved the way for true, Sharia compliant feminism,” the official said.

The CII meeting also advised the government that to protect Islam women’s right to breathe should also be taken away from them. “Whether a woman is allowed to breathe or not be left up to her husband or male guardian, and no woman under any circumstance whatsoever should be allowed to decide whether she can breathe or not,” Shirani said.

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

shram ko naman

 कविता:
श्रम को नमन

हमीरपुर जिले के बदनपुर गांव की फूलमती बुंदेलखंड की धरती पर वह कर रही हैं , जिसे देखकर पुरुष भी दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। इतनी पढ़ी लिखी तो हैं नहीं कि पायलट बन सकें , लेकिन ऊपर वाले ने बाजुओं में वो ताकत जरूर दी है कि सम्मानपूर्वक परिवार का पालन-पोषण कर सकें। पति नशेबाज व अकर्मण्य निकला तो वह प्रतिदिन हमीरपुर से बदनपुर के बीच रिक्शा चलाकर सवारियां ढोती हैं ...! सलाम माँ भारती की इस माता को ... सलाम इनके जज्बे को ..!

कम किसी से हम रहें, कर सकते हर काम
कहें रहे क्यों क्यों पुरुष का, किसी कार्य हित नाम

शर्म न, गौरव है बहुत, कर सकते हर काम
रिक्शा-चालन है 'सलिल', सिर्फ एक आयाम

हम पर तरस न खाइये, दें अब पूरा मान
नारी भी हर क्षेत्र में, है नर सी गुणवान

मन अपना मजबूत है, तन भी है मजबूत
शक्ति और सामर्थ्य है, हममें भरी अकूत

हम न तनिक कमजोर हैं, सकते राह तलाश
रोक नहीं सकते कदम, परंपरा के पाश

करते नशा वही हुआ, जिनका मन कमजोर
हम संकल्पों के धनी, तम से लायें भोर

मत वरीयता दीजिए, मानें सिर्फ समान
लेने दें अधिकार लड़, आप न करिए दान



शुक्रवार, 5 अगस्त 2011


02.JPGचिंतन:
वर्तमान स्त्री : पूज्या या भोग्या 


- राजीव गुप्ता
 अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचानी । ममेदनु क्रतुपतिरू सेहनाया उपाचरेत !! ऋग्वेद )

( ऋग्वेद की ऋषिका -शची पोलोमी कहती है "मैं ध्वजारूप (गृह स्वामिनी ),तीब्र बुद्धि वाली एवं प्रत्येक विषय पर परामर्श देने में समर्थ हूँ । मेरे कार्यों का मेरे पतिदेव सदा समर्थन करते हैं ! " )


संक्रमण काल के इस दौर में तथाकथित प्रसिद्धि पाने की होड़, प्रतिस्पर्धा और आधुनिकता के नाम पर बदलाव के दहलीज पर खड़े हम स्त्री के उस जाज्वल्यमान आभा की प्रतीक्षा कर रहे है जो सनातन  से ही भारतीय मनीषियों के चिंतन का विषय रहा है ! भारतीय मनीषियों ने सदैव  से ही स्त्री-पुरुष को न केवल एक दूसरे का पूरक माना अपितु मनु स्मृति  में  स्त्री को पूजनीय कहकर समाज में प्रतिष्ठित किया गया !  
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: !
यत्रेतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया: !!
( जहां महिलाओं को सम्मान मिलता है वहां समृद्धि का राज्य होता है.
                                        जहां महिलाऑ का अपमान होता है, वहां की सब योजनाएं/ कार्य विफल हो जाते हैं )


.विश्व की इस अद्वितीय भारतीय संस्कृति में ही हम स्त्री को पूजनीय कह सकते  है तभी तो  पुरुष उनकी ही बदौलत आज भी महिमा मंडित हो रहा है ! भारतीय दर्शन में सृष्टि का मूल कारण अखंड मातृसत्ता अदिति भी नारी है और  वेद माता गायत्री है !  नारी की महानता  का वर्णन करते हुये ”महर्षि गर्ग” कहते हैं कि :-
यद् गृहे रमते नारी लक्ष्‍मीस्‍तद् गृहवासिनी।
देवता: कोटिशो वत्‍स! न त्‍यजन्ति गृहं हितत्।।
( जिस घर में सद्गुण सम्पन्न नारी सुख पूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी निवास करती हैं। हे वत्स! करोड़ों देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते। )

भारत में हमेशा से ही  नारी को उच्च स्थान दिया गया ।  भारतीय संस्कृति में नारी का उल्लेख 'श्री’, ‘ज्ञान’ तथा ‘शौर्य’ की अधिष्ठात्री नारी रूप में किया गया है !आदिकाल से ही हमारे देश में नारी की पूजा होती आ रही है। आज भी आदर्श-रूप में भारतीय नारी में तीनों देवियाँ सरस्वती,लक्ष्मी और दुर्गा की पूजा होती है ! भला  ‘अर्द्धनारीश्वर’ का आदर्श को कौन नहीं जानता ?  किसी भी मंगलकार्य में नारी की उपस्थिति को अनिवार्य माना गया है ! नारी की अनुपस्थिति में किये गए कोई भी मांगलिक कार्य को अपूर्ण माना गया। उदहारण के लिए  हम सत्यनारायण  भगवान् की कथा को ही ले लेते है ! वेदों के अनुसार सृष्टि के विधि-विधान में नारी सृष्टिकर्ता ‘श्रीनारायण’ की ओर से मूल्यवान व दुर्लभ उपहार है। नारी ‘माँ’ के रूप में ही हमें इस संसार का साक्षात दिग्दर्शन कराती है, जिसके शुभ आशीर्वाद से जीवन की सफलता फलीभूत होती है। माँ तो प्रेम, भक्ति तथा श्रध्दा की आराध्य देवी है। तीनों लोकों में ‘माता’ के रूप में नारी की महत्ता प्रकट की गई है। जिसके कदमों तले स्वर्ग है, जिसके हृदय में कोमलता, पवित्रता, शीतलता, शाश्वत वाणी की शौर्य-सत्ता और वात्सल्य जैसे अनेक उत्कट गुणों का समावेश है, जिसकी मुस्कान में सृजन रूपी शक्ति है तथा जो हमें सन्मार्ग के चरमोत्कर्ष शिखर तक पहुँचने हेतु उत्प्रेरित करती है, उसे ”मातृदेवो भव” कहा गया है ! नारी के प्रति किसी भी प्रकार  के  असम्मान को गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा गया है चाहे  नारी शत्रु पक्ष की ही क्यों ना हो  तो भी उसको पूरा सम्मान देने की परम्परा भारत में है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘रामचरित मानस’ में लिखा भी  है कि भगवान श्री राम बालि से कहते हैं-
अनुज बधू, भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्‍या सम ए चारी।।

 इन्‍हहिं कुदृष्टि विलोकई जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई।।
(छोटे भाई की पत्नी, बहिन, पुत्र की पत्नी कन्या के समान होती हैं। इन्हें कुदृष्टि से देखने वाले का वध कर देना कतई पापनहीं है।)
    किसी लेखक ने  नारी की महानता की  व्याख्या  करते हुए लिखा है कि  भारत की यह परम्परा रही है कि छोटी आयु में पिता को,  विवाह के बाद पति को तथा प्रौढ़ होने पर पुत्र को नारी की रक्षा का दायित्व है। यही कारण था कि हमारी संस्कृति में प्राचीन काल से ही महान नारियों की एक उज्ज्वल परम्परा रही है। सीता, सावित्री, अरून्धती, अनुसुइया, द्रोपदी जैसी तेजस्विनी; मैत्रेयी, गार्गी अपाला, लोपामुद्रा जैसी प्रकाण्ड विदुषी, और कुन्ती,विदुला जैसी क्षात्र धर्म की ओर प्रेरित करने वाली तथा एक से बढ़कर एक वीरांगनाओं के अद्वितीय शौर्य से भारत का इतिहास भरा पड़ा है। वर्तमान काल खण्ड में भी महारानी अहल्याबाई, माता जीजाबाई, चेन्नमा, राजमाता रूद्रमाम्बा, दुर्गावती और महारानी लक्ष्मीबाई जैसी महान नारियों ने अपने पराक्रम की अविस्मरणीय छाप छोड़ी । इतना ही नहीं, पद्मिनी का जौहर, मीरा की भक्ति और पन्ना के त्याग से भारत की संस्कृति में नारी को  "ध्रुवतारे" जैसा स्थान प्राप्त हो गया।  "इस धर्म की रक्षा के लिए अगर मेरे पास और भी पुत्र होते तो मैं उन्हें भी धर्म-रक्षा, देश-रक्षा के लिए प्रदान कर देती।” ये शब्द उस ‘माँ’ के थे जिसके तीनों पुत्र दामोदर, बालकृष्ण व वासुदेव चाफेकर स्वतंत्रता के लिये फाँसी चढ़ गये। भारत में जन्म लेने वाली पीढ़ियाँ कभी भी नारी के इस महान आदर्श को नहीं भूल सकती। भारतीय संस्कृति में नारी की पूजा हमेशा होती रहेगी। प्राचीन भारत की नारी समाज में अपना स्थान माँगने नहीं गयी, मंच पर खड़े होकर अपने अभावों की माँग पेश करने की आवश्यकता उसे कभी प्रतीत ही नहीं हुई। और न ही विविध संस्थायें स्थापित कर उसमें नारी के अधिकारों पर वाद-विवाद करने की उसे जरूरत हुई। उसने अपने महत्वपूर्ण क्षेत्र को पहचाना था, जहाँ खड़ी होकर वह सम्पूर्ण संसार को अपनी तेजस्विता, नि.स्वार्थ सेवा और त्याग के अमृत प्रवाह से आप्लावित कर सकी थी। व्यक्ति, परिवार, समाज, देश व संसार को अपना-अपना भाग मिलता है- नारी से, फिर वह सर्वस्वदान देने वाली महिमामयी नारी सदा अपने सामने हाथ पसारे खड़े पुरुषों से क्या माँगे और क्यों माँगे? वह हमारी देवी अन्नपूर्णा है- देना ही जानती है लेने की आकांक्षा उसे नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि भारतीय नारी ने कभी भी अपने ‘नारीधर्म’ का परित्याग नहीं किया नहीं तो आर्य-वर्त कहलाने वाला ‘हिन्दुस्थान’ अखिल विश्व की दृष्टि में कभी का ख़त्म हो गया होता।  और तो और इतिहासकारों का भी यही मत है कि प्रायः पुरुष शिकार पर जाते थे और नारी घर पर रहती थी ! कुछ दानो को जमीन पर बिखराकर नारी  ने ही नव-पाषण काल में खेती की खोज कर अस्थायी बस्तियों को स्थाई बनाकर एक क्रांति को जन्म दिया जिसके बाद में ही शहरीकरण की स्थपाना हुई ! अतः यह कहना सही होगा कि प्राचीन काल में भी स्त्री-पुरुष को एक दूसरे का पूरक माना जाता था ऐसा इतिहासकार भी मानते है ! स्टीफन. आर. कोवे ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक ‘सेवन हैबिट्स आफ हाइली इफेक्टिव पीपल’ के प्रारंभ में लिखा है-”Interdependence is better than Independence.” वास्तव में अंतर्निर्भरता ही जीवन का मूल  है। स्त्री पुरुष के संदर्भ में अंतर्निर्भरता और सहजीवन एक संपूर्ण सत्य है। यह जीवन की स्वाभाविकता का मूल आधार है व  उनकी एकात्मता नैसर्गिक है। गांधी जी का भी यही चिंतन था  कि - ”जिस प्रकार स्त्री और पुरुष बुनियादी तौर पर एक हैं, उसी प्रकार उनकी समस्या भी मूल में एक होनी चाहिए। दोनों के भीतर वही आत्मा है। दोनों एक ही प्रकार का जीवन बिताते हैं। दोनो की भावनाएं एक सी हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, दोनों एक-दूसरे की सक्रिय सहायता के बिना जी नहीं सकते। और इस स्त्री, पुरुष नाम के दोनों पहलुओं को एक इकाई की तरह जान लेना, समझ लेना और जीने की कोशिश करना ही विवाह नामक व्यवस्था का उद्देश्य हो सकता है।
परन्तु वर्तमान समय  में पाश्चात्य संस्कृति और  शिक्षा के प्रचार-प्रसार के प्रभाव से भारत में भी नारी के अधिकार का आन्दोलन चल पड़ा है।  बीसवीं सदी का प्रथमार्ध यदि नारी जागृति का काल था तो उत्तरार्ध नारी प्रगति का और इक्कीसवी सदी का यह महत्वपूर्ण पूर्वार्ध नारी सशक्तीकरण का काल है। आजकल मनुष्य जाति के इतिहास में ‘वस्त्र सभ्यता’ ने बड़ी धूम मचा रखा है ! भारत की राजधानी दिल्ली में अभी हाल में ही एक  "बेशर्म मोर्चा" निकाला गया जो कि टोरंटो से शुरू होकर यहाँ पहुंचा था !  शायद किसी दबाव में बदलकर बाद में ये इस मोर्चे का केंद्र-बिदु  "महिला-सशक्तिकरण " हो गया  बहरहाल पहले तो इस मार्च का  उद्देश्य था  कि  " लड़कियों को हर प्रकार के कपडे पहनने की आजादी होनी चाहिए चाहे वो छोटे हो हो अथवा बड़े, पुरुष की नियत में खोट होता है उनके कपड़ों में नहीं !" मुझे समझ नहीं आया कि ये आन्दोलन पुरूषों  की सोच व उनकी गलत मानसिकता के खिलाफ था अथवा उनके परिवार के सदस्य जैसे माता-पिता , भाई-बहन आदि के खिलाफ था जो उनके बाहर निकलने से पहले उनके परिधान को लेकर टोक देते है ! शायद घर में डर-वश कुछ बोल ना पाती हो इसलिए दिल्ली के  जंतर-मंतर पर आ गयी जहा उन्हें मीडिया का अटेंशन तो मिलेगा ही और रविवार छुट्टी का दिन होने के करण  कनाट प्लेस घूमने आये लोगों की भीड़ भी मिलेगी ! 
बाजारवाद का यह मूल मन्त्र है कि "जो दिखता है वो बिकता है !" शायद इसलिए नारी को को लगभग हर विज्ञापन से जोड़ दिया जाता चाहे वो विज्ञापन सीमेंट का हो, चाकलेट का हो, अन्तः वस्त्र का हो,  अथवा किसी मोबाईल के काल रेट का जो दो पैसे में दो लड़कियां पटाने की बात करता है !  और तो और विज्ञापन - क्षेत्र में करियर चमकाने की  स्त्री की लालसा  को आज का बाजार लगभग उसी पुरा  पाषण-काल के दौर में ले जाने को आतुर है जहा लोगों को कपडे का अर्थ तक नहीं पता था पहनने की बात तो दूर की है ! यह कहना कोई  अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आजकल की स्त्री वही कपडे पहनती जो बाजार चाहता था ! एक दिन  मेरे कालेज में एक लड़की एक टी शर्ट पहनकर आई जिस पर यह वाक्य लिखा था- Virginity is not a dignity , It is lack of opportunity. अर्थात  ‘कौमार्य या यौन शुचिता सम्मान की बात नहीं है, यह अवसर की कमी है।’ मैंने सोचा कि आजकल की यह अवधारणा, आंदोलन या क्रांतिकारिता  का रूप भी ले सकती है ! सेक्स और बाजार  के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को पीछे छोड़  दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों अर्थात "एडवरटाइजमेंट"  पर ही निर्भर  है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए ‘प्लेबाय’ या ‘डेबोनियर’ तक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। यह कहना गलत ना होगा कि स्त्री आज बाजारू संस्कृति का खिलौना मात्र बनकर गयी है जो कि  शरीर  ढंकने, कम ढंकने, उघाड़ने या ओढ़ने पर जोर देता है। आजकल कलंक की भी मार्केटिंग होती है  क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से नारी को  रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। बट्रर्ड रसल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ”विक्टोरियन युग में स्त्री के पैर का अंगूठा भी दिखता था तो बिजली दौड़ जाती थी, अब स्त्रियां अर्धनग्न घूम रही हैं, कोई बिजली नहीं दौड़ती।” प्रसिद्द नारीवादी विचारक एवं लेखिका सिमोन द बोवुआर का एक प्रसिध्द वाक्य है- ‘स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बना दी जाती है।’ मातृत्व की अवधारणा और अन्यायपूर्ण श्रम विभाजन पर सिमोन ने क्रांतिकारी नजरिया प्रस्तुत किया है। उनका मानना था कि स्त्रियोचित प्रकृति स्त्रियों का कोई आंतरिक गुण नहीं है। यह पितृसत्ता द्वारा उन पर विशेष प्रकार की शिक्षा-दीक्षा, मानसिक अनुकूलन और सामाजीकरण के द्वारा आरोपित किया जाता है। सिमोन द बोवुआर कहती हैं, स्त्रियों  का उत्पीड़न हुआ है और स्त्रियां खुद प्रेम और भावना के नाम पर उत्पीड़न की इजाजत देती हैं।” सिमोन के इस नजरिए को क्रांतिकारी नारीवादी सोच (Radical Feminist approach) कहा गया। मगर अपनी प्रसिध्द पुस्तक- ‘द सेकेंड सेक्स’ की अंतिम पंक्ति में सिमोन द बोवुआर यह सदिच्छा व्यक्त करती हैं, ”नि:संदेह एक दिन स्त्री और पुरुष आपसी समता और सह-अस्तित्व की जरूरत को स्वीकार करेंगे।” सिमोन द बोवुआर और जान स्टुअर्ट मिल के विचारों को जानते हुए हमें पश्चिम की औरतों की स्थिति का भी आभास मिलता है जहा भारत के विपरीत कभी  भी सम्मान की दृष्टि से स्त्री को  नहीं देखा गया !  कहा जाता है कि वहां स्त्रियों की स्थिति लगभग दोयम दर्जे की रही है। परन्तु  समस्या तब और जटिल हो जाती है जब नारी की आजादी  का मतलब ‘देह’ को केन्द्र में रखने, उसकी नुमाइश और लेन-देन से समृध्दि, सम्पन्नता, अधिकार एवं वर्चस्व प्राप्त करने तक पहुंच जाता है। आज स्त्री अस्मिता के संघर्ष में ‘दैहिक स्वतंत्रता और पुरुष का विरोध’ ही दो प्रमुख पहलू नजर आते हैं। परिणाम यह हुआ है कि स्त्री देह अब केवल ‘कामोत्तेजना’ नहीं बल्कि ‘काम विकृति’ के लिए भी इस्तेमाल होने लगी है। वह लगभग ‘वस्तु’ के रूप में क्रय-विक्रय के लिए बाजार में मौजूद हो गई है। यह समूची स्त्री जाति का न केवल अपमान है बल्कि यह  दुर्भाग्य भी है कि अब स्त्री की देह ही सब कुछ है। उसकी आत्मा का कोई मूल्य नहीं है। आत्महीन स्त्री की मुक्ति और स्वतंत्रता के मायने क्या हो सकते हैं? कोई किसी तस्वीर या मूर्ति को बेड़ी में बांधकर रखे या हवा में खुला छोड़ दें तो क्या फर्क पड़ने वाला है? पश्चिम के दर्शन व संस्कृति में नारी सदैव पुरुषों से हीन , शैतान की कृति,पृथ्वी पर प्रथम अपराधी थी। वह कोई पुरोहित नहीं हो सकती थी । यहाँ तक कि वह मानवी भी है या नहीं ,यह भी विवाद का विषय था। इसीलिये पश्चिम की नारी आत्म धिक्कार के रूप में एवं बदले की भावना से कभी फैशन के नाम पर निर्वस्त्र होती है तो कभी पुरुष की बराबरी के नाम पर अविवेकशील व अमर्यादित व्यवहार करती है। हिंदुस्तानी औरत इस समय बाजार के निशाने पर है। एक वह बाजार है जो परंपरा से सजा हुआ है और दूसरा वह बाजार है जिसने औरतों के लिए एक नया बाजार पैदा किया है। मुझे कभी कभी डर भी लगता है कहीं  किसी गाने की ये पंक्तियाँ " औरत ने जन्म दिया पुरुषो को , पुरुषों ने उसे बाज़ार दिया " सच ना साबित हो जाय ! औरत की देह इस समय दूरदर्शन के चौबीसों घंटे चलने वाले माध्यमों का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। लेकिन परंपरा से चला आ रहा देह बाजार भी नए तरीके से अपने रास्ते बना रहा है। अब यह देह की बाधाएं हटा रहा है, जो सदैव से गोपन रहा उसको अब ओपन कर रहा है।  
केवल अपने लिए भोग करने वाला मानव तो पशु के समान शीघ्र ही  जीवन समाप्ति की ओर पहुंच जाता है। भोग और कामोपभोग से तृप्ति  उसे कभी नहीं मिलती है ! गांधीजी का चिंतन था कि  - ”अगर  स्त्री और पुरुष के संबंधों पर स्वस्थ और शुध्द दृष्टि से विचार किया जाय  और भावी पीढ़ियों के नैतिक कल्याण के लिए अपने को ट्रस्टी माना जाय  तो आज की मुसीबतों के बड़े भाग से बचा जा  सकता  हैं।” फिर यौनिक स्वतंत्रता का मूल्य क्या है, यह केवल स्वच्छंदता और नासमझी भरी छलांग हो सकती है, अस्तित्व का खतरे में पड़ना जिसका परिणाम होता है। इसी तरह यौन शुचिता या कौमार्य का प्रश्न भी है। यह केवल स्त्रियों के लिए नहीं होना चाहिए। यह जरूरी है कि पारस्पारिक समर्पण एवं निष्ठा से चलने वाले वैवाहिक या प्रतिबध्द जीवन के लिए दोनो ओर से संयम का पालन हो। और इसकी समझ स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से अनिवार्य एवं आवश्यक हो। पुरुष को भी संयम एवं संतुलन के लिए प्रेरित करने में स्त्री की भूमिका सदा से रही है। इसलिए स्त्री संयम की अधिष्ठात्री है। उसे स्वाभाविक संयम एवं काम प्रतिरोध की क्षमता प्राकृतिक रूप से भी उपलब्ध है। सिमोन द बोवुआर ने भी स्त्री की संरचना में उसकी शिथिल उत्तेजकता को स्वीकार किया है। यह भी पारस्परिकता का एक महत्वपूर्ण बिंदु है। यौन शुचिता जीवन के रक्षण का ही पर्याय है और यौन अशुचिता नैतिक रूप से ही नहीं बल्कि प्राकृतिक रूप से भी हमें विनष्ट करती है। संयम सदैव ही सभी समाजों में शक्ति का पर्याय माना जाता रहा है। कहावत भी है- ‘सब्र का फल मीठा होता है।’  इस आधुनिकता की अंधी दौड़ में मनुष्य की दशा एक कस्तूरी मृग जैसी हो गयी है, जो  भागता है सुगंध के लिए परन्तु  अतृप्त हो कर थक जाता है । सुगंध स्वयं उसके भीतर है। उसका आत्म उसके आनंद का केन्द्र है। देह तो एक चारदीवारी है,  एक भवन है, जिसमें उसका अस्तित्व आत्मा के रूप में मौजूद है । भवन को अस्तित्व मान लेना भ्रांति है। और भवन  पर पेंट कर,  रंग-रोगन कर उसे चमका लेना भी क्षणिक आनंद भर मात्र  है। उससे दुनिया जहान को भरमा लेना भी कुछ देर का खेल तमाशा है। भवन  को गिरना है आज नहीं तो कल , यही सत्य है ।
वर्तमान दौर में नारी को उसे आधुनिक समाज ने  स्थान अवश्य दिया  है पर वह दिया  है लालसाओं की प्रतिमूर्ति के रूप में, पूजनीय माता के रूप में नहीं। अवश्य ही सांस्कृतिक-परिवर्तन के साथ हमारे आचार-विचार में और हमारे अभाव-आवश्यकताओं में परिवर्तन होना अनिवार्य है। परन्तु जीवन के मौलिक सिद्धान्तों से समझौता कदापि ठीक नहीं। एक लेखक ने तो यहाँ तक लिखा है कि जिस प्रकार दीमक अच्छे भले फलदायक वृक्ष को नष्ट कर देता है उसी प्रकार पूंजीवादी व भौतिकतावादी विचारधारा भारतीय जीवन पद्धति व सोच को नष्ट करने में प्रति पल जुटा है।जिस प्रकार एक शिक्षित पुरूष स्वयं शिक्षित होता है लेकिन एक शिक्षित महिला पूरे परिवार को शिक्षित व सांस्कारिक करती है,उसी प्रकार ठीक इसके उलट यह भी है कि एक दिग्भ्रमित,भ्रष्ट व चरित्रहीन पुरूष अपने आचरण से स्वयं का अत्यधिक नुकसान करता है,परिवार व समाज पर भी प्रतिकूल प्रभाव पडता है लेकिन अगर कोई महिला दिग्भ्रमित,भ्रष्ट व चरित्रहीन हो जाये तो वह स्वयं के अहित के साथ-साथ अपने परिवार के साथ ही दूसरे के परिवार पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है।एक कटु सत्य यह भी है कि एक पथभ्रष्ट पुरूष के परिवार को उस परिवार की महिला तो संभाल सकती है,अपनी संतानों को हर दुःख सहन करके जीविकोपार्जन लायक बना सकती है लेकिन एक पथभ्रष्ट महिला को संभालना किसी के वश में नहीं होता है और उस महिला के परिवार व संतानों को अगर कोई महिला का सहारा व ममत्व न मिले तो उस परिवार के अवनति व अधोपतन को रोकना नामुमकिन है। परन्तु पुरुषों की बराबरी के नाम पर स्त्रियोचित गुणों व कर्तव्यों का बलिदान नहीं किया जाना चाहिए। ममता, वात्सल्य, उदारता, धैर्य,लज्जा आदि नारी सुलभ गुणों के कारण ही नारी पुरुष से श्रेष्ठ है। जहां ‘ कामायनी ‘ का रचनाकार ” नारी तुम केवल श्रृद्धा हो” से नतमस्तक होता है, वहीं वैदिक ऋषि घोषणा करता है कि-” स्त्री हि ब्रह्मा विभूविथ ” उचित आचरण, ज्ञान से नारी तुम निश्चय ही ब्रह्मा की पदवी पाने योग्य हो सकती हो। ( ऋग्वेद ) !

एक लेखक ने भारत  में वर्तमान समय में स्त्री की स्थिति  का चित्रण करते हुए लिखा है कि अब स्त्रियां गांव, चौपाल, गलियों, सड़कों, बाजारों से लेकर स्कूल-कालेज, छोटे-बड़े दफ्तरों और प्रतिष्ठानों, सभी जगह पर निर्द्वन्द्व रूप से अपनी सार्थक एवं सशक्त उपस्थिति से सबको चमत्कृत कर रही हैं। कांग्रेस में श्रीमति सोनिया गांधी सर्वोच्च पद पर पहुंची जिनके हाथ में अघोषित तौर पर देश की बागडोर रहने के आरोप लगते रहे हैं। बाद में देश को 2007 में पहली महिला महामहिम राष्ट्रपति के तौर पर प्रतिभा देवी सिंह पाटिल मिलीं। इसके उपरांत लोकसभा में पहली महिला अध्यक्ष के तौर पर मीरा कुमार भी मिल गईं। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष भी श्रीमति सुषमा स्वराज हैं। स्वतंत्र भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री साठ के दशक में सुचिता कृपलानी थीं। इसके बाद उड़ीसा में नंदिनी सत्पथी मुख्यमंत्री बनीं। मध्य प्रदेश में उमा भारती भी मुख्यमंत्री रहीं। सत्तर के दशक में महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी की शशिकला काकोडकर ने केंद्र शासित प्रदेश गोवा में मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला। अस्सी के दशक मंे अनवरा तैमूर मुख्यमंत्री बनीं तो इसी दौर में तमिलनाडू में एम.जी. रामचंद्रन की पत्नि जानकी रामचंद्रन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। सुषमा स्वराज दिल्ली, राबड़ी देवी बिहार, वसुंधरा राजे राजस्थान तो राजिन्दर कौर भट्टल पंजाब में सफल मुख्यमंत्री रह चुकी हैं।
वर्तमान में दिल्ली की गद्दी श्रीमति शीला दीक्षित, उत्तर प्रदेश की निजाम मायावती हैं। अब आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी तो तमिलनाडू मंे जयललिता मुख्यमंत्री बन महिला शक्ति को साबित करने वाली हैं। 2004 के बाद यह दूसरा मौका होगा जब देश के चार सूबों में महिला मुख्यमंत्री आसीन होंगी। इसक पूर्व 2004 में एमपी में उमा भारती, राजस्थान में वसुंधरा राजे, दिल्ली में शीला दीक्षित तो तमिलनाडू में जयललिता मुख्यमंत्री थीं। 1236 में रजिया सुल्तान की ताजपोशी से आरंभ हुआ लेडी पावर का सिलसिला 775 सालों बाद 2011 में भी बरकरार है। आने वाले साल दर साल यह और जमकर उछाल मारेगा इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। एसी मातृ शक्ति को समूचा भारत वर्ष नमन करता  है !
महिलाओ के बगैर यह श्रृष्टि अधूरी है ! नारी न सिर्फ जननी है  बल्कि भाग्य विधाता भी है ! पूरे परिवार की नीवं एक नारी ही है ! किसी ने सच ही  कहा है कि -  
माँ बनके ममता का सागर लुटाती हो,

बहन हो हक और स्नेह जताती हो, 

पत्नी बन जीवनभर साथ निभाती हो,

बन बेटी, खुशी से दिल भर जाती हो, 

तुम में अनंत रूप, असंख्य रंग हैं ...

 हर मोड़ पे साथ निभाती हो !

तुमसे है घर-द्वार, तुमसे संसार है, 

सृष्टि भी बिना तुम्हारे लाचार है, 

गुस्सा है तुम से और तुम से ही प्यार है, 

हो साथ तुम तो क्या जीत क्या हार है,

बिना तुम्हारे न रहेगी ये दुनिया ...
तुम्हारे ही कंधो पर सृष्टि का भार है !

इतिहास में मैंने पढ़ा था कि एक दौर में मातृ सत्ता हुआ करती थी. तब महिलाओं की तूती बोलती थी. फिर वक्त बदला और पुरूषों ने सत्ता पर कब्जा जमा डाला और महिलाओं के शोषण की ऐसी काली किताब लिखी कि लाख धोने पर भी शायद ही धुले ! मध्ययुगीन अन्धकार के काल में बर्बर व असभ्य विदेशी आक्रान्ताओं की लम्बी पराधीनता से उत्पन्न विषम सामाजिक स्थिति के घुटन भरे माहौल के कारण भारतीय नारी की चेतना भी अज्ञानता के अन्धकार में खोगई थी ! आज जब महिलाओं के पास एक बार फिर कानूनी ताकत आ रही है तो क्या पुरूषों के साथ भी वही सबकुछ नहीं होने लगा है.  उदहारण के लिए आर्टिकल 498 - A को भला आज कौन नहीं जानता ?  भले ही अभी इसे शुरुआत कहा जा सकता है ! लेनिन ने कहा था कि सत्ता इंसान को पतित करती है या यूं कहें पावर जिसके पास होती है वह शोषणकारी होता है और उसका इंसानी मूल्यों के प्रति कोई सरोकार नहीं रहता. लेकिन क्या ऐसे कभी समानता आ सकती है? या फिर ये चक्र ऐसे ही घूमता रहेगा. कभी हम मरेंगें, कभी तुम मरोगे !  
समय करवट ले रहा है ! विचारक  ‘जोड’ ने एक पुस्तक में लिखा है- ”जब मैं जन्मा था तब पश्चिम में होम्स थे, अब हाउसेस रह गए हैं क्योंकि पश्चिमी घरों से स्त्री खो गई है।” कही यह दुर्गति भारत की भी ना हो जाय क्योंकि  भारत  में यदि भारतीय संस्कृति  यहाँ का धर्म और विचार अगर बचा है तो नारी की बदौलत ही  बचा है !  अतः नारी  को इस पर विचार करना चाहिए !  कही देर ना हो जाय अतः इस स्थिति से उबरने का एकमात्र उपाय यही है कि नारी अब अन्धानुकरण का त्याग कर ,भोगवादी व बाजारवादी संस्कृति से अपने को मुक्त करे। अपनी लाखों , करोड़ों पिछड़ी अनपढ़ बेसहारा बहनों के दुखादर्दों को बांटकर उन्हें शैक्षिक , सामाजिक, व आर्थिक स्वाबलंबन का मार्ग दिखाकर सभी को अपने साथ प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होना सिखाये । तभी सही अर्थों में  नारी इक्कीसवीं सदी की समाज की नियंता हो सकेगी । अब स्त्री को खुद को सोचना है कि वह कैसे स्थापति होना  चाहती है पूज्या बनकर या भोग्या बनकर !

- राजीव गुप्ता
9811558925  

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बुधवार, 5 मई 2010

मत-अभिमत : स्त्री

women

women are like vehicles, everyone appreciate the outside beauty, but the inner beauty is embraced by her owner. - पायल शर्मा

स्त्री वाहन नहीं, संस्कृति की वाहक है.
मानव मूल्यों की स्त्री ही तो चालक है..
वाहन की चाबी कोई भी ले सकता है.
चाबी लगा घुमा कर उसको खे सकता है.
स्त्री चाबी बना पुरुष को सदा घुमाती.
जब जी चाहे रोके, उठा उसे दौडाती.
विधि-हरि-हर पर शारद-रमा-उमा हावी हैं.
नव दुर्गा बन पुजती स्त्री ही भावी है.
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com