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मंगलवार, 21 नवंबर 2017

hindi sahitya men hasya ras

हिंदी साहित्य में हास्य रस
मेघना राठी, भोपाल  
*
हास्य यानि नवरस में से एक। डॉ गणेश दत्त सारस्वत के अनुसार , " हास्य जीवन की वह शैली है, जिससे मनुष्य के मन के भावों की सुंदरता झलक उठती है।" हास्य वास्तव में निच्छल मन से निकला, मानव मन का वह कवच है जो उद्दात्त भावों को नियंत्रण कर हमें पृथ्वी पर रहने योग्य बनाता है।
श्रंगार रस के द्वारा हास्य का जन्म कई लेखको और विचारको द्वारा माना जाता है। लेकिन हास्य रस का विस्तार मात्र श्रंगार रस तक नहीं है अपितु अनेक रसों के परिपाक में इसकी उपयोगिता को महत्व दिया गया है।
आचार्य भरत मुनि के अनुसार केवल आठ रस ही माने गए हैं, जिसमे हास्य रस का एक विशेष स्थान है।
विश्वप्रसिद्ध लेखक "वाल्तेयर" ने साहित्यकारों की एक सभा में कहा था," जो हँसता नहीं वो लेखक नहीं हो सकता।"
हिंदी साहित्य में हास्य रस की परम्परा पुरातन काल से समृद्ध रूप में देखी जा सकती है। भारितीय आख्यायिकाएं , नाटक, गीत, महाकाव्य, पंचतंत्र, जातक कथाएँ, अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि इस बात का प्रमाण हैं कि हिंदी साहित्य में हास्य आरम्भ से ही विद्यमान रहा है।
सूरदास जी द्वारा रचित बाललीलाओ में शुद्ध हास्य के बहुत सुन्दर उदाहरण देखने को मिल जायेगें।
हिंदी साहित्य में वीरगाथा काल में ओजपूर्ण रचनाएं ज्यादा लिखी गईं पर पूर्णतः हास्यविहीन काल नहीं था। पृथ्वीराज रासो में चंदरबरदाई और जयचंद की वार्ता हास्य व्यंग्य का अच्छा उदाहरण है।
भक्तिकाल में भी कुछ संतों के द्वारा जब विभिन्न धर्मानुयायियों के ढोंग को प्रदर्शित किया गया तब अनायास ही चरित्रगत विद्रूपता से उत्पन्न हास्य उतपन्न होता दीखता है।
आधुनिक हिंदी साहित्य की बात करें तो ' भारतेंदु हरिश्चंद' द्वारा ' अंधेर नगरी'और ' ताजीराते शौहर' जैसे प्रसिद्ध हास्य व्यंग्य ग्रन्थ लिखे गए। इसी समय ' प्रताप नारायण मिश्र' और ' बालमुकुंद गुप्त' द्वारा भी कई हास्य व्यंग्य लिखे गए।
बालकृष्ण भट्ट, शिवपूजनसहाय, विश्वभरनाथ शर्मा 'कौशिक', बाबू गुलाबराय ने हिंदी साहित्य को श्रेष्ठ हास्य व्यंग्य रचनाएं दीं।
मुंशी प्रेमचन्द की रचनाओं में भी हास्य भरपूर है। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्र नाथ त्यागी ने हास्य व्यंग्य की श्रेष्ठ रचनाओं के द्वारा हिंदी साहित्य को और समृद्ध किया।
हिंदी पत्रकारिता ने भी हास्य- व्यंग्य विधा को स्थापित करने में भरपूर योगदान दिया। कवि वचनसुधा, ब्राह्मण ये समाचारपत्र हास्य - व्यंग्य से भरपूर थे। प्रयाग समाचारपत्र में 'गोपालराम गहमरी ' हास्य - व्यंग्य का नियमित कॉलम लिखते थे। आज भी कई प्रसिद्ध समाचारपत्र हास्य- व्यंग्य के कॉलम को नियमित स्थान देते हैं।
" मार्क ट्वेन" के शब्दों में," समाज की सही तस्वीर उतारने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी व्यंगकार पर ही है"।
एक व्यंगकार हँसते- हँसते सब कुछ कह जाता है और सुनने वाले भी बिना बुरा माने हँसते- हँसते सुनते हैं और फिर सोचने के लिए बाध्य भी होते हैं कि हम खुद की कारस्तानियों , खुद के द्वारा उत्पन्न की हुई परिस्थिति पर स्वयं ही हँस रहे हैं।
वास्तव में जो बात क्रोध से, शांति से कहने में समझ नहीं आती वो इंसान हँसी -हँसी में समझ लेता है। कारण यहाँ उसका " अहं" आहात नहीं होता है। यही कारण है कि सामान्यजन द्वारा हास्य- व्यंग्य आधारित विधाएँ ज्यादा लोकप्रिय होती हैं।
काका हाथरसी के कुण्डलियाँ छंद हो या सुरेन्द्र शर्मा का चार लाइना, अशोक चक्रधर की कवितायेँ, इन सभी में एक बात सामान है, वह है " हास्य रस का प्रवाह"।
आज साहित्यकारों का एक वर्ग " हास्य" को सहित्यानुरूप नहीं मानता। हास्य से उन्हें साहित्य का स्तर हल्का होता हुआ लगता है।
ये सही है कि आज हास्य के नाम ओअर फूहड़ता परोसी जा रही है पर मात्र इस आधार पर हास्य को साहित्य से विलग करना सही नहीं है। सुधि पाठकजन , श्रोतागण समझते हैं शुद्ध हास्य और फूहड़ता के फर्क को।
हास्य को साहित्य की धारा से अलग मानने वाले लोगों को साहित्य के इतिहास में मील का पत्थर माने जाने वाले हास्य व्यंगकारों को अवश्य ही ध्यान में रखते हुए हास्य व्यंग्य में लिख रहे रचनाकारों का उत्साहवर्धन करना चाहिए, जिससे सहित्यकोष अच्छी हास्य व्यंग्य रचनाओं से समृद्ध हो सके साथ ही नई पीढ़ी भी शुद्ध हास्य से परिचित हो सके।
हास्य आदिकाल से ही मानव से जुदा है और हँसने हँसाने की ये विशेषता केवल मनुष्य को ही मिली है। साहित्य मानव स्वभाव को ही परिलक्षित करता है। इसलिए साहित्य की धारा से हास्य न कभी अलग हुआ है और न ही कभी होगा। केवल जरुरत है सही व सार्थक दिशा में लिखने- पढ़ने और साथ ही प्रोत्साहन की।

गुरुवार, 9 मई 2013

darohar sasural chalo gopal prasad vyas

धरोहर:

हास्य रचना

ससुराल चलो

गोपाल प्रसाद व्यास
*
तुम बहुत बन लिए यार संत,
अब ब्रम्हचर्य में नहीं तंत,
क्यों दंड व्यर्थ में पेल रहे,
ससुराल चलो बुद्धू बसंत।
मुख में बीड़ा, कर में गजरा,
आँखों में मस्ताना कजरा,
कुर्ते में चुन्नट डाल चलो, 
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
रूखे-रूखे से बाल चलो,
पिचके-पिचके से गाल चलो,
दो-दो चश्मे, छै-छै टोनिक,
दर्जन भर साथ रुमाल चलो,
स्लीपिंग टेबलेट, अमृतधारा,
कुछ च्यवनप्राश, शोधित पारा,
थैले में सब कुछ डाल चलो,

ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
छोडो फ़ाइल, छोडो लैदर,
देखो कैसा जोली वैदर,
क्यों कलम अकेले रगड़ रहे?
हो जाओ वन से टूगैदर।
वे वहाँ पड़ीं, तुम यहाँ पड़े,
वे वहाँ छड़ीं, तुम यहाँ छड़े।
अर्जेंट आ गयी काल चलो,

ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
मम्मी के मन के मून चलो,
डैडी के अफलातून चलो.
बंडी-बंडी बुश शर्ट पहन,
चिपकी-चिपकी पतलून चलो.
सींकिया सनम, मजनू माडल ,
आँखों पर बैलों सा गोगल।
जी नहीं नमस्ते, कहो 'हलो'
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
साली से गाली खाने को,
सरहज का लहजा पाने को, 
उनकी सखियों से नजर बचा,
कतराने को, इतराने को,
मनचले चलो, मन छले चलो
मन मले चलो, मन जले
भावों में लिए उबाल चलो
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
लो नयी ट्यून सीखो मिस्टर,
डारा डारा डररर डररर.
फिल्मों के नए नाम रट लो, 
शौक़ीन बहुत उनकी सिस्टर।
वे शर्मीलीन, तुम शर्मीले,
मत ट्विस्ट करो ढीले-ढीले।
हो चुस्त-चपल, वाचाल चलो
ससुराल चलो, ससुराल चलो...

  



सोमवार, 28 जनवरी 2013

हास्य पद: जाको प्रिय न घूस-घोटाला संजीव 'सलिल'

हास्य पद:

जाको प्रिय न घूस-घोटाला


संजीव 'सलिल'


*
जाको प्रिय न घूस-घोटाला...
वाको तजो एक ही पल में, मातु, पिता, सुत, साला.
ईमां की नर्मदा त्यागकर,  न्हाओ रिश्वत नाला..
नहीं चूकियो कोऊ औसर, कहियो लाला ला-ला.
शक्कर, चारा, तोप, खाद हर सौदा करियो काला..
नेता, अफसर, व्यापारी, वकील, संत वह आला.
जिसने लियो डकार रुपैया, डाल सत्य पर ताला..
'रिश्वतरत्न' गिनी-बुक में भी नाम दर्ज कर डाला.
मंदिर, मस्जिद, गिरिजा, मठ तज, शरण देत मधुशाला..
वही सफल जिसने हक छीना,भुला फ़र्ज़ को टाला.
सत्ता खातिर गिरगिट बन, नित रहो बदलते पाला..
वह गर्दभ भी शेर कहाता बिल्ली जिसकी खाला.
अख़बारों में चित्र छपा, नित करके गड़बड़ झाला..
निकट चुनाव, बाँट बन नेता फरसा, लाठी, भाला.
हाथ ताप झुलसा पड़ोस का घर धधकाकर ज्वाला..
सौ चूहे खा हज यात्रा कर, हाथ थाम ले माला.
बेईमानी ईमान से कर, 'सलिल' पान कर हाला..
है आराम ही राम, मिले जब चैन से बैठा-ठाला.
परमानंद तभी पाये जब 'सलिल' हाथ ले प्याला..

                           ****************
(महाकवि तुलसीदास से क्षमाप्रार्थना सहित)

सोमवार, 3 सितंबर 2012

हास्य सलिला : गधा-वार्ता संजीव 'सलिल'

हास्य सलिला :

गधा-वार्ता

संजीव 'सलिल'

*



एक गधा दूजे से बोला: 'मालिक जुल्मी बहुत मारता।'
दूजा बोला: 'क्यों सहता तू?, क्यों न रात छिप दूर भागता?'
पहला बोला: 'मन करता पर उजले कल की सोच रुक गया।'
दूजा पूछे:' क्या अच्छा है जिसे सोच तू आप झुक गया?'
पहला: 'कमसिन सुन्दर बेटी को मालिक ने मारा था चांटा।
ब्याह गधे से दूंगा तुझको' कहा, जोर से फिर था डांटा।
ठहरा हूँ यह सपना पाले, मालिक अपनी बात निभाए।
बने वह परी मेरी बीबी, मेरी भी किस्मत जग जाए।

***
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
94251 83244 / 0761 2411131
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



शनिवार, 27 अगस्त 2011

हास्य कुण्डली: साली महिमा --संजीव 'सलिल'

हास्य कुण्डली:
साली महिमा
संजीव 'सलिल'
*
साली जी गुणवान हैं, जीजा जी हैं फैन..
साली जी रस-खान हैं, जीजा सिर्फ कुनैन..
जीजा सिर्फ कुनैन, फ़िदा हैं जीजी जी पर.
सुबह-शाम करते सलाम उनको जी-जी कर..
बीबी जी पायी हैं मधु-रस की प्याली जी.
बोनस में स्नेह लुटाती हैं साली जी.
*
साली की महिमा बड़ी, कभी न भूलें आप.
हरि के पहले कीजिये साली जी का जाप..
साली जी का जाप करें उपवासे रहकर.
बीबी रहे प्रसन्न, भाव-सलिला में बहकर..
सुने प्रार्थना बीबी, दस दिश हो खुशहाली..
सुने वंदना जिस जीजा से प्रतिदिन साली.
*
जिसकी साली हो नहीं, उसका चैन हराम.
नीरस हो जीवन सकल, बिगड़ें सारे काम..
बिगड़ें सारे काम, रहें गृह लक्ष्मी गुमसुम.
बिन संज्ञा के सर्वनाम नाकारा हो तुम.
कहे 'सलिल' साली-वंदन से  किस्मत चमकी.
उसका गृह हो स्वर्ग, खूब हो साली जिसकी..
*******