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बुधवार, 26 जून 2019

आल्हा/वीर/मात्रिक सवैया छंद

छंद सलिला:
आल्हा/वीर/मात्रिक सवैया छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति , अर्ध सम मात्रिक छंद, प्रति चरण मात्रा ३१ मात्रा, यति १६ -१५, पदांत गुरु गुरु, विषम पद की सोलहवी मात्रा गुरु (ऽ) तथा सम पद की पंद्रहवीं मात्रा लघु (।),
लक्षण छंद:
आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य..
अलंकार अतिशयता करता बना राई को 'सलिल' पहाड़.
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..
उदाहरण:
१. बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
*
२. कर में ले तलवार घुमातीं, दुर्गावती करें संहार.
यवन भागकर जान बचाते गिर-पड़ करते हाहाकार.
सरमन उठा सूँढ से फेंके, पग-तल कुचले मुगल-पठान.
आसफ खां के छक्के छूटे, तोपें लाओ बचे तब जान.
३. एक-एक ने दस-दस मारे, हुआ कारगिल खूं से लाल
आये कहाँ से कौन विचारे, पाक शिविर में था भूचाल
या अल्ला! कर रहम बचा जां, छूटे हाथों से हथियार
कैसे-कौन निशाना साधे, तजें मोर्चा हो बेज़ार
__________
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कमंद, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

alha

एक रचना
*
मचा महाभारत भारत में, जन-गण देखें ताली पीट 
दहशत में हैं सारे नेता, कैसे बचे पुरानी सीट?  
हुई नोटबंदी, पैरों के नीचे, रही न हाय जमीन 
कौन बचाए इस मोदी से?, नींद निठुर ने ली है छीन 
पल भर चैन न लेता है खुद, दुनिया भर में करता धूम 
कहे 'भाइयों-बहनों' जब भी, तभी सफलता लेता चूम 
कहाँ गए वे मौनी बाबा?, घपलों-घोटालों का राज 
मनमानी कर जोड़ी दौलत, घूस बटोरी तजकर लाज 
हाय-हाय हैं कैसे दुर्दिन?, छापा पड़ता सुबहो-शाम 
चाल न कोई काम आ रही, जब्त हुआ सब धन बेदाम 
जनधन खातों में डाला था, रूपया- पीट रहे अब माथ 
स्वर्ण ख़रीदा जाँच हो रही, बैठ रहा दिल खाली हाथ 
पत्थर फेंक करेगा दंगा, कौन बिना धन? पिट रइ गोट 
नकली नोट न रहे काम के, रोज पड़े चोटों पर चोट   
ताले तोड़ आयकरवाले, खाते-बही कर रहे जब्त 
कर चोरी की पोल खोलते, रिश्वत लेंय न कैसी खब्त?
बेनामी संपत्ति बची थी, उस पर ली है नजर जमाय 
हाय! राम जी-भोले बाबा, हनुमत  कहूँ न राह दिखाय 
छोटे नोट दबाये हमीं ने, जनता को है बेहद कष्ट  
चूं न कर रहा फिर भी कोई, समय हो रहा चाहे नष्ट 
लगे कतारों में हैं फिर भी, कहते नीति यही है ठीक 
शायर सिंह सपूत वही जो, तजे पुरानी गढ़ नव लीक 
पटा लिया कुछ अख़बारों को, चैनल भरमाते हैं खूब 
दोष न माने फिर भी जनता, लुटिया रही पाप की डूब  
चचा-भतीजे आपस में भिड़, मोदी को करते मजबूत 
बंद बोलती माया की भी, ममता को है कष्ट अकूत 
पाला बदल नितिश ने मारा, दाँव न लालू जाने काट 
बोल थके है राहुल भैया, खड़ी हुई मैया की खाट 
जो मैनेजर ललचाये थे, उन पर भी गिरती है गाज 
फारुख अब्दुल्ला बौराया, कमुनिस्टों का बिगड़ा काज  
भूमि-भवन के भाव गिर रहे, धरे हाथ पर हाथ सुनार 
सेठ अफसरों नेताओं के ठाठ, न बाकी- फँसे दलाल  
रो-रो सूख रहे हैं आँसू, पिचक गए हैं फूले गाल 
जनता जय-जयकार कर रही, मोदी लिखे नाता इतिहास 
मन मसोस दिन-रात रो रहे, घूसखोर सब पाकर त्रास 
**

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

alha

विशेष लेख-

                                                        आल्हा रचें सुजान 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
                                                      *

                          छंद ओज बलिदान का, आल्हा रचें सुजान। 
                          सुन वीरों के भुज फड़क, कहें लड़ा दे जान।। 
                         सोलह-पन्द्रह यति रखें, गा अल्हैत रस-वान।
                           मुर्दों में भी फूँकता, छंद वीर नव जान।।
*
          संस्कृत वांग्मय से वीर काव्य परंपरा ग्रहण कर हिंदी में रचित वीर-काव्य में प्रयुक्त तथा मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में गणनीय  आल्हा या वीर छंद को इतिहास में महती भूमिका निभाने के अनेक अवसर मिले और इस छंद ने जहाँ मातृभूमि के रक्षार्थ जूझ रहे नर-नाहरों में प्राणोत्सर्ग का भाव भरा, वही शत्रुओं के मन में मौत का भय पैदा किया। 

          बुंदेलखंड-बघेलखंड-रुहेलखंड में गाँव-गाँव में चौपालों पर सावन के पदार्पण के साथ ही अल्हैतों (आल्हा गायकों) की टोलियाँ ढोल-मंजीरा के साथ आल्हा गाती हैं। प्राचीन काल में युद्धों के समय सेना में, शांति काल में  दरबारों में तथा दैनंदिन जीवन में गाँवों में अल्हैत होते थे जो अपने राज्य, सेना प्रमुख अथवा किसी महावीर की कीर्ति का बखान आल्हा गाकर करते थे। इससे जवानों में लड़ने का जोश बढ़ता, जान की बजी लगाने की भावना पैदा होथी थी, शत्रु सेना के उत्साह में कमी आती थी।

          इस छंद का ’यथा नाम तथा गुण’ की तरह इसके कथ्य ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं। अतिरेकी अभिव्यंजनाएँ इस छंद का दोष न होकर मौलिक गुण हो जाता है।आल्हा छंद में अतिशयोक्ति अलंकार विशाल भण्डार है जिसकी बानगी पंक्ति-पंक्ति में देखि जा सकती है। आधुनिक काल में आल्हा छंद में हास्य रचनाएँ भी की गयीं हैं।

                                                     * 

छंद विधान:

                              विषम चरण के अंत में, गुरु या दो लघु श्रेष्ठ।
                             गुरु लघु सम चरणांत में, रखते आये ज्येष्ठ।। 
                               जगनिक आल्हा छंद के रचनाकार महान।
                             आल्हा-ऊदल की कथा, गा-सुन मिटता नेष्ठ।।

          आल्हा या वीर छंद भी दोहा की ही तरह अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसे मात्रिक सवैया भी कहा जाता है। आल्हा दो पदों (पंक्तियों) तथा चार चरणों (अर्धाली) में रचा जाता है किन्तु दोहे की १३-११ पर यति के स्थान पर आल्हा छंद में १६-१५ पर यति होती है। 

          यह भी कह सकते हैं कि दोहा के ग्यारह मात्रीय सम चरण में ४ मात्रिक शब्द जोड़कर आल्हा या वीर छंद बन जाता है। इसके विपरीत आल्हा या वीर छंद के १५ मात्री सम चरण में से चार मात्राएँ कम करने पर दोहा का सम अंश शेष रहता है।वीर छंद में विषम चरण का अंत गुरु अथवा २ लघु से तथा सम चरण का अंत गुरु लघु से होता है।

   संध्या घनमाला की ओढे, सुन्दर रंग-बिरंगी छींट।
   गगन चुम्बिनी शैल श्रेणियाँ, पहने हुए तुषार-किरीट।। 


टीप - सम पदों मे से 'सुन्दर' तथा 'पहने' हटाने पर दोहा के सम पदांत 'रंग-बिरंगी छींट' तथा 'हुए तुषार-किरीट' शेष रहता है जो दोहा के सम पद हैं।

वीर छंद या आल्हा में ही वीर छंद की परिभाषा

                             मात्रा सोलह पन्द्रह आल्हाअतिशयोक्ति आभूषण भाय|
                                 अंत सदा गुरु लघु से होवैवीर छंद ही नाम सुहाय||
                                 आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैयापहुँचे कूदि-कूदि  आकाश|
                                एक फूंक मा बैरी उड़िगेकै डारिनि  बैरिनि का नाश||

संरचना-
          चार चरण, प्रत्येक चरण में १६ + १५ मात्रा कुल ३१ मात्राएँ। विषम चरण में १६ मात्रा पर यति, सैम चरण में १५ मात्रा पर यति, चरणान्त में गुरु-लघु, विषम चरण की सोलहवी मात्रा गुरु तथा सम चरण की पंद्रहवी मात्र लघु। 
                आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य। 
            गुरु या दो लघु विषम, सम रखें, गुरु-लघु तब ही हो स्वीकार्य।।
                अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़।
                ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।। -सौरभ पाण्डेय


आल्हा खण्ड के महानायक आल्हा - ऊदल

          महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देला युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें-

पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ।
आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ।। ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय।
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय।।

*


टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार।
आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार।।  ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल।  ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल।।
*
अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात।
चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात।।
*
एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान। ('एक' का उच्चारण 'इक')
नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार।।
महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय।
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय।।
*
सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय।
टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय।
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ।
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ।।
*
बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार।
बरिस अठारह छत्री जीयें, आगे जीवन को धिक्कार।।


चित्र परिचय: आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.

                             
सलिल रचित आल्हा छंद के अन्य उदाहरण:

. बड़े लालची हैं नेतागण, रिश्वत-चारा खाते रोज।
    रोज-रोज बढ़ता जाता है, कभी न घटता इनका डोज़।।
    'सलिल' किस तरह ये सुधरेंगे?, मिलकर करें सभी हम खोज।
    नोच रहे हैं लाश देश की, जैसे गिद्ध कर रहे भोज।।

२. छप्पन इंची सीना देखें, पाकी-आतंकी घबराँय।   
    मिया मुशर्रफ भूल हेकड़ी,सोते में भी लात चलाँय
    भौंक रहे हैं खुद शरीफ भी, भुला शराफत जात दिखाँय
    घोल न शर्बत में पी जाएँ, सोच-सोच चीनी डर जाँय 

३. लोकतंत्र के पीपल बैठे, नेता काटें निश-दिन डाल
   लोक हितों की अनदेखी कर,मचा रहे हैं रोज बवाल
   रुष्ट देश की जनता सोचे,जिसे चुनो वह खींचे खाल। 
   हाय राम रे! हमें बचाओ, जीना भी अब हुआ मुहाल 

४. कौन किसी का कभी हुआ है,मरघट में सब जाते छोड़
    साथ चलेंगे नहीं लगाता, कोई भी थोड़ी भी होड़
    सुख-समृद्धि में भागीदारी, कंगाली में रहते दूर। 
    रिश्ते-नाते भरमाते हैं, जो न समझता सच वह सूर 

५. जा न सड़क पर आम आदमी, अभिनेता आये ले कार। 
    रौंद सड़क पर तुझे जाएगा, गरियाए कह मूर्ख-गँवार
    न्यायालय निर्दोष कहेगा, उसे- तुझे ही देगा दोष-
    मदद न कोई कहीं मिलेगी, मरे भूख से रो परिवार

६. तनक न चिंता करो दाउ जू, बुंदेली के नीके बोल।
    जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल।।
    कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल।
    आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल।।
                                                    
७. अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय।
    छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय।।
    नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय।
    पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय।।

८. फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय।
    बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय।।
    बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय।
    अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय।।

९. नव प्रयोग :
    भारतवारे बड़े लड़ैया
    बिनसें हारे पाक सियार 
    .
    घेर लओ बदरन नें सूरज
    मचो सब कऊँ हाहाकार
    ठिठुरन लगें जानवर-मानुस
    कौनौ आ करियो उद्धार
    बही बयार बिखर गै बदरा
    धूप सुनैरी कहे पुकार
    सीमा पार छिपे बनमानुस
    कबऊ न पइयो हमसें पार
    .
    एक सिंग खों घेर भलई लें
    सौ वानर-सियार हुसियार
    गधा ओढ़ ले खाल सेर की
    देख सेर पोंके हर बार
    ढेंचू-ढेचूँ रेंक भाग रओ
    करो सेर नें पल मा वार
    पोल खुल गयी, हवा निकर गयी
    जान बखस दो करें पुकार
   (भाषा रूप- बुंदेली)
     . 
१०. घर मा आग लगी बाग़त हैं, देस-बिदेस न देखें हाल
     कहूँ न पानी, कहूँ बाढ़ है, जनगण रोता हो बेहाल
     कौनउ लेत न जिम्मेदारी, एक-दूसरे पे दें टाल
   अफसर-नेता मौज उड़ाउत, सेठ तिजोरी भरते माल

११. हरिगंधा कुरुक्षेत्र की धरा, पुण्य कमाओ करो प्रणाम
    सुन गीता की वाणी मानो, कर्म-धर्म बिसरा परिणाम
    कलम थाम बैठे रामेश्वर, सत-शिव-सुंदर रच अभिराम
    सत-चित-आनंद दर्शन पाओ, मोह खास का तज हो आम

टिप्पणी-  पारंपरिक आल्हा छंद में  २-२ पंक्तियों में समान तुकांत होते हैं। उक्त में तुकांत संबंधी विविध प्रयोग किये गए हैं, इनसे छंद की लय, कथ्य आदि  विआप्रीत प्रभाव नहीं पड़ता। अत:, आल्हा मुक्तक, आल्हा गीत, आल्हा ग़ज़ल, आल्हा फाग, आल्हा बाल गीत जैसे प्रयोग छंद प्रासंगिकता और उपादेयता बढ़ाने के लिए स्वागतेय हैं। 
   
**********
संदेश में फोटो देखें
​आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001 

दूर वार्ता-  ​94251 83244 / 0761 2411131
दूरलेख- 
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

aalha chhand

​​रसानंद दे छंद नर्मदा : १०   
13365296.jpg
छंद ओज बलिदान का आल्हा रचें सुजान  
*
छंद ओज बलिदान का, आल्हा रचें सुजान। 
सुन वीरों के भुज फड़क, कहें लड़ा दे जान 
 
सोलह-पन्द्रह यति रखें, गा अल्हैत रस-वान
मुर्दों में भी फूँकता, छंद वीर नव जान

MAHOBA,%20U.P.%20-%20udal.jpgविषम चरण के अंत में, गुरु या दो लघु श्रेष्ट
गुरु लघु सम चरणांत में, रखते आये ज्येष्ठ  

जगनिक आल्हा छंद के रचनाकार महान
आल्हा-ऊदल की कथा, गा-सुन लड़ें जवान 

छंद विधान:

आल्हा या वीर छंद भी दोहा की ही तरह अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसे मात्रिक सवैया भी कहा जाता है। 
आल्हा भी दो पदों (पंक्तियों) तथा चार चरणों (अर्धाली) में रचा जाता है किन्तु दोहे की १३-११ पर यति के स्थान पर वीर छंद में १६-१५ पर यति होती है 
दोहा के ग्यारह मात्रीय सम चरण में ४ मात्रिक शब्द जोड़कर आल्हा या वीर छंद बन जाता है इसके विपरीत आल्हा या वीर छंद के १५ मात्री सम चरण में से चार मात्राएँ कम करने पर दोहा का सम अंश शेष रहता हैवीर छंद में विषम चरण का अंत गुरु अथवा २ लघु से तथा सम चरण का अंत गुरु लघु से होता है
Sharada%2Bmata%2BMaihar.JPG
बुंदेलखंड-बघेलखंड में गाँव-गाँव में चौपालों पर सावन के पदार्पण के साथ ही अल्हैतों (आल्हा गायकों) की टोलियाँ ढोल-मंजीरा के साथ आल्हा गाती हैं। प्राचीन समय में युद्धों के समय दरबारों में तथा सेनाओं के साथ अल्हैत होते थे जो अपने राज्य या सेना प्रमुख अथवा किसी महावीर की कीर्ति का बखान आल्हा गाकर करते थे। इससे जवानों में लड़ने का जोश ताता जान की बजी लगाने की भावना पैदा होथी थी, शत्रु सेना के उत्साह में कमी आती थी

इस छंद का ’यथा नाम तथा गुण’ की तरह इसके कथ्य ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं अतिश्योक्ति पूर्ण अभिव्यंजनाएँ इस छंद का मौलिक गुण हो जाता है।आधुनिक काल में आल्हा छंद में हास्य रचनाएँ भी की गयीं हैं 
                                                                               

    आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य   
गुरु या दो लघु विषम, सम रखें, गुरु-लघु तब ही हो स्वीकार्य

    अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़    
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।  -
सौरभ पाण्डेय
 महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देला युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें-

    पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ
    आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ
    ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
    बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय
    जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय
                        
        *
   
4292918593_a1f9f7d02d.jpg    टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार
    आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार
   ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
    कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल
    ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
    बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल
*
    अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात
    चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात
*
    एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान
('एक' का उच्चारण 'इक')
    नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार
    महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय
    राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय
*
सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय
टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ
*
बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार
बरिस अठारह छत्री जीयें,  आगे जीवन को धिक्कार
                                                                         

बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
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तनक न चिंता करो दाउ जू, बुंदेली के नीके बोल
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल

अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय

फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय
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सामान्यतः  आल्हा छंद की रचनाएँ वीर रस और अतिशयोक्ति अलंकार से युक्त होती हैं। उक्त रचना में आल्हा छंद में हास्य रस वर्षा का प्रयास है।
 
उदाहरण:

१. संध्या घनमाला की ओढे, सुन्दर रंग-बिरंगी छींट
    गगन चुम्बिनी शैल श्रेणियाँ, पहने हुए तुषार-किरीट 
सम पदों मे से 'सुन्दर' तथा 'पहने' हटाने पर दोहा के सम पदांत 'रंग-बिरंगी छींट' तथा 'हुए तुषार-किरीट' शेष रहता है जो दोहा के सम पद हैं   

२. तिमिर निराशा मिटे ह्रदय से, आशा-किरण चमक छितराय
    पवनपुत्र को ध्यान धरे जो, उससे महाकाल घबराय 
    भूत-प्रेत कीका दे भागें, चंडालिन-चुडैल चिचयाय
    मुष्टक भक्तों की रक्षा को, उठै दुष्ट फिर हा-हा खाँय

३. कर में गह करवाल घूमती, रानी बनी शक्ति साकार
    सिंहवाहिनी, शत्रुघातिनी सी करती थी आरी संहार
    अश्ववाहिनी बाँध पीठ पै, पुत्र दौड़ती चारों ओर 
    अंग्रेजों के छक्के छूटे, दुश्मन का कुछ, चला न जोर 

४. बड़े लालची हैं नेतागण, रिश्वत-चारा खाते रोज
    रोज-रोज बढ़ता जाता है, कभी न घटता इनका डोज़
    'सलिल' किस तरह ये सुधरेंगे?, मिलकर करें सभी हम खोज
    नोच रहे हैं लाश देश की, जैसे गिद्ध कर रहे भोज
चित्र परिचय: आल्हा ऊदल मंदिर मैहर, वीरवर उदल, वीरवर आल्हा, आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.

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