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रविवार, 31 मई 2015

चन्द माहिया:क़िस्त 21



:1:
दिल हो जाता है गुम
जब चल देती हो
ज़ुल्फ़ें बिखरा कर तुम

:2:
जब तुम ही नहीं होगे
फिर कैसी मंज़िल
फिर किसका पता दोगे ?

:3:
पर्दा वो उठा लेंगे
उस दिन हम अपनी
हस्ती को मिटा देंगे

:4:
चादर न धुली होगी
जाने से पहले
मुठ्ठी भी खुली होगी

:5:
तोते सी नज़र पलटी
ये भी हुनर उनका
एहसान फ़रामोशी

-आनन्द.पाठक
09413395592

muktak:

मुक्तक:
लहरियों में घटी, घाट पर है सदी
धार के भाग्य में मछलियाँ हैं बदी 
चन्द्र को भाल पर टाँक कर खुश हुई, 
वास्तव में रही श्री लुटाती नदी
*
कलियों को रंग, तितलियों को पंख दे रही 
तेरी शरारतें नयी उमंग दे रहीं 
भँवरों की क्या खता जो लुटा दिल दिया मचल 
थीं संगदिल जो आज 'सलिल' संग दे रहीं 
*
जिसका लेख न हो सका, देख लेखिये आप 
लिखा जा चुका श्रेष्ठ फिर, दुहराना है जाप
दृष्टि-कोण की भिन्नता, बदले कथ्य न सत्य 
लिखे हुए पर प्रतिक्रिया, करना है अनुमाप 
*

dwipadi: sanjiv

द्विपदी सलिला :
संजीव
*
औरों की निगाहों से करूँ, खुद का आकलन 
ऐसा न दिन दिखाना कभी, ईश्वर मुझे.
*
'डूब नजरों में न जाएँ' ये सोच दूर रही
वरना नज़रों के नजारों पे नजर शैदा थी

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
दोहा का रंग सिर के संग 
संजीव 
*
पहले सोच-विचार लें, फिर करिए कुछ काम 
व्यर्थ न सिर धुनना पड़े, अप्रिय न हो परिणाम 
*
सिर धुनकर पछता रहे, दस सिर किया न काज 
बन्धु सखा कुल मिट गया, नष्ट हो गया राज
*
सिर न उठा पाये कभी, दुश्मन रखिये ध्यान 
सरकश का सर झुकाकर, रखे सदा बलवान
*
नतशिर होकर नमन कर, प्रभु हों तभी प्रसन्न 
जो पौरुष करता नहीं, रहता 'सलिल' विपन्न 
*
मातृभूमि हित सिर कटा, होते अमर शहीद 
बलिदानी को पूजिए, हर दीवाली-ईद 
*
विपद पड़े सिर जोड़कर, करिए 'सलिल' विचार 
चाह राह की हो प्रबल, मिल जाता उपचार 
*
तर्पण कर सिर झुकाकर, कर प्रियजन को याद 
हैं कृतज्ञ करिए प्रगट, भाव- रहें  फिर शाद 
*
दुर्दिन में सिर मूड़ते, करें नहीं संकोच
साया छोड़े साथ- लें अपने भी उत्कोच  
*
अरि ज्यों सीमा में घुसे, सिर काटें तत्काल 
दया-रहम जब-जब किया, हुआ हाल बेहाल 
*
सिर न खपायें तो नहीं, हल हो कठिन सवाल 
सिर न खुजाएँ तो 'सलिल', मन में रहे मलाल 
*
'सलिल' न सिर पर हों खड़े, होता कहीं न काम 
सरकारी दफ्तर अगर, पड़े चुकाना दाम 
*
सिर पर चढ़ते आ रहे, नेता-अफसर खूब
पाँच साल  गायब रहे, सके जमानत डूब 
*
भूल चूक हो जाए तो, सिर मत धुनिये आप 
सोच-विचार सुधार लें, सुख जाए मन व्याप
*
होनी थी सो हो गयी, सिर न पीटिए व्यर्थ
गया मनुज कब लौटता?, नहीं शोक का अर्थ 
*
सब जग की चिंता नहीं, सिर पर धरिये लाद
सिर बेचारा हो विवश, करे नित्य फरियाद 
*
सिर मत फोड़ें धैर्य तज, सिर जोड़ें मिल-बैठ 
सही तरीके से तभी, हो जीवन में पैठ
सिर पर बाँधे हैं कफन, अपने वीर जवान 
ऐसा काम न कीजिए, घटे देश का मान 
*
सर-सर करता सर्प यदि, हो समीप झट भाग
सर कर निज भय, सर रखो, ठंडा बढ़े न ताप 
*
सर!-सर! कह थक गये पर, असर न हो यदि मीत
घुड़की दो: 'सर फोड़ दूं?', यही उचित है रीत
*
कसर न छोड़े काम में, पसर न कर आराम
गुजर-बसर तब हो सके, सर बिन माटी चाम
*

**    

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शनिवार, 30 मई 2015

muktak: sanjiv


मुक्तक:
संजीव 
तेरी नजरों ने बरबस जो देखा मुझे, दिल में जाकर न खंजर वो फिर आ सका 
मेरी नज़रों ने सीरत जो देखी तेरी, दिल को चेहरा न कोई कभी भा सका 
तेरी सुनकर सदा मौन है हर दिशा, तेरी दिलकश अदा से सवेरा हुआ
तेरे नखरों से पुरनम हुई है हवा, तेरे सुर में न कोइ कभी गा सका 

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान 
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान 
*
धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक 
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक 
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक 
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब 
*

dwipadiyan: sanjiv

द्विपदी सलिला :
संजीव
*
कंकर-कंकर में शंकर हैं, शिला-शिला में शालिग्राम
नीर-क्षीर में उमा-रमा हैं, कर-सर मिलकर हुए प्रणाम
*
दूल्हा है कौन इतना ही अब तक पता नहीं 
यादों की है हसीन सी बारात दोस्ती
*
जिसकी आँखें भर आती हैं उसके मन में गंगा जल है 
नेह-नर्मदा वहीं प्रवाहित पोर-पोर उसका शतदल है 


  

haiku: sanjiv

हाइकु सलिला: 
हाइकु का रंग पलाश के संग 
संजीव 
*
करे तलाश 
अरमानों की लाश
लाल पलाश 
*
है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
*
दीन न हीन
हमेशा रहे तीन 
ढाक के पात 
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप 
टेसू निष्पाप 
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
*
उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित 
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
*
पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
*
मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित 
करे पलाश 
*
होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
*
पहरेदार
विरागी तपस्वी या 
प्रेमी उदास
*

शुक्रवार, 29 मई 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
मातृभाषा में
संजीव
*
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
ढोल सुहाने दूर के
होते सबको ज्ञात
घर का जोगी जोगड़ा
आन सिद्ध विख्यात
घरवाली की बचा नजरें
अन्य से अँखियाँ लड़ाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
आम आदमी समझ ले
मत बोलो वह बात
लुका-दबा काबिज़ रहो
औरों पर कर घात
दर्द अन्य का बिन सुने
स्वयं का दुखड़ा सुनाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
दोहे का रंग मुँह के संग
संजीव
*
दोहे के मुँह मत लगें, पल में देगा मात
मुँह-दर्पण से जान ले, किसकी क्या है जात?
*
मुँह की खाते हैं सदा, अहंकार मद लोभ
मुँहफट को सहना पड़े, असफलता दुःख क्षोभ
*
मुँहजोरी से उपजता, दोनों ओर तनाव
श्रोता-वक्ता में नहीं, शेष रहे सद्भाव
*
मुँह-देखी कहिए नहीं, सुनना भी है दोष
जहाँ-तहाँ मुँह मारता, जो- खोता संतोष
*
मुँह पर करिए बात तो, मिट सकते मतभेद
बात पीठ पीछे करें, बढ़ बनते मनभेद
*
मुँह दिखलाना ही नहीं, होता है पर्याप्त
हाथ बटायें साथ मिल, तब मंजिल हो प्राप्त
*
मुँह-माँगा वरदान पा, तापस करता भोग
लोभ मोह माया अहं, क्रोध ग्रसे बन रोग
*
आपद-विपदा में गये, यार-दोस्त मुँह मोड़
उनको कर मजबूत मन, तत्क्षण दें हँस छोड़
*
मददगार का हम करें, किस मुँह से आभार?
मदद अन्य जन की करें, सुख पाये संसार
*
जो मुँहदेखी कह रहे, उन्हें न मानें मीत
दुर्दिन में तज जायेंगे, यह दुनिया की रीत
*
बेहतर है मुँह में रखो, अपने 'सलिल' लगाम
बड़बोलापन हानिप्रद, रहें विधाता वाम
*
छिपा रहे मुँह आप क्यों?, करें न काज अकाज
सच को यदि स्वीकार लें, रहे शांति का राज
*
बैठ गये मुँह फुलाकर, कान्हा करें न बात
राधा जी मुस्का रहीं, मार-मार कर पात
*
मुँह में पानी आ रहा, माखन-मिसरी देख
मैया कब जाएँ कहीं, करे कन्हैया लेख
*
मुँह  की खाकर लौटते, दुश्मन सरहद छोड़
भारतीय सैनिक करें, जांबाजी की होड़
*
दस मुँह भी काले हुए, मति न रही यदि शुद्ध
काले मुँह उजले हुए, मानस अगर प्रबुद्ध
*
गये उठा मुँह जब कहीं, तभी हुआ उपहास
आमंत्रित हो जाइए, स्वागत हो सायास
*
सीता का मुँह लाल लख, आये रघुकुलनाथ
'धनुष-भंग कर एक हों', मना रहीं नत माथ
*
मुँह महीप से महल पर, अँखियाँ पहरेदार
बली-कली पर कटु-मृदुल, करते वार-प्रहार
***

doha-sortha salila: sanjiv

दोहा-सोरठा सलिला:

छंद सवैया सोरठा, लुप्त नहीं- हैं मौन
ह्रदय बसाये पीर को, देख रहे चुप कौन?
*
करे पीर से प्रेम जब, छंद तभी होता प्रगट  
बसें कलम में तभी रब, जब आँसू हों आँख में 
*
पीर-प्रेम का साथ ही, राधा-मीरावाद
सूर-यशोदा पीर का, ममतामय अनुवाद
*
शब्द-शब्द आनंद, श्वास-श्वास में जब बसे
तभी गुंजरित छंद, होते बनकर प्रार्थना
*
धुआँ कामना हो गयी, छूटी श्वासा रेल 
जग-जीवन लगने लगा, जीत-हार का खेल 
*
किशन देखता मौन, कितने कहाँ सरोज हैं?
शब्द-वेध कर कौन, बने धंनजय 'सलिल' फिर.
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
एकता 
संजीव
*
मतभेदों की चली आँधियाँ
तिनकों जैसी 
हुई एकता 
*
धूमधाम से बैनर बाँधे 
उठा होर्डिंग ढोते काँधे 
मंच बनाया भाग-दौड़कर 
भीड़ जुटी ज्यों वानर फाँदे
आश्वासन से सजी वादियाँ 
भाषण गूँजे 
हुई एकता 
मतभेदों की चली आँधियाँ
तिनकों जैसी 
हुई एकता 
*
सगा किसी का कौन यहाँ पर?
लड़ते ऊँचा निजी निशां कर
संकट में चल दिये छोड़कर
अपना नारा आप गुंजाकर 
मौन रहो, चुप सहो खामियाँ 
सच सुनकर 
कब टिकी एकता?
मतभेदों की चली आँधियाँ
तिनकों जैसी 
हुई एकता 
*
बैठ मंच पर सज दूल्हा बन 
चमचों से करवा अभिनंदन 
रोली माला चन्दन श्रीफल 
फोटो भाषण खबर दनादन 
काम बहुत कम अधिक लाबियाँ 
मनमानी को 
कहें एकता 
मतभेदों की चली आँधियाँ
तिनकों जैसी 
हुई एकता 
*
    
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गुरुवार, 28 मई 2015

गीत: sanjiv

अभिनव प्रयोग
दोहा-सोरठा गीत
संजीव
*
इतना ही इतिहास,
मनुज, असुर-सुर का रहा
हर्ष शोक संत्रास,
मार-पीट, जय-पराजय
*
अक्षर चुप रह देखते, क्षर करते अभिमान
एक दूसरे को सता, कहते हम मतिमान
सकल सृष्टि का कर रहा, पल-पल अनुसन्धान
किन्तु नहीं खुद को 'सलिल', किंचित पाया जान
अपनापन अनुप्रास,
श्लेष स्नेह हरदम रहा
यमक अधर धर हास,
सत्य सदा कहता अभय
*
शब्द मुखर हो बोलते,  शिव का करिए गान
सुंदर वह जो सनातन, नश्वर तन-मन मान
सत चित में जब बस रहे, भाषा हो रस-खान
पा-देते आनंद तब, छंद न कर अभिमान
जीवन में परिहास,
हो भोजन में नमक सा
जब हो छल-उपहास
साध्य, तभी होती प्रलय
*
मुखड़ा संकेतित करे, रोकें नहीं उड़ान
हठ मत ठानें नापना, क्षण में सकल वितान
अंतर से अंतर मिटा, रच अंतरा सुजान
गति-यति, लय मत भंग कर, तभी सधेगी तान
कुछ कर ले सायास,
अनायास कुछ हो रहा
देखे मौन सहास
अंश पूर्ण में हो विलय
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
ले जाना चाहां था
खुद  को खुद  से दूर
*
जिसने रोका
जिसने टोका
किसे नहीं भट्टी में झोंका
दे जाना चाहां, जो पाया
नहीं फितूर
ले जाना चाहां था
खुद को खुद से दूर
*
जिसकी माया
जिसका साया
उसे न जग ने रोका-टोंका
चढ़ा दिया परसाद सवाया
कह: 'हो सूर'
ले जाना चाहां था
खुद को खुद से दूर
*
जैसी करनी
वैसी भरनी
फिर भी छुरा पीठ  में भोंका
तनिक नहीं मनुआ शरमाया
हो मगरूर
ले जाना चाहां था
खुद को खुद से दूर
*

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
अपने घर में 
आग लगायें *
इसको इतना 
उसको उतना
शेष बचे जो 
किसको कितना?
कहें लोक से 
भाड़ में जाएँ 
सबके सपने 
आज जलायें   
*
जिसका सपना 
जितना अपना 
बेपेंदी का 
उतना नपना 
अपनी ढपली 
राग सुनाएँ 
पियें न पीने दें 
लुढ़कायें 
*
इसे बरसना
उसको तपना 
इसे अकड़ना 
उसे न झुकना 
मिलकर आँसू 
चंद बहायें  
हाय! राम भी 
बचा न  पायें 
*

बुधवार, 27 मई 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
चलो मिल सूरज उगायें 
*
सघनतम तिमिर हो जब 
उज्ज्वलतम कल हो तब 
जब निराश अंतर्मन-
नव आशा फल हो तब 
विघ्न-बाधा मिल भगायें 
चलो मिल सूरज उगायें 
*
पत्थर का वक्ष फोड़ 
भूतल को दें झिंझोड़ 
अमिय धार प्रवहित हो 
कालकूट जाल तोड़ 
मरकर भी जी जाएँ 
चलो मिल सूरज उगायें 
*
अपनापन अपनों का 
धंधा हो सपनों का 
बंधन मत तोड़ 'सलिल' 
अपने ही नपनों का 
भूसुर-भुसुत बनायें 
चलो मिल सूरज उगायें 
*



navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
कौए मन्दिर में बैठे हैं
गीध सिंहासन पा ऐंठे हैं
मन्त्र पढ़ रहे गर्दभगण मिल
करतल ध्वनि करते जेठे हैं.
पुस्तक लिख-छपते उलूक नित
चीलें पीर भईं
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
चूहे खलिहानों के रक्षक
हैं सियार शेरों के भक्षक
दूध पिलाकर पाल रहे हैं
अगिन नेवले वासुकि तक्षक
आश्वासन हैं खंबे
वादों की शहतीर नईं
*
न्याय तौलते हैं परजीवी
रट्टू तोते हुए मनीषी
कामशास्त्र पढ़ रहीं साध्वियाँ
सुन प्रवचन वैताल पचीसी
धुल धूसरित संयम
भोगों की प्राचीर मुईं
***



geet: amitabh tripathi

गीत:
अमिताभ त्रिपाठी 
*
सुन रहे हो
बज रहा है मृत्यु का संगीत

मृत्यु तन की ही नहीं है
क्षणिक जीवन की नहीं है
मर गये विश्वास कितने
पर क्षुधा रीती नहीं है
रुग्ण-नैतिकता समर्थित 
आचरण की जीत
सुन रहे हो.....

ताल पर हैं पद थिरकते
जब कोई निष्ठा मरी है
मुखर होता हास्य, जब भी
आँख की लज्जा मरी है
गर्व का पाखण्ड करते 
दिवस जाते बीत
सुन रहे हो....

प्रीति के अनुबन्ध हो या
मधुनिशा के छन्द हो या
हों युगल एकान्त के क्षण
स्वप्न-खचित प्रबन्ध हों या
छद्म से संहार करती 
स्वयं है  सुपुनीत
सुन रहे हो....

पहन कर नर-मुण्ड माला
नाचती जैसे कपाला
हँसी कितने मानवों के
लिये बनती मृत्युशाला
वर्तमानों की चिता पर 
मुदित गाती गीत
सुन रहे हो.....

-- 

navgeet: sanjiv

नवगीत: 
संजीव
*
अंधड़-तूफां आया
बिजली पल में 
गोल हुई 
*
निष्ठा की कमजोर जड़ें 
विश्वासों के तरु उखड़े
आशाओं के नीड़  गिरे  
मेघों ने धमकाया 
खलिहानों में 
दौड़ हुई. 
*
नुक्कड़ पर आपाधापी 
शेफाली थर-थर काँपी 
थे ध्वज भगवा, नील, हरे 
सबको था थर्राया 
गिरने की भी 
होड़ हुई.
*
उखड़ी जड़ खापों की भी 
निकली दम पापों की भी 
गलती करते बिना डरे 
शैतां भी शर्माया 
घर खुद  का  तो 
छोड़ मुई!.
*
२६-५-२००१५: जबलपुर में ५० कि.मी. की गति से चक्रवातजनित आंधी-तूफ़ान,  भारी तबाही के बाद रचित. 
Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

मंगलवार, 26 मई 2015

kruti charcha: sanvedanaon ke swar- manoj shukla 'manoj'

कृति चर्चा:
संवेदनाओं के स्वर : कहानीकार की कवितायेँ
चर्चाकार: आचार्य संजीव
[कृति विवरण: संवेदनाओं के स्वर, काव्य संग्रह, मनोज शुक्ल 'मनोज', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य १५० रु., प्रज्ञा प्रकाशन २४ जग्दिश्पुरम, लखनऊ मार्ग, त्रिपुला चौराहा रायबरेली]
*
मनोज शुक्ल 'मनोज' मूलतः कहानीकार हैं. कहानी पर उनकी पकड़ कविता की तुलना में बेहतर है. इस काव्य संकलन में विविध विधाओं, विषयों तथा छन्दों की त्रिवेणी प्रवाहित की गयी है. आरम्भ में हिंदी वांग्मय के कालजयी हस्ताक्षर स्व. हरिशंकर परसाई का शुभाशीष कृति की गौरव वृद्धि करते हुए मनोज जी व्यापक संवेदनशीलता को इंगित करता है. संवेदनशीलता समाज की विसंगतियों और विषमताओं से जुड़ने का आधार देती है.
मनोज सरल व्यक्तित्व के धनी हैं. कहानीकार पिता स्व. रामनाथ शुक्ल से विरासत में मिले साहित्यिक संस्कारों को उन्होंने सतत पल्लवित किया है. विवेच्य कृति में डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, सनातन कुमार बाजपेयी 'सनातन' ने वरिष्ठ तथा विजय तिवारी 'किसलय' ने सम कालिक कनिष्ठ रचनाधर्मियों का प्रतिनिधित्व करते हुए संकलन की विशेषताओं का वर्णन किया है. बाजपेयी जी के अनुसार भाषा की सहजता, भावों की प्रबलता, आडम्बरविहीनता मनोज जी के कवि का वैशिष्ट्य है. चतुर्वेदी जी ने साधारण की असाधारणता के प्रति कवि के स्नेह, दीर्घ जीवनानुभवों तथा विषय वैविध्य को इंगित करते हुए ठीक ही कहा है कि 'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए स्वयं संभाव्य है' तथा ' कवि न होऊँ अति चतुर कहूं, मति अनुरूप राम-गुन गाऊँ' में राम के स्थान पर 'भाव' कर दिया जाए तो आज की (कवि की भी) आकुल-व्याकुलता सहज स्पष्ट हो जाती है. फिर जो उच्छ्वास प्रगट होता है वह स्थापित काव्य-प्रतिमानों में भले ही न ढल पाता हो पर मानव मन की विविधवर्णी अभिव्यक्ति उसमें अधिक सहज और आदम भाव से प्रगट होती है.'
निस्संदेह वीणावादिनी वन्दना से आरम्भ संकलन की ७२ कवितायें परंपरा निर्वहन के साथ-साथ बदलते समय के परिवर्तनों को रेखांकित कर सकी हैं. इस कृति के पूर्व कहानी संग्रह क्रांति समर्पण व एक पाँव की जिंदगी तथा काव्य संकलन याद तुम्हें मैं आऊँगा प्रस्तुत कर चुके मनोज जी छान्दस-अछान्दस कविताओं का बहुरंगी-बहुसुरभि संपन्न गुलदस्ता संवेदनाओं के स्वर में लाये हैं. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती ये काव्य रचनाएं पाठक को सामायिक सत्य की प्रतीति करने के साथ-साथ कवि के अंतर्मन से जुड़ने का अवसर भी उपलब्ध कराती हैं. जाय, होंय, रोय, ना, हुये, राखिये, भई, आंय, बिताँय जैसे देशज क्रिया रूप आधुनिक हिंदी में अशुद्धि माने जाने के बाद भी कवि के जुड़ाव को इंगित करते हैं. संत साहित्य में यह भाषा रूप सहज स्वीकार्य है चूँकि तब वर्तमान हिंदी या उसके मानक शब्द रूप थे ही नहीं. बैंक अधिकारी रहे मनोज इस तथ्य से सुपरिचित होने पर भी काव्याभिव्यक्ति के लिये अपने जमीनी जुड़ाव को वरीयता देते हैं.
मनोज जी को दोहा छंद का प्रिय है. वे दोहा में अपने मनोभाव सहजता से स्पष्ट कर पाते हैं. कुछ दोहे देखें:
ऊँचाई की चाह में, हुए घरों से दूर
मन का पंछी अब कहे, खट्टे हैं अंगूर
.
पाप-पुन्य उनके लिए, जो करते बस पाप
लेकिन सज्जन पुण्य कर, हो जाते निष्पाप
.
जंगल में हाथी नहीं, मिलते कभी सफेद
हैं सत्ता में अनगिनत, बगुले भगत सफेद
.
दोहों में चन्द्रमा के दाग की तरह मात्राधिक्य (हो गए डंडीमार, बनो ना उसके दास, चतुर गिद्ध और बाज, मायावती भी आज १२ मात्राएँ), वचन दोष (होता इनमें उलझकर, तन-मन ही बीमार) आदि खीर में कंकर की तरह खलते हैं.
अछांदस रचनाओं में मनोज जी अधिक कुशलता से अपने मनोभावों को व्यक्त कर सके हैं. कलयुगी रावण, आतंकवादी, पुरुषोत्तम, माँ की ममता त्रिकोण सास बहू बेटे का, पत्नी परमेश्वर, मेरे आँगन की तुलसी आदि रचनाएँ पठनीय हैं. गांधी संग्रहालय से एक साक्षात्कार शीर्षक रचना अनेक विचारणीय प्रश्न उठाती है. मनोज का संवेदनशील कवि इन रचनाओं में सहज हो सका है.
संझा बिरिया जब-जब होवे, तुलसी तेरे घर-आँगन में, फागुन के स्वर गूँज उठे, ओ दीप तुझे जलना होगा, प्रलय तांडव कर दिया आदि रचनाएँ इस संग्रह के पाठक को बाँधने में समर्थ हैं.
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समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
९४२५१८३२४४ / salil.sanjiv@gmail.com

doha : sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
*
सकल भूमि सरकार की, किसके हैं हम लोग?
जायें कहाँ बताइए?, तज घडियाली सोग
*
नित्य विदेशों से करें, जी भरकर व्यापार 
कम भेजे बुलवा अधिक, करते बंटाढार 
*
परिवर्तन की राह कब, कहे रही आसान?
आप जूझते ही रहें, करें लक्ष्य-संधान 
*
केंद्र-राज्य पूरक बनें, संविधान की चाह 
फर्ज़ भूल टकरा रहे, जन-गण भरता आह 
*
राज्यपाल का काम है, रखना सिर्फ निगाह 
रहें सहायक तभी तो, हो उनकी परवाह
*
जनगण ने प्रतिनिधि चुने, कर पायें वे काम 
जो इसमें बाधक बने, वह भोगे परिणाम 
*
केद्र न तानाशाह हो, राज्य न मालगुजार 
मालिक जनता रहे तो, मिटे सकल तकरार 
*

सोमवार, 25 मई 2015

doha

दोहा:

हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
*
रिसते जख्मों की कथा रिश्ते हैं, पर मौन 
जुड़ें टूट फिर-फिर जुड़ें, क्यों बतलाये कौन??
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muktak: sanjiv

मुक्तक:

ज़िन्दगी को नस्तियों में बाँध मत
उम्मीदें सब लापता हो जाएँगी
सलिल पवन की तरह बहती रहे
मंजिलों तक मुश्किलें पहुँचाएँगी
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नवगीत: संजीव

नवगीत:
संजीव
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श्वास मुखड़े 
संग गूथें 
आस के कुछ अंतरे 
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जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी 
भाव रंगित कथ्य की 
मुद्रा लुभाने तब लगी 
गुनगुनाकर छंद ने लय 
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े 
संग गूथें 
आस के कुछ अंतरे 
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बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को 
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले 
खिलखिलाकर लहर ने उठ 
कहा: 'जग में तंत रे!'  
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बन्दगी इंसान की 
भगवान ने जब-जब करी 
स्वेद-सलिला में नहाकर 
सृष्टि खुद तब-तब तरी 
झिलमिलाकर रौशनी ने 
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े 
संग गूथें 
आस के कुछ अंतरे 
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