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बुधवार, 15 मई 2024

मई १५, चित्रगुप्त, कायस्थ, गोत्र, अल्ल, तितली, छंद वस्तुवदनक, छंद सारस, लघुकथा,शेर, गीत

सलिल सृजन मई १५
*
लघुकथा:
प्यार ही प्यार
*
'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।'
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
१५-५-२०१६
***
छंद सलिला:
वस्तुवदनक छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल
लक्षण छंद:
वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
पदांत चौकल-द्विकल हो तो शांत हो मन-छवि
उदाहरण:
१. प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर
रविदर्शन कर उड़े परिंदे, चहक-चहक/कर नभ / पर
कलकल-कलकल उतर नर्मदा, शिव-मस्तक / से भू/पर
पाप-शाप से मुक्त कर रही, हर्षित ऋषि / मुनि सुर / नर
२. मोदक लाईं मैया, पानी सुत / के मुख / में
आया- बोला: 'भूखा हूँ, मैया! सचमुच में'
''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
मुझे ज्ञात है पेटू, राज छिपा मोदक में''
३. 'तुम रोओगे कंधे पर रखकर सिर?
सोचो सुत धृतराष्ट्र!, गिरेंगे सुत-सिर कटकर''
बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर
***
सारस / छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति १२-१२, चरणादि विषमक़ल तथा गुरु, चरणांत लघु लघु गुरु (सगण) सूत्र- 'शांति रखो शांति रखो शांति रखो शांति रखो'
विशेष: साम्य- उर्दू बहर 'मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन'
लक्षण छंद:
सारस मात्रा गुरु हो, आदि विषम ध्यान रखें
बारह-बारह यति गति, अन्त सगण जान रखें
उदाहरण:
१. सूर्य कहे शीघ्र उठें, भोर हुई सेज तजें
दीप जला दान करें, राम-सिया नित्य भजें
शीश झुका आन बचा, मौन रहें राह चलें
साँझ हुई काल कहे, शोक भुला आओ ढलें
२. पाँव उठा गाँव चलें, छाँव मिले ठाँव करें
आँख मुँदे स्वप्न पलें, बैर भुला मेल करें
धूप कड़ी झेल सकें, मेह मिले खेल करें
ढोल बजा नाच सकें, बाँध भुजा पीर हरें
३. क्रोध न हो द्वेष न हो, बैर न हो भ्रान्ति तजें
चाह करें वाह करें, आह भरें शांति भजें
नेह रखें प्रेम करें, भीत न हो कांति वरें
आन रखें मान रखें, शोर न हो क्रांति करें
१५-५-२०१४
***
एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...
योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म प्रमाण पत्र बनाया।
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं।
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है। 'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं।
वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया।
निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है।
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।
***
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं।
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था। इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है। ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए। आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं।
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा। नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है।
हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे।
१५-५-२०११
***
अंतिम गीत
लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
ओ मेरी सर्वान्गिनी! मुझको याद वचन वह 'साथ रहेंगे'
तुम जातीं क्यों आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हुए हम सुमन-सुरभि, दीपक-बाती बन.
अपने अंतर्मन को खोकर क्यों रह जाऊँ मैं केवल तन?
शिवा रहित शिव, शव बन जीना, मुझको अंगीकार नहीं है-
प्राणवर्तिका रहित दीप बन जीवन यह स्वीकार नहीं है.
तुमको खो सुधियों की समिधा संग मेरे भी प्राण जलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
नियति नटी की कठपुतली हम, उसने हमको सदा नचाया.
सच कहता हूँ साथ तुम्हारा पाने मैंने शीश झुकाया.
तुम्हीं नहीं होगी तो बोलो जीवन क्यों मैं स्वीकारूँगा?-
मौन रहो कुछ मत बोलो मैं पल में खुद को भी वारूँगा.
महाकाल के दो नयनों में तुम-मैं बनकर अश्रु पलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
हमने जीवन की बगिया में मिलकर मुकुलित कुसुम खिलाये.
खाया, फेंका, कुछ उधार दे, कुछ कर्जे भी विहँस चुकाये.
अब न पावना-देना बाकी, मात्र ध्येय है साथ तुम्हारा-
सिया रहित श्री राम न, श्री बिन श्रीपति को मैंने स्वीकारा.
साथ चलें हम, आगे-पीछे होकर हाथ न 'सलिल' मलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
***
तितलियाँ : कुछ अश'आर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?
कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियों से बाग की रौनक बढ़ी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
१५-५-२०१०
***

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

अप्रैल १२, सोनेट, महादेवी, एकांकी, दोहा, मुक्तिका, सीता, शेर, बुंदेली, गीत,

सलिल सृजन १२ अप्रैल, २०२४

*

सॉनेट याद • याद झुलाती झूला पल पल श्वासों को, पेंग उठाती ऊपर, नीचे लाती है, धीरज रस्सी थमा मार्ग दिखलाती है, याद न मिटने देती है नव आसों को। याद न चुकने-मिटने देती त्रासों को, घूँठ दर्द के दवा बोल गुटकाती है, उन्मन मन को उकसाती हुलसाती है, याद ऊगाती सूर्य मिटा खग्रासों को। याद करे फरियाद न गत को बिसराना, बीत गया जो उसे जकड़ रुक जाना मत, कल हो दीपक, आज तेल, कल की बाती। याद बने बुनियाद न सच को ठुकराना, सुधियों को संबल कर कदम बढ़ाना झट, यादों की सलिला, कलकल कल की थाती। १२.४.२०२४ •••

दोहा सलिला
***
निज माता की कीजिए, सेवा कहें न भार।
जगजननी तब कर कृपा, देंगी तुमको तार।।
*
जन्म ब्याह राखी तिलक गृह-प्रवेश त्योहार।
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।
*
कोशिश करते ही रहें, कभी न मानें हार।
पहनाए मंजिल तभी, पुलक विजय का हार।।
*
डरकर कभी न दीजिए, मत मेरे सरकार।
मत दें मत सोचे बिना, चुनें सही सरकार।।
*
कमी-गलतियों को करें, बिना हिचक स्वीकार।
मन-मंथन कर कीजिए, खुद में तुरत सुधार।।
१२.४.२०२४
***
स्मरण महीयसी महादेवी जी:
संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघु एकांकी
(इसे विद्यालयों में अल्प सज्जा के साथ अभिनीत भी किया जा सकता है)
राह
*
मंच सज्जा - मंच पर एक कमरे का दृश्य है। दीवारें, दरवाजे सफेद रंग से पुते हैं। एक दीवार पर खिड़की के नीचे एक तख़्त बिछा है जिस पर सफ़ेद चादर, सफ़ेद तकिया है। सिरहाने सफेद रंग की कृष्ण जी की मूर्ति रखी है। समीप ही एक मेज पर कुछ पुस्तकें कलम, सफेद कागज, लोटे में पानी हुए २ गिलास रखे हैं। एक कुर्सी पर बैठी एक युवती कुछ लिख रही है। युवती सफ़ेद साड़ी-जंपर (कमर तक का ब्लाउज) पहने हैं, आँखों पर चश्मा है। सर पर पल्ला लिए है। कमरे में अन्य दीवारों से लगकर ४ कुर्सियाँ है जिन पर सफ़ेद आसंदी बिछी है।
एक सुशिक्षित, सुदर्शन युवक जिसने पेंट-कमीज-कोट पहने है, गले में टाई बाँधे है, पैरों में जूते-मोज़े पहने है, दरवाजे की कुण्डी खटखटाता है। युवती उठकर दरवाजा खोलती है। दोनों एक-दूसरे को नमस्कार करते है।
युवती- 'आइए! बैठिए?
दोनों कमरे में प्रवेश कर कुर्सियों पर बैठते हैं। युवती लोटे से पानी निकाल कर देती है।
युवती - 'घर पर सब कुशल-मंगल है?'
युवक - 'हाँ सब ठीक है।'
युवती - 'कहिए, कैसे आना हुआ?'
युवक - 'चलो, मैं तुम्हें लेने आया हूँ।
युवती - 'अरे! कहाँ चलना है?'
युवक - 'और कहाँ?, अपनी गृहस्थी बसाने।'
युवती - 'लेकिन हम तो नहीं चल सकतीं, आप बसा लीजिए अपनी गृहस्थी।'
युवक - 'आपके बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? आपके साथ ही तो गृहस्थी बसाना है। मैं कई इतने वर्षों तक लखनऊ मेडिकल कॉलेज में पढ़ता रहा। अब पढ़ाई पूरी हो गई है।'
युवती - 'बधाई आपको। अब अपना विवाह कीजिए और घर बसाइए।'
युवक - विवाह? मेरा विवाह तो हो चुका है, तुम्हारे साथ, बचपन में ही। तुम्हें याद न हो तो अपने माता-पिता से पूछ लो।'
युवती - 'पूछना क्या है? हमें धुँधली सी याद है। तब तो हम विवाह का मतलब भी नहीं समझती थीं। कई पीढ़ी बाद कुल में कन्या का जन्म हुआ था। अपने जीते जी कन्या दान का पुण्य पाने के लिए दादा जी ने पिताजी के विरोध को दरकिनार कर यह आयोजन कर दिया था। बारात आई तो हम, सबके बीच खड़े होकर बारात देखति रहीं। हमें व्रत रखने को कहा गया था लेकिन घर में तरह-तरह की मिठाई बनी थी, सो हमने डटकर मीठी खाई और सो गईं। बारात आई तो सबके मन करने पर भी बारात देखी। शांम को नींद आई तो सो गईं, सवेरे उठकर देखा तो कपड़ों में गाँठ बँधी थी। पूछने पर बताया गया नाउन ने गोद में उठाकर ब्याह करा दिया था। हमें तो कुछ पता ही नहीं चला। हमने गाँठ खोली और खेलने लगीं। कब-क्या हुआ, कुछ नहीं पता। ऐसे संबंध का कोई अर्थ नहीं है।'
युवक - 'आप ठीक कहती हैं। मैं भी बच्चा ही था, विवाह का अर्थ क्या समझता? बड़ों ने जो कराया, करता चला गया। बड़ों ने ही बताया कि घर आकर आप बहुत रोईं, किसी प्रकार चुप ही नहीं हुईं। किसी के समझने-बहलाने का कोई असर नहीं हुआ तो आपको सवेरा होते ही वापिस आपके घर पहुँचाना पड़ा था।'
युवती - 'जो हुआ सो हुआ, हम दोनों ही इस संबंध का अर्थ नहीं समझते थे, इसलिए सहमति-असहमति या पसंद -नापसंद का तो कोई प्रश्न न था, न है। हम अपनी पढ़ाई पूरी कर साहित्य और समाज के कार्य में लगी रहीं।'
युवक - 'कुछ-कुछ जानता हूँ। हमारी सहमति न रही तो भी विवाह तो हो ही चुका है, उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। इसलिए अपना मन बनाइए और चलिए, हम बड़ों के फैसले का मान रखते हुए घर बसाएँ और उनके अरमान पूरे करें।'
युवती - 'बड़ों के अरमान पूरे करना चाहिए लेकिन हमारा मन बचपन से अब तक कभी घर-गृहस्थी में रमा ही नहीं। बच्चियाँ गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह रचाती हैं लेकिन हमने कभी इस सबमें रुचि नहीं ली। बिना मन के हम कुछ नहीं कर पाती।'
युवक - (हँसते हुए) हाँ, यह तो सब जानते हैं तभी तो तो सवेरा होते ही आपको वापिस घर पहुँचाया गया था। इसीलिए मैं खुद बहुत हिम्मत कर आपके पास आया हूँ। एक बात का भरोसा दिलाता हूँ कि मेडिकल की पढ़ाई के दौरान भी मैंने कभी किसी लड़की की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा।'
युवती - यह क्या कह रहे हैं आप? हम आप पर पूरा भरोसा करती हैं। ऐसा कुछ तो हम आपके बारे में सोच भी नहीं सकतीं।'
युवक - 'फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ कि आप साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन कामों से जुड़ चुकी हैं। विश्वास रखिए, गृहस्थी के कारण आपके किसी भी काम में कभी कोई बाधा नहीं आ सकेगी। मैं खुद आपके सब कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।'
युवती - 'हमको आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हैं, खुद से भी अधिक, लेकिन हम गृहस्थी बसाने के लिए चल नहीं सकतीं।'
युवक - 'एक बात बता दूँ कि घर के बड़े-बूढ़े कोई भी आपको घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, आपको पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात करने के बाद ही आया हूँ।'
युवती - 'अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले हमसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि हमारा मन गृहस्थी बसाने का है ही नहीं और बिना मन के हम कुछ नहीं करतीं।'
युवक - 'ओफ्फोह! मैं भी कितना नासमझ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, अगर कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता मत कीजिए। आप जब-जैसा चाहेंगी, अच्छे से अच्छे डॉक्टर से इलाज करा लेंगे, जब तक आप पूरी तरह स्वस्थ न हो जाएँ और आपका मन न हो मैं आपको कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।'
युवती - 'हम यह भी जानती हैं। इस कलियुग में कोई आदमी इतना सज्जन और संवेदनशील भी होता है, औरत को इतना मान देता है, कौन मानेगा?'
युवक - 'कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, आपके अलावा।'
युवती - 'लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।'
युवक - 'अब आप ही बताओ, मैं ऐसा क्या करूँ जो आप मान जाएँ और गृहस्थी बसा सकें। आप जो भी कहेंगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।'
युवती - ' हम जानती हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो हम कहें और आप न करें पर ऐसा कुछ भी नहीं है जो हम करने के लिए कहें सिवाय इसके कि हम घर-गृहस्थी नहीं बसा सकतीं।
युवक - 'तुम्हें विवाह होने का स्मरण नहीं है तो ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?'
युवती - 'आप भी कैसे-कैसे तर्क खोज लाते हैं लेकिन हम अब विवाह कर ही नहीं सकतीं, जब आप मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे तभी हमने ने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?'
युवक - 'लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।'
युवती - 'चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन हम जानती हैं कि आप हमारी इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमति है। अब आप हमारा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह हम अच्छे से जानती हैं।'
युवक - 'अब क्या कहूँ? क्या करूँ? आप तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।'
युवती - 'रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। हम सन्यासिनी हैं, हमारे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी नियम भंग करने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन हम आपको मना नहीं कर सकतीं? हम नियम भंग का प्रायश्चित्य गुरु जी से पूछ कर कर लेंगीं।"
युवक - 'ऐसा करिए, हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे।'
युवती - 'आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?'
युवक - 'नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा आपके किसी दूसरे या दूसरी के विषय में सोचना भी नहीं है।'
युवती - 'लेकिन हम तो सोचती हैं, सबके बारे में और सब सोचते हैं हमारे बारे में क्योंकि हम समाज में रहते हैं जिसमें हर तरह की सोच के लोग हैं। हम आपके भरोसे सन्यासिनी तो हो गईं लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दें तो क्या विधाता हमें क्षमा करेंगे? विधाता की छोड़ भी दूँ तो हमारा अपना मन मुझे हमें कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न हमारा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से हमने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें, वहाँ विवाह करें। हम खुश हैं कि आपके जैसे सुलझे हुए व्यक्ति से संबंध हुआ था, इसलिए खुले मन से अपनी बात कह सकीं। आप अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।'
युवक - 'आप तो हिमालय की तरह हैं पवित्र और दृढ़। शायद मुझमें ही आपका साथी होने की पात्रता नहीं है। ठीक है, आपकी ही बात रहे। हम दोनों प्रायश्चित्य करेंगे, मैंने अनजाने में ही सही आपका नियम भंग कर आपसे अकेले में बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। आप जब जहाँ जो भी करें उसमें मेरी पूरी सहमति मानिए। जिस तरह आपने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी आपके भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी आपका या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचें तो पूर्व परिचित सामान्य स्त्री-पुरुष की तरह बात करने से या कभी आवश्यकता पर मुझसे एक सामान्य सहयोगी की तरह सहायता लेने से आप खुद को नहीं रोकेंगी, मुझे खबर करेंगी। आपसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ।'
युवक उठ खड़ा हुआ, दोनों ने एक दूसरे को नमस्ते किया और पर्दा गिरा गया।
*
उद्घोषक : दर्शकों! अभी हमने एक दिव्य विभूति के जीवन में घटी कुछ घटनाओं की झलक देखी। यह एकांकी निराधार नहीं है। इसके लेखन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लेते हुए घटनाओं को कल्पना से विस्तार दिया गया है।
क्या आज की किशोर और युवा पीढ़ी जो परिवार और विवाह संस्थाओं को नकारते हुए सह जीवन (लिव इन) की ओर बढ़ रही है यह सोच भी सकेगी कि बाल विवाह में बँधे स्त्री-पुरुष भी बिना किसी कटुता के जीवन में एक-दूसरे को इतना मान दे सकते हैं। इस एकांकी में वर्णित घटनाओं को वास्तविकता में जिया महीयसी महादेवी वर्मा जी और उनके पति डॉ. स्वरूप नारायण वर्मा ने। इन दोनों का बाल विवाह हुआ था १९१६ में जब महादेवी जी ९ वर्ष की थी और स्वरूप नारायण जी लगभग १६-१७ वर्ष के। उक्त घटनाक्रम के बाद भी दोनों में सामान्य स्त्री-पुरुष की तरह मित्रतापूर्ण संबंध थे, दोनों में पत्राचार होता था और यदा-कदा भेंट भी हो जाती थी। इस एकांकी के लेखक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को मूल घटना के संबंध में उनकी बुआश्री महीयसी महादेवी जी ने स्वयं बताया था।
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष: ९४२५१८३२४४ ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
मुक्तिका
रदीफ़- 'हो गए'
बावफ़ा थे, बेवफ़ा वो हो गए।
हाशिया थे, अब सफ़ा वो हो गए।।
वायदों को कह रहे जुमला मियाँ।
कायदा से फायदा वो हो गए।।
थे गए काशी, कभी काबा फिरे।
रायता से फीरनी वो हो गए।।
पाल बैठे कई चेले-चेलियाँ।
मसनवी से रुबाई वो हो गए।।
सल्तनत पाई, जुदा खुद से हुए।
हैं नहीं लेकिन खुदा वो हो गए।।
आदमी के साथ साया भी न था।
काम शैतां का, नबी वो हो गए।।
धूप-छैयाँ साथ होकर भी न हों।
साथ चंदा-सूर्य से वो हो गए।।
आदमी जो आम वो ही राम है।
बोलते जो, ख़ास वो ही हो गए।।
है सुरा सत्ता, नशा सब पे चढ़े।
क्या हुआ जो शराबी वो हो गए।।
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सॉनेट
सीता
वसुधातनया जनकदुलारी।
रामप्रिया लंकेशबंदिनी।
अवधमहिष वनवासिन न्यारी।।
आश्रमवासी लव-कुश जननी।।
क्षमामूर्ति शुभ-मंगलकारी।
जनगण पूजे करे आरती।
संतानों की विपदाहारी।।
कीर्ति कथा भव सिंधु तारती।।
योद्धा राम न साथ तुम्हारे।
रण जीते, सत्ता अपनाई।
तुम्हें गँवा, खुद से खुद हारे।।
सरयू में शरणागति पाई।।
सियाराम हैं लोक-हृदय में।
सिर्फ राम सत्ता-अविनय में।।
१२-४-२०२२
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कृति समालोचना -
"भारत में १५ करोड़ कायस्थों का महापरिवार" - मानवता का सिपहसालार
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संयोजक : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, विश्व कायस्थ समाज
पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अभाकाम, पूर्व महामंत्री राकाम
चैयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर
*
[कृति विवरण: भारत में १५ करोड़ कायस्थों का महापरिवार, लेखक - सर्वेश्वर चमन श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०२२, आकार - २४ से.मी. x १८.५ से.मी., पृष्ठ १५४, मूल्य - अमूल्य, आवरण - बहुरंगी, पेपरबैक लेमिनेटेड, संदर्भ प्रकाशन भोपाल]
*
मानव सभ्यता और संस्कृति में शब्द, भाषा, पटल, कलम, स्याही और लिपि का योगदान अभूतपूर्व है। सच कहें तो इनके बिना मानव जाति जीवित तो होती पर अन्य पशु-पक्षियों की तरह। ग़ालिब कहता है -'आदमी को मयस्सर नहीं इंसां होना', मेरा मानना है कि आदमी को इंसान बनाने के महायात्रा में 'काया' में अवस्थित निराकार 'चित' जिसका चित्र गुप्त है, जो निराकार है, जो हर आकार में समाहित है, उस परमब्रह्म परमेश्वर, कर्मेश्वर, गुप्तेश्वर की ही प्रेरणा है जिसने खुदको उसका अंशज -वंशज माननेवाले ''कायस्थ'' विशेषण को अपनी पहचान बनानेवाले श्रेष्ठ मनुष्यों को उक्त षड उपहारों शब्द, भाषा, पटल, कलम, स्याही और लिपि से अलंकृत किया। 'शब्द ब्रह्म' सबका, सबके लिए है, इसलिए शब्द-साधना कर निपुणता अर्जित करनेवाले 'कायस्थ' अपना उपास्य शब्देश्वर सर्वेश्वर चित्रगुप्त तथा उनकी आदिभौतिक एवं आधिदैविक शक्तियों (नंदिनी और इरावती) को मानें, यह स्वाभाविक ही है। अपनी इष्ट देव मूर्तियों तथा अपने पूर्वजों को जानकर, उनकी विरासत को सम्हालकर, अपनी भावी पीढ़ी को प्रगतिपथ पर बढ़ने की प्रेरणा देने के पवित्र उद्देश्य से इस कृति का प्रयत्न लेखक चमन श्रीवास्तव ने पूरे मनोयोग से किया है। यह कोई साधारण पुस्तक नहीं है अपितु यह लेखा-जोखा है वेद पूर्व काल से अब तक आदमी के इंसान बनने की महायात्रा में औरों की अंगुली थामकर उन्हें आगे बढ़ानेवाली जातीय परंपरा का।
संस्कृति सेतु कायस्थ
पुस्तक में वर्णित श्री चित्रगुप्त जी निराकार परात्पर परमब्रह्म ही हैं। पुराणकार कहता है ''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहीनाम्'' अर्थात उन चित्रगुप्त को सबसे पहले प्रणाम जो सभी प्राणियों में आत्मा रूप में विराजमान हैं। लोकश्रुति है ''आत्मा सो परमात्मा'', उपनिषद ''अहं ब्रह्मास्मि'', ''शिवोsहं'' आदि कहता है। हर काया में स्थित परब्रह्म चित्रगुप्त सृष्टि का सृजन कर सके विस्तार हेतु साकार होते हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप में सृष्टि रचना-पालन और विनाश की भूमिकाएँ निभाते हैं। अंग्रेजी में कहावत है 'चाइल्ड इस द फादर ऑफ़ मैन' अर्थात ; बच्चा तो है बाप बाप का'। निराकार परब्रह्म चित्रगुप्त जी स्वयं अपने ही अंश 'ब्रह्मा' के माध्यम से साकार देहज अवतार धारण कर देव कन्या 'नंदिनी' और नाग कन्या 'इरावती' से विवाहकर विश्व का प्रथा अंतर्सांस्कृतिक विवाह कर ''वसुधैव कुटुम्बकम्'' तथा ''वसुधैव नीड़म्'' का जीवन सूत्र मनुष्य को देते हैं। काल क्रम में 'कश्यप' ऋषि, शारदा लिपि, कश्मीर प्रदेश और कैकेयी कायस्थों की कर्म कुशलता की कथा कहते हैं। आज से सहस्त्रब्दियों पूर्व कायस्थ भी कश्मीर से निष्क्रमित हुए थे। इतिहास खुद को दुहराता है, अब पंडितों का निष्क्रमण हम देख रहे हैं। चमन जी ने अतीत के म कुछ पन्नों को पलटा है, समूची महागाथा एक बार में, एक साथ कह पाना असंभव है।
गत-आगत से आज का संवाद
यह कृति गतागत का आज से संवाद का सुप्रयास है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं -''हम कौन थे?, क्या हो गए हैं?, और क्या होंगे अभी?, आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्याएँ सभी''। लेखन 'कौन थे? और 'क्या हो गए हैं?' में मध्य संवाद सेतु के रूप में इस कृति का प्रकाश कर रहे हैं। वे इसके दूसरे भाग के प्रकाशन का संकेत कर बताते हैं कि 'और क्या होंगे अभी?' की बात अगली कृति में होगी। स्पष्ट है कि यह पुस्तक 'विगत' और 'आगत' के मध्य स्थित 'वर्तमान' की करवट है। किसी ऐसे समाज जो अपनी ही नहीं अपने देश और अपने साथियों के साथ सकल सभ्यता का निर्माता, विकासकर्ता और पारिभाषिक रहा हो, के लिए निरंतर आत्मावलोकन तथा आत्मालोचन करना अपरिहार्य हो जाता है। जिला १९७६ में प्रातस्मरणीय ब्योहार राजेंद्र सिंह जी (कक्का जी) के मार्गदर्शन में जिला कायस्थ सभा से आरंभ कर प्रातस्मरणीय डॉ. रतनचन्द्र वर्मा के नेतृत्व में अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, प्रातस्मरणीय दादा लोकेश्वर नाथ जी की प्रेरणा से राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, वर्ल्ड कायस्थ कॉन्फ्रेंस आदि में सक्रिय रहकर मैंने यह जाना है कि बुद्धिजीवियों को एकत्र कर एकमत कर पाना मेंढकों को तौलने से अधिक कठिन कार्य है। ऐसा होना स्वाभाविक है 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना'। यह भी सत्य है कि कठिन होने से कार्य असंभव नहीं हो जाता, कठिन को संभव बनाने के लिए स्नेह, समानता, सद्भाव, संकल्प और साहचर्य आवश्यक होता है।
सुनहरा अवसर
विवेच्य कृति का संयोजन भारत के १५ करोड़ से अधिक कायस्थों से जुड़ने का सद्प्रयास सचमुच सुनहरा अवसर है जब हम मत-मतान्तरों के चक्रव्यूह में अभिमन्यु तरह बलि का बकरा न बनकर, चक्रव्यूह भेदनकर, एक साथ मिलकर 'योग: कर्मसु कौशलम्' के पथ पर चलें। याद रखें अकेली अँगुली झुक जाती पर सभी अँगुलियाँ एक साथ मिलकर मुट्ठी बन जाएँ तो युग बदल सकती हैं। 'साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला तक जाएगा, सब मिल बोझ उठाना' की भावना हममें से हर एक में हो तो दुनिया की कोई भी ताकत हमारी राह नहीं रोक सकती। 'कायस्थ एक नज़र में' के अंतरगत अपने प्रेरणा पुरुषों का उल्लेख, हममें सहभागिता का भाव जगाता है कि ये सब हम सबके हैं, हम सब इनके हैं।कायस्थ महापुरुषों के सूची वास्तव में इतनी लंबी है कि सहस्त्रों पृष्ठ भी कम पड़ जाएँ इसलिए बतौर बानगी कुछ नामों का उल्लेख कर दिया जाता है। यह गौरवमयी विरासत आदिकाल से अब तक अक्षुण्ण है।
'चमन' आबाद तब होगा, 'विनय' का भाव जब जागे
'कायस्थ शब्द की व्युत्पत्ति एवं चित्रगुप्त भगवान का परिवार परिचय' शीर्षक अध्याय मत-मतांतर को महत्व न देकर, नई पीढ़ी के सम्मुख सिलसिलेवार जानकारियाँ प्रस्तुत करने का प्रयास है। 'हरि अनंत हरि कथा अनंता, बहुविधि कहहिं-सुनहिं सब संता।'' चित्रगुप्त जी तो सकल सृष्टि जिसमें देव भी सम्मिलित हैं, के मूल हैं। उनकी कथाओं में विविधता होना स्वाभाविक है। प्रागट्य संबंधी अनेकता में एकता यह है कि वे कर्मेश्वर हैं, कर्म विधाता हैं, सबसे पहले पूज्य हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक असम से गुजरात तक कायस्थों की कर्मनैपुण्यता किस्सों में कही जाती है. विस्मय से सुनी जाती है पर इसके बाद भी शिखर पर कायस्थों की संख्या घटती जाती है इसका एक कारण यह है कि कायस्थ लोकतंत्र में 'लोक' की तरह एक जुट होकर 'तंत्र' को उपकरण बनाने की ओर अग्रसर नहीं हो सके।
चमन आबाद तब होगा, विनय का भाव जब जागे
सभी आगे बढ़ेंगे तब, बढ़े एक-एक जब आगे
नहीं माँगा, न माँगेंगे कभी अनुदान हम साथी -
करें खुद को बुलंद इतना, ज़माना दान आ माँगे
'कान्त सहाय' तभी होते जब होता भक्त 'सुबोध'
'भगवान् चित्रगुप्त का स्तवन' शीर्षक अध्याय में विविध ग्रंथों से सकल प्राणियों के भाग्य विधाता चित्रगुप्त जी की वंदना के उद्धरण, प्रभु की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। वास्तव में गीता में 'कृष्ण जो अपने विषय में कहते हैं, वह सब चित्रगुप्त जी के लिए भी सत्य है। त्रेता में, कुरुक्षेत्र में कृष्ण 'कर्ता' थे, नियामक थे। जहाँ कृष्ण वहीं धर्म, जहाँ धर्म वहीं विजय। सभी युगों में, सभी स्थानों पर, सभी प्राणियों के लिए चित्रगुप्त जी एकमात्र करता है, नियामक हैं, भाग्य विधाता हैं इसलिए सकल दैवीय रूप चित्रगुप्त जी के हैं। सब साधनाएँ, सब वंदनाएँ, सब प्रार्थनाएँ चित्रगुप्त जी की ही हैं। विविध देव पर्वत हैं तो चित्रगुप्त जी हिमालय हैं। विविध देव नदियाँ हैं तो चित्रगुप्त जी महासागर हैं। वे सुरों-असुरों, यक्षों-गंधर्वों, भूत-प्रेतों, नर-वानरों, पशु-पक्षियों, जड़-चेतन, जन्मे-अजन्मे के कर्मदेवता हैं। इसीलिए वे सबके पूज्य और सब उनके अनुगामी हैं। किसी भी रूप की, किसी भी भाषा में, किसी भी भाव से, किसी भी छंद में स्तुति करें वह चित्रगुप्त जी की ही स्तुति हो जाती है, हम मानें या न मानें, कोई जाने या न जाने, इस सनातन सत्य पर आँच नहीं आती किन्तु चित्रगुप्त जी की कृपा के वही कर्मफल से मुक्त होता है जो अपना हर काम निष्काम भाव से उन्हें समर्पित कर करे। सबके कान्त (स्वामी) चित्रगुप्त जी की कृपा पाने के लिए भक्त को सुबोध होना होता है।
'कान्त सहाय' तभी होते जब, होता भक्त 'सुबोध'
रावण सा विद्वान् मिट गया, हो स्वार्थी दुर्बोध
सकल सृष्टि 'कायस्थ' है
कायस्थों के इतिहास का सूक्ष्म उल्लेख 'कायस्थों के प्रकार' नामक अध्याय में है। हकीकत यह है कि सब कायाधारी कायस्थ हैं क्योंकि उनकी 'काया' में वह जो सबसे पहले पूज्य है, आत्मा रूप में स्थित है। यहाँ 'कायस्थ' शब्द से आशय मानव समाज से हैं जो इस तथ्य को जानता और मानता है। हैं तो शेष जन भी 'कायस्थ' किन्तु वे इस सत्य को या तो जानते नहीं या जानकर भी मानते नहीं। इसे इस तरह भी समझें कि कायस्थ ब्रह्म (सत्य) को जानकर पौरोहित्य, वैद्यक, शिक्षण कर्म करने के कारण ब्राह्मण, शासन-प्रशासन प्रमुख होने के नाते क्षत्रिय, विविध व्यवसाय करने में दक्ष होने के कारण वैश्य तथा सकल सृष्टि की सेवा कर दीनबंधु होने के नाते शूद्र हैं किन्तु उन्हें इन चरों में कोई समाज अपना 'अंश' या 'अंग' नहीं मान सकता क्योंकि वे 'अंश' नहीं 'पूर्ण' हैं। कायस्थ पंचम वर्ण नहीं अपितु चरों वर्णों का समन्वित समग्र विराट रूप हैं। कायस्थों के अंश ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य शूद्र ही नहीं बौद्ध, जैन, सिख, यवन आदि भी हैं इसीलिये दुनिया के किसी पूजालय, पंथ, संप्रदाय, महापुरुष को कायस्थ नकारते नहीं, वे सबके सद्गुणों को स्वीकारते हैं और असदगुणों से दूर रहते हैं।
सकल सृष्टि कायस्थ है, मान सके तो मान।
भव बंधन तब ही कटे, जब हो सच्चा इंसान।।
कण कण प्रभु का लेख है, देख सके तो देख
कायस्थों संबंधी शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि से पुरातत्व के ग्रंथ भरे पड़े हैं। उन अभिलेखों की एक झलक के माध्यम से नई पीढ़ी को गौरवमय अतीत से परिचित कराने का प्रशंसनीय प्रयास किया है चमन जी ने। समसामयिक व्यक्तित्वों के चित्र व जीवनियाँ नई पीढ़ी को अधिक विश्वसनीय तथा प्रामाणिक प्रतीत होती है क्योंकि अन्यत्र भी इसकी पुष्टि की जा सकती है। सारत:, ''भारत में १५ करोड़ से अधिक कायस्थों का महापरिवार'' ग्रंथ गागर में सागर' संहित करने का श्लाघ्य प्रयास है। ऐसे प्रयास हर जिले, हर शहर से हों तो अनगिन बिंदु मिलकर सिंधु बना सकेंगे। लंबे समय बाद कायस्थों की महत्ता प्रतपदित करने का यह गंभीर प्रयास सराहनीय है, प्रशंसनीय है। भाई चमन जी को इस सार्थक प्रस्तुति हेतु साधुवाद।
१२-४-२०२२
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द्विपदि सलिला (अश'आर)
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पत्थर से हर शहर में मिलते मकान हजारों
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है
*
जब तलक जिंदा था रोटी न मुहैया थी
मर गया तो तेरही में दावतें हुईं
*
परवाने जां निसार कर देंगे
हम चरागे-रौशनी तो बन जाएँ
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम
फूल बन महको, चली आएँगी ये
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बन जाते हैं काम, कोशिश करने से 'सलिल'
भला करेंगे राम, अनथक करो प्रयास नित
*
मुझ बिन न तुझमें जां रहे बोला ये तन से मन
मुझ बिन न तू यहां रहे, तन मन से कह रहा
*
औरों के ऐब देखकर मन खुश बहुत हुआ
खुद पर पड़ी नज़र तो तना सर ही झुक गया
*
तुम पर उठाई एक, उठी तीन अँगुलियाँ
खुद की तरफ, ये देख कर चक्कर ही आ गया
*
हो आईने से दुश्मनी या दोस्ती 'सलिल'
क्या फर्क? जब मिलेगा, कहेगा वो सच सदा
*
देवों को पूजते हैं जो वो भोग दिखाकर
खुद खा रहे, ये सोच 'इससे कोई डर नहीं'
*
आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
*
एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
*
बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
*
आ काश! कि आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
*
जानेवाले लौटकर आ जाएँ तो
आनेवालों को जगह होगी कहाँ?
*
मंच से कुछ पात्र यदि जाएँ नहीं
मंच पर कुछ पात्र कैसे आयेंगे?
*
जो गया तू उनका मातम मत मना
शेष हैं जो उनकी भी कुछ फ़िक्र कर
*
मोह-माया तज गए थे तीर्थ को
मुक्त माया से हुए तो शोक क्यों?
*
है संसार असार तो छुटने का क्यों शोक?
गए सार की खोज में, मिला सार खुश हो
*
बहे आँसू मगर माशूक ने नाता नहीं जोड़ा
जलाया दिल, बनाया तिल और दिल लूट लिया
*
जब तक था दूर कोई मुझे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
ज्योति जलती तो पतंगे लगाते हैं हाजरी
टेरता है जब तिमिर तो पतंगा आता नहीं
.
हों उपस्थित या जहाँ जो वहीं रचता रहे
सृजन-शाला में रखे, चर्चा करें हम-आप मिल
.
हों अगर मतभेद तो मनभेद हम बनने न दें
कार्य सारस्वत करेंगे हम सभी सद्भाव से
.
जब मिलें सीखें-सिखायें शारदा आशीष दें
विश्व भाषा हैं सनातन हमारी हिंदी अमर
.
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
*
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
*
उनका भगवा हाथ है, इनके पंजे में कमल
आम आदमी को ठगें दोनों का व्यवसाय है
*
'राज्य बनाया है' कहो या 'तोडा है राज्य'
साध रही है सियासत केवल अपना स्वार्थ
*
दीनदयालु न साथ दें, न ही गरीब नवाज़
नहीं आम से काम है, हैं खासों के साथ
*
चतुर्वेदी को मिला जब राह में कोई कबीर
व्यर्थ तत्क्षण पंडितों की पंडिताई देख ली
*
सुना रहा गीता पंडित जो खुद माया में फँसा हुआ
लेकिन सारी दुनिया को नित मुक्ति-राह बतलाता है
*
आह न सुनता किसी दीन की बात दीन की खूब करे
रोज टेरता खुदा न सुनता मुल्ला हुआ परेशां है
*
हो चुका अवतार, अब हम याद करते हैं मगर
अनुकरण करते नहीं, क्यों यह विरोधाभास है?
*
कल्पना इतनी मिला दी, सत्य ही दिखता नहीं
पंडितों ने धर्म का, हर दिन किया उपहास है
*
गढ़ दिया राधा-चरित, शत मूर्तियाँ कर दीं खड़ी
हिल गयी जड़ सत्य की, क्या तनिक भी अहसास है?
*
शत विभाजन मिटा, ताकतवर बनाया देश को
कृष्ण ने पर भक्त तोड़ें, रो रहा इतिहास है
*
रूढ़ियों से जूझ गढ़ दें कुछ प्रथाएँ स्वस्थ्य हम
देश हो मजबूत, कहते कृष्ण- 'हर जन खास है'
*
भ्रष्ट शासक आज भी हैं, करें उनका अंत मिल
सत्य जीतेगा न जन को हो सका आभास है
*
फ़र्ज़ पहले बाद में हक़, फल न अपना साध्य हो
चित्र जिसका गुप्त उसका देह यह आवास है.
१२-४-२०२०
***
गीत
*
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
ऐसा सोच न नयन मूँदना
खुली आँख सपने देखो
खुद को देखो, कौन कहाँ क्या
करता वह सब कम लेखो
कदम न रोको
लिखो, ठिठककर
सोचो, क्या मन में टिकता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
नहीं चिकित्सक ने बोला है
घिसना कलम जरूरी है
और न यह कानून बना है
लिखना कब मजबूरी है?
निज मन भाया
तभी कर रहीं
सोचो क्या मन को रुचता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
मन खुश है तो जग खुश मानो
अपना सत्य आप पहचानो
व्यर्थ न अपना मन भटकाओ
अनहद नाद झूमकर गाओ
झूठ सदा
बिकता बजार में
सत्य कभी देखा बिकता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
१२-४-२०१९
***
बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
१२-४-२०१७
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पुस्तक सलिला-
इसी आकाश में- कविता की तलाश
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय- इसी आकाश में, कविता संग्रह, हरभगवान चावला, ISBN ९७८-९३-८५९४२-२२-८, वर्ष २०१५, आकार २०.५ x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ १७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर, ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, चलभाष ९८२९०१८०८७, ई मेल bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क- ४०६ सेक़्टर २०, हुडा सिरसा, हरयाणा चलभाष: ०९३५४५४४०]
*
'इसी आकाश में' सिरसा निवासी हरभगवान सिंह का नव प्रकाशित काव्य संग्रह है। इसके पूर्व उनके २ काव्य संग्रह 'कोेे अच्छी खबर लिखना' व 'कुम्भ में छूटी हुई औरतें' तथा एक कहानी संग्रह ' हमकूं मिल्या जियावनहारा' प्रकाशित हो चुके हैं। कविता मेरी आत्मा का सूरज है, कविता हलुआ नहीं हो सकती, कविता को कम से कम / रोटी जैसा तो होना ही चाहिए, जब कविता नहीं थी / क्या तब भी किसी के / छू देने भर से दिल धड़कता था / होंठ कांपते थे, क्या कोई ऐसा असमय था/ जब कविता नहीं थी?, मैंने अपनी कविता को हमेश / धूप, धूल और धुएँ से बचाया...कि कहीं सिद्धार्थ की तरह विरक्त न हो जाए मेरी कविता, मेरी कविता ने नहीं धरे / किसी कँटीली पगडंडी पर पाँव..... पर इतने लाड-प्यार और ऐश्वर्य के होते हुए भी / निरन्तर पीली पड़ती जा रही है, ईंधन की मानिंद भट्टियों में/ झोंक दिए जाते हैं ज़िंदा इंसान / तुम्हारी कविता को गंध नहीं आती.... कहाँ से लाते हो तुम अपनी कविता की ज्ञानेन्द्रियाँ कवि? आदि पंक्तियाँ कवि और कविता के अंतरसंबंधों को तलाशते हुए पाठक को भी इस अभियान में सम्मिलित कर लेती हैं। कविता का आकारित होना 'कविता दो' शीर्षक कविता सामने लाती है-
'प्यास से आकुल कोई चिड़िया
चिकनी चट्टानों की ढलानों पर से फिसलते
पानियों में चोंच मार देती है
कविता यूँ भी आकार लेती है।
अर्थात कविता के लिये 'प्यास' और प्यास से 'मुक्ति का प्रयास' का प्रयास आवश्यक है। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या 'तृप्ति' और 'हताशाजनित निष्प्रयासता' की स्थिति में कविता नहीं हो सकती? 'प्रयास-जनित कविता प्रयास के परिणाम "तृप्ति" से दूर कैसे रह सकती है? विसंगति, विडम्बना, दर्द, पीड़ा और अभाव को ही साहित्य का जनक मानने और स्थापित को नष्ट करना साहित्य का उद्देश्य मानने की एकांगी दृष्टि ने अश्रित्य को विश्व में सर्वत्र ठुकराए जा चुके साम्यवाद को साँसें भले दे दी हों, समाज का भला नहीं किया। टकराव और विघटन से समनस्य और सृजन कैसे पाया जा सकता है? 'तर्क' शीर्षक कविता स्थिति का सटीक विश्लेषण ३ चरणों में करती है- १. सपनों के परिंदे को निर्मम तर्क-तीर ने धरती पर पटक दिया, २. तुम (प्रेयसी) पल भर में छलछलाती नदी से जलती रेत हो जाती है, ३. परिणाम यह की प्यार गेंद की तरह लुढ़काये जाकर लुप्त हो जाता है और शेष रह जाते हैं दो अजनबी जो एक दूसरे को लहूलुहान करने में ही साँसों को जाया कर देते हैं।
'पत्थर हुए गीत' एक अन्य मानसिकता को सामने लाती है। प्यार को अछूत की तरह ठुकराने परिणाम प्यार का पथराना ही हो सकता है। प्रेम से उपजी लगाव की बाँसुरी, बाधाओं की नदी को सौंप दी जाए तो प्रेमियों की नियति लहूलुहान होना ही रह जाती है। कवी ने सरल. सशक्त, सटीक बिम्बों के माध्यम से काम शब्दों में अधिक कहने में सफलता पायी है। वाह पाठक को विचार की अंगुली पकड़ाकर चिंतन के पगडण्डी पर खड़ा कर जाता है, आगे कितनी दूर जाना है यह पाठक पर निर्भर है -
'आँखों की नदी में / सपनों की नाव
हर समय / बारह की आशंका से
डगमगाती।
माँ की ममता समय और उम्र को चुनौती देकर भी तनिक नहीं घटती। इस अनुभूति की अभिव्यक्ति देखें-
मैं पैदा हुआ / तब माँ पच्चीस की थी
आज मैं सत्तावन का हो चला हूँ
माँ, आज भी पच्चीस की है।
व्यष्टि में समष्टि की प्रतीति का आभिनव अंदाज़ 'चूल्हा और नदी' कविता में देखिये-
चूल्हा घर का जीवन है / नदी गाँव का
अलग कहाँ हैं घर और गाँव?
गाँव से घर है / घर से गाँव
चूल्हे को पानी की दरकार है / नदी को आग की
चूल्हा नदी के पास / हर रोज पानी लेने आता है
नदी आती है / चूल्हे के पास आग लेने।
हरभगवान जी की इन ७९ कविताओं की ताकत सच को देखना और बिना पूर्वाग्रह के कह देना है। भाषा की सादगी और बयान में साफगोई उनकी ताकत है। चिट्ठियाँ, मुल्तान की औरतें, गाँव से लौटते हुए, रानियाँ आदि कवितायेँ उनकी संवेदनशील दृष्टि की परिचायक हैं। शिक्षा जगत से जुड़ा कवि समस्या के मूल तक जाने और जड़ को तलाशकर समाधान पाने में समर्थ है। वह उपदेश नहीं देता किन्तु सोचने के दिशा दिखाता है- 'पाप' और 'पाप का घड़ा' शीर्षक दो रचनाओं कवि का शिक्षक प्रश्न उठता है, उसका उत्तर नहीं देता किन्तु वह तर्क प्रस्तुत कर देता है जिससे पाठकरूपी विद्यार्थ उठता देने की मनस्थिति में आ सके-
पाप
अपने पापों को
आटे में गूँथकर पेड़ा बनाइये
अपने हाथों पेड़ा गाय को खिलाइये
और फिर पाप करने में जुट जाइये।
पाप का घड़ा
अंजुरी भर-भर / घड़े में उड़ेल दो
अपने सारे पाप
पाप का घड़ा / अभी बहुत खाली है
घड़ा जब तक भरेगा नहीं
ईश्वर कुछ करेगा नहीं।
इसी आकाश में की कवितायें मन की जड़ता को तोड़कर स्वस्थ चिंतन की और प्रेरित करती हैं। कवि साधुवाद का पात्र है। ज़िंदगी में हताशा के लिये कोई जगह नहीं है, मिट्टी है तो अंकुर निकलेंगे ही-
युगों से तपते रेगिस्तान में / कभी फूट आती है घास
दुखों से भरे मन के होठों पर / अनायास फूट पड़ती है हँसी
धरती है तो बाँझ कैसे रहेगी सदा
ज़िंदगी है तो दुखों की कोख में से भी
पैदा होती रहेगी हँसी।
समाज में विघटनहनित आँसू का सैलाब लाती सियासत के खिलाफ कविता हँसी लाने का अभियान चलती रहे यही कामना है।
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पुस्तक चर्चा:
'वैशाख प्रिय वैशाख' कविताओं के पल्लव प्रेम की शाख
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[पुस्तक विवरण- वैशाख प्रिय वैशाख, बिहू गीत आधृत कवितायेँ, दिनकर कुमार, प्रथम संस्करण जनवरी २०१६, आकार २०.५ सेंटीमीटर x १३.५ सेंटीमीटर, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ ११६, मूल्य ८०/-, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाइस गोदाम जयपुर ३०२००६ दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, ९८२९० १८०८७, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क- गृह क्रमांक ६६, मुख्या पथ, तरुण नगर, एबीसी गुवाहाटी ७८१००५ असम, चलभाष ०९४३५१०३७५५, ईमेल dinkar.mail@gmail.com ]
*
आचार्य रामचंद्र शुक्ल कविता के शब्दों में - 'मनुष्य अपने भावों, विचारों और व्यापारों को लिये 'दूसरे के भावों', विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलाता और कहीं लड़ाता हुआ अंत तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जिस अनंत-रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत। जब तक कोई अपनी पृथक सत्ता की भावना को ऊपर किये इस क्षेत्र के नाना रूपों और व्यापारों को अपने योग-क्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि से सम्बद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपनी पृथक सत्ता की धारणा से छुटकर, अपने आप को बिल्कुल भूलकर विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त-हृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। यहाँ शुक्ल जी का कविता से आशय गीति रचना से हैं।
प्रतिमाह १५-२० पुस्तकें पढ़ने पर भी एक लम्बे अरसे बाद कविता की ऐसी पुस्तक से साक्षात् हुआ जो शुक्ल जी उक्त अवधारणा को मूर्त करती है। यह कृति है श्री दिनकर कुमार रचित काव्य संग्रह 'वैशाख प्रिय वैशाख'। कृति की सभी ७९ कवितायेँ असम के लोकपर्व 'बिहू' पर आधारित हैं। अधिकांश रचनाओं में कवि 'स्व' में 'सर्व' को तथा 'सर्व' में 'स्व' को विलीन करता प्रतीत होता है. 'मैं' और 'प्रेमिका' के दो पात्रों के इर्द-गिर्द कही गयी कविताओं में प्रकृति सम्पर्क सेतु की भूमिका में है। प्रकृति और जीवन की हर भाव-भंगिमा में 'प्रिया' को देखना-पाना 'द्वैत में अद्वैत' का संधान कर 'स्व' में 'सर्व' के साक्षात् की प्रक्रिया है। भावप्रवणता से संपन्न कवितायेँ गीति रचनाओं के सन्निकट हैं। मुखड़ा-अन्तर के विधान का पालन न करने पर भी भाव, रस, बिम्ब, प्रतीक, कोमल-कान्त पदावली और यत्र-तत्र बिखरे लय-खंड मन को आनंदानुभूति से रस प्लावित कर पाते हैं।
सात कविता संग्रह, दो उपन्यास, दो जीवनियाँ, ५० से अधिक असमिया पुस्तकों के अनुवाद का कार्य कर चुके और सोमदत्त सम्मान, भाषा सेतु सम्मान, पत्रकारिता सम्मान, अनुवाद श्री सम्मान से सम्मानित कवि का रचनाविधान परिपक्व होना स्वाभाविक है। उल्लेख्य यह है कि दीर्घ और निरंतर सृजन यात्रा में वह नगरवासी होते हुए भी नगरीय आकर्षण से मुक्त रहकर प्रकृति से अभिन्न होकर रचनाओं में प्रकृति को उसकी अम्लानता में देख और दिखा सका है। विडंबना, विद्वेष, विसंगति और विखंडन के अतिरेकी-एकांगी चित्रण से समाज और देश को नारकीय रूप में चित्रित करते तथाकथित प्रगतिवादी साहित्य की अलोकप्रियता और क्षणभंगुरता की प्रतिक्रिया सनातन शुभत्वपरक साहित्य के सृजन के रूप में प्रतिफलित हुआ है। वैशाख प्रिय वैशाख उसी श्रंखला की एक कड़ी है।
यह कृति पूरी तरह प्रकृति से जुडी है। कपौ, केतकी, तगर, भाटौ, गेजेंट, जूति, मालती, मन्दार, इन्द्रमालती, चंपा, हरसिंगार, अशोक, नागेश्वर, शिरीष, पलाश, गुलमोहर, बांस, सेमल, पीपल, लक, सरसों, बरगद, थुपूकी, गूलर, केला आदि पेड़ पौधों के संग पान-सुपारी, तांबूल, कास, घास, धान, कद्दू, तरोई, गन्ना, कमल, तुलसी अर्थात परिवेश की सकल वनस्पतियाँ ऋतु परिवर्तन की साक्षी होकर नाचती-गाति-झूमती आनंद पा और लुटा रही हैं।आत्मानंद पाने में सहभागी हैं कोयल, पिपहरी, दहिकतरा, सखियती, मैना, कबूतर, हेतुलूका, बगुले, तेलोया, सारंग, बुलबुल, गौरैया और तितलियाँ ही नहीं, झींगुर, काबै मछली, पूठी मछली, शाल मछली, हिरसी, घडियाल. मकड़ी, चीटी, मक्खी,हिरन, कुत्ता, हाथी और घोड़ा भी। ताल-तलैया, नद, नदी, झरना, दरिया, धरती, पृथ्वी और आसमान के साथ-साथ उत्सवधर्मिता को आशीषित करती देवशक्तियों कलीमती, रहिमला, बिसंदे, हेरेपी आदि की उपस्थिति की अनुभूति ही करते ढोल, मृदंग, टोका, ढोलक आदि वाद्य पाठक को भाव विभोर कर देते है। प्रकृति और देवों की शोभावृद्धि करने सोना, मोती, मूँगा आदि भी तत्पर हैं।
दिनकर जी की गीति कवितायें साहित्य के नाम पर नकारात्मकता परोस रहे कृत्रिम भाव, झूठे वैषम्य, मिथ्या विसंगतियों और अतिरेकी टकराव के अँधेरे में साहचर्य, सद्भाव, सहकार, सहयोग, सहानुभूति और सहस्तित्व का दीप प्रज्वलित करती दीपशिखा की तरह स्वागतेय हैं। सुदूर पूर्वांचल की सभ्यता-संस्कृति, जनजीवन, लोक भावनाएँ प्रेमी-प्रेमिका के रूप में लगभग हर रचना में पूरे उल्लास के साथ शब्दित हुआ है। पृष्ठ-पृष्ठ पर पंक्ति-पंक्ति में सात्विक श्रृंगार रस में अवगाहन कराती यह कृति कहीं अतिरेकी वर्णन नहीं करती।
प्रकृति की यह समृद्धि मन में जिस उत्साह और आनंद का संचार करती है वह जन-जीवन के क्रिया-कलापों में बिम्बित होता है-
वैशाख तुम जगाते हो युवक-युवती
बच्चे-बूढ़े-स्त्रियों के मन-प्राण में
स्नेह-प्रेम, आनंद-उत्साह और यौवन की अनुभूतियाँ
आम आदमी का तन-मन झूम उठता है
मातृभूमि की प्रकृति की समृद्धि को देखकर।
आबादी अपने लोकाचारों में, खेल-कूद और नृत्य-गीत के जरिए
व्यक्त करती है पुलक, श्रुद्ध, प्रेम, यौवन का आवेदन
वस्त्र बुनती बहू-बेटी के कदम
अनजाने में ही थिरकने लगते हैं
वे रोमांचित होकर वस्त्र पर रचती है फूलों को
बुनती हैं 'फूलाम बिहूवान'-सेलिंग चादर-महीन पोशाक
जब मौसम का नशा चढ़ता है
प्रेमी जोड़े पेड़ों की छाँव में जाकर
बिहू नृत्य करने लगते हैं
टका-गगना वाद्यों को बजाकर
धरती-आकाश को मुखरित करते है
जमीन से जुड़े जन बुन्देलखंड में हों या बस्तर में, मालवा में हों या बिहार में, बृज में हों या बंगाल में उल्लास-उत्साह, प्रकृति और ऋतुओं के साथ सहजीवन, अह्बवों को जीतकर जिजीविषा की जय गुंजाता हौसला सर्वत्र समान है। यहाँ निर्भया, कन्हैया और प्रत्यूषा नहीं हैं। प्रेम की विविध भाव-भंगिमाएँ मोहक और चित्ताकर्षक हैं। प्रेमिका को न पा सके प्रेमी की उदात भावनाएँ अपनी मिसाल आप हैं-
तुम रमी रहती हो अपनी दुनिया में
कभी मुस्कुराती हो और
कभी उदास ही जाती हो
कभी छलछला उठते हैं तुम्हारे नयन
किसी ख़याल में तुम डूबी रहती हो
सूनापन मुझे बर्धष्ट नहीं होता
तुम्हें देखे बगैर कैसे रह सकता हूँ
तुम अपनी मूरत बनाकर क्यों नहीं दे देतीं?
कम से कम उसमें तुम्हें देखकर
तसल्ली तो मिल सकती है
न तो भूख लगती है, न प्यास
न तो नींद आती है, न करार
अपने आपका आजकल नहीं रहता है ख़याल
मेरा चाहे कुछ हो
तुम सदा खुश रहो, आबाद रहो
प्रेम कभी चुकता नहीं, वह आदिम काल से अनंत तक प्रतीक्षा से भी थकता नहीं
हम मिले थे घास वन में
तब हम आदम संगीत को सुन रहे थे
उत्सव का ढोल बज रहा था
प्रेम की यह उदात्तता उन युवाओं को जानना आवश्यक है जो 'लिव इन' के नाम पर संबंधों को वस्त्रों की तरह बदलते और टूटकर बिखर जाते हैं। प्रेम को पाने का पर्याय माननेवाले उसके उत्कट-व्यापक रूप को जानें-
गगन में चंद्रमा जब तक रहेगा
पृथ्वी पर पड़ेगी उसकी छाया
तुम्हारा प्यार पाने की हसरत रहेगी
मौसम की मदिरा, नींद की सुरंग, वैशाख की पगडंडी, लाल गूलर का पान है प्रियतमा जैसी अभिव्यक्तियाँ मन मोहती हैं। अंग्रेजी शब्दों के मोहजाल से मुक्त दिनकर जी ने दोनों ओर लगी प्रेमाग्नि से साक्षात् कराया है। प्रेमिका की व्यथा देखें-
तुम्हेरे और मेरे बीच है समाज की नदी
जिसे तैर कर पार करती हूँ
तुम्हें पाने के लिए
क्या तुम समाज के डर से
नहीं आओगे / मेरे जुड़े में कपौ फूल खोंसने के लिए
.
तुम्हारे संग-संग जान भले ही दे दूं
प्रेम को मैं नहीं छोड़ पाऊँगी
प्रेमी की पीर और समर्पण भी कम नहीं है-
चलो उड़ चलें बगुलों के संग
बिना खाए ही कई दिनों तक गुजार सकता हूँ
अगर तुम रहोगी मेरे संग
.
अगर ईश्वर दक्षिणा देने से संतुष्ट होते
मैं उनसे कहता
मेरी किस्मत में लिख देते तुम्हारा ही नाम
.
प्रेमिका साथ न दे तो भग्नह्रदय प्रेमी के दिल पर बिजली गिरना स्वाभाविक है-
तुमने रंगीन पोशाक पहनी है
पिता के पास है दौलत
मेरे सामने बार-बार आकार
बना रही हो दीवाना
.
मैंने तुमसे एक ताम्बूल माँगा
और तुमने मेरी तरफ कटारी उछाल दी
.
हम दोनों में इतना गहरा प्यार था
किसने घोला है अविश्वास का ज़हर?
.
रंगपुर में मैंने ख़रीदा लौंग-दालचीनी
लखीमपुर में खरीदा पान
खेत में भटककर ढूँढता रहा तुम्हें
कहाँ काट रही हो धान?
.
कभी कालिदास ने मेघदूत को प्रेमी-प्रेमिका के मध्य सेतु बनाया था, अब दिनकर ने वैशाख-पर्व बिहू से प्रेम-पुल का काम लिया है, यह सनातन परंपरा बनी रहे और भावनाओं-कामनाओं-संभावनाओं को पल्लवित-पुष्पित करती रहे।
१२.४.२०१६
________
आदि शक्ति वंदना
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
*
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
*
जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
*
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
*
प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
*
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
*
ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
१२.४.२०१३
***

बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

७ फरवरी, हिंगलिश ग़ज़ल, लघुकथा, गीत, मुक्तिका, मुंडकोपनिषद, ताण्डव छंद, शेर, हाइकु, कायस्थ, हास्य

सलिल सृजन ७ फरवरी
अभिनव प्रयोग
हिंगलिश ग़ज़ल 
*
Get well soon.
दे दुश्मन को भून।

है विपक्ष अभिशाप।
Power party boon.

Be officer first.
तब ही मिले सुकून।

कर धरती को नष्ट।
Let us go to moon.

Fight for the change.
कुतर नहीं नाखून।

न्यायमूर्ति भगवान।
Every plaintiff coon.

Always do your best.
तब ही मिले सुकून।
*
coon = हबशी गुलाम
७.२.२०२४
***
विमर्श
लोकतंत्र है तो विरोध की गुंजाइश भी बनी रहे!
स्रोतः स्व. खुशवंत सिंह
सरकार के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करने वालों के लिए भी कोई कायदे−कानून होने चाहिए। उसके लिए हमें बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। अपने बापू तो दुनिया के महानतम विरोध करने वाले थे। उनके जेहन में बिल्कुल साफ था कि क्या सही है और क्या गलत? बॉयकॉट उनके लिए जायज तरीका था। उन्होंने विदेशी कपड़ों के बॉयकॉट की अपील की। आखिर जो इस देश में बन रहा है, उसका इस्तेमाल होना चाहिए। उन्होंने चीजों का ही बॉयकॉट नहीं किया, लोगों का भी किया। वे लोग जिनको हिन्दुस्तान में नहीं होना चाहिए था, उनके बॉयकॉट के लिए भी कहा। उन्होंने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा दिया। विरोध−प्रदर्शन का बापू का तरीका किसी की जिंदगी में परेशानी लाने के लिए नहीं था। वह जिंदगी को रोकना भी नहीं चाहते थे। वह तो बस अपना विरोध दर्ज करना चाहते थे।
बापू का दांडी मार्च गजब की मिसाल थी। उन्होंने पहले सरकार को नोटिस दिया। उसमें कहा कि नमक तो गरीबों के लिए भी जरूरी है। सो, नमक बनाने का हक सिर्फ सरकार का नहीं हो सकता। सरकार जो कर रही है, वह गलत है। इसलिए वह उस कानून को तोड़ने जा रहे हैं। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुजरिम करार दिए गए। जेल भेज दिया गया। तब भी उनकी जीत हुई। वह जीते, क्योंकि वह सही थे। उनका मुद्दा जन−जन से जुड़ा था। विरोध के जब तमाम तरीके काम न आए तो वह अनशन पर बैठ गए। लोगों ने उसे महसूस किया और उन्हें जम कर समर्थन दिया। उन्होंने अपने अनशन का पब्लिक प्रदर्शन नहीं किया।
बापू के तरीकों के उलट आज के विरोध−प्रदर्शन हैं। जरा गौर तो फरमाइए। रास्ता रोको, बंद, घेराव वगैरह−वगैरह। इन सबसे हमारी आम जिंदगी पर असर पड़ता है। ये सब कुल मिलाकर किसी को ब्लैकमेल करने या परेशान करने के लिए होते हैं। इसीलिए वे गलत हैं और अपने मकसद को पूरा नहीं कर पाते। बापू इस तरह के विरोध को अपनी रजामंदी नहीं देते।
विरोध के जायज तरीकों के लिए हमारे रोल मॉडल सांसद और विधायक हो सकते हैं, लेकिन वे अपना रोल ठीक से कर नहीं पा रहे हैं। पंडित नेहरू जब तक प्रधानमंत्री थे, तब तक ये लोग कायदे से विरोध करते थे। शायद ही कभी वे सदन में अध्यक्ष की ओर भागते हों। सदन न चलने वाला शोर−शराबा करते हों। आज तो जरा−सी बात पर हंगामा हो जाता है और सदन को रोक दिया जाता है। ऐसा लगता है कि संसदीय प्रणाली वाला लोकतंत्र अपने यहां चुक गया है। हम आसानी से सारी तोहमत आज के नेताओं पर लगा देते हैं। ऐसा करने से पहले हमें सोचना चाहिए कि क्या उन्हें हमने नहीं चुना है? क्या हमने उन्हें कानून बनाने की जिम्मेदारी नहीं सौंपी?
टिड्डी दल
एक बार दिल्ली में जबर्दस्त आंधी आई थी। फिर जबर्दस्त बारिश हुई थी। दिन में ऐसा महसूस होता था मानो रात हो गई हो। उस वक्त मुझे अपने लड़कपन के दिन याद आए। तब भी मैंने ऐसा ही तूफान देखा था। कुछ−कुछ ऐसा हुआ था। अचानक आसमान पर बादल घिर आए थे। टिडि्डयों का जबर्दस्त हमला हुआ था। अरबों की तादाद में ये दल हर पेड़ पर छा गए थे और पत्तों को खाने लगे थे। कुछ मुसलमान भाई तो अपनी छत पर चादर लेकर चढ़ गए थे, उसे बिछा कर
टिडि्डयों को इकट्ठा करने लगे, ताकि उसके पकोड़े बना सकें। तभी जोरों की आंधी आई थी। फिर आई थी जबर्दस्त बरसात। देखते ही देखते मौसम ठंडा हो गया था। बारिश के तमाम धूल−मिट्टी को धो−पोंछ दिया था। हर तरफ गजब की सफाई और हरियाली ही हरियाली बिखर गई थी।
मेरे मुसलमान दोस्त कहते नहीं थकते थे कि उनके पूर्वज टिडि्डयों को खाते थे। ये टिडि्डयां उत्तरी अफ्रीका से आती हैं। वह अक्सर घूमती रहती हैं। अपनी जगह बदलती रहती हैं। ये पूरे मध्य एशिया में छा जाती हैं। वहां से होते हुए हिन्दुस्तान और पाकिस्तान चली आती हैं। लातीनी अमेरिका में उसे लोकस्ट माइग्रेटोरिया कहते हैं। ये बर्बादी करने वाली होती हैं। उसका जिक्र बाइबिल में भी आता है। वहां इनकी वजह से भयंकर तबाही के बारे में चर्चा है। उसे जंगली शहद भी कहा गया है। इन दिनों हम लोग टिड्डी दलों का हमला नहीं देखते हैं, लेकिन उसकी कई यादें मेरे जेहन में हैं। अगर वे कभी वापसी करती हैं और मैं आसपास होता हूं तो मजा आ जाएगा। मैं अपने रसोइए से गुजारिश करूंगा कि वह मुझे उनके पकोड़े बना कर खिलाए। मैं अपने शाम के ड्रिंक के साथ उनका मजा लेना चाहूंगा।
टिप्पणीः यह आलेख स्व. खुशवंत सिंह के पुरालेखों में से एक है।
***
लघुकथा
बाज
.
नीम आसमान में परवाज भर रहा था बाज। समीप ही उड़ रहे रेवेन पक्षी ने बाज को ऊपर उठते देखा तो लपक कर बाज की गर्दन के ऊपर जा बैठा और लगा चोंच मारने। रेवेन सोच रहा था बाज उससे लड़ने के लिए नीचे उतरेगा और वह पल भर में आसमान में ऊपर जाकर बाज को नीचा दिखा देगा।
बाज को आसमान का बादशाह कहा जाता है और यह रेवेन को बर्दाश्त नहीं होता था।
बाज ने रेवेन के चंचु-प्रहार सहते हुए ऊपर उठना जारी रखा। बाज की सहनशीलता रंग लाई। जैसे जैसे बाज आसमान में ऊपर उठता गया, वायुमंडल में ओषजन वायु कम होती गई। हमेशा ऊँचाई पर उड़नेवाला बाज कम ओषजन में उड़ने का अभ्यस्त था किंतु रेवेन के लिए यह पहला अवसर था। बाज अपनी ऊँचाई और गति बढ़ाता गया। रेवेन के लिए बाज की गर्दन पर टिके रहना कठिन होता गया और अंतत: रेवेन धराशायी हो गया औरआसमान छूता रहा बाज ।
७-३-२०२३
***
लघुकथा
अपराधी
.
अपराधी के कटघरे में एक बालक खड़ा था। न्यायाधीश ने उस पर दृष्टि डाली, ऐसा प्रतीत हुआ बादलों में चंद्रमा छिपा हो। बालक उदास, नीची निगाह किए, चिंताग्रस्त दिख रहा था। न्यायाधीश अनुभवी थे, समझ गए कि यह आदतन अपराधी नहीं है।
सरकारी वकील ने बालक का अपराध बताया कि वह होटल से खाद्य सामग्री चुरा रहा था, तभी उसे पकड़ लिया गया। होटल मालिक ने बालक के जुर्म की तस्दीक करते हुए गर्व के साथ कहा कि उसीने अपने कर्मचारियों की मदद से बालक को पकड़ कर मरम्मत भी की थी ताकि फिर चोरी करने की हिम्मत न पड़े।
न्यायाधीश के पूछने पर लड़के ने स्वीकार किया कि उसने डबलरोटी उठाई थी हुए बिस्कुट उठाने के पहले ही उसे दबोच लिया गया था। यह भी बताया कि वहाँ कई तरह की मिठाइयाँ भी थीं, उसे मिठाई बहुत अच्छी लगती है।
'जब तुम्हें मिठाई बहुत अच्छी लगती है और वहां कई प्रकार की मिठाइयाँ रखी थीं तो तुमने मिठाई न उठकर डबलरोटी क्यों उठाई, पैसे क्यों नहीं दिए?' -न्यायाधीश ने पूछा।
''घर पर माँ बीमार है, उसे डबलरोटी खिलानी थी, मेरे पास या घर में एक भी रुपया नहीं था।''
'तो किसी से माँग लेते, चोरी बुरी बात है न?'
"कई लोगों से रोटी या पैसे माँगे सबने दुतकार दिया, इनसे भी डबलरोटी माँगी थी और कहा था कि माँ को खिलाकर आकर होटल में काम कर दूँगा पर इन्होंने भी डाँटकर भगा दिया।" -होटलवाले की तरफ देखकर बालक बोला।
मुकदमे के फैसला दोपहर भोजन काल के बाद सुनाने का आदेश देते हुए न्यायाधीश ने भूखे बालक को सरकारी व्यय पर भोजन कराए जाने का आदेश दिया।
डफरबाद अदालत बैठी तो न्यायाधीश ने कहा- 'यह किसी सभ्य समाज के लिए शर्म की बात है कि लोककल्याणकारी गणराज्य में किसी असहाय स्त्री हुए बालक को रोटी भी नसीब न हो। सरकार, प्रशासन, समाज और नागरिक सभी इस परिस्थिति के लिए दोषी हैं कि हम अपने वर्तमान और भविष्य की समुचित देखभाल नहीं कर पा रहे और नौनिहालों को मजबूरन चोरी करने के लिए विवश होना पड़े, अगर हर चोरी दंडनीय होती तो माखन-मिसरी चुराने के लिए कन्हैया को भी दंड दिया जाता। लोकोक्ति है 'भूखे भजन न होय गुपाला'।
इस बालक के अपराध के लिए हम सब दोषी हैं, स्वयं मैं भी। इसलिए मुझ समेत इस अदालत में उपस्थित हर व्यक्ति दस-दस रुपए जमा करे। होटल मालिक को संवेदनहीनता तथा बालक को बिना अधिकार पीटने के लिए एक हजार रुपए जमा करने होंगे। यह राशि बालक की माँ को दे दी जाए जिससे वह स्वस्थ्य होने तकअपने तथा बालक के भोजन की व्यवस्था कर सके। जिलाधिकारी को निर्देश है कि बालक की निशुल्क शिक्षा का प्रबंध करें तथा माँ को गरीबी रेखा से नीचे होने का प्रमाणपत्र देकर शासकीय योजनाओं से मिलनेवाले लाभ दिलाकर इस न्यायालय को सूचित करें। न्याय देने का अर्थ केवल दंड देना नहीं होता, ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना होता है ताकि भविष्य में कोई अन्य निर्दोष विवश होकर न बने अपराधी।
७-२-२०२३
***
मुण्डकोपनिषद १
परा सत्य अव्यक्त जो, अपरा वह जो व्यक्त।
ग्राह्य परा-अपरा, नहीं कहें किसी को त्यक्त।।
परा पुरुष अपरा प्रकृति, दोनों भिन्न-अभिन्न।
जो जाने वह लीन हो, अनजाना है खिन्न।।
जो विदेह है देह में, उसे सकें हम जान।
भव सागर अज्ञान है, अक्षर जो वह ज्ञान।।
मन इंद्रिय अरु विषय को, मान रहा मनु सत्य।
ईश कृपा तप त्याग ही, बल दे तजो असत्य।।
भोले को भोले मिलें, असंतोष दुःख-कोष।
शिशु सम निश्छल मन रखें, करें सदा संतोष।।
पाना सुखकारक नहीं, खोना दुखद न मान।
पाकर खो, खोकर मिले, इस सच को पहचान।।
'कुछ होने' का छोड़ पथ, 'कुछ मत हो' कर चाह।
जो रीता वह भर सके, भरा रीत भर आह।।
तन को पहले जान ले, तब मन का हो ज्ञान।
अपरा बिना; न परा का, हो सकता अनुमान।।
सांसारिक विज्ञान है, अपरा माध्यम मान।
गुरु अपरा से परा की, करा सके पहचान।।
अक्षर अविनाशी परा, अपरा क्षर ले जान।
अपरा प्रगटे परा से, त्याग परा पहचान।।
मन्त्र हवन अपरा समझ, परा सत्य का भान।
इससे उसको पा सके, कर अभ्यास सुजान।।
अपरा पर्दा कर रही, दुनियावी आचार।
परा न पर्दा जानती, करे नहीं व्यापार।।
दृष्टा दृष्ट न दो रहें, अपरा-परा न भिन्न।
क्षर-अक्षर हों एक तो, सत्यासत्य अभिन्न।।
***
मुक्तिका
किसे दिखाएँ मन के छाले?
पिला रहे सब तन को प्याले
संयम मैखाने में मेहमां
सती बहकती कौन सम्हाले?
वेणु झूमती पीकर पब में
ब्रज की रेणु क्रशर के पाले
पचा न पाएँ इतना खाते
कुछ, कुछ को कौरों के लाले
आदम मन की देख कालिमा
शरमा रहे श्याम पट काले
***
मुक्तिका
घातक सपनों के लिए जीवन का यह दौर
फागुन से डर काँपती कोमल कमसिन बौर
महुआ मर ही गया है, हो बोतल में कैद
मस्ती को मिलती नहीं मानव मन में ठौर
नेता जुमलेबाज है, जनता पत्थरबाज
भूख-प्यास का राज है, नंगापन सिरमौर
सपने मोहनभोग के छपा घोषणा पत्र
छीन-खा रहे रात-दिन जन-हित का कागौर
'सलिल' सियासत मनचली मुई हुई निर्लज्ज
छलती जन विश्वास को, भुला तरीके-तौर
७-६-२०२०
***
मुक्तिका
जंगल जंगल
*
जंगल जंगल कहाँ रहे अब
नदी सरोवर पूर रहे अब
काटे तरु, बोई इमारतें
चंद ठूँठ बेनूर रहे अब
कली मुरझती असमय ही लख
कामुक भौंरे क्रूर हुए अब
होली हो ली, अनहोली अब
रंग तंग हो दूर हुए अब
शेष न शर्म रही नैनों में
स्नेहिल नाते सूर हुए अब
पुष्पा पुष्प कहें काँटों से
झुक खट्टे अंगूर हुए अब
मिटी न खुद से खुद की दूरी
सपने चकनाचूर हुए अब
***
एक रचना
*
गाय
*
गाय हमारी माता है
पूजो गैया को पूजो
*
पिता कहाँ है?, ज़िक्र नहीं
माता की कुछ फ़िक्र नहीं
सदा भाई से है लेना-
नहीं बहिन को कुछ देना
है निज मनमानी करना
कोई तो रस्तों सूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गौरक्षक हम आप बने
लाठी जैसे खड़े-तने
मौका मिलते ही ठोंके-
बात किसी की नहीं सुनें
जबरा मारें रों न देंय
कार्य, न कारण तुम बूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गैया को माना माता
बैल हो गया बाप है
अकल बैल सी हुई मुई
बात अक्ल की पाप है
सींग मारते जिस-तिस को
भागो-बचो रे! मत जूझो
पूजो गैया को पूजो
*
मुक्तिका
*
मुक्त मन मुस्कान मंजुल मुक्तिका
नर्मदा का गान किलकिल मुक्तिका
मुक्तकों से पा रही विस्तार यह
षोडशी का भान खिलखिल मुक्तिका
बीज अंकुर कुसुम कंटक धूल सह
करे जीवन गान हिलमिल मुक्तिका
क्या कहे कैसे कहाँ कब, जानती
ज्योत्सना नभ-शान झिलमिल मुक्तिका
रूपसी अपरूप उज्वल धूपसी
मनुजता का मान प्रांजल मुक्तिका
नर्मदा रस-भाव-लय की गतिमयी
कथ्य की है जान, निश्छल मुक्तिका
सत्य-शिव-सुंदर सलिल आराध्य है
मीत गुरु गंभीर-चंचल मुक्तिका
७-२-२०२०
***
छंद सलिला :
ताण्डव छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, ताण्डव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, मधुभार,माला, वाणी, शक्तिपूजा, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
*
तांडव रौद्र कुल का बारह मात्रीय छंद है जिसके हर चरण के आदि-अंत में लघु वर्ण अनिवार्य है.
उदाहरण:
१. भर जाता भव में रव, शिव करते जब ताण्डव
शिवा रहित शिव हों शव, आदि -अंत लघु अभिनव
बारह आदित्य मॉस राशि वर्ण 'सलिल' खास
अधरों पर रखें हास, अनथक करिए प्रयास
२. नाश करें प्रलयंकर, भय हरते अभ्यंकर
बसते कंकर शंकर, जगत्पिता बाधा हर
महादेव हर हर हर, नाश-सृजन अविनश्वर
त्रिपुरारी उमानाथ, 'सलिल' सके अब भव तर
३. जग चाहे रहे वाम, कठिनाई सह तमाम
कभी नहीं करें डाह, कभी नहीं भरें आह
मन न तजे कभी चाह, तन न तजे तनिक राह
जी भरकर करें काम, तभी भला करें राम
***
नवगीत
पकौड़ा-चाय
*
तलो पकौड़ा
बेचो चाय
*
हमने सबको साथ ले,
सबका किया विकास।
'बना देश में' का दिया,
नारा खासुलखास।
नव धंधा-आजीविका
रोजी का पर्याय
तलो पकौड़ा
बेचो चाय
*
सब मिल उत्पादन करो,
साधो लक्ष्य अचूक।
'भारत में ही बना है'
पीट ढिंढोरा मूक।।
हम कुर्सी तुम सड़क पर
बैठो यही उपाय
तलो पकौड़ा
बेचो चाय
*
लाइसेंस-जीएसटी,
बिना नोट व्यापार।
इनकम कम, कर दो अधिक,
बच्चे भूखे मार।।
तीन-पांच दो गुणित दो
देशभक्ति अध्याय
तलो पकौड़ा
बेचो चाय
***
छंद: दोहा
***
नवगीत
*
तू कल था
मैं आज हूं
*
उगते की जय बोलना
दुनिया का दस्तूर।
ढलते को सब भूलते,
यह है सत्य हुजूर।।
तू सिर तो
मैं ताज हूं
*
मुझको भी बिसराएंगे,
कहकर लोग अतीत।
हुआ न कोई भी यहां,
जो हो नहीं व्यतीत।।
तू है सुर
मैं साज हूं।।
*
नहीं धूप में किए हैं,
मैंने बाल सफेद।
कल बीता हो तजूंगा,
जगत न किंचित खेेद।।
क्या जाने
किस व्याज हूं?
***
७.२.२०१८
***
लघुकथा-
बेटा
*
गलत संगत के कारण उसे चोरी की लत लग गयी. समझाने-बुझाने का कोई प्रभाव नहीं हुआ तो उसे विद्यालय से निकाल दिया गया. अपने बेटे को जैसे-तैसे पढ़ा-लिखा कर भला आदमी बनाने का सपना जी रही बीमार माँ को समाचार मिला तो सदमे के कारण लकवा लग गया.
एक रात प्यास से बेचैन माँ को निकट रखे पानी का गिलास उठाने में भी असमर्थ देखकर बेटे से रहा नहीं गया. पानी पिलाकर वह माँ के समीप बैठ गया और बोला 'माँ! तेरे बिना मुझसे रोटी नहीं खाई जाती.' बेबस माँ को आँखों से बहते आँसू पोंछने के बाद बेटा सवेरे ही घर से चला जाता है.
दिन भर बेटे के घर न आने से चिंतित माँ ने आहत सुन दरवाजे से बेटे के साथ एक अजनबी को घर में घुसते हुए देखा तो उठने की कोशिश की किन्तु कमजोरी के कारण उठ न सकी. अजनबी ने अपना परिचय देते हुए बताया कि बेटे ने उनके गोदाम में चोरी करनेवाले चोरों को पकड़वाया है. इसलिए वे बेटे को चौकीदार रखेंगे. वह काम करने के साथ-साथ पढ़ भी सकेगा.
अजनबी के प्रति आभार व्यक्त करने की कोशिश में हाथ जोड़ने की कोशिश करती माँ के मुँह से निकला 'बेटा'
***
मुक्तक
मेटते रह गए कब मिटीं दूरियाँ?
पीटती ही रहीं, कब पिटी दूरियाँ?
द्वैत मिटता कहाँ, लाख अद्वैत हो
सच यही कुछ बढ़ीं, कुछ घटीं दूरियाँ
*
कुण्डलिया
जल-थल हो जब एक तो, कैसे करूँ निबाह
जल की, थल की मिल सके, कैसे-किसको थाह?
कैसे-किसको थाह?, सहायक अगर शारदे
संभव है पल भर में, भव से विहँस तार दे
कहत कवि संजीव, हरेक मुश्किल होती हल
करें देखकर पार, एक हो जब भी जल-थल
*
***
एक प्रश्न:
*
लिखता नहीं हूँ,
लिखाता है कोई
*
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
*
शब्द तो शोर हैं तमाशा हैं
भावना के सिंधु में बताशा हैं
मर्म की बात होंठ से न कहो
मौन ही भावना की भाषा है
*
हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं,
*
अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट.
*
जितने मुँह उतनी बातें के समान जितने कवि उतनी अभिव्यक्तियाँ
प्रश्न यह कि क्या मनुष्य का सृजन उसके विवाह अथवा प्रणय संबंधों से प्रभावित होता है? क्या अविवाहित, एकतरफा प्रणय, परस्पर प्रणय, वाग्दत्त (सम्बन्ध तय), सहजीवी (लिव इन), प्रेम में असफल, विवाहित, परित्यक्त, तलाकदाता, तलाकगृहीता, विधवा/विधुर, पुनर्विवाहित, बहुविवाहित, एक ही व्यक्ति से दोबारा विवाहित, निस्संतान, संतानवान जैसी स्थिति सृजन को प्रभावित करती है?
यह प्रभाव कब, कैसे, कितना और कैसा होता है? इस पर विचार दें.
आपके विचारों का स्वागत और प्रतीक्षा है.
७-२-२०१७
***
द्विपदियाँ (अश'आर)
*
उगते सूरज को करे, दुनिया सदा प्रणाम
तपते से बच,डूबते देख न लेती नाम
*
औरों के ऐब देखना, आसान है बहुत
तू एक निगाह, अपने आप पे भी डाल ले
*
आगाज़ के पहले जरा अंजाम सोच ले
शुरुआत किसी काम की कर, बाद में 'सलिल'
*
उगते सूरज को करे, दुनिया सदा प्रणाम
तपते से बच,डूबते देख न लेती नाम
*
३-२-२०१६
अमरकंटक एक्सप्रेस बी २ /३५, बिलासपुर-भाटापारा
***
एक रचना
परिंदा
*
करें पत्ते परिंदों से गुफ्तगू
व्यर्थ रहते हैं भटकते आप क्यूँ?
बंद पिंजरों में रहें तो हर्ज़ क्या?
भटकने का आपको है मर्ज़ क्या??
परिंदे बोले: 'न बंधन चाहिए
जमीं घर, आकाश आँगन चाहिए
फुदक दाना चुन सकें हम खुद जहाँ
उड़ानों पर भी न हो बंदिश वहाँ
क्यों रहें हम दूर अपनी डाल से?
मरें चाहे, जूझ तो लें हाल से
चुगा दें चुग्गा उन्हें असमर्थ जो
तोल कर पर नाप लें वे गगन को
हम नहीं इंसान जो खुद के लिये
जियें, हम जीते यहाँ सबके लिये'
मौन पत्ता छोड़ शाखा गिर गया
परिंदा झट से गगन में उड़ गया
२०-१२-२०१५
***
हाइकु गीत:
.
रेवा लहरें
झुनझुना बजातीं
लोरी सुनातीं
.
मन लुभातीं
अठखेलियाँ कर
पीड़ा भुलातीं
.
राई सुनातीं
मछलियों के संग
रासें रचातीं
.
रेवा लहरें
हँस खिलखिलातीं
ठेंगा दिखातीं
.
कुनमुनातीं
सुबह से गले मिल
जागें मुस्कातीं
.
चहचहातीं
चिरैयाँ तो खुद भी
गुनगुनातीं
.
रेवा लहरें
झट फिसल जातीं
हाथ न आतीं
***
कविता
प्रश्नोत्तर
कल क्या होगा?
कौन बचेगा? कौन मरेगा?
कौन कहे?
.
आज न डरकर
कल की खातिर
शिव मस्तक से सतत बहे बहे
.
कल क्या थे?
यह सोच-सोचकर
कल कैसे गढ़ पाएँगे?
.
दादा चढ़े
हिमालय पर
क्या हम भी कदम बढ़ाएँगे?
.
समय
सवाल कर रहा
मिलकर उत्तर दें
.
चुप रहने से
प्रश्न न हल
हो पाएँगे।
७-२-२०१५
***
छंद सलिला :
ताण्डव छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, ताण्डव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, मधुभार,माला, वाणी, शक्तिपूजा, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
*
तांडव रौद्र कुल का बारह मात्रीय छंद है जिसके हर चरण के आदि-अंत में लघु वर्ण अनिवार्य है.
उदाहरण:
१. भर जाता भव में रव, शिव करते जब ताण्डव
शिवा रहित शिव हों शव, आदि -अंत लघु अभिनव
बारह आदित्य मॉस राशि वर्ण 'सलिल' खास
अधरों पर रखें हास, अनथक करिए प्रयास
२. नाश करें प्रलयंकर, भय हरते अभ्यंकर
बसते कंकर शंकर, जगत्पिता बाधा हर
महादेव हर हर हर, नाश-सृजन अविनश्वर
त्रिपुरारी उमानाथ, 'सलिल' सके अब भव तर
३. जग चाहे रहे वाम, कठिनाई सह तमाम
कभी नहीं करें डाह, कभी नहीं भरें आह
मन न तजे कभी चाह, तन न तजे तनिक राह
जी भरकर करें काम, तभी भला करें राम
३०.१.२०१४
बिहार और कायस्थ
बंगाल से बिहार का अलग होना और राष्ट्र भाषा हिंदी के लिए आन्दोलन व हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने वाले कायस्थ ही हैं :-
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के आरंभिक बिहारी नेता यथा महेश नारायण, सच्चिदानन्द सिन्हा एवं अन्य सभी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति ‘सचेत’ उदासीन भाव रखते हुए बंगाल से बिहार को अलग करने के आंदोलन से गहरे जुड़े थे। बिहार के नवजागरण का एक अत्यंत रोचक तथ्य है कि सन् १९१२ से पहले प्रतिक्रियावादी जमींदार वर्ग कांग्रेस अर्थात् राष्ट्रीय आंदोलन के साथ है और बंगाल से बिहार के पृथक्करण के विरोध में है जबकि प्रगतिशील मध्यवर्ग पृथक्करण के तो पक्ष में है लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति उदासीन है। बल्कि कई बार यह प्रगतिशील तबका अपनी ‘राजभक्ति’ भी प्रदर्शित करता है।
हसन इमाम ने कहा कि महेश नारायण ‘बिहारी जनमत के जनक’ हैं तो सिन्हा ने उन्हें ‘बिहारी नवजागरण का जनक’ कहा। कहना न होगा कि यह नवजागरण बिहार के पृथक्करण की शक्ल में था। महेश नारायण के बड़े भाई गोविंद नारायण कलकत्ता विश्वविद्यालय में एम. ए. की डिग्री पानेवाले पहले बिहारी थे। उनके ही नेतृत्व में बिहार में सर्वप्रथम राष्ट्रभाषा का आंदोलन आरंभ किया गया था और यह उन्हीं की प्रेरणा का फल था कि हिंदी का प्रवेश उस समय स्कूलों और कचहरियों में हो सका।
बंगाल से बिहार के पृथक्करण में महेश नारायण, डा. सच्चिादानंद सिन्हा, नंदकिशोर लाल, परमेश्वर लाल, राम बहादुर कृष्ण सहाय, भगवती सहाय तथा आरा के हरवंश सहाय समेत लगभग तमाम लोग, जिनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है, जाति से कायस्थ थे और अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों में उनकी जाति अग्रणी थी। सुमित सरकार(बंगाली कायस्थ ) ने बंगालियों के प्रभुत्त्व को चुनौती देते बिहार की कायस्थ जाति के लोगों के द्वारा पृथक बिहार हेतु आंदोलन का नेतृत्त्व करने की बात पर प्रकाश डाला है। यह अकारण नहीं था कि १९०७ में महेश नारायण के निधन के बाद डा. सच्चिदानंद सिन्हा ने बंगालियों के प्रभुत्त्व को तोड़नेवाले नेतृत्त्व की अगुआई की और अंततः इस जाति ने बंगाली प्रभुत्त्व को समाप्त कर अपनी प्रभुता कायम कर ली। इस वर्ग की बढ़ती महत्त्वाकांक्षा ने एक बार पुनः बिहार से उड़ीसा को अलग करने का ‘साहसिक’ कार्य किया। डा. अखिलेश कुमार ने अन्यत्र डा. सच्चिदानंद सिन्हा की उस भूमिका को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि वे उड़ीसा के पृथक्करण के भी प्रमुख हिमायती थे। शिक्षित बिहारी युवकों ने महसूस किया था कि अपना अलग प्रांत नहीं होगा तो उनका कोई भविष्य नहीं है। इन युवकों में अधिकतर कायस्थ थे। अतएव वे अलग बिहार प्रांत बनाने के आंदोलन में स्वाभाविक रूप से कायस्थ जाति के लोग ही आगे आए। जाहिर है, रोजगार एवं अवसर की तलाश की इस मध्यवर्गीय लड़ाई को सच्चिदानंद सिन्हा ने एक व्यापक आधार प्रदान करने हेतु ‘बिहारी पहचान’ एवं ‘बिहारी नवजागरण’ की बात ‘गढ़ी’। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है, ‘सिर्फ खुद बिहारियों को छोड़कर बाकी लोगों में बिहार का नाम भी लगभग अनजान था।’ आगे उन्होंने लिखा, ‘पिछली सदी के ९० के दशक के प्रारंभ में मैं जब एक छात्र के रूप में लंदन में था, तब मुझे जबरन इस ओर ध्यान दिलाया गया। तभी मैंने यह दर्दनाक और शर्मनाक खोज की कि आम बर्तानवी के लिए तो बिहार एक अनजान जगह है ही, और यहां तक कि अवकाशप्राप्त आंग्ल-भारतीयों के बहुमत के लिए भी बिहार अनजाना ही है। …मेरे लिए आज के बिहारियों को यह बताना बड़ा कठिन है कि उस वक्त मुझे और कुछ दूसरे उतने ही संवेदनशील बिहारी मित्रों को कितनी शर्मिंदगी और हीनता महसूस हुई जब हमें महसूस हुआ कि हम ऐसे लोग हैं जिनकी अपनी कोई अलग पहचान नहीं है, कोई प्रांत नहीं है जिसको वे अपना होने का दावा करें, दरअसल उनकी कोई स्थानीय वासभूमि नहीं है जिसका कोई नाम हो। यह पीड़ादायक भावना उस वक्त और टीस बन गई जब सन् १८९३ में स्वदेश लौटने पर बिहार में प्रवेश करते-करते पहले ही रेलवे स्टेशन पर एक लंबे-तगड़े बिहारी सिपाही के बैज पर ‘बंगाल पुलिस’ अंकित देखा। घर लौटने की खुशियां गायब हो गईं और मन खट्टा हो गया। …पर सहसा ख्याल आया कि बिहार को एक अलग और सम्मानजनक इकाई का दर्जा दिलाने के लिए, जिसकी देश के अन्य महत्वपूर्ण प्रांतों की तरह अपनी एक अलग पहचान हो, मैं सब कुछ करने का संकल्प लूं जो करना मेरे बूते में है। एक शब्द में कहूं तो यही मेरे जीवन का मिशन बन गया और इसको हासिल करना मेरे सार्वजनिक क्रियाकलापों की प्रेरणा का सबसे बड़ा स्रोत।’
***
सामयिक कविता:
रंग-बिरंगे नेता करते बात चटपटी.
ठगते सबके सब जनता को बात अटपटी.
लोकतन्त्र को लोभतंत्र में बदल हँस रहे.
कभी फाँसते हैं औरों को कभी फँस रहे.
ढंग कहो, बेढंग कहो चल रही जंग है.
हर चहरे की अलग कहानी, अलग रंग है.
***
हर चेहरे की अलग कहानी, अलग रंग है.
अलग तरीका, अलग सलीका, अलग ढंग है...
यह नेता भैंसों को ब्लैक बोर्ड बनवाता.
कुर्सी पड़े छोड़ना, बीबी को बैठाता.
घर में रबड़ी रखे मगर खाता था चारा.
जनता ने ठुकराया अब तडपे बेचारा.
मोटा-ताज़ा लगे, अँधेरे में वह भालू.
जल्द पहेली बूझो नाम बताओ........?
*
भगवा कमल चढ़ा सत्ता पर जिसको लेकर
गया पाक बस में, आया हो बेबस होकर.
भाषण लच्छेदार सुनाये, काव्य सुहाये.
धोती कुरता गमछा धारे सबको भाये.
बरस-बरस उसकी छवि हमने विहँस निहारी.
ताली पीटो, नाम बताओ-...
*
गोरी परदेसिन की महिमा कही न जाए.
सास और पति के पथ पर चल सत्ता पाए.
बिखर गया परिवार मगर क्या खूब सम्हाला?
देवरानी से मन न मिला यह गड़बड़ झाला.
इटली में जन्मी, भारत का ढंग ले लिया.
बहू दुलारी भारत माँ की नाम? .........
*
छोटी दाढीवाला यह नेता तेजस्वी.
कम बोले करता ज्यादा है श्रमी-मनस्वी.
नष्ट प्रान्त को पुनः बनाया, जन-मन जीता.
मरू-गुर्जर प्रदेश सिंचित कर दिया सुभीता.
गोली को गोली दे, हिंसा की जड़ खोदी.
कर्मवीर नेता है भैया ...
*
माया की माया न छोड़ती है माया को.
बना रही निज मूर्ति, तको बेढब काया को.
सत्ता प्रेमी, कांसी-चेली, दलित नायिका.
नचा रही है एक इशारे पर विधायिका.
गुर्राना-गरियाना ही इसके मन भाया.
चलो पहेली बूझो, नाम बताओ...
*
मध्य प्रदेशी जनता के मन को जो भाया.
दोबारा सत्ता पाकर भी ना इतराया.
जिसे लाडली बेटी पर आता दुलार है.
करता नव निर्माण, कर रहा नित सुधार है.
दुपहर भोजन बाँट, बना जन-मन का तारा.
जल्दी नाम बताओ वह ............. हमारा.
*
बंगालिन बिल्ली जाने क्या सोच रही है?
भय से हँसिया पार्टी खम्बा नोच रही है.
हाथ लिए तृण-मूल, करारी दी है टक्कर.
दिल्ली-सत्ताधारी काटें इसके चक्कर.
दूर-दूर तक देखो इसका हुआ असर जी.
पहचानो तो कौन? नाम ...
*
तेजस्वी वाचाल साध्वी पथ भटकी है.
कौन बताये किस मरीचिका में अटकी है?
ढाँचा गिरा अवध में उसने नाम काया.
बनी मुख्य मंत्री, सत्ता सुख अधिक न भाया.
बड़बोलापन ले डूबा, अब है गुहारती.
शिव-संगिनी का नाम मिला, है ...
*
डर से डरकर बैठना सही न लगती राह.
हिम्मत गजब जवान की, मुँह से निकले वाह.
घूम रहा है प्रान्त-प्रान्त में नाम कमाता.
गाँधी कुल का दीपक, नव पीढी को भाता.
जन मत परिवर्तन करने की लाता आँधी.
बूझो-बूझो नाम बताओ ...
*
बूढा शेर बैठ मुम्बई में चीख रहा है.
देश बाँटता, हाय! भतीजा दीख रहा है.
पहलवान है नहीं मुलायम अब कठोर है.
धनपति नेता डूब गया है, कटी डोर है.
शुगर किंग मँहगाई अब तक रोक न पाया.
रबर किंग पगड़ी बाँधे, पहचानो भाया.
*
७-२-२०१०
***