कुल पेज दृश्य

amritdhvani लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
amritdhvani लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 17 जून 2011

छंद सलिला: नवीन चतुर्वेदी


 
 अमृत ध्वनि छन्‍द - उन्नत धारा प्रेम की

उन्नत धारा प्रेम की, बहे अगर दिन रैन|
तब मानव मन को मिले, मन-माफिक सुख चैन||
मन-माफिक सुख चैन, अबाधित होंय अनन्दित|
भाव सुवासित, जन हित लक्षित, मोद मढें नित|
रंज  किंचित, कोई न वंचित, मिटे अदावत|
रहें इहाँ-तित, सब जन रक्षित, सदा समुन्नत||


=============================================================

घनाक्षरी कवित्त - ढूँढ के छली को पेश कीजै दरबार में

आज सपने में ललिता ने ये दिया हुकुम,
ढूँढ के छली को पेश कीजे दरबार में|

दिलों को दुखाने की मिलेगी सज़ा उसे आज,
जुर्म इकबाल होगा अदालतेप्यार में|

प्रेम का कनून तोड़ा, राधा जी से मुँह मोड़ा,
बख्शा न जाएगा वो, छपा दो अख़बार में|

सभी जगा ढूँढा, पर, मिला नहीं श्याम, चूँकि-
बैठा था वो तो छुप के दिलेसरकार में||

==============================
 
सांगोपांग सिंहावलोकन छन्‍द - 
 
तान दें पताका उच्च हिंद की जहान में
ध्यान दें समाज पर अग्रज हमारे सब,
अनुजों की कोशिशों को बढ़ के उत्थान दें| 

उत्थान दें
 जन-मन रुचिकर रिवाजों को,

भूत काल वर्तमान भावी को भी मान दें| 

मान दें
 मनोगत विचारों को समान रूप,
हर बार अपनी ही जिद्द को न तान दें| 

तान दें
 पताका उच्च हिंद की जहान में औ,

उस के तने रहने पे भी फिर ध्यान दें||
====================================================== 

ग़ज़ल - फगुआ उमंग तरंग में

 सजावटें बनावटें बुनावटें घुमावटें|
चिठिया में होंवो लिखावटें हरें सकलअकुलाहटें||

मृदुहास मयपरिहास भीवही खास आस जगा गया|
मधुमास कीअभिलाष मेंअतिशय ढ़ी झुँझलाहटें||

यदि प्रेम हैडरिए नहींअभिव्यक्त भी करिए सजन|
फगुआ उमंग तरंग मेंक्यूँ  लूटें साथ तरावटें||

अनुपमअमितअविरलअगमअभिनवअकथअनिवार्य सा|
अमि-रस भरायहु प्रेम-पथ चलें यहाँ कडुवाहटें||

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

षटपदियाँ : संजीव 'सलिल'

षटपदियाँ :
संजीव 'सलिल'
*
इनके छंद विधान में अंतर को देखें. प्रथम अमृत ध्वनि है, शेष कुण्डलिनी
भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल.
*
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल..
तज भेदों के, शूल अनवरत, रहें सृजनरत.
मिलें अंगुलिका, बनें मुष्टिका, दुश्मन गारत..
तरसें लेनें. जन्म देवता, विमल विनयरत.
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत..
*
कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान.
हुए पराजित पलों में, कोटि-कोटि विद्वान..
कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर.
तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर..
जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर.
'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर..  
*
सुंदरियाँ घातक; सलिल' पल में लें दिल जीत.
घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत.
जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर.
बिछुड़ें तो अवढरदानी  भी हों प्रलयंकर.
असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ.
नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ..
*

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

हिंदी छंद : अमृतध्वनि संजीव 'सलिल'

हिंदी छंद : अमृतध्वनि 
संजीव 'सलिल'

*
अमृतध्वनि भी कुण्डलिनी का तरह षट्पदी (६ पंक्ति का) छंद है. इसमें प्रत्येक पंक्ति को ८-८ मात्राओं के ३ भागों में बाँटा जाता है. इसमें यमक और अनुप्रास का प्रयोग बहुधा होने पर एक विशिष्ट नाद (ध्वनि) सौन्दर्य उत्पन्न होने से इसका नाम अमृतध्वनि हुआ.
रचना विधान:
१. पहली दो पंक्तियाँ दोहा: १३-११ पर लघु के साथ यति.
२. शेष ४ पंक्तियाँ: २४ मात्राएँ ८, ८, ८ पर लघु के साथ यति.
३. दोहा का अंतिम पद तृतीय पंक्ति का प्रथम पद.
४. दोहा का प्रथम शब्द (शब्द समूह नहीं) छ्न्द का अंतिम शब्द हो.
नवीन चन्द्र चतुर्वेदी :
उन्नत धारा प्रेम की, बहे अगर दिन रैन|


तब मानव मन को मिले, मन-माफिक सुख चैन||
मन-माफिक सुख चैन, अबाधित होंय अनन्‍दित|
भाव सुवासित, जन हित लक्षित, मोद मढें नित|
रंज न किंचित, कोई न वंचित, मिटे अदावत|
रहें इहाँ-तित, सब जन रक्षित, सदा समुन्नत||

पं. रामसेवक पाठक 'हरिकिंकर' :
आया नाज़ुक समय अब, पतित हुआ नर आज.
करता निन्दित कर्म सब, कभी न आता बाज..
कभी न आता, बाज बेशरम, सत भी छोड़ा.
परहित भूला, फिरता फूला, डाले रोड़ा..
जग-दुःख छाया, अमन गँवाया, चैन न पाया.
हर्षित पुलकित, प्रमुदित हुआ न, कुसमय आया..
मनोहर शर्मा 'माया' :
पावस है वरदान सम, देती नीर अपार.
हर्षित होते कृषक गण, फसलों की भरमार..
झर-झर पानी, करे किसानी, कीचड़ सानी.
वारिद गरजे, चपला चमके, टप-टप पानी..
धान निरावे, कजरी गावे, बीते 'मावस.
हर्षित हर तन, पुलकित हर मन, आई पावस..
(दोहे का अंतिम चरण तीसरी पंक्ति का प्रथम चरण नहीं है, क्या इसे अमृतध्वनि कहेंगे?)
संजीव वर्मा 'सलिल'
जलकर भी तम हर रहे, चुप रह मृतिका-दीप.
मोती पाले गर्भ में, बिना कुछ कहे सीप.
सीप-दीप से, हम मनुज तनिक, न लेते सीख.
इसीलिए तो, स्वार्थ में लीन, पड़ रहे दीख.
दीप पर्व पर, हों संकल्पित, रह हिल-मिलकर.
दें उजियारा, आत्म-दीप बन, निश-दिन जलकर.
(दोहे का अंतिम चरण तीसरी पंक्ति का प्रथम चरण नहीं है, किन्तु दोहे का अंतिम शब्द तीसरी पंक्ति का प्रथम शब्द है, क्या इसे अमृतध्वनि कहेंगे?)
****************
समस्यापूर्ति:
१. कम्प्यूटर
२. सुन्दरियाँ
३. भारत

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

दें उजियारा आत्म-दीप बन : --- संजीव वर्मा 'सलिल'

दें उजियारा आत्म-दीप बन :                                    

--- संजीव वर्मा 'सलिल'

जलकर भी तम हर रहे, चुप रह मृतिका-दीप.
मोती पलते गर्भ में, बिना कुछ कहे सीप.
सीप-दीप से हम मनुज तनिक न लेते सीख.
इसीलिए तो स्वार्थ में लीन पड़ रहे दीख.
दीप पर्व पर हों संकल्पित रह हिल-मिलकर.
दें उजियारा आत्म-दीप बन निश-दिन जलकर.
- छंद अमृतध्वनि

****************
रचना विधान:

1. पहली दो पंक्तियाँ दोहा: 13- 11 पर यति.

2. शेष 4 पंक्तियाँ: 24 मात्राएँ 8, 8, 8, पर यति.

3. दोहा का अंतिम शब्द तृतीय पंक्ति का प्रथम पद.

4. दोहा का प्रथम शब्द (शब्द समूह नहीं) छ्न्द का अंतिम शब्द हो.