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गुरुवार, 31 मई 2012

नवगीत: गर्मी के दिन... संजीव 'सलिल'

नवगीत:
गर्मी के दिन...
संजीव 'सलिल'
*
बतियाते-इठलाते
गर्मी के दिन..
*
ठंडी से ठिठुर रहे.
मौसम के पाँव.
सूरज ले उषा किरण
आया हँस गाँव.
नयनों में सपनों ने
पायी फिर ठाँव.
अपनों की पलकों में
खोज रहे छाँव.
महुआ से मदिराए
पनघट के दिन.
चुक जाते-थक जाते
गर्मी के दिन..
*
पेड़ों का कत्ल देख
सिसकता पलाश.
पर्वत का अंत देख
नदी हुई लाश.
शहरों में सीमेंटी
घर हैं या ताश?
जल-भुनता इंसां
फँस यंत्रों के पाश.
होली की लपटें-
चौपालों के दिन.
मुरझाते झुलसाते
गर्मी के दिन..
*

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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मंगलवार, 29 मई 2012

गीत: प्रभु जैसी चादर दी तूने... संजीव 'सलिल'

गीत:
प्रभु जैसी चादर दी तूने...
संजीव 'सलिल'
*

*
प्रभु जैसी चादर दी तूने
मैंने की स्वीकार.
जैसी भी मैं रख पाया
अब तू कर अंगीकार...
*
तुझसे मेरी कोई न समता,
मैं अक्षम, तू है सक्षमता.
तू समर्थ सृष्टा निर्णायक,
मेरा लक्षण है अक्षमता.
जैसा नाच नचाया नाचूँ-
विजयी हूँ वर हार.
प्रभु जैसी चादर दी तूने
मैंने की स्वीकार...
*
तू ऐसा हो, तू वैसा कर,
मेरी रही न शर्त.
क्यों न मुझे स्वीकार रहा हरि!
ज्यों का त्यों निश्शर्त.
धर्माधर्म कहाँ-कैसा
हारो अब सकूँ बोसार.
प्रभु जैसी चादर दी तूने
मैंने की स्वीकार...
*
जला न पाये आग तनिक प्रभु!
भीगा न पाये पानी.
संचयकर्ता मुझे मत बना,
और न अवढरदानी.
जग-नाटक में 'सलिल' सम्मिलित
हो निर्लिप्त निहार.
प्रभु जैसी चादर दी तूने
मैंने की स्वीकार...
***
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मुक्तिका: दिल में दूरी... --संजीव 'सलिल'

 
मुक्तिका:
दिल में दूरी...
संजीव 'सलिल'

*
 
*
दिल में दूरी हो मगर हाथ मिलाये रखना.
भूख सहकर भी 'सलिल' साख बचाये रखना..

जहाँ माटी ही न मजबूत मिले छोड़ उसे.
भूल कर भी न वहाँ नीव के पाये रखना..

गैर के डर से न अपनों को कभी बिसराना.
दर पे अपनों के न कभी मुँह को तू बाये रखना..

ज्योति होती है अमर तम ही मरा करता है.
जब भी अँधियारा घिरे आस बचाये रखना..

कोई प्यासा ले बुझा प्यास, मना मत करना.
जूझ पत्थर से सलिल धार बहाये रखना..

********


सोमवार, 28 मई 2012

ॐ सूर्य द्वादश नामावली --हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'

ॐ सूर्य द्वादश नामावली
हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*



आदित्यः प्रथमं नामः, द्वितीयं तु दिवाकरः.
तृतीयं भास्करं प्रोक्तं, चतुर्थं च प्रभाकरः..
पंचमं च सहस्त्रान्शु, षष्ठं चैव त्रिलोचनः .
सप्तमं हरिदश्वश्चं, ह्यअष्ठं च विभावसु:..
नवमं दिनकृतं प्रोक्तं, दशमं द्वादशात्मकः.
एकादशं त्रयीमूर्ति द्वादशं सूर्य एव च..
द्वादशैतानि नामानि प्रातःकाले पठेन्नरः.
दु:स्वप्न नाशन सद्यः सर्व सिद्धिः प्रजायते..
***
ॐ सूर्य द्वादश नामावली हिंदी काव्यानुवाद



प्रथम नाम आदित्य, दूसरा नाम दिवाकर.
नाम तीसरा भास्कर, चौथा नाम प्रभाकर..
पंचम सहस्त्रान्शु है, छठवां नाम त्रिलोचन.
हरिद अश्व सातवाँ, विभावसु नाम सुअष्टम..
दिनकृत नवमां नाम, द्वादशात्मक है दसवां. 
त्रयीमूर्ति ग्यारहवां,  सूर्य सुनाम बारवाँ..
नित्य प्रात बारह नामों का, जाप करे जो.
तुरत दुस्वप्न नष्ट हों, सिद्धि सभी पाये वो.



*****
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त्रिपदिक नवगीत : नेह नर्मदा तीर पर - संजीव 'सलिल'

: अभिनव सारस्वत प्रयोग :
त्रिपदिक नवगीत :
             नेह नर्मदा तीर पर
                            - संजीव 'सलिल'

                     *
नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन कर धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
                   *
कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?

          निष्क्रिय, मौन, हताश है.
          या दिलजला निराश है?
          जलती आग पलाश है.

जब पीड़ा बनती भँवर,
       खींचे तुझको केंद्र पर,
           रुक मत घेरा पार कर...
                   *
नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन का धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
                   *
सुन पंछी का मशविरा,
मेघदूत जाता फिरा-
'सलिल'-धार बनकर गिरा.

          शांति दग्ध उर को मिली.
          मुरझाई कलिका खिली.
          शिला दूरियों की हिली.

मन्दिर में गूँजा गजर,
       निष्ठां के सम्मिलित स्वर,
           'हे माँ! सब पर दया कर...
                   *
नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन का धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
                   *
पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.

          सिकता कण लख नाचते.
          कलकल ध्वनि सुन झूमते.
          पर्ण कथा नव बाँचते.

बम्बुलिया के स्वर मधुर,
       पग मादल की थाप पर,
           लिखें कथा नव थिरक कर...
                   *
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शनिवार, 26 मई 2012

-- श्री सूर्यमंडलाष्टकं -- हिंदी काव्यानुवाद : संजीव 'सलिल'

-- श्री सूर्यमंडलाष्टकं --
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव 'सलिल'
*


नमः सवित्रे जगदेक चक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थिति नाशहेतवे.
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरंचिनारायण शंकरात्मने..१..

जगत-नयन सविते! नमन, रचें-पाल कर अंत.
त्रयी-त्रिगुण के नाथ हे!, विधि-हरि-हर प्रिय कंत....



यंमन्डलं दीप्तिकरं विशालं, रत्नप्रभं तीव्रमनादि रूपं.
दारिद्र्य-दुःख-क्षय कारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम..२..

आभा मंडल दीप्त सुविस्तृत, रूप अनादि रत्न-मणि-भासित.
दुःख-दारिद्र्य क्षरणकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..२..



यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितं विप्रेस्तुते भावन मुक्तिकोविदं.
तं देवदेवं प्रणमामि सूर्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..३..

आभा मंडल मुक्तिप्रदाता, सुरपूजित विप्रों से वन्दित.
लो प्रणाम देवाधिदेव हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..३..



यन्मण्डलं ज्ञान घनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपं.
समस्त तेजोमय दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..४..

आभा मंडल गम्य ज्ञान घन, त्रिलोकपूजित त्रिगुण समाहित.
सकल तेजमय दिव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..४..


यन्मण्डलं गूढ़मति प्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानां.
यत्सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..५..

आभा मंडल सूक्ष्मति बोधक, सुधर्मवर्धक पाप विनाशित .
नित प्रकाशमय भव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..५..
 

यन्मण्डलं व्याधि-विनाशदक्षं, यद्द्रिग्यजुः साम सुसंप्रगीतं.
प्रकाशितं येन च भूर्भुवः स्व:, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..६..

आभा मंडल व्याधि-विनाशक,ऋग-यजु-साम कीर्ति गुंजरित.
भूर्भुवः व: लोक प्रकाशक!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..६..




यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण सिद्ध्-संघाः.
यदयोगिनो योगजुषां च संघाः, पुनातु मांतत्सवितुर्वरेण्यं..७..

आभा मंडल वेदज्ञ-वंदित, चारण-सिद्ध-संत यश-गायित .
योगी-योगिनी नित्य मनाते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..७..
 

यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादित मर्त्यलोके.
यत्कालकल्पक्षय कारणं च , पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..८..

आभा मंडल सब दिश पूजित, मृत्युलोक को करे प्रभासित.
काल-कल्प के क्षयकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..८.. 
 

यन्मण्डलंविश्वसृजां प्रसिद्धमुत्पत्ति रक्षा पल प्रगल्भं.
यस्मिञ्जगत्संहरतेsअखिलन्च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..९..

आभा मंडल सृजे विश्व को, रच-पाले कर प्रलय-प्रगल्भित.
लीन अंत में सबको करते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..९.
.


यन्मण्डलं सर्वगतस्थ विष्णोरात्मा परंधाम विशुद्ध् तत्वं  .
सूक्ष्मान्तरै योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..१०..

आभा मंडल हरि आत्मा सम, सब जाते जहँ धाम पवित्रित.
सूक्ष्म बुद्धि योगी की गति सम, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..१०..
 

यन्मण्डलं विदविदोवदन्ति, गायन्तियच्चारण सिद्ध-संघाः.   
यन्मण्डलं विदविद: स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..११..

आभा मंडल सिद्ध-संघ सम, चारण-भाटों से यश-गायित.
आभा मंडल सुधिजन सुमिरें, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..११..
 


मण्डलाष्टतयं पुण्यं, यः पथेत्सततं नरः.
सर्व पाप विशुद्धात्मा, सूर्य लोके महीयते..

मण्डलाष्टय पाठ कर, पायें पुण्य अनंत.
पापमुक्त शुद्धतम हो, वर रविलोक दिगंत..



..इति श्रीमदादित्य हृदयेमण्डलाष्टकं संपूर्णं.. 
..अब श्रीमदसूर्यहृदयमंडल अष्टक पूरा हुआ..



*****
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मुक्तिका: कुशलता से... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
कुशलता से...
संजीव 'सलिल'
*

*
कुशलता से मैं यहाँ हूँ, कुशलता से आप हों.
कोशिशों की सुमिरनी ले, सफलता के जाप हों.

जमाना कुछ भी कहे, हो राह कितनी भी कठिन.
कदम हों मजबूत ऐसे, मंजिलों के नाप हों..

अहल्या शुचिता से यदि, टकराये कोई इन्द्र तो.
मेट कोई भी न पाये, आप ऐसे शाप हों..

सियासत लंका दशानन भ्रष्ट नेता मुख अनेक.
चुनावी रण राम, हम मतदान शर, मत चाप हों.. 

खुले खिड़की दिमागों की, हवा ताज़ी आ सके.
बंद दरवाज़ा न दिल का कीजिए, मत खाप हों..

पोछ लें आँसू किसी की आँख का- पूजा यही.
आत्म हो परमात्मपूजक, ना तिलक ना छाप हों..

संकटों के नगाड़े हों सामने तो मत डरो.
हौसलों की हथेली, संकल्प की शत थाप हों..

नियम-पालन का हवन, संतोष की करिए कथा.
दूसरों का प्राप्य पाने का 'सलिल' मत पाप हों..
************
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रचना-प्रति रचना : ...लिखूँगा मुकेश श्रीवास्तव-संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना :
...लिखूँगा  
मुकेश श्रीवास्तव-संजीव 'सलिल'
*

*
अपनी भी इक दिन कहानी लिखूंगा
टीस  है  कितनी  पुरानी - लिखूंगा
तफसील से तुम्हारी अदाएं  याद  हैं
ली तुमने कब कब अंगड़ाई - लिखूंगा 
साए में तुम्हारे गुज़ारे हैं तमाम दिन
ज़ुल्फ़ हैं तुम्हारी - अमराई लिखूंगा
तपते दिनों में ठंडा ठंडा सा एहसास
है  रूह  तुम्हारी रूहानी - लिखूंगा
छेड़ छेड़ डालती रही मुहब्बत के रंग
है आँचल तुम्हारा - फगुनाई लिखूगा
तुलसी का बिरवा, मुहब्बत की बेल
स्वर्ग सा तुम्हारा - अंगनाई लिखूंगा 
*
मुकेश इलाहाबादी
<mukku41@yahoo.com>
***
मुकेश जी आपकी कहानी तो आपकी हर रचना में पढ़ कर हम आनंदित होते ही हैं. इस सरस रचना हेतु बधाई. आपको समर्पित कुछ पंक्तियाँ-
मुक्तिका:
लिखूँगा...
संजीव 'सलिल'
*
कही-अनकही हर कहानी लिखूँगा.
बुढ़ाती नहीं वह जवानी लिखूँगा..

उफ़ न करूँगा, मिलें दर्द कितने-
दुनिया है अनुपम सुहानी लिखूँगा..

भले जग बताये कि नातिन है बच्ची
मैं नातिन को नानी की नानी लिखूँगा..

रही होगी नादां कभी मेरी बेटी.
बिटिया है मेरी सयानी लिखूँगा..

फ़िदा है नयेपन पे सारा जमाना.
मैं बेहतर विरासत पुरानी लिखूँगा..

राइम सुनाते हैं बच्चे- सुनायें.
मैं साखी, कबीरा, या बानी लिखूँगा..

गिरा हूँ, उठा हूँ, सम्हल कर बढ़ा हूँ.
'सलिल' हूँ लहर की रवानी लिखूँगा..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil' 

शुक्रवार, 25 मई 2012

दोहा मुक्तिका: देर भले उसके यहाँ... संजीव 'सलिल'

दोहा मुक्तिका:
देर भले उसके यहाँ...
संजीव 'सलिल'
*
*
देर भले उसके यहाँ, किन्तु नहीं अंधेर..
कहो उसे अंधेर का, कारण केवल देर..
*
सपने बुनता व्यर्थ ही, नाहक करता देर.
मन सुनता-गुनता नहीं, मैं थक जाता टेर..
*
दर-दरबान नहीं वहाँ, जब जी चाहे टेर.
सवा सेर वह तू अगर, खुद को समझे सेर.
*
पाव छटाक नहीं रहे, कहीं न बाकी सेर.
जो आया सो जाएगा, समय-समय का फेर..
*
कर्मों का कर कीर्तन, कोशिश-माला फेर.
'सलिल' सरस रसपान कर, तन गन्ने को पेर..
*
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गीत: भटक रहे हम... संजीव 'सलिल'

गीत:
भटक रहे हम...
संजीव 'सलिल'
*

*
भटक रहे हम
राह दिखाओ...
*
कण-तृण-क्षण की कैद यह,
सुखद-दुखद है दैव.
मुक्त करो भव-जाल से-
टेरें तुम्हें सदैव..

आह भर रहे,
चाह मिटाओ...
*
हाव भाव के चाव से,
बेबस ठाँव-कुठाँव.
शहर हुए बेचैन तो-
चैन न पायें गाँव.

श्रम-प्रयास की
वाह कराओ.
भटक रहे हम
राह दिखाओ...
*
नन्हें पर ले भर रहे,
नव संकल्प उड़ान.
शुभाशीष-कर शीश पर-
है नीलाभ वितान.

गहन तिमिर से
सूर्य उगाओ.
भटक रहे हम
राह दिखाओ...
*
खोज-खोजकर थक रहे,
गुप्त तुम्हारा चित्र.
गुप्त चित्त से प्रगट हो,
हाथ थाम लो मित्र.

अंश-पूर्ण का
मिलन कराओ.
भटक रहे हम
राह दिखाओ...
*

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बुधवार, 23 मई 2012

मुक्तिका: तुम्हारे लिये -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
तुम्हारे लिये
संजीव 'सलिल'
*
मन बहुत अनमना है तुम्हारे लिये.
ख्वाब हर अधबुना है तुम्हारे लिये..
*
पाठ संयम के हमने किये याद पर-
पैर तो फिसलना है तुम्हारे लिये..
*
आँख हमसे चुराओ, झुकाओ, मिला
प्यार तो झुनझुना है तुम्हारे लिये..
*
बेरुखी की, विरह की कड़ी शीत में
दिल को भीत मचलना है तुम्हारे लिये..
*
कल्पना में मिलन की घड़ी हर मधुर.
भाग्य में कलपना है तुम्हारे लिये..
*
हाले-दिल क्या सुनायें-किसे कब 'सलिल'
गीत हर अनसुना है तुम्हारे लिये..
*

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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दोहा सलिला: सूर्य घूमता केंद्र पर... --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला
सूर्य घूमता केंद्र पर...
संजीव 'सलिल'
*

*
सूर्य घूमता केंद्र पर, होता निकट न दूर.
चंचल धरती नाचती, ज्यों सुर-पुर में हूर..
*
सन्नाटा छाया यहाँ, सब मुर्दों से मौन.
रवि सोचे चुप ही रहूँ, सत्य सुनेगा कौन..
*
सूर्य कृष्ण दो गोपियाँ, ऊषा-संध्या नाम.
एक कराती काम औ', दूजी दे आराम.
*
छाया-पीछे दौड़ता, सूरज सके न थाम.
यह आया तो वह गयी, हुआ विधाता वाम.
*
मन सूरज का मोहता, है वसुधा का रूप.
याचक बनकर घूमता, नित त्रिभुवन का भूप..
*
आता खाली हाथ है, जाता खाली हाथ.
दिन भर बाँटे उजाला, रवि न झुकाए माथ..
*
देख मनुज की हरकतें, सूरज करता क्रोध.
कब त्यागेगा स्वार्थ यह?, कब जागेगा बोध.
*
पाप मनुज के बढ़ाते, जब धरती का ताप.
रवि बरसाता अश्रु तब, वर्षा कहते आप..
*
आठ-आठ गृह अश्व बन, घूमें चारों ओर.
रथपति कसकर थामता, संबंधों की डोर..
*
रश्मि गोपियाँ अनगिनत, हर पल रचती रास.
सूर्य न जाने किस तरह, रहता हर के पास..
*
नेह नर्मदा में नहा, दिनकर जाता झूम.
स्नेह-सलिल का पान कर, थकन न हो मालूम..
*
सूरज दिनपति बन गया, लगा नहीं प्रतिबन्ध.
नर का नर से यों हुआ, चिरकालिक अनुबंध..
*
भास्कर भास्वर हो 'सलिल', पुजा जगत में खूब.
भोग पुजारी खा गये, गया त्रस्त हो डूब..
*
उदय-अस्त दोनों समय, लोग लगाते भीड़.
शेष समय खाली रहे, क्यों सूरज का नीड़..
*
रमा रहा मन रमा में, किसको याद रमेश.
बलिहारी है समय की, दिया जलायें दिनेश..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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मंगलवार, 22 मई 2012

दोहा सलिला: अमलतास हँसता रहा... --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
अमलतास हँसता रहा...
संजीव 'सलिल'
*
अमलतास हँसता रहा, अंतर का दुःख भूल.
जो बीता अप्रिय लगा, उस पर डालो धूल..
*
हर अशोक ने शोक को, बाँटा हर्ष-उछाह.
सींच रहा जो नर वही, उस में पाले डाह..
*
बैरागी कचनार को, मोह न पायी नार.
सुमन-वृष्टि कर धरा पर, लुटा रहा है प्यार..
*
कनकाभित चादर बिछी, झरा गुलमोहर खूब.
वसुंधरा पीताभ हो, गयी हर्ष में डूब..
*
गले चाँदनी से मिलीं, जुही-चमेली प्रात.
चम्पा जीजा तरसते, साली करें न बात..
*
सेमल नाना कर रहे, नाहक आँखें लाल.
चूजे नाती कर रहे, कलरव धूम धमाल..
*
पीपल-घर पाहुन हुए, शुक-सारिका रसाल.
सूर्य-किरण भुज भेंटतीं, पत्ते देते ताल..
*
मेघ गगन पर छा रहे, नाच मयूर नाच.
मुग्ध मयूरी सँग मिल, प्रणय-पत्रिका बाँच..
*
महक मोगरा ने किया, सबका चैन हराम.
हर तितली दे रही है, चहक प्रीत पैगाम..
*
दूधमोगरा-भ्रमर का, समझौता गंभीर.
सरहद की लाँघे नहीं, कोई कभी लकीर..
*
ओस बूँद से सज लगे, न्यारी प्यारी दूब.
क्यारी वारी जा रही, हर्ष-खुशी में ड़ूब..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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सोमवार, 21 मई 2012

गीत: प्रभु किस विधि... --संजीव 'सलिल'

गीत:
प्रभु किस विधि...
संजीव 'सलिल'
*
प्रभु! किस विधि
विधि को ध्याऊँ मैं?...
*
आँख मूंदकर बैठा जब-जब
अंतर्मन में पैठा जब-जब
कभी कालिमा, कभी लालिमा-
बिंदु, वृत्त, वर्तुल पाऊँ मैं
प्रभु! किस विधि
विधि को ध्याऊँ मैं?...
*
चित्त-वृत्ति एकाग्र कर रहा,
तज अशांति मन शांति वर रहा.
लीं-छोड़ी श्वासें-प्रश्वासें-
स्वर-सरगम-लय हो पाऊँ मैं
प्रभु! किस विधि
विधि को ध्याऊँ मैं?...
*
बनते-मिटते सरल -वक्र जो,
जागृत हो, है सुप्त चक्र जो.
कुण्डलिनी से मन-मंदिर में-
दीप जला, जल-जल जाऊँ मैं
प्रभु! किस विधि
विधि को ध्याऊँ मैं?...
*

नवगीत : जैसे इंटरनेट पर... धर्मेन्द्र कुमार सिंह

नवगीत : 
जैसे इंटरनेट पर...
धर्मेन्द्र कुमार सिंह 
 *
 नवगीत : जैसे इंटरनेट पर यूँ ही मिले पाठ्य... 



भीड़ भरे इस चौराहे पर
आज अचानक उसका मिलना
जैसे इंटरनेट पर यूँ ही
मिले पाठ्य पुस्तक की रचना

यूँ तो मेरे प्रश्नपत्र में यह रचना भी आई थी पर

इसके हल से कभी न मिलते मुझको वे मनचाहे नंबर
सुंदर सरल कमाऊ भी था
तुलसी बाबा को हल करना

रचना थी ये मुक्तिबोध की छोड़ गया पर भूल न पाया

आखिर इस चौराहे पर आकर मैं इससे फिर टकराया
आई होती तभी समझ में
आज न घटती ये दुर्घटना
 
*****

रविवार, 20 मई 2012

दोहा सलिला: --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
*

*
प्राची से होती प्रगट, खोल कक्ष का द्वार.
अलस्सुबह ऊषा पुलक, गुपचुप झाँक-निहार..
*
पौ फटती सासू धरा, देती गरज गुहार.
'अब लौं सो रईं बहुरिया, अँगना झाड़-बुहार'.
*
सूरज भैया डोलते, भौजी-रूप निहार.
धरती माँ ना देख ले, सिर लटकी तलवार..
*
दादी हवा खंखारती, बोली- 'मैं बलिहार.
छुटकू चंदा पीलिया-ग्रस्त लगा इस बार..
*
कोयल ननदी कूकती, आयी किये सिंगार.
'भौजी चइया चाहिए, भजिये तल दो चार'..
*
आसमान दादा घुसे, घर में करी पुकार.
'ला बिटिया! दे जा तनक, किते धरो अखबार'..
*
चश्मा मोटे काँच का,  अँखियाँ पलक उघार.
चढ़ा कान पर घूरता, बनकर थानेदार..
*
'कै की मोंडी कौन से, करती नैना चार'.
धोबिन भौजी लायीं हैं, खबर मसालेदार..
*
ठन्डे पानी से नहा, बैठे प्रभु लाचार.
भोग दिखा, खा भक्त खुद, लेता रोज डकार..
*
दिया पड़ोसन ने दिया, अँगना में जब बार.
अपने घर का अँधेरा, गहराया तब यार..
*
'सलिल' स्नेह हो तो मने, कुटिया में त्यौहार.
द्वेष-डाह हो तो महल, लगता कारगर..
**
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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विशेष रचना: नौ का महत्त्व -- संतोष भाऊवाला

विशेष रचना:
           नौ का महत्त्व
                                     संतोष  भाऊवाला 
 
विश्व के समस्त पदार्थों में जैसे, ब्रह्म एकरस आप्त
वैसे अंक नौ सर्वत्र ह्रास -वृद्धि रहित , एक सा ब्याप्त
            नौ का गुणन करने पर भी रहता ज्यों का त्योंही
            इसका सम्पूर्ण पहाडा रहे,आदि से अंत तक वही
आठ के अंक में जब एक अंक और होता संयुक्त
नौ का रूप धारण कर ह्रास वृद्धि से होता मुक्त
         अंक आठ  माया स्वरुप ,जब हो माया ब्रह्म में लीन
          स्वरुप खोकर होती विलीन, घटना बढ़ना होता क्षीण
नवग्रह ,नौ छंद,नौ रस,नौ दुर्गा, नौ नाडी,नौ हव्य,
नौ सिद्धि, नौ निधि ,नौ रत्न,  नौ  छवि ,नौ द्रव्य
            तुलसी नौ की महिमा की तुलना करे श्री राम संग  
            आदि अंत नीरबाहिये, अंक नौ करे ना नियम भंग   
  
  1. नवधा भक्ति: श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन
  2. नौ सिद्धि: ब्राह्मी, वैष्णवी, रौद्री, माहेश्वरी, नारसिंही, वाराही, इन्द्रानी, कार्तिकी, सर्वमंगला
  3. नौ निधि: पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद, नील, ख़राब  
  4. नौ रत्न: मानिक, मोती, मूंगा, वैदूर्य ,गोमेद, हीरा, पद्मराग, पन्ना, नीलम  
  5. नौ दुर्गा: शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री
  6. नौ गृह: सूर्य, चन्द्रमा, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु  
  7. नौ छंद: दोहा, सोरठा, चौपाई, हरिगीतिका, त्रिभंगी, नाग स्वरुपिनी, तोमर, भुजंग प्रयात, तोटक  
  8. नौ छवि: द्युति, लावण्य, स्वरूप, सुंदर, रमणीय, कांटी, मधुर, मृदु, सुकुमार  
  9. नौ द्रव्य: पृथ्वी, जल, तेज, वायु, नभ, काल, दिक्, आत्म, मन  
  10. काव्य शास्त्र के नौ रस: श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शांत  
  11. नौ हव्य: घृत, दुग्ध, दधि, मधु, चीनी, तिल, चावल, यव, मेवा   
  12. नौ नाडी: इडा, पिंगला, सुषुम्ना, गांधारी, गज, जिम्हा, पुष्प, प्रसादा, शनि, शंखिनी
  13. पृथवी के नौ खंड: किम्पुरुष, इलावृत, रम्यक, हिरंमय, कुरु, हरी, भारत, केतुमाल, भाद्रक्ष 
  14. शरीर के नौ द्वार ...दो नेत्र, दो नाक, दो कान, मुख, गुदा, उपस्थ
  15. विक्रमादित्य के नवरत्न: क्षपणक, अमर सिंह, शंकु, वेताल भट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराह मिहिर, धन्वन्तरी, वररूचि.    
    ९ से संबंधित कुछ और जानकारी:
    -- नौकडा: ९ कौड़ियों से तीन व्यक्तियों द्वारा खेला जानेवाला जुआ.
    -- नौगजी: स्त्रियों द्वारा पहने जाने वाली ९ गज की साड़ी.
    -- नौगही: ९ रत्नों वाला हार.
    -- नौ दसी: क़र्ज़ की विधि जिसमें ९ लेकर १० चुकाना होता है.
    -- नौनगा: ९ नग जड़ा हाथ में पहनने का कंगन.
    -- नौमासा: गर्भाधान के ९ वें माह में की जानेवाली रस्म जिसमें स्त्री के अंचल में मिठाई आदि भरी तथा बांटी जाती है.
    -- नौलखा: ९ लाख रुपये कीमत का हार.
    -- नौ सरा: ९ लड़ियोंवाली माला.
    -- नौतोड़ : पहली बार जोता गया खेत.
    -- नौबढ़ : बुरी स्थिति से एकाएक अच्छी दशा को प्राप्त व्यक्ति.
    -- नौसिखिया: नया-नया सीख हुआ, आधा-अधूरा सीखा हुआ.
    -- नौचंदा: चाँद से दूसरा दिन.
    -- नौचंदी : चाँद से प्रारंभ माहों की पहली जुमेरात.
    -- नौजवान: नवयुवक.
    -- नौनिहाल: होनहार युवक.
    -- नौबरार: पहली बार लगन लगी जमीं.
    -- नौबाला: अभी-अभी बालिग हुई कन्या.
    -- नौरोज़: पारसी वर्ष का पहला दिन.
    -- नौशाहाना: दूल्हे के जैसा.
    -- नौशा: दूल्हा.
    -- नौशी: दुल्हन.
    -- नौकर: सेवक.
    -- नौकरानी: सेविका.
    -- नौकरशाही: सेवकों से संचालित शासन.
    -- नौका: नाव.
    -- नौची: तवायफ की पट्टशिष्या जिसे वह अपना फन सिखाती है.
    -- नौजा: बादाम / चिलगोजा.
    -- नौजी: लीची.
    -- नौटंकी: एक लोक नाट्य.
    -- नौतन: अनाड़ी. तुम सतगुरु मैं नौतन चेला- कबीर.
    -- नौता: न्योता, आमंत्रण.
    -- नौना: नम्र/ सुंदर.
    -- नौबत: दशा / नगाड़ा.
    -- नौबती: नौबत बजानेवाला.
    -- नौरंगी: नारंगी.
    -- नौमी: नवमी तिथि. नौमी तिथि नाधू नास पुनीता- तुलसी
    -- नौशेरवां: ईसा की छठवीं सदी में फारस का लोकप्रिय बध्सः.
    -- नौसादर: एक प्रकार का क्षार.
    -- नौहा: कर्बला के शहीदों पर रचित शोकगीत.
    -- नौरात: नव रात्रि.
    -- नौरन्ध्र / नौद्वार: २ आँख, २ कान, नाक, मुख, लिंग/योनी, गुदा.
        (दसवां द्वार:ब्रम्हद्वार  )
    -- नौ कुमारी: कल्याणी, काली, कुमारिका, चण्डिका, त्रिमूर्ति, दुर्गा, रोहिणी, शांभवी, सुभद्रा.
    -- नौकन्या: ब्राम्हणी, कापालिकी, ग्वालिन, धोबिन, नटी, नाइन, मालिन, वैश्या, शूद्रा.
    *** 

गीत: अनछुई ये साँझ --संजीव 'सलिल'

गीत:
अनछुई ये साँझ
संजीव 'सलिल'
*
 
*
साँवरे की याद में है बाँवरी 
अनछुई ये साँझ...
*
दिन की चौपड़ पर सूरज ने,
जमकर खेले दाँव.
उषा द्रौपदी के ज़मीन पर,
टिक न सके फिर पाँव.

बाधा मरुथल, खे आशा की नाव री
प्रसव पीढ़ा बाँझ.
साँवरे की याद में है बाँवरी 
अनछुई ये साँझ...
*
अमराई का कतल किया,
खोजें खजूर की छाँव.
नगर हवेली हैं ठाकुर की,
मुजरा करते गाँव.

सांवरा सत्ता पे, तजकर साँवरी
बज रही दरबार में है झाँझ.
साँवरे की याद में है बाँवरी 
अनछुई ये साँझ...
*

दोहे: -- प्रभु त्रिवेदी

दोहे 

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प्रभु त्रिवेदी 
 
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बुधवार, 16 मई 2012

गीत: दुनिया का व्यापार... संजीव 'सलिल

दोहा गीत:
दुनिया का व्यापार...
संजीव 'सलिल
*


*
मौन मौलश्री देखता,
दुनिया का व्यापार.
बनो मौन साधक सुने.
जग जिसके उद्गार...
*

'तत-त्वं-असि' समझा-दिखा,
दर्पण में प्रतिबिम्ब.
सच मानो हैं एक ही,
पंछी-कोटर-डिंब.

श्वास-श्वास लो इस तरह
हो जीवन श्रृंगार.
बनो मौन साधक सुने.
जग जिसके उद्गार...
*


'सत-शिव-सुंदर' है वही,
जो 'सत-चित-आनंद'.
ध्वनि-अक्षर के मिलन से,
गुंजित हैं लय-छंद.

आस-आस मधुमास हो.
पल-पल हो त्यौहार.
बनो मौन साधक सुने.
जग जिसके उद्गार...
*


खोया-पाया समय की,
चक्की के दो पाट.
काया-छाया में उलझ,
खड़ी हो गयी खाट.

त्रास बदल दे हास में,
मीठे वचन उचार.
बनो मौन साधक सुने.
जग जिसके उद्गार...
*


गर्मी बरखा शीत दें,
जीवन को सन्देश.
परिवर्तन स्वीकार ले,
खुशियाँ मिलें अनेक.

ख़ास मान ले आम को,
पा ले खुशी अपार.
बनो मौन साधक सुने.
जग जिसके उद्गार...
*


बीज एक पत्ते कई,
कोई नहीं विवाद.
भू जो पोषक तत्व दे,
सब लेते मिल स्वाद.

पास-दूर, खिल-झर रहे,
'सलिल' बिना तकरार.
बनो मौन साधक सुने.
जग जिसके उद्गार...
*
टीप: जबलपुर स्थित मौलश्री वृक्ष और उसकी छाँव में सिद्धि प्राप्त  साधक ओशो. आजकल प्रतिदिन प्रातः भ्रमण यहीं करता हूँ।
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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मंगलवार, 15 मई 2012

दोहा गीत: नन्हें पर... संजीव 'सलिल'

दोहा गीत:
नन्हें पर...
संजीव 'सलिल'
*

*
नन्हें पर र्हौसला है,
तेरा विहग विशाल.
भर उड़ान नभ हो सके,
तुझको निरख निहाल..
*
रवि किरणें टेरें तुझें, खोल देखकर आँख.
कर दे आलस दूर- उठ, लग न जाए फिर आँख..

बाधा से टकरा पुलक, घूर मिलाकर आँख.
संकट-कंटक दूर हों, आप मिलाकर आँख..

कर प्रयास ऊँचा रहे,
तेरा मस्तक-भाल.
भर उड़ान नभ हो सके,
तुझको निरख निहाल..
*
भाग्य देव को मना ले, मिला आँख से आँख.
प्रियतम को प्रिय- डाल दे, जो आँखों में आँख..

पग-पग बढ़ सपने अगिन, रहे बसाये आँख.
तौल परों को- विफल हो, डबडबाये ना आँख..

श्रम-गंगा में स्नान कर,
मत प्रयास को टाल.
भर उड़ान नभ हो सके,
तुझको निरख निहाल..
*
सपने सच कर मुस्कुरा, भर-भर आये आँख.
गिर-उठ-बढ़ स्वागत करे, नगमे गाये आँख..

अपनी नजर उतर ले राई-नौंन ले आँख.
खुद को सब पर वार दे, जग उजार दे आँख..

हो विनम्र पा सफलता,
कर कुछ 'सलिल' कमाल.
भर उड़ान नभ हो सके,
तुझको निरख निहाल..
*



Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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सोमवार, 14 मई 2012

गीत : जैसा चाहो... --संजीव 'सलिल'

गीत :
जैसा चाहो...
संजीव 'सलिल'
*

*
जैसा चाहो मुझसे खेलो,
कृपा करो चरणों में ले लो...
*
मैं हूँ रचना देव! तुम्हारी,
कण-कण में छवि नित्य निहारी.
माया भरमाती है मन को-
सुख में तेरी याद बिसारी.

याद दिलाने तुमने ब्याही
अपनी पीड़ा बिटिया प्यारी.
सबक सिखाने की विधि न्यारी-
करी मौज अब पापड़ बेलो...
*
मैं माटी तुम कुम्भकार हो,
जग असार बस तुम्हीं सार हो.
घृणा, लोभ, मद, मोह, द्वेष हम-
नेह नर्मदा तुम अपार हो.

डुबकी एक लगा लेने दो,
जलप्रवाह तुम धुआंधार हो.
घाट सरस्वती पर उतरें हम-
भक्ति-मुक्ति दे गोदी ले लो...
*
बंदरकूदनी में खा गोता,
फटी पतंग, टूटता जोता.
जाग रहे पंछी कलरव कर-
आँखें मूंदें मानव सोता.

चाह रहा फल-फूल अपरिमित
किन्तु राह में काँटें बोता.
'मरा'  जप रहा पापी तोता-
राम सीखने तक चुप झेलो...
*****

रविवार, 13 मई 2012

गीत: अनछुई ये साँझ --संजीव 'सलिल'

गीत:
अनछुई ये साँझ
संजीव 'सलिल'
*

                                                                                        


साँवरे की याद में है बाँवरी 
अनछुई ये साँझ...
*
दिन की चौपड़ पर सूरज ने,
जमकर खेले दाँव.
उषा द्रौपदी के ज़मीन पर,
टिक न सके फिर पाँव.

बाधा मरुथल, खे आशा की नाव री
प्रसव पीढ़ा बाँझ.
साँवरे की याद में है बाँवरी 
अनछुई ये साँझ...
*
अमराई का कतल किया,
खोजें खजूर की छाँव.
नगर हवेली हैं ठाकुर की,
मुजरा करते गाँव.

सांवरा सत्ता पे, तजकर साँवरी
बज रही दरबार में है झाँझ.
साँवरे की याद में है बाँवरी 
अनछुई ये साँझ...
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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दोहा सलिला: माँ ममता का गाँव है... --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
माँ ममता का गाँव है...
  
संजीव 'सलिल'
*
माँ ममता का गाँव है, शुभाशीष की छाँव.
कैसी भी सन्तान हो, माँ-चरणों में ठाँव..
*
नारी भाषा भू नदी, प्रकृति- जननि हैं पाँच.
माता का ऋण कोई सुत, चुका न सकता साँच..
*
माता हँसकर पालती,  अपने पुत्र अनेक.
क्यों पुत्रों को भार सम. लगती माता एक..
*
रात-रात हँस जागती, सन्तति ले-ले नींद.
माँ बाहर- अन्दर रहें, आज बीन्दणी-बींद..
*
माँ-सन्तान अनेक हैं, सन्तति को माँ एक.
माँ सेवा से हो 'सलिल', जागृत बुद्धि-विवेक..
*
माँ के चरणों में बसे, सारे तीर्थस्थान.
माँ की महिमा देव भी, सकते नहीं बखान..
*
नारी हो या भगवती, मानव या भगवान.
माँ की नजरों में सभी, संतति एक समान..
*
आस श्वास-प्रश्वास है, तम में प्रखर उजास.
माँ अधरों का हास है, मरुथल में मधुमास..
*
माँ बिन संतति का नहीं, हो सकता अस्तित्व.
जान-बूझ बिसरा रही, क्यों संतति यह तत्व..
*
माँ का द्रग-जल है 'सलिल', पानी की प्राचीर.
हर संकट हर हो सके, दृढ़ संबल मतिधीर..
*
माँ की स्मृति दीप है, यादें मधुर सुवास.
आँख मूँदकर सुमिर ले, माँ का हो आभास..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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बात-बेबात : बात निकलेगी तो फिर ... 'संजीव सलिल'

बात-बेबात :
बात निकलेगी तो फिर ...
'संजीव सलिल'
*
मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ जिन मूल भावनाओं का विकास हुआ उनमें हास्य-व्यंग्य का स्थान प्रमुख है। संभवतः मानव को छोड़कर अन्य प्राणी इससे अपरिचित हैं।
लोक मानस में राई गीत, कबीरा, होरी गीत, वैवाहिक कार्यक्रमों में गारियाँ आदि में हास्य-व्यंग्य की  मनोहारी छटा सर्वत्र दृष्टव्य है। यहाँ तक कि भगवानों को भी अछूता नहीं छोड़ा गया। शिव को भूतनाथ, बैरागी,  विष्णु को कामिनी और हरि (वानर), कृष्ण को माखनचोर, रणछोड़, चितचोर आदि संबोधन इसी भावना से उद्भूत हैं। देवियाँ भी इससे बच नहीं पायीं। गौरवर्णा दुर्गा को काली, लक्ष्मी को हरजाई तथा चंचला, सरस्वती  को ब्रम्हा को पतित करनेवाली कहा गया।

चित्रकार / व्यंग्य चित्रकार जन भावनाओं  को रेखांकित कर जनाक्रोश की शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति करते हैं  साथ ही जननेताओं को जनमत से अवगत कराते हैं। हाल में ममता बैनर्जी और भीमराव  अम्बेडकर पर  बनाये गये व्यंग्य चित्रों पर राजनैतिक हलकों में जो असंतोष देखा गया वह लोकतंत्र में  भावाभिव्यक्ति की  स्वतंत्रता को देखते हुए उचित नहीं है। यह होहल्ला समझदारी और सहिष्णुता का अभाव दर्शाता है जो  किसी भी पल टकराव को जन्म दे सकता है।
यहाँ प्रस्तुत हैं कुछ व्यंग्य चित्र :

 

                                                 डॉ. अंबेडकर पर विवादस्पद व्यंग्य चित्र 

 
                                                      स्वातंत्र्य सत्याग्रहियों पर लाठी-प्रहार


                                                     
                                                          म. गाँधी पर एक और व्यंग्य चित्र 

 

                                     उत्तर प्रदेश चुनाव में विफलता-सोनिया-राहुल पर कटाक्ष


                                                    महिला आरक्षण पर यादव द्वय की दुविधा




                                                        स्टिंग ओपरेशन पर एक नज़र

                                                         बढ़ती महिला शक्ति पर व्यंग्य चित्र



 

                                        ममता बेनर्जी द्वारा केन्द्र से विशेष पॅकेज पर वक्रदृष्टि

यदि राजनैतिक नेता अपने बौनेपन से इसी तरह की प्रतिक्रिया करते रहे तो व्यंग्य चित्रकारी की विधा का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा किन्तु उनका अधकचरापन उजागर होगा और वे जनता की नज़र से उतर जायेंगे।

******

शनिवार, 12 मई 2012

गीत: छोड़ दें थोड़ा... संजीव 'सलिल'

गीत:
छोड़ दें थोड़ा...
संजीव 'सलिल'
*


*
जोड़ा बहुत,
छोड़ दें थोड़ा...
*
चार कमाना, एक बाँटना.
जो बेहतर हो वही छांटना-
मंझधारों-भँवरों से बचना-
छूट न जाए घाट-बाट ना.
यही सिखाया परंपरा ने
जुत तांगें में
बनकर घोड़ा...
*
जब-जब अंतर्मुखी हुए हो.
तब एकाकी दुखी हुए हो.
मायावी दुनिया का यह सच-
आध्यात्मिक कर त्याग सुखी हो.
पाठ पढ़ाया पराsपरा ने.
कुंभकार ने
रच-घट फोड़ा...
*
मेघाच्छादित आसमान सच.
सूर्य छिपा पर भासमान सच.
छतरीवाला प्रगट, न दिखता.
रजनी कहती है विहान सच.
फूल धूल में भी खिल हँसता-
खाता शूल
समय से कोड़ा...
***

ग़ज़ल अवनीश तिवारी

प्रयास:
अवनीश तिवारी
मुम्बई
*
(ग़ज़ल)  -1
काफिया - आई ,
रदीफ़ - होती है
 
आज - कल
 
आज - कल अक्सर तनहाई होती है ,
रात तड़प और नींद से जुदाई होती है |

चलते लोगों को पुकार रुकाता हूँ ,
हर शख्स में तेरी परछाई होती है |

चाहे शहर तेरा हो या शहर मेरा ,
मोहब्बत पर रोक और मनाई होती है |

दिखे कभी जो मुखड़ा तेरा ,
हुश्न औ इश्क की सगाई होती है |

बिन तेरे किस घर जाऊं अब ,
हर घर ' अवि ' की बुराई होती है |

***
बिन मेरे
 
ग़ज़ल 
काफिया - ऊरत ,
रदीफ़ - है

जैसे यह रात, चाँद की रोशनी से ख़ूबसूरत है ,
वैसे जिन्दगी में मेरे तेरे प्यार की जरुरत है ,

हुया करता कईयों से दीदार रोज अपना ,
जो मन में बसी वो तेरी ही प्यारी सूरत है ,

बदले दिन, बदले बरस और बदले मौसम ,
मिलने की तुझसे ना जाने कौनसी महूरत है ,

ना आये ख्याल तेरा दीमाग में मेरे ,
ऐसा हर दिन बेजान, हर रात बदसूरत है ,

बिन मेरे तेरा अपना वजूद हो सकता है ,
बिन तेरे ' अवि ' एक खामोश मूरत है |
*

अवनीश तिवारी
मुम्बई

astrology: Sign Compatibility


Sign Compatibility                                            

astrology:
Are you the town's perfect couple?                                                                                           

Aries with Aries : There are many couples of this combination but, over time, disagreements could occur due to overbearing natures and need for domination. Both impulsive, passionate and eager to be the center of attention, at the first encounter this is a passionate love / hate relationship. The danger of this match is its volubility so being purely business partners is a far better option!

Aries with Taurus:The first meeting can be explosive in both a good and bad sense. Both are rather obstinate and hard. Problems could occur if there is not good communicative feeling. Great passion even if Aries' speed does not work well with plodding Taureans. On the contrary, Taurus can become irritated with the partner's over lively ways. Fine if it's a male Taurean because he will appreciate the strong character of the female Aries. Aries and Taurus both have the tendency to base their own choices in clear certain facts. Doubts, paradoxes and scruples are not part of their world.

Aries with Gemini : Gemini, with a great sense of humor manages to soften and convince the Aries partner that life needs a little gentleness. Aries is bewitched by Gemini’s mental prowess and encourages Gemini to be pluckier and more decisive. It’s good if the male is Aries, as Gemini’s intelligence can be appreciated and the passion of the male overcomes her cold tendencies.

Aries with Cancer : There are many couples in this combination. This is a meeting of delicacy and roughness, the desire for a quiet and a hectic life. Cancerians don’t like Aries’ rude, virile ways and will get angry if Aries makes fun of Cancer’s vague fantasies. Aries rarely lets itself be imprisoned by Cancer’s sentimental exuberance. The main problem lies in Cancer’s sensitivity which differs from Aries’ excessive emotivity. The male unites par excellence to the more classical female. If He is Cancer, sexual harmony is certainly not the best.

Aries with Leo :
Aries likes Leo’s open sincerity, impetuousness and enthusiasm. However, this couple has no refined eroticism. Aries feels over confident and abandons all provocative ways. As both signs have a great deal of energy, they’ll live life on the edge: - excitement, drive and generosity.


Aries with Virgo : These are two aspiring individuals with such a different existence from one another so it’s really difficult for them to agree on anything. Aries is too instinctive and not reflexive enough for the rigorous Virgo. A low pre-disposition for any type of improvisation, the need for every-day life and for commitment can act as a brake for the intrepid Aries. Love relations take the form of reciprocal criticism. It is better professionally: Virgo knows how to be an excellent administrator of the goods acquired by the audacious Aries.

Aries with Libra : It’s better if the Aries is Male as Mars is seduced by Venus, who appreciates Mars’ impetuosity, capable of beating Puritanism and resistance. Refined, affected and educated, Libra has difficulty getting on well with its opposing sign, which it considers coarse and in too much of a rush. Libra’s need to evaluate and reflect before reaching a conclusion, however, is very useful for fiery Aries. In the same way, Libra needs Aries’ spirit of initiative and passionate ardor to shake up its exaltations and become more erotic. If they manage to find a compromise, the relationship can be interesting.

Aries with Pisces :  Even if there are many couples of this combination, this is not the best. Aries is not fully at ease with Pisces’ romanticism and softness and pushes away all affection, especially sexual affection. Pisces does not like Aries’ speed or erotic roughness.

Aries with Scorpio : A dispute between two warriors. They have the same planets (Mars and Pluto) in common. They are quarrelsome, vigorous and sexually energetic characters. Their encounter can lead to an explosive attraction. The truth is that they are divided by different ways of life. Scorpio doesn’t like showing off: Scorpio’s virtues are acute strength, to never showing what he or she ’s thinking and lasciviousness. Aries is clear and direct, cannot control any impetuosity and knows no calculation.

Aries with Sagittarius : Here is a good synthesis based on dynamism, action, varied activities and explosions of passion. A fiery, triumphant and excitable couple. Sagittarius gives Aries its adventurous ardor, trust and a good amount of idealism. With such a passionate partner, Aries puts aside a little of its circumspection and learns to amplify all mental horizons. The couple works very well; it’s a shame there’s a lack of constancy and practicality.

Aries with Capricorn :  There are many couples of this combination, especially with the male as Capricorn. On one hand, there is the affectionate, lively and spontaneous Aries and on the other, the reasonable, austere, prudent Capricorn. Capricorn does not tolerate Aries’ ardent, fast rhythm and regards all emotive impetuosity with coldness. Aries either loses his or her temper or becomes inhibited at Capricorn’s imperturbability. Over time, there is an inevitable discord between Aries’ arrogance and Capricorn’s icy coldness.

Aries with Aquarius : A valuable combination if the Aries male manages to give his partner space and freedom. It’s also good the other way round if the Aquarius male moderates his rebellious escapes. Aquarius is possibly the only sign which manages to shatter Aries’ wall of skepticism, slows Aries down, channels certain insensitive acts and makes the partner reflect. Aries, on the other hand, with high inspiration, knows how to re-awaken Aquarius’ controlled and imperturbable soul and the fire of pleasure.

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सआदत हसन मंटो





 

विशेष आलेख- 
 सियाह-क़लम मंटो और सियाह-हाशिये
-बलराम अग्रवाल
धरती का हर आदमी अपने आप में कुछ खूबियों और कुछ खराबियों से चालित है। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में—‘सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।1 अर्थात, अच्छाई और बुराई हर व्यक्ति के अन्तर में निहित हैं। अब, अच्छे या बुरे, जिस भाव का आधिक्य जिसमें नजर आने लगता है, वैसा ही वह कहलाने लगता है। लेकिन व्यक्ति के भीतर के अच्छेपन या बुरेपन का आकलन करने वाली नजर का इस योग्य होना अनिवार्य है, हर आदमी के बूते का यह आकलन नहीं है। 
 
सियाह हाशिये की लघुकथाओं पर बात करने से पहले बेहतर होगा कि हम उसके रचनाकार उर्दू कथाकार सआदत हसन मंटो के बारे में दो-चार ज़रूरी बातें जान लें। मंटो उम्रभर अपने खिलाफ ऐसे तंग-दिलोदिमाग लोगों की कारगुजारियों से टकराते और आहत होते रहे, जो उनके काम का आकलन करने के योग्य कभी थे ही नहीं। एक जगह मुहम्मद हसन असकरी ने मंटो के कम शिक्षित होने का जिक्र यों किया हैअब इसे क्या कहें कि आठवीं और नवीं दहाई के अफ़सानानिगारों के सीमित ज्ञान का पता न तो आलोचकों को है, न खुद अफसानानिगारों को; कि जिस बरस अपने अफसाने लिखने शुरू करते हैं, उसी बरस पुस्तक छपवा लेते हैं और उसी बरस अपनी अफ़सानानिगारी पर दो-तीन लेख लिखवा लेते हैं; उसी बरस किसी उर्दू ऐकेडमी से इनाम हासिल कर लेते हैं और फिर उसी बरस मर जाते हैं।
 
क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि इन मुहम्मद हसन असकरी ने ही हाशिया आराई शीर्षक से सियाह हाशिए की भूमिका लिखी थी।
 
मंटो का जन्म लुधियाना जिले के समराला नामक स्थान में 11 मई, 1912 को एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार में हुआ था। वह अपने पिता की दूसरी बीवी की आखिरी सन्तान थे। उनके तीन सौतेले भाई भी थे जो उम्र में उनसे काफी बड़े थे और विलायत में तालीम पा रहे थे। वह उनसे मिलना और बड़े भाइयों जैसा सुलूक पाना चाहते थे, लेकिन यह सुलूक उन्हें तब मिला जब वह साहित्य की दुनिया के बहुत बड़े स्टार बन चुके थे।3 अपने बड़े भाइयों से एकदम उलट, मंटो का मन स्कूली-पढ़ाई में बिल्कुल भी नहीं लगता था। यही वजह थी कि मेट्रिक में लगातार तीन बार फेल होने के बाद उसे वह सन 1931 में पास कर सके, यानी कि 19 बरस की पकी उम्र में।
 
आल इंडिया रेडियो में काम करते हुए वह दिल्ली में रहे और उस दौरान उन्होंने लगभग 100 रेडियो-नाटक लिखे। अगस्त 1942 में, करीब 19 माह दिल्ली में रहने के बाद वह बंबई पहुँच गए।4 और बंबई को मंटो ने इस कदर जिया कि 28 अक्टूबर, 1951 को अपने ऊपर आक्षेप के जवाब में अपने एक बयान में उन्होंने कहा था—‘वहाँ(बंबई में) बारह बरस रहने के बाद जो कुछ मैंने सीखा, यह उसी का बायस है कि मैं यहाँ पाकिस्तान में मौजूद हूँ। यहाँ से कहीं और चला गया तो वहाँ भी मौजूद रहूँगामैं चलता-फ़िरता बंबई हूँ। मैं जहाँ भी क़याम करूँगा, वहीं मेरा अपना जहान आबाद हो जाएगा।
 
               यह वाकई गौर करने वाला बयान है। दिल्ली से बंबई पहुँचे मंटो ने बंबई को समझा और (खुद) चलता-फिरता बंबई बन गया। यह बात पाकिस्तान के नागरिकों की समझ में न आ सकी।6 एक इंसान के तौर पर मंटो की परेशानी शायद यह रही कि विभाजन के बाद उन्होंने अपने आपको महज मुसलमान महसूस किया और पाकिस्तान को ही उन्होंने अपना मुल्क समझा। वहाँ की आबो-हवा में वह असंगत विचारों को भी सहज ही स्वीकार लेने वाला भारतीय संस्कार तलाशते रहे। पाकिस्तान पहुँचकर वह प्रगतिशीलता का नकाब पहनकर साहित्य की जमीन पर जमे बैठे कट्टरपंथियों में इंसानियत से सरोकारों के अंकुर तलाशते रहे और ताउम्र असफल रहे।  उन्हें बार-बार यह सफाई पेश करनी पड़ी कि मुझे आप अफ़सानानिगार की हैसियत से जानते हैं और अदालतें एक फ़हशनिगार(अश्लील लेखक) की हैसियत से। हुकूमत कभी मुझे कम्युनिस्ट कहती है और कभी मुल्क का बहुत बड़ा अदीब।…मैं पहले भी सोचता था और अब भी सोचता हूँ कि मैं क्या हूँ और इस मुल्क में, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी इस्लामी सल्तनत कहा जाता है, मेरा क्या मकाम(स्थान) है, मेरा क्या मस्रिफ़(उपयोग) है।…आप इसे अफ़साना कह लीजिए, मगर मेरे लिए, यह एक तल्ख हक़ीक़त(कड़वी सच्चाई) है कि मैं अभी तक खुद अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं और जो मुझे बहुत अज़ीज़ है, अपना सही मकाम तलाश नहीं कर सका। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। यही वजह है कि मैं कभी पागलखाने में और कभी हस्पताल में होता हूँ।7
 
अपनी इस बेचैनी की एक खास वजह बताते हुए वह लिखते हैं—‘हमारी हुकूमत मुल्लाओं को भी खुश रखना चाहती है और शराबियों को भी। मज़े की बात यह है कि शराबियों में कई मुल्ला मौजूद हैं और मुल्लाओं में अक्सर शराबी।8
 
एक लेखक के तौर पर मंटो की विशेषता यह है कि  अहसास के शुरुआती छोर से लेकर उसके आखिरी छोर तक वह न तो मुसलमान है, न हिन्दू, न कश्मीरी और न पंजाबी; इंसान है, सिर्फ़ इंसान। अपराध और दंड, अच्छाई और बुराई की वे तमाम धारणाएँ जो सदियों से हमारे समाज में प्रचलित रही हैं, मंटो उन्हें रद्द करता है।…मंटो की चेतना में मनुष्यों की समानता की एक ताक़तवर लहर उस चेतना की जीवन-रेखा के रूप में हमेशा सक्रिय रही। वह जीवन के किसी भी अनुभव, मानव-अस्तित्व की किसी भी अभिव्यक्ति से न तो कभी भयभीत होता है और न ही उससे घृणा और ऊब का प्रदर्शन करता है।9
 
अदबे-लतीफ़(नया साहित्य) के वार्षिकांक(1944) में प्रकाशित 1 जनवरी, 1944 को लिखित अपने लेख अदबे-जदीद(आधुनिक साहित्य) में मंटो ने लिखा है:जिस नुक्स को मेरे नाम से मंसूब किया(जोड़ा जाता) है, दरअसल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स हैमैं हंगामापसंद नहीं। मैं लोगों के खयालातो-जज़्बात में हैजान(उबाल) पैदा करना नहीं चाहता।10 मैं तहज़ीबो-तमद्दुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूँगा जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं, दर्जियों का है। लोग मुझे सियाह-क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफेद चाक इस्तेमाल करता हूँ कि तख्ता-ए-सियाह की सियाही और-भी ज़्यादा नुमायाँ हो जाए।11
 
बहुत कम लोग जानते होंगे कि सियाह हाशिये पर प्रगतिशील उर्दू लेखकों व आलोचकों के कड़वे रवैयों ने मंटो को अंतहीन दिमागी तकलीफ़ दी और उसमें बेहिसाब गुस्सा पैदा किया। उस तकलीफ़ और उस गुस्से को जाने बिना मंटो और उनके सियाह हाशिये को समझना लगभग असम्भव है। अपनी बारहवीं किताब यज़ीद की भूमिका ज़ैबे-कफ़न(क़फ़न का गला) में इस तकलीफ़ और गुस्से का उन्होंने काफी खुलासा किया है। वह लिखते हैं—‘मुल्क के बँटवारे से जो इंकिलाब बरपा हुआ, उससे मैं एक अरसे तक बाग़ी रहा और अब भी हूँ…मैंने उस खून के समन्दर में गोता लगाया और चंद मोती चुनकर लाया अर्के-इन्फ़िआल(लज्जित होने पर छूटने वाले पसीने) के और मशक़्क़त(श्रम) के, जो उसने अपने भाई के खून का आखिरी क़तरा बहाने में सर्फ़(खर्च) की थी; उन आँसुओं के, जो इस झुँझलाहट में कुछ इंसानों की आँखों से निकले थे कि वह अपनी इंसानियत क्यों खत्म नहीं कर सके! ये मोती मैंने अपनी किताब सियाह हाशिये में पेश किए।…यकीन मानिए कि मुझे उस वक्त दुख हुआ, बहुत दुख हुआ, जब मेरे चंद हमअस्रों(समकालीनों) ने मेरी इस कोशिश(सियाह हाशिये) का मज़हका उड़ाया(निंदा की, उपहास किया)। मुझे लतीफ़ाबाज या वा गो(हाय-हाय चिल्लानेवाला), सनकी, नामाकूल(अशिष्ट) और रज़अतपसंद(जिसके विचारों में प्रगतिशीलता न हो) कहा गया। मेरे एक अज़ीज़ दोस्त ने तो यहाँ तक कहा कि मैंने लाशों की जेबों में से सिगरेट के टुकड़े, अँगूठियाँ और इसी किस्म की दूसरी चीजें निकाल-निकालकर जमा की हैं।… मैं इंसान हूँ। मुझे गुस्सा आया।…
 
मुझे गुस्सा था कि इन लोगों को क्या हो गया हैयह कैसे तरक्कीपसन्द हैं, जो तनज्जुल(पतन) की ओर जाते हैं; यह इनकी सुर्खी(लाली) कैसी है जो सियाही की तरफ दौड़ती है…
 
मुझे गुस्सा था, इसलिए कि मेरी बात कोई भी नहीं सुनता थातक़सीमे-मुल्क़ के बाद मुल्क(यानी पाकिस्तान) में इफ़्रातो-तफ़्रीत(तारतम्य बैठाने) का आलम था। जिस तरह लोग मकान और मिलें अलाट करवा रहे थे, उसी तरह वह बुलंद मकामों पर भी कब्ज़ा करने की जद्दोजहद में मसरूफ़ थे।12
 
 
उर्दू प्रगतिशीलों के हाथों सियाह हाशिये की फ़जीहत का दर्द मंटो ने अपने कहानी-संग्रह चुग़द की भूमिका में भी उँड़ेला है—‘मेरी किताब सियाह हाशिये तरक़्क़ीपसंदों ने सिर्फ़ इसलिए नापसंद की कि इस पर दीबाचा(भूमिका) हसन असकरी का थाचुनांचे अली सरदार ने हस्बे-मामूल बड़े खुसूस और मुहब्बत के साथ मुझे लिखा: यहाँ लाहौर से मेरे पास एक खबर आई है कि तुम्हारी किसी नई किताब पर हसन असकरी मुक़दमा(भूमिका) लिख रहे हैं। समझ में नहीं आ सका, तुम्हारा और हसन असकरी का क्या साथ है? मैं हसन असकरी को बिलकुल मुख्लिस(निश्छल) नहीं समझता।
 
तरक़्क़ीपसन्दों की खबर-रसानी का सिलसिला और इंतजाम काबिले-दाद है। यहाँ की खबरें खेतवाड़ी के क्रेमलिन में बड़ी सेहत से यूँ चुटकियों में पहुँच जाती हैंअली सरदार को यहाँ से जो खबर मिली, बड़ी मोतबर(विश्वसनीय) थी; चुनांचे नतीजा यह हुआ कि सियाह हाशिए प्रेस की सियाही लगने से पहले(यानी कि छपने से पहले) ही रूसियाह(काला मुँह) करके रजअतपसंदी(प्रतिक्रियावाद) की टोकरी में फेंक दी गई।13
 
अब जरा सियाह हाशिये के इस समर्पण पर गौर फ़रमाएँ:
उस आदमी के नाम
जिसने अपनी खूँरज़ियों का ज़िक्र करते हुए कहा:
जब मैंने एक बुढ़िया को मारा तो मुझे ऐसा लगा,
मुझसे क़त्ल हो गया है!
 
सियाह हाशिये की अधिकतर रचनाओं को पढ़ने के बाद पता चलता है कि मंटो के इंसानी सरोकार और अनुभव केवल उच्छृंखल मर्दों और गिरी हुई औरतों की नीच भावनाओं तक सीमित नहीं हैं।14 हाँ, इतना ज़रूर है कि सियाह हाशिये की सभी 32 कथाएँ, यहाँ तक कि उसका समर्पण भी, भारत-विभाजन के वक़्त हुई घिनौनी घटनाओं पर ही आधारित हैं। शायद इसीलिए सआदत हसन मंटो दस्तावेज़ के संपादकद्वय ने उन सबको एक ही अफ़सानचा माना है।15 एक पूरी पुस्तक में सिर्फ़ एक अफ़साना हो, यह सम्भव है; लेकिन 32 अलग-अलग कहानियों को एक ही कहानी मानना बिल्कुल वैसा ही तकलीफ़देह है जैसाकि मंटो के जीवित रहते उर्दू-प्रगतिशीलों द्वारा इस पुस्तक को नकारने की साजिश रचना था।
 
सियाह हाशिये की कितनी और कौन-कौन-सी रचनाएँ लघुकथा के पैमाने पर खरी उतरती हैं, यह अलग बात है; महत्वपूर्ण बात यह है कि कथाकार की दृष्टि से मंटो लघुकथा के सिर्फ़ डाइग्नोस सिद्धान्त का मजबूत पैरोकार है। वह कहता है: हम मर्ज़ बताते हैं, लेकिन दवाखानों के मुहतमिम(प्रबंधक) नहीं हैं…
 
मंटो मनोवैज्ञानिक वास्तविकताओं के वर्णन की मर्यादाओं से अच्छी तरह परिचित थे और यह जानते थे कि सच्चाई केवल सतह पर तैरती हुई वास्तविकताओं की खोज तक सीमित नहीं होती।…मोपासां की तरह मंटो को भी इस बात में मज़ा आता था कि इंसान की वहशियाना भावनाएँ इस तरह नंगी की जाएँ कि पढ़ने वाला चौंक उठे।16 लघुकथा में चौंक का छौंक लगाने के हिमायती आज भी अनगिनत हैं; लेकिन समकालीन लघुकथा को स्तरीयता और प्रभावपूर्णता प्रदान करने वाले तत्वों में चौंक का स्थान गौण ही है, प्रमुख नहीं। सियाह हाशिये की रचनाओं के माध्यम से आप मंटो के मानवीय-सरोकार और मानव-मनोविज्ञान संबंधी उनकी समझ का आकलन भी काफ़ी हद तक कर सकते हैं।
 
अधिकतर, होता यह है कि लोग दोहरा चरित्र जीते हैं। सामान्य जीवन में कुछ-और होते हैं और लेखकीय जीवन में कुछ-और। मंटो की विशेषता यह है कि वह, सामान्य और सृजनात्मक, दोनों प्रकार के जीवन को एक संतुलन के साथ मिलाकर जीते हैं। शायद यही कारण है कि अपने सामान्य जीवन में सृजनात्मकता के कारण उन्हें कई कष्ट भी झेलने पड़े। अस्तित्व की एकता में उनका विश्वास इतना पक्का था और उस परिवेश के प्रति जिसमें वह पले-पढ़े और बढ़े, उनमें इतना लगाव भरा हुआ था कि जिंदगी के आखिरी सात बरसों में मंटो ने हमेशा पंजाबी में बात की। मंटो कहता था: जब मैं उर्दू में बोलता हूँ तो लगता है, झूठ बोल रहा हूँ… और …जब मैं उर्दू बोलता हूँ तो मेरा जबड़ा दुखने लगता है।17 क्या यह बयान मंटो का अपने जन्मस्थान, अपनी मातृभाषा के प्रति असीम लगाव से लबालब नहीं है?
 
दस्तावेज़ के संपादकद्वय ने सियाह हाशिये को एक कहानी मानते हुए मक़्तल(क़त्ल करने की जगह) शीर्षक तले संग्रहीत किया है। जबकि सियाह हाशिये पाकिस्तान में बस जाने के बाद मंटो की तीसरी किताब थी जो मकतबा-ए-जदीद से प्रकाशित हुई। सन 1951 तक यह उनकी सातवीं किताब थी। विभाजन की त्रासदी को निहायत ईमानदार गहराई के साथ व्यक्त करने वाली उनकी विश्वस्तरीय कहानी टोबा टेक सिंह भी इसी दौरान लिखी गई। वीभत्सता, उलझन, बेज़ारी, नफ़रत, दुख और क्रोध की बजाय मंटो कहीं-कहीं तो थोड़े दुख-भरे मसखरेपन के साथ मानव की दुरावस्था का तमाशा देखता है और इस दुरावस्था में छिपे सच की ताक़त के ऐसे बोध का प्रमाण देता है, जिसे किसी दूसरे बाहरी सहारे की जरूरत नहीं होतीछोटी-छोटी बातों में वह एक गहरी मानवीय-त्रासदी का पता लगाता है।…एक ऐसे दौर में, जब इंसान वहशी बन गया था और निहत्थे कमजोर बच्चे, बूढ़े, औरतें जानवरों की तरह ज़िबह किए जा रहे थे, केवल रक्तपात और विनाश के वर्जन या उनके विश्लेषण के आधार पर सच्ची कहानियाँ नहीं लिखी जा सकती थीं। उस त्रासदी की सच्चाई तक पहुँचने और उसे एक रचनात्मक सच्चाई का रूप देने के लिए, अपने अस्तित्व और अपने परिवेश के बीच एक दूरी, अपनी तबीयत में एक निढालपन की जगह एक संगीनी(गंभीरता) पैदा करने की जरूरत थी।18
 
विभाजन से पहले का सामाजिक और मानसिक वातावरण, फिर विभाजन के बाद का वातावरण, दंगों, साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक दंगों में उलझी हुई हिन्दू-मुस्लिम राजनीतिइन सब की तरफ़ मक़्तल की कहानियों में कहीं स्पष्ट तो कहीं धुँधले इशारे मिलते हैं।…मंटो के अपने सरोकार राजनीति और अराजनीतिक के फेर में पड़ने की बजाय अपने गहरे मानव-प्रेम और नैतिक क्षेत्र के माध्यम से एक विशिष्ट-बोध को अभिव्यक्त करते हैं। मंटो हर यथार्थ को बिना किसी फेर-बदल के एक नया यथार्थ बना देते हैं।…ब्रिटिश-भारत के अंतिम चरण, फिर स्वतंत्रता, विभाजन और दंगों की भयावहता और उस पूरे युग के त्रासद तत्वों का प्रेक्षण मंटो ने इतिहास की प्रयोगशाला के रूप में नहीं किया था।…कोई भी राजनीतिक घटना मंटो के लिए केवल राजनीतिक नहीं थी। मंटो ने मानवीय-अस्तित्व और उसके फैलाव में समाई हुई सच्चाइयों की समग्रता के साथ-साथ एक सच्चे मानव-प्रेमी साहित्यकार के विज़न की व्यपकता के मानदण्ड को हमेशा सामने और सुरक्षित रखा। ऐसा न होता तो सियाह हाशिये के अँधेरों से उजाले की किसी भी लकीर का फूटना असम्भव था। विभाजन ने मंटो के दिलो-दिमाग को इस बुरी तरह झकझोरा था कि उन्होंने जब कभी 1947 का जिक्र किया, वतन की आज़ादी के ताल्लुक से नहीं किया। उन्होंने हमेशा 1947 का ज़िक्र तक़सीम और बँटवारे के ताल्लुक से किया।19
 
मंटो के लेखकीय चरित्र को समझने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि पहला अफ़साना उसने बउनवान तमाशा लिखा, जो जलियाँवाले बाग के खूनी-हादिसे से मुतअल्लिक था। यह अफ़साना उसने अपने नाम से न छपवाया। यही वज़ह है कि वह पुलिस की दस्तबुजी(हत्थे चढ़ने) से बच गया।20 अपने आखिरी बरसों में मंटो ने बेतहाशा लिखा।21
 
सच्चा साहित्य तो उसी स्थिति में लिखा जा सकता है, जब लिखने वाला हिन्दू-जुल्म, मुसलमान-जुल्म, या कांग्रेस की राजनीति और मुस्लिम लीग की राजनीति, या हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के फेर में पड़े बिना, उस अनुभव पर हाथ डाल सके जिसका सरोकार इस सवाल से हो कि सामूहिक पागलपन के उस युग में इंसान के हाथों इंसान पर क्या बीती? उस इंसान का नाम और धर्म और सम्प्रदाय, ये सारी बातें गौण हैं।22
और अंत में, मैं 18 अगस्त, 1954 को लिखी उनकी एक ऐसी रचना का जिक्र करना बहुत मुनासिब समझता हूँ जिसको अक्सर उनकी रचनाओं में गिना ही नहीं जाता है; और जो उनकी जिन्दादिली का अनुपम नमूना है:
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कत्बा
यहाँ सआदत हसन मंटो दफ़न है।
उसके सीने में फ़न्ने-अफ़सानानिगारी के
सारे अस्रारो-रमूज़ दफ़्न हैं
वह अब भी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है
कि वह बड़ा अफ़सानानिगार है या खुदा।
सआदत हसन मंटो
18 अगस्त, 1954
क्या यह चौंकाने वाला तथ्य नहीं है कि यह कत्बा लिखने के ठीक 5 माह बाद  18 जनवरी, 1955 को सुबह साढ़े-दस बजे मंटो को लेकर एंबुलेंस जब लाहौर के मेयो अस्पताल के पोर्च में पहुँची; डाक्टर लपकेलेकिन…शरीर को मनों मिट्टी के नीचे दफ़्न कर देने की खातिर मंटो की पवित्र-आत्मा उसे छोड़कर बहुत दूर जा चुकी थी
संदर्भ:
1 रामचरितमानस:सुन्दरकाण्ड:39/5
2 सआदत हसन मंटो दस्तावेज़-1 : पृष्ठ 469
3 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 178
4 दस्तावेज़-5, पृष्ठ 117
5 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 164
6 दस्तावेज़-5, पृष्ठ 15
7 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 282
8 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 357
9 दस्तावेज़-1 पृष्ठ 24
10 सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए   दुष्यंत
11 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 27
12 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 164-165
13 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 155
14 दस्तावेज़-1 पृष्ठ 239
15 दस्तावेज़-2 पृष्ठ 452                 
16 दस्तावेज़-1 पृष्ठ 240
17 दस्तावेज़-5 पृष्ठ 55
18 दस्तावेज़-2 पृष्ठ 178-179
19 दस्तावेज़-3 पृष्ठ 359
20 दस्तावेज़-4 पृष्ठ 178
21 दस्तावेज़-1 पृष्ठ 469
22 दस्तावेज़-2 पृष्ठ 178
बलराम अग्रवाल
मोब. नं. ०८८६०००१५९४
०९९६८०९४४३१