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मंगलवार, 31 मार्च 2020

विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर लघुकथा प्रकोष्ठ

विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर
लघुकथा प्रकोष्ठ
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प्रकाश सदस्य बनने हेतु निम्नानुसार प्रपत्र प्रस्तुत करें। नियमित - गंभीर सदस्यों को संतान की गतिविधि संचालन, इकाई संयोजक बनाने, संकलनों में स्थान देने, प्रकाशन में सहायता आदि में प्राथमिकता दी जाएगी।
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मुख्य गतिविधि
१. लेखन प्रशिक्षण, विमर्श, संपादन आदि।
२. प्रकाशन, भूमिका लेखन, समीक्षा, विमोचन आदि में सहयोग।
३. पुस्तकालय सुविधा।
४. नियमित गोष्ठियाँ।
५. शोध परियाजनाओं में सहभागिता।
६. ईकाई स्थापना।
७. पत्र-पत्रिका प्रकाशन।
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सदस्यता प्रपत्र
०१. सदस्य का नाम व चित्र- संजीव वर्मा 'सलिल'
०२. डाक का पता- ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
०३. दूरभाष/चलभाष क्रमांक- ९४२५१८३२४४
०४. ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com
०५. जन्मतिथि- २०-८-१९५२, मंडला
०६. माता-पिता-जीवनसाथी के नाम- स्मृतिशेष शांतिदेवी-राजबहादुर वर्मा।
डॉ. साधना वर्मा, प्रोफेसर अर्थशास्त्र।
०७. गुरु - श्री सुरेश उपाध्याय।
०७. शिक्षा- डी.सी.ई., बी.ई., एम.ए.(दर्शन, अर्थ), एलएल. बी., डिप्. पत्रकारिता, विशारद।
०८. कार्य अनुभव- से.नि. अभियंता।
०९. लेखनविधा- गद्य समीक्षा, निबंध, लेख, संस्मरण, नाटक, तकनीकी लेख आदि। पद्य - छंद, गीत, प्रबंध काव्य, काव्यानुवाद आदि।
१०. प्रकाशित एकल पुस्तकें- कलम के देव, भूकंप के साथ जीना सीखें, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, काल है संक्रांति का, सड़क पर।
११. लघुकथा प्रकोष्ठ की कार्यशालाओं व अन्य गतिविधियों में सहभागिता तथा निर्देश पालन हेतु सहमति - मैं विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के नियमों कार्यक्रमों से सहमत हूँ तथा निर्देशों का पालन करूँगा।
३०-३-२०२० संजीव
दिनाँक, स्थान - हस्ताक्षर
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नियम-
१. प्रकोष्ठ में सहभागिता हेतु सदस्यता प्रपत्र अनिवार्य है।
२. सदस्य सहमति से प्रकोष्ठ की गतिविधि निर्धारित-संचालित करेंगे।
३. सदस्य गतिविधियों में यथासमय यथास्थान सहभागी होंगे।
४. सामान्यत: सभी विमर्श पटल पर किया जाएगा।
५. पटल साहित्यिक विमर्श हेतु है, राजनैतिक वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रचार या विमर्श हेतु नहीं।
६. पटल का संचालन अव्यावसायिक, हिंदी हितार्थ, अवैतनिक है तथापि गतिविधि संचालन हेतु आवश्यक व्यय सदस्य समानता के आधार पर जुटाकर व्यय करेंगे।
७. सदस्यों से सद्भाव, सहयोग, सृजन हेतु समर्पण व गंभीरता की अपेक्षा है।
८. सदस्य नियमानुसार 'शांतिराज पुस्तकालय' की पुस्तकों का लाभ ले सकते हैं।
९. व्यक्तिगत मार्गदर्शन हेतु पहले से समय निर्धारित कर यथासमय पधारें।
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विमर्श : संतान

विमर्श
संतान
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तुम कौन हो?
आदमी
वह तो जानता हूँ पर इसके अलावा...
बेटा, भाई, मित्र, पति, दामाद, जीजा, कर्मचारी, व्यापारी, इस या उस धर्म-पंथ-गुरु या राजनैतिक दल या नेता के अनुयायी...
हाँ यह सब भी हो लेकिन इसके अलावा?
याद नहीं आ रहा....
तो मैं ही याद दिला देता हूँ। याद दिलाना बहुत जरूरी है क्योंकि वहीं समस्या और समाधान है।
जो सबसे पहले याद आना चाहिए और अंत तक याद नहीं आया वह यह कि तुम, मैं, हम सब और हममें से हर एक 'संतान' है।
'संतान होना' और 'पुत्र होना' शब्द कोश में एक होते हुए भी, एक नहीं है।
'पुत्र' होना तुम्हें पिता-माता पर आश्रित बनाता है, वंश परंपरा के खूँटे से बाँधता है, परिवार पोषण के ताँगे में जोतता है, कभी शोषक, कभी शोषित और अंत में भार बनाकर निस्सार कर देता है, फिर भी तुम पिंजरे में बंद तोते की तरह मन हो न हो चुग्गा चुगते रहते हो और अर्थ समझो न समझो राम नाम बोलते रहते हो।
संतान बनकर तुम अंधकार से प्रकाश पाने में रत भारत माता (देश नहीं, पिता भी नहीं, पाश्चात्य चिंतन देश को पिता कहता है, पौर्वात्य चिंतन माता, दुनिया में केवल एक देश है जिसको माता कहा जाता है, वह है भारत) का संतान होना तुम्हें विशिष्ट बनाता है।
कैसे?
क्या तुम जानते हो कि देश को विदेशी ताकतों से मुक्त कराने वाले असंख्य आम जन, सर्वस्व त्यागने वाले साधु-सन्यासी और जान हथेली पर लेकर विदेशी शासकों से जूझनेवाले पंथ, दल, भाषा, भूषा, व्यवसाय, धन-संपत्ति, शिक्षा, वाद, विचार आदि का त्याग कर भारत माता की संतान मात्र होकर स्वतंत्रता का बलिवेदी पर हँसते-हँसते शीश समर्पित करते रहे थे?
भारत माँ की संतान ही बहरों को सुनाने के लिए असेंबली में बम फोड़ रही थी, आजाद हिंद फौज बनाकर रणभूमि में जूझ रही थी।
लोकतंत्र को भीतरी खतरा उन्हीं से है जो संतान नहीं है और खतरा तभी मिलेगा जब हम सब संतान बन जाएँगे। घबरा मत, अब संतान बनने के लिए सिर नहीं कटाना है, जान की बाजी नहीं लगाना है। वह दायित्व तो सेना, वैग्यानिक और अभियंता निभा ही रहे हैं।
अब लोकतंत्र को बचाने के लिए मैं, तुम, हम सब संतान बनकर पंथ, संप्रदाय, दल, विचार, भाषा, भूषा, शिक्षा, क्षेत्र, इष्ट, गुरु, संस्था, आहार, संपत्ति, व्यवसाय आदि विभाजक तत्वों को भूलकर केवल और केवल संतान को नाते लोकहित को देश-हित मानकर साधें-आराधें।
आओ! संतान बनो।
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उक्त रचना लघुकथा है या नहीं? कारण सहित अपना मत प्रस्तुत कीजिए।

लघुकथा : माँ की नज़र -कांता रॉय

लघुकथा:
माँ की नजर
कान्ता रॉय, भोपाल
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"लंच में क्या बनाऊँ?"
"आप रहने दीजिए। एक अर्जेंट मेल करना है, बस पाँच मिनट में उठती हूँ।"
"तुम रहने दो, अपना प्रोजेक्ट पूरा करो। आज लंच मैं बना लेता हूँ।" कहते हुए अखिलेश फ्रीज में से सब्जी निकालने लगे।
ईमेल करने के बाद राहत महसूस करते हुए कुर्सी पर सिर टिकाए पूना वाले अगले क्लाइंट के लिए एस्टीमेट बनाने लगी। तभी ‌कुकर की सीटी बजी। नजर रसोई में सब्जी काटने में व्यस्त अखिलेश पर जाकर टिक गई।
माँ के जाने के बाद अखिलेश में कई बदलाव देखने को मिल रहे हैं। अब मेरे देर तक बाहर काम करने पर ऐतराज नहीं जताते। बात-बात में टोकने की आदत खत्म हो गई है। पहले इन्हीं सब बातों को लेकर पहले घर में जाने कितनी बार तनातनी और बहसें हुई हैं।
माँ की आँखों से उमड़ते आँसूवाली छवि जेहन में तैर आई। हम पति-पत्नी की लड़ाईयों से माँ बेचारी हमेशा दुखी रहती थीं। माँ को तो बेटे का सुखी गृहस्थ जीवन देखना भी नसीब नहीं हुआ था। चैन से बेचारी ने कभी एक रोटी न खाईं। मैं, न तो ऑफिस में पूरी पड़ती, न ही घर में। दस घंटे की नौकरी और ये गृहस्थी। दोनों को अकेले सम्भालना। माँ और अखिलेश, दोनों की अपनी-अपनी जरूरतें, पूरा करने वाली अकेली मैं।
कभी-कभी सोचती थी कि कह दूँ - "माँ! आपको नौकरी वाली बहू नहीं लाना चाहिए था। किसी कम पढ़ी-लिखी को ब्याह लातीं जो सुबह से रात तक आप दोनों माँ- बेटे की तीमारदारी में लगी रहती।"
लेकिन कभी कहा नहीं, उनका इसमें दोष भी नहीं था। माँ बहुत ही अच्छी थीं। भले वह घर के किसी काम में मदद नहीं करती थीं, कभी मुझे परेशान करने की उनकी मंशा भी नहीं रही। जो जैसा मैंने थाली में परस दिया, बेचारी खुशी-खुशी खा लेती थीं।
अखिलेश ही थे जो माँ की थाली में ताक-झाँक करते रहते थे और लड़ाई के लिए कोई न कोई विषय ढूंढ लेते थे, रोटी के साथ सलाद क्यों नहीं रखा, माँ की थाली में दही नहीं परोसा, माँ भिंडी नहीं खाती, माँ के लिए तुरई और लौकी की सब्जी रोज बनाया करो।
कपड़े धोने से लेकर प्रेस करने तक की जिम्मेदारी मेरी थी। मेरी नौकरी इस घर की जरूरत नहीं थी, वह मेरी अपनी महत्वाकांक्षा थी। इसलिए झेलना मुझे ही था। यह अकेली मेरी समस्या थी। अकेले घर-बाहर सामंजस्य स्थापित करते हुए मेरा बुरा हाल हो रहा था। उस दिन सुबह अचानक माँ को सोते में ही अटैक आया और सदा के लिए सो गई। उनके जाने से घर में एक बहुत बड़ा सन्नाटा पसर गया था।
अखिलेश, मैं और लम्बी चुप्पी। लगा जैसे माँ के हाथों में ही हम सबकी जीवन डोर थी। बिना इशारे के ही हम दोनों कठपुतली बनकर उनके लिए नाच रहे थे। माँ को गए करीब तीन माह बीत चुके हैं। रसोई की परिधि में जहाँ सिर्फ मैं हुआ करती थी अब उसमें अखिलेश भी शामिल हो गए हैं। अखिलेश का घर जल्दी लौटने पर हमारे लिए डिनर तैयार करके रख लेना, सुबह वॉशिंग मशीन चलाना और अपने कपड़ों के साथ मेरे कपड़े भी धो देना। घर के कामों में मदद करना, मन में मीठी लहर भरता था पर कौतूहल भी जगाता था।
आज मैंने कहा- जानते हैं, जैसे अब आप हैं, हमेशा से मैंने ऐसे ही पति की परिकल्पना की थी, मेरे सपनों के राजकुमार। मेरी हर बात में मेरे साथ ऐसे ही खड़े होने वाले।"
उन्होंने मेरी तरफ देखा और करीब आकर रूमानियत से पूछा,"और क्या-क्या सोचा था?"
इस अनोखी अदा पर मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा। शर्मा कर झट् नजरें उन पर से हटाने की कोशिश की। हठात् दीवार पर सुनहरे फ्रेम में जड़ी माँ की तस्वीर देखने लगी।
"माँ के सामने कितने झगड़े हुए हमारे। जैसे हम आज प्यार से रहते हैं, वैसे ही माँ के होने पर रहते तो वे बहुत खुश होती न?"
सुन कर अखिलेश गम्भीर हो गए और माँ की तस्वीर के पास जाकर खड़े हो गए।
मैंने फिर से कहा : "काश, माँ हमारी खुशियों में शामिल हो पाती। हम दोनों में सामंजस्य देखकर वे कितनी खुश होती। क्या माँ के सामने आप इस तरह से क्यों नहीं रहते थे?"
"नहीं रह सकता था।"
"क्यों नहीं रह सकते थे?"
"क्योंकि मुझे माँ की नजरों में 'जोरू का गुलाम' नहीं बनना था।"
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२८ मार्च २०२०, २२.५०

लघुकथा: मनोरम पत्नी - अरुण भटनागर

लघुकथा
मनोरम पत्नी
अरुण भटनागर
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चैत्र नवरात्रि के व्रत चल रहे हैं, नित्य सुबह-शाम मां दुर्गा की आराधना कवच ‌और अर्गला स्त्रोत के पाठ से पूर्ण होती है। कल रात्रि ,मैं करीब ११ बजे सोया और गहन‌ निद्रा में चला गया। स्वप्न में देखा कि माँ दुर्गा साक्षात प्रगट हो गयी हैं और उनका प्रकाश चारों ओर फैला हुआ है। माँ मुझे देखकर प्रेम और करुणा भरी मुद्रा में मन्द मन्द मुस्करा रही हैं।

मैंने प्रणामकर पूछा : "माँ! मेरी चेतना, मूलाधार चक्र से उठकर अनाहत चक्र तक तो‌ आ गयी है तो फिर विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र आदि को भेदकर सहस्त्रार चक्र में पहुँचने का पथ क्यों सुगम्य नहीं कर रहीं हैं? मुझे मुक्त मन क्यों नहीं बना देती हो? मैं आपके 'अर्गला स्त्रोत' का पाठ नित्य करता हूँ फिर भी मुझे रूप, विजय और यश क्यों नहीं मिलता? काम, क्रोध,मद,मोह आदि शत्रुओं का नाश क्यों नहीं होता है। मैं क्या प्रार्थनाकरूँ कि आप प्रसन्न हो जायें एवं मुझे अभीष्ट सिद्धि प्रदान करें।"

माँ ने कहा : "पुत्र! तू मुझसे अपने मन की इच्छा के अनुसार चलनेवाली मनोहर पत्नी प्रदान करने की प्रार्थना करता है- "पत्नी मनोरमाम देहि मनोवृत्तानुसारिणीं" मैं वैसा ही वरदान‌ तुझे दे देती हूँ। जिस दिन तू तू मुझसे यह प्रार्थना करेगा कि मुझे ऐसी मनोरम पत्नी प्रदान करो जिसके समक्ष आते ही मेरी समस्त मनोवृत्तियाँ शान्त हो जायें, उसी दिन तू मुक्त हो जायेगा और इस संसार में ही मोक्ष प्राप्त कर लेगा।"
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लघुकथा : कारण -अरुण भटनागर

लघुकथा :
कारण
अभियंता अरुण भटनागर, जबलपुर
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रजनीश एक प्रायवेट इंजीनियरिंग कॉलेज का छात्र था। वह अपने घर से कालेज जा रहा था, अचानक ट्रेफिक जाम हो गया। उस भीड़ में उसने अपने सामने स्कूटी पर एक सरल लड़की को देखा जो सहज भाव से मुस्कुरा कर बार बार पीछे मुड़कर सबको देखती जा रही थी और स्कूटी भी चलाती जा रही थी।

भीड़ छटी तो उस लड़की ने अपनी स्कूटी की गति कुछ तेज कर दी पर बार बार पीछे मुड़कर सबको मुस्कराकर देखने का उसका सिलसिला टूट ही‌ नहीं रहा था। रजनीश को उसकी मुस्कराहट में कुछ खिंचाव सा लगा तो उसने जब उसकी गाड़ी उस लड़की की स्कूटी के बिल्कुल करीब पहुंची तो परिचय बढ़ाने का साहस किया और कुछ पूछा।

लड़की ने कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, बार बार पीछे पलटकर मुस्कराकर देखने के सिवा और सम्मान्य रूप से अपनी स्कूटी चलाती रही। रजनीश को लगा वह कुछ कहना चाह रही है पर कुछ कह नहीं पा रही है। रजनीश उसके पीछे-पीछे हो लिया, लड़की का पलट-पलटकर मुस्कराकर देखने का क्रम जारी था।

करीब तीन किलोमीटर जाने के बाद लड़की मुस्करा कर एक गेट के भीतर घुस गयी। रजनीश ने गेट पर लगे बोर्ड को ध्यान से पढ़ा। उस पर बड़े बड़े अक्षरों में अंध, मूक, बधिर स्कूल लिखा हुआ था।रजनीश वापिस लौट पड़ा, उसे ज्ञात हो गया था लड़की के असामान्य आचरण का कारण।
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लघु कथा : उफ़ यह फैशन - प्रीति मिश्रा

लघुकथा
उफ़ यह फैशन
प्रीति मिश्रा, जबलपुर
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हमारे पड़ोस में एक आंटी रहती हैं वह आज की फैशन के युग में नए-नए बच्चों को देखकर उनकी नकल करके कपड़े पहनती रहती हैं सलवार सूट इवनिंग गाउन। एक दिन बड़ा मजेदार किस्सा हुआ मेरे बच्चे स्कूल गए और पति ऑफिस गए, थक हार कर सोचा कि एक कप चाय पीकर आराम से बैठती हूँ। तभी हल्ला मचा, बाहर देखा तो अंकल जी की तबीयत खराब थी और उनके दोस्त उनको डॉक्टर के यहाँ लेकर जा रहे थे। बिचारी आंटी भी रो रही थी फिर किसी तरह माहौल शांत हुआ और थोड़ी देर बाद देखा कि आंटी अपनी बाई पर चिल्ला रही थीं "अरे कहाँ मर गई? मेरे सर पर मेहंदी तो डाल दे, बाल कितने सफेद हो गए हैं। तेरे अंकल की तबीयत बहुत खराब है, कहीं उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा तो मैं पके बाल लेकर हॉस्पिटल जाऊंगी क्या? डॉक्टर और नर्स क्या बोलेंगे?"
शाम को अंकल आ गए और उनकी हालत ठीक थी। उनका ब्लड प्रेशर बढ़ा था और उन्हें गैस के कारण दर्द था। अंकल को ठीक देखकर आंटी हक्की-बक्की रह गई और बोलीं- "तुम्हारे चक्कर में मैंने कितनी तैयारी कर ली और आज सुबह से मेरा कोई काम भी नहीं हो पाया" । हम दंग रह गए‌ ,समझ नहीं आ रहा था कि अंकल की तबीयत पूछें या आंटी को देखें। "उफ़ यह फैशन और इस फैशन की मारी महिलाएं"।
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विमर्श : लघुकथा

विमर्श :
लघुकथा
पवन जैन, जबलपुर
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सामान्यतः कुछ रचनाकार एक छोटी रचना को लघुकथा मानते हैं, जबकि हर छोटी रचना लघुकथा नहीं होती है। लघुकथा गद्य साहित्य की लोकप्रिय एवं प्रतिष्ठित विधा है।इस संबंध में डाॅ अशोक भाटिया के आलेख लघुकथा: लघुता में प्रभुता के कुछ अंश प्रस्तुत हैं :

लघुकथा कथा परिवार की सबसे छोटी इकाई है।लघुकथा का आकार उसके विषय की जरूरत के हिसाब से तय होता है। लघुकथा में आमतौर पर यथार्थ के किसी एक पल, एक स्थिति, एक सूक्ष्म पहलू को लेकर रचना में ढाला जाता है, इसलिए उसका स्वरूप संरचना भी उसी प्रकार बनती है। घटनाओं, स्थितियों, पात्रों की संख्या लघुकथा में आमतौर पर अधिक नहीं होती।
विष्णु प्रभाकर ने कहा है: "लघुकथा मानव -जीवन के यथार्थ के किसी पक्ष की, छोटे आकार में कही कथा-रचना है।"
लघुकथा ने दृष्टांत, रूपक, लोक कथा, बोध कथा, नीति कथा, व्यंग्य, चुटकुले , संस्मरण जैसी अनेक मंजिलें पार करते हुए वर्तमान रूप पाया है। वह अब किसी तत्व को समझाने, उपदेश देने, स्तब्ध करने, गुदगुदाने और चौंकाने का काम नहीं करती, बल्कि आज के यथार्थ से जुड़ कर हमारे चिंतन को धार देती है।

भगीरथ परिहार ने कहा है "घटना या सत्य कथा लघुकथा नहीं है, सुने सुनाए किस्से और संस्मरण भी लघुकथा नहीं है। लघुकथा एक लघु विधा है लेकिन इसके लिए इतनी ही घनीभूत एकाग्र, जीवंत तथा गहरी संवेदना की आवश्यकता है।"

बलराम अग्रवाल ने परिंदों के दरमियां मे बताया है किः "लघुकथा में 'क्षण' सिर्फ समय की इकाई को ही नहीं कहते, संवेदना की एकान्विति को भी 'क्षण' कहते हैं। उस एकान्विति को आप यों समझ लीजिए कि पात्र को उसकी तत्समय की चिंता से, भावभूमि से दूसरी चिंता में, दूसरी भावभूमि में प्रविष्ट नहीं करना चाहिए।"

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लघुकथा - सन्नाटा डॉ अरविंद श्रीवास्तव


लघुकथा कार्यशाला: 
प्रविष्टि १ 
लघुकथा -
सन्नाटा
डॉ. अरविंद श्रीवास्तव, दतिया
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घर के आँगन में चहल-पहल थी, दीवारें मुस्कुरा रही थीं, खिड़कियों ने नए वस्त्र पहन लिए थे, रसोई घर से पकवानों की खुशबू दूर-दूर तक फैल रही थी। आज गाँव का सबसे होनहार युवा आलोक वर्मा अपनी नौकरी से एक माह की छुट्टी पर विदेश से अपने घर लौट रहा था। घर में माता-पिता दादा-दादी बा छोटी बहन की खुशियाँ उनके चेहरों पर साफ झलक रही थी। इस खुशी के अवसर पर आलोक के गाँव के मित्र व कुछ अन्य बुजुर्ग भी आलोक के घर पर एकत्रित हो चुके थे। तभी एक कार 'वर्मा सदन' के सामने आकर रूकती है। आलोक कार की खिड़की से ही सभी का अभिवादन करता है। वह सभी से दूरी बनाए रखना चाहता है। 
माँ को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है।वह आगे बढ़कर आलोक से कहती है-" बेटा!, तुम कितने दिनों बाद लौटे हो? अपने बुजुर्गों के चरण छूकर उनका आशीर्वाद लो।" आलोक माँ को समझाते हुए कहता है-"माँ, मुझे १४ दिन तक सबसे दूरी बनाकर रखना है ;मुझे ऐसा निर्देश मिला है। उसके बाद मै सब से मिलकर आशीर्वाद ले लूँगा।" माँ कहती है," बेटा! चिंता मत कर। मैंने तुझे स्वामी जी का लॉकेट पहन रखा है, कुछ नहीं होगा, जल्दी से बाहर आ जा। 
विवश होकर आलोक सभी से मिलता है और चार-पाँच दिन के पश्चात गाँव में एक नई समस्या शुरू हो जाती है। अधिकांश लोग सूखी खाँसी, नाक बहने और बुखार से पीड़ित हो जाते हैं । आलोक के परिवार के सभी सदस्यों की हालत इतनी खराब हो जाती है कि उन्हें शहर के अस्पताल में जाँच के बाद आइसोलेशन (एकांत) में पहुँचाया जाता है। वे सभी कोरोनावायरस के शिकार हो चुके थे आलोक के खिलाफ पुलिस केस दर्ज होता है। हँसते -खेलते परिवार तथा उस गाँव में खौफनाक सन्नाटा छा जाता है
संपर्क - १५० छोटा बाजार, दतिया (म•प्र •) चलभाष ९४२५७२६९०७

समीक्षा यह ‘काल है संक्रांति का’ - राजेंद्र वर्मा

समीक्षा
यह ‘काल है संक्रांति का’
- राजेंद्र वर्मा

गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजनरत और हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने खड़ी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरियाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। अपनी बुआश्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा-प्रेम की प्रेरणा माननेवाले ‘सलिल’ जी आभासी दुनिया में भी वे अपनी सतत और गंभीर उपस्थिति से हिंदी के साहित्यिक पाठकों को लाभान्वित करते रहे हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता और उसके व्याकरण पर भी उन्होंने अपेक्षित प्रकाश डाला है। रस-छंद- अलंकारों पर उनका विशद ज्ञान लेखों के माध्यम से हिंदी संसार को लाभान्वित करता रहा है। वस्तु की दृष्टि से शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी लेखनी से अछूता रहा हो- भले ही वह गीत हो, कविता हो अथवा लेख! नवीन विषयों पर पकड़ के साथ-साथ उनकी रचनाओं में विशद जीवनानुभव बोलता-बतियाता है और पाठकों-श्रोताओं में संजीवनी भरता है। 
‘काल है संक्रांति का’ संजीव जी का नवीनतम गीत-संग्रह है जिसमें ६५ गीत-नवगीत हैं। जनवरी २०१४ से मार्च २०१६ के मध्य रचे गये ये गीत शिल्प और विषय, दोनों में बेजोड़ हैं। संग्रह में लोकगीत, सोहर, हरगीतिका, आल्हा, दोहा, दोहा-सोरठा मिश्रित, सार आदि नए-पुराने छंदों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति में सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर शिल्प और वास्तु में अधिकाधिक सामंजस्य बिठाकर यथार्थवादी भूमि पर रचनाकार ने आस-पास घटित हो रहे अघट को कभी सपाट, तो कभी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। विसंगतियों के विश्लेषण और वर्णित समस्या का समाधान प्रस्तुत करते अधिकांश गीत टटकी भाव-भंगिमा दर्शाते हैं। बिम्ब-प्रतीक, भाषा और टेक्नीक के स्तरों पर नवता का संचार करते हैं। इनमें ऐंद्रिक भाव भी हैं, पर रचनाकार तटस्थ भाव से चराचर जगत को सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम् के वैचारिक पुष्पों से सजाता है।
शीर्षक गीत, ‘काल है संक्रांति का’ में मानवीय मूल्यों और प्राची के परिवेश से च्युत हो रहे समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से नवगीतकार, सूरज के माध्यम से उद्बोधन देता है। यह सूरज आसमान में निकलने वाला सूरज ही नहीं, वह शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों के पुरोधा भी हो सकते हैं जिन पर दिग्दर्शन का उत्तरदायित्व है—
काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज!
दक्षिणायन की हवाएँ / कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी / काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती / फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश / से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रांति को / तुम मत रुको सूरज!
.......
प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग
कौन, किसको सम्हाले / पी रखी मद की भंग
शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग
मनुज-करनी देखकर है / ख़ुद नियति भी दंग
तिमिर को लड़, जीतना / तुम मत चुको सूरज! (पृ.१६)

एक अन्य गीत, ‘संक्रांति काल है’ में रचनाकार व्यंग्य को हथियार बनाता है। सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों से अब किसी भले काम की आशा ही नहीं रही, अतः गीतकार वक्रोक्ति का सहारा लेता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखे रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर / राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो / जगो, उठो!
अथवा,
सूरज को ढाँके बादल / सीमा पर सैनिक घायल
नाग-साँप फिर साथ हुए / गुँजा रहे बंसी-मादल
झट छिपा माल दो / जगो, उठो!

गीतकार सत्ताधीशों की ही खबर नहीं लेता, वह हममें-आपमें बैठे चिन्तक-सर्जक पर भी व्यंग्य करता है; क्योंकि आज सत्ता और सर्जना में दुरभिसंधि की उपस्थिति किसी से छिपी नहीं हैं--
नवता भरकर गीतों में / जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि, तू भी / जी ले आज अतीतों में
मत खींच खाल दो / जगो, उठो! (पृ.२०)

शिक्षा जीवन की रीढ़ है। इसके बिना आदमी पंगु है, दुर्बल है और आसानी से ठगा जाता है। गीतकार ने सूरज (जो प्रकाश देने का कार्य करता है) को पढने का आह्वान किया है, क्योंकि जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलता है, तब तक किसी भी प्रकार के विकास या उन्नयन की बात निरर्थक है। सन्देश रचने और अभिव्यक्त करने में रचनाकार का प्रयोग अद्भुत है—
सूरज बबुआ! / चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी / सुनकर मस्ती ख़ूब करी।
बहिन उषा को गिरा दिया / तो पिता गगन से डाँट पड़ी।
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लायी बस्ता-फूल।
......
चिड़िया साथ फुदकती जाती / कोयल से शिशु गीत सुनो।
‘इकनी एक’ सिखाता तोता / ’अ’ अनार का याद रखो।
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लडुआ
खा, पर सबक़ न भूल। (पृ.३५)

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षोल्लास लाता है और मानव को मानवता के पक्ष में कुछ संकल्प लेने का अवसर भी, पर हममें से अधिकांश की अन्यमनस्कता इस अवसर का लाभ नहीं उठा पाती। ‘सलिल’ जी दार्शनिक भाव से रचना प्रस्तुत करते हैं जो पाठक पर अन्दर-ही- अन्दर आंदोलित करती चलती है—
नये साल को/आना है तो आएगा ही।
करो नमस्ते या मुँह फेरो।
सुख में भूलो, दुख में टेरो।
अपने सुर में गायेगा ही/नये साल...।
एक-दूसरे को ही मारो।
या फिर, गले लगा मुस्काओ।
दर्पण छवि दिखलायेगा ही/नये साल...।
चाह, न मिटना, तो ख़ुद सुधरो।
या कोसो जिस-तिस को ससुरो!
अपना राग सुनायेगा ही/नये साल...। (पृ.४७)

विषयवस्तु में विविधता और उसकी प्रस्तुति में नवीनता तो है ही, उनके शिल्प में, विशेषतः छंदों को लेकर रचनाकार ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं, जो रेखांकित किये जाने योग्य हैं। कुछ उद्धरण देखिए—
सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
सब मिल कविता करिये होय!
कौन किसी का प्यारा होय!
स्वार्थ सभी का न्यारा होय!
जनता का रखवाला होय!
नेता तभी दुलारा होय!
झूठी लड़ै लड़ाई होय!
भीतर करें मिताई होय!
.....
हिंदी मैया निरभै होय!
भारत माता की जै होय! (पृ.४९)

उपर्युक्त रचना पंजाब में लोहड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ़ दुल्ला भट्टी को याद कर गाये जानेवाले लोकगीत की तर्ज़ पर है। इसी प्रकार निम्नलिखित रचना बुन्देली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों (पद भार१६/१२) पर आधारित है। दोनों ही गीतों की वस्तु में युगबोध उमगता हुआ दिखता है—
मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमको गुइयाँ!
हमखों बिसरत नहीं बिसारे / अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, विसाल भीर जयकारा / सुविधा संसद न्यारी
मिल जाती, मन की कै लेते / रिश्वत ले-दे भइया!
......
कौनउ सगो हमारो नैयाँ / का काऊ से काने?
अपने दस पीढ़ी खें लाने / हमें जोड़ रख जानें।
बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम-रमैया! (पृ.५१)

इसी छंद में एक गीत है, ‘जब लौं आग’, जिसमें कवि ने लोक की भाषा में सुन्दर उद्बोधन दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें—
जब लौं आग न बरिहै, तब लौं / ना मिटिहै अन्धेरा!
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें / बन सूरज पगफेरा।
......
गोड़-तोड़ हम फ़सल उगा रए / लूट रए व्यापारी।
जन के धन से तनखा पा खें / रौंद रए अधिकारी।
जागो, बनो मसाल / नई तो / घेरे तुमै / अँधेरा! (पृ.६४)

गीत ‘सच की अरथी’ (पृ.55) दोहा छंद में है, तो अगले गीत, ‘दर्पण का दिल’ का मुखड़ा दोहे छंद में है और उसके अंतरे सोरठे में हैं, तथापि गीत के ठाठ में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ अंश देखिए—
दर्पण का दिल देखता, कहिए, जब में कौन?
आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।
करता नहीं ख़याल, नयन कौन-सा फड़कता!
सबकी नज़र उतारता, लेकर राई-नौन! (पृ.५७)

छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे-छोटे अंतरों के गीत ‘हरगीतिका’ में होने के कारण पाठक का ध्यान खींचते हैं। एक रचनांश का आनंद लीजिए—
करना सदा, वह जो सही।
........
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
रहना सदा, वह जो सही। (पृ.६२)

सत्ता में बैठे छद्म समाजवादी और घोटालेबाजों की कमी नहीं है। गीतकार ने ऐसे लोगों पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ी है—
बग्घी बैठा / बन सामंती समाजवादी।
हिन्दू-मुस्लिम की लड़वाये
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाये
आँसू, सिसकी, चीखें, नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर / उढ़ा रहा है समाजवादी! (पृ.७६)

देश में तमाम तरक्क़ी के बावजूद दिहाड़ी मज़दूरों की हालत ज्यों-की- त्यों है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसके संगठितहोने की चर्चा भी नहीं होती, परिणाम यह कि मजदूर को जब शाम को दिहाड़ी मिलती है, वह खाने-पीने के सामान और जीवन के राग को संभालने-सहेजने के उपक्रमों को को जुटाने बाज़ार दौड़ता है। ‘सलिल’ जी ने इस क्षण को बखूबी पकड़ा है और उसे नवगीत में सफलतापूर्वक ढाल दिया है—
मिली दिहाड़ी / चल बाज़ार।
चावल-दाल किलो-भर ले ले / दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर-भर / धनिया- मिर्चा ताज़ी
तेल पाव-भर फल्ली का / सिन्दूर एक पुड़िया दे-
दे अमरूद पाँच का / बेटी की न सहूँ नाराजी
ख़ाली ज़ेब, पसीना चूता / अब मत रुक रे! / मन बेज़ार! (पृ.८१)

आर्थिक विकास, सामाजिक विसंगतियों का जन्मदाता है। समस्या यह भी है कि हमारे अपनों ने अपने चरित्र में भी संकीर्णता भर ली है। ऐसे हम चाहते भी कुछ नहीं कर पाते और उच्छवास ले-ले रह जाते हैं। ऐसी ही व्यथा का चित्रांकन एक गीत, ‘राम बचाये’ में द्रष्टव्य है। इसके दो बंद देखें—
अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,
राम बचाये!
वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय / कुछ तो कहते हैं!
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?
राम-रहीम बीनते कूड़ा / रजिया-रधिया झाडू थामे
सड़क किनारे, बैठे लोटे बतलाते / कितने विपन्न हम,
राम बचाये!
अमराई पर चौपालों ने / फेंका क्यों तेज़ाब, पूछिए!
पनघट ने खलिहानों को क्यों / नाहक़ भेजा जेल बूझिए।
सास-बहू, भौजाई-ननदी / क्यों माँ-बेटी सखी न होती?
बेटी-बेटे में अंतर कर / मन से रहते सदा खिन्न हम,
राम बचाये! (पृ.९४)

इसी क्रम में एक गीत, ख़ुशियों की मछली’ उल्लेखनीय है जिसमें समाज और सत्ता का गँठजोड़ आम आदमी को जीने नहीं दे रहा है। गीत की बुनावट में युगीन यथार्थ के साथ दार्शनिकता का पुट भी है—
ख़ुशियों की मछली को / चिंता का बगुला/खा जाता है।
श्वासों की नदिया में / आसों की लहरें
कूद रही हिरनी-सी / पल भर ना ठहरें
आँख मूँद मगन / उपवासी साधक / ठग जाता है।
....
श्वेत वसन नेता है / लेकिन मन काला
अंधे न्यायालय ने / सच झुठला डाला
निरपराध फँस जाता / अपराधी शातिर बच जाता है।। (पृ.९८)

गीत, ‘लोकतंत्र’ का पंछी’ में भी आम आदमी की व्यथा का यथार्थ चित्रांकन है। सत्ता-व्यवस्था के दो प्रमुख अंग- विधायिका और न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं और जनमत की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही ध्वस्त होती जा रही है—
लोकतंत्र का पंछी बेबस!
नेता पहले डालें दाना / फिर लेते पर नोच
अफ़सर रिश्वत-गोली मारें / करें न किंचित सोच
व्यापारी दे नाश रहा डँस!
.......
राजनीति नफ़रत की मारी / लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूंगा खो दी / निज निर्णय की लोच
एकलव्य का कहीं न वारिस! (पृ.१००)

प्रकृति के उपादानों को लेकर मानवीय कार्य-व्यापार की रचना विश्वव्यापक होती है, विशेषतः जब उसमें चित्रण-भर न हो, बल्कि उसमें मार्मिकता, और संवेदनापूरित जीवन्तता हो। ‘खों-खों करते’ ऐसा ही गीत है जिसमें शीत ऋतु में एक परिवार की दिनचर्या का जीवन्त चित्र है—
खों-खों करते बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी।
आसमान का आँगन चौड़ा / चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे / बदरी दादी, ‘रुको’ पुकारे
पछुआ अम्मा बड़-बड़ करती / डाँट लगाती तगड़ी!
धरती बहिना राह हेरती / दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम / रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत / न आये घर में / खोल न खिड़की अगड़ी!
सूर बनाता सबको कोहरा / ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक़ ही / फ़सल लायगी राहत को ही
हँसकर खेलें / चुन्ना-मुन्ना / मिल चीटी-ढप- लँगड़ी! (पृ.१०३)

इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कवि-धर्म नहीं भूलता। नकारात्मकता को विस्मृत कर वह आशा की फ़सल बोने और नये इतिहास लिखने का पक्षधर है—
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता, सो बीता
अब न आस-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता,
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम।
आज नया इतिहास लिखें हम।।
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
स्नेह-स्वेद- श्रम हों अराध्य अब
कोशिश होगी महज माध्य अब
श्रम-पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम।। (पृ.१२२)

रचनाकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा तुकांत के मामले में, अकारांत शब्दों का तुक इकारांत या उकारांत शब्दों से (उलट स्थिति भी)। इसी प्रकार, उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- गुइयाँ / भइया (पृ.५१), प्रसन्न / खिन्न (पृ.९४) सिगड़ी / तगड़ी / लंगड़ी (पृ.१०३)। एकाध स्थलों पर भाषा की त्रुटि भी दिखायी पड़ी है, जैसे- पृष्ठ १२७ पर एक गीत में‘दम’ शब्द को स्त्रीलिंग मानकर ‘अपनी’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।
गीतकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। अधिकांश गीतों में लोक का पुट दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आज हम गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना करने में अधिक लगे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि उनमें मार्मिकता और अपेक्षित संवेदना का स्तर नहीं आ पाता है। भोथरी संवेदनावाली कविता से हमें रोमावलि नहीं हो सकती, जबकि आज उसकी आवश्यकता है। ‘सलिल’ जी ने इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है जिसका हिंदी नवगीत संसार द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।
वर्तमान संग्रह निःसंदेह नवगीत के प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है और आने वाले समय में उसका स्थान इतिहास में अवश्य लिया जाएगा, यह मेरा विश्वास है।... लोक की शक्ति को सोद्देश्य नवगीतों में ढालने हेतु ‘सलिल’ जी साधुवाद के पात्र है।
- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)
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[कृति विवरण- पुस्तक का नाम- काल है संक्रांति का (नवगीत-संग्रह); नवगीतकार- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर- ४८२००१ संस्करण- प्रथम, २०१६; पृष्ठ संख्या- १२८, मूल्य- पुस्तकालय संस्करण: तीन सौ रुपये; जनसंस्करण: दो सौ रुपये।]
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